क्या हैं त्रिदोष का मूल आधार ?नाड़ी परीक्षण या पल्स चेक करने की क्या प्रक्रिया है?क्या प्रभाव (लाभ -
क्या आयुर्वेद भारतीय आयुर्विज्ञान है?-
04 FACTS;-
1-आयुर्वेद (आयुः + वेद = आयुर्वेद) विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है। यह विज्ञान, कला और दर्शन का मिश्रण है। ‘आयुर्वेद’ नाम का अर्थ है, ‘जीवन का ज्ञान’ और यही संक्षेप में आयुर्वेद का सार है।"आयुर्वेद " शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है - "आयुष" और "वेद"। जिस ग्रंथ में - हित आयु (जीवन के अनुकूल), अहित आयु (जीवन के प्रतिकूल), सुख आयु (स्वस्थ जीवन), एवं दुःख आयु (रोग अवस्था) - इनका वर्णन हो उसे आयुर्वेद कहते हैं।)
2-आयुर्वेद भारतीय आयुर्विज्ञान है। आयुर्विज्ञान, विज्ञान की वह शाखा है जिसका संबंध मानव शरीर को निरोग रखने, रोग हो जाने पर रोग से मुक्त करने अथवा उसका शमन करने तथा आयु बढ़ाने से है।जिस शास्त्र में आयु शाखा (उम्र का विभाजन), आयु विद्या, आयुसूत्र, आयु ज्ञान, आयु लक्षण (प्राण होने के चिन्ह), आयु तंत्र (शारीरिक रचना शारीरिक क्रियाएं) - इन सम्पूर्ण विषयों की जानकारी मिलती है वह आयुर्वेद है।
3-इस शास्त्र के आदि आचार्य अश्विनीकुमार माने जाते हैं जिन्होने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ा था। अश्विनी कुमारों से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की। इंद्र ने धन्वंतरि को सिखाया। काशी के राजा दिवोदास धन्वंतरि के अवतार कहे गए हैं। उनसे जाकर सुश्रुत ने आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भारद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं।
4-आय़ुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनीकुमार, धन्वंतरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य, अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जतुकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत), सुश्रुत और चरक। ब्रह्मा ने आयुर्वेद को आठ भागों में बाँटकर प्रत्येक भाग का नाम 'तन्त्र' रखा । ये आठ भाग निम्नलिखित हैं :१) शल्य तन्त्र,२) शालाक्य तन्त्र,३) काय चिकित्सा तन्त्र,४) भूत विद्या तन्त्र,५) कौमारभृत्य तन्त्र,६) अगद तन्त्र,७) रसायन तन्त्र और८) वाजीकरण तन्त्र ।
क्या त्रिदोष आयुर्वेद का मूलाधार हैं?-
07 FACTS;-
1-आयुर्वेद का मूलाधार हैं त्रिदोष तथा पंचमहाभूत जिनसे वे निर्मित हैं।
वात, पित्त, कफ इन तीनों को दोष कहते हैं। इन तीनों को धातु भी कहा जाता है। धातु इसलिये कहा जाता है क्योंकि ये शरीर को धारण करते हैं। चूंकि त्रिदोष, धातु और मल को दूषित करते हैं, इसी कारण से इनको ‘दोष’ कहते हैं।
2-वात, पित्त, कफ - ये तीन शारीरिक दोष माने गये हैं। ये दोष असामान्य आहार-विहार से विकृत या दूषित हो जाते है इसलिए इसे 'दोष' कहा जाता है। शरीरगत् अन्य धातु आदि तत्व इन्हे दोषों के द्वारा दूषित होता है। इन तीनो दोषों को शरीर का स्तम्भ कहा जाता है। इनके प्राकृत अवस्था एवं सम मात्रा ही शरीर को स्वस्थ रखता है, यदि इनका क्षय या वृद्धि होती है, तो शरीर में विकृति या रोग उत्पन्न हो जाती है।
3-दोषों की विषमता ही रोग है और दोषों का साम्य आरोग्य है।
तीनों दोषों में सर्वप्रथम वात दोष ही विरूद्ध आहार-विहार से प्रकुपित होता है और अन्य दोष एवं धातु को दूषित कर रोग उत्पन्न करता है।वातादि दोषों के अधिक क्रियाशील होने से शरीर में दोष वर्ग की प्रधानता रहती है। वात दोष प्राकृत रूप से प्राणियों का प्राण माना गया है।
4-पंचमहाभूतों से दोषों की उत्पत्ति
4-1. सृष्टि में व्याप्त वायु महाभूत से शरीरगत वात दोष की उत्पति होती है,
4-2. अग्नि से पित्त दोष की उत्पत्ति होती है,
4-3. जल तथा पृथ्वी महाभूतों से कफ दोष की उत्पति होती है।
शरीर रक्त आदि धातु से निर्मित होता है एवं मल शरीर को स्तंभ की तरह सम्हाले हुये हैं। शरीर की क्षय, वृद्धि, शरीरगत् अवयवो द्रव्यों की विकृति, आरोग्यता-अनारोग्यता, इन दोष धातु मलों पर ही आधारित है।
5-वात दोष के पांच भेद:
5-1- प्राण वात
5-2- समान वात
5-3- उदान वात
5-4- अपान वात
5-5- व्यान वात
6-पित्त दोष के पांच भेद
6-1- साधक पित्त
6-2- भ्राजक पित्त
6-3- रंजक पित्त
6-4- आलोचक पित्त
6-5- पाचक पित्त
7-कफ दोष के पांच भेद
7-1- क्लेदन कफ
7-2- अवलम्बन कफ
7-3- श्लेष्मन कफ
7-4- रसन कफ
7-5- स्नेहन कफ
त्रिदोष सिद्धान्त क्या हैं?-
02 FACTS;-
1- आयुर्वेद का मूलाधार है- ‘त्रिदोष सिद्धान्त’ और ये तीन दोष है- वात,
पित्त और कफ ।त्रिदोष अर्थात् वात, पित्त, कफ की दो अवस्थाएं होती है -
1- 1. समावस्था (न कम, न अधिक, न प्रकुपित, यानि संतुलित, स्वाभाविक, प्राकृत)
1- 2. विषमावस्था (हीन, अति, प्रकुपित, यानि दुषित, बिगड़ी हुई असंतुलित, विकृत) ।
2-वास्तव में वात, पित्त, कफ, (समावस्था) में दोष नहीं है बल्कि धातुएं है जो शरीर को धारण करती है तभी ये दोष कहलाती है ।‘त्रिदोष-सिद्धांत’ के
‘त्रिदोष-सिद्धांत’ के अनुसार शरीर में वात, पित्त, कफ जब संतुलित या सम अवस्था में होते हैं तब शरीर स्वस्थ रहता है । इसके विपरीत जब ये प्रकुपित होकर असन्तुलित या विषम हो जाते हैं तो अस्वस्थ हो जाता है।इस प्रकार रोगों का कारण वात, पित्त, कफ का असंतुलन होना है ।
दोष और रस:-
05 FACTS;-
1-दोषों के प्रकोप और शमन में रसों का भी बड़ा योगदान है । आयुर्वेद में छह रस माने गये हैं:-
1. अम्ल (खट्टा), 2. मधुर (मीठा), 3. लवण (नमकीन), 4. कटु (कड़वा), 5. तिक्त (चरपरा), 6. कषाय (कसैला)।
2-प्रत्येक व्यक्ति को संतुलित रूप में इन छ: ही रसों के स्वाद का आनन्द लेना चाहिए । यदि अपनी प्रकृति को समझकर इन छ: रसों का मनुष्य उचित उपयोग करे तो उसका आहार सुखदायी भी होगा और वात, पित्त, कफ, को समावस्था में रखने में भी सहायक होगा । इसके विपरीत यदि रसों का अनुचित और मनमाना उपयोग करेगा तो उसका आहार दोषों को कुपित करने वाला होकर अनेकानेक रोगों की उत्पत्ति में सहायक होगा।
3-आयुर्वेद के अनुसार प्रभाव की दृष्टि से तीन-तीन रस वात, पित्त और कफ को बढ़ाने वाले होते है और तीन-तीन ही तीनों को शान्त करने वाले होते हैं
3-1-कफवर्धक;-
मीठे, खट्टे, नमकीन।
3-2-कफशामक;-
कडवे, चरपरे, कसैले।
3-3-पित्तवर्धक;-
कडवे, नमकीन, खट्टे।
3-4-पित्तशामक;-
मीठे, चरपरे, कसैले।
3-5-वातवर्धक;-कड़वे, चरपरे, कसैले।
3-6-वातशामक-मीठे, खट्टे, नमकीन।
4-मीठे, खट्टे, और नमकीन जितने पदार्थ हैं वे कफ को बढ़ाते हैं । नमकीन और मीठे, खट्टे, पदार्थ पित्त को बढ़ाने वाले हैं । कड़वे चरपरे, कसैले पदार्थ वायु को बढ़ाने वाले हैं । जो रस कफ को बढ़ाते हैं । वे (मीठे, खट्टे, नमकीन) ही वायु को शान्त करते हैं । मीठी, चरपरी, कसैली चीजें पित्त को शान्त करती है । कड़वी चरपरी, कसैली चीजें पित्त को शान्त करती है ।
5-उदाहरणार्थ - कफ-प्रकृति के व्यक्ति को मीठे, खट्टे, नमकीन चीजों को कम मात्रा में लेना चाहिए और कड़वी चरपरी और कसैली चीजों को अधिक मात्रा में खाना चाहिए ताकि कफ बढ़ने न पाए ।
दोष और धातुएं:-
04 FACTS;-
1-वात, पित्त, कफ का प्रकोप आहार-विहार के अतिरिक्त धातुओं के प्रभाव से भी होता है । जैसे, वात-ग्रीष्म ऋतु में संचित होता है, वर्षा ऋतु में कुपित रहता है और शरद ऋतु में शान्त रहता है । पित्त-वर्षा ऋतु में संचित, शरद ऋतु में कुपित और हेमन्त ऋतु में शान्त रहता है । कफ- शिशिर ऋतु में संचित, बसन्त में कुपित और ग्रीष्म-ऋतु में शान्त होता है।
दोष>>>संचय>>>प्रकोप>>>शमन
1-वात>>>ग्रीष्म(ज्येष्ठ-आषाढ़)>>>वर्षा>>>शरद
2-पित्त>>> वर्षा(सावन-भादों)>>>शरद(आश्विन-कार्तिक)>>>हेमन्त(मार्गशीष-पौष)
3-कफ>>> शिशिर(माघ-फाल्गुन)>>> बसन्त(चैत्र-बैसाख)>>> ग्रीष्म
2-अत: ऋतुओं के लक्षण जानकर उसके अनुसार आचरण करने से व्यक्ति स्वस्थ, सुखी और दीर्घायु रह सकता है । वर्षा ऋतु में प्रकुपित वात का, शरद ऋतु में पित्त का और बसन्त ऋतु में कफ का शमन हो, ऐसा आहार-विहार होना चाहिए ।
3-ऋतुओं के अलावा जीवन-काल के अनुसार भी दोष प्रकुपित होते है जैसे बाल्यावस्था में कफ का प्रकोप, युवावस्था में पित्त का प्रकोप और वृद्धावस्था में वात का प्रकोप होता है । इसी प्रकार दिन किस-किस समय किस दोष का जोर रहता है, यह बताते हुए कहा गया है कि दिन के प्रथम प्रहर में वात का, दोपहर में पित्त का और रात्रि में कफ का जोर रहता है । 4-किन-किन दशाओं में त्रिदोष प्रकुपित होते है इस बात की सूक्ष्मता से छानबीन करते हुए, आयुर्वेद में यह भी कहा गया है कि भोजन करने के तुरन्त बाद ही कफ की उत्पत्ति होती है, भोजन पचते समय पित्त का प्रकोप होता है और भोजन के पाचन के बाद वायु का प्रकोप आरम्भ होता है । इसीलिए भोजन के तुरन्त बाद कफ की शन्ति के लिए पान खाने की प्रथा का प्रचलन है ।
रोग से बचने और स्वस्थ रहने के उपाय;-
03 FACTS;-
1-रोग से बचने और स्वस्थ रहने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा आहार-विहार अपनाना चाहिए जिससे त्रिदोष की विषमावस्था अर्थात् वात-प्रकोप, पित-प्रकोप और कफ-प्रकोप से बचा जा सकें और यदि गलत आहार-विहार के कारण किसी एक या अधिक दोष के प्रकुपित हो जाने से किसी रोग की उत्पति हो ही जाए तो पहले यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि रोगी में किस दोष का प्रकोप हुआ है ।
2-रोगी की प्रकृति कौन सी है? अर्थात वात (बादी) प्रकृति है या पित्त (गर्म) प्रकृति या कफ (ठंडी) प्रकृति? इसके अतिरिक्त निदान करने समय रोगी की आयु, मानसिक दशा, शारीरिक बल, रोग की अवस्था, देश, ऋतु काल, मानसिक आदि पर भी विचार कर लेना चाहिए । रोग की जड़ से समाप्त करने के लिए या स्थायी रूप से दूर करने के लिए यह आवश्यक है ।
3-फिर जिस दोष का प्रकोप हुआ है उस प्रकृति वात, पित्त, कफ दोष के शमन के लिए रोगी की प्रकृति को शान्त करने वाले आहार-विहार को अपनाना चाहिए । जैसे यदि कफ-प्रकोप जान पड़े जो कफवर्धक आहार से बचना चाहिए, साथ ही कफशामक आहार-विहार को अपनाना चाहिए ।
1-वात दोष;-
02 FACTS;-
1-वात का स्वरूप..वात रूखा, शीतल, सूक्ष्म, चंचल, हल्का, घाव भरने वाला, और रजोगुण वाला है ।तीनों दोषों में सर्वाधिक बलवान वात है जिसके बिना पित्त और कफ अपने आप में लूले-लंगड़े हैं । वास्तव में वायु हद्य और वात नाड़ी की चालक है और इनके कारण ही आयु और जीवन हैं ।
2-आयुर्वेदानुसार वात के पांच प्रकार है - उदानवायु, प्राणवायु, समानवायु, अपानवायु, व्यानवायु ।
वात प्रकोप के लक्षण:-
12 FACTS;-
1- शरीर का रूखा-सूखा होना ।त्वचा का, खासकर पैरों की बिवाइयां, हथेलियां, होंठ, आदि का फटना ।
2-धातुओं का क्षय होना या तन्तुओं के अपर्याप्त पोषण के कारण
शरीर का सूखा या दुर्बला होते जाना।
3-अंगों की शिथिलता,हाथ, पैरों, गर्दन, आदि का कांपना और फड़कना ।
4-अंगों में कठोरता और उनका जकड़ जाना।जोड़ों में दर्द होना, जोड़ों का चट-चट करना ।
5- नाखून, केश आदि का कड़ा और रूखा होना ।
6- अंगों और नाड़ियों में खिंचाव होना, सुइंया चुभने, तोड़ने या झटका लगने, मसलने, काटने जैसी पीड़ाएं होना ।
7- अंगों में वायु का भरा रहना ।
8- पेट का गैस से फूलना और अपानवायु का अधिक निकलना । डकार या हिचकी आना ।
9- भूख- प्यास अनियमित अर्थात् कभी ज्यादा, कभी कम लगना ।
10- मुख का सूखना, स्वर का कर्कश होना ।
11- स्वाद का कसैला होना ।
12- कब्जियत रहना ।
वात-प्रकोप के कारण;-
06 FACTS;-
1- कड़वे, कैसेले, चरपरे रसवाले पदार्थो का अधिक सेवन ।
2-रुक्ष, हल्का और अल्प भोजन करना ।
3- उपवास या भूखा रहना ।
4- ठंडे बासी, गैस करने वाले, फास्टफूड, डिब्बेबंद व सत्वहीन
और प्रदूषित खाद्य पदार्थो का सेवन ।
5-अनावश्यक रूप से रातों में देर तक जागना या स्वाभाविक निद्रा में बाधा डालना ।
6- वातवर्धक आहार का सेवन, जैसे : चावल, जौ, चने का
शाक, सूखे भुने हुए चने, मोठ, मसूर, अरहर, चीनी, फूलगोभी,
मटर, सेम, कच्चा
वात वर्धक आहार :-
चावल, चने की भाजी, भूने हुए चने, मोठ, मसूर, तुवर, शक्कर, फूलगोभी, मटर, सेम, पालक सूखे मेवे, चाय, कॉफी, शराब और सिगरेट आदि वातवर्धक आहार होते हैं ।
वात शामक आहार :-
गेहूँ की चपाती, कुल्थी, उड़द, सरसों, तिल्ली का तेल, गाय का दूध, छाछ, घी, मिश्री, अदरक, पोदीना, प्याज, परवल, बथुआ, लौकी, मूली, गाजर, चौलाई, अंगूर, नारंगी, फालसा, शहतूत, पपीता, पके आम, मीठा अनार, अखरोट, बादाम, अंजीर, मुनक्का आदि पदार्थ वात का शमन अर्थात शरीर में बढ़ी हुई वायु को कम करने वाले होते हैं ।
NOTE;-
जैसे दूध के साथ मूली व दही के साथ खीर लेना अहितकारी है परन्तु केले के साथ छोटी इलाइची एवं चावल के साथ नारियल की गिरी लाभप्रद है इसी प्रकार भोजन ऋतु के अनुकूल हो । उदाहरण के लिए ग्रीष्म ऋतु में गेहूॅं के साथ जौ लाभप्रद रहता है क्योंकि जौ की प्रकृति शीतल होती है परन्तु वर्षा ऋतु में गेहूॅं के साथ चना पिसवाना आवश्यक है वर्षा ऋतु में वात कुपित होता है जिसको रोकने के लिए चना बहुत लाभप्रद रहता है।
2-पित्त दोष;-
पित्त दोष अग्नि तत्व प्रधान वाला होता है । शरीर में दाह और ऊष्मा पैदा करने वाला होता है ।
पित्त प्रकोप के सामान्य लक्षण :-
शरीर में जलन, आँखों में लाली और पीलापन, अधिक गरमी लगना, त्वचा छुने में गरम महसूस होना, फोड़े फुन्सी होना, त्वचा, मल मूत्र, व आँखों में पीलापन, गले में जलन, प्यास ज्यादा लगना, मुँह में कड़वापन और खट्टापन महसूस होना और अक्सर पतले दस्त लग जाना आदि पित्त दोष के प्रकोप के सामान्य लक्षण होते हैं ।
पित्त वर्धक आहार :-
उड़द की दाल, सरसों, खट्टा दही, छाछ, आइसक्रीम, गुड़, मेथी, हींग, खट्टे फल, तले हुए खाद्य पदार्थ, और गर्म प्रकृति के आहार आदि के सेवन से शरीर में पित्त दोष की वृद्धि होती है ।
पित्त शामक आहार :-
चावल, जौ, गेहूँ, ज्वार, सत्तू, मसूर, तुवर, दलिया, गाय का दूध, मलाई, पनीर, घी, मक्खन, मीठा दही, खीर, मिश्री, परवल, बथुआ, करेला, टिंडा, तुरई, धनिया, पत्ता गोभी, खीरा, प्याज, मीठा अनार, तरबूज, ऑवला, मुनक्का, केला, नारियल, शहतूत, सेब, और आलू बुखारा आदि ।
3-कफ दोष;-
कफ दोष मृदुता कारक और शरीर को शांत बनाने वाला होता है ।
कफ प्रकोप के सामान्य लक्षण :-
शरीर में भारीपन, शरीर में थकावट और आलस्य बना रहना, ठंड की अधिकता बनी रहना, त्वचा में चिकनापन, मुँह में मीठा मीठा सा स्वाद बना रहना, लार का अधिक बनना, भूख कम लगना, अरुचि, मंदाग्नि बनी रहना और मल आँव युक्त आना आदि कफ दोष के प्रकोप के सामान्य लक्षण हैं ।
कफ वर्धक आहार :-
चावल, उड़द, नया गेहूँ, तिल, जैतून, बादाम, दूध से बने पदार्थ, आईसक्रीम, गन्ने के रस से बने पदार्थ ( सिरका छोड़कर ) आलू, अरबी, बैंगन, लोकी, तुरई, मटर, केला, सिंघाड़ा, अमरूद और मीठे फल आदि के सेवन सए कफ दोष की वृद्धि होती है ।
कफ शामक आहार :-
पुराना गेहूँ, जौ, मूंग, मोठ, मसूर, चना, कुल्थी, बथुआ, टिंडे, करेले, अदरक, गाजर, खीरा, लहसुन, प्याज, अनार, सेब, तरबूज, बेल, व सूखे मेवे आदि का सेवन करने से बढ़े हुए कफ दोष का नाश होता है ।
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नाडी परीक्षा क्या है?
शरीर में वात, पित्त व कफ त्रिधातु पाई जाती है। इनमें दोष की वजह से व्याधि होती है। जिस स्पंदन की गति व बल के आधार पर धातु और मल की विकृति की पहचान करते हैं वह नाड़ी कहलाती है।शरीर में वात, पित्त व कफ त्रिधातु पाई जाती है। इनमें दोष की वजह से व्यक्ति रोगग्रस्त हो जाता है। कलाई की धमनी की जगह नाड़ी देखी जाती है। जिस स्पंदन की गति व बल के आधार पर त्रिधातु और मल की विकृति की पहचान करते हैं वह नाड़ी कहलाती है।
नाड़ी की दर से पता लगाये आपको कौन सा रोग है : -
नाडी परीक्षा के बारे में शारंगधर संहिता, भावप्रकाश, योगरत्नाकर आदि ग्रंथों में वर्णन है. महर्षि सुश्रुत अपनी योगिक शक्ति से समस्त शरीर की सभी नाड़ियाँ देख सकते थे. ऐलोपेथी में तो पल्स सिर्फ दिल की धड़कन का पता लगाती है. पर ये इससे कहीं अधिक बताती है. आयुर्वेद में पारंगत वैद्य नाडी परीक्षा से रोगों का पता लगाते है. इससे ये पता चलता है की कौन सा दोष शरीर में विद्यमान है.
ये बिना किसी महँगी और तकलीफदायक डायग्नोस्टिक तकनीक के बिलकुल सही निदान करती है. जैसे की शरीर में कहाँ कितने साइज़ का ट्यूमर है, किडनी खराब है या ऐसा ही कोई भी जटिल से जटिल रोग का पता चल जाता है. दक्ष वैद्य हफ्ते भर पहले क्या खाया था ये भी बता देतें है. भविष्य में क्या रोग होने की संभावना है ये भी पता चलता है.
कैसे देखनी चाहिए नाड़ी :-
पुरुष के दाहिने हाथ की तो स्त्री के बांए हाथ की नाड़ी देखने का चलन अधिक है. वैद्य पुरुष के दाहिने हाथ की नाड़ी देखकर और स्त्री के बाएं हाथ की नाड़ी देखकर रोग की पहचान करते हैं. हालांकि कुछ वैद पुरुष स्त्री के दोनों हाथ की नाड़ी भी देखकर रोगों का ज्ञान प्राप्त करते हैं.
आखिर कब देखनी चाहिए नाड़ी :-
किसी व्यक्ति को कौन सा रोग है यह जानने के लिए सबसे सही समय सुबह माना जाता है और इस समय रोगी को खाली पेट रहकर ही वैद के पास जाना होता है.
नाडिय़ों के प्रकार व दोष वात नाड़ी दोष - इससे सर्वाइकल, ऑस्टियो आर्थराइट्सि और स्पॉन्डिलाइसिस की दिक्कत जयादा होती है।
पित्त नाड़ी दोष - गालब्लैडर में सूजन, लिवर संबंधी बीमारियां, पीलिया, सिरोसिस की पहचान होती है।
कफ नाड़ी दोष - इससे अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, ट्यूबरोकलोसिस, रक्त, एलर्जी, सांस संबंधी बीमारियों व बुखार आने पर जांच करते हैं।
पंचात्मक नाड़ी दोष - वात-पित्त-कफ की नाड़ी क्रमश: पांच-पांच प्रकार की होती है। पहला प्राणवायु, दूसरा उदान वायु, तीसरा समान वायु, चौथा अपान वायु व पांचवां ज्ञान वायु नाड़ी कहलाती है। इससे रोग की गंभीरता, बीमारी की अवधि व तीव्रता की जानकारी करते हैं।
मन, बुद्धि व इंद्रिय समान अवस्था में हो
सामान्यत: खाली पेट नाड़ी का परीक्षण कराना चाहिए। व्यस्तता, तनाव, दैनिक क्रिया से पहले व बाद में, भूख जयादा लग रही हो, नींद आ रही हो, मेहनत करने के बाद तुरंत नाड़ी परीक्षण नहीं करवाना चाहिए। नाड़ी परीक्षण से पहले मन, बुद्धि और इंद्रिय समान अवस्था में रहने चाहिए। शांत अवस्था में ही नाड़ी परीक्षण कराना चाहिए।
सुबह के समय ही क्यों ?
नाड़ी सुबह के समय देखना अधिक उचित इसलिए रहता है क्योंकि यही वह समय होता है जब मानव शरीर की वात,पित और कफ तीनों की नाड़ियां सामान्य रुप मे चलती हैं. गौरतलब है कि जब भी हमारे शरीर में त्रिधातुओं का अनुपात अंसतुलित हो जाता है तो मानव शरीर रोगग्रस्त हो जाता है. हमारे शरीर में वात,कफ और पित्त त्रिधातु पाई जाती है,इनके अनुपात में असंतुलन आने पर ही शरीर स्वस्थ नहीं रहता है.
रोगों के संबंध में क्या कहता है नाड़ी विज्ञान :
1-मानसिक रोग, टेंशन, भय, गुस्सा, प्यास लगने के समय नाड़ी की गति काफी तेज और गर्म चाल से चलती है.
2-कसरत और मेहनत वाले काम के समय भी इसकी गति काफी तेज होती है.
3-गर्भवती स्त्री की नाड़ी भी तेज चलती है.
4-किसी व्यक्ति की नाड़ी अगर रुक रुक कर चल रही हो तो उसे असाध्य रोग होने की संभावना अधिक रहती है.
5-क्षय रोगों में नाड़ी की गति मस्त चाल वाली होती है. जबकि अतिसार में यह काफी स्लो गति से चलती है.
नाड़ी कब और कैसे देखे :-
1-महिलाओं का बाया और पुरुषों का दाया हाथ देखा जाता है.
2-कलाई के अन्दर अंगूठे के नीचे जहां पल्स महसूस होती है तीन उंगलियाँ रखी जाती है.
3-अंगूठे के पास की ऊँगली में वात , मध्य वाली ऊँगली में पित्त और अंगूठे से दूर वाली ऊँगली में कफ महसूस किया जा सकता है.
4-वात की पल्स अनियमित और मध्यम तेज लगेगी.
5-पित्त की बहुत तेज पल्स महसूस होगी.
6-कफ की बहुत कम और धीमी पल्स महसूस होगी.
7-तीनो उंगलियाँ एक साथ रखने से हमें ये पता चलेगा की कौन सा दोष अधिक है.
8-प्रारम्भिक अवस्था में ही उस दोष को कम कर देने से रोग होता ही नहीं.
9-हर एक दोष की भी 8 प्रकार की पल्स होती है. जिससे रोग का पता चलता है, इसके लिए अभ्यास की ज़रुरत होती है.
9-कभी कभी 2 या 3 दोष एक साथ हो सकते है.
नाडी परीक्षा अधिकतर सुबह उठकर आधे एक घंटे बाद करते है जिससे हमें अपनी प्रकृति के बारे में पता चलता है. ये भूख- प्यास, नींद, धुप में घुमने, रात्री में टहलने से, मानसिक स्थिति से, भोजन से, दिन के अलग अलग समय और मौसम से बदलती है. चिकित्सक को थोड़ा आध्यात्मिक और योगी होने से मदद मिलती है. सही निदान करने वाले नाडी पकड़ते ही तीन सेकण्ड में दोष का पता लगा लेते है. वैसे 30 सेकण्ड तक देखना चाहि.
ऐसे करते नाड़ी परीक्षणजो रोगी नहीं है उसकी नाड़ी की जांच सुबह छह से दस बजे के बीच करते हैं। जो रोगी हैं उनका नाड़ी परीक्षण दस बजे के बाद कभी भी कर सकते हैं। अंगूठे के बगल की अंगुली वात की नाड़ी होती है जो सांप की तरह चलती है। उसके बगल में मध्यमा अंगुली पित्त की नाड़ी होती है जो मेढ़क की तरह व उसके पास की अंगुली कफ की नाड़ी हंस की भांति चलती है। इन नाडिय़ों की गति का भाव लघु-गुरु, साम-निराम, उष्णता या क्षीणता है।अवयव नाड़ी से बीमारी की गंभीरता जांचते अवयव नाड़ी (ऑर्गन पल्स) की जांच के लिए तीनों नाडिय़ों के परीक्षण में उनकी गति व बल को विशेष रूप से देखते हैं। इससे अंग में बीमारी व गंभीरता की पहचान हो जाती है। अंग पर बीमारी का कितना प्रभाव है, यह जान सकते हैं। इससे रक्त में कॉलेस्ट्राल, हृदय की धड़कन की वास्तविक स्थिति जान सकते हैं।यहां से भी परीक्षणकलाई के अलावा स्पंदन शरीर के कई स्थानों पर महसूस किया जा सकता है। ग्रीवा (गर्दन), नासा नाड़ी(नाक ), गुलफसंदी (टखना) व शंख नाड़ी (ललाट के पास) से भी परीक्षण करते हैं।
वात पित्त कफ का सरल इलाज – (राजीव दीक्षित जी के अनुसार ) पित्त का इलाज ;- 05 FACTS;- 1-बाग्वट जी ने एक सूत्र लिखा हैं, “दुनिया का सबसे बड़ा औषधि केंद्र हमारा रसोई घर” अब दुर्भाग्य से हम रसोई में जिनको मसाला कहते हैं, वह मसाला कुछ नहीं हैं सब औषधि हैं. रोज हमारे शरीर में वात, कफ, पित्त की स्थिति सम और अ सम होती रहती हैं. सुबह वात ज्यादा रहता हैं शरीर में, दुपहर को पित्त ज्यादा रहता हैं, शाम को कफ ज्यादा रहता हैं... तो ये पुरे 24 घंटे में ऊपर निचे होता रहता हैं.-यह जो 24 घंटे में वात पित्त कफ ऊपर निचे होता रहता हैं, तो सब्जियों में उसी के हिसाब से औषधियां डाली जाती हैं. जैसे दुपहर की सब्जी बनाई, तो अजवाइन जरूर डालेगे उसमें. 2-अजवाइन पित्तनाशक हैं. देसी घाय के घी के बाद जो सबसे ज्यादा पित्तनाशक दूसरी चीज हैं तो वह हैं “अजवाइन”. और दुपहर को पित्त बढ़ता हैं, और वह स्वाभाविक हैं खाना खाने के लिए पित्त बढ़ना ही चाहिए तो उस समय अजवाइन डाली जाती हैं सब्जी में, क्योंकि दुपहर को ही शरीर को अजवाइन की ज्यादा जरुरत होती हैं. यह पित्त को सम पर लाती हैं. 3- दुपहर का दही , दही का मट्ठा उसमे भी अजवाइन का बगार लगता हैं. दुपहर की जितनी भी चीजें हैं उनमे ज्यादातर अजवाइन ही मिला हुआ होता हैं.तो किसी को भी एसिडिटी की तकलीफ हो या गैस बनती हो तो अजवाइन का सेवन करे.खाना खाया तो उसमे अजवाइन ज्यादा रहे यह याद रखे. और अगर आप खाने में अजवाइन नहीं मिला सकते तो खाना खाने के बाद थोड़ी अजवाइन खाये.अजवाइन ज्यादा तकलीफ नुकसान न कर दे इसके लिए आप काले नमक का उपयोग भी करे. तो थोड़ा अजवाइन और काला नमक खाना खाने के बाद खाकर देख लें. 4-पित्त के लिए अजवाइन के बाद जो तीसरी चीज आती हैं जीरा. तो जीरा दो हैं एक सफ़ेद, एक काला. जिसमे काला जीरा पित्त को सम रखने के लिए सबसे अच्छा हैं.तो आपके रसोई में एक हो गया घी (देसी गाय का ), दूसरा हो गया अजवाइन, तीसरा हो गया हींग. हींग तो भगवान की बनाई हुई हैं किसी आदमी ने नहीं बनाई. हींग के पहाड़ होते हैं जैसे पत्थर के पहाड़ होते हैं ठीक वैसे ही. हींग वही से आती हैं. तो हींग हैं, अजवाइन हैं, जीरा हैं, और देसी गाय का घी हैं. 5-अब इसके निचे आता हैं धनिया.धनिया भी दो तरह का हैं, सूखा और एक हरा. जब तक हरा उपलब्ध हैं आप यही खाइये, जब नहीं हैं तब सूखा धनिया ही खाइये.सूखा और हरा दोनों तरह की धनिये में बराबर गुण होते हैं. कफ का इलाज ;- 03 FACTS;- 1-कफ के लिए सबसे अच्छी चीज हैं गुड़. गुड़ के बाद दूसरे नंबर हैं शहद, तीसरी चीज हैं सोंठ. सोंठ का ही एक दूसरा रूप हैं “अदरक”. अदरक से अच्छी हैं सोंठ. कारण क्या हैं – अदरक जब सुख जाती हैं तब ही सोंठ बनती हैं. और अदरक के सूखने के बाद उसका गुण लगभग 100 गुना बढ़ जाता हैं.इसलिए सोंठ अदरक से हमेशा ही अच्छी हैं. 2-अब चौथी चीज जो भी बहुत अच्छी हैं, वह हैं पान. पान यानी पान का पत्ता. जो आप पान खाते हैं , यह कफ ख़त्म करने के लिए अतिउत्तम औषधि हैं.कफ का इलाज में जो पान गहरे रंग का हो उसी का उपयोग करे, इसे आप देसी पान भी कह सकते हैं. ज्यादा गहरे पान कफ को ख़त्म करने लिए बहुत ही जबरदस्त हैं और पान और सोंठ का बेस्ट कॉम्बिनेशन हैं. 3-पान खा रहे हैं तो उसमे सोंठ डालकर खा सकते हैं, अदरक डाल कर खा सकते हैं. जो जो चीजें पान में डाली जाती हैं वह सभी कफनाशक होती हैं. सौफ भी डाली जाती हैं यह भी कफनाशक होती हैं, लौंग भी इसमें डालते हैं, लौंग अलग से भी खाई जा सकते हैं, सौंफ भी खाई जा सकती हैं, गुलकंद भी खा सकते हैं, यह सभी कफनाशक हैं बहुत बेहतरीन उपचार करेंगी. वात का उपचार;- 02 FACTS;- 1-वात पर सबसे अच्छी चीज होती हैं तेल, शुद्ध तेल वातनाशक हैं “जिन चीजों में भी पानी की मात्रा ज्यादा हो वह सभी वातनाशक हैं, जैसे दूध, बाग्वट जी ने वात पित्त कफ के लिए यह सूत्र ऐसे लिखा हैं, पानी युक्त चीजें सभी वातनाशक हैं. तो वात का इलाज लिए पहला दूध हो गया, तीसरा दही हो गया, दही में भी पानी ही होता हैं. 2-इसके बाद बारी आती हैं छाछ की, छाछ में भी पानी ही होता हैं. इसके अलावा सभी तरह के फलों के रस भी वातनाशक हैं. सभी रस जैसे संतरे का, मोसम्बी का, गन्ने का, इसमें गन्ने का तो और भी अच्छा हैं. इसके अलावा अंगूर का, टमाटर का आदि का उपयोग भी कर सकते हैं, यह सभी वातनाशक हैं.
क्या नाडी से कुशल वैद्य भावी मृत्यु के बारे में भी बता सकते है?-
आप किस प्रकृति के है ? –-वात प्रधान , पित्त प्रधान या कफ प्रधान या फिर मिश्र ? खुद कर के देखे या किसी वैद्य से पता कर के देखिये । यह सब हमारी हताशा को दर्शाता है आपका कमेंट क्योंकि हम उन्हें ही डॉक्टर या वैध मानते हैं जिनके बड़े बड़े होर्डिंग लगते हैं या जो टीवी चैनलों पर airtime खरीदकर नाड़ी वैद होने का दावा करते हैं
यह भी सच है कि आजकल नाड़ी वैद्य प्राय लुप्त हो गए हैं . अगर इस चिकित्सा को दोबारा लागू करवाना है तो अल्प मूल्य पर शिक्षण संस्थान बनाने होंगे... आश्रमों की तरह. तभी हम इस पद्धति को जीवित रह पाएंगे अंयथा तो यह् लुप्त ही हो गई है.
समझ लीजिए सबसे ज्यादा इस पद्धति को नुकसान आजकल के स्वयंभू वैद्यों ने इस पद्धति को बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया है क्योंकि अनाड़ी वैद्यों को बैठाकर जब वह लोगों का निदान नहीं कर पाते तो इस पद्धति से लोगों का विश्वास उठना स्वभाविक है, सही तरीके से रोग का निदान नहीं कर पाता तो रोग से मुक्ति कैसे संभव होगी.
नाड़ी परीक्षण से जुड़ी कुछ विशेष बातें;-
यदि नाडी अपनी नियमित गति में लगातार तीस बार धड़कती है, तो इसका अर्थ है कि रोग का इलाज संभव है और रोगी जीवित रहेगा। लेकिन अगर धड़कन के बीच में रूकावट आती है तो इसका मतलब है कि अगर मरीज का जल्दी इलाज नहीं किया गया तो उसकी मृत्यु हो सकती है।
बुखार होने पर रोगी की नाड़ी तेज चलती है और छूने पर हल्की गर्म महसूस होती है।
उत्तेजित या तेज गुस्से में होने पर नाड़ी की गति तेज चलती है।
चिंता या किसी तरह का डर होने पर नाड़ी की गति धीमी हो जाती है।
कमजोर पाचन शक्ति और धातु की कमी वाले मरीजों की नाड़ी छूने पर बहुत कम या धीमी महसूस होती है।
तीव्र पाचन शक्ति वाले मरीजों की नाड़ी छूने में हल्की लेकिन गति में तेज होती है।
नाड़ी की जांच में कुशल वैद्य सिर्फ आपके शारीरिक रोगों का ही पता नहीं लगाते बल्कि इससे वे मानसिक रोगों का भी पता लगा लेते हैं। अगर आप डिप्रेशन, एंग्जायटी या किसी गंभीर चिंता से पीड़ित हैं तो इसका भी अंदाज़ा नाड़ी परीक्षण से लगाया जा सकता है।
लाइलाज या जानलेवा बीमारियों का पता ;-
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि नाड़ी परीक्षण में कुशल वैद्य सिर्फ नाड़ी को छूकर ही लाइलाज या जानलेवा बीमारियों का पता लगा लेते हैं। अगर नाड़ी बहुत धीमे धीमे रुक रुक कर चल रही है या अनियमित रूप से चल रही है तो इसका मतलब है कि बीमारी लाइलाज या जानलेवा है।
अगर नाड़ी की गति पहले पित्त, वात और कफ वाली हो और फिर अचानक से तेज हो जाए और फिर धीमी हो जाए तो यह दर्शाता है कि मरीज को कोई लाइलाज बीमारी है।
अगर नाड़ी बहुत सूक्ष्म, तेज गति वाली और ठंडी महसूस हो तो यह दर्शाता है कि मरीज की मृत्यु जल्दी होने वाली है।
स्वस्थ होने की पहचान ;-
अगर रोगी की नाड़ी हंस की गति जैसे हो और वह खुश दिखे तो यह दर्शाता है कि मरीज स्वस्थ होगा।
इस प्रकार आयुर्वेद में नाडी की गति का बहुत ही विस्तृत अध्ययन किया गया है। हालांकि सभी आयुर्वेदिक वैद्य नाड़ी परीक्षण में पारंगत नहीं होते हैं। इसलिए जो वैद्य नाड़ी परीक्षण में पारंगत और अनुभवी हों उन्ही से अपनी जांच कराएँ।
नाड़ी गति से रोग परीक्षा ;-
प्राकृतिक चिकित्सक अपने हाथ के सहारे से रोगी के कोहनी उठाकर और अग्रबाहु को पूरी तरह से फैलाकर अपने हाथ की अंगुलियों तर्जनी, मध्यमा और अनामिका से अंगुष्ठ मूल से नीचे वाली नाड़ी की परीक्षा करता है। परीक्षा सुस्थिर एवं एकचित्त होकर करनी चाहिए तथा तीन बार परीक्षा करनी चाहिए। प्रायः पुरूषों के दायें हाथ की नाड़ी तथा महिलाओं की बायें हाथ की नाड़ी देखी जाती है।स्त्रियों की नाड़ी पुरूषों की अपेक्षा 6 से 15 बार प्रति मिनट अधिक चलती है।
पुरूषों की नाड़ी बड़ी तथा शक्तिशाली होती है क्योंकि उनके स्वभाव में गर्मी तथा शक्ति अधिक होती है तथापि नाड़ी सुस्त तथा ठहर-ठहर कर चलती है। इसके विपरीत स्त्रियों की नाड़ी बड़ी तेज चलती है। इनकी नाड़ी का फैलाव और शक्ति पुरूषों की अपेक्षा कम होता है। एक-एक अंगुली के नीचे नाड़ी की गति 6 प्रकार की होती है, ऊपर उठना, तेज उठना, तेज होकर ऊपर उठना, नीचे धंसना, तेज धसना, तेजी से धंसना। इस प्रकार दोनों हाथों की नाड़ी की गति 18 प्रकार की होती है। इनकी प्रत्येक गति से पृथक-पृथक रोग का ज्ञान होता है। जिस प्रकार वीणा की तंत्री सभी रागों को बताती है, उसी प्रकार मनुष्य की नाड़ी सभी रोगों को बताती है।
स्थान भेद से नाड़ी 8 प्रकार की होती है। हाथ की दौ, पैर की दो, गले और कंठ की दो तथा नासा के समीप की दो, आँखों की दो, कान की दो, पेडू की दो तथा जीभ के समीप की दो-दो। इनके बायें तथा दायें अंग से दो-दो होकर कुल 16 स्थान हो जाते हैं। इन स्थानों पर कहीं भी नाड़ी के स्पर्श द्वारा रक्त संचार का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
नाड़ी की गति क्यों होती है ?
शुद्ध रक्त संचार के समय रक्तवाहिनी नाड़ियों के अंदर के आवरण पर रक्त की तरंगें जो आघात पहुंचाती हैं, उसी से नाड़ी की गति हुआ करती है। रक्त संचार के स्वरूप जो धड़कन होती है, उसे नाड़ी द्वारा अंगुलियों से ही जाना जा सकता है। धमनी द्वारा रक्त संचार होता है। अतः उसकी परीक्षा की जाती है।
तीन प्रकार की नाड़ियाँ तीन स्थितियों वात, पित्त तथा कफ को दर्शाती हैं। प्रारंभ में वात की नाड़ी, मध्य में पित्त की नाड़ी तथा अन्त में कफ की नाड़ी होती है। जब वात अधिक होता है तो तर्जनी अंगुली के नीचे नाड़ी स्फुरण होता है, पित्त की प्रबलता में मध्यमा अंगुली के नीचे नाड़ी फड़कती है तथा कफ की प्रबलता में अनामिका के नीचे स्फुरण होता है। यदि वात, पित्त की अधिकता हो तो तर्जनी और मध्यमा के बीच स्फुरण होता है और यदि पित्त, कफ की अधिकता हो तो मध्यमा और अनामिका के बीच में नाड़ी का स्फुरण होता है और यदि पित्त, कफ की अधिकता हो तो मध्यमा और अनामिका के बीच में नाड़ी का स्फुरण होता है। यदि वात, पित्त तथा कफ तीनों विकृत हो तो तीनों अंगुलियों के नीचे नाड़ी की विकृत गति जान पड़ती है।
आयु के अनुसार नाड़ी की गति;-
निम्न तालिका में आयु तथा नाड़ी की संख्या दी गयी है;-
नाड़ी तालिका
क्रम
आयु
नाड़ी की संख्या (प्रति मिनट)
1
भ्रूण में
150 बार
2
जन्म के बाद
130-140 बार
3
1 वर्ष तक
115-130 बार
4
1 वर्ष से 2 वर्ष तक
100-115 बार
5
2 से 3 वर्ष तक
90-100 बार
6
3 से 5 वर्ष तक
80-85 बार
7
5 से 14 वर्ष तक
80-85 बार
8
15 से 21 वर्ष तक
75-85 बार
9
22 से 60 वर्ष तक
65-75 बार
10
वृद्धावस्था
50-70 बार
नाड़ी का स्पंदन एक मिनट में साधारण गति से 8-10 अधिक या कम है तो उस मनुष्य को कोई रोग अवश्य होता है। प्रौढ़ावस्था में एक स्वस्थ व्यक्ति का स्पंदन प्रति मिनट 70-75 बार होता है। शारीरिक गठन, खान-पान, रहन-सहन, स्त्री-पुरूष आदि के अनुसार भी नाड़ी की गति घट-बढ़ सकती है। बैठे हुए मनुष्य की नाड़ी एक मिनट में लेटे हुए मनुष्य की अपेक्षा लगभग 10 बार अधिक चलती है और खड़े हुए व्यक्ति की नाड़ी बैठे हुए की तुलना में एक मिनट में लगभग 20 बार अधिक चलती है। शरीर में ताप की अधिकता से नाड़ी की गति दुगुनी हो जाती है किन्तु सर्दी में नाड़ी की गति कम हो जाती है।
नाड़ी की गति गिनने की विधि (Counting method of puls rote) : नाड़ी सदैव 1 मिनट तक गिनी जाती है। नाड़ी देखते समय गिनती की जाती है। नाड़ी की संख्या मालूम करने के लिए सेकेण्ड की सुई लगी घड़ी का उपयोग करते हैं। नाड़ी परीक्षा में निम्न बातें देखी जाती है।
नाड़ी की गति : स्वस्थ अवस्था में नाड़ी की गति प्रति मिनट 72-80 तक होती है।
1. गति (Rythm) : इसमें दो बातें देखते हैं-नाड़ी सम है या विषम।
1. समयानुसार : नाड़ी स्पंदन ठीक हो रहा है या कभी मंद और तीव्र।
2. आवृति (Volume) : रक्त की उस मात्र को आवृति कहते हैं जो रक्त वहिनियों में संचार करती रहती है। साधारण परिभाषा में स्पंदन साधारण होता है और अधिक में अधिक प्रतीत होता है।
2. वेगानुसार : प्रत्येक स्पंदन का वेग समान है या असमान।
3. संहति (Condition of artes) : धमनी की दीवार की अवस्था को संहित कहते हैं। धमनी की दीवार मृदु है या कठोर, इसे देखने के लिए उस पर तीनों अंगुलियां धीरे-धीरे फेरते हैं।
नाड़ी के प्रकार (Types of pulse)
1. अन्तरगति नाड़ी (Boundung pulse)
स्वस्थ मनुष्य की नाड़ी पहले ठोकर लगाती है फिर शान्त रहकर दूसरी ठोकर लगाती है।
2. ऊँची नाड़ी
इस प्रकार की नाड़ी स्वस्थ अवस्था की अपेक्षा अधिक ऊँची और उभरी हुई होती है। इस प्रकार की नाड़ी से शरीर में गर्मी की अधिकता प्रकट होती है।
3. शीतल नाड़ी (cold pulse)
जिस नाड़ी को छूने से सर्द प्रतीत हो, उसे शीतल नाड़ी कहते हैं। यह नाड़ी यह बताती है कि रोगी के शरीर में गर्मी की काफी कमी है।
4. छोटी नाड़ी (Shoet pulse)
इस प्रकार की नाड़ी स्वस्थ अवस्था से छोटी और लम्बाई में कम प्रतीत होती है। यह नाड़ी रोगों में सर्दी की अधिकता की सूचना देती है।
5. निर्बल नाड़ी (Weak pulse)
इस प्रकार की नाड़ी को छूने पर अँगुली पर धीमी सी ठोकर लगती है, यह नाड़ी रोगों में जीवनी-शक्ति घट जाने की सूचना देती है।
6. परिपूर्ण नाड़ी (Frequent pulse)
जब नाड़ी पर अंगुलियाँ रखने से उसके नीचे उछल-प्रबल प्रतीत हो, तो उसे परिपूर्ण नाड़ी कहते हैं। कठिन रोगों में ऐसे ही नाड़ी होती है।
7. कठोर नाड़ी (Hard pulse)
जब अंगुलियों के दबाने से नब्ज कठोर प्रतीत हो, तो कठोर नाड़ी कहते है। शरीर में तरल पदार्थ की कमी होने पर ऐसी स्थिति होती है।
8. आन्तरिक नाड़ी (Intermittant pulse)
जो नाड़ी चलते-चलते एक क्षण के लिए रुक जाय तथा फिर चलने लगे अर्थात् अटक-अटक कर चले, उसे आन्तरिक नाड़ी कहते है। जब हृदय में थकान पैदा हो जाने के कारण जब थोड़ा आराम होता है तब ऐसी नाड़ी चलती है एकाएक दुर्घटना से भी ऐसी नाड़ी चलती है।
9. लम्बी नाड़ी (Large pulse)
इस नाड़ी में अंगुलियों के नीचे स्पंदन अधिक होता है। यह रक्त प्रकोप या विषम रोगों में चलती है।
10. निम्न तनाव की नाड़ी (Low tension pulse)
इस प्रकार की नाड़ी लम्बाई, चौड़ाई और गहराई में स्वस्थ अवस्था से कम होती है।
11. शीघ्रगामिनी नाड़ी (Quick pulse)
इस अवस्था में नाड़ी जल्दी-जल्दी चलती है। स्पंदन 100-120 तक हो जाता है। ऐसा तभी होता है जब शरीर में गर्मी की अधिकता होती है।
12. मंद नाड़ी (Slow pulse)
जब सामान्य अवस्था में नाड़ी की गति कम होती है, तो मंद नाड़ी कहते हैं। रक्त चाप की कमी से, मूर्छा अथवा सदमा आदि के समय ऐसी नाड़ी स्पंदन करती है।
विभिन्न रोगों में नाड़ी की गति;-
यहाँ पर कुछ प्रमुख रोगों में नाड़ी की गति का वर्णन कर रहे हैं।
पाचन संस्थान के रोग;-
मंदाग्नि रोग में नाड़ी की गति शीतल होती है। अर्जीण में नाड़ी क्षीण और ठण्डी हो जाती है। अतिसार में नाड़ी की गति गर्मी में जोक के समान मंद और निस्तेज होती है। खाने की अरुचि होने पर नाड़ी स्थिर, मन्द पुष्ट तथा कठिन होती है। कब्ज की अवस्था में नाड़ी प्रायः रक्त से खाली और वायु से भरी होने से ऊँची होती है। वातज शूल में नाड़ी की गति वक्र होती है। पित्तज शूल में यह ऊष्ण होती है। यकृत दोष में नाड़ी खाली तथा सख्त होती है। वमन में नाड़ी कठोर, ज्वर युक्त, लुप्तप्रायः और सविराम होती है।
श्वास के रोग
फेफड़े की टी०बी० में रोगी का जिस ओर का फेफड़ा खराब होता है, उस ओर की नाड़ी की गति दूसरी ओर की अपेक्षा ऊँची होती है। निमोनिया में दोनों ओर की नाड़ियाँ लहरदार हो जाती हैं। दमा के रोगी में नाड़ी सदा तीव्र, कड़ी तथा जोक की तरह चलती है।
रक्तवाहक संस्थान के रोग
उच्च रक्तचाप में नाड़ी की गति ऊँची होती है तथा अंगुलियों को जबरदस्ती हटाती हुई सी प्रतीत होती है। ऐसा लगता है कि नाड़ी में बहती हुई कोई चीज अंगुलियों को ढकेलकर आगे बढ़ रही हो हीन रक्तचाप में नाड़ी की गति क्षीण तथा मन्द होती है धड़कन जब बढ़़ती है तब नाड़ी तीव्र तथा बड़ी होती है। धमनियों के शोध में नाड़ी बड़ी और विभिन्नतायुक्त हो जाती है। रक्तस्राव के समय नाड़ी बड़ी शक्तिशाली तथा छूने में गर्म होती है। हृदय में दुतगामिनि, तथा कर्कश होती है।
मूत्र रोग-
मूत्रघात में नाड़ी मेंढक के समान उछल-उछल कर चलती है। वृक्कशोध में नाड़ी की गति कठोर और नियमित होती है। रक्त पित्तवाहक नाड़ी उत्तेजित, बात व कफ वाहक नाड़ी पतली हो जाती है।
गुप्त रोगों में नाड़ी की गति;-
1-पुरुषों में;-
उपदंश की अवस्था में नाड़ी वक्र कुश तथा गम्भीर होती है। धातुक्षीणता में नाड़ी बहुत धीमी चलती है। नपुंसकता में रोगी के बायें हाथ की नाड़ी में टेढ़ापन पाया जाता है। प्रमेह में नाड़ी सूक्ष्म, जड़, मृदु होती है। वीर्य की कमी होने पर नाड़ी की गति निर्बल होती है तथा धीमे चलती है।
2-स्त्रियों में;-
गर्भावस्था में नाड़ी भारी और वायु की चाल से चला करती है। योनि रोग में नाड़ी पतली अंगुली के नीचे सख्त होती है, परन्तु धीमी चलती है। श्वेत प्रदर में नाड़ी एक चाल से परन्तु कमजोर चलती है।
संक्रामक रोग;-
मलेरिया में नाड़ी अंगूठे की जड़ से हट जाती है और कुछ देर के बाद फिर अपने स्थान पर लौट आती है। चेचक में नाड़ी तेजी से किन्तु टेढी-मेंढी चलती है। टाइफाइड में नाड़ी की गति 100 से अधिक होती है। अंतिम दिनों में नाड़ी की गति रुक-रुककर चलती है। डिप्थीरीया में नाड़ी की गति तेज और कड़ी होती है। पेचिस में नाड़ी की गति जोंक की तरह होती है। टी०बी० में नाड़ी की गति क्षीण हो जाती है।
....SHIVOHAM....
मुक्त रहें।