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महान संत रविदास


23 FACTS;- 1-प्राचीनकाल से ही भारत में विभिन्न धर्मों तथा मतों के अनुयायी निवास करते रहे हैं। इन सबमें मेल-जोल और भाईचारा बढ़ाने के लिए सन्तों ने समय-समय पर महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ऐसे सन्तों में शिरोमणि रैदास का नाम अग्रगण्य है। इनकी याद में माघ पूर्ण को रविदास जयंती मनाई जाती हैं। महान संत रविदास (रैदास) का जन्म काशी में हुआ था। उनकी माता का नाम कर्मा देवी तथा पिता का नाम संतोख दास था। चर्मकार कुल से होने के कारण जूते बनाने का अपना पैतृक व्यवसाय उन्होंने ह्रदय से अपनाया था। वे पूरी लगन तथा परिश्रम से अपना कार्य करते थे। 2-बचपन में संत रविदास अपने गुरु पंडित शारदा नंद के पाठशाला गये।पंडित शारदा ने यह महसूस किया कि रविदास कोई सामान्य बालक न होकर एक ईश्वर के द्वारा भेजी गयी संतान है अत: पंडित शारदानंद ने रविदास को अपनी पाठशाला में दाखिला दिया और उनकी शिक्षा की शुरुआत हुयी। वो बहुत ही तेज और होनहार थे और अपने गुरु के सिखाने से ज्यादा प्राप्त करते थे। पंडित शारदा नंद उनसे और उनके व्यवहार से बहुत प्रभावित रहते थे उनका विचार था कि एक दिन रविदास आध्यात्मिक रुप से प्रबुद्ध और महान सामाजिक सुधारक के रुप में जाने जायेंगे। 3-कबीर के साथी और मीरा के गुरू....प्राचीन मान्यता के अनुसार संत रविदास को संत कबीर का समकालीन माना जाता है।कहा जाता हैं कि रविदास जी और कबीर जी के बीच मे ज्ञान गोष्ठी हुई थी तब रविदास जी ने कबीर जी से दीक्षा ली थी । साथ ही ये भी कहते हैं कि मीराबाई उन्हें अपना गुरू मानती थीं। कहते है कि रविदास जी की प्रतिभा से सिकंदर लोदी भी काफी प्रभावित हुआ था और उन्हें दिल्ली आने का अनुरोध किया था। कबीर दास ने एक बार उनको संतन में रविदास कह कर श्रेष्ठ कवियों अग्रणी भी बताया था। उनके द्वारा रचित चालीस पद सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरुग्रंथ साहब में भी सम्मिलित किए गए हैं। 4-अपनाया पिता का व्यवसाय...इन्होंने अपनी आजीविका के लिए पैतृक कार्य को अपनाया लेकिन इनके मन में भगवान की भक्ति पूर्व जन्म के पुण्य से ऐसी रची बसी थी कि, आजीविका को धन कमाने का साधन बनाने की बजाय संत सेवा का माध्यम बना लिया ।रैदास ने साधु-सन्तों की संगति से पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया था। वे जूते बनाने का काम कभी नहीं किया औऱ न ही कभी उनका ये व्यवसाय था और उन्होंने अपना काम पूरी लगन तथा परिश्रम से करते थे और समय से काम को पूरा करने पर बहुत ध्यान देते थे। 5-उनकी समयानुपालन की प्रवृति तथा मधुर व्यवहार के कारण उनके सम्पर्क में आने वाले लोग भी बहुत प्रसन्न रहते थे।प्रारम्भ से ही रविदास जी बहुत परोपकारी तथा दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उनका स्वभाव बन गया था। साधु-सन्तों की सहायता करने में उनको विशेष आनन्द मिलता था। वे उन्हें प्राय: मूल्य लिये बिना जूते भेंट कर दिया करते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके माता-पिता उनसे अप्रसन्न रहते थे।भगवान के प्रति उनके प्यार और भक्ति की वजह से वो अपने पेशेवर पारिवारिक व्यवसाय से नहीं जुड़ पा रहे थे और ये उनके माता-पिता की चिंता का बड़ा कारण था। 6-अपने पारिवारिक व्यवसाय से जुड़ने के लिये इनके माता-पिता ने इनका विवाह काफी कम उम्र में ही श्रीमती लोना देवी से कर दिया जिसके बाद रविदास को पुत्र रत्न की प्रति हुयी जिसका नाम विजयदास पड़ा। संत और फकीर जो भी इनके द्वार पर आते उन्हें बिना पैसे लिये अपने हाथों से बने जूते पहनाते। इनके इस स्वभाव के कारण घर का खर्च चलाना कठिन हो रहा था। इसलिए इनके पिता ने इन्हें घर से बाहर अलग रहने के लिए जमीन दे दिया। जमीन के छोटे से टुकड़े में रविदास जी ने एक कुटिया बना लिया।रविदास जी तत्परता से अपने व्यवसाय का काम करते थे।जूते बनाकर जो कमाई होती उससे संतों की सेवा करते और शेष समय ईश्वर-भजन तथा साधु-सन्तों के सत्संग में व्यतीत करते थे। 7-सुपारी से हुआ चमत्कार...एक दिन एक ब्राह्मण इनके द्वार आये और कहा कि गंगा स्नान करने जा रहे हैं एक जूता चाहिए। इन्होंने बिना पैसे लिया ब्राह्मण को एक जूता दे दिया । इसके बाद एक सुपारी ब्राह्मण को देकर कहा कि, इसे मेरी ओर से गंगा मैया को दे देना। ब्राह्मण रविदास जी द्वारा दिया गया सुपारी लेकर गंगा स्नान करने चल पड़ा। 8-गंगा स्नान करने के बाद गंगा मैया की पूजा की और जब चलने लगा तो अनमने मन से रविदास जी द्वारा दिया सुपारी गंगा में उछाल दिया। तभी एक चमत्कार हुआ गंगा मैया प्रकट हो गयी और रविदास जी द्वारा दिया गया सुपारी अपने हाथ में ले लिया। गंगा मैया ने एक सोने का कंगन ब्राह्मण को दिया और कहा कि इसे ले जाकर रविदास को दे देना। 9-मन चंगा तो कठौती में गंगा....ब्राह्मण भाव विभोर होकर रविदास जी के पास आया और बोला कि आज तक गंगा मैया की पूजा मैने की लेकिन गंगा मैया के दर्शन कभी प्राप्त नहीं हुए। लेकिन आपकी भक्ति का प्रताप ऐसा है कि गंगा मैया ने स्वयं प्रकट होकर आपकी दी हुई सुपारी को स्वीकार किया और आपको सोने का कंगन दिया है। आपकी कृपा से मुझे भी गंगा मैया के दर्शन हुए। 10-ब्राह्मण जब गंगा मैया का दिया कंगन लेकर लौट रहा था तो वह नगर के राजा से मिलने चला गया। ब्राह्मण को विचार आया कि यदि यह कंगन राजा को दे दिया जाए तो राजा बहुत प्रसन्न होगा। उसने वह कंगन राजा को भेंट कर दिया। राजा ने बहुत-सी मुद्राएं देकर उसकी झोली भर दी।ब्राह्मण अपने घर चला गया। इधर राजा ने वह कंगन अपनी महारानी के हाथ में पहनाया तो महारानी बहुत खुश हुई और राजा से बोली कि कंगन तो बहुत सुंदर है, परंतु यह क्या एक ही कंगन, क्या आप बिल्कुल ऐसा ही एक और कंगन नहीं मंगा सकते हैं। 11-राजा ने कहा- ''प्रिये ऐसा ही एक और कंगन मैं तुम्हें शीघ्र मंगवा दूंगा।'' राजा से उसी ब्राह्मण को खबर भिजवाई कि जैसा कंगन मुझे भेंट किया था वैसा ही एक और कंगन मुझे तीन दिन में लाकर दो वरना राजा के दंड का पात्र बनना पड़ेगा।खबर सुनते ही ब्राह्मण के होश उड़ गए। वह पछताने लगा कि मैं व्यर्थ ही राजा के पास गया, दूसरा कंगन कहां से लाऊं? 12-इसी ऊहापोह में डूबते-उतरते वह रैदासजी की कुटिया पर पहुंचा और उन्हें पूरा वृत्तांत बताया कि गंगाजी ने आपकी दी हुई मुद्रा स्वीकार करके मुझे एक सोने का कंगन दिया था, वह मैंने राजा को भेंट कर दिया। अब राजा ने मुझसे वैसा ही कंगन मांगा है, यदि मैंने तीन दिन में दूसरा कंगन नहीं दिया तो राजा मुझे कठोर दंड देगा।रैदासजी बोले कि तुमने मुझे बताए बगैर राजा को कंगन भेंट कर दिया। इसका पछतावा मत करो। यदि कंगन तुम भी रख लेते तो मैं नाराज नहीं होता, न ही मैं अब तुमसे नाराज हूं।रही दूसरे कंगन की बात तो मैं गंगा मैया से प्रार्थना करता हूं कि इस ब्राह्मण का मान-सम्मान तुम्हारे हाथ है। इसकी लाज रख देना। 13-ऐसा कहने के उपरांत रैदासजी ने अपनी वह कठौती उठाई जिसमें वे चर्म गलाते थे। उसमें जल भरा हुआ था।उन्होंने गंगा मैया का आह्वान कर अपनी कठौती से जल छिड़का तब गंगा मैया प्रकट हुई और रैदास जी के आग्रह पर उन्होंने एक और कड़ा ब्राह्मण को दे दिया।ब्राह्मण खुश होकर राजा को वह कंगन भेंट करने चला गया। ऐसे थे महान संत रविदास। 14-इस बात की ख़बर पूरे काशी में फैल गयी।रविदास जी के विरोधियों का सिर नीचा हुआ और संत रविदास जी की जय-जयकार होने लगी। उनके जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन सम्बन्धी उनके गुणों का पता चलता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो उन्होंने उत्तर दिया- गंगा स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किंतु एक व्यक्ति को जूते बनाकर आज ही देने का वचन मैंने दे रखा है। यदि मैं उसे आज जूते नहीं दे सका तो मेरा वचन भंग होगा। ऐसे में गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहां लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा? 15-मन जो काम करने के लिए अंत:करण से तैयार हो, वही काम करना उचित है। अगर मन सही है तो इसे कठौते के जल में ही गंगा स्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है।कहा जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गयी कि - मन चंगा तो कठौती में गंगा। रैदास जी ने ऊँच- नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश दिया।वे स्वयं मधुर तथा भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करते थे और उन्हें भाव-विभोर होकर सुनाते थे। उनका विश्वास था कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सब एक ही परमेश्वर के विविध नाम हैं। वेद, कुरान, पुराण आदि ग्रन्थों में एक ही परमेश्वर का गुणगान किया गया है। 16-उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित-भावना तथा सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने बहुत बल दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है-''कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै। तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै। 17-उनके विचारों का आशय यही है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के कणों को चुनने में असमर्थ रहता है जबकि लघु शरीर की पिपीलिका (चींटी) इन कणों को सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है। ''वर्णाश्रम अभिमान तजि, पद रज बंदहिजासु की। सन्देह-ग्रन्थि खण्डन-निपन, बानि विमुल रैदास की।।'' 18-रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वत: उनके अनुयायी बन जाते थे।उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग उनके प्रति श्रद्धालु बन गये। मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से बहुत प्रभावित हुईं और उनकी शिष्या बन गयी थीं।अपने गीतों में वो कुछ इस तरह कहती थी: “गुरु मिलीया रविदास जी दीनी ज्ञान की गुटकी, चोट लगी निजनाम हरी की महारे हिवरे खटकी”। 19-एक बार जब उनको और दूसरे दलितों को पूजा करने के जुर्म में काशी नरेश के द्वारा उनके दरबार में कुछ लोगों की शिकायत पर बुलाया गया था। संत रविदास को राजा के दरबार में प्रस्तुत किया गया जहाँ गुरुजी और पंडित पुजारी से फैसले वाले दिन अपने-अपने इष्ट देव की मूर्ति को गंगा नदी के घाट पर लाने को कहा गया। 20-राजा ने ये घोषणा की कि अगर किसी एक की मूर्ति नदी में तैरेगी तो वो सच्चा पुजारी होगा अन्यथा झूठा होगा। दोनों गंगा नदी के किनारे घाट पर पहुँचे और राजा की घोषणा के अनुसार कार्य करने लगे। ब्राह्मण ने हल्के भार वाली सूती कपड़े में लपेटी हुयी भगवान की मूर्ति लायी थी वहीं संत रविदास ने 40 कि.ग्रा की चाकोर आकार की मूर्ती ले आयी थी। राजा के समक्ष गंगा नदी के राजघाट पर इस कार्यक्रम को देखने के लिये बहुत बड़ी भीड़ उमड़ी थी। 21-पहला मौका ब्राह्मण पुजारी को दिया गया, पुजारी जी ने ढ़ेर सारे मंत्र-उच्चारण के साथ मूर्ती को गंगा जी ने प्रवाहित किया लेकिन वो गहरे पानी में डूब गयी। उसी तरह दूसरा मौका संत रविदास का आया, गुरु जी ने मूर्ती को अपने कंधों पर लिया और शिष्टता के साथ उसे पानी में रख दिया जो कि पानी की सतह पर तैरने लगा। इस प्रकिया के खत्म होने के बाद ये फैसला हुआ कि ब्राह्मण झूठा पुजारी था और संत रविदास सच्चे भक्त थे। 22-दलितों को पूजा के लिये मिले अधिकार से खुश होकर सभी लोग उनके पाँव को स्पर्श करने लगे। तब से, काशी नरेश और दूसरे लोग जो कि संत जी के खिलाफ थे, अब उनका सम्मान और अनुसरण करने लगे। उस खास खुशी के और विजयी पल को दरबार की दिवारों पर भविष्य के लिये सुनहरे अक्षरों से लिख दिया गया। 23-एक दिन उनके पास एक महात्मा आए। संत रविदास ने महात्माजी को भोजन करवाया और अपने बनाए हुए जूते उन्हें पहनाए। रविदासजी के निस्वार्थ प्रेम से महात्माजी बहुत प्रसन्न हुए। इसके बाद उन्होंने संतश्री को एक पारस पत्थर दिया। पारस पत्थर को जैसे ही लौहे के औजारों पर लगाया तो वे सभी सोने के बन गए।ये देखकर संत रविदास दुखी हो गए और उन्होंने वह पत्थर लेने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि अब वह सोने के औजारों से जूते-चप्पल कैसे बना पाएंगे। 24-महात्माजी ने रविदास से कहा कि इस पत्थर की मदद से तुम धनवान बन जाओगे और तुम्हें जूते-चप्पल बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। ये कहकर महात्माजी ने वह पत्थर संतश्री की झोपड़ी में ही ऊंची जगह पर रख दिया और वहां से चले गए।एक साल बाद जब महात्माजी फिर से रविदासजी के पास पहुंचे तो उन्होंने देखा कि उसकी हालत तो वैसी की वैसी है, जैसी एक साल पहले थी।महात्माजी ने उस संत से पूछा कि वह पारस पत्थर कहां है? 25-संत रविदास ने कहा कि वहीं होगा, जहां आप रखकर गए थे। ये सुनकर महात्माजी हैरान हो गए। उन्होंने कहा कि तुम्हारे पास इतना अच्छा अवसर था, तुम धनवान बन सकते थे, इसका उपयोग क्यों नहीं किया? संत रविदास ने कहा कि महाराज अगर मैं बहुत सारा सोना बना लेता तो उसकी रखवाली कौन करता, मैं धनवान हो जाता और निर्धनों को दान देता तो धीरे-धीरे क्षेत्र में प्रसिद्ध हो जाता। इसके बाद मेरे पास भगवान का ध्यान करने का समय ही नहीं बचता। मैं तो जूते बनाने के काम से खुश हूं, क्योंकि इस काम से मेरे खाने-पीने की व्यवस्था हो जाती है और बाकी समय में मैं भगवान का स्मरण कर लेता हूं। अगर प्रसिद्ध हो जाता तो मेरे जीवन की शांति खत्म हो जाती। मुझे जीवन में शांति चाहिए, ताकि मैं भक्ति कर सकूं। इसीलिए मैंने पारस पत्थर को हाथ भी नहीं लगाया। 26-आज भी सन्त रैदास के उपदेश समाज के कल्याण तथा उत्थान के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने अपने आचरण तथा व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित कार्य तथा सद्व्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं। इन्हीं गुणों के कारण सन्त रैदास को अपने समय के समाज में अत्यधिक सम्मान मिला और इसी कारण आज भी लोग इन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।वाराणसी में श्री गुरु रविदास पार्क है जो नगवा में उनके यादगार के रुप में बनाया गया है जो उनके नाम पर “गुरु रविदास स्मारक और पार्क” बना है। 27-सन्त रैदास के 10 पद;- 1-अब कैसे छूटे राम रट लागी। ''प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी॥ प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा॥ प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती॥ प्रभु जी, तुम मोती, हम धागा जैसे सोनहिं मिलत सोहागा॥ प्रभु जी, तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै ‘रैदासा’॥'' मन ही पूजा मन ही धूप, 2-मन ही सेऊं सहज स्वरूप।। अर्थ- इस पंक्ति में रविदासजी कहते हैं कि निर्मल मन में ही भगवान वास करते हैं। अगर आपके मन में किसी के प्रति बैर भाव नहीं है, कोई लालच या द्वेष नहीं है तो आपका मन ही भगवान का मंदिर, दीपक और धूप है। ऐसे पवित्र विचारों वाले मन में प्रभु सदैव निवास करते हैं। 3-रविदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच नकर कूं नीच करि डारी है, ओछे करम की कीच अर्थ- इस दोहे में रविदासजी कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति किसी जाति में जन्म के कारण नीचा या छोटा नहीं होता है। किसी व्यक्ति को निम्न उसके कर्म बनाते हैं। इसलिए हमें सदैव अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए। हमारे कर्म सदैव ऊंचें होने चाहिए। 4-मन चंगा तो कठौती में गंगा’ अर्थ- इस कहावत के जरिए एक बार फिर रविदास जी मन की पवित्रता पर जोर देते हैं। रविदास कहते हैं, जिस व्यक्ति का मन पवित्र होता है, उसके बुलाने पर मां गंगा एक कठौती में भी आ जाती हैं। 5-करम बंधन में बन्ध रहियो, फल की ना तज्जियो आस कर्म मानुष का धर्म है, सत् भाखै रविदास अर्थ- हमें हमेशा कर्म में लगे रहना चाहिए और कभी भी कर्म के बदले मिलने वाले फल की आशा नही छोड़नी चाहिए क्‍योंकि कर्म करना हमारा धर्म है तो फल पाना हमारा सौभाग्य है। 6-रविदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच, नर कूँ नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच अर्थ- सिर्फ जन्म लेने से कोई नीच नही बन जाता है, इन्सान के कर्म ही उसे नीच बनाते हैं। 7-कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै अर्थ- ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है. यदि आपमें थोड़ा सा भी अभिमान नही है तो निश्चित ही आपका जीवन सफल रहता है ठीक वैसे ही जैसे एक विशालकाय हाथी शक्कर के दानो को बिन नही सकता लेकिन एक तुच्छ सी दिखने वाली चींटी शक्कर के दानों को आसानी से बिन लेती है। 8-कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा सन्त रैदास के पद;- ईश्वर, करीम, राघव सब एक ही परमेश्वर के अलग अलग नाम है वेद, कुरान, पुराण आदि सभी ग्रंथो में एक ही ईश्वर का गुणगान किया गया है, और सभी ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार का पाठ सिखाते हैं। 9- रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं। तैसे ही अंतर नहीं हिन्दुअन तुरकन माहि।। 10-रैदास कहै जाकै हृदै, रहे रैन दिन राम। सो भगता भगवंत सम, क्रोध न व्यापै काम।।

...SHIVOHAM....


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