पांचवी , छठवीं ,सातवीं , दस महाविद्या की साधना उपासना कैसे की जाती है?
5-माता भुवनेश्वरी;-
मन्त्र –“ॐ ऐं ह्रीं श्रीं नमः”
माताभुवनेश्वरी स्तुति;-
उद्यद्दिनद्युतिमिन्दुकिरीटां तुंगकुचां नयनवययुक्ताम् । स्मेरमुखीं वरदाङ्कुश पाशभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम् ॥
03 FACTS;-
1-तीनों लोकों का पालन पोषण करने वाली ईश्वरी महाविद्या भुवनेश्वरी।तीनों लोक स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल की ईश्वरी महाविद्या भुवनेश्वरी नाम की शक्ति हैं। महाविद्याओं में देवी पांचवे स्थान पर अवस्थित हैं। अपने नाम के अनुसार देवी त्रिभुवन या तीनों लोकों की स्वामिनी हैं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करती हैं। सम्पूर्ण जगत के पालन पोषण का दायित्व भुवनेश्वरी देवी का होने से जगत-माता तथा जगत-धात्री नाम से भी विख्यात हैं।पंच तत्व.... 1- आकाश, 2- वायु 3-पृथ्वी 4-अग्नि 5-जल, जिनसे चराचर जगत के प्रत्येक जड-चेतन का निर्माण होता हैं, वह सब इन्हीं देवी की शक्तिओं से संचालित होता हैं। पञ्च तत्वों को इन्हीं देवी भुवनेश्वरी ने निर्मित किया हैं। देवी की इच्छानुसार ही चराचर ब्रह्माण्ड (तीनों लोक) के समस्त तत्वों का निर्माण होता हैं। महाविद्या भुवनेश्वरी साक्षात् प्रकृति स्वरूपा हैं तथा देवी की तुलना मूल प्रकृति से भी की जाती हैं। 2-देवी भुवनेश्वरी, भगवान शिव की समस्त लीला विलास की सहचरी हैं। देवी नियंत्रक भी हैं तथा भूल करने वालों के लिए दंड का विधान भी करती हैं। इनकी भुजा में सुशोभित अंकुश नियंत्रक का प्रतीक हैं। जो विश्व को वामन करने हेतु वामा, शिवमय होने से ज्येष्ठा तथा कर्मा नियंत्रक, जीवों को दण्डित करने के परिणामस्वरूप रौद्री, प्रकृति निरूपण करने के कारण मूल-प्रकृति कही जाती हैं। भगवान शिव का वाम भाग देवी भुवनेश्वरी के रूप में जाना जाता हैं तथा शिव को सर्वेश्वर होने की योग्यता इन्हीं के संग होने से प्राप्त हैं।देवी भुवनेश्वरी सौम्य तथा अरुण के समान अंग-कांति युक्त हैं; देवी के मस्तक पर अर्ध चन्द्र सुशोभित हैं, तीन नेत्र हैं, मुखमंडल मंद-मंद मुस्कान की छटा युक्त हैं। देवी चार भुजाओं से युक्त हैं। दाहिने भुजा से देवी अभय तथा वर मुद्रा प्रदर्शित करती हैं और बाएं भुजा में पाश तथा अंकुश धारण करती हैं। देवी नाना प्रकार के अमूल्य रत्नों से युक्त विभिन्न अलंकार धारण करती हैं। 3-दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचारों से त्रस्त हो समस्त देवता तथा ब्राह्मणों ने हिमालय पर जाकर इन्हीं भुवनेशी देवी की स्तुति की थीं। सताक्षी रूप में इन्होंने ही पृथ्वी के समस्त नदियों-जलाशयों को अपने अश्रु जल से भर दिया था, शाकम्भरी रूप में देवी ही अपने हाथों में नाना शाक-मूल इत्यादि खाद्य द्रव्य धारण कर प्रकट हुई तथा सभी जीवों को भोजन प्रदान किया। अंत में देवी ने दुर्गमासुर दैत्य का वध कर, तीनों लोकों को उसके अत्याचार से मुक्त किया और दुर्गा नाम से प्रसिद्ध हुई। देवी, ललित के नाम से भी विख्यात हैं, परन्तु यह देवी ललित, श्री विद्या-ललित नहीं हैं। भगवान शिव द्वारा दो शक्तियों का नाम ललिता रखा गया हैं, एक ‘पूर्वाम्नाय तथा दूसरी ऊर्ध्वाम्नाय’ द्वारा। ललिता जब त्रिपुरसुंदरी के साथ होती हैं तो वह श्री विद्या-ललिता के नाम से जानी जाती हैं, इनका सम्बन्ध श्री कुल से हैं। ललिता जब भुवनेश्वरी के साथ होती हैं तो भुवनेश्वरी-ललित के नाम से जानी जाती हैं। देवी भुवनेश्वरी की खास बात यह है कि यह अत्यंत भोली है। जिसके कारण वह बहुत ही कम समय मे प्रसन्न हो जाती है। लेकिन माता का यह रूप अत्यंत कोपिष्ठ भी है। और किसी कारण से माता रूठ गयी तो मनाने के लिये दो गुनी साधना करनी पडती है। देवी माँ से कभी भी झूठ या स्वार्थ पूर्ण वचन ना करे। देवी के अन्य नाम. 1-मूल प्रकृति, 2-सर्वेश्वरी या सर्वेशी, 3- सर्वरूपा, 4-विश्वरूपा, 5-जगन 6-जगत-धात्री इत्यादि। देवी भुवनेश्वरी के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा;-
07 FACTS;- 1-सृष्टि के प्रारम्भ में केवल स्वर्ग ही विद्यमान था, सूर्य केवल स्वर्ग लोक में ही दिखाई देता था, किरणें स्वर्ग लोक तक ही सीमित थी। समस्त ऋषियों तथा सोमदेव ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के निर्माण हेतु, सूर्य देव की आराधना की। जिससे प्रसन्न हो सूर्यदेव ने, देवी भुवनेश्वरी की प्रेरणा से संपूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण किया। उस काल में देवी ही सर्व-शक्तिमान थी, देवी षोडशी ने सूर्यदेव को वह शक्ति प्रदान कर मार्गदर्शन किया, जिससे सूर्य देव ने संपूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना की।देवी षोडशी की वह प्रेरणा उस समय से भुवनेश्वरी (सम्पूर्ण जगत की ईश्वरी) नाम से प्रसिद्ध हुई। देवी का सम्बन्ध इस चराचर दृष्टि-गोचर समस्त ब्रह्माण्ड से हैं, इनके नाम दो शब्दों के मेल से बना हैं भुवन + ईश्वरी, जिसका अभिप्राय हैं समस्त भुवन की ईश्वरी। 2-देवी का प्राकट्य...श्रीमद देवी-भागवत पुराण के अनुसार.... राजा जनमेजय ने व्यास जी से 'ब्रह्मा', विष्णु, शंकर की आदि शक्ति, से सम्बन्ध तथा विश्व की उत्पत्ति का हेतु प्रश्न पूछे जाने पर व्यासजी ने बताया...एक बार व्यासजी के मन में जिज्ञासा जागृत हुई कि, "पृथ्वी या इस सम्पूर्ण चराचर जगत का सृष्टि कर्ता कौन हैं?" इस निमित्त उन्होंने नारदजी से प्रश्न किया। नारदजी ने व्यास जी से कहा कि "एक बार उनके मन में भी ऐसे ही जिज्ञासा जागृत हुई थीं।" तब नारदजी ब्रह्म लोक स्थित अपने पिता ब्रह्माजी के पास गए और उन्होंने उनसे पूछा!"ब्रह्मा, विष्णु और महेश, में किसके द्वारा इस चराचर ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई हैं, सर्वश्रेष्ठ ईश्वर कौन हैं ?"ब्रह्माजी ने नारद से कहा! प्राचीन काल में जल प्रलय के पश्चात केवल पञ्च महा-भूतों की उत्पत्ति हुई, जिसके कारण वे (ब्रह्मा जी) कमल से आविर्भूत हुए। उस समय सूर्य, चन्द्र, पर्वत इत्यादि स्थूल जगत लुप्त था तथा चारों ओर केवल जल ही जल दिखाई देता था। ब्रह्माजी कमल-कर्णिका पर ही आसन जमाये विचरने लगे। उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि इस महा सागर के जल से उनका प्रादुर्भाव कैसे हुआ तथा उनका निर्माण करने वाला तथा पालन करने वाला कौन हैं? ब्रह्माजी ने दृढ़ निश्चय किया कि वे अपने कमल के आसन का मूल आधार देखेंगे, जिससे उन्हें मूल भूमि मिल जाएगी। तदनंतर, उन्होंने जल में उतर-कर पद्म के मूल को ढूंढने का प्रयास किया, परन्तु वे अपने कमल-आसन के मूल तक नहीं पहुँच पाये। तक्षण ही आकाशवाणी हुई कि “ तुम तपस्या करो!” ब्रह्माजी ने कमल के आसन पर बैठ हजारों वर्ष तक तपस्या की।
3-कुछ काल पश्चात पुनः आकाशवाणी हुई, सृजन करो, परन्तु ब्रह्माजी समझ नहीं पाये कि क्या सृजन करें तथा कैसे करें! उनके द्वारा ऐसा विचार करते हुए, उनके सनमुख 'मधु तथा कैटभ' नाम के दो महादैत्य उपस्थित हुए जो दोनों उनसे युद्ध करना चाहते थे, जिसे देख ब्रह्माजी भयभीत हो गए। ब्रह्माजी अपने आसन कमल के नाल का आश्रय ले महासागर में उतरे, जहाँ उन्होंने एक अत्यंत सुन्दर एवं अद्भुत पुरुष को देखा, जो मेघ के समान श्याम वर्ण के थे और उन्होंने अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण कर रखा था। शेष नाग की शय्या पर शयन करते हुए ब्रह्माजी ने श्री हरि-विष्णु को देखा। उन्हें देख ब्रह्माजी के मन में जिज्ञासा जागृत हुई और वे सहायता हेतु आदि शक्ति देवी की स्तुति करने लगे, जिनकी तपस्या में वे सर्वदा निमग्न रहते थे। परिणामस्वरूप, निद्रा स्वरूपी भगवान विष्णु की योग माया शक्ति आदि शक्ति महामाया, उनके शरीर से उद्भूत हुई।
वह देवी दिव्य अलंकार, आभूषण, वस्त्र इत्यादि धारण किये हुए थी तथा आकाश में जा विराजित हुई। भगवान विष्णु ने निद्रा का त्याग किया और जागृत होकर पाँच हजार वर्षों तक मधु-कैटभ नामक महा दैत्यों से युद्ध किया। बहुत अधिक समय तक युद्ध करते हुए भगवान विष्णु थक गए। अकेले ही युद्ध कर रहे थे, इसके विपरीत दोनों दैत्य भ्राता एक-एक कर युद्ध करते थे। 4-भगवान् विष्णु ने अपने अन्तः कारण की शक्ति योगमाया आद्या शक्ति से सहायता हेतु प्रार्थना की। देवी ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे उन दोनों दैत्यों को अपनी माया से मोहित कर देंगी।योगमाया आद्या शक्ति की माया से मोहित हो दैत्य भ्राता भगवान विष्णु से कहने लगे! "हम दोनों तुम्हारी वीरता पर बहुत प्रसन्न हैं, हमसे वर मांगो!" भगवान विष्णु ने दैत्य भ्राताओं से कहा! "तुम्हारी मौत मेरे हाथों से हों।" दैत्य भ्राताओं ने देखा की चारों ओर केवल जल ही जल हैं इसलिए भगवान विष्णु से कहा! "हमारा वध ऐसे स्थान पर करो जहाँ न जल हो और न ही स्थल।" भगवान विष्णु ने दोनों दैत्यों को अपनी जंघा पर रख कर अपने चक्र से उनके मस्तक को देह से अलग कर दिया। इस प्रकार उन्होंने मधु-कैटभ का वध किया, परन्तु वे केवल निमित्त मात्र ही थे, उस समय उनकी संहारक शक्ति से शंकरजी की उत्पत्ति हुई, जो संहार के प्रतीक हैं।तदनंतर, 'ब्रह्मा', विष्णु तथा शंकर द्वारा, देवी आदि शक्ति योगनिद्रा महामाया की स्तुति की गई, जिससे प्रसन्न होकर आदि शक्ति ने ब्रह्माजी को सृजन, विष्णु को पालन तथा शंकर को संहार के दाईत्व निर्वाह करने की आज्ञा दी। ब्रह्माजी ने देवी आदि शक्ति से प्रश्न किया गया कि! "अभी चारों ओर केवल जल ही जल हैं, पञ्च-तत्व, गुण, तन-मात्राएँ तथा इन्द्रियां, कुछ भी व्याप्त नहीं हैं और तीनों देव शक्ति-हीन हैं।" देवी ने मुसकुराते हुए उस स्थान पर एक सुन्दर विमान को प्रस्तुत किया और तीनों देवताओं को विमान पर बैठ अद्भुत चमत्कार देखने का आग्रह किया गया, तीनों देवों के विमान पर आसीन होने के पश्चात, वह विमान आकाश में उड़ने लगा। 5-मन के वेग के समान वह दिव्य तथा सुन्दर विमान उड़कर ऐसे स्थान पर पहुंचा जहाँ जल नहीं था, यह देख तीनों देवों को महान आश्चर्य हुआ। उस स्थान पर नर-नारी, वन-उपवन, पशु-पक्षी, भूमि-पर्वत, नदियाँ-झरने इत्यादि विद्यमान थे। उस नगर को देखकर तीनों महा-देवों को लगा कि वे स्वर्ग में आ गए हैं। थोड़े ही समय पश्चात, वह विमान पुनः आकाश में उड़ गया और एक ऐसे स्थान पर पंहुचा, जहाँ ऐरावत हाथी दिखा साथ ही मेनका आदि अप्सराओं के समूह नृत्य कर रही थी, सैकड़ों गन्धर्व, विद्याधर, यक्ष रमण कर रहे थे, वहाँ इंद्र भी अपनी पत्नी सची के साथ विद्यमान थे। वहाँ कुबेर, वरुण, यम, सूर्य, अग्नि इत्यादि अन्य देवताओं को देख तीनों को महान आश्चर्य हुआ।तीनों देवताओं का विमान ब्रह्म-लोक की ओर बढ़ा, वहाँ पर सभी देवताओं से वन्दित ब्रह्माजी को विद्यमान देख, तीनों देव विस्मय में पर पड़ गए। विष्णु तथा शंकर ने ब्रह्मा से पूछा, यह ब्रह्मा कौन हैं ? ब्रह्माजी ने उत्तर दिया! "मैं इन्हें नहीं जानता हूँ, मैं स्वयं भ्रमित हूँ।" तदनंतर, वह विमान कैलाश पर्वत पर पहुंचा, वहां तीनों ने वृषभ पर आरूढ़, मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए, पञ्च मुख तथा दस भुजाओं वाले शंकरजी को देखा। जो व्याघ्र चर्म धारण किये थे। गणेश और कार्तिक उनके अंग रक्षक रूप में विद्यमान थे, यह देख पुनः तीनों अत्यंत विस्मय में पड़ गये। अब उनका विमान कैलाश से भगवान विष्णु के वैकुण्ठ लोक जा पहुंचा।
6-पक्षी-राज गरुड़ के पीठ पर आरूढ़, श्याम वर्ण, चार भुजा वाले, दिव्य अलंकारों से अलंकृत भगवान विष्णु को देख सभी को महान आश्चर्य हुआ, सभी विस्मय में पड़ गए तथा एक दूसरे को देखने लगे।इसके बाद पुनः वह विमान वायु की गति से चलने लगा तथा सागर के तट पर पहुंचा। वहाँ का दृश्य अत्यंत मनोहर था, नाना प्रकार के पुष्प वाटिकाओं से सुसज्जित था, तीनों महा-देवों ने रत्नमालाओं एवं विभिन्न प्रकार के अमूल्य रत्नों से विभूषित, पलंग पर एक दिव्यांगना को बैठे हुए देखा। उन देवी ने रक्त-पुष्पों की माला तथा रक्ताम्बर धारण कर रखी थीं। वर, पाश, अंकुश और अभय मुद्रा धारण किये हुए, देवी भुवनेश्वरी, त्रि-देवो को सनमुख दृष्टि-गोचर हुई, जो सहस्रों उदित सूर्य के प्रकाश के समान कान्तिमयी थी। वास्तव में आदि शक्ति महामाया ही भुवनेश्वरी अवतार में, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का सञ्चालन तथा निर्माण करती हैं।देवी समस्त प्रकार के श्रृंगार एवं भव्य परिधानों से सुसज्जित थी तथा उनके मुख मंडल पर मंद मुसकान शोभित हो रही थी। भगवती भुवनेश्वरी को देख त्रि-देव आश्चर्य चकित एवं स्तब्ध रह गए और सोचने लगे, यह देवी कौन हैं? ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश सोचने लगे कि "न तो यह अप्सरा हैं, न ही गन्धर्वी और न ही देवांगना!" यह सोचते हुए वे तीनो संशय में पड़ गए। तब उस सुन्दर हास्यवाली देवी के सम्बन्ध में, भगवान विष्णु ने अपने अनुभव से शंकर तथा ब्रह्माजी से कहा! "यह साक्षात् देवी जगदम्बा महामाया हैं, साथ ही यह देवी हम तीनों तथा सम्पूर्ण चराचर जगत की कारण रूपा हैं।
7-देवी, महाविद्या शास्वत मूल प्रकृति रूपा हैं, आदि स्वरूप ईश्वरी हैं और इस योग-माया महाशक्ति को योग मार्ग से ही जाना जा सकता हैं। मूल प्रकृति स्वरूपी भगवती महामाया परम-पुरुष के सहयोग से ब्रह्माण्ड की रचना कर, परमात्मा के सनमुख उसे उपस्थित करती हैं।" तदनंतर, तीनों देव भगवती भुवनेश्वरी की स्तुति करने के निमित्त जैसे ही विमान से उतरकर देवी के सन्मुखजाने लगे, देवी ने उन्हें स्त्री-रूप में परिणीत कर दिया। वे भी नाना प्रकार के आभूषणों से अलंकृत तथा वस्त्र सुसज्जित हो गए। उन्होंने देखा की असंख्य सुन्दर स्त्रियाँ देवी की सेवा में थी। तीनों देवों ने देवी के चरण-कमल के नख में सम्पूर्ण स्थावर-जंगम ब्रह्माण्ड को देखा। समस्त देवता, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, समुद्र, पर्वत, नदियां, अप्सरायें, वसु, अश्विनी-कुमार, पशु-पक्षी, राक्षस गण इत्यादि सभी, देवी के नख में प्रदर्शित हो रहे थे। वैकुण्ठ, ब्रह्मलोक, कैलाश, स्वर्ग, पृथ्वी इत्यादि समस्त लोक देवी के पद नख में विराजमान थे। तब त्रिदेव यह समझ गए कि देवी सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की जननी हैं। संक्षेप में देवी भुवनेश्वरी से सम्बंधित मुख्य तथ्य। मुख्य नाम : भुवनेश्वरी। अन्य नाम : मूल प्रकृति, सर्वेश्वरी या सर्वेशी, सर्वरूपा, विश्वरूपा, जगत-धात्री इत्यादि। भैरव : त्र्यंबक। भगवान के 24 अवतारों से सम्बद्ध : भगवान वराह अवतार। कुल : काली कुल। दिशा : उत्तर पश्चिम। स्वभाव : सौम्य , राजसी गुण सम्पन्न। कार्य : सम्पूर्ण जगत का निर्माण तथा सञ्चालन। शारीरिक वर्ण : सहस्रों उदित सूर्य के प्रकाश के समान कान्तिमयी। माँ भुवनेश्वरी मंत्र;-''ॐ ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः॥''(Om Hreem Bhuvaneshwaryai Namah )
5-माँ भुवनेश्वरी मंत्र;-
1- (1 Syllable Mantra) ॐ ह्रीं॥
अमावस्या को लकड़ी के पटरे पर उक्त मंत्र लिखकर गर्भवती स्त्री को दिखाने से उसे सुखद प्रसव होता है। गले तक जल में खड़े होकर, जल में ही सूर्यमंडल को देखते हुए तीन हजार बार मंत्र का जप करने वाला मनोनुकूल कन्या का वरण करता है।अभिमंत्रित अन्न का सेवन करने से लक्ष्मी की वृद्धि होती है।
2- अन्य मंत्र;- (3 Syllables Mantra) ॐ आं ह्रीं क्रों॥ 3- (8 Syllables Mantra) ॐ आं श्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं ह्रीं श्रीं क्रों॥ 4- ॐ ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः॥ 5- ॐ श्रीं ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः॥ 6-ॐ श्रीं क्लीं भुवनेश्वर्यै नमः॥ 7- ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं भुवनेश्वर्यै नमः॥ 8-ॐ श्रीं ऐं क्लीं ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः॥ 9- ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौंः भुवनेश्वर्यै नमः॥ 10- ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौंः ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः॥ 11- ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौंः क्लीं ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः॥ 12- ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं क्लीं सौंः ऐं सौंः भुवनेश्वर्यै नमः॥ 13- ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं सौंः क्रीं हूं ह्रीं ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः॥ ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
6-देवी त्रिपुर भैरवी;-
02 FACTS;-
1-विध्वंस की पूर्ण शक्ति हैं, महाविद्या त्रिपुर-भैरवी, भगवान शिव के विध्वंसक प्रवृति की प्रतीक। त्रिपुर भैरवी , छठी महाविद्या के रूप में अवस्थित हैं। त्रिपुर शब्द का अर्थ हैं, तीनों लोक! स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल तथा भैरवी शब्द विनाश के एक सिद्धांत के रूप में अवस्थित हैं। तात्पर्य हैं तीन लोकों में नष्ट या विध्वंस की जो शक्ति हैं, वही भैरवी हैं।देवी पूर्ण विनाश से सम्बंधित हैं तथा भगवान शिव जिनका सम्बन्ध विध्वंस या विनाश से हैं, देवी त्रिपुर भैरवी उन्हीं का एक अभिन्न रूप मात्र हैं। देवी भैरवी विनाशकारी प्रकृति के साथ, विनाश से सम्बंधित पूर्ण ज्ञानमयी हैं; विध्वंस काल में अपने भयंकर तथा उग्र स्वरूप सहित, शिव की उपस्थिति के साथ संबंधित हैं। देवी! कालरात्रि या काली के रूप समान हैं। 2-योगिनियों की अधिष्ठात्री देवी हैं, महाविद्या त्रिपुर-भैरवी। देवी की साधना मुख्यतः घोर कर्मों में होती हैं। देवी ने ही उत्तम मधु पान कर महिषासुर का वध किया था। समस्त भुवन देवी से ही प्रकाशित हैं और एक दिन इन्हीं में लय होजायेगा। भगवान् नरसिंह की अभिन्न शक्ति हैं, देवी त्रिपुर भैरवी। देवी गहरे शारीरिक वर्ण से युक्त एवं त्रिनेत्रा हैं। मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण करती हैं। चार भुजाओं से युक्त देवी भैरवी अपने बाएं हाथों से वर तथा अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं और दाहिने हाथों में मानव खप्पर तथा खड्ग धारण करती हैं। देवी रुद्राक्ष तथा सर्पों के आभूषण धारण करती हैं, मानव खप्परों की माला देवी अपने गले में धारण करती हैं। देवी महा त्रिपुर-भैरवी के प्रादुर्भाव से सम्बंधित कथा। अत्यंत उग्र स्वरूप वाली देवी त्रिपुर-भैरवी ने ही भगवान शिव से सती को अपने पिता के यज्ञ में जाने की अनुमति देने हेतु कहा था। सती के पिता, प्रजापति दक्ष (जो ब्रह्मा जी के पुत्र थे) ने एक यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने तीनों लोकों से समस्त प्राणियों को निमंत्रित किया, किन्तु शिव से द्वेष के कारण आयोजन में आमंत्रित नहीं किया। जब देवी सती ने देखा कि देवगण यज्ञ आयोजन में जा रहे हैं तब उन्होंने शिव से अपने पिता के घर जाने की अनुमति मांगी।भगवान शिव, दक्ष के व्यवहार से भली प्रकार परिचित थे। उन्होंने सती को अपने पिता के घर जाने की अनुमति न देते हुए, नाना प्रकार से उन्हें समझने की चेष्टा की परन्तु देवी सती नहीं मानी और अत्यंत क्रोधित हो गई। देवी के क्रोध से दस महा शक्तियां प्रकट हुई, जो देवी को एक घेरे में लिए खड़ी हुई थीं। उनमें से एक घोर काले वर्ण की देवी भी थीं, जिन्होंने अपने तथा अन्य उपस्थित शक्तिओं के प्रभाव एवं गुणो का भगवान शिव को परिचय दिया और उनसे निश्चिंत रहने हेतु प्रार्थना की, वह देवी काल स्वरूपीणी भैरवी ही थीं। परिणामस्वरूप, भगवान शिव ने अंततः सती को पिता के यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी। देवी विनाश और विध्वंस के रूप में ही अपने पिता के यज्ञ अनुष्ठान में गई, जहाँ पति की निंदा सुनकर देवी ने अपने आप को यज्ञ में भस्म कर , यज्ञ के विनाश का कारण बनी। संक्षेप में देवी त्रिपुर-भैरवी से सम्बंधित मुख्य तथ्य;- मुख्य नाम : त्रिपुर-भैरवी। अन्य नाम : चैतन्य भैरवी, नित्य भैरवी, भद्र भैरवी, श्मशान भैरवी, सकल सिद्धि भैरवी, संपत-प्रदा भैरवी, कामेश्वरी भैरवी इत्यादि। भैरव : दक्षिणामूर्ति या वटुक भैरव। भगवान के 24 अवतारों से सम्बद्ध : भगवान बलराम अवतार। कुल : श्री कुल। दिशा : पाताल /लग्न । स्वभाव : सौम्य उग्र, तामसी गुण सम्पन्न। कार्य : विध्वंस या पञ्च तत्वों में विलीन करने की शक्ति। शारीरिक वर्ण : सौम्य स्वभाव में लाल, हजारों उगते हुए सूर्य के समान तथा उग्र रूप में घोर काले वर्ण युक्त।
माँ त्रिपुर भैरवी मंत्र;-
04 POINTS;-
1-त्रिपुर भैरवी की उपासना से सभी बंधन दूर हो जाते हैं।त्रिपुरा भैरवी ऊर्ध्वान्वय की देवी हैं।माता की चार भुजाएं और तीन नेत्र हैं। इन्हें षोडशी भी कहा जाता है। षोडशी को श्रीविद्या भी माना जाता है। यह साधक को युक्ति और मुक्ति दोनों ही प्रदान करती है।महा त्रिपुर भैरवी देवी अपने अन्य नामो से भी प्रसिद्ध हैं और सभी सिद्ध योगिनियाँ हैं :
1-त्रिपुर-भैरवी
2-कौलेश भैरवी
3-रुद्र भैरवी
4-चैतन्य भैरवी
5-नित्य भैरवी
6-भद्र भैरवी
7-श्मशान भैरवी
8-सकल सिद्धि भैरवी
9-संपत-प्रदा भैरवी
10-कामेश्वरी भैरवी इत्यादि ।
2-इनकी साधना से षोडश कला निपुण सन्तान की प्राप्ति होती है।जल, थल और नभ में उसका वर्चस्व कायम होता है।आजीविका और व्यापार में इतनी वृद्धि होती है कि व्यक्ति संसार भर में धन श्रेष्ठ यानि सर्वाधिक धनी बनकर सुख भोग करता है।मां त्रिपुर भैरवी तमोगुण और रजोगुण की देवी हैं।इनकी आराधना विशेष विपत्तियों को शांत करने और सुख पाने के लिए की जाती है।
3-साधना विधि;-
02 FACTS;-
1-यह देवी प्रेत आत्मा के लिए बहुत ही खतरनाक है । इनकी साधना तुरंत प्रभावी है। जिस किसी समस्या का समाधान नही हो रहा है, यह देवी उस समस्या का जड से विनाश करती है।इनके जाप द्वारा सभी कष्ट एवं संकटों का नाश होता है तथा आजीविका और व्यापार में इतनी वृद्धि होती है कि व्यक्ति संसार भर में धन श्रेष्ठ यानि सर्वाधिक धनी बनकर सुख भोग करता है । जीवन में काम, सौभाग्य और शारीरिक सुख के साथ आरोग्य सिद्धि के लिए इस देवी की आराधना की जाती है। इसकी साधना से धन सम्पदा की प्राप्ति होती है, मनोवांछित वर या कन्या से विवाह होता है । इस देवी का मंत्र जप आप मूंगे की माला से से कर सकते है और कम से कम पंद्रह माला मंत्र जप करनी चाहिए।
1-मंत्र- ओम् ह्रीं भैरवी कलौं ह्रीं स्वाहा:इस मंत्र के जाप के लए मूंगे की माला का इस्तेमाल करना चाहिए और कम से कम पंद्रह माला का जाप करना चाहिए ।
2-माँ त्रिपुर भैरवी देवी मूल मन्त्र - ‘ ॐ ह्नीं भैरवी क्लौं ह्नीं स्वाहा':
इस मंत्र का पुरश्चरण एक लाख जप है। जप के पश्चात त्रिमधुर (घी, शहद, शक्कर) मिश्रित कनेर के पुष्पों से होम करना चाहिए।
3-माँ त्रिपुर भैरवी देवी साधना मंत्र - ''ॐ ह्रीं सर्वैश्वर्याकारिणी देव्यै नमो नम:''
4-माँ त्रिपुरभैरवी अन्य मंत्र;-
1-ॐ ह्रीं भैरवी कलौं ह्रीं स्वाहा॥ 2- (3 Syllables Mantra) ॐ ह्स्त्रैं ह्स्क्ल्रीं ह्स्त्रौंः॥ 3- (8 Syllables Mantra) ॐ हसैं हसकरीं हसैं॥Hasaim Hasakarim Hasaim॥ 4- ॐश्मशान भैरवि नररुधिरास्थि - वसाभक्षिणि सिद्धिं मे देहि मम मनोरथान् पूरय हुं फट् स्वाहा॥ 5- ॐ त्रिपुरायै विद्महे महाभैरव्यै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥
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7-देवी धूमावती;-
03 FACTS;-
1-दुर्भाग्य, दरिद्रता, अस्वस्थता, कलह की देवी, महाविद्या धूमावती। महाविद्या धूमावती अकेली स्व: नियंत्रक हैं, इनके स्वामी रूप में कोई नहीं हैं। भगवान शिव की विधवा हैं। दस महाविद्याओं की श्रेणी में देवी धूमावती सातवें स्थान पर अवस्थित हैं। उग्र स्वभाव वाली अन्य देवियों के सामान ही उग्र तथा भयंकर हैं।देवी का सम्बन्ध ब्रह्माण्ड के महाप्रलय के पश्चात उस स्थिति से हैं, जहां वे अकेली होती हैं अर्थात समस्त स्थूल जगत के विनाश के कारण शून्य स्थिति रूप में अकेली विराजमान रहती हैं। महाप्रलय के पश्चात मात्र देवी की शक्ति ही चारों ओर विद्यमान रहती हैं; देवी का स्वरूप धुएं के समान हैं। तीव्र क्षुधा हेतु इन्होंने अपने पति भगवान शिव का ही भक्षण किया था, जिसके पश्चात शिवजी धुएं के रूप में देवी के शरीर से बाहर निकले थे; देवी धुएं के रूप में हैं।
2-देवी दरिद्रों के गृह में दरिद्रता के रूप में विद्यमान रहती हैं तथा अलक्ष्मी नाम से विख्यात हैं। अलक्ष्मी जो कि देवी लक्ष्मी की बहन हैं, परन्तु गुण तथा स्वभाव से पूर्णतः विपरीत हैं। देवी धूमावती की उपस्थिति, सूर्य अस्त पश्चात रहती हैं अर्थात अंधकारमय स्थानों की स्वामिनी हैं। देवी का सम्बन्ध स्थाई अस्वस्थता से भी हैं फिर वह शारीरिक हो या मानसिक। देवी के अन्य नामों में निऋति भी हैं, जिनका सम्बन्ध मृत्यु, क्रोध, दुर्भाग्य, सड़न, अपूर्ण अभिलाषाओं जैसे नकारात्मक विचारों तथा तथ्यों से हैं।
देवी कुपित होने पर समस्त अभिलषित मनोकामनाओं, सुख, धन तथा समृद्धि का नाश कर देती हैं, देवी कलह प्रिया हैं, अपवित्र स्थानों में वास करती हैं। रोग, दुर्भाग्य, कलह, निर्धनता, दुःख के रूप में देवी विद्यमान हैं। देवी धूमावती का स्वरूप अत्यंत ही कुरूप हैं, भद्दे एवं विकट दन्त पंक्ति हैं, एक वृद्ध महिला के समान देवी दिखाई देती हैं। विधवा होने के कारण देवी श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, श्वेत वर्ण ही इन्हें प्रिय हैं, तीन नेत्रों से युक्त भद्दी छवि युक्त हैं, देवी धूमावती।
3-देवी रुद्राक्ष की माला आभूषण रूप में धारण करती हैं, इनके हाथों में एक सूप हैं; माना जाता हैं देवी जिस पर कुपित होती हैं उसके समस्त सुख इत्यादि अपने सूप पर ही ले जाती हैं। इन्होंने ही अपने शरीर से उग्र-चंडिका को प्रकट किया हैं। असुरों के कच्चे मांस का सेवन करके भी इनकी क्षुधा का निवारण नहीं हो पाया हैं। ये अतृप्त हैं। संसार बंधन से विरक्त होने की शक्ति देवी ही प्रदान करती हैं, जो साधक के योग की उच्च अवस्था तथा मोक्ष प्राप्त करने हेतु सहायक होती हैं।देवी धूमावती धुएं के स्वरूप में विद्यमान है तथा पार्वती के भयंकर और उग्र स्वभाव का प्रतिनिधित्व करती हैं। ज्येष्ठ माह में शुक्ल पक्ष की अष्टमी 'धूमावती जयंती' होती है, इसी तिथि में देवी का प्रादुर्भाव हुआ था। देवी ने एक बार प्रण किया था! कि जो मुझे युद्ध में परास्त करेगा, वही मेरा पति-स्वामी होगा, मैं उसी से विवाह करूँगी परन्तु ऐसा नहीं हुआ कि इन्हें युद्ध में कोई परास्त कर सके, परिणामस्वरूप देवी अकेली हैं।नारद पंचरात्र के अनुसार, देवी धूमावती ने ही उग्र चण्डिका, उग्र तारा जैसे उग्र तथा भयंकर प्रवृति वाली देवियों को अपने शरीर से प्रकट किया; उग्र स्वभाव, भयंकरता, क्रूरता इत्यादि देवी धूमावती ने ही इन देवियों को प्रदान की हैं। देवी की ध्वनि, हजारों गीदड़ों के एक साथ चिल्लाने जैसी हैं, जो महान भय-दायक हैं। देवी धूमावती, भगवान शिव की विधवा के रूप में विद्यमान हैं; अपने पति भगवान शिव को निगल जाने के कारण देवी विधवा हैं। देवी का
भौतिक स्वरूप क्रोध से उत्पन्न दुष्परिणाम तथा पश्चाताप को भी इंगित करता हैं।
देवी धूमावती की उत्पत्ति से सम्बंधित कथा ;-
03 FACTS;-
1-देवी धूमावती के प्रादुर्भाव से सम्बंधित दो कथाएँ प्राप्त होती हैं। प्रथम प्रजापति दक्ष के यज्ञ से सम्बंधित हैं। सती अपने पिता दक्ष से उनके यज्ञानुष्ठान स्थल में घोर अपमानित हुई। दक्ष ने अपनी पुत्री सती को स्वामी शिव सहित खूब उलटा सीधा कहा। परिणामस्वरूप, देवी अपने तथा स्वामी (शिव) के अपमान से तिरस्कृत हो, सम्पूर्ण यजमानों के सामने देखते ही देखते अपनी आहुति यज्ञ कुंड में दे दी; जिस कारण देवी की मृत्यु हो गई। यज्ञ स्थल में हाहाकार मच गया, सभी अत्यंत भयभीत हो गए। उस समय यज्ञ-कुंड से देवी सती, धुएं के रूप में बाहर निकली। यज्ञ कुंड से निसर्ग धुएं को ही देवी धूमावती माना जाता हैं|
स्वतंत्र तंत्र के अनुसार, एक समय देवी पार्वती भगवान शिव के साथ, कैलाश में बैठी हुई थी। तीव्र क्षुधा से ग्रस्त होने के कारण उन्होंने शिवजी से भोजन प्रदान करने का निवेदन किया। भगवान शिव ने प्रतीक्षा करने के लिया कहा। कुछ समय पश्चात उन्होंने पुनः भोजन हेतु निवेदन किया परन्तु शिवजी ने उन्हें कुछ क्षण और प्रतीक्षा करने को कहा। बार-बार भगवान शिव द्वारा इस प्रकार आश्वासन देने पर, देवी धैर्य खो, क्रोधित हो गई और अपने पति को ही उठाकर निगल लिया। देवी के शरीर से एक धूम्र राशि निकली, उस धूम्र राशि ने उन्हें पूरी तरह से ढक दिया।
2-भगवान शिव, देवी के शरीर से बाहर आये तथा कहा! आपकी यह सुन्दर आकृति धुएं से ढक जाने के कारण धूमावती नाम से प्रसिद्ध होगी। अपने पति (भगवान शिव) को खा (निगल) लेने के परिणामस्वरूप देवी विधवा हैं। चूंकि देवी ने क्रोध वश अपने ही पति को खा लिया, देवी का सम्बन्ध दुर्भाग्य, अपवित्र, बेडौल, कुरूप जैसे नकारात्मक तथ्यों से हैं। देवी, श्मशान तथा अंधेरे स्थानों में निवास करने वाली है, समाज से बहिष्कृत है तथा अपवित्र स्थानों पर रहने वाली हैं।भगवान शिव ही धुएं के रूप में देवी धूमावती में विद्यमान है तथा अपने पति (भगवान शिव) से कलह करने के कारण देवी कलह प्रिया भी हैं। प्रत्येक कलह में देवी शक्ति ही उत्पात मचाती हैं, क्लेश करती हैं। देवी, चराचर जगत के अपवित्र प्रणाली के प्रतीक स्वरूपा है, चंचला, गलिताम्बरा, विरल-दंता, मुक्त केशी, शूर्प हस्ता, काक ध्वजिनी, रक्षा नेत्रा, कलह प्रिया इत्यादि देवी के अन्य प्रमुख नाम हैं। देवी का सम्बन्ध पूर्णतः अशुभता तथा नकारात्मक तत्वों से हैं, देवी की आराधना अशुभता तथा नकारात्मक विचारो के निवारण हेतु की जाती हैं।
3-देवी धूमावती की उपासना विपत्ति नाश, स्थिर रोग निवारण, युद्ध विजय, एवं घोर कर्म मारण, उच्चाटन इत्यादि में की जाती हैं। देवी के कोप से शोक, कलह, क्षुधा, तृष्णा मनुष्य के जीवन से कभी जाती ही नहीं हैं, स्थिर रहती हैं। देवी, प्रसन्न होने पर रोग तथा शोक दोनों विनाश कर देती है और कुपित होने पर समस्त भोग रहे कामनाओं का नाश कर देती हैं। आगम ग्रंथों के अनुसार, अभाव, संकट, कलह, रोग इत्यादि को दूर रखने हेतु देवी के आराधना की जाती हैं।देवी धूमावती, लक्ष्मीजी के छोटी बहन अलक्ष्मी या ज्येष्ठा हैं, जो समुद्र मंथन से प्राप्त हुई थीं और जिसका विवाह दुसह ऋषि के साथ हुआ था| मनुष्यों के गृह में स्थिर दरिद्रता तथा दुर्भाग्य के रूप में देवी ज्येष्ठा ही वास करती हैं और अपवित्र तथा अन्धकार में वास करती हैं, अंततः नाश का कारण बनती हैं।
संक्षेप में देवी धूमावती से सम्बंधित मुख्य तथ्य।
मुख्य नाम : धूमावती।
अन्य नाम : चंचला, गलिताम्बरा, विरल-दंता, मुक्त केशी, शूर्प-हस्ता, काक ध्वजिनी, रक्षा नेत्रा, कलह प्रिया।
भैरव : विधवा, काल भैरव ।
भगवान के 24 अवतारों से सम्बद्ध : भगवान मत्स्य अवतार।
कुल : श्री कुल।
दिशा : ईशान कोण।
स्वभाव : सौम्य-उग्र।
कार्य : अपवित्र स्थानों में निवास कर, रोग, समस्त प्रकार से सुख को हरने, दरिद्रता, शत्रुों का विनाश करने वाली।
शारीरिक वर्ण : काला।
साधना;-
हर प्रकार की द्ररिद्रता के नाश के लिए, तंत्र – मंत्र के लिए, जादू – टोना, बुरी नजर और भूत - प्रेत आदि समस्त भयों से मुक्ति के लिए, सभी रोगो के लिए, अभय प्रप्ति के लिए, साधना मे रक्षा के लिए, जीवन मे आने वाले हर प्रकार के दुखो को नष्ट करने वाली देवी है। इसे अलक्ष्मी भी कहा जाता है तो इसके निवारण के लिए धूमावती देवी की साधना करनी चाहिए ।मोती की माला या काले हकीक की माल का प्रयोग मंत्र जप में करें और कम से कम नौ माला मंत्र जप करें।
मंत्र- “ॐ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहा:”
माँ धूमावती मंत्र;-इस मंत्र का पुरश्चरण एक लाख जप है। जप का दशांश तिल मिश्रित घृत से होम करना चाहिए।
''ऊं धूं धूं धूमावती स्वाहा''
अन्य मंत्र;-
1- (7 Syllables Mantra) ॐ धूं धूमावती स्वाहा॥ 2-(8 Syllables Mantra) ॐ धूं धूं धूमावती स्वाहा॥ 3- (10 Syllables Mantra) ॐ धूं धूं धूं धूमावती स्वाहा॥ 4- (14 Syllables Mantra) ॐ धूं धूं धुर धुर धूमावती क्रों फट् स्वाहा॥ 5- (15 Syllables Mantra) ॐ धूं धूमावती देवदत्त धावति स्वाहा॥6-ॐ धूं धूं धूमावती ठ: ठ: स्वाहा 7-ॐ धूमावत्यै विद्महे संहारिण्यै धीमहि तन्नो धूमा प्रचोदयात्॥
......SHIVOHAM....