क्या काशी ध्यानी के लिए एक कान्टेक्ट फील्ड है? क्या है काशी के रहस्य और महिमा?
क्या काशी ध्यानी के लिए एक कान्टेक्ट फील्ड है?-
06 FACTS;-
1-कुछ तीर्थ तो बिलकुल सनातन है ..जैसे काशी। सच बात यह है, पृथ्वी पर कोई ऐसा समय नहीं जब काशी तीर्थ नहीं था। वह एक अर्थ में बिलकुल सनातन है।पुराने तीर्थ का मूल्य बढ़ जाता है क्योंकि वहां कितने लोग मुक्त हुए, कितने लोग शांत हुए है। वहां कितने लोगों ने पवित्रता को अनुभव किया है, वहां कितने लोगों के पाप झड़ गए—वह एक लंबी बड़ी धारा/ सजेशन है। वह सुझाव गहरा होता चला जाता है। वह सरल चित में जाकर निष्ठा बन जाएगी। वह निष्ठा बन जाए तो तीर्थ कारगर हो जाता हे। वह निष्ठा न बन पाए तो तीर्थ बेकार हो जाता है। तीर्थ आपके बिना कुछ नहीं कर सकता। आपका कोऔपरेशन चाहिए। लेकिन आप भी कोऔपरेशन तभी देते है कि जब तीर्थ की एक धारा हो एक इतिहास हो।
2-शास्त्र कहते है, काशी इस जमीन का हिस्सा नहीं है। इस पृथ्वी का हिस्सा नहीं है। वह अलग ही टुकडा है। वह शिव की नगरी अलग ही है। वह सनातन है। सब नगर बनेंगे, बिगड़े गे काशी बनी रहेगी। व्यक्ति तो खो जाते है—बुद्ध काशी आये, जैनों के तीर्थकर काशी में पैदा हुए और खो गए। काशी ने सब देखा—शंकराचार्य आए, खो गए। कबीर आए खो गए। काशी ने तीर्थ देखे अवतार देखे। संत देखे सब खो गए। उनका तो कहीं कोई निशान नहीं रह जाएगा। लेकिन काशी बनी रहेगी। वह उन सब की पवित्रता को , उन सारे लोगों के पुण्य को उन सारे लोगों की जीवन धारा को उनकी सब सुगंध को आत्मसात कर लेती है और बनी रहती हे।
3-काशी की यह स्थिति निश्चित ही पृथ्वी से काशी को अलग करती है। यह इसका अपना एक शाश्वत रूप हो गया, इस नगरी का अपना व्यक्तित्व हो गया। इस नगरी पर से बुद्ध गूजरें, इसकी गलियों में बैठकर कबीर ने चर्चा की है। यह सब कहानी हो गयी। वह सब स्वप्नवत् हो गया। पर यह नगरी उन सबको आत्मसात किए है। और अगर कभी कोई निष्ठा से इस नगरी में प्रवेश करे तो वह फिर से बुद्ध को चलता हुआ देख सकता है वह फिर से पाश्रर्वनाथ को ,कबीर को ,तुलसीदास को गुजरते हुए देख सकता है।
4-अगर कोई निष्ठा से इस काशी के निकट जाए तो यह काशी लंदन या बम्बई जैसी। साधारण नगरी न रह जाएगी ..एक असाधारण चिन्मय रूप ले लेगी। और इसकी चिन्मयता बड़ी पुरातन है। इतिहास खो जाते है ,सभ्यताऐं बनती है ,आती है और चली जाती है। और यह अपनी एक अंत: धारा करने के प्रयोजन है।एक अंत धारा संजोए हुए चलती है तब आप भी हिस्सा हो जाते है। इसके रास्ते पर खड़ा होना,इसके घाट पर स्नान करना इसमें बैठकर ध्यान करने के प्रयोजन है। आप भी हिस्सा हो गए है एक अंत: धारा के। यह भरोसा कि मैं ही सब कुछ कर लूंगा..खतरनाक है। प्रभु का सहारा लिया जा सकता है, अनेक रूपों में ..उसके तीर्थ में, उसके मंदिरों में ..। सहारे के लिए ही यह सारा आयोजन है।
5-जब आप तीर्थ पर जाएंगे तो एक तीर्थ वह काशी है जो दिखाई पड़ती है। टेशन से है। काशी के दो रूप है।एक तो वह काशी जहां आप ट्रेन पर से उतर कर जाएँगे। एक तो मृण्मय रूप है। यह जो दिखाई पड़ रहा है। जहां कोई भी सैलानी जाएगा और घूमकर लौट आएगा। और एक उसका चिन्मय रूप है।वहां वहीं पहुंच जाएगा जो अंतरस्थ होगा, जो ध्यान में प्रवेश करेगा, तो उसके लिए काशी बिलकुल और हो जाएगी।
6-काशी के सौंदर्य का इतना वर्णन है, और यह काशी जिसको हम देखते है, तो फिर लगता है कि वह कवि की कल्पना है। इससे ज्यादा गंदी कोई जगह नहीं है।परन्तु नहीं, वह काशी भी है और एक कान्टेक्ट फील्ड है ...यह काशी, जहां इस काशी और उस काशी का मिलन होता है।काशी जैसा कोई नगर नहीं आया है इस जगत में ..।जो यात्री सिर्फ ट्रेन में
बैठकर गया है, वह इस काशी से वापस लौटकर आ जाएगा।परन्तु वह, जो ध्यान में भी बैठकर गया है वह उस काशी से भी संपर्क साध पाता है। तब इसी काशी के निर्जन घाट पर उनसे भी मिलना हो जाता है.. जिनसे मिलने की आप कभी कल्पना भी नहीं कर सकते ।
भगवान शिव की काशी;-
06 FACTS;-
1-तैंतीस करोड़ देवताओं में केवल भगवान शिव ही ऐसे देवता हैं, जिनकी सर्वत्र पूजा होती है। देवता, राक्षस, भूत, किन्नर, मुनि एवं मनुष्य सभी इनके उपासक हैं। इनकी प्रतिष्ठा और महत्ता का आधार इनके चरित्र की उदारता है। इनका चरित्र सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की त्रिवेणी है, जो सर्वदा लोक कल्याण का उपादान बनी रहती है।
2-भगवान शिव का चरित्र और व्यक्तित्व बहुपक्षीय है। एक ओर वे सकल कला और गुणों से युक्त परमब्रह्म हैं, सभी ईश्वरों के भी ईश्वर है, तो दूसरी ओर वे योगिराज हैं। कामदेव पर उनकी विजय की कथा वस्तुतः एक योगी की काम, क्रोध, मद, लोभ आदि सभी विकारों पर विजय की कथा है। प्राणायाम, ध्यान, प्रत्याहार धारणा और स्मरण, इन पाँच तत्वों से निर्मित उनका माहेश्वर योग,योगविद्या का गौरव माना जाता रहा है। वे अनंत काल से एक आदर्श योगी के रुप में प्रेरणा के स्रोत रहे हैं।
3-एकता की दृष्टि से शिव का महत्व काफी बढ़ जाता है। देश के सभी क्षेत्रों में उनके मंदिरों में भक्तों की अपार भीड़ उनके प्रति अपार श्रद्धा को व्यक्त करती है। अमरनाथ, पशुपतिनाथ तथा कामाख्या में स्थापित शिव मंदिर एकता के प्रतीक स्वरुप आधार स्तंभ बने हुए हैं। देवाधिदेव महादेव विश्वनाथ की नगरी काशी है। काश ( प्रकाश ) से उद्भूत काशी महामाया की क्रीड़ास्थली है। शिव- शक्ति सायुज्य की प्रकाश किरण कला कहलाई।
4-सत्य यह है कि शिव ही सौंदर्य है।प्रकृति सुंदरी विलासमयी हो शिवत्व प्राप्त पुरुष की प्रमोदिनी हुई और यहीं से सृष्टि की सर्जना प्रारंभ हुई। काशी के श्री विश्वनाथ मंदिर में ऐसा ही एक स्वयंजात ज्योतिस्वरुप लिंग है। इसके ही दर्शन और अर्चन से भक्त लोग अपनी समस्त कामनाओं की पूर्ति के साथ- साथ मोक्ष जैसा अलभ्य फल प्राप्त करने हेतु काशी आते हैं।
5-माँ अन्नापूर्णा (पार्वती) के साथ भगवान शिव अपने त्रिशूल पर काशी को धारण करते हैं और कल्प के प्रारम्भ में अर्थात सृष्टि रचना के प्रारम्भ में उसे त्रिशूल से पुन: भूतल पर उतार देते हैं। शिव महापुराण में श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा कुछ इस प्रकार बतायी गई है–''परमेश्वर शिव ने माँ पार्वती के पूछने पर स्वयं अपने मुँह से श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा कही थी। उन्होंने कहा कि वाराणसी पुरी हमेशा के लिए गुह्यतम अर्थात अत्यन्त रहस्यात्मक है तथा सभी प्रकार के जीवों की मुक्ति का कारण है। इस पवित्र क्षेत्र में सिद्धगण शिव-आराधना का व्रत लेकर अनेक स्वरूप बनाकर संयमपूर्वक मेरे लोक की प्राप्ति हेतु महायोग का नाम 'पाशुपत योग' है। पाशुपतयोग भुक्ति और मुक्ति दोनों प्रकार का फल प्रदान करता है।''
6-भगवान शिव ने कहा कि ''मुझे काशी पुरी में रहना सबसे अच्छा लगता है,इसलिए मैं सब कुछ छोड़कर इसी पुरी में निवास करता हूँ। जो कोई भी मेरा भक्त है और जो कोई मेरे शिवतत्त्व का ज्ञानी है, ऐसे दोनों प्रकार के लोग मोक्षपद के भागी बनते हैं, अर्थात उन्हें मुक्ति अवश्य प्राप्त होती है। इस प्रकार के लोगों को न तो तीर्थ की अपेक्षा रहती है और न विहित अविहित कर्मों का प्रतिबन्ध। इसका तात्पर्य यह है कि उक्त दोनों प्रकार के लोगों को जीवन्मुक्त मानना चाहिए।वे जहाँ भी मरते हैं,उन्हें तत्काल मुक्ति प्राप्त होती है।''इस प्रकार द्वादश ज्योतिर्लिंग में श्री विश्वेश्वर भगवान विश्वनाथ का शिवलिंग सर्वाधिक प्रभावशाली तथा अद्भुत शक्तिसम्पन्न लगता है।काशी तीनों लोकों में न्यारी नगरी है।इसे आनन्दवन,आनन्दकानन, अविमुक्त क्षेत्र तथा काशी आदि अनेक नामों से स्मरण किया गया है।
NOTE;-
वास्तव में काशी पुरी अनाहत चक्र का प्रतीक है जो भगवान शिव के त्रिशूल पर विराजती है। इस जगत् का प्रलय होने पर भी जीवात्मा /आत्मा अथार्त अविमुक्त काशी क्षेत्र का नाश नहीं होता है। ब्रह्मा जी जब नई सृष्टि प्रारम्भ करते हैं, उस समय भगवान शिव काशी को अथार्त जीवात्मा/ आत्मा को पुन: भूतल पर स्थापित कर देते हैं।
काशी का इतिहास;-
09 FACTS;-
1-काशी नगरी वर्तमान वाराणसी शहर में स्थित पौराणिक नगरी है। इसे संसार के सबसे पुरानी नगरों में माना जाता है। भारत की यह जगत्प्रसिद्ध प्राचीन नगरी गंगा के वाम (उत्तर) तट पर उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी कोने में वरुणा और असी नदियों के गंगा संगमों के बीच बसी हुई है। इस स्थान पर गंगा ने प्राय: चार मील का दक्षिण से उत्तर की ओर घुमाव लिया है ।
2-गंगा को त्रिपथगा भी कहा जाता है। त्रिपथगा यानी तीन रास्तों की और जाने वाली। यह शिव की जटाओं से धरती, आकाश और पाताल की तरफ गमन करती है।वाराणसी में गंगा एक वलय लेती है, जिस वजह से ये यहां उत्तरवाहिनी कहलाती है।
3-गंगोत्री में गंगा उत्तर की ओर बहती है. इसलिए इसका नाम गंगोत्री (गंगा उत्तरी) है।...पूरे भारतवर्ष में मात्र तीन जगह(गंगोत्री, हरिद्वार , व काशी) है जिसमे उत्तर वाहिनी /उत्तरायण (उत्तर दिशा की ओर बहना)
गंगा है।भगीरथ जब गंगा को लेकर चले तो बिना काशी आए वो शूलटंकेश्वर (30 किमी दूर) निकल गए थे। गंगा के आग्रह पर भगीरथ को यहीं से रथ पूरब से उत्तर की ओर मोड़ना पड़ा था। गंगा ने बाबा विश्वनाथ का दर्शन किया तब आगे बढ़ीं।
4-गंगा का आरम्भ अलकनन्दा व भागीरथी नदियों से होता है। गंगा की प्रधान शाखा भागीरथी है जो हिमालय के गोमुख नामक स्थान पर गंगोत्री हिमनद से निकलती है। यहाँ गंगा जी को समर्पित एक मंदिर भी है। भागीरथी व अलकनन्दा देव प्रयाग संगम करती है जिसके पश्चात वह गंगा के रुप में पहचानी जाती है। इस प्रकार 200 कि.मी. का संकरा पहाड़ी रास्ता तय करके गंगा नदी ऋषिकेश होते हुए प्रथम बार मैदानों का स्पर्श हरिद्वार में करती है। हरिद्वार गंगा जी के अवतरण का पहला मैदानी तीर्थ स्थल है।
5-विश्व के सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में काशी का उल्लेख मिलता है - 'काशिरित्ते.. आप इवकाशिनासंगृभीता:'। पुराणों के अनुसार यह आद्य वैष्णव स्थान है। पहले यह भगवान विष्णु (माधव) की पुरी थी। जहां श्रीहरिके आनंदाश्रु गिरे थे, वहां बिंदुसरोवर बन गया और प्रभु यहां बिंधुमाधव के नाम से प्रतिष्ठित हुए।
6-ऐसी एक कथा है कि जब भगवान शंकर ने क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया।बारह वर्षों
तक अनेक तीर्थों में भ्रमण करने पर भी वह सिर उन से अलग नहीं हुआ। किंतु जैसे ही उन्होंने काशी की सीमा में प्रवेश किया, ब्रह्महत्या ने उनका पीछा छोड़ दिया और वह कपाल भी अलग हो गया। जहां यह घटना घटी, वह स्थान कपालमोचन-तीर्थ कहलाया। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने इस पावन पुरी को विष्णुजी से अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया। तब से काशी उनका निवास-स्थान बन गया।
7-हरिवंशपुराण के अनुसार काशी को बसानेवाले भरतवंशी राजा 'काश' थे। कुछ विद्वानों के मत में काशी वैदिक काल से भी पूर्व की नगरी है। शिव की उपासना का प्राचीनतम केंद्र होने के कारण ही इस धारणा का जन्म हुआ जान पड़ता है; क्योंकि सामान्य रूप से शिवोपासना को पूर्ववैदिककालीन माना जाता है।महाभारत में काशी जनपद के अनेक
उल्लेख हैं और काशिराज की कन्याओं के भीष्म द्वारा अपहरण की कथा तो सर्वविदित ही है।
8-गौतम बुद्ध के समय में काशी राज्य कोसल जनपद के अंतर्गत था। कोसल की राजकुमारी का मगधराज बिंबिसार के साथ विवाह होने के समय काशी को दहेज में दे दिया गया था।बुद्ध ने अपना सर्वप्रथम उपदेश वाराणसी के संनिकट सारनाथ में दिया था जिससे उसके तत्कालीन धार्मिक तथा सांस्कृतिक महत्व का पता चलता है।
9-नवीं शताब्दी ई. में जगद्गुरु शंकराचार्य ने अपने विद्याप्रचार से काशी को भारतीय संस्कृति तथा नवोदित आर्य धर्म का सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्र बना दिया। काशी की यह सांस्कृतिक परंपरा आज तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है।किंतु शीघ्र ही इतिहास के अनेक उलट-फेरों के देखनेवाली इस नगरी को औरंगजेब की धर्मांधता का शिकार बनना पड़ा।
काशी का श्री विश्वनाथ मंदिर ;-
09 FACTS;-
1-काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर पिछले कई हजारों वर्षों से वाराणसी में स्थित है। काशी विश्वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्ट स्थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, सन्त एकनाथ रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, गोस्वामी तुलसीदास सभी का आगमन हुआ हैं।
2-ऐसी मान्यता है कि एक भक्त को भगवान शिव ने सपने में दर्शन देकर कहा था कि गंगा स्नान के बाद उसे दो शिवलिंग मिलेंगे और जब वो उन दोनों शिवलिंगों को जोड़कर उन्हें स्थापित करेगा तो शिव और शक्ति के दिव्य शिवलिंग की स्थापना होगी और तभी से भगवान शिव यहां मां पार्वती के साथ विराजमान हैं| 3-वाराणसी का श्री विश्वनाथ मंदिर कब अस्तित्व में आया, यह कहना मुश्किल है। इतिहासकारों का कहना है कि यहाँ पहला विश्वनाथ मंदिर ईसा से १९४० वर्ष पूर्व बना था। पिछले दो हजार वर्षों में इसके स्थल में कई बार परिवर्तन हुए। अकबर के शासन काल में पण्डित नारायण टोडरमल की सहायता से ज्ञानवापी में ही, जो भव्य मंदिर बनवाया था, उसे औरंगजेब ने ध्वस्त कर उसके स्थान पर मस्जिद बनवा दी थी। औरंगजेब के आक्रमण के समय पण्डितों ने शिवलिंग को ज्ञानवापी के एक कुँए में डाल दिया था।
4-औरंगजेब के जाने के बाद उसे वर्तमान विश्वनाथ गली में स्थापित किया गया। बाद में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने उसी शिवलिंग के ऊपर कीमती लाल पत्थरों से 51 फुट ऊँचा भव्य मंदिर बनवाया और इसके बाद ही सन् १८३९ ई. में सिख जाति के मुकुटमणि पंजाब केशरी स्वर्गीय महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर के ऊपरी हिस्से को स्वर्ण मण्डित ( लगभग 875 सेर शुद्ध सोना ) कराके मंदिर की शोभा बढ़ा दी।
5-इसके बाद जिन मुसलमान शासकों ने प्राचीन मंदिर को तोड़ा था, उन्हीं ने वर्तमान मंदिर के सिंहद्वार के सामने नौबतखाना बनवा दिया, जहाँ अब मंदिर की सुरक्षा हेतु पुलिस चौकी स्थापित कर दी गयी है। लगभग 50 वर्ष पूर्व तक यहाँ नौबत बजने के अलावा विजातीय लोग दर्शन किया करते थे। इस स्थान से काफी बड़ी संख्या में अंग्रेज दर्शन किया करते थे और उपहार तथा दक्षिणा दिया करते थे। सम्राट जार्ज पंचम से लेकर, प्रत्येक वायसराय ने विश्वनाथ का दर्शन किया था।लार्ड इरविन
ने भी चाँदी के पूजापात्र भेंट किये थे।
6-ज्योतिर्मय शिवलिंग काशी विश्वनाथ मंदिर के गर्भ द्वार के भीतर जाते ही चाँदी के ठोस हौदे के बीच सोने की गोरी पीठ पर ज्योतिर्मय काशी विश्वेश्वर लिंग का अलभ्य दर्शन मिलता है।श्री काशी विश्वनाथ मंदिर
के भीतर और बाहर और भी अनेक देव- मूर्तियाँ हैं। विश्वनाथ मंदिर के पश्चिम जो मण्डप है, उसके बीचो- बीच वेंकटेश्वर की लिंग मूर्ति है। दक्षिण ओर के मंदिर में अविमुक्तेश्वर लिंग है। सिंह द्वार के पश्चिम ...सत्यनारायणादि देव विग्रह हैं। सत्यनारायण मंदिर के उत्तर.. शनेश्वर लिंग है। इनके समीप दण्डपाणीश्वर पश्चिम के मण्डप में ही हैं। इसके उत्तर एक कोठी में जगत्माता पार्वती देवी की दिव्य मूर्ति है। इसी दालान के अंतिम कोने में श्री विश्वनाथ जी के ठीक सामने माँ अन्नपूर्णा विराजमान हैं।
7-एक अन्य कथा के अनुसार महाराज सुदेव के पुत्र राजा दिवोदासने गंगा-तट पर वाराणसी नगर बसाया था। एक बार भगवान शंकर ने देखा कि पार्वती जी को अपने मायके (हिमालय-क्षेत्र) में रहने में संकोच होता है, तो उन्होंने किसी दूसरे सिद्धक्षेत्रमें रहने का विचार बनाया। उन्हें काशी अतिप्रिय लगी। वे यहां आ गए। भगवान शिव के सान्निध्य में रहने की इच्छा से देवता भी काशी में आ कर रहने लगे।राजा दिवोदास अपनी राजधानी काशी का आधिपत्य खो जाने से बडे दु:खी हुए।
8-उन्होंने कठोर तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान मांगा- देवता देवलोक में रहें, भूलोक (पृथ्वी) मनुष्यों के लिए रहे। सृष्टिकर्ता ने एवमस्तु कह दिया। इसके फलस्वरूप भगवान शंकर और देवगणों को काशी छोड़ने के लिए विवश होना पडा।शिवजी मन्दराचलपर्वत पर चले तो गए परंतु काशी से उनका मोह कम नहीं हुआ। महादेव को उनकी प्रिय काशी में पुन: बसाने के उद्देश्य से चौसठ योगनियों, सूर्यदेव, ब्रह्माजी और नारायण ने बड़ा प्रयास किया।
9-गणेशजी के सहयोग से अन्ततोगत्वा यह अभियान सफल हुआ। ज्ञानोपदेश पाकर राजा दिवोदास विरक्त हो गए। उन्होंने स्वयं एक शिवलिंग की स्थापना करके उस की अर्चना की और बाद में वे दिव्य विमान पर बैठकर शिवलोक चले गए। महादेव काशी वापस आ गए।
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काशी के रहस्य;-
16 FACTS;-
1-काशी को भगवान शिव की सबसे प्रिय नगरी कहा जाता है। इस बात का वर्णन कई पुराणों और ग्रंथों में भी किया गया हैं। काशी में ही भगवान शिव का प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग, काशी विश्वनाथ स्तिथ है। यहां वाम रूप में स्थापित बाबा विश्वनाथ शक्ति की देवी मां भगवती के साथ विराजते हैं। यह अद्भुत है। ऐसा दुनिया में कहीं और देखने को नहीं मिलता है। काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग दो भागों में है। दाहिने भाग में शक्ति के रूप में मां भगवती विराजमान हैं। दूसरी ओर भगवान शिव वाम रूप (सुंदर) रूप में विराजमान हैं। इसीलिए काशी को मुक्ति क्षेत्र कहा जाता है।
2-देवी भगवती के दाहिनी ओर विराजमान होने से मुक्ति का मार्ग केवल काशी में ही खुलता है। यहां मनुष्य को मुक्ति मिलती है और दोबारा गर्भधारण नहीं करना होता है। भगवान शिव खुद यहां तारक मंत्र देकर लोगों को तारते हैं। अकाल मृत्यु से मरा मनुष्य बिना शिव अराधना के मुक्ति नहीं पा सकता।
3-श्रृंगार के समय सारी मूर्तियां पश्चिम मुखी होती हैं। इस ज्योतिर्लिंग में शिव और शक्ति दोनों साथ ही विराजते हैं, जो अद्भुत है। ऐसा दुनिया में कहीं और देखने को नहीं मिलता है।इस मंदिर के दर्शन मात्र से ही पाप खत्म हो जाते है. इस मंदिर का मुख्यद्वार चांदी का बना हुआ है । ऐसा माना जाता है कि अगर परिसर में एक भी बूंद जल हाथों से गिर जाए तो बाबा प्रसन्न होते है ।
4-विश्वनाथ दरबार में गर्भ गृह का शिखर है। इसमें ऊपर की ओर गुंबद श्री यंत्र से मंडित है। तांत्रिक सिद्धि के लिए ये उपयुक्त स्थान है। इसे श्री यंत्र-तंत्र साधना के लिए प्रमुख माना जाता है।मंदिर परिसर में अविमुक्तेश्वर महादेव तीन पीठ पर बैठे है. अविमुक्तेश्वर महादेव के दर्शन बाबा के गुरु के रूप में किया जाता है ।
5-इस मंदिर के दरवाजे में भी रहस्य छुपा हुआ है. बाबा विश्वनाथ के दरबार में तंत्र की दृष्टि से चार प्रमुख द्वार इस प्रकार हैं :- 1. शांति द्वार 2. कला द्वार 3. प्रतिष्ठा द्वार 4. निवृत्ति द्वार। इन चारों द्वारों का तंत्र में अलग ही स्थान है।दक्षिणी गेट को ‘अघोर मुख’ कहते हैं. ऐसा कहा जाता है कि इस द्वार से भगवान शिव का प्रवेश होता है. पूरी दुनिया में ऐसा कोई जगह नहीं है जहां शिवशक्ति एक साथ विराजमान हों और तंत्र द्वार भी हो।
6-बाबा का ज्योतिर्लिंग गर्भगृह में ईशान कोण में मौजूद है। इस कोण का मतलब होता है, संपूर्ण विद्या और हर कला से परिपूर्ण दरबार। तंत्र की 10 महा विद्याओं का अद्भुत दरबार, जहां भगवान शंकर का नाम ही ईशान है।
7-मंदिर का मुख्य द्वार दक्षिण मुख पर है और बाबा विश्वनाथ का मुख अघोर की ओर है। इससे मंदिर का मुख्य द्वार दक्षिण से उत्तर की ओर प्रवेश करता है। इसीलिए सबसे पहले बाबा के अघोर रूप का दर्शन होता है। यहां से प्रवेश करते ही पूर्व कृत पाप-ताप विनष्ट हो जाते हैं।
8-भौगोलिक दृष्टि से बाबा को त्रिकंटक विराजते यानि त्रिशूल पर विराजमान माना जाता है। मैदागिन क्षेत्र जहां कभी मंदाकिनी नदी और गौदोलिया क्षेत्र जहां गोदावरी नदी बहती थी। इन दोनों के बीच में ज्ञानवापी में बाबा स्वयं विराजते हैं। मैदागिन-गौदौलिया के बीच में ज्ञानवापी से नीचे है, जो त्रिशूल की तरह ग्राफ पर बनता है। इसीलिए कहा जाता है कि काशी में कभी प्रलय नहीं आ सकता।
9-बाबा विश्वनाथ काशी में गुरु और राजा के रूप में विराजमान है। वह दिनभर गुरु रूप में काशी में भ्रमण करते हैं। रात्रि नौ बजे जब बाबा का श्रृंगार आरती किया जाता है तो वह राज वेश में होते हैं। इसीलिए शिव को राजराजेश्वर भी कहते हैं।
10-माँ अन्नपूर्णा से बाबा ने भिक्षा लेकर वरदान लिया था कि काशी से कोई भी कभी भी भूखा नहीं जायेगा ।इस मंदिर में लोगों को मृत्यु के बाद तारक मंत्र देकर पुनर्जन्म से मुक्त कराया जाता है ।बाबा विश्वनाथ और मां भगवती काशी में प्रतिज्ञाबद्ध हैं। मां भगवती अन्नपूर्णा के रूप में हर काशी में रहने वालों को पेट भरती हैं। वहीं, बाबा मृत्यु के पश्चात तारक मंत्र देकर मुक्ति प्रदान करते हैं। बाबा को इसीलिए ताड़केश्वर भी कहते हैं।
11-बाबा विश्वनाथ के अघोर दर्शन मात्र से ही जन्म जन्मांतर के पाप धुल जाते हैं। शिवरात्रि में बाबा विश्वनाथ औघड़ रूप में भी विचरण करते हैं। उनके बारात में भूत, प्रेत, जानवर, देवता, पशु और पक्षी सभी शामिल होते हैं।
12-मान्यता है कि जब औरंगजेब इस मंदिर का विनाश करने के लिए आया था, तब मंदिर में मौजूद लोगों ने यहां के शिवलिंग की रक्षा करने के लिए उसे मंदिर के पास ही बने एस कुएं में छुपा दिया था। वह कुआं आज भी मंदिर के आस-पास हीं मौजूद है।
13-कहानियों के अनुसार, काशी का मंदिर जो की आज मौजूद है, वह वास्तविक मंदिर नहीं है। काशी के प्राचीन मंदिर का इतिहास कई साल पुराना है, जिसे औरंगजेब ने नष्ट कर दिया था। बाद में फिर से मंदिर का निर्माण किया गया, जिसकी पूजा-अर्चना आज की जाती है।
14- काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण इन्दौर की रानी अहिल्या बाई होल्कर ने करवाया था। मान्यता है कि 18वीं शताब्दी के दौरान स्वयं भगवान शिव ने अहिल्या बाई के सपने में आकर इस जगह उनका मंदिर बनवाने को कहा था।
15-रानी अहिल्या बाई के मंदिर निर्माण करवाने के कुछ साल बाद महाराज रणजीत सिंह ने मंदिर में सोने का दान किया था। कहा जाता है कि महाराज रणजीत ने लगभग एक टन सोने का दान किया था, जिसका प्रयोग से मंदिर के छत्रों पर सोना चढाया गया था।
16-मंदिर के ऊपर एक सोने का बना छत्र लगा हुआ है। इस छत्र को चमत्कारी माना जाता है और इसे लेकर एक मान्यता प्रसिद्ध है। अगर कोई भी भक्त इस छत्र के दर्शन करने के बाद कोई भी प्रार्थना करता है तो उसकी वो मनोकामना जरूर पूरी होती है। क्यों है काशी ‘अविमुक्त क्षेत्र’?-
07 FACTS;- 1-काशी में निराकर महेश्वर ही यहाँ भोलानाथ श्री विश्वनाथ के रूप में साक्षात अवस्थित हैं। इस काशी क्षेत्र में स्थित 1. श्री दशाश्वमेध 2. श्री लोलार्क 3. श्री बिन्दुमाधव 4. श्री केशव और 5. श्री मणिकर्णिक l ये हैं, जिनके कारण इसे‘अविमुक्त क्षेत्र’ कहा जाता है।काशी के उत्तर में ओंकारखण्ड दक्षिण में केदारखण्ड और मध्य में विश्वेश्वरखण्ड में ही बाबा विश्वनाथ प्रसिद्ध है। ऐसा सुना जाता है कि मन्दिर की पुन स्थापना आदि जगत गुरु शंकरचार्य जी ने अपने हाथों से की थी। 2-श्री काशी में अनेक विशिष्ट तीर्थ हैं, जिनके विषय मे कहा गया है कि ‘विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग बिन्दुमाधव ढुण्ढिराज गणेश, दण्डपाणि कालभैरव, गुहा गंगा (उत्तरवाहिनी गंगा), माता अन्नपूर्णा तथा मणिकर्णिक आदि मुख्य तीर्थ हैं। काशी क्षेत्र में मरने वाले किसी भी प्राणी को निश्चित ही मुक्ति प्राप्त होती है। जब कोई मर रहा होता है, उस समय भगवान.श्री विश्वनाथ उसके कानों में तारक मन्त्र का उपदेश करते हैं, जिससे वह आवगमन के चक्कर से छूट जाता है, अर्थात इस संसार से.मुक्त हो जाता है।
3-काशी उत्पत्ति के विषय में अगस्त्य जी ने श्रीस्कन्द (कुमार कार्तिकेय) से पूछा था, जिसका उत्तर देते हुए श्री स्कन्द ने उन्हें बताया कि इस प्रश्न का उत्तर हमारे पिता महादेव जी ने माता पार्वती जी को दिया था। उन्होंने कहा था कि ‘महाप्रलय के समय जगत के सम्पूर्ण प्राणी नष्ट हो चुके थे सर्वत्र घोर अन्धकार छाया हुआ था। उस समय 'सत्' स्वरूप ब्रह्म के अतिरिक्त सूर्य, नक्षत्र, ग्रह,तारे आदि कुछ भी नहीं थे। केवल एक ब्रह्म का अस्तित्त्व था, जिसे शास्त्रों में ‘एकमेवाद्वितीयम्’ कहा गया है।
3-1-‘ब्रह्म’ का ना तो कोई नाम है और न रूप, इसलिए वह मन, वाणी आदि इन्द्रियों का विषय नहीं बनता है। वह तो सत्य है, ज्ञानमय है, अनन्त है, आनन्दस्वरूप और परम प्रकाशमान है। वह निर्विकार, निराकार, निर्गुण, निर्विकल्प तथा सर्वव्यापी, माया से परे तथा उपद्रव से रहित परमात्मा ..कल्प के अन्त में अकेला ही था।कल्प के आदि में उस परमात्मा के मन में ऐसा संकल्प उठा कि ‘मैं एक से दो हो जाऊँ’। यद्यपि वह निराकार है, किन्तु अपनी लीला शक्ति का विस्तार करने के उद्देश्य से उसने साकार रूप धारण कर लिया। परमेश्वर के संकल्प से प्रकट हुई वह ऐश्वर्य गुणों से भरपूर,सर्वज्ञानमयी, सर्वस्वरूप द्वितीय मूर्ति सबके लिए वन्दनीय थी।
3-2-महादेव ने पार्वती जी से कहा–‘प्रिये! निराकार परब्रह्म की वह द्वितीय मूर्ति मैं ही हूँ। सभी शास्त्र और विद्वान मुझे ही ‘ईश्वर ’ कहते हैं। साकार रूप में प्रकट होने पर भी मैं अकेला ही अपनी इच्छा के अनुसार विचरण करता हूँ। मैंने ही अपने शरीर से कभी अलग न होने वाली 'तुम' प्रकृति को प्रकट.किया है। तुम ही गुणवती माया और प्रधान प्रकृति हो। तुम प्रकृति को ही बुद्धि तत्त्व को जन्म देने वाली तथा विकार रहित कहा जाता है। काल स्वरूप आदि पुरुष मैंने ही एक साथ तुम शक्ति को और इस काशी क्षेत्र को प्रकट किया है।’
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4-प्रकृति और ईश्वर ;-
10 POINTS;-
4-1-शिव पुराण के अनुसार इस पृथ्वी पर जो कुछ भी दिखाई देता है, वह सच्चिदानन्दस्वरूप निर्गुण, निर्विकार तथा सनातन ब्रह्मस्वरूप ही है। अपने कैवल्य(अकेला) भाव में रमण करने वाले अद्वितीय परमात्मा में जब एक से दो बनने की इच्छा हुई, तो वही सगुणरूप में ‘शिव’ कहलाने लगा। शिव ही पुरुष और स्त्री, इन दो हिस्सों में प्रकट हुए और उस पुरुष भागको शिव तथा स्त्री भाग को ‘शक्ति’ कहा गया।
4-2- उसके बाद भगवान शिव ने तप:स्थली के रूप में तेजोमय पाँच कोस के शुभ और सुन्दर एक नगर का निर्माण किया,जो उनका ही साक्षात रूप था। उसके बाद भगवान शिव ने माँ जगदम्बा के साथ अपने बायें अंग में अमृत बरसाने वाली अपनी दृष्टि डाली। उन्हीं सच्चिदानन्दस्वरूप शिव और शक्ति ने अदृश्य रहते हुए स्वभाववश प्रकृति और पुरुष रूपी चेतन की सृष्टि की। उस दृष्टि से अत्यन्त तेजस्वी तीनो लोकों में अतिशय सुन्दर एक पुरुष प्रकट हुआ। वह अत्यन्त शान्त, सतो गुण से परिपूर्ण तथा सागर से भी अधिक गम्भीर और पृथ्वी के समान श्यामल था तथा उसके बड़े-बड़े नेत्र कमल के समान सुन्दर थे।
4-3- अत्यन्त कमनीय और रमणीय होते हुए भी प्रचण्ड बाहुओं से सुशोभित वह पुरुष सुर्वणरंग के दो पीताम्बरों से अपने शरीर को ढँके हुए था। उसके नाभि कमल से बहुत ही मनमोहक सुगन्ध चारों ओर फैल रही थी। देखने में वह अकेले ही सम्पूर्ण गुणों की खान तथा समस्त कलाओं का ख़ज़ाना प्रतीत होता था। वह एकाकी ही जगत के सभी पुरुषों में उत्तम था, इसलिए उसे ‘पुरुषोत्तम’ कहा गया।प्रकृति और पुरुष सृष्टिकर्त्ता अपने माता- पिता को न देखते
हुए संशय में पड़ गये।उस समय उन्हें आकाशवाणी सुनाई पड़ी– ‘तुम दोनों को तपस्या करनी चाहिए, जिससे कि बाद में उत्तम सृष्टि का विस्तार होगा।’सब गुणों से विभूषित उस महान पुरुष को देखकर महादेव जी ने उससे कहा–‘अच्युत! तुम महाविष्णु हो। तुम्हारे नि:श्वास (सांस) से वेद प्रकट होंगे, जिनके द्वारा तुम्हें सब कुछ ज्ञान हो जाएगा अर्थात तुम सर्वज्ञ बन जाओगे।’ इस प्रकार महाविष्णु को कहने के बाद भगवान शंकर (पार्वती) के साथ विचरण करने हेतु आनन्दवन में प्रवेश कर गये। तब उस पुरुष (श्री हरि) ने उस नगर में भगवान शिव का ध्यान करते हुए सृष्टि की कामना से वर्षों तपस्या की।
4-4-उन्होंने एक सुन्दर पुष्करिणी (सरोवर) खोदकर उसे अपने शरीर के पसीने से भर दिया।तपस्या में श्रम होने के कारण श्री हरि (पुरुष) के शरीर से श्वेतजलकी अनेक धाराएँ फूट पड़ीं, जिनसे सम्पूर्ण आकाश भर गया। वहाँ उसके अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता था। उसके बाद भगवान विष्णु (श्री हरि) मन ही मन विचार करने लगे कि यह कैसी विचित्र वस्तु दिखाई देती है। उस आश्चर्यमय दृश्य को देखते हुए जब उन्होंने अपना सिर हिलाया, तो उनके एक कान से मणि खिसककर गिर पड़ी।
4-5-उसके बाद उस सरोवर के किनारे ...श्री हरि की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर पार्वती के साथ भगवान शिव वहाँ प्रकट हो गये। उन्होंने महाविष्णु से वर माँगने के लिए कहा, तो विष्णु ने भवानी सहित हमेशा उनके दर्शन की इच्छा व्यक्त की।साथ ही उन्होंने शिवजी से निवेदन किया कि मेरी मणिमय कर्णिका यहाँ गिर पड़ी है, इसलिए यह स्थान 'मणिकर्णिका तीर्थ' के नाम से प्रसिद्ध हो l अर्थात् मुक्तामय (मणिमय) कुण्डल यहाँ गिरा है इसलिए यह मुक्ति का प्रधान क्षेत्र माना जाये l इन कारणों से इसका दूसरा नाम ‘काशी’ भी स्वीकार हो।
4-6-विष्णु ने आगे निवेदन किया कि जितने भी प्रकार के जीव हैं, उन सबके काशी क्षेत्र में मरने पर मोक्ष की प्राप्ति अवश्य हो। इस मणिकर्णिका तीर्थ में स्नान, सन्ध्या, जप, हवन, पूजन,वेदाध्ययन, तर्पण, पिण्ड दान, दशमहादान, कन्यादान, अनेक प्रकार के यज्ञों, तथा शिवलिंग स्थापना आदि शुभ कर्मों का फल मोक्ष के रूप में प्राप्त होवे।जगत में जितने भी क्षेत्र हैं, उनमें सर्वाधिक सुन्दर और शुभकारी हो तथा इस काशी का नाम लेने वाले भी पाप से मुक्त हो जायें।’
4-7-महाविष्णु की बातों को स्वीकार करते हुए शिव ने उन्हें आदेश दिया कि ‘आप विविध प्रकार की यथायोग्य.सृष्टि करो और उनमें जो कुमार्ग पर चलने वाले दुष्टात्मा हैं, उनके
संहार में भी कारण बनो। उसके बाद ..उस महान जलराशि में जब पंचक्रोशी डूबने लगी, तब निर्गुण निर्विकार भगवान शिव ने उसे शीघ्र ही अपने त्रिशूल पर धारण कर लिया। तदनन्तर विष्णु (श्रीहरि) अपनी पत्नी (प्रकृति) के साथ वहीं सो गये। उनकी नाभि से एक कमल प्रकट हुआ, जिससे ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। कमल से.ब्रह्मा जी की उत्पत्ति में भी निराकार शिव का निर्देश ही कारण था। उसके बाद ब्रह्मा जी ने शिव के आदेश से विलक्षण सृष्टि की रचना प्रारम्भ कर दी।
4-8-ब्रह्मा जी ने ब्रह्माण्ड का विस्तार (विभाजन) चौदह भुवनों में किया, जबकि ब्रह्माण्ड का क्षेत्रफल पचास करोड़ योजन बताया गया है।ऐसा बताया गया है कि ब्रह्मा जी का एक
दिन पूरा हो जाने पर इस जगत् का प्रलय हो जाता है, फिर भी अविमुक्त काशी क्षेत्र का नाश नहीं होता है, क्योंकि उसे भगवान परमेश्वर शिव अपने त्रिशूल पर उठा लेते हैं। भगवान शिव ने विचार किया कि ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत कर्मपाश (कर्बन्धन) में फँसे प्राणी मुझे कैसे प्राप्त हो सकेंगे? उस प्रकार विचार करते हुए उन्होंने पंचक्रोशी को अपने त्रिशूल से उतार कर इस जगत में छोड़ दिया।ब्रह्मा जी जब नई सृष्टि प्रारम्भ करते हैं, उस समय भगवान शिव काशी को पुन: भूतल पर स्थापित कर देते हैं। कर्मों का कर्षण (नष्ट) करने के कारण ही उस क्षेत्र का नाम ‘काशी’ है, जहाँ अविमुक्तेश्वरलिंग हमेशा विराजमान रहता है।
4-9-काशी में स्वयं परमेश्वर ने ही अविमुक्त लिंग की स्थापना की थी, इसलिए उन्होंने अपने अंशभूत हर (शिव) को यह निर्देश दिया कि तुम्हें उस क्षेत्र का कभी भी त्याग नहीं करना चाहिए। यह पंचक्रोशी लोक का कल्याण करने वाली, कर्मबन्धनों को नष्ट करने वाली, ज्ञान प्रकाश प्रदान करने वाली तथा प्राणियों के लिए मोक्षदायिनी है। संसार में जिसको कहीं
गति नहीं मिलती है, उसे वाराणसी में गति मिलती है। भगवान शंकर की यह प्रिय नगरी समानरूप से भोग ओर मोक्ष को प्रदान करती है। कालाग्नि रुद्र के नाम से विख्यात कैलासपति शिव अन्दर से सतोगुणी तथा बाहर से तमोगुणी कहलाते हैं। यद्यपि वे निर्गुण हैं, किन्तु जब सगुण रूप में प्रकट होते हैं, तो ‘शिव’ कहलाते हैं।
4-10-वह कहते हैं ''पाँच कोस के क्षेत्रफल में फैला यह काशीधाम मुझे अतिशय प्रिय है। मैं यहाँ सदा निवास करता हूँ, इसलिए इस क्षेत्र में सिर्फ़ मेरी ही आज्ञा चलती है, यमराज आदि किसी अन्य की नहीं। इस 'अविमुक्त' क्षेत्र में रहने वाला पापी हो अथवा धर्मात्मा उन सबका शासक अकेला मैं ही हूँ। काशी से दूर रहकर भी जो मनुष्य मानसिक रूप से इस क्षेत्र का स्मरण करता है, उसे पाप स्पर्श नहीं करता है और वह काशी क्षेत्र में पहुँच कर उसके पुण्य के प्रभाव से मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।''
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6-भगवान विश्वनाथ काशी में स्थित होते हुए भी सर्वव्यापी होने के कारण सूर्य की तरह सर्वत्र उपस्थित रहते हैं। जो कोई उस क्षेत्र की महिमा से अनजान है अथवा उसमें श्रद्धा नहीं है, फिर भी वह जब काशीक्षेत्र में प्रवेश करता है या उसकी मृत्यु हो जाती है, तो वह निष्पाप होकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। यदि कोई मनुष्य काशी में रहते हुए पापकर्म करता है, तो मरने के बाद वह पहले 'रुद्र पिशाच' बनता है, 'उसके बाद उसकी मुक्ति होती है’ lजो कोई संयमपूर्वक काशी में बहुत दिनों तक निवास करता है, किन्तु संयोगवश उसकी मृत्यु काशी से बाहर हो जाती है, तो वह भी स्वर्गीय सुख को प्राप्त करता है और अन्त में पुन: काशी में जन्म लेकर मोक्ष पद को प्राप्त करता है।
7-स्कन्द पुराण के इस आख्यान से स्पष्ट होता है कि श्री विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग किसी मनुष्य की पूजा तपस्या आदि से प्रकट नहीं हुआ, बल्कि यहाँ निराकार परब्रह्म परमेश्वर महेश्वर ही शिव बनकर विश्वनाथ के रूप में साक्षात प्रकट हुए। उन्होंने दूसरी बार महाविष्णु की तपस्या के फलस्वरूप उपस्थित होकर आदेश दिया। महाविष्णु के आग्रह पर ही भगवान शिव ने काशी क्षेत्र को अविमुक्त कर दिया। उनकी लीलाओं पर ध्यान देने से काशी के साथ
उनकी अतिशय प्रियशीलता स्पष्ट मालूम होती है। भगवान शिव ने माँ पार्वती को बताया कि बालक, वृद्ध या जवान हो, वह किसी भी वर्ण, जाति या आश्रम का हो, यदि अविमुक्त क्षेत्र में मृत्यु होती है, तो उसे अवश्य ही मुक्ति मिल जाती है।
काशी के घाट;-
08 FACTS;-
1-पुराणों के मुताबिक, सप्त पुरियों को मोक्ष स्थल कहा गया है अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांची, अवंतिका और द्वारका। काशी में पांच
नदियों का संगम पंच गंगा घाट पर है। गंगा ,जमुना ,सरस्वती ,किरणा
और धूतपापा। काशी में 7 किलोमीटर लंबी घाटों की श्रृंखला है और 90 से ऊपर गंगा घाट है, जो और कहीं नहीं है। सबसे खास बात है कि आसमान से देखने पर अर्ध चंद्राकर दिखाई पड़ते हैं। बाबा विश्वनाथ के माथे गंगा का चंद्र दिखता है।
2-प्रसिद्ध घाटों में दशाश्वमेध, मणिकार्णिंका, हरिश्चंद्र और तुलसीघाट की
गिनती की जा सकती है।वाराणसी के घाटों का दृश्य बड़ा ही मनोरम है। भागीरथी के धनुषाकार तट पर इन घाटों की पंक्तियाँ दूर तक चली गई हैं।
प्रात: काल तो इनकीछटा अपूर्व ही होती है।काशी में लगभग 84 घाट हैं, जिनमें चुनिंदा पांच पावन घाटों को पंचतीर्थों के एक सूत्र में पिरोया गया है।ये वो घाट हैं, जो पौराणिक काल से मनुष्यों को उनके पापों से मुक्त कर, जीवन जीने की नई दिशा धारा प्रदान करते आ रहे हैं। इन घाटों से होती हुई गंगा नदी के दिव्य स्पर्श का अनुभव पाने के लिए, देश-विदेश से श्रद्धालु भौगोलिक सीमा लांघ, खिंचे चले आते हैं।
3-विश्व प्रसिद्ध अस्सी घाट;-
पौराणिक महत्व रखने वाले काशी के पांच तीर्थों में से एक, अस्सी घाट, का हिंदू धर्म में विशेष स्थान है। यह घाट शाम के वक्त होनी वाली गंगा आरती के लिए विश्व विख्यात है। यहां पर्यटकों को शाम की गंगा आरती का आनंद लेते हुए देखा जा सकता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार इस घाट का नामकरण अस्सी नामक प्राचीन नदी का गंगा के साथ संगम के कारण हुआ। कहा जाता है इसी स्थल पर मां दुर्गा ने दुर्गाकुंड तट पर विश्राम किया था और अपनी तलवार यहीं छोड़ दी थी, जिस के गिरने से यहां असी नदी प्रकट हुई। इस घाट पर विशेषकर विदेशी पर्यटक आना ज्यादा पसंद करते हैं।
4-पावन तीर्थ, दशाश्वमेध घाट;-
पंचतीर्थों के नाम से विख्यात काशी के पांच घाटों में दशाश्वमेध घाट का अपना विशेष स्थान है। यह घाट गोदौलिया से गंगा जाने वाले मार्ग पर स्थित है। धार्मिक मान्यता के अनुसार राजा दिवोदास ने यहां दस अश्वमेध यज्ञ करवाए थे जिसके बाद इस स्थान को दशाश्वमेध घाट का नाम प्राप्त हुआ।दशाश्वमेध घाट पर ही जयपुर नरेश जयसिंह द्वितीय का बनवाया हुआ मानमंदिर या वेधशाला है। दशाश्वमेध घाट तीसरी सदी के भारशिव नागों के पराक्रम का स्मारक है। उन्होंने जब-जब अपने शत्रुओं को पराजित किया तब-तब यहीं अपने यज्ञ का अवभृथ स्नान किया।
5-महाश्मशान, मणिकर्णिका घाट;-
03 POINTS;-
1-बनारस के सभी गंगा घाट किसी न किसी धार्मिक मान्यता व कथाओं की माला से गूंथे गए हैं।माना जाता है कि जब शिव विनाशक बनकर सृष्टि का विनाश कर रहे थे तब काशी नगरी को बचाने के लिए विष्णु ने शिव को शांत करने के लिए तप प्रारंभ किया।भगवान शिव और पार्वती जब इस स्थान पर आए तब शिव ने अपने चक्र से गंगा नदी के किनारे एक कुंड का निर्माण किया।कहा जाता है एक बार माता पार्वती का कर्ण फूल यहां के कुंड में गिर गया था, जिसे ढूंढने का काम भगवान शिव ने किया। इस घटना के बाद, इस स्थल को मणिकर्णिका का नाम मिला। इस घाट को महाश्मशान भी कहा जाता है।
2-जीवन के सबसे अंतिम पड़ाव के दौरान, मोक्ष प्राप्ति की लालसा लिए यहां व्यक्ति आने की कामना करते हैं ।मणिकर्णिका घाट के विषय में कहा जाता है कि यहां जलाया गया शव सीधे मोक्ष को प्राप्त होता है, उसकी आत्मा को जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है। यही वजह है कि अधिकांश लोग यही चाहते हैं कि उनकी मृत्यु के बाद उनका दाह-संस्कार बनारस के मणिकर्णिका घाट पर ही हो।
3-प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार मणिकर्णिका घाट का स्वामी वही चाण्डाल था, जिसने सत्यवादी राजा हरिशचंद्र को खरीदा था। उसने राजा को अपना दास बना कर उस घाट पर अन्त्येष्टि करने आने वाले लोगों से कर वसूलने का काम दे दिया था। इस घाट की विशेषता ये हैं, कि यहां लगातार हिन्दू अन्त्येष्टि होती रहती हैं व घाट पर चिता की अग्नि लगातार जलती ही रहती है, कभी भी बुझने नहीं पाती। इसी कारण इसको महाश्मशान नाम से भी जाना जाता है।
6-प्रथम विष्णु तीर्थ आदिकेशव घाट;-
काशी के प्रमुख पौराणिक मंदिरों में, अपनी दिव्य छवि के लिए प्रसिद्ध, आदिकेशव मंदिर, धार्मिक पर्यटकों के बीच, काफी प्रसिद्ध है। इस मंदिर की निर्माण कहानी, भगवान विष्णु के काशी आगमन से जुड़ी है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, भगवान विष्णु यहां स्थित घाट पर सबसे पहले पधारे थे, जिसके बाद उन्होंने स्वयं अपनी प्रतिमा यहां स्थापित की। वर्तमान में यह स्थल आदिकेशव घाट के नाम से जाना जाता है।इस घाट को गंगा-वरूणा संगम घाट भी कहा जाता है, क्योंकि इसी स्थान पर दैविक नदी गंगा और वरूणा का मिलन होता है।
7-पंच नदियों का मिलन स्थल पंचगंगा घाट
काशी के 84 घाटों में, इस घाट की भी गिनती, पंचतीर्थों में होती है। पौराणिक मान्यता के अनुसार इस घाट पर गंगा, यमुना, सरस्वती, किरण और धूतपापा नदी का मिलन होता है। इसी वजह से इस घाट को 'पंचगंगा' कहा गया है। इसी पावन घाट के सानिध्य में आकर संत कबीर ने गुरू रामानंद से दीक्षा प्राप्त की थी । घाट के उपरी भाग की सीढ़ियां ...आज भी अपनी प्रारंभिक सरंचना के द्वारा घाट की सुंदरता पर चार-चांद लगा रही हैं।
8-अन्य घाट ;-
पंचतीर्थों के नाम से प्रसिद्ध इन घाटों के बाद अन्य घाट हैं ... हरिश्चंद्र घाट, केदार घाट, तुलसीघाट , राजेन्द्र घाट , चेतसिंह घाट और राज घाट आदि । पंचतीर्थ घाटों की भांति इन घाटों का भी अपना अलग धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व है।मानसिक व आत्मिक शांति के लिए इन घाटों से अच्छा स्थान और कोई नहीं हो सकता।
आधुनिक शिक्षा का केंद्र काशी;-
02 FACTS;-
1-आधुनिक शिक्षा के केंद्र काशी विश्वविद्यालय की स्थापना महामना मदनमोहन मालवीय ने 1916 ई. में की। वैसे, प्राचीन परंपरा की संस्कृत पाठशालाएँ तो यहाँ सैकड़ों ही हैं जो संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, काशी (संस्थापित 1958 ई.) से संबद्ध है। इसके अतिरिक्त यहाँ काशी विद्यापीठ (संस्थापित 1921) नामक विश्वविद्यालय भी है जिसमें व्यावहारिक समाजशास्त्र की शिक्षा की भी व्यवस्था है।
2-भारत की सांस्कृतिक राजधानी होने का गौरव इस प्राचीन नगरी को आज भी प्राप्त है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि काशी ने भारत की सांस्कृतिक एकता के निर्माण तथा संरक्षण में भारी योग दिया है। भारतेंदु आदि साहित्यकारों तथा नागरीप्रचारिणी सभा जैसी संस्थाओं को जन्म देकर काशी ने आधुनिक हिंदी साहित्य को समृद्ध बनाया है।
पंचक्रोशीयात्रा;-
09 FACTS;-
1- काशी शब्द का अर्थ है, प्रकाश देने वाली नगरी। जिस स्थान से ज्ञान का
प्रकाश चारों ओर फैलता है, उसे काशी कहते हैं। काशी-क्षेत्र की सीमा निर्धारित करने के लिए पुराकालमें पंचक्रोशी मार्ग का निर्माण किया गया। जिस वर्ष अधिमास (अधिक मास) लगता है, उस वर्ष इस महीने में पंचक्रोशीयात्रा की जाती है।
2- पंचक्रोशी (पंचकोसी) यात्रा करके भक्तगण भगवान शिव और उनकी नगरी काशी के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हैं।लोक में ऐसी
मान्यता है कि पंचक्रोशीयात्रा से लौकिक और पारलौकिक अभीष्टि की सिद्धि होती है। अधिमास को पुरुषोत्तम मास भी कहा जाता है। लोक-भाषा में इसे मलमास कहा जाता है।
3-पंचक्रोशीयात्रा के कुछ नियम है, जिनका पालन यात्रियों को करना पड़ता है। परिक्रमा नंगे पांव की जाती है। वाहन से परिक्रमा करने पर पंचक्रोशी-यात्रा का पुण्य नहीं मिलता। शौचादि क्रिया काशी-क्षेत्र से बाहर करने का विधान है। परिक्रमा करते समय शिव-विषयक भजन-कीर्तन करने का विधान है।
4-कुछ ऐसे भी यात्री होते हैं, जो सम्पूर्ण परिक्रमा दण्डवत करते हैं। यात्री हर-हर महादेव शम्भो, काशी विश्वनाथ गंगे, काशी विश्वनाथ गंगे, माता पार्वती संगेका मधुर गान करते हुए परिक्रमा करते हैं।साधु, महात्मा एवं
संस्कृतज्ञ यात्री महिम्नस्त्रोत, शिवताण्डव एवं रुद्राष्टकका सस्वर गायन करते हुए परिक्रमा करते हैं। महिलाएं सामूहिक रूप से शिव-विषयक लोक गीतों का गायन करती हैं। परिक्रमा अवधि में शाकाहारी भोजन करने का विधान है।
5-पंचक्रोशीयात्रा मणिकर्णिकाघाट से प्रारम्भ होती है। सर्वप्रथम यात्रीगण मणिकर्णिकाकुण्ड एवं गंगा जी में स्नान करते हैं। इसके बाद परिक्रमा-संकल्प लेने के लिए ज्ञानवापी जाते हैं। यहां पर पंडे यात्रियों को संकल्प दिलाते हैं। संकल्प लेने के उपरांत यात्री श्रृंगार गौरी, बाबा विश्वनाथ एवं अन्नपूर्णा जी का दर्शन करके पुन:मणिकर्णिकाघाट लौट आते हैं। यहां वे मणिकर्णिकेश्वरमहादेव एवं सिद्धि विनायक का दर्शन-पूजन करके पंचक्रोशीयात्रा का प्रारम्भ करते हैं।
6-गंगा के किनारे-किनारे चलकर यात्री अस्सी घाट आते है। यहां से वे नगर में प्रवेश करते है। लंका, नरिया, करौंदी, आदित्यनगर, चितईपुर होते हुए यात्री प्रथम पडाव कन्दवा पर पहुंचते हैं। यहां वे कर्दमेश्वर महादेव का दर्शन-पूजन करके रात्रि-विश्राम करते हैं। रास्ते में पडने वाले सभी मंदिरों में यात्री देव-पूजन करते हैं। अक्षत और द्रव्य दान करते हैं।
7-परिक्रमा-अवधि में यात्री अपनी पारिवारिक और व्यक्तिगत चिन्ताओं से मुक्त होकर पांच दिनों के लिए शिवमय, काशीमय हो जाते हैं। दूसरे दिन भोर में यात्री कन्दवा से अगले पड़ाव के लिए चलते हैं। अगला पड़ाव है भीम चण्डी। यहां यात्री दुर्गामंदिर में दुर्गा जी की पूजा करते हैं और पहले पड़ाव के सारे कर्मकाण्ड को दुहराते हैं। पंचक्रोशीयात्रा का तीसरा पडाव रामेश्वर है। यहां शिव-मंदिर में यात्री -गण शिव-पूजा करते हैं।
8-चौथा पड़ाव पांचों-पाण्डव है। यह पड़ाव शिवपुर क्षेत्र में पडता है। यहां पांचों पाण्डव (युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल तथा सहदेव) की मूर्तियां हैं। द्रौपदीकुण्ड में स्नान करके यात्रीगण पांचों पाण्डवों का दर्शन करते हैं। रात्रि-विश्राम के उपरांत यात्री पांचवें दिन अंतिम पड़ाव के लिए प्रस्थान करते हैं। अंतिम पड़ाव कपिलधारा है। यात्रीगण यहां कपिलेश्वर महादेव की पूजा करते हैं।
9-काशी परिक्रमा में पांच की प्रधानता है। यात्री प्रतिदिन पांच कोस की यात्रा करते हैं। पड़ाव संख्या भी पांच है। परिक्रमा पांच दिनों तक चलती है। कपिलधारा से यात्रीगण मणिकर्णिका घाट आते हैं। यहां वे साक्षी विनायक (गणेश जी) का दर्शन करते हैं। ऐसी मान्यता है कि गणेश जी भगवान शंकर के सम्मुख इस बात का साक्ष्य देते हैं कि अमुक यात्री ने पंचक्रोशीयात्रा कर काशी की परिक्रमा की है। इसके उपरांत यात्री काशी विश्वनाथ एवं काल-भैरव का दर्शन कर यात्रा-संकल्प पूर्ण करते हैं।
काशी के अन्य मंदिर ;-
1-गुरू दत्तात्रेय भगवान का मंदिर(यहां मिलती है सफेद दाग से निजात);-
04 FACTS;- 1-काशी का प्राचीन मोहल्ला है ब्रह्माघाट। यहीं पर के. 18/48 में स्थित है गुरू दत्तात्रेय भगवान का मंदिर। भगवान दत्तात्रेय के इस मंदिर का इतिहास दो सौ साल से भी ज्यादा पुराना है। वेद, पुराण, उपनिषद और शास्त्र बताते हैं कि फकीरों के देवता भगवान दत्तात्रेय का प्रादुर्भाव सतयुग में हुआ था।
2-वैसे तो दक्षिण और पश्चिम भारत में भगवान दत्तात्रेय के ढेर सारे मंदिर हैं लेकिन इन मंदिरों में विग्रह कम उनकी पादुका ही ज्यादा है। काशी स्थित यह देवस्थान उत्तर भारत का अकेला है। भगवान दत्तात्रेय के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अब तक देह त्याग नहीं किया है। वो पूरे दिन भारत के अलग अलग क्षेत्रों में विचरते रहते हैं। इसी क्रम में वो हर रोज गंगा स्नान के लिए प्रात:काल काशी में मणिकर्णिका तट पर आते हैं। मणिकर्णिका घाट स्थित भगवान दत्तात्रेय की चरण पादुका इस बात का प्रमाण है। कहते हैं कि ब्रह्माघाट स्थित मंदिर में भगवान दत्तात्रेय के दर्शन मात्र से मनुष्य को सफेद दाग जैसे असाध्य रोग से मुक्ति मिलती है।
3-देश का अकेला मंदिर जहां मिलता है भगवान का एकमुख स्वरूप...दत्तात्रेय का विग्रह हर जगह तीन मुखों वाला मिलता है लेकिन काशी अकेला ऐसा स्थान है जहां एक मुख वाला विग्रह विराजमान है। दत्तात्रेय भगवान ने ही बाबा कीनाराम को अघोर मंत्र की दीक्षा दी थी। आप गुरु गोरक्षनाथ के भी गुरु थे।
4-कहते हैं कि सच्चे मन से स्मरण किया जाए तो दत्तात्रेय भगवान भक्त के सामने आज भी हाजिर हो जाते हैं। महर्षि परशुराम ने मां त्रिपुर सुंदरी की साधना इन्हीं से हासिल की। अवधूत दर्शन और अद्वैत दर्शन के जरिये भगवान दत्तात्रेय ने मनुष्य को खुद की तलाश का रास्ता दिखाया। आपका वास होने के कारण गूलर के वृक्ष की पूजा की जाती है।
काशी के संहार भैरव;-
03 FACTS;-
1-अलौकिक हैं मीरघाट के संहार भैरव। त्रिपुरा भैरवी से चितरंजन पार्क की तरफ जाने वाली गली में एक बड़ा सा फाटक पड़ता है। इस फाटक में एक छोटे से ताखे पर विराजमान हैं संहार भैरव।
2-काशी खंड और शिव पुराण में संहार भैरव का उल्लेख बताता है कि बाबा भोलेनाथ ने मनुष्य को आफत बलाओं से बचाने के लिए यह स्वरूप धारण किया था।कहते हैं कि मनुष्य पर जब कभी बड़ी आफत विपदा आती है तो इन सबका एकमात्र इलाज संहार भैरव का दर्शन है।
3-वैसे तो भैरव के दर्शन का विधान मुख्य रूप से रविवार और मंगलवार को है लेकिन संहार भैरव के यहां कभी भी किसी भी दिन हाजिरी लगायी जा सकती है।संहार भैरव के दर्शन से तमाम समस्याओं से निजात पाने वाले लोगों का कहना है कि बाबा अपने नाम के अनुरूप हर मुसीबत का संहार कर देते हैं।
.....SHIVOHAM.....