प्रस्तावना( शिव )
ॐ गुरवे आदि शंकराचार्य नमः ॐ गं गणपतये नमः ॐ सकारात्मक / नकारात्मक ऊर्जा नमः ॐ कामाख्या देव्यै नमः ॥ऊं ह्रीं दक्षिणामूर्तये नमः ॥
शिव और शक्ति;-
07 FACTS;-
1-शिव-शक्ति का संयोग ही परमात्मा है।शिव की जो पराशक्ति है उससे चित् शक्ति प्रकट होती है। चित् शक्ति से आनंद का; आनंद से इच्छाशक्ति का ; इच्छाशक्ति से ज्ञानशक्ति और ज्ञानशक्ति से पांचवीं क्रियाशक्ति प्रकट हुई है।इन्हीं से निवृत्ति आदि कलाएं उत्पन्न हुई हैं।
चित् शक्ति से नाद और आनंदशक्ति से बिंदु का प्राकट्य बताया गया है।इच्छाशक्ति से 'म' कार प्रकट हुआ है। ज्ञानशक्ति से पांचवां स्वर 'उ' कार उत्पन्न हुआ है और क्रियाशक्ति से 'अ' कार की उत्पत्ति हुई है।इस प्रकार प्रणव (ॐ) की उत्पत्ति हुई है। 2-शिव से ईशान उत्पन्न हुए हैं, ईशान से तत्पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ है। तत्पुरुष से अघोर का, अघोर से वामदेव का और वामदेव से सद्योजात का प्राकट्य हुआ है। इस आदि अक्षर प्रणव से ही मूलभूत पांच स्वर और तैंतीस व्यजंन के रूप में अड़तीस अक्षरों का प्रादुर्भाव हुआ है। उत्पत्ति क्रम में ईशान से शांत्यतीताकला उत्पन्न हुई है।ईशान से चित् शक्ति द्वारा पांच तत्वों की उत्पत्ति होती है। 3-अनुग्रह, तिरोभाव, संहार, स्थिति और सृष्टि इन पांच कृत्यों का हेतु होने के कारण उसे पंचक कहते हैं।आकाशादि के क्रम से इन पांचों तत्वों/मिथुनों की उत्पत्ति हुई है। इनमें पहला तत्व/ मिथुन है आकाश, दूसरा वायु, तीसरा अग्नि, चौथा जल और पांचवां तत्व पृथ्वी है। इनमें आकाश से लेकर पृथ्वी तक के भूतों का जैसा स्वरूप बताया गया है, वह इस प्रकार है - आकाश में एकमात्र शब्द ही गुण है, वायु में शब्द और स्पर्श दो गुण हैं, अग्नि में शब्द, स्पर्श और रूप इन तीन गुणों की प्रधानता है, जल में शब्द, स्पर्श, रूप और रस ये चार गुण माने गए हैं तथा पृथ्वी शब्द, स्पर्श, रूप , रस और गंध इन पांच गुणों से संपन्न है।यही भूतों का व्यापकत्व कहा गया है ।पांच भूतों (महत् तत्व) का यह विस्तार ही प्रपंच कहलाता है।
4-सर्वसमष्टि का जो आत्मा है, उसी का नाम विराट है और पृथ्वी तल से लेकर क्रमशः शिवतत्व तक जो तत्वों का समुदाय है वही ब्रह्मांड है। वह क्रमशः तत्वसमूह में लीन होता हुआ अंततोगत्वा सबके जीवनभूत चैतन्यमय परमेश्वर में ही लय को प्राप्त होता है और सृष्टिकाल में फिर शक्ति द्वारा शिव से निकल कर स्थूल प्रपंच के रूप में प्रलयकाल तक सुखपूर्वक स्थित रहता है।जब शिव अपने रूप को माया से निग्रहीत करके संपूर्ण पदार्थों को ग्रहण करते है, तब उनका नाम पुरुष होता है।
5-जब ब्रह्मा ने सृजन का कार्य आरंभ किया तब उन्होंने पाया कि उनकी रचनाएँ अपने जीवनोपरांत नष्ट हो जाएंगी तथा हर बार उन्हें नए सिरे से सृजन करना होगा। गहन विचार के उपरांत भी वो किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच पाए। तब अपने समस्या के सामाधान के हेतु वो शिव की शरण में पहुँचे। उन्होंने शिव को प्रसन्न करने हेतु कठोर तप किया। ब्रह्मा की कठोर तप से शिव प्रसन्न हुए। ब्रह्मा के समस्या के सामाधान हेतु शिव अर्धनारीश्वर स्वरूप में प्रगट हुए। अर्ध भाग में वे शिव थे तथा अर्ध में शिवा।
6-अपने इस स्वरूप से शिव ने ब्रह्मा को प्रजननशील प्राणी के सृजन की प्रेरणा प्रदान की। साथ ही साथ उन्होंने पुरूष एवं स्त्री के समान महत्व का भी उपदेश दिया। शक्ति शिव की
अभिभाज्य अंग हैं। शिव नर के द्योतक हैं तो शक्ति नारी की। वे एक दूसरे के पूरक हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव अकर्ता हैं। वो संकल्प मात्र करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी करती हैं।
7-शक्ति जागृत अवस्था हैं; शिव सुसुप्तावस्था।शक्ति मस्तिष्क हैं; शिव हृदय ।शिव सागर के जल के सामान हैं तथा शक्ति लहरों के सामान हैं। लहर है जल का वेग। जल के बिना लहर का क्या अस्तित्व है? और वेग बिना सागर अथवा उसके जल का क्या महत्व है? यही है शिव
एवंउनकी शक्ति का संबंध।हम शिव-शक्ति के इस अर्धनारीश्वर स्वरूप को नमन करते हैं।उनकी महिमा वर्णन में असमर्थ हूँ...इसलिये अपनी त्रुटियों के लिए आपसे क्षमायाचना करती हूँ...यह एक भक्त की विनती है ...
... शिवोहम.....