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क्या पूर्णमासी..अमावस्या ..अध्यात्म/ उर्जा विज्ञान की सरल तकनीक है ?क्या है चंद्रमा की 16 कलाएं?


पूर्णमासी..अमावस्या ..अध्यात्म विज्ञान की सरल तकनीक ;-

08 FACTS;-

1-हमारे तिथि त्योहार महज किसी की याद में या शक्ति प्रदर्शन के लिये नही बनाये गये. उनके पीछे गहरा विज्ञान है. सभी तिथि-त्योहार अध्यात्म विज्ञान की वो सरल तकनीक हैं, जो जीवन में उत्साह और सुख स्थापित करते हैं.उदाहरण के लिये पूर्णमासी को ले लें. इस तिथि में धरती पर चंद्रमा की सर्वाधिक प्रभावशाली उर्जायें पहुंचती हैं. जो समुद्रों को उत्तेजित करके उनमें ज्वार भाटा पैदा कर देती हैं.पूर्णिमा की रात और किसी दूसरी रात के बीच बहुत अंतर होता है।यह एक तरह से माइक्रोफोन की तरह है जो वॉल्यूम बढ़ा देता है, बातचीत वही रहती है लेकिन अचानक आवाज तेज और साफ हो जाती है। इसी तरह, अगर पहले थोड़ा सा पागलपन रहा हो, तो जब आप उसमें थोड़ी और ऊर्जा डालते हैं तो सब कुछ बढ़-चढ़ कर दिखता है।

2-पूर्णिमा के दिन ऊर्जा थोड़ी अधिक होती है। सिर्फ पागलपन ही नहीं बढ़ता। अगर आप शांत हैं, तो आप और अधिक शांत हो जाएंगे। अगर आप आनंदित हैं तो आप अधिक आनंदित हो जाएंगे। यानी आपका जो भी गुण है, वह और बढ़ जाएगा। लोगों को सिर्फ पागलपन दिखता है क्योंकि अधिकतर लोग उसी अवस्था में होते हैं। लेकिन अगर आप बहुत प्रेमपूर्ण हैं, तो पूर्णिमा के दिन आपका प्रेम भी अधिक छलकेगा। इसी तरह ये उर्जायें जल तत्व से भरे स्वाधिष्ठान चक्र को भी उत्तेजित करती हैं। जल तत्व की उत्तेजित उर्जायें नियंत्रित करके उपयोग में लायी जायें तो कामनायें पूरी करने में सक्षम होती हैं। चंद्रमा द्वारा आंदोलित स्वाधिष्ठान चक्र की उर्जाओं को नियंत्रित करके उन्हें सकारात्मक गाइड लाइन देने के लिये ही पूर्णिमा के दिन सत्यनारायण भगवान की कथा सहित कई तरह के विशेष पूजा पाठ, व्रत आदि के विधान हैं। 3-ये दो तरह से हमें लाभ पहुंचाते हैं. 3-1. पूजा पाठ की भावना के कारण उस दिन लोग अपनी काम भावनाओं पर नियंत्रण रखते हैं। जिससे स्वाधिष्ठान चक्र की उर्जायें विशुद्धि चक्र के जरिये सौभाग्य चक्र में पहुंचकर कामनायें पूरी करती हैं. 3-2. पूजा पाठ की क्रियाओं के दौरान मन में भक्ति और देव आशीर्वाद से कामना पूूर्ति के विचार लगातार चलते हैं, जिन्हें अवचेतन मन स्वीकार करके साकार कर देता है।

4-पूर्णिमा के दिन पृथ्वी अपने उपग्रह के साथ एक खास अवस्था में चली जाती है, जो वाईब्रेशंस को बहुत सीधा और शक्तिशाली बना देता है। चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण बल के कारण इस दिन लहरें ऊंची उठती हैं। पानी ऊपर तक छलकता है और ऊंचा उछलने की कोशिश करता है। इसी तरह, आपका ख़ून भी उछलने की कोशिश करता है। जब आपके दिमाग़ में ख़ून का संचार बढ़ता है, तो आपका जो भी गुण है, वह बढ़ जाता है।पूर्णिमा का वाईब्रेशंस और एहसास चंद्रमा की दूसरी अवस्थाओं से बहुत अलग होता है। आपके अंदर इड़ा और पिंगला भी अलग तरह से काम करती हैं। प्राण या जीवन ऊर्जा एक अलग तरह से प्रवाहित होती है। वाईब्रेशंस के बदल जाने से आपकी समस्त ऊर्जा एक अलग तरह से प्रवाहित होती है।

5-पूर्णिमा और अमावस्या को ध्यान की गुणवत्ता में बहुत फर्क होता है। ध्यान करने वाले व्यक्ति के लिए पूर्णिमा बेहतर होती है। मगर अमावस्या कुछ खास अनुष्ठान और प्रक्रियाएं करने के लिए अच्छा है। अमावस्या की रात को आपकी ऊर्जा उग्र हो जाती है। किसी मदमस्त हाथी की तरह आपकी ऊर्जा बेकाबू हो जाती है। इसीलिए तांत्रिक लोग अमावस्या की रातों का इस्तेमाल करते हैं। उस दिन ऊर्जा गतिशील रहती है। पूर्णिमा की रातों में सौम्यता का गुण होता है जो अधिक सूक्ष्म, सुखद और सुंदर होता है – प्रेम की तरह। अमावस्या की ऊर्जा अधिक बुनियादी होती है। अगर आप इन दोनों की तुलना करना चाहते हैं, तो आप कह सकते हैं कि अमावस्या अधिक 'काम -केंद्रित 'और पूर्णिमा अधिक प्रेम-केंद्रित है।

6-अमावस्या की प्रकृति अधिक स्थूल और अधिक शक्तिशाली होती है। पूर्णिमा की प्रकृति सूक्ष्म होती है। वह शक्ति इतनी सूक्ष्म होती है कि आप उसे महसूस नहीं कर सकते। कुंडलिनी भी इसी तरह बर्ताव करती है: पूर्णिमा को वह बहुत सौम्यता से बढ़ती है और अमावस्या को वह शोरशराबे और धमाके के साथ बढ़ती है। अमावस्या को कुण्डलिनी अधिक हिंसा से भरी होती है। 4- अमावस्या दिन नकारात्मक उर्जाओं का शोधन प्राकृतिक रूप से होता है। खासतौर से मूलाधार चक्र,स्वाधिष्ठान चक्र , मणिपुर चक्र चक्र और चक्र पर जमा स्मोकी उर्जायें ब्रह्मांड की तरफ खीच रही होती हैं। जिससे इन चक्रों की सफाई होती है । ऐसे में यदि एकाग्रता बढ़ाई जाये तो चक्रों की बीमार उर्जाओं को सरलता से ब्रह्मांड अग्नि के हवाले किया जा सकता है। एकाग्रता बढ़ाने के लिये ही अमावस्या पर ध्यान-साधनाओं का विधान है। 5-अमावस्या के दिन नकारात्मकता लोगों के सूक्ष्म शरीर से निकलकर बाहर जा रही होती है। जिसमें कुछ नकारात्मक शक्तियां भी होती हैं। उनसे बचने के लिये अपनी उर्जाओं को सशक्त बनाने हेतु पूजा-अनुष्ठान आदि का सहारा लिया जाता है।इसके साथ ही चक्रों में जमी उर्जाओं को निकालने के लिये विभिन्न वस्तुओं का उपयोग किया जाता है। समधर्मी नकारात्मक उर्जाओं को अपने साथ लेकर निकल जाती हैं। इसी कारण अमावस्या के दिन भोजन, वस्त्र व अन्य वस्तुओं का दान करने का विधान बनाया गया। उससे उर्जाओं की तीब्र सफाई होती है।

6-पूर्णिमा एक शानदार उपस्थिति(मौजूदगी) है, तो अमावस्या अनुपस्थिति(गैरमौजूदगी) है। तार्किक दिमाग को हमेशा लगता है कि उपस्थिति शक्तिशाली है और अनुपस्थिति का मतलब कुछ नहीं है। मगर ऐसा नहीं है। जिस तरह अंधकार की अपनी ताकत होती है। वास्तव में वह प्रकाश से अधिक जोरदार होती है। दिन के मुकाबले रात अधिक तीव्रतापूर्ण होती है क्योंकि अंधकार सिर्फ एक अनुपस्थिति है। यह कहना गलत है कि अंधकार का अस्तित्व होता है। उसमें प्रकाश अनुपस्थित होता है और उस अनुपस्थिति की एक तीव्र उपस्थिति होती है।

जब आप अपनी चेतनता में भी ध्यानमग्न होते हैं, तो इसका मतलब है कि आप अनुपस्थित हो गए हैं। जब आप अनुपस्थित हो जाते हैं, तो आपकी उपस्थिति जबर्दस्त होती है।

7-जब आप उपस्थित होने की कोशिश करते हैं, तो आपकी कोई उपस्थिति नहीं होती। अहं की कोई मौजूदगी नहीं होती। लेकिन जब आप अनुपस्थित हो जाते हैं, तो आपकी उपस्थिति जबर्दस्त होती है। यही चीज अमावस्या पर लागू होती है। धीरे-धीरे चंद्रमा गायब हो गया है और उस अनुपस्थिति ने एक खास शक्ति पैदा की है। इसीलिए अमावस्या को महत्वपूर्ण माना जाता है। एक मेहनती, मजबूत, आक्रामक व्यक्ति के लिए अमावस्या निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण पहलू है। बहुत संवेदनशील और सौम्य व्यक्ति के लिए पूर्णिमा एक अहम पहलू है। दोनों की अपनी शक्ति है। गुणों के संदर्भ में पूर्णिमा प्रेम है और अमावस्या आक्रामकता(जोश) है। मगर हम दोनों का लाभ उठा सकते हैं। दोनों ऊर्जा हैं। 8-होली पर तन-मन की उर्जायें साफ होती हैं. दीपावली पर स्थान व वास्तु की उर्जायें साफ होकर धन-धान्य बढ़ाती हैं। इसी तरह अन्य सभी तिथि-त्योहार की मान्यतायें भी वैज्ञानिक हैं। वे सुखी जीवन के लिये आभामंडल व उर्जा चक्रों की सफाई व उर्जीकरण के निमित्त बनीं। जिनसे हम दैवीय शक्तियों का भरपूर लाभ उठाने में सक्षम होते हैं। जब इन मान्यताओं का वैज्ञानिक कारण नही बताया जाता तो उन्हें भगवान को खुश करने का नाम दिया जाता है या भगवान की लीला बता दिया जाता है तो पढ़े लिखे लोगों के मन में आशंका उत्पन्न होती है। वे इन्हें रूढ़ियों के रूप में देखने लगते हैं। खुद पर बोझ की तरह परम्परायें लादी जाती महसूश करते हैं। फलस्वरूप बड़ी संख्या में ऐसे लोग इस सरल और महान विज्ञान का लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं।

शुक्ल पक्ष... कृष्ण पक्ष;-

02 FACTS;-

1-हर महीने के पंद्रह दिन कृष्ण पक्ष में आते है और अन्य पंद्रह दिन शुक्ल पक्ष में। दोनों ही पक्षों की अपनी अलग अलग खासियत है लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं की शुक्ल पक्ष को कृष्ण पक्ष से श्रेष्ठ माना जाता है। पूर्णिमा और अमावस्या के मध्य के भाग को कृष्ण पक्ष कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि पूर्णिमा के अगले ही दिन से ही कृष्ण पक्ष शुरू हो जाता है।

कृष्ण पक्ष को किसी भी शुभ कार्य के लिए उचित नहीं माना जाता।इसके पीछे भी कई तर्कों का उल्लेख मिलता है जैसे पूर्णिमा के बाद जब चन्द्रमा घटता है यानी चन्द्रमा की कलाएं कम होती है तो चन्द्रमा की शक्ति यानी बल भी कमजोर होता है। इसके साथ ही चन्द्रमा के आकार में कमी आने से रातें अँधेरी होती है इस कारण से भी इस पक्ष को उतना शुभ नहीं माना जाता जितना शुक्ल पक्ष को मानते है।

2-अमावस्या और पूर्णिमा के बीच के अंतराल को शुक्ल पक्ष कहा जाता है।अमावस्या के बाद के 15 दिन इस पक्ष में आते है। अमावस्या के अगले ही दिन से चन्द्रमा का आकर बढ़ना शुरू हो जाता है या ऐसा कहा जाये कि चन्द्रमा की कलाएं भी बढ़ती है जिससे चन्द्रमा बड़ा होता जाता है और रातें अँधेरी नहीं रहती बल्कि चाँद की रौशनी से चमक जाती है और चाँद की चांदनी से भर उठती है। इस दौरान चंद्र बल मजबूत होता है और यही कारण है कि कोई भी शुभ काम करने के लिए इस पक्ष को उपयुक्त और सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

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16 कलाएं :-

07 FACTS;-

1-श्रीराम 12 कलाओं के ज्ञाता थे तो भगवान श्रीकृष्ण सभी 16 कलाओं के ज्ञाता हैं। चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं।सोलह श्रृंगार के बारे में भी आपने सुना होगा।उपनिषदों अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्‍वरतुल्य होता है।चंद्रमा के प्रकाश की 16 अवस्थाएं हैं उसी तरह मनुष्य के मन में भी एक प्रकाश है। मन को चंद्रमा के समान ही माना गया है। जिसकी अवस्था घटती और बढ़ती रहती है।चंद्र की इन सोलह अवस्थाओं से 16 कला का चलन हुआ। व्यक्ति का देह को छोड़कर पूर्ण प्रकाश हो जाना ही प्रथम मोक्ष है।जो व्यक्ति

मन और मस्तिष्क से अलग रहकर बोध करने लगता है वहीं 16 कलाओं में गति कर सकता है।

2-मनुष्य (मन) की तीन अवस्थाएं है ।प्रत्येक व्यक्ति को अपनी तीन अवस्थाओं का ही बोध होता है:- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति।जगत तीन स्तरों वाला है- 1.एक स्थूल जगत, जिसकी अनुभूति जाग्रत अवस्था में होती है। 2.दूसरा सूक्ष्म जगत, जिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं और 3.तीसरा कारण जगत, जिसकी अनुभूति सुषुप्ति में होती है।सोलह कलाओं का

अर्थ संपूर्ण बोधपूर्ण ज्ञान से है। मनुष्‍य ने स्वयं को तीन अवस्थाओं से आगे कुछ नहीं जाना और न समझा। प्रत्येक मनुष्य में ये 16 कलाएं सुप्त अवस्था में होती है। अर्थात इसका संबंध अनुभूत यथार्थ ज्ञान की सोलह अवस्थाओं से है। इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न मिलते हैं। यथा....

3-16 कलाओं के नाम. इन सोलह कलाओं के नाम अलग-अलग ग्रंथों में अलग अलग मिलते हैं।

1.अन्नमया, 2.प्राणमया, 3.मनोमया, 4.विज्ञानमया, 5.आनंदमया, 6.अतिशयिनी, 7.विपरिनाभिमी, 8.संक्रमिनी, 9.प्रभवि, 10.कुंथिनी, 11.विकासिनी, 12.मर्यदिनी, 13.सन्हालादिनी, 14.आह्लादिनी, 15.परिपूर्ण और 16.स्वरुपवस्थित।

4-जिन लोगों में भी ये सभी कलाएं अथवा इस तरह के गुण होते हैं वे ईश्वर की तरह ही होते हैं। हालांकि, किसी इंसान में इन सभी गुणों का एक साथ मिलना असंभव है। ये सभी गुण केवल द्वापर युग में भगवान श्री कृष्ण के अवतार रूप में ही मिलते हैं। जिसके कारण उन्हें पूर्णावतार और इन सोलह कलाओं का स्वामी कहते हैं। ये 16 कलाएं हैं....

1-श्री संपदा

2-भू संपदा

3-कीर्ति संपदा

4-वाणी सम्मोहन

5-लीला

6-कांति

7-विद्या

8-विमला

9-उत्कर्षिणि शक्ति

10-नीर-क्षीर विवेक

11-कर्मण्यता

12-योगशक्ति

13-विनय

14-सत्य धारणा

15-आधिपत्य

16-अनुग्रह क्षमता

5-जब योगी आत्मज्ञान प्राप्त कर लेता है तो धर्मानुसार वह 16 कलाओं में पारंगत हो जाता है। 16 कलाएं दरअसल बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियां हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की 15 अवस्थाएं ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का।सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएं होती हैं। यही दिव्यता है।भगवदगीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने आत्म तत्व प्राप्त योगी के बोध की उन्नीस स्थितियों को प्रकाश की भिन्न-भिन्न मात्रा से बताया है।

6-आत्मा की सबसे पहली कला ही विलक्षण है। इस पहली अवस्था या उससे पहली की तीन स्थिति होने पर भी योगी अपना जन्म और मृत्यु का दृष्टा हो जाता है और मृत्यु भय से मुक्त हो

जाता है।श्रीकृष्ण कहते हैं जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। 7-श्रीकृष्ण कहते हैं जो योगी अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष, उत्तरायण के छह माह में देह त्यागते हैं अर्थात जिन पुरुषों और योगियों में आत्म ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, वह ज्ञान के प्रकाश से अग्निमय, ज्योर्तिमय, दिन के सामान, शुक्लपक्ष की चांदनी के समान प्रकाशमय और उत्तरायण के छह माहों के समान परम प्रकाशमय हो जाते हैं।अर्थात जिन्हें आत्मज्ञान हो जाता है।आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना या देह से अलग स्वयं की स्थिति को पहचानना।

विस्तार से 16 कलाएं :- 1.अग्नि:- बुद्धि सतोगुणी हो जाती है दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव विकसित होने लगता है। 2.ज्योति:- ज्योति के सामान आत्म साक्षात्कार की प्रबल इच्छा बनी रहती है। दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव ज्योति के सामान गहरा होता जाता है। 3.अहः- दृष्टा एवं साक्षी स्वभाव दिन के प्रकाश की तरह स्थित हो जाता है। 4. 16 कला - 15 कला शुक्ल पक्ष + 01 उत्तरायण कला = 16

1.बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना। 2.अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है। 3.चित्त वृत्ति नष्ट हो जाती है। 4.अहंकार नष्ट हो जाता है। 5.संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं। स्वयं के स्वरुप का बोध होने लगता है। 6.आकाश तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। कहा हुआ प्रत्येक शब्द सत्य होता है। 7.वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है। 8.अग्नि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टि मात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है। 9.जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती। 10.पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है, नींद, भूख प्यास नहीं लगती। 11.जन्म, मृत्यु, स्थिति अपने आधीन हो जाती है। 12.समस्त भूतों से एक रूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करते हैं। 13.समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है। 14.सर्व व्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव करता है। लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है। 15.कारण का भी कारण हो जाता है। यह अव्यक्त अवस्था है। 16.उत्तरायण कला- अपनी इच्छा अनुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है जैसे राम, कृष्ण ।यहां उत्तरायण के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है। सोलहवीं कला पहले और पन्द्रहवीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण सगुण स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है। सोलह कला युक्त पुरुष में व्यक्त अव्यक्त की सभी कलाएं होती हैं। यही दिव्यता है।

....SHIVOHAM...

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