गोवर्धन पर्वत को योगेश्वर भगवान कृष्ण का साक्षात स्वरूप क्यों माना गया है?
क्यों मनाते हैं गोवर्धन पूजा?-
03 FACTS;-
1-दिवाली के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा का त्योहार मनाया जाता है. इस साल गोवर्धन पूजा 15 नवंबर यानी रविवार को है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार, कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा की जाती है । इस पर्व पर गोवर्धन और गाय माता की पूजा-अर्चना करने की परंपरा है। इस त्योहार पर गाय के गोबर से गोवर्धन पर्वत का चित्र बनाकर गोवर्धन भगवान की पूजा की जाती है।
2-गोवर्धन पर्वत को गिरिराज पर्वत भी कहा जाता है। पांच हजार साल पहले यह गोवर्धन पर्वत 30 हजार मीटर ऊंचा हुआ करता था और अब शायद 30 मीटर ही रह गया है। पुलस्त्य ऋषि के शाप के कारण यह पर्वत एक मुट्ठी रोज कम होता जा रहा है। इसी पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी चींटी अंगुली पर उठा लिया था। श्रीगोवर्धन पर्वत मथुरा से 22 किमी की दूरी पर स्थित है। 3-पौराणिक मान्यता अनुसार श्रीगिरिराजजी को पुलस्त्य ऋषि द्रौणाचल पर्वत से ब्रज में लाए थे। दूसरी मान्यता यह भी है कि जब रामसेतुबंध का कार्य चल रहा था तो हनुमानजी इस पर्वत को उत्तराखंड से ला रहे थे, लेकिन तभी देववाणी हुई की सेतुबंध का कार्य पूर्ण हो गया है, तो यह सुनकर हनुमानजी इस पर्वत को ब्रज में स्थापित कर दक्षिण की ओर पुन: लौट गए।
गोवर्धन पर्वत की महिमा;-
08 FACTS;-
1-हमारे सनातन धर्म में प्रकृति को परमात्मा से अभिन्न माना गया है इसलिए हमने प्रकृति की भी परमात्मा के रूप में ही आराधना की है। चाहे नदी हो, पर्वत हो या फिर वृक्ष, हमने सभी में परमात्मा के रूप का दर्शन किया है। परिक्रमा हमारी सनातन पूजा पद्धति का अहम हिस्सा हैं। हिन्दू धर्म में परिक्रमा जिसे 'प्रदक्षिणा' भी कहा जाता है- मंदिर, देव प्रतिमा, पवित्र स्थानों, नदियों व पर्वतों की भी होती है।
2-कलियुग में गोवर्धन पर्वत, जिन्हें गिरिराज भी कहा जाता है, की परिक्रमा बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई है। गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा श्रद्धालुओं के सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाली होती है। गोवर्धन पर्वत को योगेश्वर भगवान कृष्ण का साक्षात स्वरूप माना गया है।
3-गिरिराज गोवर्धन को प्रत्यक्ष देव की मान्यता प्राप्त है। इन्हीं गोवर्धन पर्वत को द्वापर युग में भगवान कृष्ण द्वारा इन्द्र का मद चूर करने के लिए एवं ब्रजवासियों को इन्द्र के कोप से बचाने के लिए 7 दिनों तक अपने वाम हाथ की कनिष्ठा अंगुली के नख पर धारण किया गया था। कलियुग में गिरिराज गोवर्धन को भगवान कृष्ण का ही साक्षात स्वरूप मानकर उनकी परिक्रमा की जाती है। गिरिराज गोवर्धन की यह परिक्रमा अनंत फलदायी व पुण्यप्रद होती है।4-गिरिराज गोवर्धन उत्तरप्रदेश के मथुरा जिले से लगभग 22 किमी की दूरी पर स्थित है। गिरिराज गोवर्धन पर्वत 21 किमी के परिक्षेत्र में फैला हुआ है। गिरिराज पर्वत की परिक्रमा 7 कोस अर्थात 21 किमी की होती है।
5-तीन हैं मुखारविंद-गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा वैसे तो कहीं से भी प्रारंभ की जा सकती है किंतु मान्यता अनुसार गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा प्रारंभ करने हेतु 3 मुखारविंद हैं। ये 3 मुखारविंद हैं-1. गोवर्धन दानघाटी, 2. जतीपुरा, 3. मानसी-गंगा।
6-इन 3 मुखारविंदों में से किसी एक मुखारविंद से परिक्रमा प्रारंभ कर परिक्रमा पूर्ण करने पर वापस उसी मुखारविंद पर पहुंचना होता है। किंतु सभी वैष्णव भक्तजन 'जतीपुरा-मुखारविंद' से ही अपनी परिक्रमा का प्रारंभ करते हैं, शेष सभी भक्त गोवर्धन दानघाटी व 'मानसी-गंगा' मुखारविंद से अपनी परिक्रमा प्रारंभ करते हैं। 'जतीपुरा-मुखारविंद' को श्रीनाथजी के विग्रह की मान्यता प्राप्त है।
7-गिरिराज गोवर्धन परिक्रमा में मार्ग में अनेक मठ, मंदिर, गांव व पवित्र कुंड इत्यादि आते हैं, जैसे आन्यौर, राधाकुंड, कुसुम सरोवर, गोवर्धन दानघाटी, जतीपुरा, मानसी-गंगा, गौड़ीय मठ एवं 'पूंछरी का लौठा' आदि। वैसे तो गिरिराज परिक्रमा वर्षभर अनवरत चलती रहती है किंतु विशेष पर्व जैसे पूर्णिमा, अधिकमास, कार्तिक मास, श्रावण मास में गोवर्धन परिक्रमा करने वाले श्रद्धालुओं की संख्या में आशातीत वृद्धि हो जाती है।
8-- वैष्णवजन मानते हैं कि गिरिराज पर्वत के ऊपर गोविंद जी का मंदिर है। मान्यता यह है कि भगवान श्रीकृष्ण अब भी यहां शयन करते हैं। मंदिर में उनका शयन कक्ष है। मंदिर में एक गुफा भी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह राजस्थान स्थित श्री नाथद्वारा तक जाती है।कहते हैं कि गोवर्धन महाराज की सिफारिश हो तो ठाकुरजी यानि के भगवान् श्री कृष्ण, भक्त की हर मनोकामना पूरी कर देते हैं।विदेशी आस्था को ब्रज वसुंधरा की तरफ मोड़ता गोवर्धन पर्वत श्रद्धालुओं को महंगी और लग्जरी गाड़ियों को छोड़कर नंगे पैर 21 किलोमीटर चलने को मजबूर कर देता है।
परिक्रमा;-
09 FACTS;- 1-गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा 21 कि.मी. की है, जिसे पूर्ण करने में 5 से 6 घंटे का समय लगता है। गोवर्धन की परिक्रमा पर आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या काफ़ी अधिक है। पूरे भारत से श्रद्धालु यहाँ पर आकर भगवान कृष्ण की कृपा प्राप्त करते हैं। विशेष पर्वों पर यहाँ पर आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या में भारी वृद्धि हो जाती है। यहाँ के प्रमुख पर्व गोवर्धन पूजा और गुरु पूर्णिमा हैं। इन दोनों पर्वों पर तो संख्या 5 लाख को भी पार कर जाती है। वैसे प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक यहाँ पर मेले का आयोजन किया जाता है। परिक्रमा करते हुए यात्री राधे-राधे बोलते हैं, जिसके कारण सारा वातावरण राधामय हो जाता है। वैसे परिक्रमा करने का कोई निश्चित समय नहीं है। परिक्रमा कभी भी की जा सकती है।
2-साधारण रूप से परिक्रमा करने में 5 से 6 घंटे का समय लगता है। परन्तु दण्डवत परिक्रमा करने वाले को एक हफ्ता लग जाता है। दण्डवत परिक्रमा करने वाले लेट कर परिक्रमा करते हैं और जहां पर विश्राम लेना होता है, वहां पर चिन्ह लगा देते हैं। विश्राम करने के पश्चात फिर चिह्न लगे स्थान से ही पुन: परिक्रमा प्रारंभ कर देते हैं। कुछ साधु 108 पत्थर के साथ परिक्रमा करते हैं। वह एक-एक कर अपने पत्थरों को आगे रखते रहते हैं और धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहते हैं। वे अपनी परिक्रमा को महीनो में पूरा कर पाते हैं। जिस स्थान पर रुक जाते हैं, वहीं से परिक्रमा प्रारंभ करते है। साधु परिक्रमा मार्ग में ही विश्राम करते हैं। वह किसी अन्य स्थान पर जाकर विश्राम नहीं कर सकते हैं। यह परिक्रमा का नियम है।
3-गोवर्द्धन में गोरोचन, धर्मरोचन, पापमोचन और ऋणमोचन- ये चार कुण्ड हैं। यहाँ सुरभि गाय, ऐरावत हाथी तथा एक शिला पर भगवान् का चरणचिह्न है।गोवर्धन पर्वत पर हैं कई कुंड और सरोवर दर्शनीय स्थल कुसुम सरोवर, चकलेश्वर महादेव, जतीपुरा, दानघाटी, पूंछरी का लौठा, मानसी गंगा, राधाकुण्ड, उद्धव कुण्ड आदि। 4-गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करते समय मध्य में गोवर्धन गाँव पड़ता है। उत्तर दिशा की ओऱ राधाकुण्ड गाँव और दक्षिण दिशा में पुछारी गाँव वसा है। गोवर्धन पर्वत में कई सारें मंदिर, आदि हैं। इन सब के अलावा यहां के प्रमुख स्थल हैं श्रीराधा-गोविंद मंदिर, रुद्र कुंड, श्याम कुंड, उद्धव कुंड, राधाकुंड, कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, आन्यौर, गोविन्द कुंड, पूंछरी का लोटा, दानघाटी, हनुमान का पंचमुखी रूप, केदारनाथ धाम, माता वैष्णो देवी मंदिर इत्यादि सुंदर स्थल हैं। सड़क के दोनों और गोवर्धन पर्वत और कई भव्य मंदिर हैं। 5-जतीपुरा मार्ग पर बना बिछुआ कुंड राधाकृष्ण की द्वापर युगीन लीला का विलुप्त प्राय: सा प्रमाण है। बिछुआ बिहारी मंदिर के सेवायत शास्त्री ने बताया, राधारानी कान्हा और गोपियों के साथ जल क्रीड़ा करते समय राधारानी के पैर की उंगली का बिछुआ गिर गया। कान्हा ने डुबकी लगाकर बिछुआ निकाला और रासलीला कर गोपियों को आनंदित किया। तभी से इस कुंड का नाम बिछुआ कुंड पड़ गया। 6-भगवन श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर धारण किया था। गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा 21 कि.मी. की है, जिसे पूर्ण करने में 5 से 6 घंटे का समय लगता है। गोवर्धन परिक्रमा का हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्त्व है। हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थस्थल गोवर्धन, मथुरा से 26 कि.मी. पश्चिम में डीग हाईवे पर स्थित है। कहा जाता है कि यहाँ के कण-कण में भगवान श्रीकृष्ण का वास है। यहाँ एक प्रसिद्ध पर्वत है, जिसे 'गोवर्धन पर्वत' अथवा 'गिरिराज' कहा जाता है। यह पर्वत छोटे-छोटे बालू पत्थरों से बना हुआ है। इस पर्वत की लंबाई 8 कि.मी. है। हिन्दू धर्म में मान्यता है कि इसकी परिक्रमा करने से मांगी गई सभी मुरादें पूरी हो जाती हैं।
7-यह आस्था की अनोखी मिसाल है। इसीलिए तिल-तिल घटते इस पहाड़ की लोग लोट-लोट कर परिक्रमा पूरी करते हैं। हर दिन सैकड़ों श्रद्धालु अपनी मनोकामनाओं को लेकर गोवर्धन आते हैं और 21 किलोमीटर के फेरे लगाते हैं। श्रद्धाभाव का आलम यह है कि साल भर श्रद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है। लोग सर्दी, गर्मी और बरसात की परवाह किए बिना ही 365 दिन यहाँ श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं।
8-श्री गिरिराज जी की सम्पूर्ण परिक्रमा सात कोस (21 किमी) की है। कोई भी भक्त अपनी सुविधा अनुसार गोवर्धन परिक्रमा को दो भागो में विभाजित कर दो दिन में लगाते है। इन दोनों परिक्रमा को छोटी व बड़ी परिक्रमा के नाम से जाना जाता है। परिक्रमा के मध्य में गोवर्धन गाँव पड़ता है। इसके उत्तर दिशा मे राधाकुण्ड गाँव एवं दक्षिण दिशा में पुछारी गाँव स्थित है।
9-गोवर्धन दानघाटी से आन्यौर, पुछरी, जतिपुरा होते हुए पुनः गोवर्धन आने की परिक्रमा बड़ी परिक्रमा कहलाती है। जो की चार कोस (12 किमी) की होती है। गोवर्धन से उद्धव कुण्ड होते हुए। राधाकुण्ड फिर यहाँ से पुनः वापस गोवर्धन आने वाली परिक्रमा, छोटी परिक्रमा कहलाती है। यह परिक्रमा 3 कोस (6 किमी) में सम्पन्न होती है। परिक्रमा भक्त लोग अपनी इच्छा अनुसार देते है। इनमें से सम्पूण परिक्रमा (सात कोस) एक ही दिन में समाप्त करना अच्छा है। सात कोसी गिरिराज परिक्रमा में बहुत सी छोटी-छोटी परिक्रमाये है। जैसे मानसी गंगा, राधा कुण्ड, गोविन्द कुण्ड आदि।
पौराणिक कथा; भगवान कृष्ण के पिता नंद महाराज ने एक बार अपने भाई उपनंद से पूछा कि- "गोवर्धन पर्वत वृंदावन की पवित्र धरती पर कैसे आया?" तब उपनंद ने कहा कि- "पांडवों के पिता पांडु ने भी यही प्रश्न अपने दादा भीष्म पितामह से पूछा था। इस प्रश्न के उत्तर में भीष्म पितामह ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है- एक दिन गोलोक वृंदावन में भगवान श्रीकृष्ण ने राधारानी से कहा कि- "जब हम ब्रजभूमि पर जन्म लेंगे, तब हम वहां पर अनेक लीलायें रचायेंगे। तब हमारे द्वारा रचाई गई लीला धरतीवासियों की स्मृतियों में हमेशा रहेगी। पर समय परिवर्तन के साथ यह सब चीजें ऐसी नहीं रह पायेंगी और नष्ट हो जायेंगी। परन्तु गोवर्धन पर्वत और यमुना नदी धरती के अन्त तक रहेंगी। यह सब कथा सुनकर राधारानी प्रसन्न हो गईं। अन्य पौराणिक कथानुसार;-
06 FACTS;- 1-गोवर्धन पर्वत के संबंध में कई कथाएं प्रचलित हैं। एक अन्य कथा के अनुसार- प्राचीन काल में पर्वतराज ओरोंकल की पत्नीे सलमनी द्वीप ने गोर्वधन नाम के पुत्र को जन्म दिया। गोर्वधन के जन्म के समय आसमान से सभी देवी-देवताओं ने फूलों की वर्षा की और अप्सराओं ने नृत्य किया। सभी ने मंगल गान और बधाई गीत गाये। सभी ने उसे गोलोक वृंदावन के मस्तिष्क पर अवतरित हुआ अनमोल रत्न कहा। कुछ समय पश्चात् सतयुग के प्रारंभ में परम ज्ञानी पुलस्त्य मुनि ने सलमनी द्वीप का भ्रमण किया। उन्होंने वहां पर गोवर्धन पर्वत को देखा, जो कि विसर्पी पौधे, फूल, नदियों, गुफ़ाओं और चू-चू करते हुए पक्षियों के कारण अति सुंदर लग रहा था। उसे देखकर उनके मन में कपट आ गया। वह ओरोंकल से मिलने के लिए आए, ओरोंकल ने उनका सम्मान किया और अपने आप को उनकी सेवा में सर्मपित कर दिया।
2-पुलस्त्य मुनि ने ओरोंकल से कहा कि वह कली से आये हैं, जो कि एक पवित्र तीर्थ स्थल है। यह गंगा के किनारे पर स्थित है। परन्तु वहां पर कोइ भी सुंदर पर्वत नहीं है। फिर उन्होंने कहा- "राजन तुम गोर्वधन को मुझे दे दो।" यह सुनने के बाद ओरोंकल ने मुनि से प्रार्थना की कि- "मान्यवर! यह ना मांगे। इसके बदले कुछ भी मांग लें, मैं दे दूंगा।" मुनि ने कहा- "राजन! तुम हमारी आज्ञा का उल्लंघन कर रहे हो।"
3-मुनि की यह बात सुनकर राजा रोने लगे। राजा गोवर्धन से अपनी जुदाई को सहन नहीं कर पा रहे थे। यह सब बातें गोवर्धन सुन रहे थे। उन्होंने कहा- "महर्षि! आप मुझे कली तक लेकर कैसे जाएंगे।" मुनि ने कहा- "मैं तुम्हें अपने दायें हाथ पर रख कर लेकर जाऊंगा।" गोवर्धन ने कहा- "मुनिराज मैं आपके साथ चलूंगा, परन्तु एक शर्त है।" गोवर्धन ने कहा कि- "आप मुझे ले जाते समय जहां भी रख देंगे, मैं वहीं पर स्थिर हो जाऊंगा। उससे आगे नहीं जाऊंगा।" मुनि गोवर्धन की शर्त मान गये। मुनि ने गोवर्धन को अपने दायें हाथ पर रख लिया और कली के लिये चल दिये। जब वह ब्रज की ओर से गुजरे, गोर्वधन को अनुभव हुआ कि ज़रूर यह कोई पवित्र स्थल है। उनके मन में विचार आया कि वह यहीं रूक जायें। परन्तु वह अपने वचन के कारण विवश थे।
4-तभी पुलस्त्य मुनि के अन्दर एक प्राकृतिक अनुभव आया और वह ध्यान मुद्रा में जाने लगे। इसके लिए उन्हें गोवर्धन को अपने हाथ से उतारना पड़ा। फिर क्या था, गोवर्धन वहीं पर स्थिर हो गये। जब मुनि ने अपनी साधना समाप्त की और वह गोवर्धन को अपने साथ ले जाने लगे, तब गोवर्धन ने अपनी शर्त याद दिलाई और कहा- "मुनिराज आप अपने वचनानुसार मुझे और आगे नहीं ले जा सकते।" यह वचन सुनकर मुनि क्रोधित हो गये और गोवर्धन को श्राप दिया और कहा- "तुम प्रतिदिन एक तिल नीचे घरती में धसते चले जाओगे।" इसी श्राप के कारण गोवर्धन एक-एक तिल नीचे धसते चले जा रहे हैं। जब सतयुग में गोवर्धन धरती पर आये, वे आठ योजन लम्बे, पांच योजन चौड़े और दो योजन ऊँचे थे। उनको मिले श्राप के कारण कहा जाता है कि कलयुग के 10 हज़ार वर्ष पूरे हो जाने पर गोवर्धन पूरी तरह से धरती में समाहित हो जायेंगे।
5-एक अन्य पौराणिक कथा भी गोवर्धन के बारे में प्रचलित है। इसके अनुसार गोवर्धन को त्रेता युग का माना जाता है। रावण से सीता को छुड़ाने के लिए राम को लंका पर चढ़ाई करना आवश्यक था। इसके लिए विशाल समुद्र को पार करने के लिए उन्हें] सेतु की आवश्यकता पड़ी। सेतु बनाने के लिये उन्हों ने अपनी वानर सेना को पत्थरों की खोज में भेजा। हनुमान पत्थर लेने के लिए हिमालय पर गये और वहां से गोवर्धन पर्वत को अपने साथ लाने लगे। तभी उन्हें सूचना मिली कि सेतु निर्माण का कार्य पूरा हो चुका है। उस समय हनुमान ब्रज से गुजर रहे थे, उन्होंने गोवर्धन को वहीं पर छोड़ दिया। 6-तब गोवर्धन पर्वत ने हनुमान से कहा कि- "भगवन मुझसे क्या गलती हो गई, जो आप मुझे नहीं ले जा रहे हैं।" यह कह कर गोवर्धन रोने लगे। तभी हनुमान ने भगवान राम का ध्यान किया और यह सब कथा विस्तार से कही। फिर उत्तर में भगवान राम ने कहा कि गोवर्धन से कहो कि जब हम द्वापर युग में कृष्ण के रूप में अवतार लेंगे तो सात दिन और सात रातों तक उसे अपनी अंगुली पर धारण करेंगे। तभी से गोवर्धन की पूजा मेरे रूप में होने लगेगी। यह वचन सुनकर गोवर्धन खुश हो गये और प्रभु की महिमा का गुणगान करने लगे।
दर्शनीय स्थल;- 22 FACTS;- 1-साक्षी गोपाल जी कान वाले बाबा मंदिर यहाँ आने वाले लोग गोवर्धन पर्वत पर बने गिरिराज मंदिर में पूजा करते हैं। इसके बाद परिक्रमा के लिए चल देते हैं। गोवर्धन पर्वत से यात्रा शुरू करने के बाद पहला मंदिर यही आता है। यहाँ पर साक्षी गोपाल जी की मूर्ति है। लोग यहाँ पर भगवान को नमन कर आगे बढ़ते हैं।
2-श्रीराधा-गोविंद मंदिर इस मंदिर का निर्माण भगवान श्रीकृष्ण के पोते वज्रनाभ ने करवाया था। यह मंदिर प्राचीन काल का बताया जाता है। यहाँ पर एक भव्य गोविंद कुंड भी है। पौराणिक कथाओं के अनुसार गिरिराज गोवर्धन की पूजा से इन्द्र ने कुपित होकर ऐसी भीषण वर्षा की, जिससे ब्रज डूबने लगा और तब बालकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाकर डूबते ब्रज को बचाया था। पराजित होकर इंद्र श्रीकृष्ण की शरण में आए और कामधेनु के दूध से उनका अभिषेक किया। गौ के बिन्दू् अर्थात् गौ दुग्ध से वह स्थल एक कुंड के रूप में बदल गया जो कि गोविंद कुंड के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यहाँ आज भी गौ खुर, बंशी आदि चिन्हों से अंकित गिरिशिलाएं हैं।
3-राजस्थान की सीमा गोवर्धन पर्वत की लंबाई करीब 08 किलोमीटर से ज्याादा है। इसका आधा हिस्सा उत्तर प्रदेश में आता है तो दूसरा हिस्सा राजस्थान में। दुर्गा माता मंदिर से आगे राजस्थास की सीमा शुरू हो जाती है। इस मंदिर की देवी को 'बॉर्डर वाली माता' भी कहा जाता है। परिक्रमा मार्ग पर यहाँ एक विशाल गेट बना हुआ है।
4-पूंछरी का लौठा मंदिर और छतरी;-
05 POINTS;- 1-'पूंछरी के लौठा' देते हैं साक्षी-गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा मार्ग में 'पूंछरी का लौठा' नामक स्थान आता है, जो राजस्थान में पड़ता है। यहां पहलवान को 'लौठा' कहा जाता है। यहां मंदिर में श्री हनुमानजी का विग्रह स्थापित है।परिक्रमा मार्ग पर 'पूंछरी लौठा' नामक जगह पर बेहद पुराना भवन है, इसे 'छतरी' कहते है। कहा जाता है कि यहाँ पर संत, साधु रहकर श्रीकृष्ण और गोवर्धन पर्वत का भजन करते हैं। यहाँ साधुओं का आना-जाना लगा रहता है। इसी जगह के पास एक मंदिर भी है।
2-प्राचीन कथा के अनुसार जब भगवान कृष्ण गोवर्धन पर्वत के इस क्षेत्र में गोचारण के लिए आते थे तब श्री हनुमानजी उनके साथ खेला करते थे। दोनों साथ-साथ भोजन व बातें किया करते थे। किंतु जब भगवान कृष्ण की लीला पूर्ण होकर उनके बैकुंठ गमन का समय आया तो हनुमानजी उदास हो गए और उनके विरह में दु:खी होकर कहने लगे कि आप तो अपने धाम जा रहे हो लेकिन मैं अकेला हो जाऊंगा, क्योंकि हनुमानजी अमर हैं।
3- इस गांव के पूंछरी नाम होने का प्रथम कारण यह है कि श्रीगोवर्धन का आकार एक मोर के सदृश है। श्रीराधाकुण्ड उनके जिह्वा एवं कृष्णकुण्ड चिवुक हैं, ललिता कुण्ड ललाट है। पूंछरी नाचते हुए मोर के पंखों-पूँछ के स्थान पर है। इसलिये इस ग्राम का नाम 'पूछँरी' प्रसिद्ध है।द्वितीय कारण यह है कि श्रीगिरिराजजी की आकृति गौरूप है। इस आकृति में भी श्रीराधाकुण्ड उनके जिहवा एवं ललिताकुण्ड ललाट हैं एवं पूँछ पूंछरी में हैं। इस कारण से भी इस गांव का नाम पूंछरी है। इस स्थान पर श्रीगिरिराजजी के चरण विराजित हैं।
4- श्रीलौठा जी से सम्बन्धित एक कथा प्रचलित है, --श्रीकृष्ण के श्रीलौठा जी नाम के एक मित्र थे। श्रीकृष्ण ने द्वारका जाते समय लौठा जी को अपने साथ चलने का अनुरोध किया। इस पर लौठाजी बोले- "हे प्रिय मित्र! मुझे ब्रज त्यागने की कोई इच्छा नहीं हैं, परन्तु तुम्हारे ब्रज त्यागने का मुझे अत्यन्त दु:ख है, अत: तुम्हारे पुन: ब्रजागमन होने तक मैं अन्न-जल छोड़कर प्राणों का त्याग यहीं कर दूंगा। जब तू यहाँ लौट आवेगा, तब मेरा नाम लौठा सार्थक होगा।"
5-श्रीकृष्ण ने कहा- "सखा! ठीक है मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि बिना अन्न-जल के तुम स्वस्थ और जीवित रहोगे।" तभी से श्रीलौठा जी पूंछरी में बिना खाये-पिये तपस्या कर रहे हैं- 'धनि-धनि पूंछरी के लौठा। अन्न खाय न पानी पीवै ऐसेई पड़ौ सिलौठा।' उसे विश्वास है कि श्रीकृष्णजी अवश्य यहाँ लौटकर आवेंगे, क्योंकि श्रीकृष्ण जी स्वयं वचन दे गये हैं। इसलिये इस स्थान पर श्रीलौठा जी का मन्दिर प्रतिष्ठित है।इसी मान्यता के अनुसार गिरिराज गोवर्धन की परिक्रमा करते समय प्रत्येक श्रद्धालु व भक्त यहां दर्शन कर अपनी साक्षी दिलाने आते हैं। 'पूंछरी के लौठा' के दर्शन व साक्षी के उपरांत प्रारंभ वाले मुखारविंद पर पहुंचकर परिक्रमा की समाप्ति की जाती है।
5-रहस्यमयी दिव्यता समेटे है गोवर्धन पर्वत का लुक लुक दाऊजी महाराज मन्दिर;-
04 POINTS;-
1-गोवर्धन रहस्य और दिव्यता का संगम गोवर्धन पर्वत आस्था के उच्चतम शिखर को छू रहा है। देश ही नहीं दुनिया भर के लोग इस दर पर नत मस्तक नजर आते हैं। ब्रज वसुंधरा की यह पावन स्थली भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं की साक्षी रही है। गिरिराज शिलाएं आज भी कान्हा की बाल लीलाओं का प्रमाण देती नजर आती है। इंद्र का मान मर्दन करने वाले कन्हैया की लीला का वर्णन आज भी गिरिराज की शिलाओं पर अंकित है।अगहन पूर्णिमा को दाऊजी की पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। दाऊबाबा को रबड़ी और भांग का भोग लगाया जाता है।दाऊजी के पूर्णिमा पर ब्रजवासी घर से पकवान बनाकर लाते हैं और प्रभु को भोग लगाते हैं।
2-गिरिराज धाम के कस्बा जतीपुरा के निकट इन्द्रपूजा स्थल के समीप ही गिरिराज पर्वत के ऊपर स्थित लुल लुक दाऊ जी का धार्मिक ग्रन्थों में वर्णन है कि जब भगवान श्री कृष्ण यहां गिरिराज पर्वत की तलहटी में गोपियों के संग रास रचाया करते थे तब उनके बड़े भाई दाऊ जी महाराज गिरिराज पर्वत की शिलाओं और कन्दराओं में लुक छिप कर रास लीलाओं का आनन्द लिया करते थे। इसी लिये लुक छिप कर रास देखने वाले दाऊ जी को यहां लुक लुक दाऊ जी के नाम से जाना जाता है और यहां के बृजवासी उन्हें बड़े भाई होने के कारण प्यार में दाऊ दादा कह कर बुलाते है।शेर के स्वरूप में आज भी बलभद्र गिरिराज शिलाओं में बैठकर अपनी सरकार चलाते प्रतीत होते हैं। खासकर ब्रजवासी अपनी पीड़ा दाऊ दादा के दरबार में सुनाते हैं और बलभद्र ने किसी को अपने दरबार से खाली हाथ नहीं लौटाया।
3-धार्मिक इतिहास का गुणगान करता पर्वत श्रीकृष्ण का साक्षात स्वरूप माना गया है। जतीपुरा के समीप लुक लुक दाऊजी मंदिर पर स्थित गिरिराज शिलाओं पर दर्जनों चिन्ह बने हैं, जो कि राधाकृष्ण की उपस्थिति का अहसास कराते हैं। बालपन में भगवान श्रीकृष्ण ने गिरिराज महाराज को ब्रज का देवता बताते हुये इंद्र की पूजा छुड़वा दी। जिससे देवों के राजा इंद्र ने कुपित होकर मेघ मालाओं को ब्रज बहाने का आदेश दिया। सात दिन सात रात तक मूसलाधार बरसात हुई लेकिन भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गिरिराज पर्वत को अपनी उंगली पर धारण करके ब्रज को डूबने से बचा लिया। इंद्र कान्हा के शरणागत हो गये।
4-उस समय इंद्र अपने साथ सुरभि गाय और ऐरावत हाथी और गोकर्ण घोड़ा साथ लाया। कान्हा माधुर्य रूप और तिरछी चितवन, मनमोहक मुस्कान देखकर गाय का मातृत्व जाग उठा, उसके थनों से दूध की धार
निकलने लगी।दूध की धार के चिन्ह आज भी गिरिराज पर्वत ने सहेज कर रखे है। गोकर्ण घोड़ा और ऐरावत हाथी और सुरभि गाय के उतरने पर उनके पैरों के निशान शिलाओं में दिखाई पड़ते हैं। बाल सखाओं के साथ माखन मिश्री खाकर उंगलियों के बने निशान दर्शनीय बने हुये हैं। जीवन साथी की
लंबी उम्र के लिए गिरिराज शिला से सिंदूर भी निकलता है मान्यता है कि इस सिंदूर को लगाने से जीवन साथी की उम्र बढ़ जाती है।
6-हरजी कुंड परिक्रमा मार्ग पर हरजी कुंड है। इस कुंड के संचालन समिति के अध्यक्ष के अनुसार हरजी श्रीकृष्ण के सखा थे। वह कृष्ण के साथ गाय चराने जाया करते थे। यहाँ पर दोनों की लीलाएं हुई थीं। इसी वजह से इस कुंड का बहुत महत्व है।
7-रुद्र कुंड यहाँ पर विशाल रुद्र कुंड है, जहां श्रीकृष्ण की लीला हो चुकी है। बाद में यहाँ पर अवैध कब्जा हो गया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर अवैध कब्जा हटा दिया गया। इसके बाद इस कुंड का निर्माण फिर से किया गया है।
8-राधाकृष्ण मंदिर और कलाधारी आश्रम यहाँ राधा-कृष्ण का मंदिर है। इस मंदिर में परंपरा के तहत आश्रम संत सेवा काफ़ी सालों से चल रहा है। करीब 70 साल पहले इसकी स्थापना हुई थी। हर दिन यहाँ पर 40 से 50 संत आते-जाते रहते हैं। यहाँ पर सौ गायें पाली गई हैं। हमेशा से यह आश्रम संतों की सेवा में लगा है।
9-ठाकुर बिहारीजी महाराज मंदिर इस मंदिर के महंत सुखदेव दास हरी वंशी के अनुसार यह मंदिर बेहद पुराना है, लेकिन इसके स्थापना काल के बारे में कुछ पता नहीं है। इसे मैथिल ब्राह्मण समाज के लोग चलाते हैं।
10-श्री लक्ष्मी वेंकटेश मंदिर, गऊघाट इस मंदिर की स्थापना वर्ष 1963 में दक्षिण भारतीय परंपरा से हुई थी। यह मानसी गंगा के बीच में स्थित है। इस मंदिर की पूजा की परंपरा दक्षिण भारतीय है।
11-चूतरटेका:-
02 POINTS;-
1-गिरिराजजी को गोवर्धन में स्थापित करने के बाद हनुमान जी ने यहीं पर आराम किया था तो इस स्थान का नाम चूतरटेका पड गया।बताया जाता है कि जब श्रीराम को लंका जाने के समय समुद्र पर पुल की आवश्यकता हुई तो पत्थर मंगवाए गए। उस वक्त हनुमान द्रोणगिरी पर्वत के पास गए। तब द्रोणगिरी ने अपने बेटे गिरिराज (गोवर्धन पर्वत) को इस कार्य के लिए भेजा। हनुमान गोवर्धन को लेकर समुद्र किनारे जा रहे थे तभी आदेश हुआ कि अब सेतु निर्माण हेतु पत्थरों की आवश्यकता नहीं है। इस बीच हनुमान ने गोवर्धन पर्वत को यहीं पर रख दिया। वे यहाँ बैठे भी थे। इसलिए इस जगह का नाम चूतरटेका हो गया।
2-दूसरी कथा के अनुसार भयंकर बारिश के दौरान ब्रज को बचाने के लिए श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठा लिया था। इसके बाद श्रीकृष्ण ने लोगों के साथ पर्वत की परिक्रमा की। इस दौरान श्रीकृष्ण यहीं पर बैठे थे। तब से इस जगह को चूतरटेका भी कहते हैं।यह बेहद पुराना मंदिर है, जिसे अब नया रूप दे दिया गया है। इसमें हनुमान, राम, लक्ष्मण, सीता और राधा-कृष्ण की प्रतिमाएं हैं।यहाँ पर बैठने का महत्व है।
12-हनुमान का पंचमुखी रूप मंदिर के साथ-साथ यहाँ पर आश्रम भी बना हुआ है और अखंड 'रामायण' का पाठ चलता रहता है। मान्यता के अनुससार यह मंदिर 25 वर्ष पहले बनाया गया था।
13-केदारनाथ धाम माता वैष्णो देवी मंदिर इस मंदिर का निर्माण केदारनाथ नामक व्यक्ति ने करवाया था। 50 साल पहले गौ सेवा और धर्मार्थ के लिए इस मंदिर की स्थापना की गई थी।
14-उद्धव कुण्ड, गोवर्धन;-
03 POINTS;- 1-उद्धव कुण्ड भगवान श्रीकृष्ण से सम्बंधित ब्रज का प्रसिद्ध धार्मिक स्थान है। यह गोवर्धन में कुसुम सरोवर के ठीक पश्चिम में परिक्रमा मार्ग पर दाहिनी ओर स्थित है।उद्धव जी ने द्वारका की महिषियों को यहीं पर सांत्वना दी थी। स्कन्द पुराण के श्रीमद्भागवत माहात्म्य प्रसंग में इसका बड़ा ही रोचक वर्णन है...इस कुण्ड का बड़ा ही सुंदर वर्णन किया गया है।। वज्रनाभ महाराज ने शाण्डिल्य आदि ऋषियों के आनुगत्य में यहाँ उद्धव कुण्ड का प्रकाश किया। उद्धव जी यहाँ पास में ही गोपियों की चरणधूलि में अभिषिक्त होने के लिए तृण-गुल्म के रूप में सर्वदा निवास करते हैं।
2-कृष्णलीला अप्रकट होने पर कृष्ण की द्वारका वाली पटरानियाँ बड़ी दु:खी थीं।एक बार
वज्रनाभ उनको साथ लेकर यहाँ उपस्थित हुए। बड़े ज़ोरों से संकीर्तन आरम्भ हुआ। देखते-देखते उस महासंकीर्तन में कृष्ण के सभी परिकर क्रमश: आविर्भूत होने लगे। अर्जुन मृदंग वादन करते हुए नृत्य करने लगे। इस प्रकार द्वारका के सभी परिकर उस संकीर्तन मण्डल में नृत्य और कीर्तन करने लगे।
3-हठात महाभागवत उद्धव वहाँ के तृण-गुल्म से आविर्भूत होकर नृत्य में विभोर हो गये। फिर भला कृष्ण कैसे रह सकते थे? राधिका आदि सखियों के साथ वे भी उस महासंकीर्तन रास में आविर्भूत हो गये। थोड़ी देर के बाद ही वे अन्तर्धान हो गये। बताया जाता है कि यहाँ पर उद्धव जी महाराज कुंड में विराजमान हैं।
15-विट्ठल नामदेव धाम परिक्रमा मार्ग पर विट्ठल नामदेव मंदिर है। भक्त यहाँ पर आकर भगवान को नमन करते हैं और फिर आगे बढ़ते हैं।
राधा कुंड
16-राधाकुण्ड, गोवर्धन;-
03 POINTS;- 1-इस कुंड को राधा ने अपने कंगन से खोदकर बनाया था। मान्यता है कि राधाकुंड और श्यामकुंड में नहाने से गौ हत्या का पाप खत्म हो जाता है। यहाँ के पुजारियों के अनुसार, जब श्रीकृष्ण की हत्या करने की कंस की सारी योजना विफल होती जा रही थी, तब असुर अरिष्टासुर को भेजा गया। उस समय कृष्ण गायों को चराने के लिए गोवर्धन पर्वत पर गए हुए थे। यहाँ पहुंचने के बाद अरिष्टासुर ने बैल का रूप धारण किया और गायों के साथ चलने लगा। इसी दौरान श्रीकृष्ण ने उसको पहचान लिया और उसका वध कर दिया।
2-इसके बाद वह राधा के पास गए और उन्हें छू लिया। इस बात से राधारानी बेहद नाराज़ हुईं। उन्होंने कहा कि गौ हत्या करने के बाद छूकर मुझे भी पाप का भागीदार बना दिया। इस घटना के बाद राधारानी ने कंगन से खोदकर कुंड की स्थापना की। उन्होंने मानसी गंगा से पानी लेकर इसे भरा। इसके बाद सभी तीर्थों को कुंड में आने की अनुमति हुई।
3-यहाँ राधारानी और उनकी सहेलियों ने स्नान कर गौ हत्या का पाप धोया।मन्नतें पूरी होने का विश्वास लोगों को सात समंदर पार से तलहटी खींच लाता है। अमेरिका, लंदन, रूस आदि विदेशी चिकित्सा से मायूस होकर मातृत्व सुख के लिए राधाकुंड में अहोई अष्टमी के दिन मध्र्य रात्रि पर स्नान कर सूनी गोद भरते नजर आते हैं।
17-श्याम कुंड श्रीकृष्ण ने गौ हत्या का पाप खत्म करने के लिए छड़ी से कुंड बनाया। उन्होंने सभी तीर्थ को उसमें विराजमान किया और इसमें स्नान भी किया। यहाँ कार्तिक महीने की कृष्णाष्टमी के दिन स्नान करने का अलग महत्व है।
18-कुसुम सरोवर;-
02 POINTS;- 1-राधाकुंड से तीन मील की दूरी पर गोवर्द्धन पर्वत है। यहीं कुसुम सरोवर है, जो बहुत सुंदर बना हुआ है।मंत्र मुग्ध कर देता है भव्य कुसम सरोवर। यहां पहले वज्रनाभ के हरिदेवजी जी स्थापित थे। लोग बताते हैं कि औरंगजेब काल में वह यहां से चले गए। उसके बाद उसी स्थान पर दूसरी मूर्ति प्रतिष्ठित की गई।
2-यहाँ पर कुसुम वन है। श्रीकृष्ण द्वारा राधा जी की वेणी गूंथी जाने के स्थल के रूप में यह प्रसिद्ध है। यह सरोवर प्राचीन है। पहले यह कच्चा कुंड था। इसे ओरछा के नरेश राजा वीरसिंह जूदेव ने वर्ष 1819 में पक्का करवाया था। इसके बाद वर्ष 1723 में भरतपुर के महाराजा सूरजमल ने इसे कलात्मक स्वरूप प्रदान किया। उनके पुत्र महाराजा जवाहर सिंह ने वर्ष 1767 में यहाँ पर कई छतरियों का निर्माण करवाया था।
19-श्याम कुटी यह स्थल प्राचीन काल का है। यहाँ पर श्रीकृष्ण ने लीलाएं की थीं। वर्तमान में यहाँ का नजारा उजड़ा-सा लगता है। अब यहाँ पर वृक्षारोपण और सौंदर्यीकरण का काम भी करवाया गया है।
20-मानसी गंगा मंदिर इस मंदिर में मानसी गंगा की प्रतिमा है और श्रीकृष्ण के स्वरूपों की भी पूजा होती है। मान्यता है कि जब गोवर्धन पर्वत का अभिषेक हो रहा था, उस वक्त गंगा के लिए पानी की आवश्यककता हुई। तब सभी चिंता में पड़ गए कि इतना गंगाजल कैसे लाया जाए। इस दौरान भगवान ने अपने मन से गंगा को गोवर्धन पर्वत पर उतार दिया। इसके बाद से ही इसे मानसी गंगा कहते हैं। पहले यह छह किलोमीटर लंबी गंगा हुआ करती थी, लेकिन अब यह सिमट कर कुछ ही दूर में रह गई है।
21-मंदिर गिरिराज जी यहाँ पर गिरिराज (गोवर्धन पर्वत) का मंदिर है। इसमें निरंतर पूजा चलती रहती है। मंदिर के अंदर एक विशाल कुंड बना हुआ है, जिसमें गोवर्धन पर्वत का स्वरूप रखा हुआ है।
22-दानघाटी;-
मथुरा से दीघ को जाने वाली सड़क गोवर्धन पार करके जहां पर निकलती है, वह स्थान दानघाटी कहलाता है। यहां भगवान श्रीकृष्ण दान लिया करते थे। इसी के पास 20 कोस के अंतर्गत वृंदावन था और आसपास यमुना बहती थीं।इस स्थान पर आकर भक्तों की परिक्रमा समाप्त होती है। यहाँ पर एक विशाल गेट बना हुआ है। परिक्रमा पूरी कर लोग खुद को धन्य मानते हैं।
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गिरिराज जी की चालीसा;-
दोहा बन्दहुँ वीणा वादिनी, धरि गणपति को ध्यान । महाशक्ति राधा, सहित कृष्ण करौ कल्याण । सुमिरन करि सब देवगण, गुरु पितु बारम्बार । बरनौ श्रीगिरिराज यश, निज मति के अनुसार । चौपाई;- जय हो जय बंदित गिरिराजा, ब्रज मण्डल के श्री महाराजा । विष्णु रूप तुम हो अवतारी, सुन्दरता पै जग बलिहारी । स्वर्ण शिखर अति शोभा पावें, सुर मुनि गण दरशन कूं आवें । शांत कंदरा स्वर्ग समाना, जहाँ तपस्वी धरते ध्याना । द्रोणगिरि के तुम युवराजा, भक्तन के साधौ हौ काजा । मुनि पुलस्त्य जी के मन भाये, जोर विनय कर तुम कूं लाये । मुनिवर संघ जब ब्रज में आये, लखि ब्रजभूमि यहाँ ठहराये । विष्णु धाम गौलोक सुहावन, यमुना गोवर्धन वृन्दावन । देख देव मन में ललचाये, बास करन बहुत रूप बनाये । कोउ बानर कोउ मृग के रूपा, कोउ वृक्ष कोउ लता स्वरूपा । आनन्द लें गोलोक धाम के, परम उपासक रूप नाम के । द्वापर अंत भये अवतारी, कृष्णचन्द्र आनन्द मुरारी । महिमा तुम्हरी कृष्ण बखानी, पूजा करिबे की मन ठानी । ब्रजवासी सब के लिये बुलाई, गोवर्धन पूजा करवाई । पूजन कूं व्यंजन बनवाये, ब्रजवासी घर घर ते लाये । ग्वाल बाल मिलि पूजा कीनी, सहस भुजा तुमने कर लीनी । स्वयं प्रकट हो कृष्ण पूजा में, मांग मांग के भोजन पावें । लखि नर नारि मन हरषावें, जै जै जै गिरिवर गुण गावें । देवराज मन में रिसियाए, नष्ट करन ब्रज मेघ बुलाए । छाया कर ब्रज लियौ बचाई, एकउ बूंद न नीचे आई । सात दिवस भई बरसा भारी, थके मेघ भारी जल धारी । कृष्णचन्द्र ने नख पै धारे, नमो नमो ब्रज के रखवारे । करि अभिमान थके सुरसाई, क्षमा मांग पुनि अस्तुति गाई । त्राहि माम मैं शरण तिहारी, क्षमा करो प्रभु चूक हमारी । बार बार बिनती अति कीनी, सात कोस परिकम्मा दीनी । संग सुरभि ऐरावत लाये, हाथ जोड़ कर भेंट गहाए । अभय दान पा इन्द्र सिहाये, करि प्रणाम निज लोक सिधाये । जो यह कथा सुनैं चित लावें, अन्त समय सुरपति पद पावैं । गोवर्धन है नाम तिहारौ, करते भक्तन कौ निस्तारौ । जो नर तुम्हरे दर्शन पावें, तिनके दुख दूर ह्वै जावे । कुण्डन में जो करें आचमन, धन्य धन्य वह मानव जीवन । मानसी गंगा में जो नहावे, सीधे स्वर्ग लोक कूं जावें । दूध चढ़ा जो भोग लगावें, आधि व्याधि तेहि पास न आवें । जल फल तुलसी पत्र चढ़ावें, मन वांछित फल निश्चय पावें । जो नर देत दूध की धारा, भरौ रहे ताकौ भण्डारा । करें जागरण जो नर कोई, दुख दरिद्र भय ताहि न होई । श्याम शिलामय निज जन त्राता, भक्ति मुक्ति सरबस के दाता । पुत्रहीन जो तुम कूं ध्यावें, ताकूं पुत्र प्राप्ति ह्वै जावें । दण्डौती परिकम्मा करहीं, ते सहजहिं भवसागर तरहीं । कलि में तुम सक देव न दूजा, सुर नर मुनि सब करते पूजा । दोहा जो यह चालीसा पढ़ै, सुनै शुद्ध चित्त लाय । सत्य सत्य यह सत्य है, गिरिवर करै सहाय । क्षमा करहुँ अपराध मम, त्राहि माम् गिरिराज । श्याम बिहारी शरण में, गोवर्धन महाराज ।
......राधे राधे....