शिव वास/कर्ण पिशाचिनी सिद्धि/संत जिनके साथ यक्षिणी रहती थीं
शिव वास से पता चलता है इस समय महादेव क्या कर रहे हैं
सभी अपनों को राम राम ऐसे अनुष्ठान जिन्हें स्वीकारना भगवान शिव की भक्ति विवशता होती है उनमें शिव वास देखा जाना अनिवार्य होता है. रुद्राभिषेक, शिवार्चन, महामृत्युंजय अनुष्ठान सहित शिव जी के कई अनुष्ठान अचूक होते हैं. उनकी प्रार्थनायें और उर्जायें भगवान शिव तक पहुंचती ही हैं. इनके लिये पहले से पता कर लें कि शिव जी उस समय क्या कर रहे हैं. कहा जाता है भोलेनाथ अपने भक्तों की भक्ति से विवश होकर हर समय उनकी प्रार्थनायें पूरी करने में जुटे रहते थे. जिससे ब्रह्मांड के कामकाज प्रभावित होने लगे. इसे ऐसे समझें जैसे कोई प्राइम मिनिस्टर हर दिन 24 घंटे जनसमस्यायें ही सुनता रहे तो राज काज नही चल सकता. उसके लिये भी समय देना जरूरी होता है. देवताओं के समक्ष बड़े संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई. साथ ही शिव जी के परिवार के लोग उनका साथ पाने को तरसने लगे. तब भगवान विष्णु ने शिव वास का नियम बनाया. ताकि भोलेनाथ को भक्तों की पुकार सुनने के साथ ही संसार का संचालन करने का भी समय मिल सके. साथ ही वे कुछ समय अपने परिवार को भी दे सकें. शिव वास से पता चलता है कि उस समय भगवान शिव क्या कर रहे हैं. उनसे प्रार्थना का कौन सा समय उचित है. नारद ऋषि द्वारा रचित शिव वास देखने का फार्मूला समझ लें. उसके अनुसार शिव वास का विचार करें. 1- जिस दिन रुद्राभिषेक या कोई भी विशेष शिव साधना करनी हो उस दिन की तिथि को 2 गुना कर दें. उसमें 5 जोड़ दें. उसके टोटल को 7 से डिवाइड करें. उससे प्राप्त शेष शिव वास बताता है. शेष 1,2,3 बचे तो शिव वास अनुकूल है. उसमें रुद्राभिषेक या शिव का कोई भी विशेष अनुष्ठान कर सकते हैं. शेष में 0, 4, 5, 6 बचे तो शिव वास प्रतिकूल है. उसमें रुद्राभिषेक या महामृत्युंजय प्रयोग या विषेश शिव अनुष्ठान न करें. 1-शेष आने का मतलब है भगवान शिव माता गौरी के साथ भक्तों के कल्याण का काम कर रहे हैं. इस समय की गई शिव साधना सुख समृद्धि जरूर देती है. 2 भगवान कैलाश पर विराजमान होकर आनंद में होते हैं. इस समय की गई शिव साधना से परिवार में हर तरह के सुख स्थापित होते हैं. 3 शेष आने का मतलब है भगवान शिव माता पार्वती के साथ नंदी पर सवार होकर लोगों का दुख दूर करने निकले हैं. इस समय की गई शिव साधना से मनोकामनायें जरूर जरूर होती हैं. 0 शेष आने का मतलब है भगवान शमशान में विराजमान हैं. इस समय की विशेष शिव साधना मृत्यु या मृत्यु तुल्य कष्ट देने वाली बताई गई है. 4 शेष आने का मतलब है महादेव दूसरे देवी देवताओं की समस्या सुन रहे हैं. इस समय की विशेष शिव साधना दुख पैदा करने वाली बताई गई है. 5 शेष आने का मतलब है शिवशंकर माता पार्वती के साथ एकांत वास में हैं. इस समय की विशेष शिव साधना संतान को पीड़ित करने वाली बताई गई है. 6 शेष आने का मतलब है भगवान शिव भोजन ग्रहण कर रहे हैं. इस समय की विशेष शिव साधना रोग पैदा करने वाली बताई गई है. तिथि की गणना शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से कृष्ण पक्ष की अमावस्या तक 1 से 30 तक करें. - सोमवार, प्रदोष, शिवरात्रि पर शिव वास देखने की जरूरत नही होती. - ज्योतिर्लिंग क्षेत्र में शिव वास देखने की जरूरत नही होती. -शिव जी की सामान्य पूजा अर्चना में शिव वास देखने की जरूरत नही होती. -मानस पूजा में शिव वास देखने की जरूरत नही होती. -जनहितार्थ की जाने वाली विशेष शिव साधनाओं में भी शिव वास की जरूरत नही होती. -शिव गुरू के समक्ष अपनी बात रखने के लिये कभी शिव वास की जरूरत नही होती. हर हर महादेव ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
संत कर्ण कर्ण-पिशाचिनी सिद्धि *बिना पूछे ही लोगों का हाल बता देने वाले संत* *उनकी सिद्धियां बड़ी ही रोचक थीं. लोगों को देखते ही उनका हाल बता देते थे. अनजाने लोगों के भी नाम, उनके परिवार वालों के नाम, दोस्तों के नाम, पता सब बता देते थे. किस की जेब में कितने पैसे हैं यह भी बता देते थे. कौन क्या खाकर आया है वे बता देते थे. उन्हें कर्ण पिशाचिनी सिद्ध थी. वही लोगों की जासूसी करके उनका हाल बताती थी*. लोग उन्हें भगवान मानते थे. लोगों की मान्यता भ्रमपूर्ण थी. वे सिद्ध थे, भगवान नही. सभी को एक बात हमेशा याद रखनी चाहिये. वह यह कि भगवान के अलावा कोई भी भगवान नही हो सकता. कोई भी इंशान सिद्ध हो सकता है, सामर्थवान हो सकता है. मगर भगवान नही हो सकता. वे खुद भी लोगों से कहते थे मुझे भगवान न मानो, इससे मुझे नर्क में जाना पड़ेगा. लेकिन चमत्कार को नमस्कार करने के आदी लोग उन्हें भगवान मानते थे. इससे लगे दोष को मिटाने के लिये वे गंगा जी की परिक्रमा पर निकले थे. उन्हें लोग सिद्ध बाबा के नाम से पुकारते थे. मूल रूप से बंगाल के रहने वाले थे. सिद्धियां अर्जित करने के लिये गंगासागर में 14 साल बिताये. गंगासागर में उनका आश्रम था. वहीं गुरू के सानिग्ध में कर्ण पिशाचिनी सिद्धि अर्जित की. जब मै उनसे मिला तब तक कर्ण पिशाचिनी के बारे में कुछ नही जानता था. उनसे ही इस बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त हुई. कर्ण पिशाचिनी एक देवी हैं. सिद्ध होने पर वे साधक के कान में रहती हैं. जिस कान में वे रहती हैं उससे सुनाई देना बंद हो जाता है. जो कर्ण पुशाचिनी देवी कहती हैं वही उसे सुनाई देता है. कर्ण का अर्थ होता है कान. कान पर कब्जा करने के कारण देवी को कर्ण पिशाचिनी नाम मिला. उनके पास हर व्यक्ति के जीवन में घटी घटनाओं की जानकारी होती है.
सामने आते ही वे लोगों के बारे में सब कुछ बता देती हैं. व्यक्ति का नाम क्या है. उसने कब क्या खाया. किससे कब क्या बातें कीं. कब किससे मिला. उस मुलाकात में क्या हुआ. उसने ऊपर के कपड़ों के नीचे क्या पहन रखा है. उसकी जेब में क्या है. आदि जानकारियां कर्ण पिशाचिनी देवी के पास होती हैं. जिन्हें वे साधक के कान में बताती हैं. मगर व्यक्ति क्या सोच रहा है यह देवी को नही पता होता. उन्हें भविष्य की जानकारी नही होती. और न ही किसी समस्या का समाधान देती हैं. देवी द्वारा बताई बातें जब साधक लोगों को बताता है तो लोग उसे चमत्कारिक व्यक्ति मानने लगते हैं. कुछ लोग उसे भगवान सा मानने लगते हैं. जिससे अधिकांश साधक कालांतर में अहंकार के शिकार होकर अधोगति को प्राप्त हो जाते हैं. सिद्ध बाबा के साथ भी एेसा ही हुआ. उनके पास हजारों लोग आने लगे. सभी बाबा जी की जय जयकार करते न थकते. जिससे सिद्ध बाबा के मन में विचलन आने लगा. वे अहंकार और प्रपंच के शिकार होने लगे. समय रहते उनके गुरू ने उन्हें सतर्क किया और प्रायश्चित के लिये गंगा जी की परिक्रमा करने का आदेश दिया. गुरू आज्ञा से वे उन दिनों गंगा मइया की पर्क्रमा पर निकने थे. उनके साथ चार शिष्य भी थे. वे कानपुर के पास स्थित बिठूर में गंगा किनारे स्थित काली मंदिर के पास ठहरे. तब मै कानपुर में रहता था. कभी कभी काली मंदिर दर्शन के लिये जाया करता था. उस दिन दर्शन के लिये गया तो गंगा किनारे कुछ साधु दिखे. काली मां के दर्शन करके मै साधुओं से मिलने के लिये धारा की तरफ चला गया. दोपहर का समय था. साधु खिचड़ी का प्रसाद ग्रहण कर रहे थे. मैने उन्हें प्रणाम किया तो खाने के लिये मुझे भी खिचड़ी दी. साधुओं ने अपने रुकने के लिये छोटे आकार के दो टेंट बांध रखे थे. एक में उनके सिद्ध बाबा रहते थे दूसरे में शिष्य. सिद्ध बाबा वाले टेंट के पास मै गया तो भीतर से मेरा नाम लेकर बुलाया गया. मै चकित सा टेंट के भीतर गया. वहां सिद्ध बाबा जमीन पर कम्बल बिछाकर लेटे थे. मुझे पास बैठने का इशारा किया. मै बैठ गया. सोचने लगा उन्हें मेरा नाम कैसे पता चला. बाबा आंखें बंद करके लेटे रहे. कुछ मिनटों बाद उन्होंने आंखों खोलीं. मेरे बारे में बताना शुरू किया. मेरे घर परिवार में कौन कौन हैं. उनके नाम क्या हैं. मै क्या करता हूं. सहित उन्होंने मेरे बारे में सारी जानकारी दे दी. यहां तक कि मै पूर्व में किन किन संतों से मिला और उनसे मुझे क्या क्या मिला. यह सब भी बता दिया. मै आश्चर्य में था. जिंदगी की कुछ बातें जिन्हें मै भूल चुका था, उन्होंने वे भी बता दीं. पूर्व में मेरे द्वारा की गई संतों की सेवा से वे प्रभावित हुए. इसलिये मुझसे एेसे बात करने लगे जैसे हम पुराने परिचित हों. इसी प्रभाव में उन्होंने कर्ण पिशाचिनी के बारे में जानकारी दी. जिससे मेरे मन का कौतुहल रुका. साधु वहां 15 दिन के लिये रुके थे. मै उनके साथ दो दिन रुका. इस बीच सिद्ध बाबा ने मुझे अपने शिष्यों की तरह अपनापन दिया. उन्होंने कर्ण पिशाचिनी सिद्धि और उसके मंत्र की शास्त्रीय जानकारी दी. साधना के दौरान उन्हं कैसे व्यवहार में लाना है यह भी सिखाया. खासतौर से मंत्र के उच्चारण और उसकी आवृत्तियों को सिखाया. कर्ण पिशाचिनी साधना सिखाने के बाद सिद्ध बाबा ने मुझसे यह साधना न करने की हिदायत दी. उन्होंने कहा कुछ सालों बाद हमारी दोबारा मुलाकात होगी. तब तक मै दोषमुक्त हो चुका हुंगा. यदि चाहोगे तो तब मै अपने साथ रखकर तुम्हें कर्ण पिशाचिनी सिद्ध करा दूंगा. 9 साल बाद सिद्ध बाबा मुझे दोबारा मिले. उस दिन मै हरिद्वार में था. एक मित्र के साथ गंगा स्नान कर रहा था. तभी उन्होंने मुझे देखा और पहचान लिया. वे अपने 10-12 शिष्यों के साथ थे. कहीं जा रहे थे. तभी मुझे देखा. रुक गये. मै नहाकर गंगा जी की धारा से बाहर निकला तो एक शिष्य को भेजकर मुझे अपने पास बुलवाया. मैने भी उन्हें पहचान लिया. वे एक आश्रम में रुके थे. अपने साथ मुझे भी वहां ले गये. उस रात मै उनके साथ ही रुका. रात में उन्होंने कहा तुमसे मैने कर्ण पिशाचिनी सिद्ध कराने का वादा किया था. क्या करना चाहोगे.मुझे नही लगता कि कर्ण पिशाचिनी की मुझे आवश्यकता है. मैने विनमरता पूर्वक उन्हें मना किया. अगले दिन उन्हें गंगासागर के लिये रवाना होना था. *शिव शरणं* ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; संत जिनके साथ यक्षिणी रहती थीं* उन्होंने यक्षिणी को पत्नी के रूप में सिद्ध किया था. देवी उनके साथ रहती थीं. तन से मन से धन से उनका सहयोग करती थीं. लोक परलोक की मनचाही सूचनायें देती थीं. यक्षिणी सिद्धि के बाद उनका जीवन एश्वर्य से भर गया. मगर उन्हें अपनी इस सिद्धी पर अफसोस था.* मेरी मुलाकात उनसे मुम्बई में हुई. बात 1989 की है. तब मै कानपुर से प्रकाशित दैनिक स्वतंत्र भारत अखबार में रिपोर्टर था. भारत सरकार के श्रम मंत्रालय ने देश भर से 22 पत्रकारों का विशेष प्रशिक्षण हेतु चयन किया. उनमें मै भी था. उसी सिलसिले में मुम्बई गया. प्रशिक्षण के लिये कुरला के सेंट्रल इंटीट्यूट में वर्कशाप का आयोजन हुआ. मंत्रातय की तरफ से हम सभी पत्रकारों के रहने की व्यवस्था इंटीट्यूट के हास्टल में की गई थी. वर्कशाप का समय सुबह 8 बजे से दोपहर 2 बजे तक था. उसके बाद हम फ्री होते थे. खाली वक्त में हम काफी दूर पैदल चलकर समुद्र किनारे टहलने निकल जाते थे. मेरे साथ दार्जलिंग से आये पत्रकार दीपांश भी होते थे. कभी कभी कुछ और लोग भी साथ जाते थे. वह सोलहवां दिन था जब सागर किनारे मेरी मुलाकात उनसे हुई. मै दीपांश के साथ जा रहा था तभी पास से कुछ लोगों की टोली गुजरी. उनमें एक साधु थे, बाकी उनके शिष्य. साधु फिल्मी साधुओं की तरह बहुत फैशनेबल लग रहे थे. मंहगे सफेद कपड़े का चोला पहना था. हाथों में रत्नजड़ित सोने की अंगूठियां थीं. गले में सोने की कई चैन थीं. सभी चेन में किसी न किसी देवता का लाकेट था. उनके वस्त्रों से निकल रही मंहगे इत्र की सुगंध दूर तक फैल रही थी. उनके शिष्य भी वेशभूषा से रईश ही लग रहे थे. वे सब अपनी मस्ती में बातें करते हुए पास से गुजर गये. एक दूसरे को क्रास करते समय मेरी और साधु की नजरें मिलीं. वे एक तरह निकल गये मै दूसरी तरफ. उनकी आंखों में देखकर मुझे अनायास ही लगा कि वे सिद्ध साधु हैं. उनसे बातें करने का मन हुआ. मगर विपरीत दिशा में चलने के कारण हम एक दूसरे से दूर होते जा रहे थे. सो बात करने का अवसर नही मिला. अगले दिन सागर किनारे टहलते हुए हम फिर आमने सामने आ गये. वे भी वहां रोज टहलने आते थे. उन्हें देखकर मेरे मन में बात करनी की इच्छा हुई. विचार किया कि रुककर उनसे बात करुंगा. बात करने का इरादा उनका भी था. क्योंकि पास आने पर वे रुक गये. सीधे मुझसे मुखातिब होते हुए पूछा आप पत्रकार हो, कानपुर से आये हो. उनका सवाल सुनकर मेरे साथ दीपांश भी आश्चर्य में थे. हम साधु से कुछ कहते उससे पहले ही उन्होंने हमारे आश्चर्य को और बढ़ा दिया. अबकी उन्होंने दीपांश का नाम लेकर सम्बोधित किया कहा दीपांश आप दार्जलिंग से हो. आप भी पत्रकार हो. इससे पहले कि वे हमारे आश्चर्य को बढ़ाने वाला कोई और सवाल पूछते. मैने उनसे पूछा आप हमारे बारे में कैसे जानते हैं. मेरे सवाल के जवाब में वे हंसते हुए बोले चलो कहीं बैठकर बात करते हैं. पत्रकारों से बातें करने मुझे अच्छा लगता है. दीपांश काफी धार्मिक किस्म के व्यक्ति थे. पूजा पाठ में उनका बहुत रुझान था. उनका पारिवारिक बैकग्राउंड पूजा पाठ वाला था. साधु संतों से मिलना मेरी तरह उन्हें भी पसंद था. हलांकि उस समय तक मुझे पूजा पाठ में अधिक दिलचस्पी नही थी. बस भगवान के सामने हाथ जोड़ लेता था. तब तक मै तंत्र मंत्र, जादू, टोना, ज्योतिष आदि को बिल्कुल नही मानता था. बल्कि इन चीजों को मानने वालों को मै पांखड का शिकार मानता था. बचपन से ही साधु संगत मिलती रही थी. सो साधु संतों में मेरा पूरा विश्वास था. इस बात पर दीपांश कहते थे आप आधे धार्मिक हो. मेरा जवाब होता मुझे धार्मिक नही अध्यात्मिक बनना पसंद है. हम दोनो को ही उन साधु से बात करने की दिलचस्ची थी. तय हुआ कि उनके होटल में बैठा जाये. वे एक होटल में ठहरे थे. बातचीत में पता चला वे साधु मूल रूप से मध्य प्रदेश के रहने वाले थे. नाम था देवनाथ. उनके शिष्य उन्हें महराज जी कहकर सम्बोधित करते थे. देवनाथ जी के गुरू को यक्षिणी सिद्ध थीं. उन्होंने यक्षिणी को मां स्वरूप में सिद्ध किया था. उन्होंने ही देवनाथ जी को यक्षिणी सिद्ध कराई. मगर देवनाथ जी ने यक्षिणी को पत्नी स्वरूप में सिद्ध किया. बाद में इस बात पर वे बहुत पछताये. देवनाथ जी ने 16 साल पहले यक्षिणी सिद्धी हासिल की. विधान उनके गुरू ने सिखाया. साधना की अवधि 41 दिन की थी. इसके लिये उन्हें शमशान के नजदीक स्थित एक गांव में रखा गया. वहां गांव से बाहर मौजूद गूलर के पेड़ पर बैठकर मंत्र जप करना होता था. साधना का काल रात 10 से 3 बजे का था. विधान के मुताबिक 41वी रात में यक्षिणी को प्रकट होना था. उस वक्त वहां किसी अन्य की मौजूदगी यक्षिणी को आने से रोक सकती थी. इसलिये अंतिम दिन उनके गुरू साधना स्थल पर नही रुके. वे सारी बातें समझाकर देवनाथ जी को अकेले गूलर के पेड़ पर छोड़कर लौट आये. साधक सक्षम हो और विधान का ठीक से पालन किया गया हो तो अंतिम दिन देवी यक्षिणी प्रत्यक्ष होती हैं. वे साधक से उसकी मर्जी पूछती हैं कि वह उन्हें मां, बहन या प्रेमिका-पत्नी में से किस रूप में पाना चाहता है. साधक अपनी इच्छा बताकर देवी को माला पहनाता है और उनसे आजीवन साथ रहने का वचन लेता है. सिद्ध देवी साधक द्वारा जताई इच्छानुसार सदैव उसके साथ रहती हैं. देवनाथ जी के गुरू ने कहा था कि यक्षिणी को मां रूप में अपनाना. देवनाथ जी ने अपने गुरू द्वारा बताये विधान का पूरी तरह पालन किया. मगर देवी यक्षिणी को अपनाने वाला स्वरूप बदल दिया. उनके साथ के कुछ साधुओं ने बताया था कि पत्नी रूप में प्राप्त यक्षिणी साधक की सदैव सेवा करती है. उन्हें धन सम्पत्ति देती है. मान सम्मान प्रतिष्ठा दिलाती है. देवलोक की औषधियां लाकर देती है जिससे साधक सदैव स्वस्थ और शक्तिशाली बना रहता है. उसका यौवन और सम्मोहन बना रहता है. मगर यदि साधक किसी अन्य महिला के साथ सम्बंध बनाये तो उसे मार डालती है. देवनाथ जी के मन में तमाम सवाल थे. क्या कोई देवी पत्नी बन सकती है. पत्नी बनकर इस तरह के सुख दे सकती है. वे अपने सवालों के साक्षात जवाब चाहते थे. इसलिये साधना की अंतिम रात में जब देवी यक्षिणी प्रकट हुईं तो उन्हें पत्नी रूप मे साथ रहने की इच्छा जता दी. देवी उनके जीवन में पत्नी रूप में पधार गईं. उनके जीवन में आते ही देवनाथ की काया पलट गई. उनके मान सम्मान, धन सम्पत्ति में दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ोत्तरी होने लगी. मगर वे वासनागामी हो गए. अधिकांश समय यक्षिणी के साथ बिताने लगे. कई कई दिनों तक एक ही कमरे में पड़े रहते थे. ध्यान साधना, पूजा पाठ लगभग बंद हो गया. इस बात से कुपित होकर देवनाथ जी के गुरू ने उन्हें त्याग दिया. जो कि उनके लिये बहुत बड़ी क्षति थी. 10-12 साल तक उन्हें यक्षिणी की सेवा बहुत अच्छी लगी. उस बीच उनके गुरू ने शरीर त्याग दिया. उन्हें गुरू देह को मुखाग्नि देने का अधिकार नही मिला. इस बात ने उन्हें झकझोरा. वे जान गये थे कि इस जीवन में उन्हें मोक्ष नही मिलेगा. उन्हें यक्षिणी को पत्नी रूप में स्वीकारने का अफसोस होने लगा. देवी को साथ रखने की एेसी आदत पड़ी कि उन्हें छोड़ भी नही पा रहे थे. गलती का अहसास होने पर वे अध्यात्म की मुख्य धारा की तरफ लौटने लगे. लोगों से मिलना जुलना शुरू किया. मुम्बई मुलाकात में बिना पूछे मेरे और दीपांश के बारे में उन्हें जो जानकारी थी वह यक्षिणी द्वारा दी गई थी. उस दिन के बाद हम उनसे रोज मिलते रहे. उस बीच उनके साथ यक्षिणी होने के प्रबल प्रमाण बार बार सामने आते रहे. अब वे यक्षिणी का उपयोग दूसरों की भलाई के लिये भी करने लगे थे. *शिव शरणं*