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ब्रजमण्डल के द्वादश वनों में चतुर्थ काम्यवन की क्या महिमा है?


काम्य शब्द का अर्थ;-

04 FACTS;-

1-ब्रजमण्डल के द्वादशवनों में चतुर्थवन काम्यवन हैं। यह ब्रजमण्डल के सर्वोत्तम वनों में से एक हैं। इस वन की परिक्रमा करने वाला सौभाग्यवान व्यक्ति ब्रजधाम में पूजनीय होता है। काम्यवन श्रीब्रजेन्द्रनन्दन कृष्ण ने बहुत सी बालक्रीड़ाएँ की थीं । इस वन के कामादि सरोवरों में स्नान करने मात्र से सब प्रकार की कामनाएँ यहाँ तक कि कृष्ण की प्रेममयी सेवा की कामना भी पूर्ण हो जाती है । यथार्थ में श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का प्रेम ही 'काम' शब्द वाच्य है ।

2-गोपिकाओं का निर्मल प्रेम जो केवल श्रीकृष्ण को सुख देने वाला होता है, जिसमें लौकिक काम की कोई गन्ध नहीं होती, उसी को शास्त्रों में काम कहा गया है । सांसारिक काम वासनाओं से गोपियों का यह शुद्ध काम सर्वथा भिन्न है । सब प्रकार की लौकिक कामनाओं से रहित केवल प्रेमास्पद कृष्ण को सुखी करना ही गोपियों के काम का एकमात्र तात्पर्य है । इसीलिए गोपियों के विशुद्ध प्रेम को ही श्रीमद्भागवतादि शास्त्रों में काम की संज्ञा दी गई है । जिस कृष्णलीला स्थली में श्रीराधाकृष्ण युगल के ऐसे अप्राकृत प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है, उसका नाम कामवन है। गोपियों के विशुद्ध प्रेमस्वरूप शुद्धकाम की भी सहज ही सिद्धि होती है, उसे कामवन कहा गया है।

3-काम्य शब्द का अर्थ अत्यन्त सुन्दर, सुशोभित या रुचिर भी होता है । ब्रजमंडल का यह वन विविध–प्रकार के सुरम्य सरोवरों, कूपों, कुण्डों, वृक्ष–वल्लरियों, फूल और फलों से तथा विविध प्रकारके विहग्ङमों से अतिशय सुशोभित श्रीकृष्ण की परम रमणीय विहार स्थली है । इसीलिए इसे काम्यवन कहा गया है ।

4-विष्णु पुराण के अनुसार काम्यवन में चौरासी कुण्ड (तीर्थ), चौरासी मन्दिर तथा चौरासी खम्बे वर्तमान हैं । कहते हैं कि इन सबकी प्रतिष्ठा किसी प्रसिद्ध राजा श्रीकामसेन के द्वारा की गई थी ।ऐसी भी मान्यता है कि देवता और असुरों ने मिलकर यहाँ एक सौ अड़सठ(168) खम्बों का निर्माण किया था ।

कामां की महिमा;-

11 FACTS;- 1-कामां, जिसे पौराणिक नगरी होने का गौरव हासिल है, मध्यकाल से पूर्व की बहुत प्राचीन नगरी है। इसका ब्रज के वनों में केंद्रीय स्थान रहा है। इसे कामवन इसीलिये कहा जाता है। कोकिलावन भी इसके बहुत नज़दीक है। वहाँ नंदगांव हो कर जाते हैं। नंदगांव, कामां के पास ही सीमावर्ती कस्बा है, यद्यपि वह उत्तर प्रदेश के मथुरा जनपद में आता है।

ब्रज-संस्कृति में प्रेम तत्त्व ही प्रधान रहा है, जिसके प्रति रसखान जैसा पठान कवि इतना सम्मोहित हो गया कि उसने जन्म जन्मान्तर तक हर रूप में यहीं का होकर रहने की कामना की।

2-कामवन ब्रज का प्रसिद्ध तीर्थ भी है। इसका पौराणिक नाम काम्यकवन, कामवन था। ब्रज की चौरासी कोस परिक्रमा मार्ग में इस स्थान का अपना महत्त्व है।बृज के 12 प्राचीनतम वनों में कामवन पांचवा वन है। मथुरा से 65 किमी पश्चिम दिशा में गोवर्धन और डीग होते हुए सड़क मार्ग से कामवन (कामां) पंहुचा जा सकता है।

3-इंद्र स्तुति करते हैं कि 'हे श्रीकृष्ण! आपके ब्रज में अति रमणीक स्थान हैं। उन में हम सभी जाने की इच्छा करते हैं पर जा नहीं सकते।यह मधुपुरी ब्रज धन्य और वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ है, क्योंकि वैकुण्ठ में तो मनुष्य अपने पुरुषार्थ से पहुँच सकता है पर यहाँ श्रीकृष्ण की आज्ञा के बिना कोई एक क्षण भी नहीं ठहर सकता''।

4-शुद्धाद्वैत दर्शन के प्रणेता, पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक तथा सूर सरीखे महान कवि के प्रेरणा स्रोत वल्लभाचार्य के पुत्र गुसाईं जी विट्ठलनाथ ने जब अष्टछाप का गठन किया तो जिन वात्सल्य रूप कृष्ण अर्चना की नयी भक्ति-पद्धति विकसित की उसमें सभी को जगह दी गयी, यद्यपि मीरा जैसी स्वाधीनचेता कवि आग्रह के बावजूद इसमें शामिल नहीं हुई, इस नगर कामवन में शुद्धाद्वैत पुष्टिमार्ग की दो प्रधान पीठ (तीसरी) और (सातवीं) स्थापित है- एक गोकुलचन्द्रमा जी और दूसरी मदनमोहन जी।| कामवन में आचार्य वल्लभाचार्य की बैठक भी भक्त वैष्णवों में पूज्य है।

5-कामां में चौरासी खम्भा नामक मस्जिद हिंदू मंदिर के ध्वंसावशेषों से निर्मित जान पड़ती है। मस्जिद के स्तंभ घट- पल्लव के अलंकरण तथा प्रतिमाओं से युक्त हैं। इन प्रतिमाओं से ही यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि ये स्तंभ वैष्णव और शैव मंदिरों के सभा मण्डप के अंग थे। एक स्तंभ पर अंकित "नमः शिवाय" अभिलेख इस तथ्य की पुष्टि करता है। अभिलेख के लिपि के अनुसार यह मंदिर आठवीं शताब्दी ईस्वी का प्रतीत होता है। इसके अतिरिक्त एक अन्य अभिलेख युक्त स्तंभ से विष्णु मंदिर के निर्माण का पता चलता है। शूरसेन वंश के दुर्गगण की पत्नी विच्छिका ने एक विष्णु मंदिर बनवाया था।

6-काम्यवन को ब्रज के बारह वनों में से एक उत्तम वन कहा गया है। काम्यवन के आस-पास के क्षेत्र में तुलसी जी की प्रचुरता के कारण इसे कहीं आदि-वृन्दावन भी कहा जाता है। (वृन्दा तुलसी जी का ही पर्याय है।) वृन्दावन की सीमा का विस्तार पहले दूर-दूर तक फ़ैला हुआ था, गिरिराज-पर्वत, बरसाना, नन्दगाँव आदि स्थलियाँ वृन्दावन की सीमा के अन्तर्गत ही मानी गयीं थीं। महाभारत में वर्णित काम्यवन भी यही माना गया है जहाँ कुछ वक़्त पाण्डवों ने अज्ञातवास किया था। वर्तमान में यहाँ अनेक ऐसे स्थल मौजूद हैं जिससे इसे महाभारत से सम्बन्धित माना जा सकता है। पाँचों पाण्डवों की मूर्तियाँ, धर्मराज युधिष्ठिर के नाम से धर्मकूप तथा धर्मकुण्ड भी यहाँ प्रसिद्ध है।

7-विष्णु पुराण के अनुसार यहाँ कामवन की परिधि में छोटे-बड़े असंख्य तीर्थ हैं। कामवन अपने चौरासी कुंडों, चौरासी खम्भों और चौरासी मंदिरों के लिए जाना जाता है। 84 तीर्थ, 84 मन्दिर, 84 खम्भे आदि राजा कामसेन ने बनवाये थे, जो यहाँ की अमूल्य धरोहर हैं। यहाँ कामेश्वर महादेव, श्री गोपीनाथ जी, श्रीगोकुल चंद्रमा जी, श्री राधावल्लभ जी, श्री मदन मोहन जी, श्रीवृन्दा देवी आदि मन्दिर हैं। यद्यपि अनुरक्षण के अभाव में यहाँ के अनेक मंदिर नष्ट भी होते जा रहे हैं, फ़िर भी यहाँ के कुछ तीर्थ आज भी अपना गौरव और श्रीकृष्ण की लीलाओं को दर्शाते हैं।

8-कामवन को सप्तद्वारों के लिये भी जाना जाता है।काम्यवन में सात दरवाज़े हैं–

1-डीग दरवाज़ा– काम्यवन के अग्नि कोण में (दक्षिण–पूर्व दिशा में) अवस्थित है। यहाँ से डीग (दीर्घपुर) और भरतपुर जाने का रास्ता है। 2-लंका दरवाज़ा– यह काम्यवन गाँव के दक्षिण कोण में अवस्थित है। यहाँ से सेतुबन्ध कुण्ड की ओर जाने का मार्ग है। 3-आमेर दरवाज़ा– काम्यवन गाँव के नैऋत कोण में (दक्षिण–पश्चिम दिशा में) अवस्थित है। यहाँ से चरणपहाड़ी जाने का मार्ग है। 4-देवी दरवाज़ा– यह काम्यवन गाँव के पश्चिम में अवस्थित है। यहाँ से वैष्णवीदेवी (पंजाब) जाने का मार्ग है। 5-दिल्ली दरवाज़ा –यह काम्यवन के उत्तर में अवस्थित है। यहाँ से दिल्ली जाने का मार्ग है। 6-रामजी दरवाज़ा– गाँव के ईशान कोण में अवस्थित है। यहाँ से नन्दगांव जाने का मार्ग है। 7-मथुरा दरवाज़ा– यह गाँव के पूर्व में अवस्थित है। यहाँ से बरसाना हो कर मथुरा जाने का मार्ग है। 9-एक अन्य अभिलेख कामां में काम्यकेश्वर नाम से प्रख्यात शिवायतन का उल्लेख करता है। इस दान अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि इस मंदिर में शिव के साथ- साथ विष्णु एवं चामुण्डा आदि देवताओं की पूजा भी होती थी। यहाँ से प्राप्त चतुर्मुख शिवलिंग के चारों ओर उत्कीर्ण प्रमुख देवों की प्रतिमाएँ भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं। काम्यकेश्वर मंदिर में ७८६ और ८९६ ई. के बीच के काल में ही शिव- पार्वती और विष्णु की प्रतिमाएँ प्रस्थापित कर दी गई थीं।

10-शूरसेन राजाओं के आश्रम में कामां में चामुण्डा, शिव और विष्णु के मंदिरों के साथ श्वेताम्बर संप्रदाय के काम्यक गच्छ के जैन मंदिरों के निर्माण का भी उल्लेख मिलता है।

महाभारत में वर्णित एक वन जहाँ पांडवों ने अपने वनवास काल का कुछ समय बिताया था।यहाँ इस वन को मरुभूमि के निकट बताया गया है। यह मरुभूमि राजस्थान का मरुस्थल जान पड़ता है जहाँ पहुँच कर सरस्वती लुप्त हो जाती थी।

11-इसी वन में भीम ने किमार नामक राक्षस का वध किया था। इसी वन में मैत्रेय की पांडवों सेभेंट हुई थी जिसका वर्णन उन्होंने धृतराष्ट्र को सुनाया था। कामां में यक्ष सरोवर के अलावा चार शिवलिंगों के भी दर्शन किए जा सकते हैं।इन शिवलिंगों को पांचाली ने अपने पतियों की कुशलकामना के लिए स्थापित किया था। यहां उस इमारत के खंडहर आज भी मौजूद हैं, जहां पांडवों ने विश्राम किया था।

11-इस नगरी का जयपुर रियासत से अठारहवीं सदी में रिश्ता तब हुआ, जब सवाई जयसिंह ने यहाँ अपने एक सूबेदार कीरत सिंह को भेजा, जिसका परिणाम भरतपुर रियासत के जन्म के रूप में हुआ।

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प्रमुख दर्शनीय स्थल;-

21 FACTS;-

1-कुण्ड और तीर्थ;-

03 POINTS;- 1-यहाँ छोटे–बड़े असंख्य कुण्ड और तीर्थ है । इस वन की परिक्रमा चौदह मील की है । विमलकुण्ड यहाँ का प्रसिद्ध तीर्थ या कुण्ड है । सर्वप्रथम इस विमलकुण्ड में स्नान कर श्रीकाम्यवन के कुण्ड अथवा काम्यवन की दर्शनीय स्थलियों का दर्शन प्रारम्भ होता है । विमलकुण्ड में स्नान के पश्चात् गोपिका कुण्ड, सुवर्णपुर, गया कुण्ड एवं धर्म कुण्ड के दर्शन हैं । धर्म कुण्ड पर धर्मराज जी का सिंहासन दर्शनीय है ।

2-आगे यज्ञकुण्ड, पाण्डवों के पंचतीर्थ सरोवर, परम मोक्षकुण्ड, मणिकर्णिका कुण्ड हैं । पास में ही निवासकुण्ड तथा यशोदा कुण्ड हैं । पर्वत के शिखर भद्रेश्वर शिवमूर्ति है । अनन्तर अलक्ष गरुड़ मूर्ति है। पास में ही पिप्पलाद ऋषि का आश्रम है । अनन्तर दिहुहली, राधापुष्करिणी और उसके पूर्व भाग में ललिता पुष्करिणी, उसके उत्तर में विशाखा पुष्करिणी, उसके पश्चिम में चन्द्रावली पुष्करिणी तथा उसके दक्षिण भाग में चन्द्रभागा पुष्करिणी है, पूर्व–दक्षिण के मध्य स्थल में लीलावती पुष्करिणी है । पश्चिम–उत्तर में प्रभावती पुष्करिणी, मध्य में राधा पुष्करिणी है।

3-इन पुष्करिणियों में चौंसठ सखियों की पुष्करिणी हैं। आगे कुशस्थली है । वहाँ शंखचूड़ बधस्थल तथा कामेश्वर महादेव जी दर्शनीय हैं ।, वहाँ से उत्तर में चन्द्रशेखर मूर्ति विमलेश्वर तथा वराह स्वरूप का दर्शन है। वहीं द्रोपदी के साथ पंच पाण्डवों का दर्शन, आगे वृन्दादेवी के साथ गोविन्दजी का दर्शन, श्रीराधावल्लभ, श्रीगोपीनाथ, नवनीत राय, गोकुलेश्वर और श्रीरामचन्द्र के स्वरूपों का दर्शन है । इनके अतिरिक्त चरणपहाड़ी श्रीराधागोपीनाथ, श्रीराधामोहन (गोपालजी), चौरासी खम्बा आदि दर्शनीय स्थल है ।

2-विमल कुण्ड काम्यवन;- कामवन ग्राम से दो फर्लांग दूर दक्षिण–पश्चिम कोण में प्रसिद्ध विमल कुण्ड स्थित है।यहां सरोवर मात्र न होकर लोक-समाज के लिए आज भी तीर्थ स्थल की तरह है। आज भी यहां यह लोक मान्यता है कि आप चाहे चारों धाम की तीर्थ-यात्रा कर आएं, यदि आप विमल कुण्ड में नहीं नहाये तो आपकी तीर्थ-भावना अपूर्ण रहेगी। कुण्ड के चारों ओर क्रमश: (1) दाऊजी, (2) सूर्यदेव, (3) श्रीनीलकंठेश्वर महादेव, (4) श्रीगोवर्धननाथ, (5) श्रीमदन मोहन एवं काम्यवन विहारी, (6) श्रीविमल विहारी, (7) विमला देवी, (8) श्रीमुरलीमनोहर, (9) भगवती गंगा और (10) श्रीगोपालजी विराजमान हैं।

3-श्रीवृन्दादेवी और श्रीगोविन्द देव;-

05 POINTS;- 1-यह काम्यवन का सर्वाधिक प्रसिद्ध मन्दिर है । यहाँ वृन्दादेवी का विशेष रूप से दर्शन है, जो ब्रजमण्डल में कहीं अन्यत्र दुर्लभ है । श्रीराधा–गोविन्ददेवी भी यहाँ विराजमान हैं । पास में ही श्रीविष्णु सिंहासन अर्थात् श्रीकृष्ण का सिंहासन है । उसके निकट ही चरण कुण्ड है, जहाँ श्रीराधा और गोविन्द युगल के श्रीचरणकमल पखारे गये थे ।

2-श्रीरूप–सनातन आदि गोस्वामियों के अप्रकट होने के पश्चात् धर्मान्ध मुग़ल सम्राट औरंगजेब के अत्याचारों से जिस समय ब्रज में वृन्दावन, मथुरा आदि के प्रसिद्ध मन्दिर ध्वंस किये जा रहे थे, उस समय जयपुर के परम भक्त महाराज ब्रज के श्रीगोविन्द, श्रीगोपीनाथ, श्रीमदनमोहन, श्रीराधादामोदर, श्रीराधामाधव आदि प्रसिद्ध विग्रहों को अपने साथ लेकर जब जयपुर आ रहे थे, तो उन्होंने मार्ग में इस काम्यवन में कुछ दिनों तक विश्राम किया ।

3-श्रीविग्रहों को रथों से यहाँ विभिन्न स्थानों में पधराकर उनका विधिवत स्नान, भोगराग और शयनादि सम्पन्न करवाया था । तत्पश्चात् वे जयपुर और अन्य स्थानों में पधराये गये । तदनन्तर काम्यवन में जहाँ–जहाँ श्रीराधागोविन्द, श्रीराधागोपीनाथ और श्रीराधामदनमोहन पधराये गये थे, उन–उन स्थानों पर विशाल मन्दिरों का निर्माण कराकर उनमें उन–उन मूल श्रीविग्रहों की प्रतिभू–विग्रहों की प्रतिष्ठा की गई । श्रीवृन्दादेवी काम्यवन तक तो आई, किन्तु वे ब्रज को छोड़कर आगे नहीं गई । इसीलिए यहाँ श्रीवृन्दादेवी का पृथक् रूप दर्शन है ।

4-श्रीचैतन्य महाप्रभु और उनके श्रीरूप सनातन गोस्वामी आदि परिकरों ने ब्रजमण्डल की लुप्त लीलास्थलियों को प्रकाश किया है । इनके ब्रज में आने से पूर्व काम्यवन को वृन्दावन माना जाता था । किन्तु, श्रीचैतन्य महाप्रभु ने ही मथुरा के सन्निकट श्रीधाम वृन्दावन को प्रकाशित किया । क्योंकि काम्यवन में यमुनाजी, चीरघाट, निधिवन, कालीदह, केशीघाट, सेवाकुंज, रासस्थली वंशीवट, श्रीगोपेश्वर महादेव की स्थिति असम्भव है । इसलिए विमलकुण्ड, कामेश्वर महादेव, चरणपहाड़ी, सेतुबांध रामेश्वर आदि लीला स्थलियाँ जहाँ विराजमान हैं, वह अवश्य ही वृन्दावन से पृथक् काम्यवन है ।

5-वृन्दादेवी का स्थान वृन्दावन में ही है। वे वृन्दावन के कुञ्ज की तथा उन कुञ्जों में श्रीराधाकृष्ण युगल की क्रीड़ाओं की अधिष्ठात्री देवी है । अत: अब वे श्रीधाम वृन्दावन के श्रीरूप सनातन गौड़ीय मठ में विराजमान हैं । यहाँ उनकी बड़ी ही दिव्य झाँकी है । श्रीगोविन्द मन्दिर के निकट ही गरुड़जी, चन्द्रभाषा कुण्ड, चन्द्रेश्वर महादेवजी, वाराहकुण्ड, वाराहकूप, यज्ञकुण्ड और धर्मकुण्डादि दर्शनीय हैं ।

4-धर्म कुण्ड यह कुण्ड काम्यवन की पूर्व दिशा में हैं । यहाँ श्रीनारायण धर्म के रूप में विराजमान हैं । पास में ही विशाखा नामक वेदी है । श्रवणा नक्षत्र, बुधवार, भाद्रपद कृष्णाष्टमी में यहाँ स्नान की विशेष विधि है । धर्म कुण्ड के अन्तर्गत नर–नारायण कुण्ड, नील वराह, पंच पाण्डव, हनुमान जी, पंच पाण्डव कुण्ड (पञ्च तीर्थ) मणिकर्णिका, विश्वेश्वर महादेवादि दर्शनीय हैं ।

5-यशोदा कुण्ड काम्यवन में यहीं कृष्ण की माता श्रीयशोदाजी कापित्रालय था । श्रीकृष्ण बचपन में अपनी माता जी के साथ यहाँ कभी–कभी आकर निवास करते थे । कभी–कभी नन्द–गोकुल अपने गऊओं के साथ पड़ाव में यहीं ठहरता था । श्रीकृष्ण सखाओं के साथ यहाँ गोचारण भी करते थे । ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है । यह स्थान अत्यन्त मनोहर है ।

6-गया कुण्ड गयातीर्थ भी ब्रजमण्डल के इस स्थान पर रहकर कृष्ण की आराधना करते हैं । इसमें अगस्त कुण्ड भी एक साथ मिले हुए हैं । गया कुण्ड के दक्षिणी घाट का नाम अगस्त घाट है । यहाँ आश्विन माह के कृष्ण पक्ष में स्नान, तर्पण और पिण्डदान आदि प्रशस्त हैं ।

7-प्रयाग कुण्ड तीर्थराज प्रयाग ने यहाँ श्रीकृष्ण की आराधना की थी । प्रयाग और पुष्कर ये दोनों कुण्ड एक साथ हैं ।

8-द्वारका कुण्ड श्रीकृष्ण ने यहाँ पर द्वारका से ब्रज में पधारकर महर्षियों के साथ शिविर बनाकर निवास अवस्थित किया था । द्वारकाकुण्ड, सोमती कुण्ड, मानकुण्ड और बलभद्र कुण्ड– ये चारों कुण्ड परस्पर सन्निकट अवस्थित हैं ।

9-नारद कुण्ड यह नारदजी की आराधना स्थली है । देवर्षि नारद इस स्थान पर कृष्ण की मधुर लीलाओं का गान करते हुए अधैर्य हो जाते थे ।

10-मनोकामना कुण्ड 'विमल कुण्ड' और 'यशोदा कुण्ड' के बीच में मनोकामना कुण्ड और काम सरोवर एक साथ विराजमान हैं । यहाँ स्नानादि करने पर मन की सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं ।काम्यवन में गोपिकारमण कामसरोवर है, जहाँ पर मन की सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं । उसी काम्यवन में अन्यान्य सहस्त्र तीर्थ विराजमान हैं ।

11-सेतुबन्ध सरोवर श्रीकृष्ण ने यहाँ पर श्रीराम के आवेश में गोपियों के कहने से बंदरों के द्वारा सेतुका निर्माण किया था । अभी भी इस सरोवर में सेतु बन्ध के भग्नावशेष दर्शनीय हैं । कुण्ड के उत्तर में रामेश्वर महादेवजी दर्शनीय हैं । जो श्रीरामावेशी श्रीकृष्ण के द्वारा प्रतिष्ठित हुए थे । कुण्ड के दक्षिण में उस पार एक टीले के रूप में लंकापुरी भी दर्शनीय है ।

प्रसंग;-

06 POINTS;-

1-श्रीकृष्ण लीला के समय दिन परम कौतुकी श्रीकृष्ण इसी कुण्ड के उत्तरी तट पर गोपियों के साथ वृक्षों की छाया में बैठकर विनोदिनी श्रीराधिका के साथ हास्य–परिहास कर रहे थे । उस समय इनकी रूप माधुरी से आकृष्ट होकर आस पास के सारे बंदर पेड़ों से नीचे उतरकर उनके चरणों में प्रणामकर किलकारियाँ मारकर नाचने–कूदने लगे । बहुत से बंदर कुण्ड के दक्षिण तट के वृक्षों से लम्बी छलांग मारकर उनके चरणों के समीप पहुँचे ।

2-भगवान श्रीकृष्ण उन बंदरों की वीरता की प्रशंसा करने लगे । गोपियाँ भी इस आश्चर्यजनक लीला को देखकर मुग्ध हो गई । वे भी भगवान श्रीरामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं का वर्णन करते हुए कहने लगीं कि श्रीरामचन्द्रजी ने भी बंदरों की सहायता ली थी । उस समय ललिताजी ने कहा– हमने सुना है कि महापराक्रमी हनुमान जी ने त्रेतायुग में एक छलांग में समुद्र को पार कर लिया था । परन्तु आज तो हम साक्षात रूप में बंदरों को इस सरोवर को एक छलांग में पार करते हुए देख रही हैं ।

3-ऐसा सुनकर कृष्ण ने गर्व करते हुए कहा– जानती हो ! मैं ही त्रेतायुग में श्रीराम था मैंने ही रामरूप में सारी लीलाएँ की थी । ललिता श्रीरामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं की प्रशंसा करती हुई बोलीं– तुम झूठे हो । तुम कदापि राम नहीं थे । तुम्हारे लिए कदापि वैसी वीरता सम्भव नहीं । 4-श्रीकृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा– तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है, किन्तु मैंने ही रामरूप धारणकर जनकपुरी में शिवधनु को तोड़कर सीता से विवाह किया था । पिता के आदेश से धनुष-बाण धारणकर सीता और लक्ष्मण के साथ चित्रकूट और दण्डकारण्य में भ्रमण किया तथा वहाँ अत्याचारी दैत्यों का विनाश किया । फिर सीता के वियोग में वन–वन भटका । पुन: बन्दरों की सहायता से रावण सहित लंकापुरी का ध्वंसकर अयोध्या में लौटा । मैं इस समय गोपालन के द्वारा वंशी धारणकर गोचारण करते हुए वन–वन में भ्रमण करता हुआ प्रियतमा श्रीराधिका के साथ तुम गोपियों से विनोद कर रहा हूँ । पहले मेरे रामरूप में धनुष–बाणों से त्रिलोकी काँप उठती थी । किन्तु, अब मेरे मधुर वेणुनाद से स्थावर–जग्ङम सभी प्राणी उन्मत्त हो रहे हैं ।

5-ललिताजी ने भी मुस्कराते हुए कहा– हम केवल कोरी बातों से ही विश्वास नहीं कर सकतीं । यदि श्रीराम जैसा कुछ पराक्रम दिखा सको तो हम विश्वास कर सकती हैं । श्रीरामचन्द्रजी सौ योजन समुद्र को भालू–कपियों के द्वारा बंधवाकर सारी सेना के साथ उस पार गये थे । आप इन बंदरों के द्वारा इस छोटे से सरोवर पर पुल बँधवा दें तो हम विश्वास कर सकती हैं । ललिता की बात सुनकर श्रीकृष्ण ने वेणू–ध्वनि के द्वारा क्षणमात्र में सभी बंदरों को एकत्र कर लिया तथा उन्हें प्रस्तर शिलाओं के द्वारा उस सरोवर के ऊपर सेतु बाँधने के लिए आदेश दिया ।

6-देखते ही देखते श्रीकृष्ण के आदेश से हज़ारों बंदर बड़ी उत्सुकता के साथ दूर -दूर स्थानों से पत्थरों को लाकर सेतु निर्माण लग गये । श्रीकृष्ण ने अपने हाथों से उन बंदरों के द्वारा लाये हुए उन पत्थरों के द्वारा सेतु का निर्माण किया । सेतु के प्रारम्भ में सरोवर की उत्तर दिशा में श्रीकृष्ण ने अपने रामेश्वर महादेव की स्थापना भी की । आज भी ये सभी लीलास्थान दर्शनीय हैं । इस कुण्ड का नामान्तर लंका कुण्ड भी है ।

12-लुकलुकी कुण्ड;- गोचारण करते समय कभी कृष्ण अपने सखाओं को खेलते हुए छोड़कर कुछ समय के लिए एकान्त में इस परम रमणीय स्थान पर गोपियों से मिले । वे उन ब्रज– रमणियों के साथ यहाँ पर लुका–छिपी (आँख मुदउवल) की क्रीड़ा करने लगे । सब गोपियों ने अपनी–अपनी आँखें मूँद लीं और कृष्ण निकट ही पर्वत की एक कन्दरा में प्रवेश कर गये । सखियाँ चारों ओर खोजने लगीं, किन्तु कृष्ण को ढूँढ़ नहीं सकीं । वे बहुत ही चिन्तित हुई कि कृष्ण हमें छोड़कर कहाँ चले गये ? वे कृष्ण का ध्यान करने लगीं । जहाँ पर वे बैठकर ध्यान कर रही थीं, वह स्थल ध्यान–कुण्ड है । जिस कन्दरा में कृष्ण छिपे थे , उसे लुक–लुक कन्दरा कहते हैं । 13-चरणपहाड़ी, काम्यवन;- श्रीकृष्ण इस कन्दरा में प्रवेशकर पहाड़ी के ऊपर प्रकट हुए और वहीं से उन्होंने मधुर वंशीध्वनि की । वंशीध्वनि सुनकर सखियों का ध्यान टूट गया और उन्होंने पहाड़ी के ऊपर प्रियतम को वंशी बजाते हुए देखा। वे दौड़कर वहाँ पर पहुँची और बड़ी आतुरता के साथ कृष्ण से मिलीं । वंशीध्वनि से पर्वत पिघल जाने के कारण उसमें श्रीकृष्ण के चरण चिह्न उभर आये । आज भी वे चरण– चिह्न स्पष्ट रूप में दर्शनीय हैं । पास में उसी पहाड़ी पर जहाँ बछडे़ चर रहे थे और सखा खेल रहे थे, उसके पत्थर भी पिघल गये जिस पर उन बछड़ों और सखाओं के चरण– चिह्न अंकित हो गये, जो पाँच हज़ार वर्ष बाद आज भी स्पष्ट रूप से दर्शनीय हैं । लुक–लुकी कुण्ड में जल–क्रीड़ा हुई थी । इसलिए इसे जल–क्रीड़ा कुण्ड भी कहते हैं ।

14-विहृल कुण्ड;- चरणपहाड़ी के पास ही विहृल कुण्ड और पञ्चसखा कुण्ड है । यहाँ पर कृष्ण की मुरली ध्वनि को सुनकर गोपियाँ प्रेम में विहृल हो गई थी । इसलिए वह स्थान विहृल कुण्ड के नाम से प्रसिद्ध हुआ । पञ्च सखा कुण्डों के नाम रग्ङीला, छबीला, जकीला, मतीला और दतीला कुण्ड हैं । ये सब अग्रावली ग्राम के पास विद्यमान हैं ।

15-यशोधरा कुण्ड;- नामान्तर में घोषरानी कुण्ड है । घोषरानी यशोधर गोप की बेटी थी । यशोधर गोप ने यहीं अपनी कन्या का विवाह कर दिया था । श्रीकृष्ण की मातामही पाटला देवी का वह कुण्ड है ।

16-श्री प्रबोधानन्द सरस्वती भजन स्थली;-

02 POINTS;- 1-लुकलुकी कुण्ड के पास ही बड़े ही निर्जन किन्तु सुरम्य स्थान में श्रीप्रबोधानन्दजी की भजन–स्थली है । श्रीप्रबोधानन्द , श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी के गुरु एवं पितृव्य थे । ये सर्वशास्त्रों के पारंगत अप्राकृत कवि थे । राधारससुधानिधि, श्रीनवद्वीप शतक, श्रीवृन्दावन शतक आदि इन्हीं महापुरुष की कृतियाँ हैं । श्रीकविकर्णपूर ने अपने प्रसिद्ध गौरगणोद्देशदीपिका में उनको कृष्णलीला की अष्टसखियों में सर्वगुणसम्पन्ना तुंगविद्या सखी बतलाया है ।

2-श्रीरग्ङम में श्रीमन्महाप्रभु से कुछ कृष्ण कथा श्रवणकर ये श्रीसम्प्रदाय को छोड़कर श्रीमन्महाप्रभु के अनुगत हो गये । श्रीमन्महाप्रभु के श्रीरग्ङम से प्रस्थान करने पर ये वृन्दावन में उपस्थित हुए और कुछ दिनों तक यहाँ इस निर्जन स्थान में रहकर उन्होंने भजन किया था । अपने अन्तिम समय में श्रीवृन्दावन कालीदह के पास भजन करते–करते नित्यलीला में प्रविष्ट हुए । आज भी उनकी भजन और समाधि स्थली वहाँ दर्शनीय है ।

17-फिसलनी शिला;- कलावता ग्राम के पास में इन्द्रसेन पर्वत पर फिसलनी शिला विद्यमान है । गोचारण करने के समय श्रीकृष्ण सखाओं के साथ यहाँ फिसलने की क्रीड़ा करते थे । कभी–कभी राधिकाजी भी सखियों के साथ यहाँ फिसलने की क्रीड़ा करती थीं । आज भी निकट गाँव के लड़के गोचारण करते समय बड़े आनन्द से यहाँ पर फिसलने की क्रीड़ा करते हैं । यात्री भी इस क्रीड़ा कौतुकवाली शिला को दर्शन करने के लिए जाते हैं ।

18-व्योमासुर गुफ़ा;- इसके पास ही पहाड़ी के मध्य में व्योमासुर की गुफ़ा है । यहीं पर कृष्ण ने व्योमासुर का वध किया था । इसे मेधावी मुनि की कन्दरा भी कहते हैं । मेधावी मुनि ने यहाँ कृष्ण की आराधना की थी । पास में ही पहाड़ी नीचे श्रीबलदेव प्रभु का चरणचिह्न है । जिस समय श्रीकृष्ण व्योमासुर का वध कर रहे थे, उस समय पृथ्वी काँपने लगी । बल्देव जी ने अपने चरणों से पृथ्वी को दबाकर शान्त कर दिया था । उन्हीं के चरणों का चिह्न आज भी दर्शनीय है ।

प्रसंग;-

02 POINTS;-

1-एक समय कृष्ण गोचारण करते हुए यहाँ उपस्थित हुए । चारों तरफ वन में बड़ी–बड़ी हरी–भरी घासें थीं । गऊवें आनन्द से वहाँ चरने लग गई । श्रीकृष्ण निश्चिन्त होकर सखाओं के साथ मेष(भेड़)चोरी की लीला खेलने लगे । बहुत से सखा भेड़ें बन गये और कुछ उनके पालक बने । कुछ सखा चोर बनकर भेड़ों को चुराने की क्रीड़ा करने लगे । कृष्ण विचारक (न्यायाधीश) बने । मेष पालकों ने न्यायधीश कृष्ण के पास भेड़ चोरों के विरुद्ध मुक़दमा दायर किया । श्रीकृष्ण दोनों पक्षों को बुलाकर मुक़दमे का विचार करने लगे । इस प्रकार सभी ग्वालबाल क्रीड़ा में आसक्त हो गये ।

2-उधर व्योमासुर नामक कंस के गुप्तचर ने कृष्ण को मार डालने के लिए सखाओं जैसा वेश धारण कर सखा मण्डली में प्रवेश किया और भेड़ों का चोर बन गया तथा उसने भेड़ बने हुए सारे सखाओं को क्रमश: लाकर इसी कन्दरा में छिपा दिया । श्रीकृष्ण ने देखा कि हमारे सखा कहाँ गये ? उन्होंने व्योमासुर को पहचान लिया कि यह कार्य इस सखा बने दैत्य का ही है । ऐसा जानकर उन्होंने व्योमासुर को पकड़ लिया और उसे मार डाला । तत्पश्चात् पालक बने हुए सखाओं के साथ पर्वत की गुफ़ा से सखाओं का उद्धार किया । श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध में श्रीकृष्ण की इस लीला का वर्णन देखा जाता है ।

19-भोजन थाली;- व्योमासुर गुफ़ा से थोड़ी दूर भोजन थाली है । श्रीकृष्ण ने व्योमासुर का वधकर यहीं पर इस कुण्ड में सखाओं के साथ स्नान किया था उस कुण्ड को क्षीरसागर या कृष्णकुण्ड कहते हैं । इस कुण्ड के ऊपर कृष्ण ने सब गोप सखाओं के साथ भोजन किया था । भोजन करने के स्थल में अभी भी पहाड़ी में थाल और कटोरी के चिह्न विद्यमान हैं । पास में ही श्रीकृष्ण के बैठने का सिंहासन स्थल भी विद्यमान है । भोजन करने के पश्चात् कुछ ऊपर पहाड़ी पर सखाओं के साथ क्रीड़ा कौतुक का स्थल भी विद्यमान है ।

20-बाजन शिला;-

सखालोग एक शिला को वाद्ययन्त्र के रूप में व्यवहार करते थे । आज भी उस शिला को बजाने से नाना प्रकार के मधुर स्वर निकलते हैं यह बाजन शिला के नाम से प्रसिद्ध है । पास में ही शान्तु की तपस्या स्थली शान्तनुकुण्ड है, जिसमें गुप्तगंगा नैमिषतीर्थ, हरिद्वार कुण्ड, अवन्तिका कुण्ड, मत्स्य कुण्ड, गोविन्द कुण्ड, नृसिंह कुण्ड और प्रह्लाद कुण्ड ये एकत्र विद्यमान हैं ।

21-अन्य ;-

1-भोजन स्थली की पहाड़ी पर श्रीपरशुरामजी की तपस्या स्थली है । यहाँ पर श्रीपरशुरामजी ने भगवद आराधना की थी ।

2-काम्यवन में श्रीगौड़ीय सम्प्रदाय के विग्रह–श्रीगोविन्दजी, श्रीवृन्दाजी, श्रीगोपीनाथजी और श्रीमदनमोहनजी हैं । 3-श्रीवल्लभ सम्प्रदाय के विग्रह– श्रीकृष्णचन्द्रमाजी, नवनीतप्रियाजी और श्रीमदनमोहनजी हैं ।

4-श्री बद्रीनाथ केदारनाथ महाराज :-

मान्यता है कि जब यशोदा मैया और नंद बाबा ने भगवान श्री कृष्ण से 4 धाम की यात्रा की इच्छा जाहिर की तो भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि आप बुजुर्ग हो गए हैं, इसलिए मैं आप के लिए यहीं सभी तीर्थों और चारों धामों को आह्वान कर बुला देता हूं। उसी समय से केदरनाथ और बद्रीनाथ भी यहां मौजूद हो गए। 84 कोस के अंदर राजस्थान की सीमा पर मौजूद पहाड़ पर केदारनाथ का मंदिर है। पर्वत पर नंदी स्वरूप में दिखने वाली विशालकाय शिला के नीचे शिव जी का छोटा सा मंदिर है। इसके अलावा बद्रीनाथ भी 84 कोस में ही विराजमान हैं। जिन्हें बूढ़े बद्री के नाम से जाना जाता है। मंदिर के पास ही कुंड भी है। इसके अलावा गुप्त काशी, यमुनोत्री और गंगोत्री के भी दर्शन यहां श्रद्धालुओं को होते हैं।

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1-नन्दभवन :-

यह नन्दगाँव का प्रमुख मन्दिर है। यह नन्दीश्वर पर्वत पर स्थित है। इसमें नन्दबाबा माँ यशोदा, रोहिणी एवं श्री कृष्ण-बल्देव के साथ विराजमान हैं। यहाँ सबके अलग-अलग शयन कक्ष हैं। यहीं पर श्री कृष्ण-बलराम ने अपनी बाल एवं किशोर अवस्था तक की बहुत सी लीलायें की हैं।

2-नन्दकुण्ड :-

नन्दभवन से थोड़ी दूर दक्षिण में नन्द कुण्ड है। महाराज नन्द प्रातः काल यहाँ स्नान, संध्या वंदन आदि करते थे। कभी-कभी कृष्ण और बलराम को अपने कन्धों पर बिठाकर लाते और उन्हें भी यहाँ स्नान कराते थे। कुण्ड के तट पर स्थित मन्दिर में नन्दबाबा की गोद में बैठे हुए श्री कृष्ण एवं बलराम जी के मनोहर दर्शन हैं।

3-नन्दबैठक :-

ब्रजेश्वर महारज नन्दराय जी यहाँ अपने सभी परिजनों, वृद्ध गोपों तथा पुरोहित आदि के साथ समय समय पर बैठकर श्री कृष्ण-बलराम के कल्याण के लिए परामर्श किया करते थे।

4-यशोदा कुण्ड :-

मैया यशोदा प्रतिदिन यहाँ स्नान करने आतीं थीं। माँ यशोदा के साथ कभी-कभी कृष्ण-बलराम भी स्नान करने आ जाते थे और उन दोनों की जल क्रीड़ाएं देखकर यशोदा जी बहुत प्रसन्न्द होती थीं। कुण्ड के तट पर नृसिंह जी का मन्दिर है, वह नित्य नृसिंह देव से लाला कन्हैया के कुशल मंगल की प्रार्थना करती थीं। इसी के पास ही एक प्राचीन गुफ़ा है जिसमें अनेक संत महात्माऒं ने तप किया और ठाकुर जी की दिव्य लीलाओं के दर्शन किये।

5-हाऊ-विलाऊ: -

"दूर खेलन मत जाओ लाल यहाँ हाऊ आये हैं, हँस कर पूछत कान्ह मैया यह किनै पठाये हैं॥"

यशोदा कुण्ड के पश्चिम तट पर सखाओं के साथ कृष्णजी की बाल लीलाऒं का यह स्थान है। यहाँ श्री कृष्ण-बलराम सखाओं के साथ खेलने आया करते थे और खेलने में इतने तनमय हो जाते कि उन्हें भोजन करने का भी स्मरण नहीं रहता। मैया यशोदा कृष्ण-बलराम को बुलाने के लिए रोहिणी जी को भेजती, किन्तु जब वे नहीं आते तो स्वयं जाती और नाना प्रकार से डराते हुए कहती - लाला! जल्दी आजा हऊआ आ जायेगौ।" तो कन्हैया डर कर मैया की गोद में आ जाया करते।

6-चरण पहाड़ी :-

नन्दगाँव के पश्चिम में चरण पहाड़ी स्थित है। श्री कृष्ण ने यहाँ लाखों गायों को एकत्रित करने के लिए गौचारण के समय इस पहाड़ी पर बंशी वादन किया था। श्री कृष्ण जी की मधुर बंशी को सुनकर यह पहाड़ी पिघल गयी तथा कृष्ण के चरण चिह्न यहाँ पर बन गये।

7-वृन्दा देवी : -

चरण पहाड़ी से थोड़ी ही दूर वृन्दा देवी का मन्दिर है। श्री कृष्ण की प्रकट लीला के समय वृन्दा देवी यहाँ निवास किया करती थीं। यहीं से वे संकेत आदि कुंजों में श्री राधा-कृष्ण का मिलन करातीं थीं। यहाँ वृन्दा देवी कुण्ड भी है। वृन्दा देवी ही श्रीराधा-कृष्ण की लीलाओं की अधिष्ठात्री वन देवी हैं। वृन्दा देवी की कृपा से ही श्री राधा-कृष्ण की लीलाओं में प्रवेश लिया जा सकता है।

8-पावन सरोवर :-

यह सरोवर नंदगाँव से काम्यवन जाने वाले रास्ते पर स्थित है। इस सरोवर का निर्माण विशाखा सखी के पिता पावन गोप ने किया था, इसीलिए इसका नाम पावन सरोवर है। सखाओं के साथ गोचारण से लौटते समय कृष्ण जी अपनी गायों को इस सरोवर में पानी पिलाते थे।

9-धोवनी कुण्ड:-

पावन सरोवर के पास ही यह कुण्ड स्थित है। इस कुण्ड में दूध-दही के बर्तन धोये जाते थे इसीलिए इसका नाम धोवनी कुण्ड पड़ गया।

10-मुक्ता (मोती) कुण्ड : -

जब वृषभानु जी राधा जी की सगाई श्री कृष्ण जी के साथ करने नन्दगाँव पहुंचे तो साथ में विविध प्रकार के वस्त्र, अलंकार, आभूषण, रत्न, मोती आदि अपने साथ लाये। इन सब को देखकर नन्दराय जी एवं यशोदा जी चिन्तित हुई और सोचने लगीं कि इसके बदले हम बरसाना क्या भेजें, हमारे पास तो इतने रत्न नहीं है। श्री कृष्ण जी ने माँ यशोदा की चिन्ता को दूर करने के लिये यहीं पर रत्नों की खेती की और यहाँ नाना प्रकार के रत्न उग आये थे।

11-ललिता कुण्ड :-

यह वह स्थान है जहाँ ललिता सखी जी श्रीराधा रानी को किसी न किसी बहाने से बुलाकर श्रीश्याम सुन्दर से मिलाया करती थीं।

12-टेर कदम्ब : -

02 POINTS;-

1-नन्दगाँव एवं जावट ग्राम के बीच में यह स्थित है। जब श्रीकृष्ण जी गोचारण कराने जाते थे, तो कदम्ब वृक्ष के ऊपर बैठकर मधुर बंशी बजाकर अपनी गायों को टेरते थे। टेरने का मतलब होता है पुकारना अथवा बुलाना। सभी गाय कन्हैया की बंशी सुनकर यहाँ एकत्र हो जाती थीं। अतः यह स्थान टेर कदम्ब कहलाता है। आज भी गोपाष्टमी के दिन नन्दगाँव के गोस्वामी परम्परागत इस उत्सव को मनाते चले आ रहे हैं।

2-नन्दगाँव की लीला स्थलियों में टेर कदम्ब सबसे सुरम्य है। मध्य में चबूतरे पर टेर कदम्ब के नीचे कृष्ण बलराम की मनोहारी झाँकी है। इस कदम्ब को उन्हीं प्राचीन कदम्ब की संतति माना जाता है, जिसपर चढ़कर श्रीश्यामसुंदर गायों को टेरते थे। चारों ओर कदम्ब और डूँगर के वृक्ष है। इसी प्रांगण में कृष्ण कुण्ड है, जिसके पास चबूतरे पर बाँसुरी बजाते लाला की मोहिनी मूरत है। उनके चारों ओर कारी, कामर, धौरी, धूसर, श्यामली आदि गाय है।

13-आसेश्वर महादेव : -

यहाँ आसेश्वर महादेव का मन्दिर है।आसेश्वर नाम से ही झलकता है कि यह स्थान आशा पूर्ति से संबंधित है।यहाँ जब महादेव नंद भवन में लला के दर्शन करने गए तो यशोदा मैया ने मना कर दिया कि हमारा लला बहुत छोटा है और आपके दर्शन से डर जाएगा तो महादेव यहाँ इस आस में आसन लगा कर बैठ गए कि श्री कृष्ण हमारी सुनेंगे और दर्शन देंगे। अतः आसेश्वर कहलाए।Videos

You can start for 84 Kos Yatra by car early morning ( from Parikarma Marg in Varindavan). DAY 1: The itinerary(a planned route) for the first day is as follows: 1. Radha rani Mansarover Kund 2. Bheem Gaon 3. Ganesh Bagh 4. Raya to Karavbandhi 5. Anadi 6. Beldevji 7. Dauji 8. Shir Sagar Sanaan 9. Bajdev se Chintaharan 10. Sakshi gopal 11. Brahan Ghat 12. Ukal Bandhan 13. 84 kamba 14. Putna Vad 15. Ramanreti 16. Dwaradish 17. Krishan janam bhumi From Mathura you can came to Govardhan for overnight stay. One can get a lot many places to stay in Govardhan. If you want to stay in Mathura, then also you will get good options. To reduce second day’s journey, you can prefer to reach Govardhan.

DAY 2: The itinerary for the second day is as follows:

1. Goverdhan Parikarma 2. Lavnasur ki Guffa 3. Taal ban 4. Kumad van 5. Dauji 6. Ganga sagar 7. Kapil dev ji 8. Jahar vir 9. Shah pur 10. Madhuri Kund se Mansi Ganga 11. Govind Kund 12. Punchari Luntha 13. Jatipura 14. Mukharvind 15. Madhuresh ke Darshan 16. Chakleshwar 17. Shyam Dayak 18. Lala Kund 19. Peetam Kund 20. Lakhsman Ji ke Darshan 21. Sidh Hanuman ji Ke Darshan 22. Deeg 23. Alipura 24. Adibadri 25. Gangotri 26. Yamnotri 27. Set band 28. Kedarnath 29. Gaurikund 30. Charan Pahadi 31. Gaya kund 32. Vimal kund 33. Kaamvan 34. Panch pandav 35. Mankameshwar 36. Chandradev ji 37. Madanmohan ji 38. Govind dev ji 39. Gopi nath ji 40. Varindadevi 41. Kisalvi Sheela 42. Bhauma sur ki Guffa 43. Bhojan Thali 44. Lanka setu Band Rameshwar 45. Kaam van 46. Kaam van ke kanware 47. Naaga ji 48. Kadam khandi 49. Uncha Gaon 50. Lalita kund 51. Lalita saki 52. Dauji darshan 53. Barsana Parikarma 54. Prem sarovar 55. Daan garh 56. Mor kuti 57. Gehvar van 58. Shri ji ka Mandir 59. Barsana se prem sarovar 60. Sanket vat 61. Gaji pur 62. Sudama kuti 63. Hau balau 64. Nand gaon 65. Kokila van 66. Sir sagar 67. Sesh sai ka darshan 68. Ratnakar sagar 69. Gomati kund 70. Bihari ji 71. Radha madhav 72. Dauji 73. Sita ram mandir 74. Kosi

DAY 3: The itinerary for the third day is as follows:

1. Phalen 2. Parlad Kund 3. Sher garh 4. Echa dau 5. Bihar van 6. Akshay vat 7. Cheerbihari 8. Katyani devi 9. Shamoli 10. Badarvan 11. Bandirvan 12. Bahula 13. Vanshivat 14. Shri dama ka darshan 15. Maant 16. Back to Vrindavan There are some places mentioned twice because this is the entire route one has to cover to go to the temples.

.....SHIVOHAM.....


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