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ब्रज भूमि का क्या महत्व है ?क्या है ब्रज के सुप्रसिद्ध वनों के नाम ?


ब्रज भूमि;-

05 FACTS;-

1-ब्रज भूमि केवल तीर्थ क्षेत्र नहींबल्कि संस्कृति की चिरन्तरता का ठोस सत्य है। हजारों सालों का इतिहास अपने अंक में समेटे ब्रज भूमि भारत की गहरी धार्मिक जड़ों का वट वृक्ष है जिसकी कई शाखाएं-प्रशाखाएं फैली हैं। भौगोलिक दृष्टि से मानचित्र धरातल पर ब्रज नाम का कोई क्षेत्र नहीं है मगर सनातन मतावलम्बियों के हृदय में इसका वजूद है।

2-श्रीकृष्ण के जन्म लेने तथा पश्चात् लीलाओं के क्रमिक विकास किये जाने के कारण तत्कालीन क्षेत्र विशेष धार्मिक आस्था से जुड़ गये। कालान्तर में अपने आस-पास के क्षेत्रों को भी वे सांस्कृतिक रूप से प्रभावित करते रहे, फलस्वरूप कृष्ण भक्ति से जुड़े ये क्षेत्र समय अन्तराल पर ब्रज क्षेत्र का हिस्सा बन गये। हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के कई क्षेत्र ब्रज का अंग माने जाते हैं। इनमें गुडग़ांव, एटा, भरतपुर, डीग, कामवन, मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, दाऊजी, गिरिराज पर्वत, रमनरेत्ती, बरसाना, नन्दगांव, ग्वालियर, आगरा, मेरठ आदि प्रमुख हैं।

3-गर्ग संहिता के वृन्दावन खण्ड के प्रथम अध्याय में यह उल्लेखित है कि दिव्य मथुरा में जहां भी श्रीकृष्ण भगवान ने जन्म लेकर लीलाएं की थी, वहां समस्त वनों में वृन्दावन उत्तम है जो बैकुण्ठ से भी पवित्र धाम है। वराह पुराण से ब्रज की पौराणिकता सिद्ध होती है। 4-आदि पुरूष मनु ने भी यमुना के तट को ही अपना तपस्या का स्थल चुना था। बालक ध्रुव ने मधुवन में भगवान विष्णु की आराधना की थी। चैतन्य महाप्रभु, वल्लभाचार्य जी आदि महापुरूषों ने भी ब्रज क्षेत्र को ही अपना आराध्य क्षेत्र मानते हुए परिक्रमाएं की। वस्तुत: ब्रज क्षेत्र सनातन मतावलम्बियों की अगाध आस्था का क्षेत्र है। 5-ब्रज में पद यात्राओं का दौर वर्ष भर चलता रहता है। मान्यता है कि यात्रा में अभाव ग्रस्त होकर रहने पर संन्यास आश्रम का फल मिलता है अगर आस्तिक हाथ में बांस की लाठी लेकर चलता है तो उसे वानप्रस्थ आश्रम का फल मिलता है।

ब्रज क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण दर्शनीय स्थल और नानाविध पर्व;-

03 FACTS;-

1-ब्रज क्षेत्र में मथुरा प्रमुख केन्द्र है। मथुरा के अलावा वृंदावन, गोकुल, दाऊजी, बरसाना, नंदगांव, गोवर्धन पर्वत महत्त्वपूर्ण दर्शनीय स्थल हैं। उक्त स्थानों के अलावा भी अन्य अनेक दर्शनीय स्थल हैं जिनका किसी न किसी प्रकार से श्रीकृष्ण कथा-क्रम से जुड़ाव है। ब्रज का मुख्य केन्द्र मथुरा देश के अन्य भागों से रेल एवम् सड़क मार्ग दोनों से सीधा जुड़ा हुआ है।

2-बरसाने की लट्ठमार होली, दाऊजी का हुरंगा, फाल्गुन में पण्डे का जलती हुई होली में प्रवेश, दीपावली के अवसर पर गोवर्धन मानसी गंगा पर दीपदान, अन्नकूट दर्शन, विश्राम घाट मथुरा पर यम-द्वितीया के अवसर पर भाई-बहनों का एक साथ स्नान करना, फाल्गुन मास में ब्रज की सप्तरंगी होली, वृंदावन में रंगजी मन्दिर का रथ यात्रा मेला, बसंती कमरे के दर्शन, सावन-भादों के झूले, हिंडोलों के दर्शन, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी समारोह आदि सहित अन्यान्य पर्व,उत्सव बरबस श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकृष्ट करने से नहीं चूकते और यही कारण है कि नानाविध पर्वों, उत्सवों के कारण, भक्तगणों का ब्रज क्षेत्र में वर्ष-भर आवागमन लगा रहता है। ब्रज वह क्षेत्र है जिसके धूलि कण मस्तक पर लगाने योग्य हैं। 3-ब्रज क्षेत्र के सुप्रसिद्ध १२ बन

(१) मधुबन, (२) तालबन, (३) कुमुदबन, (४) बहुलाबन, (५) कामबन, (६) खिदिरबन, (७) वृन्दाबन, (८) भद्रबन, (९) भांडीरबन, (१०) बेलबन, (११) लोहबन और (१२) महाबन हैं।

इनमें से आरंभ के ७ बन यमुना नदी के पश्चिम में हैं और अन्त के ५ बन उसके पूर्व में हैं। भद्रबन, भांडीरबन, और बेलबन - ये तीनों बन यमुना की बांयी ओर ब्रज की उत्तरी सीमा से लेकर वर्तमान वृन्दाबन के सामने तक थे। वर्तमान काल में उनका अधिकांश भाग कट गया है और वहाँ पर छोटे-बड़े गाँव बस गये हैं। उन गाँवों में टप्पल, खैर, बाजना, नौहझील, सुरीर, भाँट पानी गाँव उल्लेखनीय हैं। इनका संक्षिप्त वृतांत इस प्रकार है -

१२ बनों का संक्षिप्त वृतांत ;-

1-मधुबन;-

04 FACTS;-

1-यह ब्रज का सर्वाधिक प्राचीन वनखंड है। इसका नामोल्लेख प्रगैतिहासिक काल से ही मिलता है। राजकुमार ध्रुव इसी बन में तपस्या की थी। सत्रत्रुध्न ने यहां के अत्याचारी राजा लवणासुर को मारकर इसी बन के एक भाग में मथुरा पुरी की स्थापना की थी। वर्तमान काल में उक्त विशाल बन के स्थान पर एक छोटी सी कदमखंडी शेष रह गई है और प्राचीन मथुरा के स्थान पर महोली नामक ब्रज ग्राम बसा हुआ है, जो कि मथुरा तहसील में पड़ता है। 2-मधुपुरी या मधुरा के पास का एक वन जिसका स्वामी मधु नाम का दैत्य था. मधु के पुत्र

लवणासुर को शत्रुघ्न ने विजित किया था.मथुरा से लगभग साढ़े तीन मील दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित यह ग्राम वाल्मीकि रामायण में वर्णित मधुपुरी के स्थान पर बसा हुआ है.

मधुपुरी को मधु नामक दैत्य ने बसाया था. उसके पुत्र लवणासुर को शत्रुघ्न ने युद्ध में पराजित

कर उसका वध कर दिया था और मधुपुरी के स्थान पर उन्होंने नई मथुरा या मथुरा नगरी बसाई थी.

3-महोली ग्राम को आजकल मधुवन-महोली कहते हैं. महोली मधुपुरी का अपभ्रंश है.

प्राचीन संस्कृत साहित्य में मधुवन को श्रीकृष्ण की अनेक चंचल बाल-लीलाओं की क्रीड़ास्थली

बताया गया है.यह गोकुल या वृंदावन के निकट कोई वन था. आजकल मथुरा से साढ़े तीन मील दूर महोली मधुवन नामक एक ग्राम है.यह ब्रज के प्रसिद्ध बारह वनों में से एक है..

4-इसी मधुवन में ध्रुव जी ने तप किया..पौराणिक कथा के अनुसार ध्रुव जी ने इसी वन

में तपस्या की थी,इसका वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण में मिलता है.जब ध्रुव जी अपनी विमाता

के वचनों से आहत हुए तो रोते रोते अपनी माता के महल में पहुँचे,और सारी बात अपनी माता से कही.

4-1-सुनीति ने कहा – देखो बेटा ध्रुव! तुम्हारी विमाता ने जो कहा वह ठीक ही तो कहा है,

इस संसार में केवल एक ही सार है और वह है केवल हरि की भक्ति.तुम जरा भी देर मत करो तुरंत जंगल में जाओ और तप में लग जाओ.

4-2-माँ का आशीर्बाद लेकर ध्रुव घर से निकल गए रास्ते में उन्हें देवर्षी नारद जी मिले और

ध्रुव से पूछने लगे.तुम कहा जा रहे हो. ध्रुव ने कहा- गुरुदेव में भगबान का तप करने जा रहा हूँ.

नारद जी ने कहा – ध्रुव अभी तुम्हारे खेलने-कूदने के दिन है कहा जंगल में जा रहे हो जाओ

वापस लौट जाओ.पर ध्रुव जी नहीं माने वे अपनी बात से तनिक भी नहीं हटे.नारद जी ने जब देखा की ये बालक तो द्ढसंकल्प वाला है-

तो वे बोले ध्रुव यहाँ से आगे जाने पर तुम्हे मधुवन नाम का एक वन मिलेगा वँहा पर यमुना नदी के किनारे बैठकर पहले अपनी सांसो को प्राणायाम से अपने वश में करना फिर उन्हें मंत्र बताया-

“ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नम:”

4-3-इस मंत्र का जप करना,इतना कहकर नारद जी चले गए,और छै माह तक ध्रुव जी ने यही यमुना के किनारे मधुवन में तप किया और भगवान ने उन्हें यही पर दर्शन दिए.

ग्राम के पूर्व में ध्रुव टीला है. जिस पर बालक ध्रुव एवं उनके आराध्य चतुर्भुज नारायण का

श्रीविग्रह विराजमान है.यही ध्रुव की तपस्यास्थली है. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान

ने उनको दर्शन दिया और छत्तीस हज़ार वर्ष का एकछत्र भूमण्डल का राज्य एवं तत्पश्चात अक्षय ध्रुवलोक प्रदान किया. ध्रुवलोक ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत ही श्रीहरि का एक अक्षयधाम है.

2-ताल बन;-

06 FACTS;-

प्राचीन काल में यह ताल के बृक्षों का यह एक बड़ा बन था और इसमें जंगली गधों का बड़ा उपद्रव रहता था। भागवत में वर्णित है, बलराम ने उन गधों का संहार कर उनके उत्पात को शांत किया था। कालान्तर में उक्त बन उजड़ गया और शताब्दियों के पश्चात् वहां तारसी नामक एक गाँव बस गया, जो इस समय मथुरा तहसील के अंतर्गत है। 2-यह वही तालवन है, जहाँ श्री कृष्ण और श्री बलराम जी ने यादवों के हितार्थ और सखाओं के विनोदार्थ धेनुकासुर का वध किया था .मधुवन से दक्षिण पश्चिम में लगभग ढाई

मील की दूरी पर यह तालवन स्थित है . यहाँ ताल वृक्षों पर भरपूर एक बड़ा ही सुहावना एवं रमणीय वन था.

3-दुष्ट कंस ने अपने एक अनुयायी धेनुकासुर को उस वन की रक्षा के लिए नियुक्त कर रखा

था.वह दैत्य बहुत सी पत्नियों और पुत्रों के साथ बड़ी सावधानी से इस वन की रक्षा करता था,

अत: साधारण लोगों के लिए यह वन अगम्य था. केवल महाराज कंस एवं उसके अनुयायी ही मधुर तालफलों का रसास्वादन करते थे.

4-यह सुनकर कृष्ण और बलदेव सखाओं को साथ लेकर तालवन पहुँचे,उन्होंने यह भी बतलाया कि कहीं पास से ही पके हुए मधुर तालफलों की सुगन्ध आ रही है.

बलदेवजी ने पके हुए फलों से लदे हुए एक पेड़ को नीचे से हिला दिया, जिससे पके हुए फल थप-थप कर पृथ्वी पर गिरने लगे.

5-ग्वाल बाल आनन्द से उछलने लगे. इतने में ही फलों के गिरने का शब्द सुनकर धेनुकासुर ने अपने अनुचारों के साथ कृष्ण और बलदेव पर अपने पिछले पैरों से जोरों से आक्रमण किया.

बलदेव प्रभु ने महापराक्रमी धेनुकासुर के पिछले पैरों को पकड़कर उसे आकाश में घुमाया तथा एक बृहत ताल वृक्ष के ऊपर पटक दिया.साथ ही साथ वह असुर मल–मूत्र त्याग करता

हुआ मारा गया. इधर कृष्ण ने भी धेनुकासुर अनुचरों का वध करना आरम्भ कर दिया.

इस प्रकार सारा तालवन गधों के मल-मूत्र और रक्त से दूषित हो गया.ताल के सारे वृक्ष भी एक दूसरे पर गिरकर नष्ट हो गये.

6-पीछे से तालवन शुद्ध होने पर सखाओं एवं सर्वसाधारण के लिए सुलभ हो गया.

यहाँ बलभद्र कुण्ड और बलदेवजी का मन्दिर है.

3-कुमुदवन;-

03 FACTS;- 1-तालवन से दो मील पश्चिम में कुमुदवन स्थित है. इसका वर्तमान नाम कुदरवन है. यहाँ

एक कुण्ड है,जिसे कुमुदिनी कुण्ड या विहार कुण्ड भी कहते हैं. श्री कृष्ण एवं श्रीबलराम जी सखाओं के साथ गोचारण करते हुए इस रमणीय स्थान पर विचरण करते थे.

सखाओं के साथ श्रीकृष्ण स्वयं इसमें जलविहार करते तथा गऊओं को भी मधुर शब्दों से बुलाकर चूँ–चूँ कहकर जल पिलाते, तीरी तीरी कहकर उन्हें तट पर बुलाते.

कमुदिनी फूलों के हार बनाकर एक दूसरे को पहनाते, कभी–कभी कृष्ण सखाओं से छिपकर राधिका ,ललिता, विशाखा आदि प्रिय सखियों के साथ जल–विहार करते थे.

2-प्राचीन काल में इस बन में कुमुद पुष्पों की बहुलता थी, जिसके कारण इस बन का नाम 'कुमुद बन' पड़ गया था। वर्तमान काल में इसके समीप एक पुरानी कदमखड़ी है, जो इस बन की प्राचीन पुष्प-समृद्धि का स्मरण दिलाती है।आजकल यहाँ कुण्ड के तट पर श्री कपिल देव जी की मूर्ति विराजमान है.भगवान कपिल ने यहाँ स्वयं भगवान श्री कृष्ण की आराधना

की थी. यहाँ से ब्रजयात्रा शान्तनु कुण्ड से होकर बहुलावन की ओर प्रस्थान करती है.

आसपास में गणेशरा (गन्धेश्वरी वन) दतिहा, आयोरे, गौराई, छटीकरा, गरुड़ गोविन्द, ऊँचा गाँव आदि दर्शनीय लीला–स्थलियाँ हैं.

3-शांतनु कुंड -महाराजा शांतनु का निवास स्थल यह स्थान महाराज शांतनु की तपस्या–स्थली है. इसका वर्तमान नाम सतोहा है.

मथुरा से लगभग तीन मील की दूरी पर गोवर्धन राजमार्ग यह स्थित है. महाराज शान्तनु ने पुत्र कामना से यहाँ पर भगवद आराधना की थी.भीष्म पितामह इनके पुत्र थे. भीष्म पितामह की माता का नाम गंगा था. किन्तु गंगा जी महाराज शान्तनु को छोड़कर चली गई थी.

महाराज की राजधानी हस्तिनापुर होने पर भी शान्तनु कुण्ड में भी उनका एक निवास स्थल

था.यहाँ शान्तनु कुण्ड है,जहाँ संतान की कामना करने वाली स्त्रियाँ इस कुण्ड में स्नान करती हैं तथा मन्दिर के पीछे गोबर का सतिया बनाकर पूजा करती हैं. शान्तनु कुण्ड के बीच

में ऊँचे टीले पर शान्तनु के आराध्य श्री शान्तनु बिहारी जी का मन्दिर है .

4-बहुलावन

10 FACTS;-

1-द्वादश वन (बारह वनों में) में बहुला नामक वन पंचम वन है. जो लोग इस वन में आते है वे मृत्यु पश्चात अग्निलोक को प्राप्त होते हैं.इस बन का नामकरण यहाँ की एक बहुला गाय के नाम पर हुआ है। इस गाय की कथा 'पदम पुराण' में मिलती है। वर्तमान काल में इस स्थान पर झाड़ियों से घिरी हुई एक कदम खंड़ी है, जो यहां के प्राचीन बन-वैभव की सूचक है। इस बन का अधिकांश भाग कट चुका है और आजकल यहां बाटी नामक ग्राम बसा हुआ है।

2-बहुलावन कुण्ड में स्थित पद्मवन में स्नान पान करने वाले व्यक्ति को बहुत पुण्य प्राप्त होता है क्योंकि भगवान विष्णु लक्ष्मी जी सहित यहाँ निवास करते हैं.

आजकल यहाँ “वाटी”नाम का गांव बसा है बहुला नामक गांव की पौराणिक गाथा इसी वन से

सम्बन्धित है.बहुलावन एक परम सुन्दर और रमणीय वन है. यह स्थान बहुला नामक श्रीहरि की सखी (गोपी) का निवास स्थल है.

3-इसका वर्तमान नाम बाटी है. यह स्थान मथुरा से पश्चिम में सात मील की दूरी पर राधाकुंड एवं वृंदावन के मध्य स्थित है.यहाँ संकर्षण कुण्ड तथा मानसरोवर नामक दो कुण्ड हैं.

कभी राधिका मान करके इस स्थान के एक कुंज में छिप गई.कृष्ण ने उनके विरह में कातर

होकर सखियों के द्वारा अनुसंधान कर बड़ी कठिनता से उनका मान भंग किया था.

जनश्रुति है कि जो लोग जैसी कामना कर उसमें स्नान करते हैं, उनके मनोरथ सफल हो जाते हैं.

4-कुण्ड के तट पर स्थित श्रीलक्ष्मी-नारायण मन्दिर, बहुला नामक गाय का स्थान, सुदर्शनचक्र का चिह्न, श्री कुण्डेश्वर महादेव एंव श्री वल्लभाचार्य जी की बैठक दर्शनीय है.

5-बहुला गाय की कथा – एक बार इस स्थान पर बहुला नामक एक गाय को शेर ने घेर लिया

था.वह उसे मारना चाहता था लेकिन गाय ने शेर को आश्वासन दिया कि वह अपने बछड़े को

दूध पिलाकर लौट आयेगी.इस पर विश्वास कर सिंह वहाँ खड़ा रहा. कुछ समय पश्चात जब गाय अपने बछड़े को दूध पिलाकर लौट आई तो शेर गाय के सत्यव्रत से बहुत प्रभावित हुआ,

उसने गाय को छोड़ दिया. इसलिए इस वन का नाम बहुलावन पड़ा.

बहुलावन के अंतर्गत – “श्रीराधा कुंड – श्रीकृष्ण कुंड”, “शकना” (शकना से आगे जाने पर गणेशराक,दतिया,फेचरी गाँव) “तोष गाँव”, “जखिन ग्राम”, “बिहारवन”, “बसौती और राल ग्राम”, “अडींग”, “माधुरी कुंड”, “मयूर ग्राम”, “छकना ग्राम”,आदि आते है.

6-शूक-सारी संवाद सुनकर महाप्रभु भाव विभोर हो गए जिस समय श्रीचैतन्य महाप्रभु ने इस बहुलावन में प्रवेश किया उस समय वहाँ पर चरती हुई सुन्दर-सुन्दर गायों ने चरना छोड़कर उन्हें घेर लिया.वे प्रेम में भरकर हूँकार करने

लगी तथा उनके अंगों को चाटने लगीं.गऊओं के प्रेम-भरे वात्सल्य को देखकर महाप्रभुजी प्रेम की तरंग बहाते हुए, भावाविष्ट हो गये.कुछ स्वस्थ होने पर उनकी लोरियों को

सहलाने लगे. गऊएँ भी उनका संग नहीं छोड़ना चाहती थी.

7-किन्तु चरवाहों ने बड़े कष्ट से उन्हें किसी प्रकार रोका. उस समय महाप्रभु ‘कोथाय कृष्ण, कोथाय कृष्ण’ कहकर भावाविष्ट हो रोदन कर रहे थे.झुण्ड के झुण्ड हिरण और हिरणियाँ

एकत्रित हो गई और निर्भय होकर प्रेम से महाप्रभुजी के अंगों को चाटने लगीं.

शुक–सारी, कोयल, पपीहे, भृड पञ्चमस्वर में गाने लगे. मयूर महाप्रभु के आगे–आगे नृत्य करने लगे.

8-वृक्ष और लताएँ पुलकित हो उठीं– अंकुर, नव-किशलय पुष्पों से भरपूर हो गयी.

वे प्रेमपूर्वक अपनी टहनी रूपी करपल्लवों से महाप्रभु के चरणों में पुष्प और फलों का उपहार

देने लगीं.महाप्रभु वृन्दावन के स्थावर और जंगम सभी के उच्छ्वलित भावों को देखकर और भी अधिक भावविष्ट हो गये.

9-जब महाप्रभु जी भावाविष्ट होकर कृष्ण बोलो! कहकर उच्च स्वर में रोदन करते, ब्रज के स्थावन–जंगम सभी प्रतिध्वनि के रूप में उनको दोहराते.महाप्रभुजी कभी-कभी हिरण और

हिरणियों के गले को पकड़कर बहुत ही कातर स्वर से रोदन करते.वे भी अश्रुपूरित नेत्रों से

उनके मुखारविन्द को प्रणय भरी दृष्टि से निहारने लगतीं.

10-कुछ आगे बढ़ने पर महाप्रभुजी ने देखा आमने–सामने वृक्षों को डालियों पर शुक–सारी परस्पर प्रेम–कलह करते हुए श्री राधाकृष्ण युगल का गुणवान कर रहे हैं.

सौन्दर्यम् ललनालिधैर्यदलनं लीला रमास्तम्भिनी तीर्याम् कन्दुकिताद्रि–वर्यममला: पारे–पराद्धं गुणा:. शीलं सर्वजनानुरञ्जनमहो यस्यायमस्मत प्रभुर्विश्वं विश्वजनीनकीर्तिरवतात् कृष्णे जगन्मोहन: (गोविन्दलीलामृत)

अनुवाद- शूक ने कहा – जिनका अनुपम सौन्दर्य असंख्य रमणीसमूह के धैर्य धन को

अपहरण कर लेता है,जिनकी विश्वविख्यात कीर्ति लक्ष्मी देवी को भी स्तम्भित कर देती है,जिनके गुण अनन्त हैं, जिनका सरल स्वभाव सर्वसाधारण का मनोरंजन करता है,

जिनकी कीर्ति अखिल ब्रह्मण्ड का कल्याण साधन करती है वे हम लोगों के प्रभु जगमोहन समस्त विश्व की रक्षा करें.

5-कामबन;-

यह ब्रज का अत्यन्त प्राचीन और रमणीक बन था, जो पुरातन वृन्दाबन का एक भाग था। कालांतर में वहां बस्ती बस गई थी। इस समय यह राजस्थान के भरतपुर जिला की ड़ीग तहसील का एक बड़ा कस्बा है। इसके पथरीले भाग में दो 'चरण पहाड़िया' हैं, जो धार्मिक स्थली मानी जाती हैं।

6-खिदिरबन;-

यह ब्रज के १२ वनों में से एक है। यहाँ श्री कृष्ण-बलराम सखाओं के साथ तर-तरह की लीलाएं करते थे। यहाँ पर खजूर के बहुत वृक्ष थे। यहाँ पर श्री कृष्ण गोचारण के समय सभी सखाओं के साथ पके हुए खजूर खाते थे। श्री कृष्ण जी ने यहाँ वकासुर नामक असुर का वध किया था।यह प्राचीन बन भी अब समाप्त हो चुका है और इसके स्थान पर अब खाचरा नामक ग्राम बसा हुआ है। यहां पर एक पक्का कुंड और एक मंदिर है।

7-वृन्दाबन;-

09 FACTS;-

1-प्राचीन काल में यह एक विस्तृत बन था, जो अपने प्रकृतिक सौंदर्य और रमणीक बनश्री के लिये विख्यात था। जब मथुरा के अत्याचारी राजा कंस के आतंक से नंद आदि गोपों को वृद्धबन (महाबन) स्थित गोप-बस्ती (गोकुल) में रहना असंभव हो गया, तब वे सामुहिक रूप से वहां से हटकर अपने गो-समूह के साथ वृन्दाबन में जा कर रहे थे।

2-भागवत् आदि पुराणों से और उनके आधार पर सूरदास आदि ब्रज-भाषा कावियों की रचनाओं से ज्ञात होता है कि उस वृन्दाबन में गोबर्धन पहाड़ी थी और उसके निकट ही यमुना प्रवाहित होती थी। यमुना के तटवर्ती सघन कुंजों और विस्तृत चारागाहों में तथा हरी-भरी गोबर्धन पहाड़ी पर वे अपनी गायें चराया करते थे।वह वृन्दाबन पंचयोज अर्थात बीस कोस परधि का तथा ॠषि मुनियों के आश्रमों से युक्त और सघन सुविशाल बन था।

3- वहाँ गोप समाज के सुरक्षित रूप से निवास करने की तथा उनकी गायों के लिये चारे घास की पर्याप्त सुविधा थी। उस बन में गोपों ने दूर-दूर तक अने बस्तियाँ बसाई थीं। उस काल का वृन्दाबन गोबर्धन-राधाकुंड से लेकर नंदगाँव-वरसाना और कामबन तक विस्तृत था।

4-संस्कृत साहित्य में प्राचीन वृंदाबन के पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं, जिसमें उसके धार्मिक महत्व के साथ ही साथ उसकी प्राकृतिक शोभा का भी वर्णन किया गया है। महाकवि कालिदास ने उसके वन-वैभव और वहाँ के सुन्दर फूलों से लदे लता-वृक्षों की प्रशंसा की है। उन्होंने वृन्दाबन को कुबेर के चैत्ररथ नामक दिव्य उद्यान के सदृश वतलाया है।

5-वृन्दाबन का महत्व सदा से श्रीकृष्ण के प्रमुख लीला स्थल तथा ब्रज के रमणीक बन और एकान्त तपोभूमि होने के कारण रहा है। मुसलमानी शासन के समय प्राचीन काल का वह सुरम्य वृन्दाबन उपेक्षित और अरक्षित होकर एक बीहड़ बन हो गया था। पुराणों में वर्णित श्रीकृष्ण-लीला के विविध स्थल उस विशाल बन में कहाँ थे, इसका ज्ञान बहुत कम था।

6-जव वैष्णव सम्प्रदायों द्वारा राधा-कृष्णोपासना का प्रचार हुआ, तब उनके अनुयायी भक्तों का ध्यान वृन्दाबन और उसके लीला स्थलों की महत्व-वृद्धि की ओर गया था। वे लोग भारत के विविध भागों से वहाँ आने लगे और शनै: शनै: वहाँ स्थाई रूप से बसने लगे।इस प्रकार वृन्दाबन का वह बीहड़ वन्य प्रदेश एक नागरिक बस्ती के रूप में परणित होने लगा। वहाँ अनेक मन्दिर-देवालय वनाये जाने लगे। बन को साफ कर वहाँ गली-मुहल्लों और भवनों का निर्माण प्रारम्भ हुआ तथा हजारों व्यक्ति वहाँ निवास करने लगे। इससे वृन्दाबन का धार्मिक महत्व तो बढ़ गया, किन्तु उसका प्राचीन वन-वैभव लुप्त प्रायः हो गया।

7-यद्यपि प्राचीन बनों में से अधिकांश कट गये हैं और उनके स्थान पर बस्तियाँ बस गईहैं, तथापि उनके अवशेषों के रूप में कुछ बनखंड और कदम खंडियाँ विधमान हैं, जो ब्रज के प्राचीन बनों की स्मृति को बनाये हुए हैं।वर्तमान वृन्दाबन में निधिबन और सेवाकुंज दो ऐसेस्थल हैं, जिन्हें प्राचीन वृन्दाबन के अवशेष कहा जा सकता है। ये संरक्षित बनखंडों के रूप में वर्तमान वृन्दाबन नगर के प्रायः मध्य में स्थित हैं। इनमें सघन लता-कुंज विधमान हैं, जिनमें बंदर-मोर तथा अन्य पशु-पक्षियों का स्थाई निवास है। इन स्थलों में प्रवेश करते ही प्राचीन वृन्दाबन की झाँकी मिलती है ।

8-निधिबन यह स्वामी हरिदास जी पावन स्थल है स्वामी जी ने वृन्दाबन आने पर यहाँ जीवन पर्यन्त निवास किया और इस स्थान पर उनका देहावसान भी हुआ था। मुगल सम्राट अकबर ने तानसेन के साथ इसी स्थान पर स्वामी जी के दर्शन किये थे और उनके दिव्य संगीत का रसास्वादन किया था। स्वामी जी के उपरान्त उनकी शिष्य-परम्परा के आचार्य ललित किशोरी जी तक इसी स्थल में निवास करते थे। इस प्रकार यह हरिदासी संम्प्रदाय का प्रधान स्थान बन गया। यहाँ पर श्री विहारी जी का प्राकट्य स्थल, रंगमहल और स्वामी जी सहित अनेक आचार्यों की समाधियाँ हैं।

9-सेवा कुंज -

यह श्री हित हरिवंश जी का पुण्य स्थल है हित जी ने वृन्दाबन आने पर अपने उपास्य श्री राधाबल्लभ जी का प्रथम पाटोत्सव इसी स्थान पर स. १५९१ में किया था। बाद में मन्दिर बन जाने पर उन्हें वहाँ विराजमान किया गया था। इस समय इसके बीचों-बीच श्री जी का छोटा सा संगमर का मन्दिर है, जिसमें नाम सेवा होती है। इसके निकट ललिता कुंड है। भक्तों का विश्वास है, कि इस स्थान पर अब भी पर अब भी श्री राधा-कृष्ण का रात्रि-विलास होता है, अत रात्रि को यहाँ कोई नहीं रहता है। कांघला निवासी पुहकरदास वैश्य ने स. १६६० में यहाँ श्री जी के शैया-मंदिर का निर्माण कराया था और अयोध्या नरेश प्रतापनारायण सिंह की छोटी रानी ने स. १९६२ में इसके चारों ओर पक्की दीवाल निर्मित कराई।

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8-लोहबन;-

यह प्राचीन बन वर्तमान मथुरा नगर के सामने यमुना के उस पार था। वर्तमान काल में वहाँ इसी नाम का एक गाँव बसा है।तीन कोस गोकुल महाबन सौं तीन कोस ! तीन कोस रायौ तीन कारब करारौ है !!बृन्दावन पाँच कोस , माट धाम पाँच ही है ! पाँच बल्देव कोस दस पै बिलारौ है !! भरतपुर बारह और आगरौ अठारै कोस ! नौ है गिर्राज गाँव ग्यारह गुनसारौ है !!मथुरा सौं एक गौसना सौं कोस आधे पै ही ! स्वर्ग सौं अढाई कोस लोहबन हमारौ है!!

9-बेलवन :-

श्रीलक्ष्मी जी ने वृन्दावन में महारास देखने की अभिलाषा प्रकट की। लेकिन उन्हें महारास में प्रवेश नहीं दिया गया। वह आज भी इस स्थल पर वृन्दावन में महारास देखने के लिये तपस्या कर रही हैं। यहाँ पर पौष मास के प्रत्येक गुरुवार को मेला लगता है.

10-महाबन;-

09 FACTS;-

1-प्राचीन काल में यह एक विशाल सघन बन था, जो वर्तमान मथुरा के सामने यमुना के उस पार वाले दुर्वासा आश्रम से लेकर सुदूर दक्षिण तक विस्तृत था। पुराणों में इसका उल्लेख बृहद्बन, महाबन, नंदकानन, गोकुल, गौब्रज आदि नामों से हुआ है। उस बन में नंद आदि गोपों का निवास था, जो अपने परिवार के साथ अपनी गायों को चराते हुए विचरण किया करते थे। उसी बन की एक गोप बस्ती (गोकुल) में कंस के भय से बालक कृष्ण को छिपाया गया था।

2-श्रीकृष्ण के शैशव-काल की पुराण प्रसिद्ध घटनाएँ - पूतना बध, तृणवर्त बध, शंकट भंजन, चमलार्जुन पतन आदि इसी बन के किसी भाग में हुई थीं। वर्तमान काल में इस बन का अधिकांश भाग कट गया है और वहाँ छोटे-बड़े कई गाँव वस गये हैं। उन गावों में बलदेव, महाबन, गोकुल और रावल के नाम उल्लेखनीय है। 3-महावन गोकुल से आगे 2 किलोमीटर दूर है. लोग इसे “पुरानी गोकुल” भी कहते हैं. गोपराज नन्द बाबा के पिता पर्जन्य गोप पहले नन्द गाँव में ही रहते थे.

वहीं रहते समय उनके “उपानन्द”, “अभिनन्द”, “श्रीनन्द”, “सुनन्द”, और “नन्दन”-ये पाँच पुत्र

तथा “सनन्दा” और “नन्दिनी”.(कही-कही इनके नाम नन्दा और सुनंदा भी आते है) नाम की

दो कन्याएँ पैदा हुईं.उन्होंने वहीं रहकर अपने सभी पुत्र और कन्याओं का विवाह कर दिया.

मध्यम पुत्र श्रीनन्द को कोई सन्तान न होने से बड़े चिन्तित हुए. उन्होंने अपने पुत्र नन्द को सन्तान की प्राप्ति के लिए नारायण की उपासना करने को कहा और उन्हें

आकाशवाणी से यह ज्ञात हुआ कि श्रीनन्द को असुरों का दलन करने वाला महापराक्रमी सर्वगुण सम्पन्न एक पुत्र शीघ्र ही पैदा होगा.

4-इसके कुछ ही दिनों बाद केशी आदि असुरों का उत्पात आरम्भ होने लगा.

पर्जन्य गोप पूरे परिवार और सगे सम्बन्धियों के साथ इस बृहद्वन में उपस्थित हुए.

इस बृहद् या महावन में निकट ही यमुना जी बहती है. यह वन नाना प्रकार के वृक्षों, लता-वल्लरियों और पुष्पों से सुशोभित है,जहाँ गऊओं के चराने के लिए हरे-भरे चारागाह हैं.

ऐसे एक स्थान को देखकर सभी गोप ब्रजवासी बड़े प्रसन्न हुए तथा यहीं पर बड़े सुखपूर्वक निवास करने लगे.

5-यहाँ योगमाया का दर्शन है.यहीं पर नन्दभवन में यशोदा मैया ने कृष्ण कन्हैया तथा

योगमाया को यमज सन्तान(ऐसा कहा जाता है कि वासुदेव जी जब बाल कृष्ण को लेकर प्रसूति का ग्रह में आये तो वहाँ यशोदा के यहाँ पहले से ही यमज अर्थात जुड़वा संतान के रूप में बाल कृष्ण और योगमाया का प्राकट्य हो चुका था.अपने साथ लाए कृष्ण को वासुदेव जी यशोदा के यहाँ जन्मे कृष्ण में मिला देते है और कन्या को लेकर चले जाते है)

के रूप में अर्द्धरात्रि को प्राकट्य हुआ.

6-यहीं यशोदा के सूतिकागार में बाल कृष्ण का नाड़ीच्छेदन आदि जातकर्म, वैदिक संस्कार

आदि हुए.यहीं पूतना,तृणावर्त,शकटासुर नामक असुरों का वध कर कृष्ण ने उनका उद्धार

किया.पास ही नन्द की गोशाला में कृष्ण और बलदेव का नामकरण हुआ. यहीं पास में ही

घुटनों पर राम कृष्ण चले,यहीं पर मैया यशोदा ने चंचल बाल कृष्ण को ऊखल से बाँधा, कृष्ण ने यमलार्जुन का उद्धार किया.

7-यहीं ढाई-तीन वर्ष की अवस्था तक कृष्ण और राम की बालक्रीड़ाएँ हुईं.

वृहद्वन या महावन गोकुल की लीलास्थलियों का ब्रह्माण्ड पुराण में भी वर्णन किया गया है.

महावन के अंतर्गत आने वाले स्थान – “पुरानी गोकुल”,”दंतधावन टीला”, “नन्द बाबा की हवेली”, “राधादामोदर मंदिर”, “नंद भवन”, “पूतना उद्धार स्थल”,”शकट भंजन, तृणावर्त वध स्थल”, “दधिमंथन स्थल”, “नंदबाबा की गौशाला”,”मल्ल तीर्थ”, “नंदकूप”,”श्रीसनातन गोस्वामी जी का भजन स्थल”, “कोलेघाट”,”कर्णछेदन स्थल”

8-ब्रह्माण्ड घाट महावन;-

04 POINTS;-

1-ब्रह्माण्ड घाट जन्मस्थली नन्दभवन से प्राय: एक मील पूर्व में विराजमान है। यहाँ पर बालकृष्ण ने गोप-बालकों के साथ खेलते समय 'मृतिका भक्षण लीला' की थी। यशोदा मैया ने जब बलराम से इस विषय में पूछा तो बलराम ने भी कन्हैया के मिट्टी खाने की बात का समर्थन किया।बालकृष्ण द्वारा ब्रह्माण्ड दर्शनमैया ने घटनास्थल पर पहुँच कर कृष्ण से पूछा- "क्या तुमने मिट्टी खाई?"कन्हैया ने उत्तर दिया- "नहीं मैया! मैंने मिट्टी नहीं खाईं।"

2-यशोदा मैया ने कहा-"कन्हैया! अच्छा तू मुख खोलकर दिखा।"कन्हैया ने मुख खोल कर कहा- "देख ले मैया।"जब मैया यशोदा ने बालकृष्ण के मुख में देखा तो स्तब्ध रह गईं। अगणित ब्रह्माण्ड, अगणित ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा चराचर जगत् सब कुछ कन्हैया के मुख में दिखाई पड़ा। भयभीत होकर उन्होंने आँखें बन्द कर लीं तथा सोचने लगीं- "मैं यह क्या देख रही हूँ? क्या यह मेरा भ्रम है या किसी की माया है?" आँखें खोलने पर देखा कन्हैया उनकी गोद में बैठा हुआ है।

3-यशोदा जी ने घर लौटकर ब्राह्मणों को बुलाया। इस दैवी प्रकोप की शान्ति के लिए स्वस्ति वाचन कराया और ब्राह्मणों को गोदान तथा दक्षिणा दी। श्रीकृष्ण के मुख में भगवत्ता के लक्षण स्वरूप अखिल सचराचर विश्व ब्रह्माण्ड को देखकर भी यशोदा मैया ने कृष्ण को स्वयं भगवान के रूप में ग्रहण नहीं किया। उनका वात्सल्य प्रेम शिथिल नहीं हुआ, बल्कि और भी समृद्ध हो गया।

4- दूसरी ओर कृष्ण का चतुर्भुज रूप दर्शन कर देवकी और वसुदेव का वात्सल्य प्रेम और विश्वरूप दर्शन कर अर्जुन का सख्य-भाव शिथिल हो गया। ये लोग हाथ जोड़कर कृष्ण की स्तुति करने लगे। इस प्रकार ब्रज में कभी-कभी कृष्ण की भगवत्तारूप ऐश्वर्य का प्रकाश होने पर भी ब्रजवासियों का प्रेम शिथिल नहीं होता। वे कभी भी श्रीकृष्ण को भगवान के रूप में ग्रहण नहीं करते। उनका कृष्ण के प्रति मधुर भाव कभी शिथिल नहीं होता।

9-चिन्ताहरणघाट;-

चिन्ताहरणघाट ब्रह्माण्ड घाट से सटे हुए पूर्व की ओर यमुना जी का चिन्ताहरण घाट है। यहाँ चिन्ताहरण महादेव का दर्शन है। ब्रजवासी इनका पूजन करते हैं, कन्हैया के मुख में ब्रह्माण्ड दर्शन के पश्चात् माँ यशोदा ने अत्यन्त चिन्तित होकर चिन्ताहरण महादेव से कृष्ण के कल्याण की प्रार्थना की थी।

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11-भांडीरवन ;-

03 FACTS;-

1-भांडीरवन मथुरा - माँट मार्ग पर स्थित हैं। भांडीरवन श्रीकृष्ण की विविध प्रकार की मधुर लीलाओं की स्थली है। बारह वनों से यह एक प्रमुख वन हैं। यहाँ भाण्डीरवट, वेणुकूप, रासस्थली, वंशीवट, मल्लक्रीड़ा स्थान, श्रीदासमजी का मन्दिर, श्याम तलैया, छायेरी गाँव और आगियारा गाँव आदि लीला स्थलियाँ दर्शनीय हैं।

2- गर्ग संहिता के अनुसार एक बार नन्दबाबा कन्हैया को लेकर शाम के समय भ्रमण पर जा रहे थे, रास्ते में अंधेरा होने पर कन्हैया रोने लगे। बाबा ने उनको चुप कराने की बहुत कोशिश की, तब तक अंधेरा और घना हो चुका था, फ़िर बाबा श्रीराधाजी का स्मरण करने लगे तो श्री जी अपने पूर्ण रूप से प्रकट हुई, बाबा ने लाला को श्री जी की गोदी में दे दिया और श्री जी की स्तुति के बाद वहां से चले आये। उनके जाने के बाद भगवान अपने किशोर रूप में आ गये, ब्रह्मा जी ने दोनों का विवाह् सम्पन्न कराया।

3-मांट गाँव ... मांट शब्द का अर्थ दधि मंथन आदि के लिए मिट्टी से निर्मित बड़े-बड़े पात्रों से है। यह स्थल मांटों (मटका) के निर्माण का केन्द्र था। यमुना किनारे स्थित मांटवन ब्रज का प्रमुख सघन वन था। जहाँ सब प्रकार के तत्त्वज्ञान तथा ऐश्वर्य-माधुर्यपूर्ण लीला-माधुरियों का सम्पूर्ण रूप से प्रकाश हो, उसे भाण्डीरवन कहते हैं।

भांडीरवन के अन्तर्गत श्रीकृष्णलीला-स्थलों का वर्णन ;-

08 FACTS;- 1-भाण्डीरवट;-

05 POINTS;- 1-भाण्डीरवन के अन्तर्गत भाण्डीरवट एक प्रसिद्ध लीलास्थली है। यहाँ श्रीराधाकृष्ण युगल की विविध लीलाएँ सम्पन्न होती हैं। श्रीकृष्ण की प्रकट-लीला के समय यहाँ पर एक बहुत बृहत वट का वृक्ष था उसकी अनेकों लम्बी शाखाएँ ऊपर-नीचे चारों ओर बहुत दूर-दूर तक फैली हुई थीं। पास में ही श्रीयमुना मधुर किल्लोल करती हुई वक्रगति से प्रवाहित हो रही थीं, जिस पर श्रीकृष्ण- बलदेव सखाओं के साथ विविध-प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हुए डालियों के ऊपर-ही-ऊपर श्रीयमुना को पार कर जाते थे।

2-इसकी विस्तृत शाखाओं पर शुक-सारी, मयूर-मयूरी, कोयलें, पपीहे सदा सर्वदा चहकते रहते थे तथा इसके फलों के तृप्त रहते थे। इसकी स्निग्ध एवं सुशीतल छाया में हिरण-हिरणियाँ तथा वन के अन्य प्राणी यमुना का मधुर जलपान कर विश्राम करते थे। श्रीमती यशोदा आदि ग्वालबालों की माताएँ अपने-अपने पुत्रों के लिए दोपहर का 'छाक' गोपों के माध्यम से अधिकांश इसी निर्दिष्ट भाण्डीरवट पर भेज दिया करती थीं। श्रीकृष्ण-बलदेव सखाओं के साथ गोचारण करते हुए यमुना में गायों को जलपान कराकर निकट की हरी-भरी घासों से पूर्ण वन में चरने के लिए छोड़ देते।

3-वे स्वयं यमुना के शीतल जल में स्नान एवं जलक्रीड़ा कर इस वट की सुशीतल छाया में बैठकर माताओं के द्वारा प्रेरित विविध प्रकार के सुस्वादु अन्न व्यंजन का सेवन करते थे। श्रीकृष्ण सबके मध्य में बैठते। सखा लोग चारों ओर से घेर कर हज़ारों पंक्तियों में अगल-बगल एवं आगे-पीछे बैठ जाते। ये सभी सखा पीछे या दूर रहने पर भी अपने को श्रीकृष्ण के सबसे निकट सामने देखते थे। ये परस्पर सबको हँसते-हँसाते हुए विविध प्रकार की क्रीड़ाएँ करते हुए भोजन सम्पन्न करते थे। आकाश से ब्रह्मा आदि देवगण उनके भोजन क्रीड़ा-कौतुक देखकर आश्चर्यचकित हो जाते थे। इसी वट वृक्ष के नीचे श्रीराधाकृष्ण युगल का ब्रह्माजी द्वारा गान्धर्व विवाह सम्पन्न हुआ था। 4-प्रसंग;-

03 POINTS;- गर्गसंहिता में लिखा है कि श्रीकृष्ण और राधा का गंधर्व विवाह भांडीरवन में ही हुआ था। ब्रह्माजी ने ही यह विवाह संपन्न कराया था। भांडीरवन में राधारानी की मांग में सिंदूर भी भरते हैं। गीतगोविन्द के अनुसार एक समय नन्दबाबा श्रीकृष्ण को लेकर गोचारण हेतु भाण्डीरवन में पधारे। सघन तमाल, कदम्ब वृक्षों और हरी-भरी लताओं से आच्छादित यह वन बड़ा ही रमणीय सघन वन होने के कारण इसमें सूर्य की रश्मियाँ भी बहुत ही कम प्रवेश करती थीं। सहसा चारों ओर काले-काले मेघ घिर आये तथा प्रचण्ड आँधी के साथ कुछ-कुछ वर्षा भी प्रारम्भ हो गई। चारों तरफ अंधकार हो गया। नन्दबाबा दुर्योग देखकर भयभीत हो उठे। उन्होंने कन्हैया को अपने अकं में सावधानी से छिपा लिया।

2-इसी समय वहाँ नख से शिख तक श्रृंगार धारण की हुई अपूर्व सुन्दरी वृषभानु कुमारी श्रीराधिकाजी उपस्थित हुई। उन्होंने नन्दबाबा के आगे अपने दोनों हाथों को पसार

दिया , मानों कृष्ण को अपनी गोद में लेना चाहती हो। नन्दबाबा को बहुत ही आश्चर्य हुआ। उन्होंने कृष्ण को उनके हाथों मं समर्पित कर दिया। श्रीमती राधिका कृष्ण को लेकर भाण्डीरवन के अन्तर्गत इसी भाण्डीरवट की छाया में ले गई। वहाँ पहुँचते ही श्रीकृष्ण मन्मथ-मन्मथ किशोर के रूप में प्रकट हो गये।

3-इतने में ललिता, विशाखा आदि सखियाँ तथा चतुर्मुख ब्रह्मा भी वहाँ उपस्थित हुए दोनों की अभिलाषा जानकर ब्रह्माजी ने वेद मन्त्रों के द्वारा किशोर-किशोरी का गान्धर्व विवाह सम्पन्न कराया श्रीमती राधिका और श्रीकृष्ण ने परस्पर एक दूसरे को सुन्दर फूलों के हार अर्पण किये। सखियों ने प्रसन्नतापूर्वक विवाहकालीन गीत गाये और देवताओं ने आकाश से पुष्पों की वृष्टि की। देखते-देखते कुछ क्षणों के पश्चात ब्रह्माजी चले गये। सखियाँ भी अन्तर्धान हो गईं और कृष्ण ने पुन: बालक का रूप धारण कर लिया। श्रीमती राधिका ने कृष्ण को पूर्ववत उठाकर प्रतीक्षा में खड़े नन्दबाबा की गोदी में सौंप दिया। इतने में बादल छट गये। आँधी भी शान्त हो गई। नन्दबाबा कृष्ण को लेकर अपने नन्द ब्रज में लौट आये। 5-दूसरा प्रसंग;-

03 POINTS;- 1-एक समय गर्मी के दिनों में सखाओं के साथ श्रीकृष्ण गायों को यमुना में जलपान कराकर उन्हें चरने के लिए छोड़ दिया तथा वे मण्डलीबद्ध होकर भोजन क्रीड़ा-कौतुक में इतने मग्न हो गये कि उन्हें यह पता नहीं चला कि गायें उन्हें छोड़कर बहुत दूर निकल गई हैं। चारों ओर सूखे हुए मुञ्जावन, जिसमें हाथी भी मार्ग न पा सके, जेठ की चिलचिलाती हुई धूप, नीचे तप्त बालुका, दूर तक कहीं भी छाया नहीं, गायें उस वीहड़ मुञ्जवन से निकलने का मार्ग भूल गई, प्यास के मारे उनकी छाती फटने लगी।

2-इधर सखा लोग भी कृष्ण-बलदेव को सूचित किये बिना ही गायों को खोजते हुए उसी मुञ्जवन में पहुँचे। इनकी भी गायों जैसी विकट अवस्था हो गई इतने में दुष्ट कंस के अनुचरों ने मुञ्जवन में आग लगा दी। आग हवा के साथ क्षणभर में चारों ओर फैल गई। आग की लपलपाती हुई लपटों ने गायों एवं ग्वालबालों को घेर लिया। बचने का और कोई उपाय न देखकर वे कृष्ण को पुकारने लगे। श्रीकृष्ण ने वहाँ पहुँचकर सखाओं को को आँख बन्द करने को कहा। श्रीकृष्ण ने पलभर में उस दावाग्नि का पान कर लिया। सखाओं ने आँख खोलते ही देखा कि सभी भाण्डीरवट की सुशीतल छाया में कृष्ण-बलदेव के साथ पूर्ववत भोजन क्रीड़ा-कौतुक में मग्न हैं, पास में गौएँ भी आराम से बैठी हुई जुगाली कर रही हैं।

3-दावाग्नि की विपत्ति उन्हें स्वप्न की भाँति प्रतीत हुई। श्रीकृष्ण ने जहाँ दावाग्नि का पान किया था वह मुञ्जाटवी या ईषिकाटवी है, उसका वर्तमान नाम आगियारा है। वह यमुना के उस पार भाण्डीर गाँव में है। जहाँ कृष्ण सखाओं के साथ भोजन क्रीड़ा –कौतुक कर रहे थे, दावाग्नि-पान के पश्चात जहाँ पुन: सखा लोग भोजन क्रीड़ा-कौतुक करने लगे तथा गायों को सुख से जुगाली करते हुए देखा, वह यही लीला-स्थली भाण्डीरवट है। श्रीमद्भागवत में इस लीला का वर्णन है-

2-वेणुकूप;- भाण्डीरवट के पास ही वेणुकूप है। यहाँ श्रीकृष्ण ने अपने वेणु से एक कूप को प्रकट किया था। प्रसंग;-

03 POINTS;- 1-वृकासुर(वृषासुर)का वध करने के पश्चात श्रीकृष्ण अपने बल की डींग हाँकते हुए भाण्डीरवट के पास गोपियों से मिले, किन्तु गोपियों ने श्रीकृष्ण के ऊपर गोवध का आरोप लगाकर स्पर्श करने से मना कर दिया। कृष्ण ने कहा कि मैंने गोवध नहीं किया, बल्कि बछड़े के रूप में एक असुर का वध किया है। किन्तु गोपियाँ कृष्ण के तर्क से सहमत नहीं हुई। तब कृष्ण ने उनसे पवित्र होने का उपाय पूछा।

2-गोपियों ने कहा -'यदि तुम पृथ्वी के सारे तीर्थों में स्नान करोगे तब पवित्र होओगे, तभी हमें स्पर्श कर सकते हो।' गोपियों की बात सुनकर कृष्ण ने अपने वेणु से एक सुन्दर कूप का निर्माण कर उसमें पृथ्वी के सारे तीर्थों का आह्वान किया। फिर उस कूप के जल में स्नानकर गोपियों से मिले। यहाँ भाण्डीरवट के निकट ही यह वेणुकूप है। उसमें स्नान करने से सब तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त होता है।

3-आज भी ब्रज की महिलाएँ किसी विशेष योग में इस कूप का पूजन करती हैं तथा जिनको सन्तान उत्पन्न नहीं होती अथवा जिनकी सन्तानें अकाल मृत्यु को प्राप्त होती हैं, वे यहाँ मनौती करती हैं इस प्रकार उनकी मनोवाच्छा पूर्ण होती है।मान्यता है कि सोमवती

अमावस्या को स्नान किया जाता है। स्नान के बाद वस्त्र वहीं कूप के पास ही छोड़ (त्याग दिए) दिए जाते हैं।

3-अक्षय वट /भाण्डीरवट:-

जब ब्रज में महारास हो रहा था तो सभी देवताओं ने इसे देखने की इच्छा प्रकट की। भगवान श्री कृष्ण जी ने उन्हें इस वृक्ष पर विराजमान होकर रास देखने को कहा। अतः सभी देवता अपने लोकों से रास देखने के लिये इसी वृक्ष पर विराजमान होते हैं। यह अक्षय वट कृष्णकालीन है एवं सदैव हरा भरा रहता है। इसे भाण्डीरवट भी कहते हैं। यहाँ पर बल्देव जी ने प्रलम्बासुर का वध किया था। 4-श्रीबलदेवजी का मन्दिर श्रीबलभद्रजी, छोटे भैया कन्हैया और सखाओं को लेकर भाण्डीरवन में गोचारण के लिए आते थे। यमुना से पूर्व की ओर स्थित भद्रवन, भाण्डीरवन, बेलवन, गोकुल-महावन, लोहवन आदि वनों में श्रीबलभद्रजी की प्रमुखता है। इसलिए इन सभी स्थानों में श्रीबलदेवजी के मन्दिर हैं। यहाँ भाण्डीरवट में भी इनका यह मन्दिर दर्शनीय है।

5-छाहेरी गाँव भाण्डीरवट एवं वंशीवट के बीच में बसे हुए गाँव का नाम छाहेरी गाँव है। श्रीकृष्ण सखाओं के साथ भाण्डीरवन में विविध प्रकार की क्रीड़ाओं के पश्चात पेड़ों की छाया में बैठकर नाना प्रकार की भोजन-सामग्री क्रीड़ा-कौतुक के साथ ग्रहण करते थे। इसे छाहेरी गाँव कहते हैं। छाया शब्द से छाहेरी नाम बना है। ग्राम का नामान्तर बिजौली भी है। भाण्डीरवट के पास ही बिजौली ग्राम है।

6-रासस्थली वंशीवट;-

03 POINTS;- 1-ग्राम पंचायत मांट मूला का हिस्सा भांडीरवन और वंशीवट का उल्लेख गर्ग संहिता में विस्तृत रूप से किया गया है। यह गांव ब्रज चौरासी कोस यात्रा का पड़ाव स्थल भी है।भाण्डीरवट से थोड़ी दूर समीप ही श्रीकृष्ण की रासस्थली वंशीवट है। यह वृन्दावन वाले वंशीवट से पृथक् है। यहां एक विशाल वटवृक्ष स्थित है, जिसके संदर्भ में कहा जाता है कि शांत वातावरण में इसकी टहनियों से कान लगाया जाए तो उसमें बांसुरी की आवाज सुनाई देती है।

2-श्रीकृष्ण इधर गोचारण करते समय इसी वटवृक्ष के ऊपर चढ़कर अपनी वंशी में गायों का नाम पुकार कर उन्हें एकत्र करते और उन सबको एकसाथ लेकर अपने गोष्ठ में लौटते। कभी-कभी सुहावनी रात्रिकाल में यहीं से प्रियतमा गोपियों के नाम राधिके ! ललिते ! विशाखे ! पुकारते। इन सखियों के आने पर इस वंशीवट के नीचे रासलीलाएँ सम्पन्न होतीं थीं।

7-श्रीदामवट इसी वंशीवट के नीचे श्रीदाम भैया का दर्शन है। श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर विरह में अनुतप्त होकर श्रीदाम सखा इस निर्जन वंशीवट पर चले आये। वे श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं का स्मरण कर बड़े दुखी रहते थे। बहुत दिनों के बाद दन्तवक्र को बांधकर जब श्रीकृष्ण गोकुल में लौटे, तब इनसे मिले और इनको अपने साथ ले आये। श्रीदाम का मन्दिर यहाँ दर्शनीय है।

8-श्याम तलैया वंशीवट के पास ही श्याम तलैया है। रास के समय गोपियों को प्यास लगने पर श्रीश्यामसुन्दर ने अपनी वंशी से इस तलैया को प्रकटकर उसके सुस्वादु जल से उन सबको तृप्त किया था। यहाँ थोड़ा सा जल है। लोग श्रद्धा से यहाँ आचमन करते हैं।

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ब्रज क्षेत्र के अन्य 27 दर्शनीय स्थल;-

1-कदंबखंडी ;-

ब्रज में संरक्षित बनखंडो के रूप में कुछ कदंबखंडियाँ थी, जहाँ बहुत बड़ी संख्या में कदंब के वृक्ष लगाये गये थे। उन रमणीक और सुरभित उपबनों के कतिपय महात्माओं का निवास था। कवि जगतनंद ने अपने काल की चार कदंवखंडियों का विवरण प्रस्तुत किया है। वे सुनहरा गाँव की कदंबखंडी, गिरिराज के पास जती पुरा में गोविन्द स्वामी की कदंबखंडी, जलविहार (मानसरोवर) की कदंबखंडी और नंदगाँव (उद्धवक्यार) की कदंबखंडी थी। १ इनके अतिरिक्त जो और हैं, उनके नाम कुमुदबन, वहुलाबन, पेंठा, श्याम ढाक (गोबर्धन) पिसाया, दोमिलबन कोटबन और करलहा नामक बनखंडियाँ हैं। वर्तमान काल में इनकी स्थित सोचनीय है।

2-तपोवन; -

02 POINTS;-

1-तपोवन,जहाँ गोपियों ने कृष्ण प्राप्ति के लिए आराधना की. यह स्थान अक्षयवट की पूर्व दिशा में एक मील दूर यमुना के तट पर अवस्थित है.

गोप कन्याओ ने ‘श्रीकृष्ण ही हमारे पति हों’ इस कामना से आराधना की थीं.

कहते हैं ये गोप कन्याएँ वे है जो पूर्व जन्म में दण्डकारण्य में श्रीकृष्ण को पाने की लालसा से

तपस्या में रत थे.श्री रामचंद्र जी की कृपा से द्वापर में गोपीगर्भ से जन्मे थे. इनमें जनकपुर की राजकन्याएँ भी सम्मिलित थीं,

2-यह तपोवन इन्हीं गोप कुमारियों की श्रीकृष्ण प्राप्ति के लिए आराधना स्थल है.

श्री ललिता,विशाखा आदि नित्यसिद्धा गोपियाँ अन्तरग्ङस्वरूप शक्ति राधिका जी की कायव्यूह स्वरूपा है. उन्हें तप करने की कोई भी आवश्यकता नहीं.

3-चीरघाट – यह लीलास्थली अक्षयवट से दो मील पश्चिम में स्थित है. गोप कुमारियों ने ‘श्रीकृष्ण पति के रूप में प्राप्त हों’,इस आशय से एक मास तक नियमित

रूप से नियम व्रतादि का पालन करते हुए कात्यायिनी देवी की पूजा की थीं.

व्रत के अंत में कुछ प्रिय सखाओं के साथ श्रीकृष्ण ने गोपियों के वस्त्र-हरण किये तथा उन्हें उनकी अभिलाषा पूर्ण होने का वरदान दिया था.

यमुना के तट पर यहाँ कात्यायिनी देवी का मंदिर है. गाँव का वर्तमान नाम “सियारो” है.

4-नन्दघाट;-

09 POINTS;- 1-नन्दघाट, गोपीघाट से दो मील दक्षिण और अक्षयवट से एक मील दक्षिण पूर्व में स्थित है.जहाँ श्री जीव गोस्वामी जी ने अपने ग्रंथो का प्रणयन किया.एक बार महाराज नन्द ने

एकादशी का व्रत किया और द्वादशी लगने पर रात्रि में आसुरी बेला में ही वे इसी घाट पर स्नान करने लगे उन्हें समय का पता ही नहीं चला कि अभी असुरी बेला

सुबह नहीं हुई है,इसलिए वरुण के दूत उन्हें पकड़कर वरुण देव के सामने ले गये.

2-यमुनाजी में महाराज नन्द के अदृश्य होने का समाचार पा कर दुखी थे,

क्योकि यमुना जी में नन्द बाबा के पैरों के जाने के चिन्ह तो थे वापस आने के चिन्ह नहीं थे,

ब्रजवासियों का क्रन्दन देखकर श्रीकृष्ण, बलरामजी को उनकी देख-रेख करने के लिए वहीं छोड़कर स्वयं वरुणलोक में गये.

3-वहाँ वरुणदेव ने कृष्ण को देखकर नाना-प्रकार से उनकी स्तव-स्तुति की और उपहारस्वरूप नाना प्रकार के मणि-मुक्ता रत्नालंकार आदि भेंटकर अपने इस कृत्य के लिए क्षमा याचना

की.असल वे तो वे भगवान श्री कृष्ण के दर्शन पाना और उन्हें अपने लोक में लाना चाहते थे ,

इसलिए उन्होंने सोचा यदि मै नन्द बाबा को ले आऊ तो श्री कृष्ण अपने आप ही वरुण लोक

में आ जायेगे,श्रीकृष्ण पिता श्रीनन्द महाराजजी को लेकर इसी स्थान पर पुन: ब्रजवासियों से मिले.

4-एक समय जीव गोस्वामी ने किसी दिग्विजयी पण्डित को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया

था.वह दिग्विजयी पण्डित श्री रूप गोस्वामीजी के ग्रन्थों का संशोधन करना चाहता था.

बालक जीव गोस्वामी इसे सह नहीं सके. वृन्दावन में यमुना घाट पर पराजित होने पर दिग्विजयी पण्डित श्री रूप गोस्वामी जी के पास पहुँचा .

5-बालक की विद्धत्ता की भूरी प्रशंसा करता हुआ व श्री रूपगोस्वामी से परिचय पूछा.

श्री रूपगोस्वमी ने नम्रता के साथ उत्तर दिया- यह मेरे भाई का पुत्र तथा मेरा शिष्य है.

श्री रूप गोस्वामी समझ गये कि जीव ने इसके साथ शास्त्रार्थ किया है. दिग्विजयी पण्डित के

चले जाने के बाद –श्रीलरूपगोस्वामी ने कहा- जीव! तुम इतनी-सी बात भी सहन नहीं कर

सकते?अभी भी तुम्हारे अन्दर प्रतिष्ठा की लालसा है. अत: तुम अभी यहाँ से चले जाओ.

6-श्री जीवगोस्वामी, श्री रूपगोस्वामी के कठोर शासन वाक्य को सुनकर बड़े दुखी हुए.

वे वृंदावन से नन्दघाट के निकट यमुना के किनारे सघन निर्जन वन में किसी प्रकार बड़े कष्ट

से रहने लगे.वे यमुना के तट पर मगरों की माँद में रहते. कभी-कभी आटा में जल मिलाकर वैसे ही पी लेते, तो कभी उपवास में ही रहते.इस प्रकार श्रीगुरुदेव के विरह में तड़फते हुए

जीवन यापन करने लगे. कुछ ही दिनों में शरीर सूखकर काँटा हो गया.

7-उन्हीं दिनों श्री सनातन गोस्वामी ब्रज परिक्रमा के बहाने नन्दघाट पर उपस्थित हुए.

वहाँ ब्रजवासियों के मुख से एक किशोर गौड़ीय बाल के साधु की कठोर आराधना एवं उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा सुनकर वे जीव गोस्वामी के पास पहुँचे तथा सांत्वना देकर उसे अपने साथ

वृन्दावन ले आये.अपनी भजन कुटी में जीव को छोड़कर वे अकेले ही रूप गोस्वामी के पास

पहुँचे.श्री रूप गोस्वामी उस समय जीवों पर दया के सम्बन्ध में उपस्थित वैष्णवों के सामने व्याख्या कर रहे थे.

8-श्री सनातन गोस्वामी ने उस व्याख्या के बीच में ही श्री रूप गोस्वामी से पूछा- तुम दूसरों को तो जीव पर दया करने का उपदेश दे रहे हो किन्तु स्वयं जीव पर दया क्यों नहीं करते?

श्री रूप गोस्वामी ने बड़े भाई और गुरु श्री सनातन गोस्वामी की पहेली का रहस्य जानकर श्री जीव को अपने पास बुलाकर उनकी चिकित्सा कराई तथा पुन: अपनी सेवा में नियुक्त कर उन्हें अपने पास रख लिया.

9-नन्दघाट में रहते हुए श्रीजीव गोस्वामी ने अपने षट्सन्दर्भ रूप प्रसिद्ध ग्रन्थ का प्रणयन

कियाथा.यहाँ पर अभी भी श्रीजीव गोस्वामी का स्थान जीव गोस्वामी की गुफ़ा के रूप में प्रसिद्ध है.

5-शांतनु कुंड -महाराजा शांतनु का निवास स्थल;-

03 POINTS;- 1-यह स्थान महाराज शांतनु की तपस्या–स्थली है. इसका वर्तमान नाम सतोहा है.

मथुरा से लगभग तीन मील की दूरी पर गोवर्धन राजमार्ग यह स्थित है. महाराज शान्तनु ने पुत्र कामना से यहाँ पर भगवद आराधना की थी.

2-इससे प्रतीत होता है कि महाराज की राजधानी हस्तिनापुर होने पर भी शान्तनु कुण्ड में भी उनका एक निवास स्थल था.भीष्म पितामह इनके पुत्र थे. भीष्म पितामह की माता का नाम गंगा था. किन्तु गंगा जी महाराज शान्तनु को छोड़कर चली गई थी.

3-यहाँ शान्तनु कुण्ड है,जहाँ संतान की कामना करने वाली स्त्रियाँ इस कुण्ड में स्नान करती हैं तथा मन्दिर के पीछे गोबर का सतिया बनाकर पूजा करती हैं.शान्तनु कुण्ड के बीच

में ऊँचे टीले पर शान्तनु के आराध्य श्री शान्तनु बिहारी जी का मन्दिर है .

6-पूतना ,तृणावर्त उद्धार स्थल;- 02 POINTS;-

1-पूतना पूर्वजन्म में महाराज बलि की कन्या रत्नमाला थी, भगवान वामनदेव को अपने पिता के राजभवन में देखकर वैसे ही सुन्दर पुत्र की कामना की थी.किन्तु जब वामनदेव ने

बलि महाराज का सर्वस्व हरण कर उन्हे नागपाश में बाँध दिया तो वह रोने लगी.

उस समय वह यह सोचने लगी कि ऐसे क्रूर बेटे को मैं विषमिश्रित स्तन-पान कराकर मार

डालूँगी.वामनदेव ने उसकी अभिलाषाओं को जानकर ‘एवम् अस्तु’ ऐसा ही हो वरदान दिया था.

2-माता का वेश बनाकर पूतना अपने स्तनों में कालकूट विष भरकर नन्दभवन में इस स्थल पर आयी.उसने सहज ही यशोदा-रोहिणी के सामने ही पलने पर सोये हुए शिशु कृष्ण को अपनी गोद में उठा लिया और स्तनपान कराने लगी.कृष्ण ने कालकूट विष के साथ ही साथ उसके प्राणों को भी चूसकर राक्षसी शरीर से उसे मुक्तकर गोलोक में धात के समान गति

प्रदान की.इसीलिए श्रीकृष्ण ने उसी रूप में उसका वध कर उसको धात्रोचित गति प्रदान की.

7-शकट भंजन स्थल;-

04 POINTS;-

1– एक समय बाल-कृष्ण किसी छकड़े के नीचे पलने में सो रहे थे.यशोदा मैया उनके

जन्मनक्षत्र उत्सव के लिए व्यस्त थीं.उसी समय कंस द्वारा प्रेरित एक असुर उस छकड़े में प्रविष्ट हो गया और उस छकड़े को इस प्रकार से दबाने लगा जिससे कृष्ण उस छकड़े के नीचे दबकर मर जाएँ.

2-किन्तु चंचल बालकृष्ण ने किलकारी मारते हुए अपने एक पैर की ठोकर से सहज रूप में ही उसका वध कर दिया, छकड़ा उलट गया और उसके ऊपर रखे हुए दूध, दही, मक्खन आदि के बर्तन चकनाचूर हो गये. बच्चे का रोदन सुनकर यशोदा मैया दौड़ी हुई वहाँ पहुँची और आश्चर्यचकित हो गई.

3-बच्चे को सकुशल देखकर ब्राह्मणों को बुलाकर बहुत सी गऊओं का दान किया.

वैदिक रक्षा के मन्त्रों का उच्चारणपूर्वक ब्राह्मणों ने काली गाय के मूत्र और गोबर से कृष्ण का अभिषेक किया. यह स्थान इस लीला को संजोये हुए आज भी वर्तमान है.

4-शकटासुर पूर्व जन्म में हिरण्याक्ष दैत्य का पुत्र उत्कच नामक दैत्य था.उसने एक बार लोमशऋषि के आश्रम के हरे-भरे वृक्षों और लताओं को कुचलकर नष्ट कर दिया था.

ऋषि ने क्रोध से भरकर श्राप दिया- ‘दुष्ट तुम देह-रहित हो जाओं.’ यह सुनकर वह ऋषि के

चरणों में गिरकर क्षमा माँगने लगा,’उसी असुर ने छकड़े में आविष्ट होकर कृष्ण को पीस डालना चाहा, किन्तु भगवान कृष्ण के श्रीचरणकमलों के स्पर्श से मुक्त हो गया.श्रीमद्भागवत में इसका वर्णन है.

8-सनातन गोस्वामी जी की भजन कुटीर;-

04 POINTS;- 1-गोकुल में चौरासी खम्बा मन्दिर से नीचे उतरने पर सामुद्रिक कूप के पास ही गुफ़ा के भीतर सनातन गोस्वामी की भजनकुटी है.सनातन गोस्वामी कभी-कभी यहाँ गोकुल में आने पर

इसी जगह भजन करते थे और “श्रीमदनगोपालजी” का प्रतिदिन दर्शन करते थें.

एक समय सनातन गोस्वामी यमुना पुलिन के रमणीय बालू में एक अद्भुत बालक को खेलते हुए देखकर आश्चर्यचकित हो गये.

2-खेल समाप्त होने पर वे बालक के पीछे-पीछे चले, किन्तु मन्दिर में प्रवेश ही वह बालक दिखाई नहीं दिया, विग्रह के रूप में श्रीमदनगोपाल दीखे.वही श्रीमदनगोपाल कुछ समय बाद

पुन: मथुरा के चौबाइन के घर में उसके बालक के साथ में खेलते हुए मिले.

3-श्रीमदनगोपाल ने सनातनजी से उनके साथ वृंदावन में ले चलने लिए आग्रह किया.

सनातन गोस्वामी उनको अपनी भजनकुटी में ले आये और विशाल मन्दिर बनवा कर उनकी सेवा-पूजा आरम्भ करवाई.

9-जखिन गाँव ;–

यह तोष ग्राम से दो मील की दूरी पर है. इसका पूर्व नाम दक्षिण ग्राम है.

राधिकाजी का वाम्य भाव ही प्रसिद्ध है.श्रीकृष्ण को वही भाव सर्वाधिक सुखकर है.

किन्तु राधिकाजी में अखिल नायिकोचित भाव भी विद्यमान हैं. अत: कभी-कभी विशेष स्थिति में यहाँ दक्षिण नायिकोचित भाव को प्रकाश कर किशोरी जी ने श्रीकृष्ण को आनन्दित

किया था.इसलिए इस ग्राम का नाम दक्षिण ग्राम हुआ है. किसी समय दाऊजी ने कृष्ण विलास में बाधा देने वाले एक यक्षिणी का बध किया था.

इसलिए इसे जक्षिण या जखिन ग्राम भी कहते हैं. यहाँ बलभद्र कुण्ड तथा बलदेव रेवती का दर्शन है.

10-बिहारवन; –

यह श्रीराधाकृष्ण युगल की विहारस्थली है. यहाँ पर राधिकाजी ने कृष्ण के नृत्य की परीक्षा ली

थी.मान–गुमान की छड़ी लेकर राधाप्यारी प्यारे कुञ्जबिहारी को नाचना सिखा रही हैं.

किन्तु जब राधा प्यारी के निर्देश के अनुसार क्षिप्र गति से नृत्य में कोई त्रुटि आ पड़ी तो प्यारी जी ने आँखों की प्रखर दृष्टि से उन्हें ताड़न किया.

यहाँ विहारकुण्ड है, जिसके निर्मल जल में ग्वालबालों के साथ कृष्ण ने गऊओं को मधुर जल

पिलाया तथा जल विहार किया.पास ही अति रमणीय कदम्ब खण्डी है, जिसमें छोटी-सी छत्री में भगवान के श्रीचरणों के चिह्न दर्शनीय है.

11-बसौती ग्राम ;–

02 POINTS;-

1-वर्तमान बसौती का नाम बसती है और राल का वर्तमान नाम राल ग्राम है.

जिस समय नन्दबाबा ने सपरिवार गोकुल महावन को छोड़कर छटीकरा में निवास किया,

उस समय उनके मित्र वृषभानु महाराज ने यहाँ बसौंती ग्राम में निवास किया. उनके यहाँ वास करने से यहाँ बसौंती हुआ है.

निकट ही “राल गाँव” है. राल राधाजी की “बाल्य लीलास्थली”है. तथा “बसौंती” उनकी “आंशिक पौगण्ड लीला स्थली”है.

2-“बरसाना”, “जावट” और “राधाकुण्ड” उनकी “किशोर लीला की स्थलियाँ” हैं.

किंन्तु “श्रीराधाकुण्ड” उनकी परिपूर्णतम लीला विलास की “परमोच्चतम लीला स्थली” है यहाँ बलभद्रकुण्ड, बलभद्रमन्दिर तथा पास ही में कदम्ब–खण्डी है.

12-कामर; –

02 POINTS;-

1-कामर – जहाँ गोपियों ने श्रीकृष्ण की कामर छुपा दी.यहाँ श्रीकृष्ण प्रेम में व्याकुल होकर राधिका के आगमन पथ की ओर निहार रहे थे. जहाँ गोपियों ने श्रीकृष्ण की

कामर छुपा दी .इसमें गोपी कुण्ड, गोपी जलविहार, हरिकुण्ड, मोहन कुण्ड, मोहनजी का मन्दिर और दुर्वासाजी का मन्दिर है.

2-प्रसंग ;–

03 POINTS;-

1-एक समय श्रीकृष्ण राधिका से मिलने के लिए अत्यन्त विह्वल हो गये. वे राधिका के आगमन-मार्ग की ओर व्याकुल होकर बार-बार देखने लगे.अंत में उन्होंने अपनी

मधुर मुरली में उनका नाम पुकारा, जिससे राधिका सखियों के साथ आकर्षित होकर चली

आईं. कृष्ण बड़े आनन्द से उनसे मिले.गोपियों को एक कौतुक सूझा. उन्होंने प्रियतम की कारी कामर(कम्बल) चुपके से उठाकार छिपा दी.

2-श्रीकृष्ण अपनी प्रिय कामर खोजने लगे. भक्त कविवर श्रीसूरदास जी ने इस झाँकी का

सरस चित्रण किया है.कन्हैया मैया से उलाहना दे रहे हैं मैया री ! मैं गऊओं को चराने के लिए

वन में गया था.गायों के बहुत दूर निकल जाने पर मैं भी अपनी कामर को वहीं छोड़कर उनके पीछे-पीछे मैं लौटा तो अपनी कामर न पाकर मैंने सखियों से पूछा- मेरी कामर कहाँ गई ? यदि तुम लोगों ने लिया है तो उसे लौटा दो...

“मैया मेरी कामर चोर लई।

मैं बन जात चरावन गैया सूनी देख लई।।

एक कहे कान्हा तेरी कामर जमुना जात बही।

एक कहे कान्हा तेरी कामर सुरभि खाय गई।।

एक कहे नाचो मेरे आगे लै देहुँ जु नई।

सूरदास जसुमति के आगे अँसुवन धार बही।।”

3-किन्तु वे कहती हैं –कन्हैया ! तेरी कामर तो यमुना में बहती हुई जा रही थीं. मैंने ख़ुद ही उसे

बहते हुए देखा है.दूसरी कहती है- कन्हैया ! मैंने देखा तेरी कामर को एक गईया खा गई. मैया !

बता भला गईया मेरी कामर कैसे खाय सके है.तीसरी कहती है- कन्हैया तू मेरे सामने नाचेगा, तो तुझे दूसरी नई कामर मँगा दूँगी. मैया ! ये सखियाँ मुझे नाना प्रकार से खिजाती हैं.

ऐसा कहते-कहते कन्हैया के आँखों में आँसू उमड़ आये. मैया ने लाला को उठाकर अपने हृदय

से लगा लिया.कामर-कामर पुकारने से ही इस गाँव का नाम कामर पड़ा है. कामर से तात्पर्य काले कम्बल से है. 13-बासोसि;- शेषशाई से दो मील उत्तर में बासोसि गाँव स्थित है. यहाँ पर श्रीकृष्ण के श्रीअंग का सुन्दर सुगन्ध ग्रहणकर भँवरे उन्मत्त हो उठते थे

तथा वे कृष्ण के चारों ओर उन्मत्त होकर गुञ्जार करने लगते थे. बास शब्द का अर्थ सुगन्ध

से है. इसीलिए इस स्थान का नाम बासोसि हुआ.सखियों के साथ राधाकृष्ण यहाँ क्रीड़ा-विलास में उन्मत्त हो जाते थे . उनके श्रीअंगो की सुगन्ध से, फाग में उड़े अबीर, गुलाल, चन्दन आदि से वहाँ सर्वत्र सुगन्ध भर जाता था.

14-पयगाँव;- जहाँ श्री कृष्ण ने सखाओ सहित किया दूध का पानयह स्थान कोसी से छह मील पूर्व में है. यद्यपि माताएँ कृष्ण बलराम और अपने-अपने पुत्रों के लिए दोपहर के लिए घर से छाक भेज

देती थीं,फिर भी एक समय जब छाक मिलने में विलम्ब होने के कारण श्रीकृष्ण और सखाओं का बड़ी भूख लगी तो उन्होंने इस गाँव में जाकर पय अर्थात दूध पान किया था,

इसलिए यह गाँव पयगाँव के नाम से प्रसिद्ध हुआ. गाँव के उत्तर में पयसरोवर तथा कदम्ब और तमाल वृक्षों से सुसज्जित मनोहर कदम्बखण्डी है. कोसी के पास ही कोटवन है.

15-नेओछाक यहाँ गोचारण के समय सखाओं के साथ श्रीकृष्ण दोपहर में भोजन करते थे.

माँ यशोदा कृष्ण-बलदेव के लिए और अन्यान्य माताएँ अपने-अपने पुत्रों के लिए दोपहर का

कलेवा भेजती थीं तथा कृष्ण बलराम क्रीड़ा-कौतुक, हास-परिहासपूर्वक उन्हें पाते थे. छाक शब्द का अर्थ कलेवा या भोजन सामग्री से है. नेओछाक का तात्पर्य है छाक लो.

16-कोसीवन ;–

03 FACTS;- 1-कुश स्थली (कोसी) : जो है हास परिहास की लीलाभूमि...यह नन्दराय जी की कोष स्थली है। इसी स्थल को ब्रज की द्वारिका पुरी कहते हैं। यहाँ पर रत्‍नाकर सागर, माया कुण्ड तथा गोमती कुण्ड है।मथुरा दिल्ली राजमार्ग पर, मथुरा से लगभग 38 मील और छत्रवन (छाता) से लगभग 10 मील की दूरी पर यह स्थित है.

2-यहाँ कृष्ण ने नन्द बाबा को कुशस्थली का (द्वारका धाम) दर्शन कराया था.

जहाँ द्वारकाधाम का दर्शन कराया था, वहाँ गोमती कुण्ड है, जो गाँव के पश्चिम में

विराजमान है.यहाँ किसी समय राधिका ने विशेष भंगिमा के द्वारा कृष्ण से पूछा था-कोऽसि ? तुम कौन हो ? इसीलिए इस स्थान का नाम कोऽसिकोसीवन है।

3-प्रसंग; –

05 POINTS;-

1-किसी समय श्रीकृष्ण राधिका से मिलने के लिए बड़े उत्कण्ठित होकर राधिका के भवन के कपाट को खट-खटा रहे थे.भीतर से राधिका ने पूछा-कोऽसि ?

श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया – मैं कृष्ण हूँ.

राधिका – (कृष्ण शब्द का एक अर्थ काला नाग भी होता है) यदि तुम कृष्ण अर्थात काले नाग हो तो तुम्हारी यहाँ क्या आवश्यकता है ?

क्या मुझे डँसना चाहते हो? तुम वन में जाओ.यहाँ तुम्हारी कोई आवश्यकता नहीं.

श्रीकृष्ण – नहीं प्रियतमे ! मैं घनश्याम हूँ.

2-राधिका – (घनश्याम अर्थ काला बादल ग्रहणकर) यदि तुम घनश्याम हो तो तुम्हारी यहाँ आवश्यकता नहीं है.यहाँ बरस कर मेरे आगंन में कीचड़ मत करो.तुम वन और खेतों में जाकर वहीं बरसो.

श्रीकृष्ण – प्रियतमे ! मैं चक्री हूँ.

3-राधिका- यहाँ (चक्री शब्द का अर्थ कुलाल अथवा मिट्टी के बर्तन बनाने वाला) कोई विवाह उत्सव नहीं है.जहाँ विवाह-उत्सव इत्यादि हों वहाँ तुम अपने मिट्टी के बर्तनों को लेकर जाओ.

श्रीकृष्ण- प्रियतमे ! मैं मधुसूदन हूँ.

4-राधिका- (मधुसूदन का दूसरा अर्थ भ्रमर ग्रहणकर) यदि तुम मधुसूदन (भ्रमर) हो तो शीघ्र ही यहाँ से दूर कहीं पुष्पोद्यान में पुष्पों के ऊपर बैठकर उनका रसपान करो.यहाँ पर पुष्पाद्यान नहीं है.

श्रीकृष्ण-अरे ! मैं तुम्हारा प्रियतम हरि हूँ.

5-राधिका ने हँसकर कहा- (हरि शब्द का अर्थ बन्दर या सिंह ग्रहणकर) यहाँ बन्दरों और सिंहों की क्या आवश्यकता है ? क्या तुम मुझे नोचना चाहते हो ?

तुम शीघ्र किसी गम्भीर वन में भाग जाओ.हम बन्दरों और सिंहों से डरती हैं.

इस प्रकार राधिका प्रियतम हरि से नाना प्रकार का हास-परिहास करती हैं.वे हम पर प्रसन्न हों.इस हास-परिहास की लीलाभूमि को कोसी वन कहते ह

17-तोषग्राम : यह श्री कृष्ण के प्रिय सखा तोष का गाँव है। तोष नामक गोप नृत्यकला में बहुत निपुण थे। श्री कृष्ण जी ने नृत्य की शिक्षा इन्हीं से प्राप्त की थी। यहाँ तोष कुण्ड है जिसके जल को पीकर ग्वालबाल, गौएँ, श्री कृष्ण-बलराम को बड़ा ही संतोष होता था। यहाँ गोपालजी तथा राधारमण जी की स्थलियाँ दर्शनीय हैं।

18-दतिहा : यहाँ श्री कृष्ण जी ने दन्तवक्र नामक असुर का वध किया था। यहाँ महादेव जी का एक चतुर्भुज विग्रह है।

19-गरुड़ गोविन्द :-

छटीकरा के पास ही गरुड़ गोविन्द जी का मन्दिर है। एक दिन श्री कृष्ण गोचारण करते हुए सखाओं के साथ यहाँ विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाएं कर रह थे। उन्होंने श्रीदाम सखा को गरुड़ बनाया और उसकी पीठ पर स्वयं इस प्रकार बैठ गये जैसे मानो स्वयं लक्ष्मीपति नारायण गरुड़ की पीठ पर सवार हों। यहाँ पर गरुड़ बने हुए श्रीदाम तथा गोविन्द जी का दर्शन होता है।

20-जसुमती (जसौंदी) : यह श्रीराधाकुण्ड-वृन्दावन मार्ग पर स्थित है। श्री कृष्ण की सखी जसुमती ने यहाँ सूर्य भगवान की उपासना की थी। यहाँ सूर्य कुण्ड दर्शनीय है।

21-बसोंति(बसति) : -

यह श्री कृष्ण की सखी बसुमति का स्थान है। उसने बसंत पंचमी को भगवान की अराधना की थी। यहाँ बसन्त कुण्ड एवं कदम्ब खण्डी है।

22-ऐंचादाउजी : -

एक बार बलराम जी श्री कृष्ण जी के कहने पर द्वारिका से ब्रज में अपने मैया और बाबा से मिलने आये। इसके पश्‍चात उनके मन में महारास की इच्छा प्रकट हूई तो उन्होंने सभी सखियों को इस स्थल पर बुलाया। लेकिन यमुना जी नहीं आयीं क्योंकि बलराम जी उनके जेठ लगते थे। तो बलराम जी यमुना जी को अपने हल से खींचकर यहाँ लाये। तभी से इस स्थान पर यमुना उल्टी बह रहीं हैं। यमुना जी को हल से खींच कर लाने के कारण ही इसका नाम ऐंचा दाऊजी पड़ गया।

23-फ़ालेन:-

यह भक्त प्रह्‍लाद की जन्मस्थली है।

24-कामई :-

यह अष्ट सखियों में प्रमुख विशखा सखी जी का जन्मस्थान है।

25-खेलनवन : यहाँ गोचारण के समय श्री कृष्ण-बलराम सखाओं के साथ विभिन्न प्रकार के खेल खेलते थे। श्री राधा जी भी यहाँ अपनी सखियों के साथ खेलने आतीं थीं, इन्हीं सब कारणों से इस स्थान का नाम खेलनवन पड़ा।

26-बिहारवन : -

यहाँ पर श्री बिहारी जी के दर्शन और बिहार कुण्ड है। यहाँ पर रासबिहारी श्री कृष्ण ने राधिका जी सहित गोपियों के साथ रासविहार किया एवं अनेक लीला-विलास किए थे। श्री यमुना जी के पास यह एक सघन रमणीय वन है। यहाँ के गौशाला में आज भी कृष्णकालीन गौवंश के दर्शन होते हैं।

27-कोकिलावन : -

एक बार श्री कृष्ण ने कोयल के स्वर में कूह-कूह की ध्वनि से सारे वन को गुंजायमान कर दिया। कूह-कूह की धुन को श्री राधा जी ने पहचान लिया कि ये श्री कॄष्ण जी आवाज निकाल

रहे हैं। ध्वनि को सुनकर श्री राधा जी विशाखा सखी के साथ यहाँ आईं, इधर अन्य सखियाँ भी प्राण-प्रियतम को खोजते हुए पहुँच गयीं। यह श्रीराधा-कृष्ण के मिलन की भूमि कृष्ण जी द्वारा कोयल की आवाज निकालने के कारण कोकिला वन कहलाई। यहाँ शनि देव जी का

मन्दिर है।

......राधे राधे........


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