बग़दाद के एक सूफी संत.....मैं खुदा हूँ : मंसूर अल-हलाज
एक सूफी संत;-
04 FACTS;-
1-मंसूर अल हल्लाज (858 – मार्च 26, 922) एक कवि और तसव्वुफ़ (सूफ़ी) के प्रवर्तक विचारकों में से एक थे जिनको सन ९२२ में अब्बासी ख़लीफ़ा अल मुक़्तदर के आदेश पर बहुत पड़ताल करने के बाद फ़ांसी पर लटका दिया गया था। इनको अन अल हक़्क़ (मैं सच हूँ) के नारे के लिए भी जाना जाता है जो भारतीय अद्वैत सिद्धांत के अहं ब्रह्मास्मि के बहुत क़रीब है...
2-मनसूर अल हल्लाज का जन्म बैज़ा के निकट तूर (फारस) में 858 ईo में हुआ। ये पारसी से मुसलमान बने थे। अरबी में हल्लाज का अर्थ धुनिया होता है - रूई को धुनने वाला। आपने कई यात्राएं कीं - ३ बार मक्का की यात्रा की। ख़ुरासान, फ़ारस और मध्य एशिया के अनेक भागों तथा भारत की भी यात्रा की। सूफ़ी मत के अनलहक (अहं ब्रह्मास्मि) का प्रतिपादन कर, आपने उसे अद्वैत पर आधारित कर दिया।
3-आप हुलूल अथवा प्रियतम में तल्लीन हो जाने के समर्थक थे। सर्वत्र प्रेम के सिद्धांत में मस्त आप इबलीस (शैतान) को भी ईश्वर का सच्चा भक्त मानते थे। समकालीन आलिमों एवं राजनीतिज्ञों ने आपके मुक्त मानव भाव का घोर विरोध कर 26 मार्च 922 ईo को निर्दयतापूर्वक बगदाद में आठ वर्ष बंदीगृह में रखने के उपरांत आपकी हत्या करा दी। किंतु साधारणत: मुसलमान मानवता के इस पोषक को शहीद मानते हैं। आपकी रचनाओं में से किताब-अल-तवासीन को लुई मसीनियों ने पेरिस से 1913 ईo में प्रकाशित कराया। आपके अन्य फुटकर लेख और शेर बड़े प्रसिद्ध हैं।
4-परंपरागत इस्लामी मान्यताओं को चुनौती देने की ख़ातिर इनको इस्लाम का विरोधी मान लिया गया। लोग कहने लगे कि वे अपने को ईश्वर का रूप समझते हैं, पैज़म्बर मुहम्मद का अपमान करते हैं और अपने शिष्यों को नूह, ईसा आदि नाम देते हैं। इसके बाद उनको आठ साल जेल में रखा गया। तत्पश्चात भी जब इनके विचार नहीं बदले तो इन्हें फ़ाँसी दे दी गई।
अत्तार लिखते हैं कि उन्हे तीन सौ कोड़े मारे गए, देखने वालों ने पत्थर बरसाए, हाथ में छेद किए और फिर हाथों-पैरों का काट दिया गया। इसके बाद जीभ काटने के बाद इनको जला दिया गया। इन्होने फ़ना (समाधि, निर्वाण या मोक्ष) के सिद्धांत की बात की और कहा कि फ़ना ही इंसान का मक़सद है। इसको बाद के सूफ़ी संतों ने भी अपनाया।
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उनकी शख्सियत के कुछ पहलु.. प्रेम के सच्चे मार्ग का बोध;-
16 FACTS;-
1-इस दुनिया में जिसने किसी भी तरह का आध्यात्मिक पागलपन दिखाया, उसे हमेशा सताया गया है। मंसूर अल-हलाज भी ऐसे ही सूफी संत
थे। मंसूर अल-हलाज सूफीवाद के सबसे विवादास्पद व्यक्तियों में से एक थे। उन्होंने दावा किया था ‘मैं ही सत्य हूं’ जिसे धर्म विरोधी माना गया और इस कारण उन्हें पचपन साल की उम्र में बड़ी बेरहमी के साथ मौत की सजा दे दी गई। हालांकि सच्चे ईश्वर-प्रेमी समझते थे कि उनके यह कहने का क्या मतलब है, और वो उनका बड़ा आदर करते थे, और आज भी करते हैं। 2-बात उन दिनों की है जब मंसूर बगदाद में थे। अपने सूफी गुरु जुनैद से उन्होंने कई विवादास्पद सवाल किए, लेकिन जवाब देने के बजाय जुनैद ने कहा, ‘एक समय ऐसा आएगा, जब लकड़ी के एक टुकड़े पर तुम लाल धब्बा लगाओगे।’
उन्होंने इस बात से इशारा कर दिया था कि एक दिन मंसूर को फांसी के तख्ते पर लटका दिया जाएगा। इस पर मंसूर ने जवाब दिया, ‘जब ऐसा होगा, तो आपको अपना सूफी चोला उतार कर एक धार्मिक विद्वान का चोला धारण करना होगा।’
3-यह भविष्यवाणी तब सच हुई जब मंसूर की मौत का हुक्मनामा तैयार किया गया और जुनैद से उस पर दस्तखत करने को कहा गया। हालांकि जुनैद दस्तखत नहीं करना चाहते थे, लेकिन बगदाद के खलीफा इस बात पर अड़ गए कि जुनैद को दस्तखत करने ही होंगे। खैर, जुनैद ने अपना सूफी चोला उतार दिया और एक धार्मिक विद्वान की तरह पगड़ी और अंगरखा पहन कर इस्लामिक अकादमी पहुंचे। वहां उन्होंने यह कहते हुए मौत के फरमान पर दस्तखत किए कि ’हम मंसूर हलाज के बारे में फैसला सिर्फ बाहरी सत्य के आधर पर कर रहे हैं। जहां तक भीतरी सत्य की बात है, तो इसे सिर्फ खुदा ही जानता है। 4-जुनैद से मिलने के बाद अगले पांच साल तक उन्होंने एक ऊच्च आध्यात्मिक अवस्था में मध्य एशिया और ईरान के कई इलाकों की यात्रा की। विद्वानों और आम लोगों, दोनों ने ही उनकी शिक्षाओं और प्रवचन को हाथों हाथ लिया और उनकी भरपूर प्रशंसा की। अपनी तीखी परख के कारण वे ’हलाज’ यानी रहस्यों के उस्ताद के रूप में जाने गए। वे बसरा से मक्का तीर्थयात्रा पर गए, लेकिन यहां उन पर जादूगर का ठप्पा लगा दिया गया।
5-इसके बाद वह भारत और चीन की यात्रा पर निकल पड़े, जहां उन्हें एक प्रबुद्ध गुरू के रूप में पहचान मिली।उन्होंने मक्का की अपनी दूसरी हज यात्रा की और वहां दो साल तक रहे। लेकिन उनके आध्यात्मिक सीख बांटने के तरीके में एक बड़ा बदलाव आ चुका था। उनकी शिक्षाएं अब बहुत गूढ़ हो चुकी थीं और ‘मैं ही सत्य हूं’ का दावा करके वे लोगों को एक ऐसे ’सत्य’ की ओर आकर्षित करने लगे जो लोग शायद समझ नहीं सके। उनके द्वारा किए गए चमत्कारों के बारे में कई किस्से फैलने लगे। लोग उनके बारे में तरह-तरह की राय रखने लगे। कहा जाता है कि ‘मैं ही सत्य हूं’ के धर्म विरोधी दावे की वजह से उन्हें करीब पचास इस्लामिक शहरों से खदेड़ दिया गया था। 6-मक्का की दूसरी हज यात्रा पर करीब चार हजार लोग हलाज के साथ गए थे। पूरे एक साल तक वह काबा के सामने नंगे पैर और नंगे सिर ऐसे ही खड़े रहे। रोज एक आदमी उनके सामने कुछ रोटियां और एक जग पानी रख जाता, लेकिन कभी-कभार ही ऐसा हुआ कि हलाज ने उन रोटियों और पानी को हाथ लगाया। नतीजा हुआ कि उनका शरीर हड्डियों का ढांचा भर रह गया। 7-बगदाद वापस आने पर कट्टरपंथी धार्मिक लोगों ने उन पर धर्मविरोधी होने का आरोप लगाया और उन्हें एक साल के लिए जेल में डाल दिया। जेल में शुरु के छह महीनों तक लोग लगातार उनसे सलाह लेने आते रहे, लेकिन जब खलीफा को इस बात का पता चला तो उसने हुक्म दिया कि हलाज से कोई नहीं मिल सकता। जिस जेल में हलाज को बंद किया गया था, उसमें तीन सौ कैदी थे।
8-एक रात हलाज ने उन कैदियों से पूछा कि क्या आप लोग जेल से आजाद होना चाहते हैं? कैदियों के ‘हां’ कहने पर हलाज ने अपनी उंगली से एक रहस्यपूर्ण इशारा किया। अचानक सभी हथकड़ियां और ताले टूट गए और जेल के दरवाजे खुल गए। सारे कैदी जेल से भागने लगे लेकिन हलाज नहीं भागे। भाग रहे कैदियों ने हलाज से जब उनके नहीं भागने का कारण पूछा तो हलाज ने जवाब दिया, ‘मेरा ’मालिक’ के साथ कुछ गुप्त मामला चल रहा है, जिसका खुलासा सिर्फ फांसी के तख्ते पर ही हो सकता है। मैं अपने मालिक - खुदा का कैदी हूं।’ इस घटना के बाद खलीफा ने उन्हें मौत की सजा सुना दी।
9-कहा जाता है कि बगदाद में एक लाख लोग उनकी फांसी को देखने के लिए इकठ्ठे हुए। पांच सौ कोड़े मारने के बाद उनके हाथ-पैरों को काट दिया गया, उनकी आंखें निकाल ली गईं और जीभ को भी काट दिया गया। उनके क्षत-विक्षत शरीर को ऐसे ही तड़पने के लिए छोड़ दिया गया। कुछ समय में ही उनकी मौत हो गई। जब जल्लाद ने उनका सिर काटा तो उनके धड़ से खून की धार फूट पड़ी और तेज आवाज आई, ‘मैं सत्य हूं।‘ अचानक उनके शरीर से कटा एक-एक अंग चीखने लगा ‘मैं ही सत्य हूं।’ इसके बाद उन पर उंगली उठाने वालों को अहसास होने लगा कि उन्होंने खुदा के एक लाडले की हत्या कर दी है।
10-मंसूर भारत में धर्म ग्रंथों और उन चीजों को सिखाने आए थे, जो वे जानते थे। वे बस इन्हीं सब चीजों के बारे में बात करते थे। लेकिन जब वह गुजरात और पंजाब पहुंचे तो उनकी मुलाकात कुछ ऐसे सच्चे आध्यात्मिक दीवानों से हुई, जो परमानंद की एक अलग ही अवस्था में थे।जब वह वापस लौटे तो बस एक लंगोटी पहने हुए थे। जिस समाज से वे आए थे, उसमें अगर कोई आदमी केवल लंगोटी पहने यूं ही सड़कों पर घूमता दिखे, तो उसे घोर पागल समझा जाता था। अपने भीतर परम आनंद का अनुभव कर रहे हलाज ने कहना शुरू कर दिया, ‘मैं कुछ नहीं हूं, मैं कोई नहीं हूं।’ इसके बाद वह पागलों की तरह सड़कों पर नाचने-गाने लगे। 11-जब आप परम आनंद की अवस्था में होते हैं तो आपके व्यक्तित्व का ढांचा जो सख्त होता है, वह ढीला पड़ जाता है। मानो भट्टी में पूरी तरह पका हुआ मिट्टी का बरतन फिर से कच्ची मिट्टी का बरतन बन जाए। वह फिर से नरम और लचीला हो जाता है।आप उसे जैसा चाहें,
फिर से एक नया रूप, एक नया आकार दे सकते हैं। कभी आपने महसूस किया है कि जब लोग मस्ती में होते हैं तो वे बहुत लचीले हो जाते हैं और जब नाखुश होते हैं तो वही लोग बहुत सख्त हो जाते हैं, बिल्कुल लकड़ी की तरह। 12-जब लोगों ने देखा कि मंसूर पर पागलपन सवार हो गया है तो उन्होंने उनसे दूरी बनानी शुरू कर दी, पर उन्होंने उनका ज्यादा विरोध नहीं किया। लेकिन जैसे ही उन्होंने कहा कि ‘मैं खुदा हूं’ तो उन पर तमाम तरह के आरोप लगाए जाने लगे। वह मक्का जा पहुंचे। वहां हर कोई काबा के चक्कर लगा रहा था। उन्होंने सोचा कि यहां इतनी भीड़ क्यों है? हर कोई यहीं क्यों चक्कर लगा रहा है? उन्होंने वहां से हट कर पास की एक गली में एक और पत्थर की स्थापना कर दी। संभवतः उन्होने उस पत्थर में प्राण-प्रतिष्ठा कर दी थी। उन्होंने देखा कि उन दोनों जगहों की ऊर्जा एक जैसी थी। फिर उन्होंने लोगों से कहा, ‘काबा में बहुत ज्यादा भीड़ है। सबको उसी एक जगह पर घूमने की कोई जरूरत नहीं है। कुछ लोग इस पत्थर के चारों ओर भी घूम सकते हैं।’ 13-बस इतना कहना काफी था। इसके लिए मंसूर को भयंकर सजा दी गई। उनकी खाल उधेड़ दी गई, उन्हें कमर तक जमीन में गाड़ दिया गया और उस जगह के खलीफा ने हुक्म दिया कि जो कोई भी उस गली से गुजरेगा, उसे उन्हें पत्थर मारना ही होगा। बिना उन्हें पत्थर मारे आप उस गली से नहीं गुजर सकते। 14-जब उनका एक करीबी दोस्त उधर से गुजरा, तो उसे भी उन पर कुछ फेंकना था। उसकी जब पत्थर फेंकने की हिम्मत नहीं हुई तो उसने उनकी ओर एक फूल फेंक दिया। तभी मंसूर के मुंह से एक कविता फूट पड़ी, जिसमें उन्होंने कहा- ‘मुझ पर फेंके गए पत्थरों ने मुझे कष्ट नहीं दिया, क्योंकि इन पत्थरों को अज्ञानी लोगों ने फेंका था। लेकिन तुमने जो फूल मुझ पर फेंका, इससे मुझे गहरी तकलीफ हुई है, क्योंकि तुम तो ज्ञानी हो और फिर भी तुमने मुझ पर कोई चीज फेंकी।
15-’मौत की सजा मिलने से पहले अपने पुत्र को हलाज की आखिरी सीखः‘पूरी दुनिया मानती है की नैतिक व्यवहार खुदा की ओर ले जाता है।’ हलाज कहते हैं, ‘लेकिन खुदा की कृपा पाने की कोशिश करो। अगर तुम्हें उसकी कृपा का एक कण भी मिल गया, तो वह देवताओं और इंसानों के तमाम भलाई के कामों से ज्यादा कीमती है।
16-’बीस साल तक हलाज एक ही फटा-चिथड़ा सूफी चोला पहने रहे। एक दिन उनके कुछ चेलों ने उनके उस चोले को जबरदस्ती उतारने की कोशिश की, ताकि उन्हें नए कपड़े पहना सकें। जब पुराने चोले को उतारा गया तो पता चला कि उसके भीतर एक बिच्छू ने अपना बिल बना लिया है। हलाज ने कहा, ‘यह बिच्छू मेरा दोस्त है, जो पिछले बीस साल से मेरे कपड़ों में रह रहा है।’ उन्होंने अपने चेलों से जिद की कि तुरंत उनके पुराने चोले और उस बिच्छू को, बिना नुकसान पहुंचाए, उन पर वापस डाल दें।
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वियोग जन्म देता है बोध को बोध- प्रेम के सच्चे मार्ग का बोध प्रेम जो कुछ नहीं चाहता जिसे नहीं है, जरूरत किसी की अपने प्रियतम की भी नहीं,
क्योंकि यथार्थ की ऐसी हालत में प्रेमी और प्रियतम नहीं होते हैं दो अलग-अलग, नहीं कभी दो हो जाते हैं एक। एक साथ, सदा के लिए!
गौर फरमाइए, सूफियों का रहस्य है यही मंसूर अल-हलाज कहते हैं ‘अनल हक’ देखो! एक सच्चा प्रेमी पूर्ण समर्पण कर विलीन हुआ समा गया उस दिव्य प्रियतम के चरम प्रेम में
मैं वही हूं, जिसे मैं प्रेम करता हूं और जिसे मैं प्रेम करता हूं, वह मैं हूं हम दो आत्माएं हैं जो एक ही शरीर में हैं अगर तूने मेरे दर्शन कर लिए समझ ले तूने उसके दर्शन कर लिए
- मंसूर