मंत्र साधना में संकल्प विनियोग और न्यास का क्या महत्त्व हैं?कैसे जागृति होती हैं मंत्रों में न
मन्त्र विज्ञान ;-
03 FACTS;-
1-साधना का एक ऐसा शब्द और विज्ञान है कि उसका उच्चारण करते ही किसी चमत्कारी शक्ति का बोध होता है। ऐसी धारणा है कि प्राचीन काल के योगी, ऋषि और तत्त्वदर्शी महापुरुषों ने मन्त्रबल से पृथ्वी, देवलोक और ब्रह्माण्ड की अनन्त शक्तियों पर विजय पाई थी। मन्त्र शक्ति के प्रभाव से वे इतने समर्थ बन गये थे कि इच्छानुसार किसी भी पदार्थ का हस्तान्तरण, पदार्थ को शक्ति में बदल देते थे।
2-शाप और वरदान मन्त्र का ही प्रभाव माना जाता है। एक क्षण में किसी का रोग अच्छा कर देना एक पल में करोड़ों मील दूर की बात जान लेना, एक नक्षत्र से दूसरे नक्षत्र की जानकारी और शरीर की 72 हजार नाड़ियों के एक- एक जोड़ की ही अलौकिक शक्ति थी। इसलिए भारतीय तत्त्वदर्शन में मन्त्र शक्ति पर जितनी शोधें हुई हैं, उतनी और किसी पर भी नहीं हुई। मन्त्रों के आविष्कार होने के कारण ही ऋषि मन्त्र- दृष्टा कहलाते थे।
3-वेद और कुछ नहीं, एक प्रकार के मन्त्र विज्ञान है जिनमें विराट् ब्रह्माण्ड की उन अलौकिक सूक्ष्म और चेतन सत्ताओं और शक्तियों तक से सम्बन्ध स्थापित करने के गूढ़ रहस्य दिये हुए हैं, जिनके सम्बन्ध में विज्ञान अभी ‘क ख ग’ भी नहीं जानता।किसी भी धार्मिक कृत्य, पूजा-पाठ
व मंत्र आदि के जप से पूर्व होने वाली सूक्ष्म क्रियाओं संकल्प, विनियोग, न्यास व ध्यान आदि से आम जन सामान्यतः अनभिज्ञ होता है।आखिर ये सब जानने की हमें आवश्यकता क्यों हैं ..इसका उत्तर तो यही हैं की जब तक साधना क्षेत्र के बारे में ज्ञान का वह आवश्यक भाव भूमि हमारे जीवन में ना आ जाये सफलता कैसे प्राप्त होगी।हाँ सामान्य साधना में सफ़लत संभव हो सकती हैं पर उच्च स्तरीय साधना में सफलता पर प्रश्न वाचक चिन्ह ही हैं ।
मंत्र किस शक्ति को जागृत करता है?-
05 FACTS;-
1-मंत्रों में शक्ति कहाँ से आती है? कौन- सा मंत्र किस शक्ति को जागृत करता है? उसका प्रभाव परिचय किस प्रकार उत्पन्न होता है? इसका एक सुनिश्चित विज्ञान है। सामान्य दृष्टि में मंत्र कुछ अक्षरों या शब्दों का समुच्चय मात्र दिखाई देते हैं, परन्तु वस्तुतः मन्त्र वहीं तक सीमित नहीं है। उनका निर्माण एक विशेष प्रभाव उत्पन्न करने के लिए किया गया है और उनके उपयोग से, साधन से साधक में एक विशेष शक्ति जागृत होती है। यह बात अलग है कि उस शक्ति को देखा नहीं जा सकता है ।गर्मी- सर्दी, सुख- दुःख आदि की केवल अनुभूति होती है। पदार्थ के रूप में न तो उन्हें प्रत्यक्ष देखा जा सकता है और न ही पदार्थ की तरह अनुभव किया जा सकता है। यही बात मंत्रों के सम्बन्ध में भी लागू होती है।
2- किसी सोते हुए व्यक्ति का हाथ पकड़ कर, झकझोर कर उसे जगाया तो जा सकता है परन्तु हाथ पकड़ना या झकझोरना जागृति नहीं है। अधिक से अधिक इस प्रक्रिया को जगाने की निमित्त होने का श्रेय दिया जा सकता है। मंत्रोच्चार भी अन्तरंग में और अन्तरिक्ष में भरी पड़ी अगणित चेतना शक्तियों में से कुछ को जागृत करने का निमित्त मात्र है।मन्त्रों में शक्ति कहाँ से आती है? या किस प्रकार मंत्रोच्चार के अन्तरंग में निहित शक्ति जागृत होती है तथा उसमें अन्तरिक्ष में भरी हुई शक्तियों से सम्पर्क सान्निध्य स्थापित होता है? इसका एक सुनिश्चित विज्ञान है।
3- किस मंत्र से, किस शक्ति को, किस आधार पर जगाया जाये इसका संकेत हर मंत्र के साथ जुड़े हुए विनियोग में बताया गया है। मन्त्र चाहे वैदिक हो या तांत्रिक,दक्षिण मार्गी हो या वाममार्गी, सभी में विनियोग होता है और मंत्र साधन के विधान के साथ ही उनका उल्लेख भी रहता है। जप तो केवल मंत्र का ही किया जाता है, किन्तु नियम है कि जप आरम्भ करते समय इस विनियोग का स्मरण कर लिया जाये। इस स्मरण में मंत्र के स्वरूप और लक्ष्य के प्रति साधना काल में जागरूकता बनी रहती है और साधना सही दिशा में अग्रसर होती रहती है।
4-किस मन्त्र के लिए ब्रह्म चेतना की किस दिव्य तरंग का प्रयोग किया जाय? इसके लिए विधान निर्धारित है। स्थापना, पूजन, स्तवन आदि क्रियाएँ इसी प्रयोजन के लिए होती हैं। किसके लिए देव सम्पर्क का कौन सा तरीका ठीक रहेगा यह निश्चय करके ही मन्त्र साधक को प्रगति पथ पर अग्रसर होना होता है। दबी हुई, प्रसुप्त क्षमताओं को प्रखर करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है यन्त्रों को चलाने के लिए ईंधन चाहिए। हाथ पैर से चलने वाले हाथ पैरों को काम करते रहने के लिए तो ऊर्जा की जरूरत रहती ही है। यह ऊर्जा, शक्ति जुटाने पर ही यन्त्र काम करते हैं।
5-मन्त्रों की सफलता भी इसी प्रकार ऊर्जा उत्पन्न करने पर निर्भर है।मन्त्र साधना में पाँच प्रमुख आधार है। जो इन सब साधनों को जुटा कर मन्त्र साधन कर सकें, उन्हें अभीष्ट प्रयोजन की प्राप्ति होती है।मन्त्र साधना विज्ञान ,इसी आधार पर खड़ा किया गया है।
5-1-संकल्प
5-2-विनियोग
5-3- न्यास
5-3-1-करन्यास
5-3-2-अंग न्यास
5-4-ध्यान मंत्र
5-5-मंत्र जप
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1-संकल्प का महत्त्व;-
संकल्प में हर प्रकार का विवरण होता है जैसे कि किसी बैंक के खाते में होता है यानि आप किस प्रकार का खाता खोलना चाहते हैं (सेविंग आदि)।यदि आप पूजा कार्य के
आरम्भ में संकल्प नहीं करेंगे तो आप की पूजा निरर्थक हो जाएगी क्योंकि उसे कोई आधार ही नहीं मिल सकेगा। संकल्प मानसिक न होकर वाचिक होगा तो आपके शब्द ब्रह्माण्ड में नाद-ब्रह्म के केनवस पर रिकाॅर्ड हो जायेंगे ।वो अमिट होंगे और आपके ऊपर प्रभावी होंगे और फलस्वरूप आपका आवेदन स्वीकार हो जाएगा अर्थात् आपकी पूजा को आधार मिल जाएगा।
2-मंत्र साधना में विनियोग का महत्त्व;-
02 FACTS;-
1-ऊर्जा का उत्पादन किस प्रकार किया जाय, इसी का संकेत विनियोग में निहित रहता है।विनियोग का अभिप्राय नामांकित होने की प्रक्रिया से है। विनियोग में मंत्र के ऋषि देवता और छन्द का उल्लेख किया जाता है। ऐसा किये बिना ठीक वैसे ही होता है जैसे बैंक में पैसा जमा करने वाला व्यक्ति अपना नाम एवं विवरण दर्ज न करे। ऐसी स्थिति में ऐसे व्यक्ति की मृत्यु के उपरान्त उसका धन सरकारी कोष में चला जाता है। विनियोग के बिना की गई पूजा का फल ठीक इसी प्रकार ब्रह्माण्ड की विराटता में समा जाता है और पूजा करने वाले को इसका कोई फल नहीं मिल पाता है।
2-किस मन्त्र से किस शक्ति को, किस आधार पर जगाया जाय, इसका संकेत हर मन्त्र के साथ जुड़े हुए विनियोग में बताया जाता है। वैदिक और तान्त्रिक सभी मन्त्रों का विनियोग होता है। आगम और निगम शास्त्रों में मन्त्र विधान के साथ ही उसका उल्लेख रहता है। जप तो मूल मन्त्र का ही किया जाता है, पर उसे आरम्भ करते समय विनियोग को पढ़ लेना अथवा स्मरण कर लेना आवश्यक होता है। इससे मन्त्र के स्वरूप और लक्ष्य के प्रति साधना काल में जागरूकता बनी रहती है और कदम सही दिशा में बढ़ता रहता है। मन्त्र विनियोग के
पाँच अङ्ग हैं। जो इन सब साधनों को जुटा कर मन्त्र साधन कर सके, उसे अभीष्ट प्रयोजन की प्राप्ति होकर ही रहती है।
2-1-ऋषि
2-2-छन्द
2-3-देवता
2-4-बीज
2-5-शक्ति
विनियोग के पाँच अङ्ग का विवरण;-
1-ऋषि;-
02 POINTS;-
1-मन्त्र विद्या के अनुसार मन्त्रों के विनियोग के पाँच अंग हैं- ऋषि, छन्द, देवता, बीज और तत्व। इन्हीं से मिल कर मंत्र शक्ति पूर्ण बनती है। ऋषि का अर्थ है मार्ग दर्शक गुरू, ऐसा व्यक्ति जिसने उस मंत्र में पारंगतता प्राप्त कर ली हो। गुरू की आवश्यकता सभी विषयों और क्षेत्रों में होती है।चिकित्सा ग्रन्थ और औषधि भण्डार उपलब्ध रहने पर भी चिकित्सक की आवश्यकता पड़ती है।
2-विभिन्न साधकों की आन्तरिक स्थिति और मनोभूमि अलग- अलग रहती है। उनकी स्थिति के अनुसार उनके साधना मार्ग में भी कई प्रकार के उतार- चढ़ाव आते रहते हैं। इस स्थिति में सही निर्देशन और उत्पन्न होने वाली उलझनों का समाधान वही कर सकता है जो इस विषय में पारंगत हो। गुरू का यह कर्तव्य भी हो जाता है कि शिष्य का न केवल पथ- प्रदर्शन करे, वरन् उसे अपनी शक्ति का एक अंश अनुदान स्वरूप देकर उसके प्रगति पथ को सरल भी बनाये। इसलिए ऋषि का, गुरु का, मार्गदर्शक का आश्रय लेना मंत्र साधना की प्रथम सीढ़ी बताया गया है।
2-छन्द;-
02 POINTS;-
1-छन्द का अर्थ है- लय। वाक्य में प्रयुक्त होने वाली पिंगला प्रक्रिया के आधार पर भी छन्दों का वर्गीकरण होता है, यहाँ उसका कोई प्रयोजन नहीं। मन्त्र रचना में काव्य प्रक्रिया अनिवार्य नहीं है। हो भी तो उसके जानने न जानने से कुछ बनता बिगड़ता नहीं। यहाँ लय को ही छन्द समझा जाना चाहिए, किस स्वर में किस क्रम से, किस उतार- चढ़ाव के साथ मन्त्रोच्चारण किया जाय, यह एक स्वतन्त्र शास्त्र है। सितार में तार तो उतने ही होते है, उँगलियाँ चलाने का क्रम भी हर वादन में चलता है, पर बजाने वाले का कौशल तारों पर आघात करने के क्रम में हेर- फेर करके विभिन्न राग- रागनियों का ध्वनि प्रवाह उत्पन्न करता है। मानसिक, वाचिक, उपांशु, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित ही नहीं मंत्रोच्चार के और भी भेद- प्रभेद हैं जिनके आधार पर उसी मन्त्र द्वारा अनेक अकार की प्रतिक्रियायें उत्पन्न की जा सकती हैं।
2-ध्वनि तरंगों के कम्पन इस लय पर ही निर्भर हैं। साधना विज्ञान में इसे यति कहा जाता है। मन्त्रों की एक यति सब के लिए उचित नहीं। व्यक्ति की स्थिति और उसकी आकांक्षा को ध्यान में रखकर यति का, लय का निर्धारण करना पड़ता है। साधक को उचित है कि मन्त्र साधना में प्रवृत्त होने से पूर्व अपने लिए उपयुक्त छन्द की लय का निर्धारण कर लें।मंत्रोच्चार से उत्पन्न
होने वाली तरंगों के कम्पन और उनकी प्रतिक्रिया इसी लय पर निर्भर है। साधना विज्ञान में इन्हें यति कहा जाता है। एक ही यति सबके लिए उचित नहीं होता। साधक की स्थिति और आकांक्षा को दृष्टिगत रखते हुए यति का, लय का निर्धारण करना पड़ता है। यह निर्धारण मन्त्र सिद्ध अनुभवी मार्गदर्शक ही भली प्रकार करा सकते हैं।
3-देवता;-
03 POINTS;-
1-विनियोग का तीसरा चरण है- देवता। देवता का अर्थ है, चेतना सागर में से अपने अभीष्ट शक्ति प्रवाह का चयन। आकाश में एक ही समय में अनेकों चैनल बोलते रहते हैं, पर हर एक की फ्रीक्वेंसी अलग होती है। ऐसा न होता तो सभी शब्द मिलकर एक हो जाते। शब्द धाराओं की पृथकता और उनसे सम्बन्ध स्थापित करने के पृथक माध्यमों का उपयोग करके ही किसी टी.वी. सेट के लिए सम्भव होता है कि अपनी पसन्द का प्रोग्राम देखे और अन्यत्र में चल रहे प्रोग्रामों को बोलने से रोक दे।
2-निखिल ब्रह्माण्ड में ब्रह्म चेतना की अनेक धारायें समुद्री लहरों की तरह अपना पृथक अस्तित्व भी लेकर चलती है। भूमि एक ही होने पर भी उसमें परतें अलग- अलग होती हैं। इसी प्रकार ब्रह्म चेतना के अनेक प्रयोजनों के लिए उद्भूत अनेक शक्ति तरंगें निखिल ब्रह्माण्ड में प्रवाहित रहती है। उसके स्वरूप और प्रयोजनों को ध्यान में रखते हुए ही उन्हें देवता कहा जाता है।
3-साकार उपासना पक्ष देवताओं की अलङ्कारिक प्रतिमा भी बना लेता है और निराकार पक्ष प्रकाश किरणों के रूप में उसको पकड़ता है। सूर्य की सात रंग की किरणों में से हम जिसे चाहें उसे रंगीन शीशे के माध्यम से उपलब्ध कर सकते है। एक्सरे मशीन अल्ट्रा वायलेट उपकरण आकाश में से अपनी अभीष्ट किरणों को ही प्रयुक्त करते हैं। हंस दूध पीता है, पानी छोड़ देता है। इसी प्रकार किस मन्त्र के लिए ब्रह्म चेतना की किस दिव्य तरंग का प्रयोग किया जाये, इसके लिए विधान निर्धारित है।निराकारी साधक ध्यान द्वारा उस शक्ति को अपने अङ्ग- प्रत्यंगों में तथा समीपवर्ती वातावरण में ओतप्रोत होने की भावना करते हैं। किसके लिए देव सम्पर्क का क्या तरीका ठीक रहेगा, यह निश्चय करके ही मन्त्र साधक को प्रगति पथ पर अग्रसर होना होता है।
4-बीज ;-
जो तत्व मंत्र को जगाता है वो बीज कहलाता है।
5-शक्ति ;-
जिस तत्व की सहायता से मंत्र बीज बनता है ;वो शक्ति कहलाता है।।दबी हुई प्रसुप्त क्षमता को प्रखर करने के लिए ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। यन्त्र को चलाने के लिए ईंधन चाहिए। हाथ या पैर से चलने वाले यन्त्रों के लिए न सही, उन्हें चलाने, हाथ पैरों को काम करते रहने के लिए ऊर्जा की जरूरत रहती है। यह तापमान जुटाने पर ही यन्त्र काम करते हैं। मन्त्रों की सफलता भी इसी ऊर्जा उत्पादन पर निर्भर है।
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3-क्या हैं न्यास?
04 FACTS;- न्यास का हमारे जीवन में बहुत महत्त्व है। जब शरीर के रोम-रोम में न्यास कर लिया जाता है, तो मन को इतना अवकाश ही नहीं मिलता और इससे अन्यत्र कहीं स्थान नहीं मिलता कि वह और कहीं जाकर भ्रमित हो जाय। शरीर के रोम-रोम में देवता, अणु-अणु में देवता और देवतामय शरीर। ऐसी स्थिति में हमारा मन दिव्य हो जाता है। न्यास से पूर्व जड़ता की स्थिति होती है। जड़ता के चिंतन से और अपनी जड़ता से यह संसार मन को जड़ रूप में प्रतीत होता है। न्यास के बाद इसका वास्तविक चिन्मय स्वरूप स्फुरित होने लगता है और केवल चैतन्य ही चैतन्य रह जाता है। 2-ज्ञानार्णवतंत्र के अनुसार न्यास का अर्थ है - स्थापना। बाहर और भीतर के अंगों में इष्टदेवता और मन्त्रों की स्थापना ही न्यास है। इस स्थूल शरीर में अपवित्रता का ही साम्राज्य है,इसलिए इसे देवपूजा का तबतक अधिकार नहीं है जब तक यह शुद्ध एवम दिव्य न हो जाये। जब तक इसकी (हमारे शरीर की )अपवित्रता बनी है, तबतक इसके स्पर्श और स्मरण से चित में ग्लानि का उदय होता रहता है। ग्लानियुक्त चित्तप्रसाद और भावाद्रेक से शून्य होता है, विक्षेप और अवसाद से आक्रांत होने के कारण बार-बार मन प्रमाद और तन्द्रा से अभिभूत हुआ करता है। यही कारण है कि मन न तो एकसार स्मरण ही कर सकता है और न विधि-विधान के साथ किसी कर्म का सांगोपांग अनुष्ठान ही। 3-इस दोष को मिटाने के लिए न्यास सर्वश्रेष्ठ उपाय है। शरीर के प्रत्येक अवयव में जो क्रिया सुशुप्त हो रही है, हृदय के अंतराल में जो भावनाशक्ति मुर्छित है, उनको जगाने के लिए न्यास अचूक महा औषधि है।शास्त्र में यह बात बहुत जोर देकर कही गई है कि केवल न्यास के द्वारा ही देवत्व की प्राप्ति और मन्त्रसिद्धि हो जाती है। हमारे भीतर-बाहर अंग-प्रत्यंग में देवताओं का निवास है, हमारा अन्तस्तल और बाह्रय शरीर दिव्य हो गया है - इस भावना से ही अदम्य उत्साह, अदभुत स्फूर्ति और नवीन चेतना का जागरण अनुभव होने लगता है। जब न्यास सिद्ध हो जाता है तब भगवान् से एकत्व स्वयंसिद्ध हो जाता है। न्यास का कवच पहन लेने पर कोई भी आध्यत्मिक अथवा आधिदैविक विघ्न पास नहीं आ सकते है और हमारी मनोवांछित इच्छाएं पूर्णता को प्राप्त करती है।
4- न्यास का अर्थ है ,शरीर में देवताओं और उनके अंग देवताओं-शक्तियों की स्थापना करना। साधना क्रम में न्यास विधान को "न्यास विद्या "कहा गया है। महाकाल संहिता में कहा गया है की -इस प्रकार की सिद्धिदा विद्या दूसरी कोई नहीं है ,इसलिए इसका दूसरा नाम सिद्ध विद्या भी है। तांत्रिकों का यह सिद्धांत है की भूत शुद्धि द्वारा शरीर को शुद्ध किया जाता है और न्यासों के द्वारा मंत्रमय देवता को आत्मा में संक्रांत कर तन्मयता बुद्धि प्राप्त की जाती है । सामान्यतया सभी न्यास विधि में सूचित स्थानों पर तत्वमुद्रा [अनामिका और अंगूठे के अग्रभागों के सम्मिलित रूप ]से स्पर्श करने का विधान है । किन्तु यह क्रम ,विधि, विशिष्टता के साथ भिन्न भी हो सकते हैं और मुद्राओं की स्थिति बदल भी सकती है ।
न्यास का महत्त्व;-
04 FACTS;- 1-आसन-प्राणायाम ,ध्यान ,अर्चन के क्रमों में न्यास का भी बड़ा महत्व है। किसी भी कर्म के लिए जो विनियोग किया जाता है ,उसमे जो मंत्र ,स्तोत्र ,कवच ,आदि प्रयुक्त होते हैं ,उन सभी में न्यास आवश्यक माने गए हैं। वैदिक साधना पद्धति का भी यह अभिन्न अंग है। ''देव बनकर देवता की पूजा करें ''-इस आदेश का पालन भी न्यासों पर ही आधारित है । यहाँ देव बनने का तात्पर्य है की अपने शरीर में देवताओं को विराजमान करना और ऋषि ,छंद ,देवता ,बीज ,शक्ति ,कीलक और विनियोग के न्यासों द्वारा मंत्रमय देह बनाना। करन्यास ,अंगन्यास आदि न्यास साधना के अनिवार्य अंग हैं जो निश्चित स्थानों पर निश्चित देव-ऋषियों की स्थापना की भावना को पूर्ण करते हैं |ये न्यास सभी साधनों में सभी सम्प्रदायों में सामान रूप से स्वीकृत हैं।
2-न्यासों की यह विशेषता है की कहीं ये व्यष्टि रूप में होते हैं कहीं समष्टि रूप में। जिस प्रकार हम किसी मंत्र का पुरश्चरण करते हैं ,विशेष अनुष्ठान करते हैं और किसी विशेष कामना से उसका प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार केवल न्यासों से भी ये विधियाँ की जा सकती हैं। इस दृष्टि से नित्यानुष्ठान और काम्यानुष्ठान भी न्यासों द्वारा होते हैं। ऐहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के लाभ केवल न्यास साधना से भी प्राप्त किये जा सकते है |न्यास द्वारा साधक जब अपने शरीर में देवत्व का आधान कर लेता है ,तो उसमे ईष्टदेव का परिवार सहित निवास होने से उसके लिए प्रायः व्यर्थ की चर्चा करना ,किसी को शाप देना अथवा आशीर्वाद देना एवं किसी को नमस्कार करना वर्जित है।
3- मनुष्य अशुद्धि का केन्द्र ही हैं ,चाहे हम कितना भी स्नान और शुद्धि क्यों ना करे इन स्थानो की गन्दगी बिना न्यास और शुद्धिकरण के बिना सामाप्त नही हो सकती हैं। सभी महाविद्याओ ,यक्षिणी आदि सभी साधना मे न्यास और मुद्राओ को सम्पन्न करना अनिवार्य मना गया हैं।
न्यास करने से साधना मे आने वाले सभी विघ्नो का नाश होता हैं। हमारे शरीर में हर समय अहंकार, क्रोध, मोह-माया, द्वेष, छलकपट, बुराईयाँ रहती हैं। न्यास का अर्थ किसी बुरे विचार, वस्तु हटाकर उस स्थान के साधना से सम्बन्धित देवता या स्वामी की शक्ति का आव्हान व स्थापना करना। अर्थात हमारे शरीर एक मन्दिर की भांति होता हैं ।इसमे मन्दिर मे से गंदगी को निकलकर देवता की स्थापना कर इस स्थान को शुद्ध बनाना ही न्यास माना जा सकता हैं।
4-साधक और साधना के स्तर के अनुसार इसका क्रमिक अधिग्रहण होता है। प्रारम्भ में मात्र अंगादि के स्पर्श का ही निर्देश होता है;किन्तु प्रायः लोग आजीवन यही करते रह जाते हैं– यहीं चूक हो जाती है। खड़िया-पट्टिका लिए हुये, महाविद्यालय की ओर प्रस्थान करते हैं,और वाह्य परिसर का चक्कर लगाते रह जाते हैं। इसके आगे की क्रियाओं के साथ भी यही बात होती है। बातें गुरु-गम्य होने के कारण स्पष्ट नहीं हो पाती। प्रायोगिक पक्ष तो प्रायोगिक ही हुआ करता है। फिर भी प्रारम्भ में सैद्धान्तिक पक्ष पर चर्चा की जानी भी चाहिए, अन्यथा मूल के लुप्त होने का खतरा हो सकता है। न्यास के प्रकार ;-
02 FACTS;- 1-प्रत्येक पूजन की अलग अलग प्रक्रिया हैं उसी के अनुसार न्यास मे भी अंतर देखने को मिलता हैं।ज्ञानार्णवतंत्र के अनुसार न्यास कई प्रकार के होते है...
1-1-कर न्यास 1-2-अंग न्यास 1-3-ऋष्यादि न्यास 1-4-मन्त्र न्यास 1-5 मातृका न्यास 1-6. व्यापक न्यास 1-7- षोढान्यास
2-इनके अतिरिक्त और भी बहुत से न्यास है, जिनके द्वारा हम अपने शरीर के असंतुलन को ठीक कर शरीर को देवतामय बना सकते है। सभी न्यास का एक विज्ञान है और यदि नियमपूर्वक किया जाय तो ये हमारे शरीर और अंत:करण को दिव्य बनाकर स्वयं ही अपनी महिमा का अनुभव करा देते है।न्यास के बिना जो मन्त्र-जप किया जाता है,वो व्यर्थ होजाता है,क्यों कि वह आसुरी होजाता है(इससे न्यास की महत्ता सिद्ध होती है ।अतः न्यास द्वारा देवता बनकर,पूजन-यजन करना चाहिए।
1-कर न्यास;-
न्यास कई प्रकार के होते हैं परंतु मुख्यतः तीन प्रकार के न्यास बहुत जरुरी बताये गये हैं।कर न्यास अर्थात् हमारे हाथ का न्यास। हाथ कर्मों का प्रतीक है। हमें हाथों से शुभ कर्म करने चाहिए जिनसे सभी का कल्याण हो। कर न्यास में हाथों की अंगुलियां, अंगूठे और हथेली को दैवीय शक्ति से अभिमंत्रित करते हैं।वस्तुतः करन्यास और अंगन्यास दोनों इसके ही प्रभेद हैं। पहले दोनों हाथों की अंगुलियों का क्रमशः आपस में मन्त्र-पूरित-स्पर्श करते हैं। यथा—अंगूठा,तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा। तत्पश्चात करतल और करपृष्ठ का स्पर्श किया जाता है।
2-प्रायः लोग यहां भ्रमित होते हैं कि ये स्पर्श कैसे हो,यानी दोनों हाथ अलग-अलग कार्य करें या कि एकत्र?वास्तव में, अलग-अलग का कोई औचित्य नहीं है। सबका स्पर्श तो अंगूठे से कर लेंगे,किन्तु अंगूठे का स्पर्श कौन करेगा। वस्तुतः यह प्रश्न इस कारण उठता है क्योंकि अंगुलियों का रहस्य हमें ज्ञात नहीं होता। ज्ञातव्य है पांच अंगुलियां क्रमशः— अंगूठा>अग्नि,तर्जनी >वायु,,मध्यमा>आकाश,अनामिका >पृथ्वी और कनिष्ठा> जल तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
3-इन पांचों का ही ऋण-धन क्रम से दाहिना-बायां,और ऊपर-नीचे(उर्ध्वांग-निम्नांग) हाथ-पैर के प्रशाखाओं के रुप में(सहयोग से) पंचतत्त्वों का नियन्त्रण होता है,और ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति—मानव-शरीर(पिण्ड) की सार्थकता सिद्ध होती है। ऋण-धन के आपस में वैधिक-मिलन से ही ऊर्जा प्रवाहित होती है। और यही तो करना है-न्यास में— ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का पिण्डीय ऊर्जा में अवतरण का प्रयास। ध्यातव्य है कि दायें हाथ के अँगूठे का स-मन्त्र बायें हाथ के अंगूठे से स्पर्श अनुभव-पूर्ण होना चाहिए। स्विच के नेगेटिव-पोजेटिव प्वॉयन्ट को जोड़े और बत्ती न जले ...इसका मतलब है कि तार जोड़ने में कोई त्रुटि रह गयी है,यानी कि ठीक से जोड़ें।
4-और आगे, इसी भांति क्रमशः शेष चार अंगुलियों का,और फिर करतल और करपृष्ठों का एकत्र रुप में।यही करन्यास कहलाया।उच्चारण और स्पर्श पूर्णतः अनुभूति पूर्ण हो,तभी न्यास सार्थक होता है।बिलकुल प्रारम्भ में सिर्फ अंगादि का स्पर्शानुभव ही पर्याप्त है,यानी अ-मन्त्र। बाद में इस क्रिया को स-मन्त्र करने का अभ्यास करे। करन्यास प्रायः सभी देवोपासना में समान ही है । उपासना का प्रधान अंग होते हुए भी,नये अभ्यासियों को इसे स्वतन्त्र रुप से भी करने का अभ्यास करना चाहिए, ताकि साधना काल में अनुभूति और गहन हो सके।
उदाहरण;—
4-1-ॐ क ए ई ल ह्रीं - अंगुष्ठाभ्यां नम:।
4-2- ह स क ह ल ह्रीं - तर्जनीभ्यां नम:।
4-3- स क ल ह्रीं - मध्यामाभ्यां नम:।
4-4- ॐ क ए ई ल ह्रीं - अनामिकाभ्यां नम:।
4-5- ह स क ह ल ह्रीं - कनिष्ठिकाभ्यां नम:।
4-6-स क ल ह्रीं -करतलकरपृष्ठाभ्यां नम:।
कर न्यास करने का सही तरीका क्या हैं?-
05 FACTS;- 1-करन्यास की प्रक्रिया को समझने से पहले हमें यह समझना होगा की हम भारतीय किस तरीके से नमस्कार करते हैं । इसमें हमारे दोनों हाँथ की हथेली आपस में जुडी रहती हैं।साथ -साथ दोनों हांथो की हर अंगुली ,ठीक अपने कमांक की दुसरे हाँथ की अंगुली से जुडी होती हैं। ठीक इसी तरह से यह न्यास की प्रक्रिया भी.... 2-यहाँ पर हमें जो प्रक्रिया करना हैं वह कम से धीरे धीरे एक पूर्ण नमस्कार तक जाना हैं। तात्पर्य ये हैं की जव् आप पहली लाइन के मन्त्र का उच्चारण करेंगे तब केबल दोनों हांथो के अंगूठे को आपस में जोड़ देंगेऔर जब तर्जनीभ्याम वाली लाइन का उच्चारण होगा तब दोनों हांथो की तर्जनी अंगुली को आपस में जोड़ ले।
3-यहाँ पर ध्यान रखे की अभी भी दोनों अंगूठे के अंतिम सिरे आपस में जुड़े ही रहेंगे , इसके बाद मध्यमाभ्यम वाली लाइन के दौरान हम दोनों हांथो की मध्यमा अंगुली को जोड़ दे। पर यहा भी पहले जुडी हुए अंगुली ..अभी भी जुडी ही रहेंगी. .. इसी तरह से आगे की लाइन के बारे में क्रमशः करते जाये ।और अंत में करतल कर वाली लाइन के समय एक हाँथ की हथेली की पृष्ठ भाग को दुसरे हाँथ से स्पर्श करे। और फिर दूसरी हाँथ के लिए भी यही प्रक्रिया करे। ॐ क ए ई ल ह्रींअंगुष्ठ भ्याम नमः ---- दोनों अंगूठो के अंतिम सिरे को आपस में स्पर्श कराये । ह स क ह ल ह्रींतर्जनी भ्याम नमः ---- दोनों तर्जनी अंगुली के अंतिम सिरे को आपस में मिलाये। (यहाँ पर अंगूठे मिले ही रहेंगे ), स क ल ह्रीं मध्यमाभ्याम नमः --- दोनों मध्यमा अंगुली के अंतिम सिरे को आपस में मिलाये ।(यहाँ पर अंगूठे, तर्जनी मिले ही रहेंगे ), ॐ क ए ई ल ह्रीं -अनामिकाभ्याम नमः ----दोनों अनामिका अंगुली के अंतिम सिरे को आपस में मिलाये ।(यहाँ पर अंगूठे, तर्जनी, मध्यमा मिले हीरहेंगे ), ह स क ह ल ह्रीं कनिष्ठिकाभ्याम नमः ---दोनों कनिष्ठिका अंगुली के अंतिम सिरे को आपस में मिलाये ।(यहाँ पर अंगूठे, तर्जनी, मध्यमा, अनामिकामिले ही रहेंगे ), स क ल ह्रीं करतल कर पृष्ठाभ्यां नमः -- - दोनों हांथो की हथेली के पिछले भाग को दूसरी हथेली से स्पर्श करे।
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2-अंग न्यास;-
04 FACTS;-
1-अंग न्यास से तात्पर्य है हमारा शरीर। अंग न्यास में नेत्र, सिर, नासिका, हाथ, हृदय, उदर, जांघ, पैर आदि अंगों में शक्तियां मानकर उनका आव्हान कर स्थापित किया जाता है।यह सभी शक्तियां हमारे कर्मो और विचारों को धर्म संगत कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।साथ ही हमारी सोच सकारात्मक बनती है।अगले चरण में पुनः हृदयादि अंगों का क्रमशः स्पर्श किया जाता है- तत्मन्त्रों के मानसिक उच्चारण पूर्वक।
2-किन्तु अंगन्यास में काफी भेद है ..छः से लेकर चौवन तक के क्रम मिलते हैं।अलग-अलग मन्त्रों, देवों,साधना-पद्धतियों में अंगादिन्यास का स्थान-वैभिन्य विविध रुप में व्यवहृत होता है। किन्तु इन सब भेदों-प्रभेदों से अलग हट कर सर्वमान्य या प्रारम्भिक हृदयादि न्यास का क्रम यही है—
3-षडङ्गन्यास...ऊँ…हृदयाय नमः,ऊँ…शिरसे स्वाहा, ऊँ…शिखायै वषट्, ऊँ…कवचाय हुँ, ऊँ…नेत्रत्रयाय वौषट्(कहीं नेत्राभ्यां भी मिलता है), ऊँ… अस्त्राय फट्। इस सम्बन्ध में ज्ञानार्णवतन्त्रम् में कहा गया है ..अंगन्यास में विहित मन्त्र-पाद के साथ क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्, हुँ, वौषट् और फट् का प्रयोग किया जाना चाहिए।मन्त्र को शक्तिशाली बनानेवाली अन्तिम ध्वनियें में स्वाहा को स्त्रीलिंग; वषट्, फट्, स्वधा को स्वधा को नपुंसक लिंग माना है।कहीं-कहीं विशिष्ट निर्देश भी होते हैं कि करन्यास में भी अंगन्यास की तरह ही उक्त षट् पदों का प्रयोग किया जाय।षडङ्गन्यास के करने में इष्ट-मन्त्र-बीज को ही छः दीर्घस्वरों से युक्त करके,तत्तद् अंगों में प्रतिष्ठा करने की भावना की जाती है।
4-उदाहरण;-
1-ॐक ए ई ल ह्रीं - हृदयाय नम:।(नम:Successful completion of actions(sampannakaran)...)
2- ह स क ह ल ह्रीं - शिरसे स्वाहा।(स्वाहा ..Destruction of harmful energy)
3- स क ल ह्रीं - शिखायै वषट्।(वषट्..Controlling someone else’s mind)
4 -ॐ क ए ई ल ह्रीं - कवचाय हुम्।(हुम्....Anger and courage, to frighten one’s enemy ): This evokes the breakdown of negative feelings and spreads.)
5- ह स क ह ल ह्रीं - नेत्रत्रयाय वौषट्।(वौषट् ..to acquire power and wealth....)
6-स क ल ह्रीं - अस्त्राय फट्।(फट्.. to drive the enemy away.) अंगन्यास करने का सही तरीका क्या हैं? अंग न्यास ... सीधे हाँथ के अंगूठे ओर अनामिका अंगुली को आपस में जोड़ ले। सम्बंधित मंत्र का उच्चारण करते जाये , शरीर के जिन-जिन भागों का नाम लिया जा रहा हैं उन्हें स्पर्श करते हुए यह भावना रखे की... वे भाग अधिक शक्तिशाली और पवित्र होते जा रहे हैं। . उदाहरण;- 1-ॐ क ए ई ल ह्रीं ह्रदयाय नमः ----- बतलाई गयी उन्ही दो अंगुली से अपने ह्रदय स्थल को स्पर्श करे 2-ह स क ह ल ह्रीं ---- अपने सिर को 3-स क ल ह्रीं शिखाये फट ---- अपनी शिखा को (जोकि सिर के उपरी पिछले भाग में स्थित होती हैं ) 4-ॐक ए ई ल ह्रीं - कवचाय हुम् --- अपने बाहों को 5-ह स क ह ल ह्रीं नेत्र त्रयाय वौषट-----अपने आँखों को 6-स क ल ह्रीं अस्त्राय फट् --- तीन बार ताली बजाये
NOTE;-
हम तीन बार ताली बजाते क्यों है?वास्तव में , हम हमेशा से बहुत शक्तियों से घिरे रहते हैं और जो हमेशा से हमारे द्वारा किये जाने वाले मंत्र जप को हमसे छीनते जाते हैं , तो तीन बार सीधे हाँथ की हथेली को सिर के चारो ओर चक्कर लगाये / सिर के चारो तरफ वृत्ताकार में घुमाये ,इसके पहले यह देख ले की किस नासिका द्वारा हमारा स्वर चल रहा हैं , यदि सीधे हाँथ की ओर वाला स्वर चल रहा हैं तब ताली बजाते समय उलटे हाँथ को नीचे रख कर सीधे हाँथ से ताली बजाये . ओर यदि नासिका स्वर उलटे हाथ (LEFT)की ओर का चल रहा हैं तो सीधे(RIGHT) हाँथ की हथेली को नीचे रख कर उलटे (Left) हाँथ से ताली उस पर बजाये ) इस तरीके से करने पर हमारा मन्त्र जप सुरक्षित रहा हैं ,सभी साधको को इस तथ्य पर ध्यान देना ही चाहिए...
षडङ्गन्यास के प्रयुक्त षट् पदों का विवरण;-
06 FACTS;-
1- हृदयादि न्यास का पहला पद है नमः,और न्यास स्थान है- हृदय। ध्यान देने की बात है कि नमन (झुकना) में विनम्रता छिपी है,जो उदण्डता के विपरीत है। इस भावगत वृत्ति का स्थान है- हृदय। प्रेम,करुणा,विनम्रता आदि यहीं के विषय हैं। प्रेम निस्सीम होता है,यानी इसकी सीमा में सब कुछ समा जा सकता है। प्रेम और भक्ति का मूल स्थान हृदय ही है। इस न्यास का उद्देश्य है- समस्त अनात्म पदार्थों से विवेक पूर्वक स्वयं को विलग करने का प्रयास। दाहिने हाथ की पांचो अंगुलियों को एकत्र करके,उसके अग्रभाग से हृदय-प्रान्त का मृदु स्पर्श करके, इस न्यास को धारित किया जाता है।
2- हृदयादि न्यास का दूसरा पद है- स्वाहा,जिसका आशय है आत्मा को शीर्ष स्थान पर स्थापित कर,स्वयं को उसके समक्ष समर्पित कर देना। ‘स्वाहा’ शब्द पापनाशक, मंगलकारक तथा आत्मा की आन्तरिक शान्ति को उद्बुद्ध करनेवाला है। साधक का सबसे बड़ा बाधक- ‘अहं’ के विसर्जन का इससे सुन्दर और क्या उपाय हो सकता है!इसकी मुद्रा है- दाहिने हाथ की प्रशस्त हथेली का कोमल स्पर्श अपने शिरोभाग(मध्य)में करना। ध्यातव्य है कि परमगुरु का स्थान शीर्षप्रान्त ही कहा गया है। योगियों की भाषा में जो सहस्रपद्म-स्थल है।
3- हृदयादि न्यास का तीसरा पद है- वषट्,और इसका स्थान है- शिखा,जो तेज का प्रतीक है। आराध्य(इष्ट)के तेज को आत्मसात करने का प्रयास है इस न्यास के द्वारा। आधुनिक भाषा में समझें तो कहा जा सकता है कि मानव-शरीर का एन्टीना है शिखा-प्रदेश। बाह्यतेज(देवतेज)का संग्रहण इसी विन्दु से होता है। भले ही आज इसकी महत्ता को लोग विसार दिये हैं। आत्मा के तेजोमय स्वरुप का अनुभव किया जाता है इस न्यास से,जिसकी मुद्रा है- दाहिने हाथ की शेष चार अंगुलियां मुट्ठी बन्द करने जैसी बन्द होंगी,और सिर्फ अंगूठा खुला रहेगा,जिससे शिखा-देश का स्पर्श किया जाना चाहिए, इस भावना के साथ कि दिव्य शक्ति का अवतरण हो रहा है हमारे अन्दर, ठीक वैसे ही जैसे एन्टीना केबल को उपकरण से जोड़ कर हम आश्वस्त हो जाते हैं कि अब वांछित दृश्य हम देख पायेंगे दूरदर्शन पर।
4- हृदयादि न्यास का चौथा पद है- हुं,जिसका सम्बन्ध कवच(सुरक्षा-उपकरण,आच्छादन) से है। इस न्यास के द्वारा साधक सर्वात्मदेह से आच्छादित होकर,सर्वथा सुरक्षित होने की भावना करता है,जिसके परिणाम स्वरुप दूसरे के लिए भयप्रद और स्वयं के लिए रक्षाकारी तेजोदीप्त होता है। साधक-शरीर के बाह्य मंडल में अदृश्य सुरक्षा-कवच(घेरा)पड़ जाता है,जो अभेद्य है। इस न्यास को करने की मुद्रा है—दाहिने हाथ की कनिष्ठा मूल(अंगुली जहां हथेली से जुड़ रही है)से प्रहार करने जैसी मुद्रा में अपने बायीं बाजू का स्पर्श करना है,और ठीक ऐसी ही क्रिया बायें हाथ से दाहिने बाजू पर भी करनी है। इस प्रकार हृदय स्थल के सामने दोनों हाथों का क्रॉस बन जायेगा,जो हृदय पर भी सुरक्षा-घेरा का कार्य करेगा।
5- हृदयादि न्यास का पांचवां पद है- वौषट् और इसे न्यस्त करने का स्थान है— नेत्र-क्षेत्र। देखने को तो हमारी दो ही आँखें हैं,किन्तु योगशास्त्र हमारे एक और नेत्र की ओर इशारा करता है,जो कि भ्रूमध्य में सुप्तावस्था में पड़ा है। इसे चैतन्य करने हेतु स्मरण दिलाना ही इस न्यास का उद्देश्य है। इस न्यास में दाहिने हाथ की तर्जनी,मध्यमा और अनामिका अंगुलियों का प्रयोग करते हैं,जिनमें तर्जनी दाहिनी आंख को ईंगित करती है,अनामिका बायीं आँख को,और मध्यमा उस सुप्त नेत्र का संकेत देता है। ध्यातव्य है कि आँख अग्नितत्त्व का ज्ञनेन्द्रिय हैऔर मध्यमा की मध्यस्थता में सुप्तनेत्र को चैतन्य करने का प्रयास किया जाता है इस क्रिया में। योगशास्त्र इस स्थान को आज्ञाचक्र चक्र कहता है,जिसका उपयोग साधकों के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। आत्मतत्त्व के यथार्थ ज्ञान की कुंजी यहीं से प्राप्त होती है।
6- हृदयादि न्यास का छठा और अन्तिम पद है—फट् । वस्तुतः यह अस्त्र है- ‘अस्’ और ‘त्रस्’ धातुओं से बना हुआ, जिसका अर्थ है फेंकना और जलाना। इसके द्वारा साधक त्रिविध—दैहिक, दैविक,भौतिक तापों का निवारण करता है,ज्ञानाग्नि में भस्म करने की भावना करता है। इसे न्यस्त करने की विधि है- दाहिने हाथ की तर्जनी और मध्यमा को खुला रखते हुये,यानी अनामिका और कनिष्टा को अंगूठे से दबाकर,बायीं ओर से (घड़ी की विपरीत दिशा में-anticlockwise ) घुमाकर सामने लाते हैं,और बायीं हथेली पर प्रहार करते हैं,जिससे तीब्र ‘चटकार’ की ध्वनि निकलती है। ध्यातव्य है कि अग्नितत्त्व- मध्यमा और वायुतत्त्व- तर्जनी के संयोग से ये क्रिया हो रही है। वायु की मैत्री से अग्नि प्रचंड होता है,और चितादाह में चटकार की ध्वनि स्वाभाविक है। यानि प्रचंड वेग से त्रिविध तापों की चिता जलायी जारही है—यही भावना करते हैं इस महत्त्वपूर्ण न्यास में।
NOTE;-
उक्त षडङ्गन्यास (करन्यास, अंगन्यास)बिलकुल प्रारम्भिक क्रिया है,और प्रायः छोटी-बड़ी सभी साधनाओं में लगभग समान रुप से व्यवहृत है; किन्तु इसके आगे के न्यास साधक और साधना के स्तर के अनुसार न्यूनाधिक रुप से प्रयुक्त होते हैं। और दूसरी बात इस सम्बन्ध में ध्यातव्य है कि आगे प्रयुक्त न्यास क्रमशः उत्तरोत्तर साधना के भी द्योतक हैं। विशेषकर ऋष्यादिन्यास और मन्त्र-न्यास के बाद किये जाने वाले मातृकादि न्यास तो विशिष्ट साधकों के लिए ही हैं। सामान्य पूजा में इनकी कोई खास आवश्यकता नहीं है।
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(3) ऋष्यादिन्यास;—
03 FACTS;-
1-ऋष्यादिन्यास में मन्त्र के ऋषि, छन्दस्, देवता, बीज, शक्ति, तथा कीलक नामक छह अंग होते है।इनमे से प्रत्येक के साथ चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग करते हुये क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्, हुं, वौषट् तथा फट् पदों के साथ सिर, मुख, ह्रदय, गुदा, चरण तथा नाभि में न्यास किया जाता है।जैसे ,
2-उदाहरण के लिए भगवती दुर्गा के महामन्त्र "ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः" के ऋषि नारद, छन्दस् गायत्री, देवता दुर्गा, बीज दुं तथा शक्ति ह्रीं है। इस मन्त्र की साधना में ऋष्यादिन्यास निम्न प्रकार से किये जाने का विधान है--नारदाय ऋषये नमः (सिर में ),गायत्री छन्दसे नमः (मुख में ),दुर्गा देवतायै नमः (ह्रदय में ),दुं बीजाय नमः (गुह्यांग में ),ह्रीँ शक्तये नमः (चरणों में ),
3-जब इन शब्द का उच्चारण करते हैं तब इनका अर्थ या भावभूमि होती हैं ।उदाहरण के लिए.... 3-1-ऋषि --इसका उच्चारण करते समय सिर के उपरी के भाग में इनकी अवस्था मानी जाती हैं। 3-2-छंद ------- गर्दन में 3-3-देवता ----- ह्रदय में 3-4-कीलक ---- नाभि स्थान पर 3-5-बीजं ------ कामिन्द्रिय स्थान पर 3-6-शक्ति --- पैरों में (निचले हिस्से पर) 3-7-उत्कीलन--- हांथो में
4-ऋषि, छन्द,देवता का विन्यास किए विना,जो मन्त्र-जप किया जाता है,उसका फल तुच्छ यानी न्यून हो जाता है। अतः साधना का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए न्यास द्वारा इनसे तादात्म्य स्थापित करना परमावश्यक है। हम पाते हैं कि प्रायः मन्त्र या स्तोत्र के विनियोग में ही इन बातों की चर्चा रहती है,यानी जिस मन्त्र का हम जप करने जा रहे हैं, अथवा स्तोत्र-पाठ करने जा रहे हैं,उसके ऋषि,छन्द और देवता कौन हैं- यह जानना-करना आवश्यक है। कहीं-कहीं और भी कुछ चर्चा जुड़ी रहती है,यथा- बीज,शक्ति,कीलक,और अभीष्ट फल। यानी कहीं मात्र तीन की,तो कहीं कुल सात बातों की चर्चा रहती है।
3-नियम है कि जहां जितनी बातों की चर्चा हो,वहां साधना में उतने का ही प्रयोग किया जाना चाहिए,अन्यथा क्रिया न्यूनाधिक दोष-युक्त(त्रुटि-पूर्ण) कही जायेगी,और परिणाम भी तदनुरुप ही होगा। पूर्व निर्दिष्ट षडंगन्यास (करन्यास-अंगन्यास) के पश्चात् सप्तांग ऋष्यादिन्यास करने का विधान है।
ऋष्यादिन्यास के सात अंग;—
1-ऋषि-
परमात्मा और गुरु का स्थान शिर में सर्वमान्य है,अतः मन्त्र के ऋषि का न्यास शिर में ही किया जाना चाहिए। शिर के स्पर्श की विधि(मुद्रा)पूर्व निर्दिष्ट अंगन्यास के अनुसार ही,यानी दाहिने हाथ की चारो अंगुलियों(अंगूठा रहित)के अग्रभाग से शिरोदेश का मृदु स्पर्श सानुभूति पूर्वक (सहानुभूति नहीं)।
2-छन्द-
छन्द शब्द में ‘छ’ इच्छा वाचक,और ‘द’ दानार्थक है- देने अर्थ में। इस प्रकार अभीष्ट फल देने वाला मन्त्र ही है,जो गुरु-मुख से प्राप्त होता है,शिष्य की कर्ण-गुहा में। इस क्रम में आत्मज्योति मूलाधार से उठ कर हृदयादि से होते हुए,सहस्रदलपद्म में आकर प्रतिष्ठित होती है।
मन्त्रमय छन्द का न्यास मुख में किया जाना चाहिए,क्यों कि साधक द्वारा जो मन्त्रोच्चारण किया जायेगा- अक्षरों का,उसका स्थान मुख ही है। मुख में छन्द-न्यास करने की मुद्रा वैसी ही होगी,जैसे पांचों अंगुलियों को एकत्र करके हम भोज्य-ग्रास लेते हैं। इस सम्बन्ध में ध्यान दिलाना चाहेंगे कि साधक का भोजन हाथ से ही होना चाहिए,न कि आधुनिक उपकरण- कांटे-चम्मच से, क्योंकि उपकरणों की सहायता से लिया गया ग्रास पंचतत्त्वात्मक ऊर्जा से वंचित रह जाता है।
3-देवता-
‘दिव’ धातु से बने देव शब्द में भावार्थक ‘तल’ प्रत्यय या कि विस्तारार्थक‘तनु’ धातु से बने ‘त’ शब्द संयोग है। तात्पर्य है सर्वात्मना देवत्व(देव-भाव)प्राप्त करना,जिसका मूल स्थान हृदय है। अतः देवता का न्यास यहीं करना चाहिए। न्यास की यहां मुद्रा होगी- खुली हथेली से हृदय का सानुभूति पूर्वक स्पर्श।
4-कीलक;-
शरीर का केन्द्र नाभिमंडल है। कीलन का कार्य यहीं किया जाता है। यह भी एक प्रकार का सुरक्षा-कवच है,किन्तु कवच से जरा भिन्न है-अवरोधात्मक रुप से। इसे केन्द्रीकरण भी कह सकते हैं। पूरी शक्ति को एकत्र कर के रख देने जैसा,जहां पूरी तरह सुरक्षा मिल जाय। इस कीलन के विपरीत की क्रिया निष्कीलन की होती है,जिसका प्रयोग विशेषरुप से कीलित मन्त्रों के लिए करना अनिवार्य होता है। निष्कीलन न्यास का अंग नहीं है। कीलक के प्रयोग के समय तत्मन्त्र का मानसिक उच्चारण करते हुये,अपनी चेतना को नाभिकेन्द्र पर केन्द्रित करना चाहिये,तथा दाहिने अंगूठे से नाभिगह्वर का स्पर्श करे।
5-बीज;-
बीज वीर्य या रज(पुरुष-स्त्री)का प्रतीक है ।साधना क्रम में बीज के न्यास (स्थापना) का तात्पर्य है कि समुचित स्फुरण और विकास कुण्डलिनी के साथ ऊर्ध्वमुखी हो,और समुचित फल साधक को प्राप्त हो सके।इस प्रकार निश्चित है कि बीज-न्यास का स्थान पुरुष में लिंगप्रदेश,और स्त्री में योनिगुहा (उच्च साधक के लिए- सीधे मूलाधार) में ही होना चाहिए। इसकी मुद्रा होगी- दाहिने करतल को पीछे लेजाकर,गुद-प्रान्त का वाह्य स्पर्श।
6-शक्ति;-
शरीर को चलायमान बनाने का काम पैरों का है। अतः मन्त्र-शक्ति का न्यास पैरों में होना चाहिए। मुद्रा होगी- बारी-बारी से दोनों पैरों का सामान्य स्पर्श।
7-उत्कीलन/अभीष्ट फल;-
02 POINTS;-
1-ऋष्यादि न्यास का अन्तिम चरण है यह ।उत्कीलन इतना ही है कि ‘परस्पर दो और लो’ मन्त्रों का स्पष्ट उच्चारण एवं शुद्ध भाव होना अत्यन्त अनिवार्य है अन्यथा विफल हो जाना सम्भव है।परस्पर व्यवहार है ..भगवान योगीश्वर का स्पष्ट कथन है कि श्री जगदम्बा माता के अर्पण करो फिर उन्हीं से लो, यह अर्पण करना क्या है? बस यही कि पहिले कुछ निःस्वार्थ हो कर तो करो कि केवल हाथ फैला कर लेने को ही उत्सुक हो , भजन, पाठ, पूजन, अर्चन, वन्दन, अनुष्ठान इत्यादि सभी कुछ, पहिले निःस्वार्थ भाव से राग रहित हो कर, निष्काम हो कर करो ।
2-कुछ दिन इसी प्रकार अभ्यास करो तदुपरान्त भगवान योगीश्वर कृष्णा के गीतोक्त कथानुसार जो मुझे जैसे भजता है वैसे ही मैं उसे फल देता हूँ एवं उसकी मनोभावनाएं पूर्ण करता हूँ के कथानुसार आपकी मनोकामनाएं पूर्ण होती चलेगी...वांछित क्रिया का समुचित परिणाम प्राप्त होना ही साधक का अभीष्ट होता है। वस्तुतः यह प्रार्थीभावावतरण की क्रिया है। अतः इस न्यास की मुद्रा होगी- खुली हुयी अञ्जलीद्वय(दोनों हाथ को एकत्र कर भिक्षा मांगने जैसी)को हृदय(भाव-केन्द्र)के समीप रख कर,विहित मन्त्र-पद का मानसिक उच्चारण। इस न्यास के समय साधक अनुभव करे कि इष्ट की कृपा बरस रही है उस पर।
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(4)-मन्त्र-न्यास;—
साधक दीक्षा-ग्रहण के समय गुरु-प्रदत्त मन्त्र को श्रद्धापूर्वक ग्रहण करता है,जिसे समयानुसार साधा जाता है। साधना-काल में पूर्व न्यासों के सम्पन्न होजाने के बाद,दीक्षा-मन्त्र(वा अभीष्ट मन्त्र) का मानसिक उच्चारण करते हुए, स्थिर चित्त से भावना करे कि उक्त मन्त्र की दैवीऊर्जा हमारे शरीर पर बरस रही है। इस प्रकार साध्य मन्त्र से एकात्मता प्राप्त करन का प्रयास किया जाता है।
5-मातृका-न्यास;—
09 FACTS;-
1-मातृका न्यासमातृका न्यास मातृका अर्थात् वाणी। हमारी वाणी में सरस्वती का निवास माना जाता है। मातृका न्यास में साधक माता सरस्वती को वेद मंत्रों की शक्ति से लीला करते हुए अनुभव करता है। हम इस न्यास से बुद्धि, मोह-ममता के बंधन से मुक्त हो जाते हैं और हमारी साधना सफल होती हैं। सही मायनो मे हमे न्यास से साधना मे सुरक्षा मिलती हैं। न्यास करने से कभी भी देवता के भंयकर रुप मे दर्शन नही होते हैं और साधना मे पूर्ण सफलता मिलेगी।
2-जैसा कि इस न्यास के नाम से ही स्पष्ट है- इसमें मातृकाओं अर्थात् वर्णों(अक्षरों)की स्थापना शरीर के विशिष्ट अंगों में विधि पूर्वक की जाती है। अकारादि वर्णमाला का ही सांकेतिक नाम‘मातृका’ है। वर्ण या अक्षर शब्द-ब्रह्म या वाक् शक्ति के स्वरुप हैं। इनका सूक्ष्म रुप विमर्श-शक्ति के नाम से ख्यात है,जिसे परावाक् कहतें हैं, जिसमें स्फुरणा मात्र होती है। यही मातृका या चैतन्यात्मक शब्द-ब्रह्म हमारे शरीर में कुण्डलिनी के रुप में व्यक्त हुयी है।
3-मातृका-स्वरुप-वर्ण-माला के एक-एक अक्षर का विशद वर्णन विविध तन्त्र-शास्त्रों में उपलब्ध है। मातृका शब्द यहां अपने मूल(प्रचलित)अर्थ में भी स्पष्ट है— मातृ (माँ) के बिना सृजन-प्रक्रिया असम्भव है। ज्ञातव्य है कि सृष्टि का सृजन वर्णों (ध्वनियों) से ही हुआ है। मातृका शब्द से विश्व को उत्पन्न करने वाली ‘नादात्मिका’ शक्ति का बोध होता है। अतः ये मातृकाएँ साक्षात् शक्ति-स्वरुपा हैं। भावना-योग द्वारा इन्हें शरीर के अंगों में न्यस्त करके, साधक विशिष्ट शक्ति प्राप्त करता है,या कहें— जो शक्ति सुप्त पड़ी है(प्राणीमात्र में), उसे चैतन्य (जागृत) करता है।
4-उक्त वर्णमातृकाओं को विशेष रुप से जान-समझ लेना भी आवश्यक है; क्यों कि सामान्य प्रचलन से किंचित भिन्नता है यहाँ। आजकल बच्चों को जो वर्णमाला सिखाने का प्रचलन है,उससे काफी भिन्न है ये। अतः गौर से समझ लेना जरुरी है।
4-1-अकादि सोलह स्वरवर्ण—
अ,आ,इ,ई,उ,ऊ,ऋ,ॠ,लृ,ॡ,ए,ऐ,ओ,औ,अं,अः
(ध्यातव्य है कि यहां ऋ और लृ का दीर्घ स्वर भी व्यवहृत हुआ है)
4-2-क,ख,ग,घ,ङ,च,छ,ज,झ,ञ,ट, ठ,ड,ढ,ण,त,थ,द,ध,न,प,फ,ब,भ,म, य,र,ल,व,श,ष,स,ह,ळ(एक विशेष ध्वनि जो र+ल का योग है) (क्ष नहीं है यहां) इत्यादि चौंतीस व्यंजन वर्ण मिल कर कुल पचास वर्ण हुये।
5-इन्हें अनुलोम-विलोम क्रम से (यानी प्रथम समूह मे अ से ळ तक,और फिर विपरीत क्रम से यानी ळ,स,ष,श से आ,अ तक) युक्त करने पर कुल सौ की संख्या बनी। अब इसमें अ-क-च-ट-त-प-य-श – इन अष्टमातृकाओं को युक्त करने पर १०८ की वर्णमाला बनती है। ‘क्ष’ इस वर्णमाला में सुमेरु के पद पर प्रतिष्ठित होता है। ध्यातव्य है सभी वर्णों का विन्दु-युक्त उच्चारण होना चाहिए, यानि अँ,आँ… कँ,खँ इत्यादि।
6-एक और गूढ़ रहस्य है कि इस माला का ग्रन्थन-सूत्र ब्रह्मनाड्यन्तर्गत चित्रिणी नामक नाडी है।उक्त मातृका-न्यास के दो भेद हैं-
6-1-वहिर्मातृका न्यास
6-2-अन्तर्मातृका न्यास।
7-अन्तर्मातृका के पुनः तीन उपभेद होते हैं-
7-1-सृष्टि-मातृका-न्यास,
7-2 -स्थिति-मातृका-न्यास,
7-3-संहार-मातृका-न्यास
8-सृष्टि-मातृका-न्यास में भाव-शरीर की उत्पत्ति की जाती है,स्थिति-मातृका-न्यास में उत्पन्न किये गये शरीर में देवता से तादात्म्य स्थापित किया जाता है,तथा संहार-मातृका-न्यास में साधना-विरोधी मल से आवृत भौतिक शरीर का विलयन किया जाता है। मातृका न्यास के प्रारम्भ में बहिर्मातृका-न्यास का ही अभ्यास किया जाता है,जिसमें उक्त वर्णों को शरीर के विभिन्न अंगों पर आरोह-अवरोह क्रम से न्यस्त करते हैं,और अन्तर्मातृका-न्यास में शरीर के भीतर जाकर विविध चक्रों(पद्मों)में न्यस्त करते हैं।
9-इस प्रकार मातृका-न्यास अपने आप में अद्भुत क्रिया है,जिसे साधने से साधक दिव्यभाव को प्राप्त होता है। प्रारम्भ में हो सकता है,उसे कुछ भी अनुभूति न हो,व्यर्थ जैसा लगे,किन्तु जैसे-जैसे उसकी क्रिया घनीभूत होगी,साधना का अभ्यास होता जायेगा,अन्तर्मातृकायें चैतन्य (जागृत) होती जायेंगी,साधक का उत्तरोत्तर विकास स्वयमेव लक्षित होता जायेगा। इस न्यास का अभ्यास निर्देशन में ही किया जाना चाहिए।
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6-व्यापक न्यास;—
02 FACTS;-
1-यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण न्यास है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि विशेष परिस्थिति में समयाभाव वश सर्वांगन्यास करना सम्भव न हो तो,सिर्फ इस अकेले न्यास को करके ही सर्वांगता की पूर्ती हो सकती है; किन्तु इसका ये अर्थ नहीं कि सामान्य परिस्थिति में भी इतना ही करके निश्चिन्त हो लिया जाय।
2-मूल मन्त्र-न्यास में की गयी क्रिया को ही थोड़े व्यापक रुप सें यहां की जाती है। मन्त्र का मानसिक उच्चारण करते हुए,सिर के ऊपर से लेकर पादतल तक,चेतना-परिभ्रमण कराये—तीन,पांच,सात,नौ बार—इच्छानुसार इस क्रिया को दुहराये। ध्यातव्य है कि पहली बार सिर से पैर तक आवे,फिर पैर से सिर तक वापस जाये। ऊपर से नीचे,नीचे से ऊपर- ये दो मिल कर एक चक्र पूरा होता है।
7- षोढान्यास; -
02 FACTS;-
1-न्यास की पराकाष्ठा है- षोढान्यास । षोढ़ा का शाब्दिक अर्थ है छःप्रकार का। यह अति गोपनीय न्यास है। इसकी विधि अलग-अलग महाविद्याओं के लिए अलग-अलग है। इसकी चर्चा श्रीकालीनित्यार्चन,श्रीकल्पद्रुम आदि ग्रन्थों में विशेष रुप से मिलती है। कहते हैं कि यह न्यास अपने आप में एक साधना तुल्य है। इसके सिद्ध होजाने पर साधक पृथ्वी,जलादि पंचतत्त्वों तक का अधिकारी बन जा सकता है।
2-विशेष प्रचलित षोढान्यास के अन्तर्गत गणेश, सूर्यादि नवग्रह, अश्विन्यादि नक्षत्र, मेषादि राशि, शिख्यादि योगिनी, विविध पीठादि का प्रयोग किया जाता है। इसकी साधना से साधन-पथ के सारे विघ्नों का नाश होकर,साधक का उत्तरोत्तर विकास होता है। सामान्य दैवी शक्तियां भी साधक को विचलित नहीं कर पाती। इस न्यास के सिद्ध हो जाने के बाद साधक को बड़ी सावधानी से रहना पड़ता है। वह स्वयं ही इतना प्रणम्य हो जाता है कि यदि भूल से भी किसी के आगे(गुरु-मातादि को छोड़कर) सिर झुका दे(प्रणाम करने हेतु),तो तत्काल उस प्रणम्य के सिर का विस्फोट हो जाये।
NOTE;-
इस प्रकार हम पाते हैं कि न्यास कितना महत्त्वपूर्ण है। भले ही यह साधना की पृष्ठभूमि है ,किन्तु फिर भी सम्यक् न्यास मात्र से ही साधक में अद्भुत क्षमता आ जाती है। अतः इसकी महत्ता को हृदयंगम करते हुए,यथासम्भव पालन करना प्रत्येक साधक का परम कर्तव्य है।पुनः यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि न्यास अंग छूने की औपचारिकता मात्र नहीं है, प्रत्युत चेतना के अवतरण और निर्वाध प्रवाहण का आवश्यक घटक है- न्यास ।
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साधना में छंद का महत्व;-
04 FACTS;-
1-ऋषियों की कार्य पद्धति छन्द हैं ।इसे उनकी उपासना में प्रयुक्त होने वाले मंत्रों की उच्चारण विधि- स्वर संहिता कह सकते हैं ।छन्द को अनुभवी मार्ग दर्शक द्वारा किया गया इंगित कहा जा सकता है । साधना विधियों की एक ही प्रक्रिया का वर्णन अनेक प्रकार से हुआ है ।। उसमें से किस परिस्थिति में क्या उपयोग हो सकता है, इसकी बहुमुखी निर्धारण प्रज्ञा को 'छन्द' कह सकते हैं ।
2-सामवेद में मंत्र विद्या के महत्त्वपूर्ण आधार उच्चारण विधान- स्वर संकेतों का विस्तारपूर्वक विधान, निर्धारण मिलता है । प्रत्येक वेद मंत्र के साथ उदात्त- अनुदात्त के स्वर संकेत लिखे मिलते हैं ।। यह जप एवं पाठ प्रक्रिया का सामान्य विधान हुआ । वस्तुतः छन्द उस साधना प्रक्रिया को कहते हैं, जिसमें प्रगति के लिए समग्र विधि- विधानों का समावेश हो ।
3-साधना की विधियाँ वैदिकी भी हैं और तांत्रिकी भी। व्यक्ति विशेष की स्थिति के अनुरूप उनके क्रम- उपक्रम में अन्तर भी पड़ता है ।किस स्तर का व्यक्ति किस प्रयोजनों के लिए, किस स्थिति में क्या साधना करे, इसका एक स्वतंत्र शास्त्र है ।
4-वह छंद ही है जो कविताओं, दोहों, गीतों, मुक्तकों आदि में लय, प्रवाह, राग उत्पन्न करता है। लय न हो तो काव्य में सुंदरता का भान नहीं हो सकता। यही लय लाने के लिए कविता या गीत में वर्णों की संख्या और स्थान से सम्बंधित नियमों का निर्धारण किया जाता है, जो छंद के द्वारा होता है। छंद कोई नई नियमावली नहीं है। यह तो वेदों के समय भी प्रयुक्त होती थी, तभी
वेदों के सभी सूत्र भी छंदबद्ध हैं। छंद के अवयव;- सामान्यता एक छंद चार चरणों से बनता है। हर चरण में मात्राओं की संख्या निश्चित होती है। पहला और तीसरा चरण विषम व दूसरा और चौथा चरण सम होता है। छंद के मुख्य अंग या अवयव कुछ इस प्रकार हैं –
04 FACTS;-
1-मात्रा;-
मात्रा, बोलने में लगने वाले समय के अनुसार लघु (ह्रस्व) या दीर्घ (गुरु) हो सकती है। वर्ण छंदों में प्रयुक्त अक्षरों को कहते हैं। 2-यति;-
यति से छंद में विराम कहाँ लेना है, इसका पता चलता है। ‘,’ , ‘।’ , ‘॥’, ‘-‘ , ‘!’ , ‘?’ आदि कुछ यति चिन्ह हैं।
3-तुक;- तुक चरणों के अंत में उपस्थित वर्णों में समानता होने के कारण उत्पन्न होने वाली लयबद्धता से बनता है।
4-गति;- गति सही रहने से लय आती है, इसलिए छंद में इसका भी निर्धारण किया जाता है।
मंत्र विद्या में सर्वाधिक प्रयुक्त मुख्य छंद इस प्रकार है:-
03 FACTS;-
1-गायत्री छंद एक छंद है। इसमें कुल तीन पाद अथवा चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में 8 वर्ण होते हैं। कुल मिलाकर 24 वर्ण होते हैं। उदाहरण - ऋग्वेद में मिलता है यथा गायत्री मंत्र ।
2-अनुष्टुप छंद अनुष्टुप छन्द संस्कृत काव्य में सर्वाधिक प्रयुक्त छन्द है, इसका वेदों में भी प्रयोग हुआ है।। रामायण, महाभारत तथा गीता के अधिकांश श्लोक अनुष्टुप छन्द में ही हैं।इसमें कुल - 32 वर्ण होते हैं - आठ वर्णों के चार पाद। हिन्दी में जो लोकप्रियता और सरलता दोहा की है वही संस्कृत में अनुष्टुप की है। प्राचीन काल से ही सभी ने इसे बहुत आसानी के साथ प्रयोग किया है। गीता के श्लोक अनुष्टुप छन्द में हैं। आदि कवि वाल्मिकी द्वारा उच्चारित प्रथम श्लोक (मा निषाद प्रतिष्ठा) भी अनुष्टुप छन्द में है।
3-अष्टि छंद वेदों में प्रयुक्त एक छंद है। इसमें कुल - ६४ वर्ण होते हैं। अक्षरों (मात्राओं) का विन्यास है।
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आधुनिक समय में, छंद के चार प्रकार होते हैं; –
04 FACTS;-
1-मात्रिक छंद मात्रिक छंद में मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है। इसके कुछ मुख्य प्रकार यहाँ वर्णित हैं –
दोहा – इसमें 2 सम चरण (11-11 मात्राएँ) और 2 विषम चरण (13-13 मात्राएँ ), कुल मिलाकर चार चरण होते हैं। उदाहरण –
श्रीगुरू चरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥
1-1-रोला –
यह 24 मात्राओं वाला सम वर्णिक छंद है। दो दोहों के बीच एक रोला रखकर छः चरण वाले कुण्डलिया का निर्माण होता है।
1-2-चौपाई ;–
यह 16 मात्राओं वाला सम वर्णिक छंद है। उदाहरण के लिए – तुलसीकृत राम चरित मानस में अधिकतर छंद चौपाइयों में लिखे गए हैं।
1-3-सोरठा; –
दोहे के उलट, सोरठे में 2 सम चरण (13-13 मात्राएँ) और 2 विषम चरण (11-11 मात्राएँ) होते हैं। इसमें विषम चरण का अंत दीर्घ और सम चरण का अंत हृस्व मात्रा से होना अनिवार्य है।
2--वर्णिक छंद इस छंद में इस्तेमाल वर्णों की संख्या निश्चित होती है। उदाहरण के लिए, घनाक्षरी वर्णिक छंद के प्रत्येक चरण में 31 (8, 8, 8, 7) वर्ण और विरामों का प्रयोग होता है। दूसरी ओर, दण्डक वर्णिक छंद में 26 से अधिक वर्ण होते हैं।
3-वर्णवृत छंद इसमें छंद के चारों चरण समान रहते हैं और हृस्व-दीर्घ मात्राओं का क्रम निश्चित रहता है।
4-मुक्त छंद मुक्त छंदों में मात्राओं या वर्णों की संख्या अनिश्चित रहती है। इनमें सिर्फ यति और गति का ध्यान रखा जाता है, जिससे रचना लयपूर्ण रहे।मुक्त छंद आधुनिक कृति हैं और छंद
के नियमों से परे हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को इसका शुभारम्भकर्ता माना जाता है। भक्ति या वैदिक काल में ऐसे छंदों की रचना नहीं होती थी।
.......SHIVOHAM.....