क्या प्राण समस्त जीवन का आधार और सार है?क्या पांच प्राण पांच शक्ति धारायें है?
क्या प्राण समस्त जीवन का आधार और सार है?-
09 FACTS;-
1-प्राण ऊर्जा, तेज, शक्ति है। प्राण समस्त जीवन का आधार और सार है; यह वह ऊर्जा और तेज है, जो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है। प्राण उस प्रत्येक वस्तु में प्रवाहित होता है जिसका अस्तित्व है।इससे भी अधिक, प्राण भौतिक संसार, चेतना और मन के मध्य सम्पर्क सूत्र है। यही तो भौतिक स्तर पर जीवन को संभव बनाता है।
2-प्राण सभी शारीरिक कार्यों को विनियमित करता है, उदाहरणार्थ श्वास, ऑक्सीजन की आपूर्ति, पाचन, निष्कासन-अपसर्जन और बहुत कुछ। मानव शरीर का कार्य एक ट्रांसफॉर्मर की भांति है, जो विश्व भर में प्रवाहित प्राण से ऊर्जा प्राप्त करता है, इस ऊर्जा का आवंटन करता है और फिर इसे समाप्त कर देता है।
3-यदि किसी व्यक्ति या कमरे में स्वस्थ, व्यवस्थित स्पंदन है, तो हम कहते हैं "यहां अच्छा प्राण है"। इसके विपरीत रुग्णता, प्राण के प्रवाह में बाधा डालती है या रोकती है। हम ज्यों-ज्यों प्राण को नियन्त्रित करने की योग्यता विकसित करते हैं, हम शरीर और मन दोनों के स्वास्थ्य व समन्वय को प्राप्त कर लेते हैं। इसके साथ ही दीर्घ और अनवरत अभ्यास के साथ चेतना के विस्तार का भी अनुभव होने लगता है
4-यों प्राणतत्व एक है, पर प्राणी के शरीर में उसकी क्रियाशीलता के आधार पर कई भागों में विभक्त किया गया है। शरीर के प्रमुख अवयव मांस-पेशियों से बने हैं, पर संगठन की भिन्नता के कारण उनके आकार-प्रकार में भिन्नता पाई जाती है। इसी आधार पर उनका नामकरण एवं विवेचन भी पृथक्-पृथक् होता है।
5-हमने बहुत बार अपने जीवन में व्यवहारिक रूपसे “प्राण” शब्द का उपयोग किया है। परंतु हमे प्राण की वास्तविकता के बारे मे शायद ही पता हो । हम भ्रांति से यह मानते है की प्राण का अर्थ जीव या जीवात्मा होता है , परंतु यह सत्य नही है। प्राण वायु का एक रूप है , जब हवा आकाश में चलती है तो उसे वायु कहते है। जब यही वायु हमारे शरीर में 10 भागों में काम करती है तो इसे “प्राण” कहते है , वायु का पर्यायवाचि नाम ही प्राण है ।
6-मूल प्रकृति के स्पर्श गुण-वाले वायु में रज गुण प्रदान होने से वह चंचल , गतिशील और अद्रश्य है । पंच महाभूतों में प्रमुख तत्व वायु है । वात् , पित्त कफ में वायु बलिष्ठ है , शरीर में हाथ-पाँव आदि कर्मेन्द्रियाँ , नेत्र – श्रोत्र आदि ज्ञानेन्द्रियाँ तथा अन्य सब अवयव -अंग इस प्राण से ही शक्ति पाकर समस्त कार्यों का संपादन करते है . वह अति सूक्ष्म होने से सूक्ष्म छिद्रों में प्रविष्टित हो जाता है । प्राण को रुद्र और ब्रह्म भी कहते है ।
7-प्राण से ही भोजन का पाचन , रस , रक्त , माँस , मेद , अस्थि , मज्जा , वीर्य , रज , ओज , आदि धातुओं का निर्माण , फल्गु ( व्यर्थ ) पदार्थो का शरीर से बाहर निकलना , उठना , बैठना , चलना , बोलना , चिंतन-मनन-स्मरण-ध्यान आदि समस्त स्थूल व् सूक्ष्म क्रियाएँ होती है । प्राण की न्यूनता-निर्बलता होने पर शरीर के अवयव ( अंग-प्रत्यंग-इन्द्रियाँ आदि ) शिथिल व रुग्ण हो जाते है। प्राण के बलवान् होने पर समस्त शरीर के अवयवों में बल , पराक्रम आते है और पुरुषार्थ , साहस , उत्साह , धैर्य ,आशा , प्रसन्नता , तप , क्षमा आदि की प्रवृति होती है।
8-शरीर के बलवान् , पुष्ट , सुगठित , सुन्दर , लावण्ययुक्त , निरोग व दीर्घायु होने पर ही लौकिक व आध्यात्मिक लक्ष्यों की पूर्ति हो सकती है।इसलिए हमें प्राणों की रक्षा करनी चाहिए अर्थात शुद्ध आहार , प्रगाढ़ निंद्रा , ब्रह्मचर्य , प्राणायाम आदि के माध्यम से शरीर को प्राणवान् बनाना चाहिए ।
9-परमपिता परमात्मा द्वारा निर्मित 16 कलाओं में एक कला प्राण भी है। ईश्वर इस प्राण को जीवात्मा के उपयोग के लिए प्रदान करता है। ज्यों ही जीवात्मा किसी शरीर में प्रवेश करता है , प्राण भी उसके साथ शरीर में प्रवेश कर जाता है । तथा ज्यों ही जीवात्मा किसी शरीर से निकलता है , प्राण भी उसके साथ निकल जाता है। श्रुष्टि की आदि में परमात्मा ने सभी जीवो को सूक्ष्म शरीर और प्राण दिया जिससे जीवात्मा प्रकृति से संयुक्त होकर शरीर धारण करता है । सजीव प्राणी नाक से श्वास लेता है , तब वायु कण्ठ में जाकर विशिष्ठ रचना से वायु का दश विभाग हो जाता है । शरीर में विशिष्ठ स्थान और कार्य से प्राण के विविध नाम हो जाते है ।
दस मुख्य प्राण ;-
05 FACTS;-
प्राण दस मुख्य कार्यों में विभाजित है :-
1-मानवी-काया में प्राण-शक्ति को भी विभिन्न उत्तरदायित्व निबाहने पड़ती हैं उन्हीं आधार पर उनके नामकरण भी अलग हैं और गुण धर्म की भिन्नता भी बताई जाती है। इस पृथकता के मूल में एकता विद्यमान है। प्राण अनेक नहीं हैं। उसके विभिन्न प्रयोजनों में व्यवहार पद्धति पृथक है।
2-बिजली एक है, पर उनके व्यवहार विभिन्न यन्त्रों में भिन्न प्रकार के होते हैं। हीटर, कूलर, पंखा, प्रकाश, पिसाई आदि करते समय उसकी शक्ति एवं प्रकृति भिन्न लगती है। उपयोग आदि प्रयोजन को देखते हुए भिन्नता अनुभव की जा सकती है तो भी यह सब एक ही विद्युत शक्ति के बहुमुखी क्रिया-कलाप हैं। प्राण-शक्ति के सम्बन्ध में भी यही बात कही जा सकती है।
3-मानव शरीर में प्राण को दस भाग में विभक्त माना गया है। इनमें 5 प्राण और 5 उप प्राण हैं। प्राणमय कोश इन्हीं 10 के सम्मिश्रण से बनता है।प्राणतत्व कितने ही प्रकार का है और उन प्रकारों में भिन्नता एवं विसंगति है।इस प्राण विस्तार को भी ‘‘एकोऽहं बहुस्याम’’ का एक स्फुरण कहा जाता है।
4-5 मुख्य प्राण हैं...
(1) अपान (2) समान (3) प्राण (4) उदान (5) व्यान।
5-5 उपप्राण हैं...
(1)देवदत्त (2) कृकल (3) कूर्म (4) नाग (5)धनंजय
शरीर क्षेत्र में इन प्राणों के कार्य ;- 1-प्राण;-
05 POINTS;-
1-जो श्वास, आहार आदि को खींचता है और शरीर में बल संचार करता है वह प्राण है। शब्दोच्चार में प्रायः इसी की प्रमुखता रहती है।प्राण ऊर्जा, तेज, शक्ति है। प्राण समस्त जीवन का आधार और सार है; यह वह ऊर्जा और तेज है, जो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है। प्राण उस प्रत्येक वस्तु में प्रवाहित होता है जिसका अस्तित्व है।
2-प्राण, ब्रह्माण्ड-प्राण का वह विशेष कार्य है, जो मानव-शरीर को अनिवार्य ऑक्सीजन की आपूर्ति करता है। इसकी ऊर्जा नासिका-छिद्रों से हृदय-स्तर तक प्रवाहित होती है।स्वच्छ वायु स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक है, किन्तु मात्र वायु के आधार पर ही स्वास्थ्य अच्छा होना कोई कारण नहीं है। कुछ लोग रुग्ण हो जाते हैं, यद्यपि वे बहुत समय स्वच्छ वायु में ही रहते हैं। इसके विपरीत, ऐसे व्यक्ति भी हैं जो तुलनात्मक रूप में घटिया किस्म की हवा में उपनगरों या कमरों में रहते हैं, फिर भी स्वस्थ होते हैं।
3-हमारा स्वास्थ्य केवल बाह्य कारणों से प्रभावित नहीं होता है। स्वास्थ्य हमारी आन्तरिक अवस्था से, प्रतिरोधक-शक्ति से और आन्तरिक इच्छा - "आत्मबल"- आन्तरिक सामर्थ्य से भी अनुशासित होता है। जब 'आत्मबल' अन्दर से दृढ़ होता है, तब बाहरी शक्तियां हमें यदा-कदा ही नुकसान पहुंचाती हैं। "दैनिक जीवन में योग" का अभ्यास हमारी जीवन शक्ति को सुदृढ़ करता है। कुछ निश्चित व्यायाम विधियां विशेष प्राण-शक्ति को सक्रिय करती हैं, ये हैं भस्त्रिका, नाड़ी-शोधन और उज्जायी - प्राणायाम।
4-आमाशय तथा आंतों में भोजन का पाचन होकर उसे शरीर के अनुकूल रासायनिक रसों में बदल दिया जाता है वह रस आंत की झिल्ली में से पार होकर रस में मिलते हैं तब सारे शरीर में फैल पाते हैं। कुछ रसायन तो सामान्य संचरण क्रम से ही रक्त में मिल जाते हैं, किन्तु कुछ के लिए शरीर को शक्ति खर्च करनी पड़ती है। इस विधि को एक्टिव ट्रांसपोर्ट (सक्रिय परिवहन) कहते हैं।
5-यह परिवहन आंतों में जो विद्युतीय प्रक्रिया होती है उसे वैज्ञानिक ‘सोडियम पंप’ के नाम से संबोधित करते हैं। सोडियम कणों में ऋण और धन प्रभार बदलने से वह सेलों की दीवार के इस पार से उस पार जाते आते हैं। उनके संसर्ग से शरीर के पोषक रसों (ग्लूकोस, वसा आदि) की भेदकता बढ़ जाती है तथा वह भी उसके साथ संचरित हो जाते हैं। यह प्रक्रिया पंच प्राणों में ‘प्राण’ वर्ग के अनुरूप कही जा सकती है। 2-अपान;-
03 POINTS;- 1-जो मलों को बाहर फेंकने की शक्ति में सम्पन्न है वह अपान है। मल-मूत्र, स्वेद, कफ, रज, वीर्य आदि का विसर्जन, भ्रूण का प्रसव आदि बाहर फेंकने वाली क्रियाएं इसी अपान प्राण के बल से सम्पन्न होती हैं।अपान प्राण शरीर के निम्न-भाग को, नाभि से पैरों के तलवों तक को प्रभावित करता है। यह प्राण निष्कासन-प्रक्रिया को विनियमित करता है।
2-रोग जो पेट के निचले भाग को प्रभावित करते हैं- आंतों, गुर्दे, मूत्र-मार्ग, टांगों आदि को - वे सभी अपान प्राण की अवस्था का परिणाम ही होते हैं। नौलि, अग्निसार-क्रिया, अश्विनि मुद्रा और मूल-बन्ध विधियां अपान प्राण को मजबूत और शुद्ध करने का कार्य करती हैं।
3- इसी प्रकार हर कोशिका में रस परिपाक के दौरान तथा पुरानी कोशिकाओं के विखंडन से जो मल बहता है उसके लिए भी विद्युत रासायनिक (इलेक्ट्रो कैमिकल) क्रियाएं उत्तरदायी है। प्राण विज्ञान में इसे ‘अपान’ की प्रक्रिया कहा गया है। 3-व्यान;-
03 POINTS;-
1-जो सम्पूर्ण शरीर में संव्याप्त है—वह व्यान है। रक्त-संचार, श्वास-प्रश्वास, ज्ञान-तन्तु आदि माध्यमों से यह सारे शरीर पर नियन्त्रण रखता है। अन्तर्मन की स्वसंचालित शारीरिक गतिविधियां इसी के द्वारा सम्पन्न होती हैं।व्यान प्राण मानव शरीर के नाड़ी मार्ग से प्रवाहित होता है। इसका प्रभाव पूरे शरीर पर और विशेष रूप में नाडिय़ों पर होता है।
2-व्यान-प्राण में कमी से ही रक्त-प्रवाह में कमी, नाड़ी संचरण में खराबी और स्नायु संबंधी गति-हीनता होती है।व्यान प्राण कुंभक (श्वास संग्रह कर रखना) के अभ्यास से सुदृढ़ और सक्रिय होता है। प्रत्येक सहज, तनावहीन श्वास के साथ जो हम लेते हैं, उसके हर पूरक और रेचक के मध्य एक स्वत: ठहराव होता है।
3-प्राणायाम के अभ्यास से, यह ठहराव लम्बा ही किया जाता है। हम जब श्वास को रोक लेते हैं, तब हम शरीर में ऊर्जा को सजो लेते हैं, जिसके फलस्वरूप दबाव-निर्माण होता है। इस दबाव के प्रभाव से ऊर्जा की रुकावटें खुल जाती हैं। कुंभक नाड़ी-तन्त्र को प्रोत्साहित करता है। जिस व्यक्ति ने कुंभक व महा-बन्ध विधियों को जोडऩा सीख लिया है, उसे शरीर में प्रवाहित होने वाली शान्ति के सुखद तरंग का पूरा ज्ञान हो जाता है। इस अभ्यास के बाद अच्छी तरह ध्यान लगा पाने का यही कारण है।
4-उदान;-
05 POINTS;- 1-जो शरीर को उठाये रहे, कड़क रखे, गिरने न दे—बह उदान है। ऊर्ध्वगमन की अनेकों प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष क्रियाएं इसी के द्वारा सम्पन्न होती हैं।उदान प्राण वह उच्च आरोही ऊर्जा है, जो हृदय से सिर और मस्तिष्क में प्रवाहित होती है।
2-उदान प्राण कुण्डलिनि शक्ति के जाग्रत होने पर उसके साथ होती है। उदान प्राण की सहायता से आकाशीय शरीर (पिण्ड) स्वयं को शारीरिक शरीर से अलग कर लेता है। एक दृढ़ उदान प्राण मृत्यु के चरण को सुगम कर देता है।उदान प्राण के नियन्त्रण से शरीर बहुत हल्का हो जाता है और व्यक्ति में हवा में उठ जाने की योग्यता आ जाती है।
3-जब उदान प्राण हमारे नियन्त्रण में होता है, तब बाह्य बाधाएं जैसे जल, भूमि या पत्थर हमें बाधा नहीं डाल सकते। योग श्वास व्यायामों का गहन अभ्यास जल पर चलने की संभावना भी देता है और आकाश में तैरने की स्थिति भी बना सकता है। फकीर जो कीलों की शैय्या पर बैठते या लेटते हैं, उनमें अपने उदान प्राण के नियन्त्रण की क्षमता होती है।
4-योगी जो जंगलों में रहते हैं और गर्मी, सर्दी, कांटों और कीड़ों से प्रभावित नहीं होते, उदान प्राण के नियन्त्रण से ही सुरक्षित रहते हैं। उज्जायी प्राणायाम, भ्रमरी प्राणायाम और विपरीत करणी मुद्रा के अभ्यास से भी उदान प्राण सक्रिय हो जाता है।
‘5-उदान’ का कार्य शरीर के अवयवों को कड़ा रखना है वैज्ञानिक भाषा में इसे इलेक्ट्रिकल स्टिमुलाइजेशन कहा जाता है। शरीरस्थ विद्युत संवेगों से अन्नमय कोश के सैल किसी भी कार्य के लिए कड़े अथवा ढीले होते रहते हैं।
5- समान ;- 05 POINTS;- 1-जो रसों को ठीक तरह यथास्थान ले जाता और वितरित करता है वह समान है। पाचक रसों का उत्पादन और उनका स्तर उपयुक्त बनाये रहना इसी का काम है। पातञ्जलि योग सूत्र में कहा गया है— '' समान द्वारा शरीर की ऊर्जा एवं सक्रियता ज्वलन्त रखी जाती है।''
2-समान अति महत्त्वपूर्ण प्राण है, जो दो मुख्य चक्रों- अनाहत एवं मणिपुर चक्रों को जोड़ता है।समान प्राण आहार की ऊर्जा को सम्पूर्ण शरीर में वितरित करता है। हमें सावधान होना चाहिए कि भोजन केवल हमारे शारीरिक शरीर को प्रभावित नहीं करता है, अपितु हमारे मस्तिष्क (मन) और चेतना को भी प्रभावित करता है। प्राण की गुणवत्ता (सभी प्रकार के प्राण), सीधे-सीधे हमारे खाद्य की गुणवत्ता से संबंधित है। शुद्ध, सात्विक, शाकाहारी भोजन और प्राणायाम का अभ्यास जीवन भर के लिए एक स्वस्थ और संतुलित शरीर प्रदान करेगा।
3-समान प्राण का मणिपुर चक्र पर प्रभाव होता है जिसका समानक तत्त्व अग्नि है। जब योगी समान प्राण पर नियन्त्रण कर लेते हैं, तब उनके अन्दर शुद्ध ज्योत होती है। जिन्होंने समान प्राण को पूर्ण कर लिया वे प्रभामण्डल से प्रदीप्त होते हैं, जो उनको भी दिखाई देता है, जिनमें प्रभामण्डल देखने की योग्यता नहीं होती।
4-यह प्राण अग्निसार क्रिया एवं नौलि के अभ्यास से सुदृढ़ होता है। इन दो क्रियाओं का अभ्यास पाचन समस्या और मधुमेह से बचाता है। जठराग्नि के कारणों को दूर करते हुए ये क्रियाएं पूरे शरीर को जाग्रत कर शुद्ध और स्वच्छ करती है। यह संक्रमणशील बीमारी और कैंसर का प्रतिरोध करने की क्षमता भी सुधारता है।
5-समान प्राण को जाग्रत करने की सबसे प्रभावकारी विधि क्रिया योग है। क्रिया योग का अभ्यास पूरे शरीर को गरम करता है। यह समान प्राण के
जाग्रत होने से होता है। पाचन केवल आंतों में नहीं शरीर के हर सैल में होता है। उसके लिए रसों को हर सैल तक पहुंचाया जाता है। यह प्रक्रिया जिस प्राण ऊर्जा के सहारे चलती है उसे भारतीय प्राणवेत्ताओं ने ‘समान’ कहा है।
IN NUTSHELL;-
05 POINTS;-
1-प्रथम ''प्राण ''का कार्य श्वास-प्रश्वास क्रिया का सम्पादन स्थान छाती है। इस तत्व की ध्यानावस्था में अनुभूति पीले रंग की होती है और षटचक्र वेधन की प्रक्रिया में यह अनाहत चक्र को प्रभावित करता पाया जाता है। 2-द्वितीय—''अपान'' का कार्य शरीर के विभिन्न मार्गों से निकलने वाले मलों का निष्कासन, एवं स्थान गुदा है। यह नारंगी रंग की आभा में अनुभव किया है और मूलाधार चक्र को प्रभावित करता है। 3-तीसरा समान—अन्न से लेकर रस-रक्त और सप्त धातुओं का परिपाक करता है और स्थान नाभि है। हरे रंग की आभा वाला और मणिपूर चक्र से सम्बन्धित इसे बताया गया है। 4-चौथा उदान—का कार्य है आकर्षण ग्रहण करना, अन्न-जल, श्वास, शिक्षा आदि जो कुछ बाहर से ग्रहण किया जाता है वह ग्रहण प्रक्रिया इसी के द्वारा सम्पन्न होती है।निद्रावस्था तथा मृत्यु के उपरान्त का विश्राम सम्भव करना भी इसी का काम है।स्थान कण्ठ, रंग बैगनी तथा विशुद्धि चक्र है। 5-पांचवा व्यान—इसका कार्य रक्त आदि का संचार, स्थानान्तरण। स्थान सम्पूर्ण शरीर। रंग, गुलाबी और चक्र स्वाधिष्ठान है।
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पांच चक्र>>>>>>पांच प्राण
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मूलाधार चक्र>>>'अपान'
स्वाधिष्ठान चक्र>>>'व्यान'
मणिपूर चक्र>>>'समान'
अनाहत चक्र >>>'प्राण'
विशुद्धि चक्र>>>'उदान'
/////////////////////////////////////////////////// /////////////////////////////////////////////////// क्या है पांच उप प्राण?-
04 FACTS;- 1-पांच उप प्राण इन्हीं पांच प्रमुखों के साथ उसी तरह जुड़े हुए हैं जैसे मिनिस्टरों के साथ सेक्रेटरी रहते हैं। प्राण के साथ नाग। अपान के साथ कूर्म। समान के साथ कृकल। उदान के साथ देवदत्त और व्यान के साथ धनञ्जय का सम्बन्ध है।
2-नाग का कार्य वायु सञ्चार, डकार, हिचकी, गुदा वायु। कूर्म का नेत्रों के क्रिया-कलाप कृकल का भूख-प्यास, देवदत्त का जंभाई, अंगड़ाई, धनञ्जय को हर अवयव की सफाई जैसे कार्यों का उत्तरदायी बताया गया है, पर वस्तुतः वे इतने छोटे कार्यों तक ही सीमित नहीं है। मुख्य प्राणों की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित बनाये रखने में उनका पूरा योगदान रहता है।
3-इन प्राण और उपप्राणों के भेद को और भी अच्छी तरह समझना हो तो तन्मात्राओं और ज्ञानेन्द्रियों के सम्बन्ध पर गौर करना चाहिए। शब्द तत्व को ग्रहण करने के लिये कान, रूप तत्व की अनुभूति के लिये नेत्र, रस के लिये जिव्हा, गन्ध के लिए नाक और स्पर्श के लिये जो कार्य त्वचा करती है, उसी प्रकार प्राण तत्व द्वारा विनिर्मित सूक्ष्म संभूतियों को स्थूल अनुभूतियों में प्रयुक्त करने का कार्य यह उप प्राण सम्पादित करते हैं।
4-यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि यह वर्गीकरण मात्र वस्तुस्थिति को समझने और समझाने के उद्देश्य से ही किया गया है। अलग-अलग आकृति प्रकृति के दस व्यक्तियों की तरह इन्हें दस सत्ताएं नहीं मान बैठना चाहिए। एक ही व्यक्ति को विभिन्न अवसरों पर पिता, पुत्र, भाई, मित्र, शत्रु सुषुप्त, जागृत, मलीन, स्वच्छ स्थितियों में देखा जा सकता है लगभग उसी प्रकार का यह वर्गीकरण भी समझा जाय।
पांच उप-प्राण;-
पांच उप-प्राण मानव शरीर के महत्त्वपूर्ण कार्यों को विनियमित करते हैं।
04 FACTS;-
1-नाग - डकारना;-
यह प्राण और अपान के मध्य उत्पन्न रुकावटों को दूर करता है और पाचन तन्त्र में वात (गैस) का बनना रोकता है। डकार को लगातार रोके रखने से हृदय-तन्त्र में गड़बड़ी हो सकती है। अन्य क्रियाओं में अपचन के कारण मितली को रोकने और समान प्राण के अवरोधों का हल करना सम्मिलित है।
2-कूर्मा - झपकना;-
यह उप-प्राण आंखों के क्षेत्र में क्रिया है, जिससे पलकों के खुलने और बन्द होने का नियन्त्रण होता है। इस उप-प्राण की ऊर्जा तब सक्रिय होती है, जब हम जाग रहे होते हैं और यह शक्ति जब हम सोते हैं पुन: प्राप्त हो जाती है। कूर्मा धूल और अन्य अवांछित वस्तुओं आदि को आंखों में घुसने से रोकता है। इस उप-प्राण में गड़बड़ी से पलकों का अनियन्त्रित झपकना और खिंचाव पैदा हो जाता है। ॐ उच्चारण की तरह त्राटक के अभ्यास से भी कूर्मा में सन्तुलन और सामर्थ्य प्राप्त होता है, गर्म हथेलियों को आंखों पर रखने और उन आसनों से जिनमें सिर आगे झुकाया जाता है।
3-देवदत्त (जम्हाई);-
देवदत्त क्रिया भी समान प्राण क्रिया जैसी ही है। जम्हाई गैस को बाहर निकाल देती है, भोजन के बाद थकान को दूर करती है। खास खाद्य सामग्री जैसे अनाज, प्याज और लहसुन थकान उत्पन्न करते हैं। कई योगी केवल शाक-सब्जी और कुछ दुग्ध पदार्थों को ही लेते हैं, जिससे उनकी जीवन शक्ति बनी रहे और शिथिलता नहीं आये।
4-कृकला - छींकना;-
श्वास-तन्त्र में आये अवरोधों को दूर करता है। छींकने से सिर-दर्द में आराम हो सकता है, क्योंकि यह सिर और गर्दन में ऊर्जा प्रवाह की रुकावटों को दूर कर सुगम कर देता है। छींक को दबाना नहीं चाहिए, क्योंकि इससे ग्रीवा रीढ़ में कशेरुका प्रभावित हो सकती है। लोक-कथाओं में कहा जाता है कि जो जोर से और दृढ़तापूर्वक छींकता है, वह दीर्घकाल तक जीवित रहता है। कमजोर छींक कमजोर स्फूर्ति को दर्शाता है।
5-धनन्जय - हृदय वाल्वों का खुलना व बन्द होना;-
धनन्जय हृदय के निकट स्थित होता है। यह समस्त शरीर को प्रभावित करता है और विशेष रूप से हृदय की मांसपेशियों को - हृदय के वाल्वों को खोल एवं बन्द करके। हृदय संबंधी अरहिथमिया व हृदय-घात भी धनन्जय की गम्भीर गड़बड़ी से हो सकते हैं।
क्या प्राण को स्पष्ट रूप से महसूस कर सकते हैं?-
09 FACTS;-
1-मानव शरीर में 4 क्षेत्र ऐसे हैं, जहां प्राण का प्रवाह विशेष रूप में गहन होता है- दोनों पैरों के तलवों व दोनों हाथों की हथेलियों के माध्यम से। पैरों का पृथ्वी तत्व से निकटतम संबंध है और वे ऋणात्मक ध्रुव का प्रतिनिधित्व करते हैं। अत: ध्यान में कभी भी पैरों (चरणों) पर चित्त एकाग्र नहीं करना चाहिए। इसके विपरीत, हथेलियों की ऊर्जा हृदय से उद्भूत होती है। इसका संबंध हवा तत्व से है और धनात्मक ध्रुवत्व पैदा करती है।
2-एक ऐसा व्यायाम है, जिसके माध्यम से हम हाथों में प्राण को स्पष्ट रूप से महसूस कर
सकते हैं।बाजुओं को शरीर के बाहर की ओर फैलाएं, जिसमें हथेलियां सामने की ओर हों। बाजुओं को सीधा रखें और उनको अद्र्ध-वृत्त में शरीर के सामने घुमायें, धीरे-धीरे हथेलियों को एक-दूसरे के सामने लायें। पूरी तरह तनावहीन रहें, धीरे-धीरे हाथों के बीच की दूरी कम करें। ज्योंही हथेलियां पास आएंगी, आप हाथों के बीच सनसनी बढ़ती हुई पायेंगे, या हथेलियों में पिन या सुइयों की चुभन महसूस करेंगे।
3-हथेलियों को इतना निकट लायें कि उनके बीच की दूरी मात्र एक सेन्टीमीटर ही रह जाये। अब, चूंकि यह ऊर्जा आपके हाथों में धारा के रूप में प्रवाहित होती है, ऐसा अनुभव होता है जैसे वास्तव में दोनों हाथ एक-दूसरे को अपनी ओर खींच रहे हों। यह प्राण के कारण होता है। यदि आप अब फिर से हाथों को अलग-अलग करें, तो आप हाथों के पीछे दबाव अनुभव करेंगे, जो उल्टा प्रभाव पैदा करता है। यह भी प्राण है, क्योंकि प्राण सम्पूर्ण शरीर में निर्बाध रूप से प्रवाहित होता है।
4-प्राण नाड़ी-तन्त्र के माध्यम से संपूर्ण शरीर में प्रवाहित होता है। मानव-शरीर में 72,000 नाडिय़ां हैं, इनमें से मुख्य रूप से तीन नाडिय़ों का विशेष महत्त्व है :-
4-1-इडा, 'चन्द्र प्रणाली', यह बायें नासिका-रन्ध्र (नथुने)से संबंधित है और अनुसंवेदी नाड़ी-तन्त्र है।
4-2-पिंगला, 'सूर्य प्रणाली', यह दायें नासिका-रन्ध्र से संबंधित है और सहानुकम्पी नाड़ी-तन्त्र है।
4-3-सुषुम्ना, 'केन्द्रीय नाड़ी', यह मेरुदण्ड से गुजरती है और केन्द्रीय नाड़ी-तन्त्र से संबंधित है।
5-आसनों और प्रणायामों के अभ्यास से इडा एवं पिंगला नाडिय़ां सुव्यवस्थित होती हैं और इसका सभी 72,000 नाडिय़ों पर ऊर्जा प्रवाह का शुद्ध, दृढ़ और सन्तुलनकारी प्रभाव होता है। प्राणायाम और ध्यान के अभ्यास सुषुम्ना नाड़ी में ऊर्जा-प्रवाह को बढ़ाते हैं। जब आध्यात्मिक
ऊर्जा सुषुम्ना में प्रवाहित होती है विशेष मस्तिष्क केन्द्र और चक्र सक्रिय हो जाता है, जो हमारी चेतना का विकास और विस्तार उच्चतर आध्यात्मिक स्तर तक कर देते हैं।
6-प्राण स्वयं पूर्णत: शुद्ध और निष्पक्ष हैं, जिस प्रकार एक नदी की जल धारा स्पष्ट और स्वच्छन्द होती है। अपने मार्ग में नदी अनेक वस्तुओं को ग्रहण करती है जिससे पानी की कोटि बदल जाती है। ठीक ऐसा ही प्राण के साथ भी होता है। प्राण शरीर में शुद्ध और स्वच्छ प्रवाहित होता है, किन्तु यह विदा किस प्रकार होता है यह व्यक्ति के ऊपर निर्भर है - उसकी जीवन शैली, उसके आन्तरिक गुण और भावनायें, भोजन का प्रकार जो ग्रहण किया एवं पर्यावरण और साथी जिसके साथ वह रहता है।
7-प्राणों की गुणवत्ता जो व्यक्तियों से उद् भुत होती है, आसपास के पर्यावरण एवं व्यक्ति विशेष दोनों को प्रभावित करती है।रक्त विद्यमान जीवन शक्ति का स्तर और उसके
कोष मानव शरीर की स्थिति का निर्धारण करता है।
8-जितने अधिक कोष निष्क्रिय हो जाते हैं, व्यक्ति उतना ही अधिक कमजोर हो जाता है और जल्दी ही वृद्धावस्था की ओर जाने लगता है। हम जितने अधिक शोकाकुल या अवसादग्रस्त होंगे, प्राण का प्रवाह भी उतना ही कमजोर होगा, जिससे हम रोगग्रस्त हो जायेंगे और वृद्ध होने की प्रक्रिया तेजी से चलने लगती है।
9-दूसरी ओर, वे हैं जो सन्तुलित और जीवन स्फूर्ति को प्रसारित करते हैं, और उनका सामर्थ्य बढऩे से मानव बन्धुओं को भी आकर्षित करने लगते हैं। अत: हमें सदैव सार्थक प्राण प्रसारित करना चाहिए।
हमारा प्रभा मंडल' और प्राण;-
03 FACTS;-
1-हम जिस प्राण को प्रसारित करते हैं (हमारा 'स्पंदन' या 'प्रभा मंडल'), वह अन्य लोगों को स्पष्ट समझ में आता है। प्रभा मंडल का प्रकार हमारे विचारों और भावनाओं की शुद्धता पर निर्भर है, साथ-साथ हमारी शारीरिक जीवन शैली और स्वास्थ्य की शारीरिक स्थिति पर भी निर्भर है।
2-मानसिक अशांति, आन्तरिक तनाव और बीमारी प्रभा मंडल में स्पष्ट रूप से दिखाई दे जाती है, जैसे शरीर, मन और आत्मा का सुव्यवस्थित संतुलन दिखाई देता है।
यह अन्य लोगों के लिए विशेष लाभदायक है और स्वयं में भी सार्थक, विश्वस्त, विश्वासकारी एवं अच्छे विचार जाग्रत करता है।
3-निषेधात्मक, आत्मघाती और द्वेषपूर्ण विचार हमारे लिए सर्वाधिक हानिकारक हैं। ऐसी मानसिकता स्वयं को जहर देना है। यही कारण है कि योग की आकांक्षा रखने वाले अपने विचार और भावनाओं को सदैव शुद्ध और सार्थक रखते हैं। ध्यान और मन्त्र का अभ्यास शुद्ध प्राण को बनाये रखता है और प्राणायाम का अभ्यास प्राण को संग्रहीत करने के सामर्थ्य को बढ़ाता है।
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;; क्या स्थूल शरीर के साथ सूक्ष्म शरीर की भी सत्ता है?-
14 FACTS;-
1-प्राण तत्व को ही एक चेतन ऊर्जा (लाइव एनर्जी) कहा गया है। भौतिक विज्ञान के अनुसार एनर्जी के छह प्रकार माने जाते हैं—1. ताप (हीट) 2. प्रकाश (लाइट) 3. चुम्बकीय (मैगनेटिक) 4. विद्युत (इलेक्ट्रिकसिटी) 5. ध्वनि (साउण्ड) 6. घर्षण (फ्रिक्शन) अथवा यांत्रिक (मैकेनिकल)। एक प्रकार की एनर्जी को किसी भी दूसरे प्रकार की एनर्जी में बदला भी जा सकता है।
2-शरीरस्थ चेतन क्षमता—लाइव एनर्जी इन विज्ञान सम्मत प्रकारों से भिन्न होते हुए भी उनके माध्यम से जानी समझी जा सकती है। एनर्जी के बारे में वैज्ञानिक मान्यता है कि वह नष्ट नहीं होती बल्कि उसका केवल रूपान्तरण होता है। यह भी माना जाता है कि एनर्जी किसी भी स्थूल पदार्थ से सम्बद्ध रह सकती है; फिर भी उसका अस्तित्व उससे भिन्न है और वह एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में स्थानांतरित (ट्रांसफर) की जा सकती है। प्राण के सन्दर्भ में भी भारतीय दृष्टाओं का यही कथन है।
3-रूस के इलेक्ट्रानिक विज्ञानवेत्ता ऐमयोन किर्लियान ने एक ऐसी फोटोग्राफी का आविष्कार किया है जो मनुष्य के इर्द-गिर्द होने वाली विद्युतीय हलचलों का भी छायांकन करती है। इससे प्रतीत होता है कि स्थूल शरीर के साथ-साथ सूक्ष्म शरीर की भी सत्ता विद्यमान है और वह ऐसे पदार्थों से बनी है जो इलेक्ट्रानों से बने ठोस पदार्थ की अपेक्षा भिन्न स्तर की है और अधिक गतिशील भी। 4-उदाहरण के लिए,इंग्लैंड के डा. किलनर एक बार अस्पताल में रोगियों का परीक्षण कर रहे थे। एक मरणासन्न रोगी की जांच करते समय उन्होंने देखा कि उनकी माइक्रोस्कोप के शीशे पर एक विचित्र प्रकार के रंगीन प्रकाश कण जम गये हैं जो आज तक कभी भी देखे नहीं गये थे। दूसरे दिन उसी रोगी के कपड़े उतरवाकर जांच करते समय डा. किलनर फिर चौंके उन्होंने देखा जो प्रकाश कल दिखाई दिया था आज वह लहरों के रूप में माइक्रोस्कोप के शीशे के सामने उड़ रहा है।
5-रोगी के शरीर के चारों ओर छह, सात इंच परिधि में यह प्रकाश फैला है, उसमें कई दुर्लभ रासायनिक तत्वों के प्रकाश कण भी थे। उन्होंने देखा जब प्रकाश मन्द पड़ता है तब तक उसके शरीर और नाड़ी की गति में शिथिलता आ जाती है। थोड़ी देर बाद एकाएक प्रकाश पुंज विलुप्त हो गया। अब की बार जब उन्होंने नाड़ी पर हाथ रखा तो पाया कि उसकी मृत्यु हो गई। इस घटना को कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराने के साथ-साथ डा. किलनर ने विश्वास व्यक्त किया कि जिस द्रव्य में जीवन के मौलिक गुण विद्यमान होते हैं वे पदार्थ से प्रथम अति सूक्ष्म सत्ता है। उसका विनाश होता हो ऐसा सम्भव नहीं है। 6-इस सन्दर्भ में , प्रकाश के बल्ब के आविष्कर्त्ता टामस एडिसन ने लिखा है—‘‘प्राणी की सत्ता उच्चस्तरीय विद्युत-कण गुच्छकों के रूप में तब भी बनी रहती है तब वह शरीर से पृथक् हो जाती है। मृत्यु के उपरान्त यह गुच्छक विधिवत् तो नहीं होते, पर वे परस्पर सम्बद्ध बने रहते हैं। यह बिखरते नहीं, वरन् आकाश में भ्रमण करते रहने के उपरान्त पुनः जीवन चक्र में प्रवेश करते और नया जन्म धारण करते हैं। इनकी बनावट बहुत कुछ मधुमक्खी के छत्ते की तरह होती है। पुराना छत्ता वे एक साथ छोड़ती हैं और नया एक साथ बनाती हैं।
7-इसी प्रकार उच्चस्तरीय विद्युत कणों के गुच्छक अपने साथ स्थूल शरीर की सामग्री अपनी आस्थाओं और संवेदनाओं के साथ लेकर जन्मने-मरने पर भी अमर बने रहते हैं। इन प्रमाणों से शरीर में अन्नमय कोश से सम्बद्ध किन्तु एक स्वतन्त्र अस्तित्व सम्पन्न प्राणमय कोश का होना स्वीकार करना ही पड़ता है। यों भी शरीर में विज्ञान सम्मत ताप आदि छहों प्रकार की एनर्जी ऊर्जा के प्रमाण पाये जाते हैं, किन्तु सारे शरीर में संव्याप्त प्राणमय कोश का स्वरूप सबसे अधिक स्पष्टता से जैवीय विद्युत (बायो इलेक्ट्रिकसिटी) के रूप में समझा जा सकता है। 8- शरीर में कुछ केन्द्र तो निर्विवाद रूप से विद्युत उत्पादक के रूप में स्वीकार कर लिए गये हैं। उनमें प्रधान हैं—मस्तिष्क, केन्द्रों हृदय तथा नेत्र। मस्तिष्क में विद्युत उत्पादन केन्द्र को रेटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम कहते हैं। मस्तिष्क के मध्य भाग की गहराइयों में स्थिति कुछ मस्तिष्कीय अवयवों में से विद्युत स्पंदन (इलैक्ट्रिक इम्पल्स) पैदा होते रहते हैं तथा सारे मस्तिष्क में फैलते जाते हैं। यह विद्युतीय आवेश ही मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों को संचालित तथा परस्पर संबंधित रखते हैं। 9-हृदय के संचालन में लगभग 10 तार शक्ति विद्युत की आवश्यकता पड़ती है। यह विद्युत हृदय में ही पैदा होती है। हृदय में जिस क्षेत्र में विद्युत स्पंदन पैदा होते हैं उसे ‘पेस मेकर’ कहते हैं। यह विद्युत स्पंदन पैदा होते ही लगभग 0.8 सैकिण्ड में एक विकसित मनुष्य के सारे हृदय में फैल जाते हैं। इतने ही समय में हृदय अपनी एक धड़कन पूरी करता है। हृदय की धड़कन के कारण तथा नियन्त्रक यही विद्युत स्पंदन होते हैं। इन विद्युत स्पंदनों का प्रभाव ई.सी.जी. (इलेक्ट्रो कार्डियोग्राफ) नामक यन्त्र पर अंकित होते हैं। हृदय रोगों के निर्धारण के लिए इन विद्युत स्पंदनों को ही आधार मानकर चला जाता है। 10-नेत्रों में भी वैज्ञानिकों के मतानुसार फोटो इलैक्ट्रिक सैल जैसी व्यवस्था है। फोटो इलैक्ट्रिक सैल की विशेषता यह होती है कि वह प्रकाश को विद्युत तरंगों में बदल देता है। नेत्रों में भी इसी पद्धति से विद्युत उत्पादन की क्षमता वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं।इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि शरीरस्थ कुछ केन्द्रों में विद्युतीय स्पंदनों के उत्पादन के साथ-साथ सारे शरीर में उनका संचार भी होता है। 11-इन वैज्ञानिक प्रमाणों के अतिरिक्त सामान्य व्यवहारिक जीवन में भी मस्तिष्क से लेकर त्वचा तक में विद्युत संवेगों को क्षमता के प्रमाण मिलते रहते हैं। किसी व्यक्ति विशेष के प्रति आकर्षण तथा किसी के प्रति विकर्षण, यह शरीरस्थ विद्युत की समानता, भिन्नता की ही प्रतिक्रियाएं हैं। दो मित्रों के परस्पर एक दूसरे को देखने, स्पर्श करने में विद्युतीय आदान-प्रदान होता है। योगी तो स्पर्श से अपनी विद्युत का दूसरे व्यक्ति के शरीर में प्रवेश-प्रयोग संकल्प शक्ति के सहारे विशेष रूप से कर सकते हैं, किंतु सामान्य स्पर्श से भी शरीरस्थ विद्युत का आंशिक आदान प्रदान होता है। स्पर्श, सहलाने, हाथ मिलाने, गले मिलने आदि से जो स्पंदन अनुभव किए जाते हैं वे विद्युतीय आवेगों के ही आदान-प्रदान के फलस्वरूप होते हैं। यह तथ्य भी अब वैज्ञानिक स्वीकार करने लगे हैं। 12-भारतीय मत रहा है कि शरीर का अस्तित्व बनाये रखने, उसके पोषण पुनर्निर्माण, विकास एवं संशोधन जैसी हर क्रिया प्राण द्वारा ही संचालित है। अन्नमय कोश में व्याप्त प्राणमय कोश ही उनका संचालन, नियंत्रण करता है। शरीर संस्थान की छोटी से छोटी इकाई में भी प्राण-विद्युत का अस्तित्व अब विज्ञान ने स्वीकार कर लिया है। शरीर की हर कोशिका इलैक्ट्रिक चार्ज है। 13-शरीर की हर क्रिया का संचालन प्राण द्वारा होने की बात भी सदैव से कही जाती रही है। योग ग्रंथों में शरीर की विभिन्न क्रियाओं को संचालित करने वाले प्राण-तत्व को विभिन्न नामों से संबोधित किया गया है। उन्हें पंच-प्राण कहा गया है। इसी प्रकार शरीर के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय प्राण को पंच उपप्राण कहा गया है।
14-वर्तमान शरीर विज्ञान ने भी शारीरिक अंतरंग क्रियाओं की व्याख्याएं विद्युत संचार क्रम के ही आधार पर की हैं। शरीर के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जो संचार क्रम चलता है वह विद्युतीय संवहन प्रक्रिया के माध्यम से ही है। संचार कोशिकाओं में ऋण और धन प्रभार (निगेटिव तथा पौजिटिव चार्ज) अंदर बाहर होते रहते हैं और इसी से विभिन्न संचार क्रम चलते रहते हैं। इसे वैज्ञानिक भाषा में सैल का डिपोलराइजेशन तथा ‘रोपोलराइजेशन’ कहते हैं। यह प्रक्रिया भारतीय मान्यतानुसार पंच-प्राणों में वर्णित ‘व्यान’ के अनुरूप है। प्राण तत्व और प्राणायाम;- 03 FACTS;- 1-प्राण तत्व की सुविस्तृत जानकारी के बाद इस महान् तत्व के उपार्जन उपयोग की और भारतीय तत्व वेत्ताओं का ध्यान गया अतएव उन्होंने उसके लिये भी अनेक साधनायें निश्चिय कीं प्राणायाम उनमें से प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति के लिए एक सुलभ साधन कहा जा सकता है। 2-प्राणायाम साधारणतया श्वास-प्रश्वास का एक व्यायाम प्रतीत होता है। स्वास्थ्य सम्वर्धन के क्षेत्र में उसे ‘फेफड़ों की कसरत’ के रूप में लिया जाता है। परन्तु प्राणायाम का प्रयोजन तो निखिल ब्रह्माण्ड में से प्राणतत्व की अभीष्ट मात्रा को आकर्षित करने की तथा उस उपलब्धि को अभीष्ट संस्थानों में पहुंचाने की विशिष्ट कला के रूप में ही समझा जाना चाहिए। सांस के सहारे प्राणतत्व को आकर्षित कर सकना एक बात है और मात्र श्वास-प्रश्वास क्रिया करना सर्वथा दूसरी।
3-प्राणायाम में प्रबल संकल्प-शक्ति का समावेश करना पड़ता है। उसी के चुम्बकत्व से व्यापक प्राणत्व को आकाश से खींच सकने में सफलता मिलती है। फिर उपलब्धि को अभीष्ट स्थान पर भेज सकना और मनोवांछित परिणाम प्राप्त करना भी तो प्रबल संकल्प-बल से ही सम्भव है। श्वसन क्रिया के साथ-साथ प्रचण्ड मनोबल का समावेश करने से ही प्राणायाम क्रिया होती है। प्राण तत्व में असन्तुलन;- 20 FACTS;- 1-प्राण-शक्ति का यथास्थान सन्तुलन बना रहे तो जीवन सत्ता के सभी अंग-प्रत्यंग ठीक काम करेंगे। शरीर स्वस्थ रहेगा, मन प्रसन्न रहेगा और अन्तःकरण में सद्भाव सन्तोष झलकेगा। किन्तु यदि इस क्षेत्र में विसंगति, विकृति उत्पन्न होने लगे तो उसकी प्रतिक्रिया आधि-व्याधियों के रूप में—विपत्तियों, विभीषिकाओं के रूप में सामने खड़ी दिखाई देगी।
2-रक्त दूषित हो जाने पर अनेकों आकार-प्रकार के चर्म रोग, फोड़े-फुन्सी, दर्द सूजन आदि के विग्रह उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार प्राण तत्व में असन्तुलन उत्पन्न होने पर शारीरिक अवयवों की क्रियाशीलता लड़खड़ाती है। कई प्रकार की व्यथा, बीमारियां उपजती हैं। मनःक्षेत्र में उत्पन्न हुआ प्राण विग्रह—असन्तुलनों, आवेगों, और उन्मादों के रूप में दृष्टिगोचर होता है। भावना क्षेत्र में विकृत हुई प्राणसत्ता मनुष्य को नर-कीटकों के—नर-पिशाचों के घिनौने गर्त में गिरा देती है। पतन के अनेकों आधार प्राणतत्व की विकृति से सम्बन्धित होते हैं। उनके सुधार के लिए सामान्य उपचार कारगर नहीं होते। क्योंकि उनका प्रभाव उथला होता है जब कि समस्या की जड़ें बहुत गहरी—प्राण चेतना में घुसी होती हैं। 3-श्रीमती जे.सी. ट्रस्ट ने एक ऐसे व्यक्ति को चुना जो छोटी छोटी बातों में उत्तेजित हो जाता था। वह दिन में कई-गई बार क्रुद्ध हो जाने के कारण बहुत दुबला पड़ चुका था, सर्दी-गर्मी के हलके परिवर्तन भी उसको कष्टदायक प्रतीत होते, उसे कोई न कोई बीमारी प्रायः बनी रहती थी। एक बार जब वह भरे गुस्से में था, तब श्रीमती ट्रस्ट ने उसे लिटा दिया और उसके नंगे शरीर पर बालू की हलकी परत बिछा दी। उनके शिष्य, अनुयायी और कई वैज्ञानिक भी उपस्थित थे। उन सबने बड़े कौतूहल के साथ देखा कि जिस प्रकार पानी से भरी कांसे की थाली को बजाने से पानी की थरथरी कांसे के अणुओं में उत्तेजन और स्पन्दन का अभ्यास कराती है, उसी प्रकार मनुष्य के शरीर से भी प्रकाश अणु निरन्तर निःसृत होते और थरथरी पैदा करते रहते हैं। 4-क्रोध जैसे उत्तेजनशील आवेश के समय यह प्रकाश अणु बड़ी तेजी से थरथराते हुए निकलते हैं, इसलिए उस समय तो स्पष्ट आभास हो जाता है पर सामान्य स्थिति में प्रकाश कणों की थरथराहट धीमी होती है। जो व्यक्ति जितना अधिक शान्त, कोमल-चित्त, मधुर स्वभाव, मितभाषी, स्थिर बुद्धि होता है, उसके सूक्ष्म शरीर के प्रकाश अणु बहुत धीरे-धीरे निकलते हैं और बहुत समय तक शरीर में शक्ति, उष्णता और सहनशीलता बनाये रखते हैं। ऋतुओं के आकस्मिक परिवर्तन भी शरीर पर दबाव नहीं डाल पाते। 5-हमारे मस्तिष्क में लगभग 10 अरब नस कोष्ट (न्यूरान) हैं। उनमें से हर एक का सम्पर्क लगभग 25 हजार अन्य नस कोष्टों के साथ रहता है। इतनी छोटी सी खोपड़ी में इतना बड़ा कारखाना किस प्रकार संजोया जमाया हुआ है इसे देखकर बनाने वाले की कारीगरी पर चकित रह जाना पड़ता है। यदि मनुष्य इतना साधन सम्पन्न इलेक्ट्रानिक मस्तिष्क बनाकर खड़ा करना चाहे तो प्रस्तुत विद्युत उपकरणों के आधार पर इस कारखाने के लिए इस धरती जितनी जगह घेरने की आवश्यकता पड़ेगी। 6-निस्सन्देह मनुष्य एक जीता जागता बिजली घर है। झटका मारने वाली और बत्ती जलाने वाली स्थूल बिजली की अपेक्षा वह असंख्य गुनी परिष्कृत और संवेदनशील है। जड़ और चेतन की शक्तियों में यह अन्तर तो रहना ही चाहिए जड़ बिजली का भावनाओं से कोई सम्बन्ध नहीं। वह कसाई और सन्त का भेद नहीं करती, जो भी उससे काम ले सके उसकी विधि व्यवस्था पूरी कर सके उसका उत्तेजन पूरा करने लगती है। उचित अनुचित का भेदभाव कर सकने लायक संवेदना उसमें है ही नहीं। 7-मानव शरीर में संव्याप्त विद्युत में चेतना और संवेदना के दोनों तत्व विद्यमान हैं। इसलिए उसे मात्र नाड़ी जाल समुत्पन्न या संव्याप्त ही कहकर सीमित नहीं कर सकते। भले ही वह ज्ञान तन्तुओं के माध्यम से समस्त शरीर पर शासन करती हो, भले ही उसका प्रत्यक्ष केन्द्र मस्तिष्क में अवस्थित प्रतीत होता है पर सही बात यह है कि वह आत्मा की प्राण प्रतिभा है और उसकी भावनात्मक स्थिति से प्रभावित होती है। मनुष्य का अन्तरंग जैसा भी कुछ होता है उसके अनुरूप इस चेतन विद्युत की दुर्बलता सशक्तता दृष्टिगोचर होती है। 8-किसी के शरीर को छूने से प्रत्यक्ष झटका लगे इस स्तर का अनुभव इस कायिक विद्युत का नहीं होता, इसलिए मोटे विद्युत उपकरणों से वह देखी समझी नहीं जाती उसका भौतिक स्वरूप जानना हो तो उपकरणों की आवश्यकता पड़ेगी पर भावनात्मक स्पर्श से इसका प्रभाव दूसरे लोग भी अनुभव कर सकते हैं।
9-किसी उच्च मनोभूमि के व्यक्ति के पास बैठने से अपनी मनोभूमि में उसी तरह की हलचल उत्पन्न होती है और दुष्ट दुराचारियों की संगति में मन, बुद्धि तथा इन्द्रिय संवेदनाओं में उसी तरह का उत्तेजन आरम्भ हो जाता है व्यभिचारियों के सान्निध्य में बैठने से अकारण ही दुराचार का आकर्षण मन में उठने लगता है। सत्संग की महत्ता का जो प्रतिपादन अध्यात्म शास्त्र में किया गया है उसका कारण मात्र शिक्षा प्राप्ति नहीं है, वरन् यह भी है कि उन महापुरुषों के शरीर से निकलने वाले और समीपवर्ती क्षेत्र में फैलने वाले विद्युत प्रवाह की ऊर्जा से लाभ उठाया जाय। 10-चरण स्पर्श करने की प्रथा के पीछे यही रहस्य है कि तेजस्वी व्यक्तियों के शरीर का स्पर्श करके उनके विद्युत का एक अंश ग्रहण किया जाय। ताप का मोटा नियम यह है कि अधिक ताप अपने संस्पर्श में आने वाले न्यून ताप उपकरण की ओर दौड़ जाता है। एक गरम एक ठण्डा लौह खण्ड सटा दिया जाय तो ठण्डा गरम होने लगेगा और गरम ठण्डा। वे परस्पर अपने शीत ताप का आदान-प्रदान करने लगेंगे। ऐसा ही लाभ चरण स्पर्श से होता है। अधिक सामर्थ्यवानों का लाभ स्वल्प सामर्थ्यवानों को मिलने में शरीर स्पर्श की प्रक्रिया बहुत कारगर होती है। 11-गुरुजनों का स्नेह से छोटों के सिर पर हाथ फिराना—पीठ थपथपाना जैसा वात्सल्य प्रदर्शन यों भावनात्मक ही दीखता है पर इसमें भी वह विद्युत संचार की क्रिया प्रक्रिया सम्मिलित है। इस प्रकार बड़े अपने से छोटों को एक महत्वपूर्ण अनुदान देते रहते हैं। 12-चिड़िया अपने अण्डे को छाती के नीचे रख कर सेती है। उसमें केवल गर्मी पहुंचाना ही नहीं—परम्परागत प्रवृत्तियां उत्पन्न करना भी एक प्रयोजन है। चिड़िया की शारीरिक विद्युत अण्डे बच्चों में जाकर उन्हें पैतृक संस्कारों से युक्त करती है। मशीन से अण्डे गरम करके भी उसमें से बच्चा निकल सकता है, पर उसमें कितनी ही संस्कारजन्य कमियां रह जाती हैं। जिन बच्चों को धाय पालती और दूध पिलाती है, माता का दूध, लाड़, दुलार, गोदी में खिलाना, पास सुलाना जैसा अनुदान नहीं मिलता वे बालक भी मानसिक दृष्टि से बहुत त्रुटिपूर्ण रह जाते हैं। समर्थ विद्युत भी दुर्बल क्षमता वालों का बहुत कुछ पोषण करती है। 13-साधना काल में रह रहे साधक अपना चरण स्पर्श किसी को नहीं करने देते, वे आशीर्वाद रूप से किसी के शिर पर हाथ भी नहीं रखते। इससे उनकी स्वल्प शक्ति का एक अंश दूसरों के पास चले जाने और अपने लिए घाटा पड़ने वाली आशंका ही सन्निहित है। 14-ब्रह्मचर्य, पतिव्रत पत्नीव्रत आदि के पीछे सामाजिक, पारिवारिक कारणों के अतिरिक्त आध्यात्मिक कारण भी हैं। शारीरिक विद्युत आवेग नेत्रों में वाणी में, हाथ की उंगलियों में अधिक पाया जाता है और वहां से वह बाहर फैलता है। सूक्ष्म रूप से मस्तिष्क में और स्थूल रूप से यह विद्युत जननेन्द्रिय में अत्यधिक मात्रा में पाई जाती है। मस्तिष्क में सन्निहित बिजली तो अध्ययन, चिन्तन, ध्यान आदि मनोयोग सम्बन्धित कार्यों में लगती है पर जननेन्द्रिय विद्युत तो स्पर्श के माध्यम से बहिर्गमन के लिए व्याकुल रहती है। यही कामोत्तेजना का वैज्ञानिक स्वरूप है। 15-महापुरुष ब्रह्मचर्य का अत्यधिक ध्यान इसलिए रखते हैं कि वे कामोपभोग जैसे क्षणिक सुख में अपने महत्व पूर्ण उपार्जन को खो न बैठें। इससे दुर्बल पक्ष लाभान्वित हो सकता है। पर सबल पक्ष की हानि तो प्रत्यक्ष है। तपस्या के अनेक विघ्नों में एक बड़ा विघ्न यह है कि मानवी अथवा दैवी ‘रयि तत्व’ जननेन्द्रिय के माध्यम से उनकी शक्ति का लाभ लेने की चेष्टा करता है। विश्वामित्र, पाराशर, व्यास आदि की तप साधना के बीच कामस्खलन इसी खींच-तान का प्रमाण है।
16-भगवान् बुद्ध के चित्रों में ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में अनेक अप्सरायें उनके समीप नृत्य, परिहास करती दिखाई जाती हैं। इसके पीछे यही संकेत है। आत्म विद्युत सम्पन्न पति-पत्नी अति उच्च कोटि की सन्तान उत्पन्न कर सकते हैं।तपस्वियों की ऋषि सन्तानें अपने जनक जननी के सम तुल्य ही प्रभावशाली होते रहे हैं। 17-महापुरुष इस संचित विद्युत भण्डार को काम कौतुक में खर्च करने की अपेक्षा उस क्षमता को मस्तिष्क तथा अन्य ज्ञानेन्द्रिय द्वारा असंख्य व्यक्तियों की सेवा करने में बुद्धिमत्ता अनुभव करते हैं और ब्रह्मचारी रहते हैं। यही बात महिलाओं के सम्बन्ध में है तेजस्वी ओर मनस्वी बनने के लिए उन्हें भी ब्रह्मचर्य द्वारा शक्ति संचय के मार्ग पर चलना होता है। 18-कायिक विद्युत दूसरों का हित साधन करती है, अपना भी। प्रश्न सदुपयोग की सूझ-बूझ और योग्यता का है। यह बिजली यों ही शरीर और मन से खर्च होती रहती है और अस्त-व्यस्त बिखरती रहती है। यदि इसे केन्द्रित कर लिया जाय और शारीरिक-मानसिक एवं आत्मिक उत्कर्ष के लिए प्रयुक्त किया जाय तो हर क्षेत्र में आशाजनक प्रगति हो सकती है।
बिजली घर में विद्युत उत्पादन का समुचित लाभ उसे किसी प्रयोजन के लिए नियोजित करके ही उठाया जा सकता है।
19-साधारणतया यह कायिक विद्युत भण्डार दैनिक जीवनयापन में ही थोड़ा बहुत काम आता है और शेष ऐसे ही बिखर जाता है। साधना विज्ञान के आधार पर यदि उसका सदुपयोग सीखा जाय और अभीष्ट प्रयोजन के लिए उसे नियोजित करने का क्रिया कलाप समझा जाय, तो अपने निज के इस सम्पत्ति कोष से मनुष्य सर्वांगीण समृद्धि से सुसम्पन्न हो सकता है।सफल जीवन जी सकता है। 20-प्राणतत्व समस्त भौतिक और आत्मिक सम्पदाओं का उद्गम केन्द्र है। वह सर्वत्र संव्याप्त है। उसमें से जो जितनी अंजलि भरने और देने में समर्थ होता है वह उसी स्तर का महामानव बनता चला जाता है।प्राण ''शक्ति'' का पर्यायवाची है। उसकी परिधि में भौतिक सम्पदाएं और आत्मिक विभूतियां दोनों ही आती हैं। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
मृत्यु का समय और प्राण;-
12 FACTS;-
1-जब आत्मा शरीर को छोड़ती है और मृत्यु आती है, जीवन ऊर्जा भी शरीर से निकल जाती है। एक दिन मरना ही हमारा प्रारब्ध है, किन्तु हम इस तथ्य को हमेशा भूल जाते हैं।मृत्यु किस प्रकार होती है? इस सम्बन्ध में तत्वदर्शी योगियों का मत है कि मृत्यु से कुछ समय पूर्व तो मनुष्य को बड़ी बेचैनी, पीड़ा और छटपटाहट होती है क्योंकि सब नाड़ियों में से प्राण खिंचकर एक जगह एकत्रित होता है, किन्तु पुराने अभ्यास के कारण वह फिर उन नाड़ियों में खिसक जाता है, जिससे एक प्रकार का आघात लगता है, यही पीड़ा का कारण है।
2-रोग, आघात या अन्य जिस कारण से मृत्यु हो रही हो तो उससे भी कष्ट उत्पन्न होता है। मरने से पूर्व प्राणी कष्ट पाता है चाहे वह जबान से उसे प्रकट न कर सके। लेकिन जब प्राण निकलने का समय बिल्कुल पास आ जाता है तो एक प्रकार की मूर्छा आ जाती है और उसे अचेतनावस्था में प्राण शरीर से बाहर निकल जाते हैं। जब मनुष्य मरने को होता है तो उसकी समस्त बाह्य शक्तियाँ एकत्रित होकर अन्तर्मुखी हो जाती हैं और फिर स्थूल शरीर से बाहर निकलती हैं।
3-पाश्चात्य योगियों का मत है कि जीव का सूक्ष्म शरीर बैंगनी रंग की छाया लिए हुए शरीर से बाहर निकलता है। भारतीय योगी इसका रंग शुभ्र-ज्योति स्वरूप सफेद मानते हैं। जीवन में जो बातें भूलकर मस्तिष्क के सूक्ष्म कोष्ठकों में सुषुप्त अवस्था में पड़ रहती हैं वे सब एकत्रित होकर एक साथ निकलने के कारण जागृत एवं सजीव हो जाती हैं। इसलिए कुछ ही क्षण के अन्दर जीव अपने समस्त जीवन की घटनाओं को फिल्म की तरह देख जाता है। इस समय मन की आश्चर्यजनक शक्ति का पता लगता है।
4-उनमें से आधी भी घटनाओं, मानसिक चित्रों को देखने के लिए जीवित समय में बहुत समय की आवश्यकता होती है पर इन क्षणों में वह बिल्कुल ही स्वल्प समय में पूरी-पूरी तरह मानस पटल पर घूम जाती है। इस सबका जो सम्मिलित निष्कर्ष निकलता है वह सार रूप में संस्कार बनकर मृतात्मा के साथ हो लेता है। कहते हैं कि यह घड़ी अत्यन्त ही पीड़ा की होती है। एक साथ हजार बिच्छुओं के दर्शन का कष्ट होता है। कोई मनुष्य भूल से अपने पुत्र पर तलवार चला दे और वह अधकटी अवस्था में पड़ा छटपटा रहा हो ...उस दृश्य को देखकर एक सहृदय पिता के हृदय में, अपनी भूल के कारण प्राण प्रिय पुत्र के लिए ऐसा भयंकर काण्ड उपस्थित करने पर जो दारुण व्यथा उपजती है, ठीक वैसी ही पीड़ा उस समय प्राणी अनुभव करता है क्योंकि बहुमूल्य जीवन का अक्सर उसने वैसा सदुपयोग नहीं किया होता जैसा कि करना चाहिये।
5-जीवन जैसी अमूल्य वस्तु का दुरुपयोग करने पर उसे उस समय मर्मान्तक मानसिक वेदना होती है। पुत्र के मरने पर पिता को शारीरिक नहीं मानसिक कष्ट होता है, उसी प्रकार मृत्यु के ठीक समय पर प्राणी की शारीरिक चेतनायें तो शून्य हो जाती हैं पर मानसिक कष्ट बहुत भारी होता है। रोग आदि की शारीरिक पीड़ा तो मृत्यु से कुछ क्षण पूर्व ही जब कि इन्द्रियों की शक्ति अन्तर्मुखी होने लगती है तब ही बन्द हो जाती है। मृत्यु से पूर्व शरीर अपना कष्ट सह चुकता है। बीमारी से या किसी आघात से शरीर और जीव के बीच के बन्धन टूटने आरम्भ हो जाते हैं। डाली पर से फल उस समय टूटता है जब उसका डंठल असमर्थ हो जाता है। उसी प्रकार मृत्यु उस समय होती है जब शारीरिक शिथिलता और अचेतना आ जाती है।
6-ऊर्ध्वरंध्रों में से अक्सर प्राण निकलता है मुख, आँख, कान नाक प्रमुख मार्ग हैं। दुष्ट वृत्ति के लोगों का प्राण मल मूत्र मार्गों से निकलता देखा जाता है। योगी लोग कपाल, ब्रह्मरन्ध्र में से प्राण परित्याग करते हैं।
7-शरीर से जीव निकल जाने के बाद वह एक विचित्र अवस्था में पड़ जाता है। घोर परिश्रम से थका हुआ आदमी जिस प्रकार कोमल शय्या प्राप्त करते ही निद्रा में पड़ जाता है। उसी प्रकार मृतात्मा को जीवन भर का सारा श्रम उतारने के लिए एक निद्रा की आवश्यकता होती है। इस नींद से जीव को बड़ी शान्ति मिलती है और आगे का काम करने के लिये शक्ति प्राप्त कर लेता है। यह नींद या तंद्रा कितने समय तक रहती है इसका कुछ निश्चित नियम नहीं है। यह जीव की स्थिति के ऊपर निर्भर है। बालकों को और कड़ी मेहनत करने वालों को अधिक नींद चाहिए, किन्तु बुड्ढ़े और आराम तलब लोगों का काम थोड़ी देर सोने से ही चल जाता है।
8-साधारणतः तीन वर्ष की निद्रा काफी होती है। इसमें से एक वर्ष तक बड़ी गहरी नींद आती है, जिससे कि पुराना थकान मिट जाय और सूक्ष्म इन्द्रियाँ संवेदनाओं को अनुभव करने के योग्य हो जावें। दूसरे वर्ष उसकी तन्द्रा भंग होती है और पुरानी गलतियों के सुधार तथा आगामी योग्यता के सम्पादन का प्रयत्न करता है तीसरे वर्ष नवीन जन्म धारण करने की खोज में लग जाता है। यह अवधि एक मोटा हिसाब है। कई विशिष्ठ व्यक्ति छः महीने में ही नवीन गर्भ में आ गये हैं, कई को पाँच वर्ष तक लगे हैं। प्रेतों की आयु अधिक से अधिक बारह वर्ष समझी जाती है। इस प्रकार दो जन्मों के बीच का अन्तर अधिक से अधिक बारह वर्ष हो सकता है।
9-Let’s understand the aspects of five levels of ‘ PRANS’ leaving the body at the time of death. They are called as sammana, praana, udaana, apaana and vyana, in the same sequence. When a person is declared dead by the doctor, the sequence of the life leaving the body is given as under: 9-1-Samaana >>> 21 to 24 minutes. Samaana is responsible for maintaining the temperature of the body. 9-2-Praana >>> 48 to 68 minutes. 9-3-Udaana >>> 6 to 12 hours. A life can be revived by some Tantrik process before the Udaana leaves the body. once Udaana leaves the body, revival is extremely difficult. 9-4-Apaana >>> 8 to 18 hours. 9-5-Vyaana >>> 11 to 14 days for a normal person and 45 to 90 days for an extremely spiritual powerful being. Vyaana is the preservative element of the Praana.
10-When a body is brought to the cremation ground, generally it’s the time when Udaana is in the process of leaving. When the body is cremated 'Udaana' also is released. This is the time the soul is in an extremely confused state. Obviously, the area surrounding a cremation ground would be crowded by many such ‘lives’ or ‘entities’ and they would certainly cause interference in the lives of the people staying there.Such entities can be dealt by many techniques.
11-One of the easiest ways to remove such entities is by the use of aromas by burning a few herbs or camphor.Take a normal copper plate and buy good quality camphor. Daily, at the dusk keep the copper plate at the Brahmasthana and burn three – four flakes of camphor on the copper plate. Burning camphor purifies the homes and drive away evil spirits and negative energy. Burning Camphor can also bring prosperity and abundance of wealth to your family.
12-इस प्रकार शरीर, इन्द्रियां और मन प्राणशक्ति से ही चलते हैं। प्राणवायु को अपने वश में करने का नाम ‘प्राणायाम’ है। प्राणवायु का नियन्त्रण कर संचय होने से ‘समाधि’ लगती है जिसमें योगीजन काल को वश में करके मनचाहे समय तक जीवित रह सकता है और सरलता से इच्छानुसार प्राण-त्याग कर सकता है।
...SHIVOHAM.......
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