क्या है जप साधना और मंत्र जाप करने की विधि? वाणी के कितने चरण होते हैं?क्या है पूर्णांक 108 का र
मनोमय कोश की स्थिरता एवं एकाग्रता के लिये जप का साधन बड़ा ही उपयोगी है। इसकी उपयोगिता निर्विवाद है कि सभी धर्म, मजहब, सम्प्रदाय, माला की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं। जप करने से मन की प्रवृत्तियों को एक ही हेतु में लगा देना सरल हो जाता है। कहते हैं कि एक बार एक मनुष्य ने किसी भूत को सिद्ध कर लिया। भूत बड़ा बलवान था उसने कहा मैं तुम्हारे वश में आ गया, ठीक है, जो आज्ञा मिलेगी सो करूंगा, पर मुझ से बेकार नहीं बैठा जाता। यदि मैं बेकार रहा तो आप को ही खा जाऊंगा। यह मेरी शर्त अच्छी तरह समझ लीजिये। उस आदमी ने भूत को बहुत से काम बताये उसने थोड़ी-थोड़ी देर में सब काम कर दिये। भूत की बेकारी से उत्पन्न होने वाला संकट उस सिद्ध को बेतरह परेशान कर रहा था। तब वह दुखी होकर अपने गुरु के पास गया। गुरु ने उस सिद्ध को बताया कि आंगन में एक श्वांस गाढ़ दिया जाय और भूत से कह दिया जाय कि जब तक दूसरा काम न बताया जाया करे तब तक उस बांस पर बार-बार चढ़ें और बारबार उतरे। यह काम मिल जाने पर भूत से काम लेते रहने की भी सुविधा हो गई और सिद्ध के आगे उपस्थित रहने वाला संकट हट गया। मन ऐसा ही भूत है जो जब भी निरर्थक बैठता है तभी कुछ न कुछ खुराफात करता है। इसलिए यह जब भी काम से छुट्टी पावें तभी इसे जप पर लगा देना चाहिए। जप केवल समय काटने के लिए ही नहीं है वरन् वह एक बड़ा ही उत्पादक एवं निर्माणात्मक मनोवैज्ञानिक श्रम है। निरन्तर पुनरावृत्ति करते रहने से मन में उस प्रकार का अभ्यास एवं संस्कार बन जाता है जिससे वह स्वभावतः उसी ओर चलने लगता है। पत्थर बार-बार रस्सी की रगड़ लगने से उसमें गड्ढा पड़ जाता है। पिंजड़े में रहने वाला कबूतर, बाहर निकाल देने पर भी लौटकर उसी में वापिस आ जाता है। गाय को जंगल में छोड़ दिया जाय तो भी वह रात को स्वयंमेव लौट आती है। निरन्तर के अभ्यास से मन भी ऐसा अभ्यस्त हो जाता है कि अपने दीर्घ काल तक सेवन किये गये कार्यक्रम में अनायास ही प्रवृत्त हो जाता है। अनेक निरर्थक कल्पना प्रपंचों में उछलते-कूदते फिरने की अपेक्षा आध्यात्मिक भावना की एक सीमित परिधि में भ्रमण करने के लिए जप की प्रक्रिया बड़ी ही उत्तम है। दीर्घ काल तक निरन्तर जप का अभ्यास करने से मन एक ही दिशा में प्रवृत्त रहने लगता है। आत्मिक क्षेत्र में मन का लगा रहना उस दिशा में एक दिन पूर्ण सफलता प्राप्त होने का सुनिश्चित लक्षण है। मन रूपी भूत बड़ा बलवान है। यह सांसारिक कार्यों को भी बड़ी सफलता पूर्वक करता है और जब आत्मिक क्षेत्र में जुट जाता है तो भगवान के सिंहासन को हिला देने में भी नहीं चूकता मन की उत्पादक, रचनात्मक एवं प्रेरक शक्ति इतनी विलक्षण है कि उसके लिए संसार की कोई वस्तु असम्भव नहीं। भगवान को प्राप्त करना भी उसके लिए बिलकुल सरल है। कठिनाई केवल एक नियत क्षेत्र में जमने की ही है सो जप के व्यवस्थित विधान से वह भी दूर हो जाती है। हमारा मन कैसा ही उच्छृंखल क्यों न हो पर जब उसको बार-बार किसी भावना पर केन्द्रित किया जाता रहेगा तो कोई कारण नहीं कि कालान्तर से वह उसी प्रकार का न बनने लगे। लगातार प्रयत्न करने से सरकस में खेल दिखाने वाले बन्दर, सिंह, बाघ, रीछ जैसे उद्दण्ड जानवर मालिक की मर्जी का काम करने लगते हैं, उसके इशारे पर नाचते हैं, तो कोई कारण नहीं कि चंचल और कुमार्गगामी मन को वश में करके इच्छानुवर्ती न बनाया जा सके। पहलवान लोग नित्य प्रति अपनी नियत मर्यादा में, गिनती में, डंड बैठक आदि करते हैं उनकी इस क्रिया पद्धति से उनका शरीर दिन-दिन हृष्ट-पुष्ट होता जाता है और एक दिन वे अच्छे बलवान बन जाते हैं। नित्य का जप एक आध्यात्मिक व्यायाम है। जिससे आत्मिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ सूक्ष्म शरीर को पहलवान बनाने में, महत्वपूर्ण सहायता मिलती है। एक एक बूंद जमा करने से घड़ा भर जाता है चींटी एक एक दाना ले जाकर अपने बिलों में बनो अनाज जमा लेती है। एक एक अक्षर पढ़ने से थोड़े दिनों में विद्वान बना जा सकता है। एक एक कदम चलने से लम्बी मंजिलें पार हो जाती हैं, एक एक पैसा जोड़ने से खजाने जमा हो जाते हैं, एक एक तिनका मिलने से मजबूत रस्सी बन जाती है, जप में भी यही होता है। माला का एक एक दाना फेरने से बहुत कुछ जमा हो जाता है, और इतना जमा हो जाता है कि उससे आत्मा का कल्याण हो जाता है इसीलिए योग ग्रन्थों में जप को यज्ञ बताया गया है। उसकी बड़ी महिमा गाई है और आत्म मार्ग पर चलने की इच्छा करने वाले पथिकों के लिए जप करने का कर्तव्य आवश्यक रूप से निर्धारित किया गया है। गीता के अध्याय 10 श्लोक 25 में कहा गया है कि ‘‘यज्ञो में जप यज्ञ श्रेष्ठ है।’’ मनुस्मृति में अध्याय 2 श्लोक 86 में बताया गया कि ‘‘होम’’ बलिकर्म, श्राद्ध, अतिथि सेवा, पाक यज्ञ, विधि-यज्ञ, दशपौर्णमासादि यज्ञ सब मिल कर भी जप यज्ञ के सोलहवें भाग के बराबर भी नहीं होते।’’ महर्षि भारद्वाज ने गायत्री व्याख्या में कहा है कि ‘‘समस्त यज्ञों में जप यज्ञ अधिक श्रेष्ठ है। अन्य यज्ञों में हिंसा होती है पर जप यज्ञ में नहीं है। जितने कर्म, यज्ञ, दान, तप हैं सब जप यज्ञ की सोलहवीं कला के समान भी नहीं होते। समस्त पुण्य साधनों में जप यज्ञ सर्व श्रेष्ठ हैं।’’ इस प्रकार के अगणित प्रमाण शास्त्रों में उपलब्ध हैं। इन शास्त्र वचनों में जप यज्ञ की उपयोगिता एवं महत्ता का बहुत जोर प्रतिपादन किया गया है। कारण यह है कि जप मन को वश में करने का रामवाण अस्त्र है। और यह सर्व विदित तथ्य है कि मन को वश में करना इतनी बड़ी सफलता है कि उसकी प्राप्ति होने पर जीवन को धन्य माना जा सकता है। समस्त आत्मिक और भौतिक सम्पदाएं संयत मन से ही तो उपलब्ध की जाती हैं। जप यज्ञ के संबंध में कुछ आवश्यक जानकारियां नीचे दी जाती हैं—
1—जप के लिए प्रातःकाल एवं ब्राह्म मुहूर्त काल सर्वोत्तम है। दो घण्टे रात रहे से सूर्योदय तक ब्राह्म मुहूर्त कहलाता है। सूर्योदय से दो घण्टे दिन चढ़े तक
प्रातः काल होता है। प्रातःकाल से भी ब्राह्म मुहूर्त अधिक श्रेष्ठ है।
2—जप के लिए पवित्र एकान्त स्थान चुनना चाहिए मन्दिर, तीर्थ, बगीचा, जलाशय आदि एकान्त के शुद्ध स्थान जप के लिए अधिक उपयुक्त हैं। घर में
जप करना हो तो भी ऐसी जगह चुननी चाहिए जहां अधिक खटपट न होती हो।
3—संध्या को जप करना हो तो सूर्य अस्त से एक घण्टा उपरान्त तक जप समाप्त कर लेना चाहिए। प्रातःकाल के दो घण्टे और सायंकाल का एक घण्टा
इन तीन घण्टों को छोड़कर रात्रि के अन्य भागों में गायत्री मंत्र नहीं जपा जाता।
4—जप के लिये शुद्ध शरीर और शुद्ध वस्त्रों से बैठना चाहिए। साधारणतः स्नान द्वारा ही शरीर की शुद्धि होती है पर किसी विवशता, ऋतु प्रतिकूलता या
अस्वस्थता की दशा में हाथ मुंह धोकर या गीले कपड़े से शरीर पोंछ कर भी काम चलाया जा सकता है। नित्य धुले वस्त्रों की व्यवस्था न हो सके तो
रेशमी या ऊनी वस्त्रों से काम लेना चाहिए।
5—जप के लिए बिना बिछाये न बैठना चाहिए। कुश का आसन, चटाई आदि घास के बने आसन अधिक उपयुक्त हैं। पशुओं के चमड़े, मृगछाला आदि
आजकल उनकी हिंसा से ही प्राप्त होते हैं इसलिये वे निषिद्ध हैं।
6—पद्मासन से, पालती मारकर, मेरुदंड को सीधा रखते हुए जप के लिए बैठना चाहिए। मुंह प्रातःकाल पूर्व की ओर और सांयकाल पश्चिम की ओर रहे।
7—माला तुलसी की या चंदन की लेनी चाहिये। कम से कम एक माला नित्य जपनी चाहिए। माला पर जहां बहुत आदमियों की दृष्टि पड़ती हो वहां हाथ
को कपड़े से या गौमुखी से ढक लेना चाहिये।
8—माला जपते समय सुमेरु (माला के प्रारम्भ का सबसे बड़ा केन्द्रीय दाना) को उल्लंघन न करना चाहिये। एक माला पूरी करके उसे मस्तक तथा नेत्रों
से लगाकर पीछे की तरफ उलटा ही वापिस कर लेना चाहिये। इस प्रकार माला पूरी होने पर हर बार उलट कर ही नया आरम्भ करना चाहिये।
9—लम्बे सफर में, स्वयं रोगी हो जाने पर, किसी रोगी की सेवा में संलग्न रहने पर, जनन मृत्यु का सूतक लग जाने पर, स्नान आदि पवित्रताओं की
सुविधा नहीं रहती। ऐसी दशा में मानसिक जप चालू रखना चाहिये। मानसिक जप बिस्तर पर पड़े-पड़े, रास्ता चलते या किसी भी पवित्र अपवित्र दशा
में किया जा सकता है।
10—जप इस प्रकार करना चाहिये कि कंठ से ध्वनि होती रहे, होठ हिलते रहें परन्तु समीप बैठा हुआ मनुष्य भी स्पष्ट रूप से मंत्र को सुन न सके। मल
मूत्र त्याग या किसी अनिवार्य कार्य के लिए साधना के बीच में ही उठना पड़े तो शुद्ध जल से साफ होकर तब दुबारा बैठना चाहिये। जप काल में यथा
संभव मौन रहना उचित है। कोई बात कहना आवश्यक हो तो इशारे से कह देनी चाहिये।
12—जप नियत समय पर, नियत संख्या में, नियत स्थान पर, शान्त चित्त एवं एकाग्र मन से करना चाहिये। पास में जलाशय या जल से भरा पात्र होना
चाहिये। आचमन के पश्चात् जप आरम्भ करना चाहिये। किसी दिन अनिवार्य कारण से जप स्थगित करना पड़े तो दूसरे दिन प्रायश्चित्य स्वरूप एक
माला अधिक जपनी चाहिये।
13—जप के लिए गायत्री मंत्र सर्वश्रेष्ठ है। गुरु द्वारा ग्रहण किया हुआ मंत्र ही सफल होता है। स्वेच्छा पूर्वक मन चाही विधि से, मन चाहा मंत्र, जपने से
विशेष लाभ नहीं होता। इसलिए अपनी स्थिति के अनुकूल आवश्यक विधान किसी अनुभवी पथ प्रदर्शक से मालूम कर लेना चाहिए।
उपरोक्त नियमों के आधार पर किया हुआ गायत्री जप मन को वश में करने एवं मनोमय कोष को सुविकसित करने में बड़ा ही महत्वपूर्ण सिद्ध होता है।
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वाणी के चार स्तर
वाणी, जो हम बोलते और सुनते हैं, उसके चार स्तर होते हैं। जो शब्द हमारे मुख से बाहर निकलता है, और हमारे या औरों के कानों तक पहुँचता है, आइये देखें उसका पूरा खेल। समझने की कोशिश करें।
1. परा वाणी------- परा, वाणी का वह स्तर है जहाँ शब्द, मात्र कुछ तरंगों के रूप में जन्म लेते हैं। यहाँ शब्द का कोई स्पष्ट स्वरुप नहीं होता। मात्र कुछ तरंगें, जिनके स्फुरण को सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है। लगता है कि भीतर कुछ हुआ, लेकिन क्या हुआ? कुछ पता नहीं।
2. पश्यन्ति------- परा स्तर में जन्मी अमूर्त तरंगें जब कुछ स्पष्ट होने लगती हैं, तो बोलने वाला उसे अपने अंतर्मन में देख पाने लगता है। पश्यन्ति के स्तर पर ही शब्द अपना आकार ग्रहण करता है। परा की अस्पष्ट और निराकार तरंगों का भौतिक अस्तित्व वक्ता के अनुभव में आ जाता है।
3. मध्यमा------- मध्यमा में वह शब्द, जो उच्चरित होने वाला है, जो परा में मात्र कुछ निराकार तरंगों और पश्यन्ति में सिर्फ अपनी भौतिक उपस्थिति का अनुभव मात्र दे रहा था, अब एक निश्चित ज्यामितीय आकार ग्रहण कर लेता है। उच्चरित होने वाले शब्द के इसी ज्यामितीय आकार के अनुरूप वक्ता के स्वर-यंत्र अपना भी आकार बनाते हैं। स्वर-यन्त्र से तात्पर्य है, गला, मूर्धा, तालु, जीभ, दाँत और होंठ। अपने निश्चित ज्यामितीय आकार के अनुरूप शब्द विशेष, गले, मूर्धा, तालु, जीभ और दाँतों से टकराता हुआ बाहर निकलने के पूर्व अपने अंतिम पड़ाव, होठों तक पहुँचता है। शब्द की यह सारी यात्रा वाणी के जिस स्तर पर घटित होती है, वही है, मध्यमा।
4. बैखरी------- बैखरी के बारे में विशेष क्या कहना है? वाणी के इस स्तर से तो सबका परिचय है ही। वही, जो हम सब लोग बोलते और सुनते रहते हैं। जो वाणी, जो शब्द हमारे होठों से बाहर निकल कर, ब्रह्माण्ड में बिखर जाता है।
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;अर्थात् ‘ज’ अर्थात् जन्म मरण से छुटकारा, ‘प’ अर्थात् पापों का नाश। इन दोनों प्रयोजनों को पूरा करने वाली निष्पाप और जीवन मुक्त बनाने वाली साधना ‘जप’ कहते हैं।जप के लिये प्रयुक्त की जाने वाली वाणी का स्तर ऊँचा होना चाहिए। जिह्वा से होने वाले शब्दोच्चारण की बैखरी वाणी कहते हैं। यह केवल जानकारी के आदान-प्रदान से प्रयुक्त होती है।
भावों के प्रत्यावर्तन में मध्यमा वाणी काम आती है। इसे भाव सम्पन्न व्यक्ति ही बोलते हैं। जीभ और कान के माध्यम से नहीं वरन् हृदय से हृदय तक यह प्रवाह चलता है। भावनाशील व्यक्ति ही दूसरों की भावनायें उभार सकता है। यह बैखरी और मध्यमा वाणी मनुष्यों के बीच विचारों एवं भावों के बीज आदान-प्रदान का काम करती है।
इससे आगे दो और वाणियाँ हैं जिन्हें परा और पश्यन्ति कहते हैं। परा पिण्ड में और पश्यन्ति ब्रह्माण्ड क्षेत्र में काम करती है। आत्म-निर्माण का-अपने भीतर दबी हुई शक्तियों को उभारने का काम ‘परा’ करती है। ईश्वर से-देव शक्तियों से-समस्त विश्व से-लोक-लोकान्तरों से संबंध संपर्क बनाने में पश्यन्ति का प्रयोग किया जाता है। अस्तु इन परा और पश्यन्ति वाणियों को दिव्य वाणी एवं देव वाणी कहा गया है।
-वाणी के चार चरण होते हैं, परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी। इनमें से पृथक तीन अन्तःकरण रूपी गुफा में छिपी रहती है चौथी बैखरी ही बोलने में प्रयुक्त होती है।यह वाणी चरण वाली होती है। उसे विद्वान ब्रह्मवेत्ता ही जानते हैं। इन वाणियों में से तीन तो गुफा में ही छिपी बैठी है। वे अपने स्थानों से नीचे नहीं हिलती। चौथी बैखरी को ही मनुष्य बोलते हैं।
NOTE;-
वाणी का उद्भव परा से होता है। पश्यन्ती में विकसित होकर उसकी दो शाखायें फूटती है। मध्यमा में वह पुष्पों से लद जाती है और बैखरी में वह फलित होती है। जिस क्रम से उसका विकास होता है उसके उलटे क्रम से वह लय भी हो जाती है।विधानात्मक कर्मकाण्ड की उपयोगिता भी है और महत्ता भी। पर उसे समय सर्वांगपूर्ण नहीं मानना चाहिए उसके साथ जब भावनाओं का-वृत्तियों का-समन्वय होता है तभी उस कर्मकाण्ड से शक्ति उत्पन्न होती है।
वाक् शक्ति को अग्नि भी कहा गया है। यह अग्नि सर्वत्र तेजस्विता, ऊर्जा, प्रखरता एवं आभा उत्पन्न करती है इसलिए वाक् अग्नि भी है। ऋग्वेद में कहा गया है कि ऋषि वाणी द्वारा ही अग्नि को प्राप्त करते रहे हैं।
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मंत्र शब्द का अर्थ असीमित है। वैदिक ऋचाओं के प्रत्येक छन्द भी मंत्र कहे जाते हैं। तथा देवी-देवताओं की स्तुतियों व यज्ञ हवन में निश्चित किए गए शब्द समूहों को भी मंत्र कहा जाता है। तंत्र शास्त्र में मंत्र का अर्थ भिन्न है। तंत्र शास्त्रानुसार मंत्र उसे कहते हैं जो शब्द पद या पद समूह जिस देवता या शक्ति को प्रकट करता है वह उस देवता या शक्ति का मंत्र कहा जाता है।
विद्वानों द्वारा मंत्र की परिभाषाएँ निम्न प्रकार भी की गई हैं।
1. धर्म, कर्म और मोक्ष की प्राप्ति हेतु प्रेरणा देने वाली शक्ति को मंत्र कहते हैं।
2. देवता के सूक्ष्म शरीर को या इष्टदेव की कृपा को मंत्र कहते हैं। (तंत्रानुसार)
3. दिव्य-शक्तियों की कृपा को प्राप्त करने में उपयोगी शब्द शक्ति को मंत्र कहते हैं।
4. अदृश्य गुप्त शक्ति को जागृत करके अपने अनुकूल बनाने वाली विधा को मंत्र कहते हैं। (तंत्रानुसार)
5. इस प्रकार गुप्त शक्ति को विकसित करने वाली विधा को मंत्र कहते हैं।
मंत्र साधना के समय
मंत्र साधना के लिए निम्नलिखित विशेष समय, माह, तिथि एवं नक्षत्र का ध्यान रखना चाहिए।
1. उत्तम माह - साधना हेतु कार्तिक, अश्विन, वैशाख माघ, मार्गशीर्ष, फाल्गुन एवं श्रावण मास उत्तम होता है।
2. उत्तम तिथि - मंत्र जाप हेतु पूर्णिमा़, पंचमी, द्वितीया, सप्तमी, दशमी एवं त्रयोदशी तिथि उत्तम होती है।
3. उत्तम पक्ष - शुक्ल पक्ष में शुभ चंद्र व शुभ दिन देखकर मंत्र जाप करना चाहिए।
4. शुभ दिन - रविवार, शुक्रवार, बुधवार एवं गुरुवार मंत्र साधना के लिए उत्तम होते हैं।
5. उत्तम नक्षत्र - पुनर्वसु, हस्त, तीनों उत्तरा, श्रवण रेवती, अनुराधा एवं रोहिणी नक्षत्र मंत्र सिद्धि हेतु उत्तम होते हैं।
मंत्र साधना में साधन आसन एवं माला
आसन - मंत्र जाप के समय कुशासन, मृग चर्म, बाघम्बर और ऊन का बना आसन उत्तम होता है।
माला - रुद्राक्ष, जयन्तीफल, तुलसी, स्फटिक, हाथीदाँत, लाल मूँगा, चंदन एवं कमल की माला से जाप सिद्ध होते हैं। रुद्राक्ष की माला सर्वश्रेष्ठ होती है।
अगर कुछ बातों का ध्यान रखा जाए तो वे मंत्र हमारे लिए बहुत फायदेमंद साबित हो सकते हैं। जैसे घर में जप करने से एक गुना, गौशाला में सौ गुना, पुण्यमय वन या बगीचे तथा तीर्थ में हजार गुना, पर्वत पर दस हजार गुना, नदी-तट पर लाख गुना, देवालय में करोड़ गुना तथा शिव के निकट अनंत गुना फल प्राप्त होता है।
जप तीन प्रकार का होता है- वाचिक, उपांशु और मानसिक। वाचिक जप धीरे-धीरे बोलकर होता है। उपांशु-जप इस प्रकार किया जाता है, जिसे दूसरा न सुन सके। मानसिक जप में जीभ और ओष्ठ नहीं हिलते। तीनों जपों में पहले की अपेक्षा दूसरा और दूसरे की अपेक्षा तीसरा प्रकार श्रेष्ठ है।
प्रातःकाल दोनों हाथों को उत्तान कर, सायंकाल नीचे की ओर करके तथा मध्यान्ह में सीधा करके जप करना चाहिए। प्रातःकाल हाथ को नाभि के पास, मध्यान्ह में हृदय के समीप और सायंकाल मुँह के समानांतर में रखें।
जप की गणना के लिए लाख, कुश, सिंदूर और सूखे गोबर को मिलाकर गोलियां बना लें। जप करते समय दाहिने हाथ को जप माली में डाल लें अथवा कपड़े से ढंक लेना आवश्यक होता है। जप के लिए माला को अनामिका अंगुली पर रखकर अंगूठे से स्पर्श करते हुए मध्यमा अंगुली से फेरना चाहिए। सुमेरु का उल्लंघन न करें। तर्जनी न लगाएँ। सुमेरु के पास से माला को घुमाकर दूसरी बार जपें।
जप करते समय हिलना, डोलना, बोलना, क्रोध न करें, मन में कोई गलत विचार या भावना न बनाएँ अन्यथा जप करने का कोई भी फल प्राप्त न होगा।
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पूर्णांक 108 का रहस्य “ओ३म्” का जप करते समय १०८ प्रकार की विशेष भेदक ध्वनी तरंगे उत्पन्न होती है जो किसी भी प्रकार के शारीरिक व मानसिक घातक रोगों के कारण का समूल विनाश व शारीरिक व मानसिक विकास का मूल कारण है। बौद्धिक विकास व स्मरण शक्ति के विकास में अत्यन्त प्रबल कारण है। मेरा आप सभी से अनुरोध है बिना अंधविश्वास समझे कर्तव्य भाव से इस “पूर्णांक १०८” को पवित्र अंक स्वीकार कर,आर्य-वैदिक संस्कृति के आपसी सहयोग, सहायता व पहचान हेतु निःसंकोच प्रयोग करें, इसका प्रयोग प्रथम दृष्टिपात स्थान पर करें जैसे द्वार पर इस प्रकार करें।यह अद्भुत व चमत्कारी अंक बहुत समय काल से हमारे ऋषि – मुनियों के नाम के साथ प्रयोग होता रहा है और अब अति शीघ्र यही अंक हमारी महान सनातन वैदिक संस्कृति के लिये प्रगाढ़ एकता का विशेष संकेत-अंक (code word) बन जायेगा। “संख्या १०८ का रहस्य” अ→१ … आ→२ … इ→३ … ई→४ … उ→५ … ऊ→६.… ए→७ … ऐ→८ ओ→९ ……औ→१० … ऋ→११ … लृ→१२ … अं→१३ … अ:→१४.. ऋॄ →१५.. लॄ →१६ ×××××××××××××××××××××××××××× क→१ … ख→२ … ग→३ … घ→४ … ङ→५ … च→६ … छ→७ … ज→८ …झ→९ …ञ→१० … ट→११ … ठ→१२ … ड→१३ …ढ→१४ … ण→१५ … त→१६ … थ→१७ … द→१८ … ध→१९ … न→२० … प→२१ … फ→२२ … ब→२३ … भ→२४ … म→२५ … य→२६ … र→२७ … ल→२८ … व→२९ … श→३० … ष→३१ … स→३२ … ह→३३ … क्ष→३४ … त्र→३५ … ज्ञ→३६ … ड़ … ढ़ … –~ओं खम् ब्रह्म ~– ब्रह्म = ब+र+ह+म =२३+२७+३३+२५=१०८ ÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷ (१) — यह मात्रिकाएँ (१८स्वर+३६व्यंजन=५४) नाभि से आरम्भ होकर ओष्टों तक आती है, इनका एक बार चढ़ाव, दूसरी बार उतार होता है, दोनों बार में वे १०८ की संख्या बन जाती हैं। इस प्रकार १०८ मंत्र जप से नाभि चक्र से लेकर जिव्हाग्र तक की १०८ सूक्ष्म तन्मात्राओं का प्रस्फुरण हो जाता है। अधिक जितना हो सके उतना उत्तम है पर नित्य कम से कम १०८ मंत्रों का जप तो करना ही चाहिए ।। ——————————————— (२) — मनुष्य शरीर की ऊँचाई = यज्ञोपवीत(जनेउ) की परिधि = (४ अँगुलियों) का २७ गुणा होती है। = ४ × २७ = १०८ °°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°°° (३) नक्षत्रों की कुल संख्या = २७ प्रत्येक नक्षत्र के चरण = ४ जप की विशिष्ट संख्या = १०८ अर्थात गायत्री आदि मंत्र जप कम से कम १०८ बार करना चाहिये । •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• (४) — एक अद्भुत अनुपातिक रहस्य ★पृथ्वी से सूर्य की दूरी/ सूर्य का व्यास=१०८ ★पृथ्वी से चन्द्र की दूरी/ चन्द्र का व्यास=१०८ अर्थात मन्त्र जप १०८ से कम नहीं करना चाहिये। ~~~~~ (५) हिंसात्मक पापों की संख्या ३६ मानी गई है जो मन, वचन व कर्म ३ प्रकार से होते है। अत: पाप कर्म संस्कार निवृत्ति हेतु किये गये मंत्र जप को कम से कम १०८ अवश्य ही करना चाहिये। ………………………………………………… (६) सामान्यत: २४ घंटे में एक व्यक्ति २१६०० बार सांस लेता है। दिन-रात के २४ घंटों में से १२ घंटे सोने व गृहस्थ कर्त्तव्य में व्यतीत हो जाते हैं और शेष १२ घंटों में व्यक्ति जो सांस लेता है वह है १०८०० बार। इसी समय में ईश्वर का ध्यान करना चाहिए । शास्त्रों के अनुसार व्यक्ति कोहर सांस पर ईश्वर का ध्यान करना चाहिये । इसीलिए १०८०० की इसी संख्या के आधार पर जप के लिये १०८ की संख्या निर्धारित करते हैं। ~~~~~~~~~~ (७) एक वर्ष में सूर्य २१६०० कलाएं बदलता है। सूर्य वर्ष में दो बार अपनी स्थिति भी बदलता है। छःमाह उत्तरायण में रहता है और छः माहदक्षिणायन में। अत: सूर्य छः माह की एक स्थितिमें १०८००० बार कलाएं बदलता है। ∅∅∅∅∅∅∅∅∅∅∅∅∅∅∅∅∅∅∅ २१६०० कलाएं बदलता है। सूर्य वर्ष में दो बार अपनी स्थिति भी बदलता है। छःमाह उत्तरायण में रहता है और छः माहदक्षिणायन में। अत: सूर्य छः माह की एक स्थितिमें १०८००० बार कलाएं बदलता है। ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ (८) ब्रह्मांड को १२ भागों में विभाजित किया गया है। इन १२ भागों के नाम मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ और मीन हैं। इन १२ राशियों में नौ ग्रह सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु विचरण करते हैं। अत: ग्रहों की संख्या ९ में राशियों की संख्या १२ से गुणा करें तो संख्या १०८ प्राप्त हो जाती है। ❤ ❤ ❤ ❤ ❤ ❤ ❤ ❤ ❤ ❤ ❤ (९) १०८ में तीन अंक हैं १+०+८. इनमें एक “१” ईश्वर का प्रतीक है। शून्य “०” प्रकृति को दर्शाता है। आठ “८” जीवात्मा को दर्शाता है क्योकि योग के अष्टांग नियमों से ही जीव प्रभु से मिल सकता है । जो व्यक्ति अष्टांग योग द्वारा प्रकृति के विरक्त हो कर ( मोह माया लोभ आदि से विरक्त होकर ) ईश्वर का साक्षात्कार कर लेता है उसे सिद्ध पुरुष कहते हैं। जीव “८” को परमपिता परमात्मा से मिलने के लिए प्रकृति “०” का सहारा लेना पड़ता है। ईश्वर और जीव के बीच में प्रकृति है। आत्मा जब प्रकृति को शून्य समझता है तभी ईश्वर “१” का साक्षात्कार कर सकता है। प्रकृति “०” में क्षणिक सुख है और परमात्मा में अनंत और असीम। जब तक जीव प्रकृति “०” को जो कि जड़ है उसका त्याग नहीं करेगा , शून्य नही करेगा, मोह माया को नहीं त्यागेगा तब तक जीव “८” ईश्वर “१” से नहीं मिल पायेगा पूर्णता (१+८=९) को नहीं प्राप्त कर पायेगा ।
९ पूर्णता का सूचक है। ~~~~~ (१०) जैन मतानुसार अरिहंत के गुण – १२ सिद्ध के गुण – ८ आचार्य के गुण – ३६ उपाध्याय के गुण – २५ साधु के गुण – २७ कुल योग – १०८ ~~~~~ (११) वैदिक विचार धारा में मनुस्मृति के अनुसार अहंकार के गुण = २ बुद्धि के गुण = ३ मन के गुण = ४ आकाश के गुण = ५ वायु के गुण = ६ अग्नि के गुण = ७ जल के गुण = ८ पॄथ्वी के गुण = ९ २+३+४+५+६+७+८+९ =अत: प्रकॄति के कुल गुण = ४४ जीव के गुण = १० इस प्रकार संख्या का योग = ५४ अत: सृष्टि उत्पत्ति की संख्या = ५४ एवं सृष्टि प्रलय की संख्या = ५४ दोंनों संख्याओं का योग = १०८ ÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷÷ (१२) ★ Vertual Holy Trinity ★ संख्या “१” एक ईश्वर का संकेत है। संख्या “०” जड़ प्रकृति का संकेत है। संख्या “८” बहुआयामी जीवात्मा का संकेत है। [ यह तीन अनादि परम वैदिक सत्य हैं ] [ यही पवित्र त्रेतवाद ( Holy Trinity ) है ] संख्या “२” से “९” तक एक बात सत्य है कि इन्हीं आठ अंकों में “०” रूपी स्थान पर जीवन है। इसलिये यदि “०” न हो तो कोई क्रम गणना आदि नहीं हो सकती। “१” की चेतना से “८” का खेल । “८” यानी “२” से “९” । यह “८” क्या है ? मन के “८” वर्ग या भाव । ये आठ भाव ये हैं – १. काम ( विभिन्न इच्छायें / वासनायें ) । २. क्रोध । ३. लोभ । ४. मोह । ५. मद ( घमण्ड ) । ६. मत्सर ( जलन ) । ७. ज्ञान । ८. वैराग । एक सामान्य आत्मा से महानात्मा तक की यात्रा का प्रतीक है — १०८ इन आठ भावों में जीवन का ये खेल चल रहा है । ×××××××××××××××××××××××××××× (१३) सौर परिवार के प्रमुख सूर्य के एक ओर से नौ रश्मियां निकलती हैं और ये चारो ओर से अलग-अलग निकलती है। इस तरह कुल 36 रश्मियां हो गई। इन 36 रश्मियों के ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बनें । इस तरह सूर्य की जब नौ रश्मियां पृथ्वी पर आती हैं तो उनका पृथ्वी के आठ बसुओं से टक्कर होती हैं। सूर्य की नौ रश्मियां और पृथ्वी के आठ बसुओं की आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुई वे संस्कृत के 72 व्यंजन बन गई। इस प्रकार ब्रह्मांड में निकलने वाली कुल 108 ध्वनियां पर संस्कृत की वर्ण माला आधारित है। 🙂 1+0+8==9 यह 9 अंक राज राजेश्वरी का प्रिय हे। जिस प्रकार भगवती नित्य पूर्ण हे यह अंक भी पूर्ण है। राधे राधे
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मंत्र साधना कैसे करे...?-
आज कल बहुत से व्यक्ति मंत्र उच्चारण करते हैं और कहते हैं हमें इससे कुछ लाभ नहीं मिला, इसका कारण होता है.
उनका मंत्र जाप करने का तरीका बिलकुल गलत होता है, और अगर सही विधि से मंत्र साधना और जाप नहीं किये जाए तो मंत्र साधना असफल ही होती हैं. इसलिए मंत्र जाप करने से पहले जरुरी हैं की आप इसके सारे रहस्यो के बारे में अच्छे से जान लें. ;;मंत्र जप में आने वाले विघ्न :——
किसी भी जप के समय हमारा मन हमें सबसे ज्यादा परेशान करता है, और निरंतर तरह तरह के विचार अपने मन में चलते रहेंगे | यही मन का स्वभाव है और वो इसी सब में उलझाये रखेगा | तो सबसे पहले हमें मन से उलझना नहीं है | बस देखते जाना है न विरोध न समर्थन, आप निरंतर जप करते जाइये | आप भटकेंगे बार बार और वापस आयेंगे | इसमें कोई नयी बात नहीं है ये सभी के साथ होता है | ये सामान्य प्रिक्रिया है | इसके लिए हमें माला से बहुत मदद मिलती है | मन हमें कहीं भटकाता है मगर यदि माला चलती रहेगी तो वो हमें वापस वहीँ ले आएगी | ये अभ्याश की चीज है जब आप अभ्याश करेंगे तो ही जान पाएंगे |
मंत्र जप के प्रकार :——
सामान्यतया जप के तीन प्रकार माने जाते हैं जिनका वर्णन हमें हमारी पुस्तकों में मिला है, वो हैं :-
१. वाचिक जप :- वह होता है जिसमें मन्त्र का स्पष्ट उच्चारण किया जाता है।भजन -कीर्तन और आरतियों के समान उच्च स्वरों में तो मंत्र जप का निषेध है ही , दुसरे के कानों तक आपकी ध्वनि पहुंचे इसकी भी शास्त्र आज्ञा नहीं देते | जब जप करते समय मंत्रों का उच्चारण इतने तीव्र स्वरों में होता है की ध्वनि जप करने वाले के कानों में पड़ती रहे , तब वह वाचिक जप कहलाता है |
२. उपांशु जप;- मंत्र जप की इस विधि में मंत्र की ध्वनि मुख से बाहर नहीं निकलती, परन्तु जप करते समय आपकी जीभ और होंठ हिलते रहते है | उपांशु जप में किसी दुसरे व्यक्ति के देखने पर आपके होंठ हिलते हुए तो प्रतीत होते है किन्तु कोई शब्द उसे सुनाई नहीं देता |
३. मानस जप- मन्त्र जप की इस शास्त्रसम्मत विधि में जपकर्ता के होंठ और जीभ नहीं हिलते | जपकर्ता मन ही मन मंत्र का मनन करता है | इस अवस्था में जपकर्ता को देखकर यह नहीं बताया जा सकता कि वह किसी मंत्र का जप भी कर रहा है
मगर जब हम मंत्र जप प्रारंभ करते हैं तो हम जप की कई अलग अलग विधियाँ या अवश्था पाते हैं | जो मैंने अपने अनुभवों में महसूस किया है | उन विधियों का वर्णन मैं यहाँ कर रहा हूँ |
सबसे पहले हम मंत्र जप, वाचिक जप से प्रारंभ करते हैं | जिसमे की हम मंत्र जप बोलकर करते हैं, जिसे कोई पास बैठा हुआ व्यक्ति भी सुन सकता है | ये सबसे प्रारंभिक अवश्था है | सबसे पहले आप इस प्रकार शुरू करें | क्योंकि शुरुआत में आपको सबसे ज्यादा व्यव्धान आयेंगे | आपका मन बार बार दुनिया भर की बातों पर जायेगा | ऐसी ऐसी बातें आपको साधना के समय पर याद आएँगी | जो की सामान्यतया आपको याद भी नहीं होंगी | आपके आस पास की छोटी से छोटी आवाज पर आपका धयान जायेगा | जिन्हें की आप सामान्यतया सुनते भि नहीं हैं | जिससे की आपको बहुत परेशानी होगी | तो उन सब चीजों से अपना ध्यान हटाने के लिए आप जोर जोर से जप शुरू करेंगे | बोल बोलकर जप करते समय आपके जप की गति भी तेज़ हो जाएगी |
ये बात ध्यान देने की है की जितना भी आप बाहर जप करेंगे | उतना ही जप की गति तेज रहेगी और जैसे जैसे आप जितना अन्दर डूबते जायेंगे | उतनी ही आपकी गति मंद हो जाएगी | ये स्वाभाविक है, इसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकता है | आप यदि प्रयाश करें तो बोलते हुए भी मंद गति में जप कर सकते हैं | मगर अन्दर तेज गति में नहीं कर सकते हैं |
अगली अवश्था आती है जब हमारी वाणी मंद होती जाती है | ये तब ही होता है जब आप पहली अवश्था में निपुण हो जाते हैं | जब आप बोल बोलकर जप करने में सहज हो गए और आपके मन में कोई विचार आपको परेशां नहीं कर रहा है तो दूसरी अवश्था में जाने का समय हो गया है | इसमें नए लोगों को समय लगेगा | मगर प्रयाश से वो स्थिती जरूर आएगी | तो जब आप सहज हो जाएँ तो सबसे पहले क्या करना है की अपनी ध्वनी को धीमा कर दें | और जैसे कोई फुसफुसाता है उस अवश्था में आ जाएँ | अब यदि कोई आपके पास बैठा भी है तो उसे ये पता चलेगा की आप कुछ फुसफुसा रहे हैं | मगर शब्द स्पस्ट नहीं जान पायेगा | जब आप पहली से दूसरी अवश्था में आते हैं तो फिर से आपको व्यवधान परेशान करेंगे | तो आप लगे रहिये, और ज्यादा परेशान हों तो फिर पहली अवश्था में आ जाएँ, और बोल बोलकर शुरू कर दें जब शांत हो जाएँ तो आवाज को धीमी कर दें और दूसरी अवश्था में आ जाएँ | थोडा समय आपको वहां पर अभ्यस्त होने में लगेगा |
जैसे ही आप वहां अभ्यस्त हुए तो धीमे से अपने होंठ भी बंद कर दें |
ये तीसरी अवश्था है जहाँ पर आपके अब होंठ भी बंद हो गए हैं | मात्र आपकी जिह्वा जप कर रही है | अब आपके पास बैठा हुआ व्यक्ति भी आपका जप नहीं सुन सकता है | मगर यहाँ भी वही दिक्कत आती है की जैसे ही आप होंठ बंद करते हैं तो आपका ध्यान दूसरी बातों पर जाने लगता है | मन भटकने लगता है | तो यहाँ भी आपको वही सूत्र अपनाना है की होंठों को हिलाकर जप करना शुरू कर दीजिये | जो की आपका अभ्यास पहले ही बन चूका है और जब शांत हो जाएँ तो चुपके से होंठ बंद कर लीजिये, और अन्दर शुरू हो जाइये | इसी तरह आपको अभ्याश करना होगा | मन आपको बहकता है तो आप मन को बहकाइए | और एक अवश्था से दूसरी अवश्था में छलांग लगाते जाइये |
इसके बाद चोथी अवश्था आती है मानस जप या मानसिक जप की | जब आपको कुछ समय हो जायेगा होठों को बंद करके जप करते हुए और आप इसके अभ्यस्त हो जायेंगे | भाइयों इस अवश्था तक पहुँचने में काफी समय लगता है | सब कुछ आपके अभ्याश व प्रयाश पर निर्भर करता है | तो उसके बाद आप अपनी जीभ को भी बंद कर देंगे | ये करना थोडा मुश्किल होता है क्योंकि जैसे ही आपकी जीभ चलना बंद होगी | तो आपका मन फिर सक्रीय हो जायेगा | और वो जाने कहाँ कहाँ की बातें आपके सामने लेकर आएगा | तो यहाँ भी वही युक्ति से काम चलेगा की जीभ चलाना शुरू कर दें | जब वहां आकाग्र हो जाये और फिर उसे बंद कर दें, और अन्दर उतर जाएँ और मन ही मन जप शुरू कर दें | धीरे धीरे आप यहाँ पर अभ्यस्त हो जायेंगे और निरंतर मन ही मन जप चलता रहेगा | इस अवश्था में आप कंठ पर रहकर जप करते रहते हैं |
इसके बाद किताबों में कोई और वर्णन नहीं मिलता है | मगर मार्ग यहाँ से आगे भी है | और असली अवश्था यहाँ के बाद ही आनी है |
इसके बाद आप और अन्दर डूबते जायेंगे | अन्दर और अन्दर धीरे धीरे | निरंतर अन्दर जायेंगे | लगभग नाभि के पास आप जप कर रहे होंगे | और धीरे धीरे जैसे जैसे आप वहां पर अभ्यस्त होंगे तो आप एक अवश्था में पाएंगे की मैं जप कर ही नहीं रहा हूँ |
बल्कि वो उठ रहा है | वो अपने आप उठ रहा है | नाभि से उठ रहा है | आप अलग है | हाँ आप देख रहे हैं की मैं जपने वाला हूँ ही नहीं | वो स्वयं उठ रहा है | आपका कोई प्रयाश उसके लिए नहीं है | आप अलग होकर मात्र द्रष्टा भाव से उसे देख रहे हैं और महसूस कर रहे हैं | ये शायद जप की चरम अवश्था है | निरंतर जप चल रहा है | वो स्वत है और आप द्रष्टा हैं | इसी अवश्था को अजपाजप कहा गया है | जिस अवश्था में आप जप नहीं कर रहें हैं मगर वो स्वयं चल रहा है |
धीरे धीरे इस अवश्था में आप देखेंगे कि आप कुछ और काम भी कर रहे हैं | तो भी जब भी आप ध्यान देंगे तो वो स्वयं चल रहा है | और यदि नहीं चल रहा है, तो जब भी आपका ध्यान वहां जाये | तो आप मानसिक जप शुरू कर दें | तो उस अवश्था में पहुँच जायेंगे |
शास्त्रों में जप के सभी फल इसी अवश्था के लिए कहे गए हैं | आप इस अवश्था में जप कीजिये और सभी फल आपको मिलेंगे | जप और ध्यान यहाँ पर एक ही हो जाते हैं | जैसे जैसे आप उस पर धयान देंगे तो आगे कुछ नहीं करना है | बस उस में एकाकार हो जाइये | और मंजिल आपके सामने होगी |
आपका प्रयास:—–
सबसे अच्छा तरीका है कि आप जिस भी मंत्र का जप करते हैं | उसे कंठस्थ करें और जब भी आपके पास समय हो तभी आप अन्दर ही अन्दर जप शुरू कर दें | आप आसन पर नियम से जो जप करते हैं | उसे करते रहें उसी प्रकार | बस थोडा सा अतिरिक्त प्रयास शुरू कर दें |
कई सारे लोग कहेंगे की हमें समय नहीं मिलता है आदि आदि | कितना भी व्य्शत व्यक्ति हो वो कुछ समय के लिए जरूर फ्री होता है | तो आपको बस सचेत होना है | अपने मन को आप निर्देश दें और ध्यान दें | बस जैसे ही आप फ्री हों तो जप शुरू | और कुछ करने की जरूरत ही नहीं है | बस यही नियम और धीरे धीरे आप दुसरे कम ध्यान वाले कार्यों को करते हुए भी जप करते रहेंगे | निरंतर उस जप में डूबते जाइये |
जब आप सोने के लिए बिस्तर पर जाये तो अपने सभी कर्म अपने इष्ट को समर्पित करें | अपने आपको उन्हें समर्पित करें | और मन ही मन जप शुरू कर दें | और धीरे धीरे जप करते हुए ही सो जाएँ | शुरू शुरू में थोडा परेशानी महसूस करेंगे मगर बस प्रयास निरंतर रखें | इससे क्या होगा की आपका शरीर तो सो जायेगा | मगर आपका सूक्ष्म शरीर जप करता रहेगा | आपकी नींद भी पूरी हो गयी और साधना भी चल रही है |
जैसे ही सुबह आपकी ऑंखें खुलें तो अपने इष्ट का ध्यान करें | और विनती करें की प्रभु आज मुझसे कोई गलत कार्य न हो | और यदि आज कोई ऐसी अवश्था आये तो आप मुझे सचेत कर देना और मुझे मार्ग दिखाना | इसके बाद मानसिक जप शुरू कर दें | सभी और नित्य कार्यों को करते हुए इसे निरंतर रखें | फिर जब जब आप कोई गलत निर्णय लेने लगेंगे तो आपके भीतर से आवाज आएगी | धीरे धीरे आप अपने आपमें में परिवर्तन महसूस करेंगे | और धीरे धीरे आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ जायेंगे |
मगर ये एक दिन में नहीं होगा | बहुत प्रयाश करना होगा | निरंतर चलना होगा | तभी मंजिल मिलेगी | इसलिए अपने आपको तैयार कीजिये और साधना में डूब जाइये | आपको सब कुछ मिलेगा |
ये सब मैंने अपने जीवन में प्रयोग किया है | और पूरी तरह जांचा परखा हुआ है | अगर कोई और शंका हो तो निसंदेह पूछिए | मगर मात्र पूछकर मत रूक जाना | आगे बढिए और सब कुछ प्राप्त कीजिये | सभी आगे बढे व अपने स्वरूप को जाने इसि कामना के साथ | धन्यवाद | ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
मंत्र जाप स्वयं अपने आप में मंत्र योग है. साधकों को उच्चतम साधना के लिए जरुरी हैं, वह मंत्र योग की सहायता लें. मंत्र योग में मंत्र जाप करना होता है. मंत्र के जाप से शक्ति उत्पन्न होती है. इससे आसपास का क्षेत्र भी पवित्र होता हैं.
साधक के अंदर शुद्धता भी बढती है. मंत्र जाप जितना ज्यादा किया जायेगा, साधना में सफलता उतनी शीघ्र मिलेगी. मंत्र जाप करने से पहले मंत्र बोलने की विधि सीख लेनी चाहिए. मंत्र बोलते समय मंत्र का उच्चारण सही रूप से होना चाहिए तथा मंत्र बोलेन का भी विशेष तरह का तरीका होता है.
प्राणायाम और कुंडलिनी शक्ति यह तरीका किसी अनुभवी व्यक्ति से सीखना चाहिए क्योंकि मंत्र बोलने का एक विशेष प्रकार का उतार-चढाव होता हैं. जब तक मंत्र विधि पूर्वक नहीं बोला जायेगा तो वह ज्यादा फलित नहीं होगा. इसलिए मंत्र का उच्चारण विधिपूर्वक वह सही करना चाहिए.
मंत्र का उच्चारण कभी गलत नहीं होना चाहिए. यदि मंत्र का उच्चारण गलत किया जायेगा तो मंत्र के द्वारा हानि भी पहूंच सकती है. मैंने कई जगह देखा हैं कि मंत्र बोलने का तरीका सही नहीं था. मंत्र सामूहिक रूप से बोला जा रहा था.
मंत्र बोलने का निष्कर्ष भी बहुत गलत निकाला जा रहा था. मंत्र बोलने वालों को किसी प्रकार का लाभ नहीं मिल रहा था. मैंने अपनी दिव्यदृष्टि से देखा मंत्र बोलने का लाभ तामसिक शक्तियां उठा रहीं थी. वहां पर स्थित सूक्ष्म रूप से तामसिक शक्तियां हवन की सामग्री खा लेती थी तथा मंत्र गलत बोलने के कारण, मंत्र का मूल अर्थ से भिन्न अर्थ निकल रहा था.
उस मंत्र से सात्विक शक्ति निकलने के बजाय तामसिक शक्ति निकल रहीं थी. वहां पर स्थित तामसिक शक्तियां उस तामसिक शक्ति को ग्रहण कर लेती थी. मंगर मंत्र बोलने वालों को इस विषय में मालूम नहीं था क्योंकि वह साधारण पुरुष थे.
मंत्र जाप और साधना करने की सही विधि
मंत्र बोलने का ढंग कई प्रकार का होता है. एक मंत्र का उच्चारण जोर-जोर से करना. 2, मंत्र का उच्चारण धीमी आवाज में करना. 3, मंत्र का उच्चारण मन के अंदर करना. जोर-जोर से मंत्र का उच्चारण करना मंत्र की पहली अवस्था है.
इस प्रकार मंत्र जाप करने से साधक का मन एकाग्र होने लगता है, तथा आसपास के वातावरण में पवित्रता आने लगती है. मगर इसका फल कम मिलता है क्योंकि इसमें मन ज्यादा एकाग्र नहीं हो पाता है. मंत्र की आवाज इतनी होनी चाहिए कि आपकी आवाज से किसी दूसरे को अवरोध न हो.
हमारे द्वारा मंत्र जाप का यह अर्थ नहीं होना चाहिए कि अपने आप के खातिर दूसरे को परेशानी पहूंचे. धीमी आवाज में मंत्रोच्चारण करना चाहिए. इसका फल मध्यम श्रेणी का होता है. इसमें सिर्फ ओठ मिलते हैं और मूंह से निकलने वाली आवाज मंत्रोच्चारण करने वाले को ही सुनाई देती है.
इस अवस्था में साधक का मन एकाग्र ज्यादा होता है. इसका फल भी पहली अवस्था से ज्यादा मिलता है. किसी दूसरे को हानि भी नहीं पहूंचती है. मंत्र जाप करने का सबसे अच्छा तरीका हैं कि उसका मंत्र जाप अंतःकरण में चले.
यह अवस्था साधक में सबसे बाद मे आती है. साधक को यही अवस्था लानी चाहिए इस अवस्था में मन बिल्कुल एकाग्र होता है. इसका फल भी पूरा मिलता है. साधक में किसी प्रकार की बाहरी हलचल नहीं होती है.
साधक बिल्कुल शांत बैठा रहता है. साधक को धीरे-धीरे इसी प्रकार का जाप करना चाहिए. यदि साधक शुरुआत से ही आंखें बंद करके मंत्र जाप करने लगेगा, तो उसका मन तुरंत एकाग्र नहीं होगा क्योंकि मन तो चंचल है.
इसलिए धीरे-धीरे अभ्यास करना चाहिए. मंत्र जाप करते समय आधार के लिए माला का प्रयोग किया जाता है. इससे साधक अपना एक लक्ष्य बना लेता हैं कि हमें इतनी मात्रा (गिनती) में जाप करना है. लेकिन मन के अंदर जाप करते समय माला से गिनती नहीं हो पाती है.
अर्थात माला आगे खिसकाना रूक जाता हैं, अथवा हाथ से छुट जाती है. क्योंकि मन एकाग्र होने लगता है. जब मन एकाग्र होने लगता हैं तब माला की गुरिया आगे बढाने की याद नहीं रह जाती है. जब तक माला चलती रहे तो यह समझ लो मन एकाग्र नहीं हुआ है.
वैसे यह क्रिया धीमी आवाज में जाप करने पर भी हो जाती है. उसमें भी मन एकाग्र होने लगता है. मगर मंत्र जाप का फल अवश्य मिलता है. हर एक मंत्र का अपना अलग-अलग देवता होता है. मंत्र जाप करते समय साधक को बहुत जरूरी हैं कि उस मंत्र के देवता के स्वरूप का काल्पनिक रूप से अवलोकन करें. इससे मन एकाग्र होने में सहायता मिलेगी.
आजकल कुछ मनुष्यों का कहना हैं कि मंत्रो में कुछ भी शक्ति नहीं होती है. हमने तो हजारो-लाखों जाप किये मगर उसका फल नहीं मिला? मंत्र जाप करने का फल क्यों नहीं मिला अथवा मन क्यों स्थिर नहीं हुआ.
यह कारण अगर वह ढूंढे तो जवाब जरूर मिलेगा. कारण यह भी हो सकता हैं, मंत्र जाप करते समय आपका उच्चारण सहीं न हो. आपके अंदर का विश्वाश कमजोर हो सकता है. मंत्र जाप करते समय अपने कार्य पर विश्वाश पूर्ण रूप से होना चाहिए, फिर सफलता जरूर मिलेगी.
संदिग्ध बिल्कुल नहीं रहना चाहिए. आपके मन व शरीर में शुद्धता नहीं होगी. मन व शरीर में शुद्धता होनी अति आवश्यक है. जब तक शुद्धता नहीं आयेगी तो आपके द्वारा बोला गया मंत्र कितना प्रभावी होगा यह कहना मुष्किल है.
अगर मंत्र का उचित फल लेना हैं तो साधक को शुद्ध रहना अति आवश्यक है. यही कारण हैं कि आजकल के व्यक्ति स्वयं तो शुद्ध नहीं रहते हैं और मंत्र को दोष देते हैं कि अब इस मंत्र में शक्ति नहीं रह गयी.
सच तो यह हैं मंत्र में इतनी शक्ति हैं कि आज भी मंत्रोच्चारण से उस मंत्र का देवता उपस्थित हो जाता है. मगर उस देवता के दर्शन करने के लिए दिव्यदृष्टि होना जरूरी है. क्योंकि बिना दिव्यदृष्टि के देवता दिखाई नहीं पडेगा.
उसके शरीर की संरचना अत्यंत सूक्ष्म कणों द्वारा निर्मित है. इसलिए चर्म चक्षु नहीं देख सकते हैं. जो मंत्र बोला जाता हैं उस मंत्र के प्रभाव से वायु मंडल में कंपन्न होता है. जब मंत्र का प्रभाव अभ्यास के द्वारा सूक्ष्म होता है, तो वायुतत्व में कंपन्न होने से वह कंपन्न देवता तक पहूंचता है.
जब मंत्र का प्रभाव उस देवता तक पहूंचता हैं तब वह देवता मजबूर हो कर साधक के सामने उपस्थित हो जाता है. यह क्रिया उस समय होती हैं जब मंत्र सिद्ध हो जाता है.
आदिकाल के ऋषि-मुनी अपने द्वारा बोले गये मंत्र बल पर कुछ भी कार्य करने में सफल होते थे. क्योंकि स्वयं उनके अंदर अत्यंत शुद्धता होती थी. तथा दृढ निश्चय होकर मंत्र जाप करते थे, तभी ये मंत्र उन्हें सिद्ध होते थे.
यदि सही ढंग से मंत्र बोला जाये तो अवश्य कभी न कभी आपको मंत्र सिद्ध हो जायेगा. मगर मंत्र सिद्ध करने के लिए नियम-संयग का पालन करना होगा तथा धैर्य से काम लेना होगा. जब आप मंत्र जाप करेंगे तो आपकी शुद्धता कम होगी तथा निश्चित मात्रा में कर्म भी जलेंगे.
मंत्र को प्रभावी होने में कई वर्ष लग सकते है. इस जगह आप कह सकते हैं कि हमारा तो सहज ध्यान योग है. फिर मंत्र को इतना ज्यादा क्यों शामिल किया गया है. यह सच हैं हर योग में दूसरे योग मार्ग का सहारा लेना पडता है.
साधकों, अब थोडा मंत्र के विषय में और लिखूं तो अच्छा रहेगा. क्योंकि अभी तक उन साधको के विषय में लिखा हैं जो नये साधक हैं अथवा उच्च अवस्था प्राप्त नहीं हुई है. अब थोडा उच्च श्रेणी के साधकों को अथवा जिन्होंने कुण्डलिनी की पूर्ण मात्रा करके उसकी स्थिरता प्राप्त कर ली है.
साधकों, मैं आज भी मंत्रों का जाप करता हूं. मैंने साधना काल में बहुत मंत्रों का जाप किया है तथा कुण्डलिनी स्थिरता के बाद और अब भी मंत्रों का जाप करता हूं. मैं एक बार अपनी चाहे समाधि का समय कम कर दूं, मगर मंत्र जाप नहीं छोडता हूं.
सच तो यह हैं कि मंत्र में बहुत शक्ति होती है. हम समाधि के द्वारा जितना योगबल एक साल में प्राप्त कर पाते हैं, उतना योगबल मंत्र जाप के द्वारा मात्र कुछ देर में ही प्राप्त कर लेते हें. इसीलिए मैं आज तक कभी भी योगबल के बारे में कमजोर नहीं पडां मैं किसी का भी मार्गदर्षन करते समय साधक से अपनी इच्छानुसार कार्य ले लेता हूं.
इस कार्य के लिए में ज्यादा मात्रा में योगबल का प्रयोग करता हूं. यदि मैंने सोचा साधक के शरीर के अंदर यह क्रिया होनी चाहिए तो अवष्य होगी. हमारा कहने का अर्थ यह हैं कि मुझे योगबल की कमी नहीं है. क्योंकि मुझे कुछ मंत्र पिछले जन्मों से सिद्ध हैं उनका लाभ उठाता हूं.
योग के माध्यम से हमें मालूम पड गया था कि मुझे पूर्व जन्म में यह मंत्र सिद्ध थे. इस जन्म में भी सिद्ध किये हैं. साधकों, इन मंत्रों को सिद्ध करने के लिए मैंने बडा कष्ट सहा हैं, स्थूल शरीर की भी खूब दूर्गति हुई है. क्योंकि किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कठोरता के साथ नियम-संयम का पालन करना पडता है.
आप कुण्डलिनी उग्र करने के लिए कुण्डलिनी मंत्र या शक्ति का मंत्र का प्रयोग कीजिए. जब आपकी कुण्डलिनी कण्डचक्र तक आ गयी हो, तब इस मंत्र का प्रयोग जरूर कीजिएगा. इससे कुण्डलिनी में उग्रता आयेगी. अशुद्धता भी कम होगी तथा कण्ठचक्र खुलने में सहायता मिलेगी.
कण्ठचक्र खुलने के बाद से ब्रह्मरंध्र खुलने तक मंत्र का जाप अधिक लाभकारी होता है. जब आप शक्तिमंत्र जाप करेंगे तो जरूर ही कुण्डलिनी ऊध्र्व होने का प्रयास करेगी. ब्रह्मरंध्र खुलने में मंत्र जरूर सहायता करेगा आप जाप आधे घंटे से लेकर एक घंटे तक कीजिए. आप आसन पर बैठकर मंत्र को जोर से बोलें. इस समय मन के अंदर जाप नहीं करना चाहिए. कमरे को पूरी तरह से बंद कर लीजिए, ताकि आवाज बाहर न निकले, न किसी को आपके द्वारा बोले गये मंत्र से अवरोध होना चाहिए.
बंद कमरे के अंदर आवाज गूंजती रहेगी. इससे आपको ध्यान की अपेक्षा ज्यादा लाभ होगा. ध्यान के माध्यम से इतनी कुण्डलिनी ऊध्र्व नहीं होगी जितनी मंत्र के प्रभाव से होती है. इसका अर्थ यह नही हैं कि आप ध्यान करना बंद कर दें. ध्यान अपना पूर्व की भांति करते रहें.
यदि आपकी कुण्डलिनी स्थिर हो चुकी हैं तथा योगबल बढाना चाहते हैं तो शक्ति मंत्र, का जाप कीजिए अथवा ऊं (OM) मंत्र का जाप विधि के अनुसार कीजिए. एक बात का ध्यान रहे इस समय मंत्र का जाप उच्च स्वर में कीजिए.
यदि बिल्कुल एकांत में, खेतों में या जंगल में यह विधि अपनायी जाये तो अच्छा है. आप सिर्फ एक मंत्र को अपनाइये, बदल-बदल कर नहीं बोलना चाहिए. यदि आपको मंत्र सिद्ध हो गया हैं तो आजीवन योगबल की कमी महसूस नहीं करेंगे.
....SHIVOHAM....