शब्दब्रह्म का क्या अर्थ है?क्या है आनन्दमय कोश की नाद साधना?
शब्दब्रह्म का क्या अर्थ है?-
12 FACTS;-
1-‘शब्द’ को ब्रह्म कहा है, क्योंकि ईश्वर और जीव को एक श्रृंखला में बाँधने का काम शब्द के द्वारा ही होता है। सृष्टि की उत्पत्ति का प्रारम्भ भी शब्द से हुआ है। पञ्चतत्त्वों में सबसे पहले आकाश बना, आकाश की तन्मात्रा शब्द है। अन्य समस्त पदार्थों की भाँति शब्द भी दो प्रकार का है ..सूक्ष्म और स्थूल। सूक्ष्म शब्द को विचार कहते हैं और स्थूल शब्द को नाद।
2-भारतीय विद्वान शब्द को ब्रह्म अर्थात् ईश्वर का रूप कहते हैं। शब्दाद्वैतवाद के अनुसार शब्द ही ब्रह्म है। उसकी ही सत्ता है। सम्पूर्ण जगत शब्दमय है। शब्द की ही प्रेरणा से समस्त संसार गतिशील है। महती स्फोट प्रक्रिया से जगत की उत्पत्ति हुई तथा उसका विनाश भी शब्द के साथ होगा। ब्रह्म की अनुभूति शब्दब्रह्मया नाद-ब्रह्म के रूप में भी होती है जिसकी सूक्ष्म स्फुरणा हर पर सूक्ष्म अन्तरिक्ष में हो रही है।
3-प्राचीन मनीषियों ने सृष्टि की उत्पत्ति नाद से मानी है। ब्रह्माण्ड के सम्पूर्ण जड़-चेतन में नाद व्याप्त है इसी कारण इसे "नादब्रह्म” भी कहते हैं।ब्रह्माण्डीय चेतना एवं सशक्तता
का उद्गम स्त्रोत तथा यह समस्त हलचलें जिस आधार पर चलती हैं, वह शक्ति स्रोत ‘शब्द’ है। अचिन्त्य, अगम्य, अगोचर, परब्रह्म को जगत चेतना के साथ अपना स्वरूप निर्धारित करते हुए ‘शब्द-ब्रह्म’ के रूप में प्रकट होना पड़ा। सृष्टि से पूर्व यहाँ कुछ नहीं था। कुछ से सब कुछ को उत्पन्न होने का प्रथम चरण ‘शब्द-ब्रह्म’ था, उसी को ‘नाद-ब्रह्म’ कहते हैं। उसकी परमसत्ता का आरम्भ-अवतरण इसी प्रकार होता है, उसके अस्तित्व एवं प्रभाव का परिचय प्राप्त करना सर्वप्रथम शब्द के रूप में ही सम्भव हो सका।
4-शब्द का आरम्भ जिस रूप में हुआ उसी स्थिति में वह अनन्तकाल तक बना रहेगा। आरम्भ शब्द ‘ओ़उम्’ माना गया है। इको संक्षिप्त प्रतीक स्वरूप ‘ॐ’ के रूप में लिखा जाता
है।संगीतरत्नाकर में नादब्रह्म की गरिमा पर प्रकाश डालते हुए कहा गया है कि नादब्रह्म समस्त प्राणियों में चैतन्य और आन्नदमय है। उसकी उपासना करने से ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों की सम्मिलित उपासना हो जाती है। वे तीनों नादब्रह्म के साथ बँधे हुए हैं।
5-अग्निपुराण के अनुसार- एक ‘शब्दब्रह्म’ है, दूसरा ‘परब्रह्म’। शास्त्र और प्रवचन से ‘शब्द ब्रह्म’ तथा विवेक, मनन, चिन्तन से ‘परब्रह्म’ की प्राप्ति होती है। इस ‘परब्रह्म’ को ‘बिन्दु’
भी कहते हैं।शतपथ ब्राह्मण के अनुसार- ‘शब्दब्रह्म’ को ठीक तरह जानने वाला ‘ब्रह्म-तत्त्व’ को प्राप्त करता है।श्रुति के अनुसार- ‘शब्दब्रह्म’ की तात्त्विक अनुभूति हो
जाने से समस्त मनोरथों की पूर्ति हो जाती है। 6-ब्रह्मलोक से हमारे लिए ईश्वरीय शब्द-प्रवाह सदैव प्रवाहित होता है। ईश्वर हमारे साथ वार्तालाप करना चाहता है, पर हममें से बहुत कम लोग ऐसे हैं, जो उसे सुनना चाहते हैं या सुनने की इच्छा करते हैं। ईश्वरीय शब्द निरन्तर एक ऐसी विचारधारा प्रेरित करते हैं जो हमारे लिए अतीव कल्याणकारी होती है, उसको यदि सुना और समझा जा सके तथा उसके अनुसार मार्ग निर्धारित किया जा सके तो निस्सन्देह जीवनोद्देश्य की ओर द्रुतगति से अग्रसर हुआ जा सकता है। यह विचारधारा हमारी आत्मा से टकराती है। 7-हमारा अन्त:करण एक रेडियो है, जिसकी ओर यदि अभिमुख हुआ जाए, अपनी वृत्तियों को अन्तर्मुख बनाकर आत्मा में प्रस्फुटित होने वाली दिव्य विचार लहरियों को सुना जाए, तो ईश्वरीय वाणी हमें प्रत्यक्ष में सुनाई पड़ सकती है, इसी को आकाशवाणी कहते हैं। हमें क्या करना चाहिए, क्या नहीं? हमारे लिए क्या उचित है, क्या अनुचित? इसका प्रत्यक्ष सन्देश ईश्वर की ओर से प्राप्त होता है।
8-अन्त:करण की पुकार, आत्मा का आदेश, ईश्वरीय सन्देश, आकाशवाणी, तत्त्वज्ञान आदि नामों से इसी विचारधारा को पुकारते हैं। अपनी आत्मा के यन्त्र को स्वच्छ करके जो इस दिव्य सन्देश को सुनने में सफलता प्राप्त कर लेते हैं, वे आत्मदर्शी एवं ईश्वरपरायण कहलाते हैं। ईश्वर उनके लिए बिलकुल समीप होता है, जो ईश्वर की बातें सुनते हैं और अपनी उससे कहते हैं।
9-इस दिव्य मिलन के लिए हाड़-मांस के स्थूल नेत्र या कानों का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आत्मा की समीपता में बैठा हुआ अन्त:करण अपनी दिव्य इन्द्रियों की सहायता से इस कार्य को आसानी से पूरा कर लेता है। यह अत्यन्त सूक्ष्म ब्रह्म शब्द, दिव्य विचार तब तक धुँधले रूप में दिखाई पड़ता है जब तक कषाय-कल्मष आत्मा में बने रहते हैं।
10-जितनी आन्तरिक पवित्रता बढ़ती जाती है, उतने ही दिव्य सन्देश बिलकुल स्पष्ट रूप से सामने आते हैं। आरम्भ में अपने लिए कर्त्तव्य का बोध होता है, पाप-पुण्य का संकेत होता है। बुरा कर्म करते समय अन्तर में भय, घृणा, लज्जा, संकोच आदि का होना तथा उत्तम कार्य करते समय आत्मसन्तोष, प्रसन्नता, उत्साह होना इसी स्थिति का बोधक है। 11-यह दिव्य सन्देश आगे चलकर भूत, भविष्य, वर्तमान की सभी घटनाओं को प्रकट करता है। किसके लिए क्या भवितव्य बन रहा है और भविष्य में किसके लिए क्या घटना घटित होने वाली है, यह सब कुछ उससे प्रकट हो जाता है। और भी ऊँची स्थिति पर पहुँचने पर उसके लिए सृष्टि के सब रहस्य खुल जाते हैं, कोई ऐसी बात नहीं है जो उससे छिपी रहे।
12-परन्तु जैसे ही इतना बड़ा ज्ञान उसे मिलता है, वैसे ही वह उसका उपयोग करने में अत्यन्त सावधान हो जाता है। बालबुद्धि के लोगों के हाथों में यह दिव्यज्ञान पड़ जाए तो वे उसे बाजीगरी के खिलवाड़ करने में ही नष्ट कर दें, पर अधिकारी पुरुष अपनी इस शक्ति का किसी को परिचय तक नहीं होने देते और उसे भौतिक बखेड़ों से पूर्णतया बचाकर अपनी तथा दूसरों की आत्मोन्नति में लगाते हैं।
नाद का क्या अर्थ है?- 05 FACTS;- 1-शब्दब्रह्म का दूसरा रूप जो विचार सन्देश की अपेक्षा कुछ स्थूल है, वह
नाद है।नाद का शाब्दिक अर्थ है -१. शब्द, ध्वनि, आवाज।संगीत के
आचार्यों के अनुसार आकाशस्थ अग्नि और मरुत् के संयोग से नाद की उत्पत्ति हुई है। जहाँ प्राण (वायु) की स्थिति रहती है उसे ब्रह्मग्रंथि कहते हैं।
2-संगीतदर्पण में लिखा है कि आत्मा के द्वरा प्रेरित होकर चित्त देहज अग्नि पर आघात करता है और अग्नि ब्रह्मग्रंधिकत प्राण को प्रेरित करती है। अग्नि द्वारा प्रेरित प्राण फिर ऊपर चढ़ने लगता है। नाभि में पहुँचकर वह अति सूक्ष्म हृदय में सूक्ष्म, गलदेश में पुष्ट, शीर्ष में अपुष्ट और मुख में कृत्रिम नाद उत्पन्न करता है।
3-संगीत दामोदर में नाद तीन प्रकार का माना गया है—प्राणिभव, अप्राणिभव और उभयसंभव। जो सुख आदि अंगों से उत्पन्न किया जाता है वह प्राणिभव, जो वीणा आदि से निकलता है वह अप्राणिभव और जो बाँसुरी से निकाला जाता है वह उभय- संभव है। नाद के बिना गीत, स्वर, राग आदि कुछ भी संभव नहीं। ज्ञान भी उसके बिना नहीं हो सकता। अतः नाद परज्योति व ब्रह्मरुप है और सारा जगत् नादात्मक है।
4-इस दृष्टि से नाद दो प्रकार का है— आहत और अनाहत।आहद का अर्थ दो वस्तुओं के संयोग से उत्पन्न ध्वनि और अनाहद का अर्थ जो स्वयं ही ध्वनित है। जैसे एक हाथ से बजने वाली ताली। ताली तो दो हाथ से ही बजती है तो उसे तो आहद ध्वनि ही कहेंगे। अनाहत नाद को केवल योगी ही सुन सकते हैं। हठयोग दीपिका में लिखा है कि जिनको तत्वबोध न हो सके वे नादोपासना करें। अँतस्थ नाद सुनने के लिये चाहिए कि एकाग्रचित होकर शांतिपूर्वक आसन जमाकर बैठे। आँख, कान, नाक, मुँह सबका व्यापार बंद कर दे।
5-अभ्यास की अवस्था में पहले तो मेघगर्जन, भेरी आदि की सी गंभीर ध्वनि सुनाई पडे़गी, फिर अभ्यास बढ़ जाने पर क्रमशः वह सूक्ष्म होती जायगी। इन नाना प्रकार की ध्वनियों में से जिसमें चित्त सबसे अधिक रमे उसी में रमावे। इस प्रकार करते करते नादरुपी ब्रह्म में चित्त लीन हो जायगा।;
नाद योग का क्या उद्येश्य है?-
05 FACTS;-
1-नाद कहते हैं ध्वनि को, ध्वनि की तरंग को। नाद योग का उद्येश्य है आहद से अनाहद की ओर ले जाना। आप पहले एक नाद उत्पन्न करो, फिर उस नाद के साथ अपने मन को जोड़ो। मन को एकतार में लगाए रखने के लिए ही तो ॐ का अविष्कार हुआ है। ओम ही है एकमात्र ऐसा प्रणव मंत्र जो आपको अनाहद की ओर ले जा सकता है। यह पुल की तरह
है।
2-प्रकृति के अन्तराल में एक ध्वनि प्रतिक्षण उठती रहती है, जिसकी प्रेरणा से आघातों द्वारा परमाणुओं में गति उत्पन्न होती है और सृष्टि का समस्त क्रिया-कलाप चलता है। यह प्रारम्भिक शब्द ‘ॐ’ है। यह ‘ॐ’ ध्वनि जैसे-जैसे अन्य तत्वों के क्षेत्र में होकर गुजरती है, वैसे ही वैसे उसकी ध्वनि में अन्तर आता है।
3-वंशी के छिद्रों में हवा फेंकते हैं तो उसमें एक ध्वनि उत्पन्न होती है। पर आगे के छिद्रों में से जिस छिद्र से जितनी हवा निकाली जाती है, उसी के अनुसार भिन्न-भिन्न स्वरों की ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार ॐ ध्वनि भी विभिन्न तत्वों के सम्पर्क में आकर विविध प्रकार की स्वर लहरियों में परिणत हो जाती है। इन स्वर लहरियों का सुनना ही नादयोग है।
4-मन को लय करने के लिये साधक अपनी चेतना को बाह्य वृत्तियों से समेट कर अन्तर्मुख करके भीतर होने वाले शब्दों को सुनने की चेष्टा करता है, जिसे ‘नाद’ कहते हैं।‘नादबिन्दु उपनिषद्’ में इसकी पूरी साधन प्रक्रिया बतलाई गई है।इस ‘नाद’ को सुनने के लिए साधक किसी आसन में बैठ कर अपने दाहिने अँगूठे से दाहिने कान को, बाँये अँगूठे से बाँये कान को बन्द करकेइस तरह से क्रमशः आँख, नाक और होठों को बन्द कर बाहर से वृत्तियों को समेट कर अन्दर में ‘नाद’ को श्रवण करने के लिए केन्द्रित करते हैं। 5-पञ्चतत्वों की प्रतिध्वनित हुई ॐकार की स्वर लहरियों को सुनने की नादयोग साधना कई दृष्टियों से बड़ी महत्त्वपूर्ण है। प्रथम तो इस दिव्य संगीत के सुनने में इतना आनन्द आता है, जितना किसी मधुर से मधुर वाद्य या गायन सुनने में नहीं आता। दूसरे इस नाद श्रवण से मानसिक तन्तुओं का प्रस्फुटन होता है।
6-सर्प जब संगीत सुनता है तो उसकी नाड़ी में एक विद्युत् लहर प्रवाहित हो उठती है। मृग का मस्तिष्क मधुर संगीत सुनकर इतना उत्साहित हो जाता है कि उसे तन-बदन का होश नहीं रहता। योरोप में गायें दुहते समय मधुर बाजे बजाए जाते हैं जिससे उनका स्नायु समूह उत्तेजित होकर अधिक मात्रा में दूध उत्पन्न करता है। नाद का दिव्य संगीत सुनकर मानव-मस्तिष्क में भी ऐसी स्फुरणा होती है, जिसके कारण अनेक गुप्त मानसिक शक्तियाँ विकसित होती हैं। इस प्रकार भौतिक और आत्मिक दोनों ही दिशाओं में गति होती है। 7-तीसरा लाभ एकाग्रता है। एक वस्तु पर, नाद पर ध्यान एकाग्र होने से मन की बिखरी हुई शक्तियाँ एकत्रित होती हैं और इस प्रकार मन को वश में करने तथा निश्चित कार्य पर उसे पूरी तरह लगा देने की साधना सफल हो जाती है। यह सफलता कितनी शानदार है, इसे प्रत्येक अध्यात्ममार्ग का जिज्ञासु भली प्रकार जानता है।
8-आतिशी काँच द्वारा एक-दो इञ्च जगह की सूर्य किरणें एक बिन्दु पर एकत्रित कर देने से अग्नि उत्पन्न हो जाती है। मानव प्राणी अपने सुविस्तृत शरीर में बिखरी हुई अनन्त दिव्य शक्तियों का एकीकरण कर ऐसी महान् शक्ति उत्पन्न कर सकता है, जिसके द्वारा इस संसार को हिलाया जा सकता है और अपने लिए आकाश में मार्ग बनाया जा सकता है। 9-जिस तरह योग में आसन के लिए सिद्धासन और शक्तियों में कुम्भक प्राणायाम है, उसी तरह लय और नाद भी है। परमात्मा तत्व को जानने के लिए नादयोग को ही महान बताया गया है। जब किसी व्यक्ति को इसमें सफलता मिलने लगती है, तब उसे नाद सुनाई देता है। नाद का सुनाई देना सिद्धि प्राप्ति का संकेत है। नाद समाधि खेचरी मुद्रा से सिद्ध होती है।
नादानुसंधान क्या है?-
09 FACTS;-
1-इस ॐ की ध्वनि का अनुसंधान करना ही नाद योग या नादानुसंधान कहलाता है। जैसे ॐ (ओम) का उच्चारण आपने किया, तो उस ध्वनि को आप अपने कानों से सुनते भी हैं। ऊँ का उच्चारण करने से इस शब्द की चोट से शरीर के किन-किन हिस्सों में खास प्रभाव पड़ रहा है, उसको ध्यान से जाने, अनुसंधान करें।
2-सर्वप्रथम कानों को अँगूठे या पहली अँगुली से बंद करें और ॐ का भ्रमर गुंजन करें तो उसका सबसे अधिक प्रभाव गालों में, मुँह में, गर्दन में पड़ेगा। फिर आप कानों के पिछले हिस्से में, नाक पर, फिर कपाल में, सिर में आप गुंजन की तरंगों को क्रमश: महसूस करें।
3-इस नाद की तरंगों की खोज करना और यह नाद कहाँ से निकल रहा है, उसका भी पीछा करना और इस नाद की तरंगें कहाँ-कहाँ जा रही हैं, उसको बहुत ध्यान से सुनना ही नाद-अनुसंधान है और इसको ही नाद योग कहते हैं।
4-एक उपनिषद् का नाम है 'नाद बिंदु' उपनिषद। जिसमें बहुत से श्लोक इस नाद पर आधारित हैं। नाद क्या है, नाद कैसे चलता है, नाद के सुनने का क्या लाभ है, इन सब की चर्चा इसमें की गई है। नाद को जब आप करते हो तो यह है इसकी पहली अवस्था।
5-सधने पर .. ॐ के उच्चारण का अभ्यास करते-करते एक समय ऐसा आता है जबकि उच्चारण करने की आवश्यकता नहीं होती आप सिर्फ आँखें और कानों को बंद करके भीतर उसे सुनें और वह ध्वनि सुनाई देने लगेगी। भीतर प्रारंभ में वह बहुत ही सूक्ष्म सुनाई देगी फिर बढ़ती जाएगी।
6-साधु-संत कहते हैं कि यह ध्वनि प्रारंभ में झींगुर की आवाज जैसी सुनाई देगी। फिर धीरे-धीरे जैसे बीन बज रही हो, फिर धीरे-धीरे ढोल जैसी थाप सुनाई देने लग जाएगी, फिर यह ध्वनि शंख जैसी हो जाएगी। योग कहता हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर दैवीय शब्द ध्वनित होते रहते हैं, लेकिन व्यक्ति को इतनी भी फुरसत नहीं है कि स्वयं को सुन ले।
7-कहते हैं कि दिल धड़कता है प्रति मिनट 70 बार लेकिन व्यक्ति उसे सुन ही नहीं पाता। इसी तरह भीतर के बहुत से अँग आपसे बात करना चाहते हैं यह बताने के लिए कि हम ब्रह्मांड की आवाज सुनने की क्षमता रखते हैं, लेकिन जनाब आपको फुरसत ही कहाँ। जब हम बीमार पड़ते हैं तभी आपको पता चलता हैं कि हम हैं।
8-ॐ किसी शब्द का नाम नहीं है। ॐ एक ध्वनि है, जो किसी ने बनाई नहीं है। यह वह ध्वनि है जो पूरे कण-कण में, पूरे अंतरिक्ष में हो रही है। वेद, गीता, पुराण, कुरआन, बाइबल, नानक की वाणी सभी इसकी गवाह है। योग कहता हैं कि इससे सुनने के लिए शुरुआत स्वयं के भीतर से ही करना होगी। ॐ।
9-नादयोग की साधना के दो रूप हैं। एक तो अन्तरिक्ष- सूक्ष्म जगत से आने वाली दिव्य ध्वनियों का श्रवण, दूसरा अपने अन्तरंग के शब्द ब्रह्म का जागरण और उसका अभीष्ट क्षेत्र में अभीष्ट उद्देश्य के लिए परिप्रेषण, यह शब्द उत्थान एवं परिप्रेषण ओउम् कार साधना के माध्यम से ही बन पड़ता है।
नाद क्रिया के कितने प्रकार हैं?-
09 FACTS;-
1-नाद क्रिया के दो भाग हैं- बाह्य और अन्तर। बाह्य नाद में बाहर की दिव्य आवाजें सुनी जाती हैं और बाह्य जगत की हलचलों की जानकारियाँ प्राप्त की जाती हैं, और ब्रह्याण्डीय शक्तिधाराओं को आकर्षित करके अपने में धारण किया जाता है। अन्तः नाद में भीतर से शब्द उत्पन्न करके भीतर ही भीतर परिपक्व करके और परिपुष्ट होने पर उसे किसी लक्ष्य विशेष पर, किसी व्यक्ति के अथवा क्षेत्र के लिए फेंका जाता है और उससे अभीष्ट प्रयोजन की पूर्ति की जाती है, इसे धनुष-वाण चलाने के समतुल्य समझा जा सकता है।
2-अन्तःनाद के लिए भी बैठना तो ब्रह्मनाद की तरह ही होता है, पर अन्तर ग्रहण एवं प्रेषण का होता है। सुखासन से मेरुदण्ड को सीधा रखते हुए षटमुखी मुद्रा में बैठने का विधान है। षटमुखी मुद्रा का अर्थ है- दोनों अँगूठों से दोनों कानों के छेद बन्द करना, दोनों हाथों की तर्जनी और मध्यमा उंगलियों से दोनों आँखें बन्द करना। दोनों अनामिका कनिष्ठिकाओं से दोनों नथुनों पर दबाव डालना, नथुनों पर इतना दबाव नहीं डाला जाता कि साँस का आवागमन ही रुक जाये।
3-होठ बन्द, जीभ बन्द, मात्र भीतर ही परा- पश्यन्ति वाणियों से ओ३म्कार का गुञ्जार- प्रयास यही है- अन्तःनाद उत्थान। इसमें कण्ठ से मन्द ध्वनि होती रहती है, अपने आपको उसका अनुभव होता है और अन्तःचेतना उसे सुनती है। ध्यान रहे.. यह ओ३मकार का जप या उच्चारण नहीं गुञ्जार है। गुञ्जार का तात्पर्य है- शंख जैसी ध्वनि धारा एवं घड़ियाल जैसी थरथराहट का सम्मिश्रण। इसका स्वरूप लिखकर ठीक तरह नहीं समझा और समझाया जा सकता। इसे अनुभवी साधकों से सुना और अनुकरण करके सीखा जा सकता है।
4-साधना आरम्भ करने के दिनों में दस- दस सैकण्ड के तीन गुञ्जार बीच-बीच में पाँच-पाँच सैकण्ड रुकते हुए करने चाहिए। इस प्रकार चालीस सैकण्ड का एक शब्द उत्थान हो जायेगा। इतना करके उच्चारण बन्द और उसकी प्रतिध्वनि सुनने का प्रयत्न करना चाहिए। जिस प्रकार गुम्बजों में, पक्के कुओं में, विशाल भवनों में, पहाड़ों की घाटियों में जोर से शब्द करने पर उसकी प्रतिध्वनि उत्पन्न होती है, उसी प्रकार अपने अन्तः क्षेत्र में ओउम्कार गुञ्जार के छोड़े हुए शब्द प्रवाह की प्रतिध्वनि उत्पन्न हुई अनुभव करनी चाहिए, और पूरी तरह ध्यान एकाग्र करके इस सूक्ष्म प्रतिध्वनि का आभास होता है।
5-आरम्भ में बहुत प्रयत्न से, बहुत थोड़ी- सी अतीव मन्द रुककर सुनाई पड़ती है, किन्तु धीरे-धीरे उसका उभार बढ़ता चलता है और ओउम्कार की प्रतिध्वनि अपने ही अन्तराल में अधिक स्पष्ट एवं अधिक समय तक सुनाई पड़ने लगती है, स्पष्टता एवं देरी को इस साधना की सफलता का
चिन्ह माना जा सकता है।ओ३मकार की उठती हुई प्रतिध्वनि अन्तः क्षेत्र के प्रत्येक विभाग को, क्षेत्र को प्रखर बनाती है। उन संस्थानों की प्रसुप्त शक्ति जगाती है, उससे आत्मबल बढ़ता है और छिपी हुई दिव्य शक्तियाँ प्रकट होती एवं परिपुष्ट होती हैं।
6-समयानुसार इसका उपयोग शब्दबेधी वाण की तरह, प्रक्षेपशास्त्र की तरह हो सकता है। भौतिक एवं आत्मिक हित साधना के लिए इस शक्ति को समीपवर्ती अथवा दूरवर्ती व्यक्तियों तक भेजा जा सकता है और उनको कष्टों से उबारने तथा प्रगति पथ पर अग्रसर करने के लिए उसका उपयोग किया जा सकता है। वरदान देने की क्षमता, परिस्थतियों में परिवर्तन कर सकने जितनी समर्थता जिस शब्द ब्रह्म के माध्यम से सम्भव होती है, उसे ओ३म्कार गुञ्जार के आधार पर भी उत्पन्न एवं परिपुष्ट किया जाता है।
7-नादयोग की पूर्णता दोनों ही प्रयोग प्रयोजनों से सम्बद्ध है। कानों के छिद्र बन्द करके दिव्यलोक से आने वाले ध्वनि- प्रवाहों को सुनने के साथ- साथ यह साधन भी रहना चाहिए कि साधक अपने अन्तः क्षेत्र से शब्द शक्ति का उत्थान कर सके। इसी अभ्यास के सहारे अन्यान्य मन्त्रों की शक्ति सुदूर क्षेत्रों तक पहुँचाई जा सकती है।
8-वातावरण को प्रभावित करने, परिस्थितियों बदलने एवं व्यक्तियों को सहायता पहुँचाने के लिए मन्त्र शक्ति का प्रयोग परावाणी से होता है। चमड़े की जीभ से निकलने वाली बैखरी ध्वनि तो जानकारियों का आदान-प्रदान भर कर सकती है। मन्त्र की क्षमता तो परा और पश्यन्ति वाणियों के सहारे प्रचण्ड बनती और लक्ष्य तक पहुँचती हैं। परावाक् का जागरण ओ३म् कार साधना से सम्भव होता है।
9-कुण्डलिनी अग्नि के प्रज्जवलन में भी ओ३म् कार को ईधन की तरह
प्रयुक्त किया जाता है-जिससे बिना दृश्य के दृष्टि स्थिर हो जाती है, जिससे बिना प्रयत्न के प्राणवायु स्थिर हो जाती है, जिससे बिना अवलम्बन के चित्त का नियमन हो जाता है, वह अन्तर नादरूपी ब्रह्म ही है।
नाद का अभ्यास किस प्रकार करना चाहिए?- 09 FACTS;- 1-अभ्यास के लिए ऐसा स्थान प्राप्त कीजिए जो एकान्त हो और जहाँ बाहर की अधिक आवाज न आती हो। तीक्ष्ण प्रकाश इस अभ्यास में बाधक है, इसलिए कोई अँधेरी कोठरी ढूँढ़नी चाहिए। एक पहर रात हो जाने के बाद से लेकर सूर्योदय से पूर्व तक का समय इसके लिए बहुत ही अच्छा है। यदि इस समय की व्यवस्था न हो सके तो प्रात: 07 बजे तक और शाम को दिन छिपे बाद का कोई समय नियत किया जा सकता है। नित्य-नियमित समय पर अभ्यास करना चाहिए।
2-अपने नियत कमरे में एक आसन या आरामकुर्सी बिछाकर बैठो। आसन पर बैठो तो पीठ पीछे कोई मसनद या कपड़े की गठरी आदि रख लो। यह भी न हो तो अपना आसन एक कोने में लगाओ। जिस प्रकार शरीर को आराम मिले, उस तरह बैठ जाओ और अपने शरीर को ढीला छोड़ने का प्रयत्न करो। 3-भावना करो कि मेरा शरीर रूई का ढेर मात्र है और मैं इस समय इसे पूरी तरह स्वतन्त्र छोड़ रहा हूँ। थोड़ी देर में शरीर बिलकुल ढीला हो जाएगा और अपना भार अपने आप न सहकर इधर-उधर को ढुलने लगेगा। आरामकुर्सी, मसनद या दीवार का सहारा ले लेने से शरीर ठीक प्रकार अपने स्थान पर बना रहेगा।
4-साफ रूई की मुलायम सी दो डाटें बनाकर उन्हें कानों में इस तरह लगाओ कि बाहर की कोई आवाज भीतर प्रवेश न कर सके। उँगलियों से कान के छेद बन्द करके भी काम चल सकता है। अब बाहर की कोई आवाज तुम्हें सुनाई न पड़ेगी। यदि पड़े भी तो उस ओर से ध्यान हटाकर अपने मूर्द्धा स्थान पर ले आओ और वहाँ जो शब्द हो रहे हैं, उन्हें ध्यानपूर्वक सुनने का प्रयत्न करो। 5-आरम्भ में शायद कुछ भी सुनाई न पड़े, पर दो-चार दिन प्रयत्न करने के बाद जैसे-जैसे सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय निर्मल होती जाएगी, वैसे ही वैसे शब्दों की स्पष्टता बढ़ती जाएगी। पहले पहल कई शब्द सुनाई देते हैं। शरीर में जो रक्त-प्रवाह हो रहा है, उसकी आवाज रेल की तरह धक्-धक्, धक्-धक् सुनाई पड़ती है। वायु के आने-जाने की आवाज बादल गरजने जैसी होती है। रसों के पकने और उनके आगे की ओर गति करने की आवाज चटकने की सी होती है। यह तीन प्रकार के शब्द शरीर की क्रियाओं द्वारा उत्पन्न होते हैं।
6-इसी प्रकार दो प्रकार के शब्द मानसिक क्रियाओं के हैं। मन में चञ्चलता की लहरें उठती हैं, वे मानस-तन्तुओं पर टकराकर ऐसे शब्द करती हैं, मानो टीन के ऊपर मेह बरस रहा हो और जब मस्तिष्क बाह्य ज्ञान को ग्रहण करके अपने में धारण करता है, तो ऐसा मालूम होता है मानो कोई प्राणी साँस ले रहा हो। ये पाँचों शब्द शरीर और मन के हैं। कुछ ही दिन के अभ्यास से, साधारणत: दो-तीन सप्ताह के प्रयत्न से यह शब्द स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ते हैं। इन शब्दों के सुनने से सूक्ष्म इन्द्रियाँ निर्मल होती जाती हैं और गुप्त शक्तियों को ग्रहण करने की उनकी योग्यता बढ़ती जाती है। 7-जब नाद श्रवण करने की योग्यता बढ़ जाती है, तो वंशी या सीटी से मिलती-जुलती अनेक प्रकार की शब्दावलियाँ सुनाई पड़ती हैं। यह सूक्ष्मलोक में होने वाली क्रियाओं का परिचायक है। बहुत दिनों से बिछुड़े हुए बच्चे को यदि उसकी माता की गोद में पहुँचाया जाता है तो वह आनन्द से विभोर हो जाता है, ऐसा ही आनन्द सुनने वाले को आता है। 8-जिन सूक्ष्म शब्द ध्वनियों को आज वह सुन रहा है, वास्तव में यह उसी तत्व के निकट से आ रही हैं, जहाँ से कि आत्मा और परमात्मा का विलगाव हुआ है और जहाँ पहुँच कर दोनों फिर एक हो सकते हैं। धीरे-धीरे यह शब्द स्पष्ट होने लगते हैं और अभ्यासी को उनके सुनने में अद्भुत आनन्द आने लगता है। कभी-कभी तो वह उन शब्दों में मस्त होकर आनन्द से विह्वल हो जाता है और अपने तन-मन की सुध भूल जाता है। 9-अन्तिम शब्द ॐ है, यह बहुत ही सूक्ष्म है। इसकी ध्वनि घण्टा ध्वनि के समान रहती है। घड़ियाल में हथौड़ी मार देने पर जैसे वह कुछ देर तक झनझनाती रहती है, उसी प्रकार ॐ का घण्टा शब्द सुनाई पड़ता है। ॐकार ध्वनि जब सुनाई पड़ने लगती है तो निद्रा, तन्द्रा या बेहोशी जैसी दशा उत्पन्न होने लगती है। साधक तन-मन की सुध भूल जाता है और समाधि सुख का, तुरीयावस्था का आनन्द लेने लगता है। उस स्थिति से ऊपर बढ़ने वाली आत्मा परमात्मा में प्रवेश करती जाती है और अन्तत: पूर्णतया परमात्मावस्था को प्राप्त कर लेती है।
साधना की आरम्भिक क्रिया द्विविध है- बाह्य और अंतरंग। बैठना दोनों में एक ही तरह से होता है। अन्तर मात्र ग्रहण व प्रेषण का होता हैं बाह्य-नाद को भी ब्रह्मनाद का श्रवण कहा जाता है।नादयोग की साधना विधि का उल्लेख शिवपुराण में इस प्रकार है- अर्थात्- ''लोगों के सो जाने पर थोड़ी रात्रि बीत जाने पर घोर अंधकार में- अच्छे आसन पर सौम्य श्वांसें लेता हुआ योगी नादयोग की साधना करें। तर्जनी उँगलियों से कानों के छेद बन्द रखें और अग्नि तत्व प्रेरित सूक्ष्म शब्दों को श्रवण करें। जब तक शब्द सुनाई न पड़े तब तक अभ्यास जारी रखें। प्रायः अभ्यास सातवें दिन से शब्द सुनाई पड़ता है।नाद-योग के द्वारा सुनी जाने वाली ये दिव्य ध्वनियाँ अनन्त अन्तरिक्ष में बिना किसी प्रकृतिगत हलचल का आश्रय लिये स्वयमेव विनिःसृत होती रहती है। ये चेतन हैं, दिव्य हैं, अलौकिक, अभौतिक और अतींद्रिय हैं। इसीलिए इन्हें देव वाणी भी कहते हैं। उन्हें नादयोग के माध्यम से हमारा चेतन अन्तःकरण सुन सकता है। श्रवण का सम्बन्ध कर्णेन्द्रिय से है। अस्तु, सूक्ष्म एवं चेतन श्रवण भी शब्द-संस्थान के इसी प्रतिनिधि केन्द्र का सहारा लेकर सुना जाता है। इस तथ्य को समझने पर ही नाद-साधना में वास्तविक प्रगति संभव है।नाद संकेत वे सूत्र हैं जिनके सहारे परमात्मा के विभिन्न शक्ति-स्त्रोतों के साथ सूक्ष्म संपर्क संभव है। सूक्ष्मता को न समझा गया तो फिर स्थूल जगत की ही ध्वनियाँ सुनाई पड़ेंगी। उनसे भी कुछ भौतिक लाभ संभव है। किन्तु अध्यात्म का क्षेत्र सूक्ष्मता का ही है।नाद योग के अभ्यास से आत्मचेतना को परिष्कृत ओर सूक्ष्म शरीर की कर्णेंद्रिय तन्मात्रा शब्द को परिष्कृत किया जाता है। इस आधार पर अदृश्य एवं अविज्ञात से संपर्क साधा जाता है और अतींद्रिय सामर्थ्य विकसित होती है।नाद साधना के क्रमिक अभ्यास पर प्रकाश डालते हुये कहा गया है- ''जब पहले पहल यह अभ्यास किया जाता है, तो यह नाद कई तरह का होता है और बड़े जोर-जोर से सुनाई देता है, परन्तु अभ्यास बढ़ जाने पर वह नाद धीमे से धीमा होता जाता है। शुरू में इस नाद की ध्वनि समुद्र, बादल, झरना, भेरी तरह होती है, परन्तु बाद में भ्रमर, वीणा-सी तथा किंकिणी की तरह मधुर होती है। इस तरह से वह ध्वनि धीमी से धीमी होती हुई कई तरह की सुनायी देती है। भेरी आदि की ध्वनि सुनने पर उसमें धीमे से धीमे नाद का विचार करना चाहिए। साधक को चाहिए कि वह धीमे से घने और घने से धीमे नाद में जाय और मन को इधर उधर न भटकने दे।
नादयोग में कितने प्रकार की ध्वनियाँ सुनाई पड़ सकती हैं?-
नादयोग में कितने प्रकार की ध्वनियाँ सुनाई पड़ सकती हैं, इसकी कोई सीमा नहीं। प्रायः परिचित ध्वनियाँ ही सुनाई पड़ती हैं। सूक्ष्मदर्शी साधक उनके पीछे उच्च संकेतों की विवेक बुद्धि के द्वारा सहज संगीत बिठा सकते हैं। कोयल की कूक, मुर्गे की बाग, मयूर की पीक, सिंह की दहाड़, हाथी की चिंघाड़ शब्द सुनाई पड़ें तो उनमें इन प्राणियों के उच्चारण समय की मनःस्थिति की कल्पना करते हुए अपने लिए प्रेरक संकेतों का ताल-मेल बिठाया जा सकता है। कई बार रुदन, क्रंदन, हर्षोल्लास, अट्टहास जैसी ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं। उसे अपनी अंतरात्मा का संतोष-असंतोष समझना चाहिए।
कुमार्गगामी गतिविधियों से असंतोष और सत्प्रवृत्तियों से संतोष स्पष्ट है। आत्म-निरीक्षण करते हुए आत्मा को समय-समय पर अपनी भली-बुरी गतिविधियों पर संतोष-असंतोष प्रकट करने के अवसर आते हैं। इन्हीं की प्रतिध्वनि हर्ष, क्षोभ व्यक्त करने वाले स्वरों में सुनाई पड़ती रहती है। किस ध्वनि के पीछे क्या संकेत, संदेश, तथ्य हो सकता है, उसे नाद योगी की सहज बुद्धि ही समयानुसार निर्णय करती चलती है। दिव्य ध्वनियों में किसी न किसी स्तर की उच्च प्रेरणाएं होती हैं और इन ऊपर की पंक्तियों में सर्प को बीन सुनाई पड़ने का उल्लेख करते हुए उनके अभिप्राय का संकेत किया गया है।
इसके अतिरिक्त और भी कई प्रकार की ध्वनियाँ नाद-योग के साधकों को सुनाई पड़ती हैं। इनकी संगति इस प्रकार बिठाई जा सकती है। भगवती सरस्वती अपनी वीणा झंकृत करते हुए ऋतम्भरा प्रज्ञा और अनासक्त भूमा के मृदुल मनोरम तारों को झनझना रही है, और अपनी अंतःचेतना में वही दिव्य तत्व उभर रहे हैं।
इन विविध ध्वनियों के जो अभिप्राय संकेत अंतःकरण में उभरें, उन्हें ही पर्याप्त समझना चाहिए। उनकी बहुत रहस्य भरी व्याख्याओं के लिए सिर खपाने के बजाय, यह ध्यान में रखा जाय कि इन सब का प्रयोजन एक ही रहता है कि हमें आज की स्थिति से ऊपर उठकर उच्च भूमिका के लिए द्रुतगति से अग्रसर होना चाहिए तथा साहस भरा कदम उठाना चाहिए।
ब्रह्माण्ड-व्यापी मूल सत्ता से जुड़ना। उस परम एकत्व की अविराम अनुभूति। इस अनुभूति को विकसित करने की अनेकों विधियाँ हैं, अनेकों पद्धतियाँ हैं। कोई भी विधि उस लक्ष्य तक पहुँचने की एक मात्र विधि नहीं है।विश्व में जितने भी पदार्थ हैं सभी के मूल में एक ही तत्व अंतर्निहित है। मूल रूप में यह चेतन-ऊर्जा अव्याख्येय है। इस अव्याख्येय चेतना-ऊर्जा का विविध रूपों में रूपांतरण होता रहता है तथा हो सकता है। योग-साधना की भिन्न-भिन्न प्रक्रियाओं में इस चेतना-ऊर्जा की किसी धारा विशेष को लेकर विस्तृत ढांचा खड़ा किया गया है।योग शास्त्र के इन अनेकानेक साधना-विधानों में एक महत्वपूर्ण धारा नादयोग की भी है। कानों को उँगलियों से या शीशी वाली कार्क से इस प्रकार बन्द किया जाता है कि बाहर की वायु या स्थूल आवाजें भीतर प्रवेश न कर सकें। इस स्थिति में कानों को बाहरी ध्वनि-आधार से विलग किया जाता है, और ध्यान को एकाग्र करके यह प्रयत्न किया जाता है कि अतीन्द्रिय जगत से आने वाले शब्द प्रवाह को अंतःचेतना द्वारा सुना जा सके। यों इसमें भी कर्णेंद्रिय का, उसकी शब्द तन्मात्रा का योगदान तो रहता ही है। पर वह श्रवण वस्तुतः उच्चस्तरीय चेतन जगत की ध्वनि लहरी सुनने के लिये है। कर्णेंद्रिय और अंतःकरण का इसे संयुक्त प्रयास भी कह सकते हैं। यह संयुक्त प्रयास जिस सूक्ष्म ध्वनि-प्रवाह में नियोजित किया जाता है, वह है तो अभिन्न ही। क्योंकि पिण्ड ब्रह्माण्ड का अभिन्न अंश है। किन्तु ध्यान के संकल्प भेद तथा चेष्टा भेद से कोई साधक अनन्त अतीन्द्रिय जगत की सूक्ष्म ध्वनियों के श्रवण का अभ्यास आरम्भ करता है, कोई अन्य अपनी ही अंतर्ध्वनि के श्रवण का।अपने ही सूक्ष्म एवं कारण शरीरों में सन्निहित श्रवण शक्ति को यदि विकसित किया जा सके तो अन्तरिक्ष में निरन्तर प्रवाहित होने वाली उन ध्वनियों को भी सुना जा सकता है जो चमड़े से बने कानों की पकड़ से बाहर हैं। सूक्ष्म जगत की हलचलों का आभास इन ध्वनियों के आधार पर हो सकता है। भिन्न अभ्यास पद्धति द्वारा यदि प्रारम्भ में उन सूक्ष्म ध्वनि प्रवाहों को सुनने की शक्ति अर्जित की जाती है, तो वही सामर्थ्य आगे चलकर सूक्ष्म एवं कारा शरीर में गूँजने वाली ध्वनियों की भी जानकारी पीने का माध्यम बन जाती है। इस प्रकार यह मात्र आरंभिक भेद है।नाद संकेत वे सूत्र हैं जिनके सहारे परमात्मा के विभिन्न शक्ति स्त्रोतों के साथ हमारे आदान-प्रदान सम्भव हो सकते हैं। टेलीग्राम, टेलीफोन, वायरलैस, टेलीविजन पद्धतियों का आश्रय लेकर हम दूरवर्ती व्यक्तियों के साथ अनुभूतियों का आदान-प्रदान करते हैं? उसी प्रकार नाद-साधना के सहारे ब्रह्मांडीय चेतना से संपर्क स्थापित कर उससे चेतनात्मक आदान-प्रदान किया जाता है।
नाद-ब्रह्म के दो भेद... अनहद नाद का क्या अर्थ है?-
07 FACTS;- 1-नाद-ब्रह्म के दो भेद हैं- आहत और अनाहत। ‘आहत’ नाद वे होते हैं, जो किसी प्रेरणा या आघात से उत्पन्न होते हैं। वाणी के आकाश तत्त्व से टकराने अथवा किन्हीं दो वस्तुओं के टकराने वाले शब्द ‘आहत’ कहे जाते हैं। बिना किसी आघात के दिव्य प्रकृति के अन्तराल से जो ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें ‘अनाहत’ या ‘अनहद’ कहते हैं। अनहद नाद का शुद्ध रूप है –‘प्रताहत नाद’। स्वच्छन्द-तन्त्र ग्रन्थ- में इन दोनों के अनेकों भेद-उपभेद बताये हैं।
आहत और अनाहत नाद को आठ भागों में विभक्त किया है। घोष, राव, स्वन, शब्द, स्फुट, ध्वनि, झंकार, ध्वंकृति। अनाहत की चर्चा महाशब्द के नाम से की गई है। इस शब्द को सुननें की साधना को ‘सुख’ कहते है।अनहद नाद एक बिना नाद की दैवी सन्देश-प्रणाली है। साधक इसे जान कर सब कुछ जान सकता है। इन शब्दों में ‘ॐ’ ध्वनि आत्म-कल्याण कारक और विभिन्न प्रकार की सिद्धियों की जननी है। इन्हें स्थूल-कर्णेन्द्रियाँ नहीं सुन पाती, वरन् ध्यान-धारणा द्वारा अन्तः चेतना में ही इनकी अनुभूति होती है।
2-वे अनाहत या अनहद शब्द प्रमुखत: दस होते हैं, जिनके नाम (1) संहारक, (2) पालक, (3) सृजक, (4) सहस्रदल, (5) आनन्द मण्डल, (6) चिदानन्द, (7) सच्चिदानन्द, (8) अखण्ड, (9) अगम, ( 10) अलख हैं। इनकी ध्वनियाँ क्रमश: पायजेब की झंकार की सी, सागर की लहर की, मृदंग की, शंख की, तुरही की, मुरही की, बीन-सी, सिंह गर्जना की, नफीरी की, बुलबुल की सी होती हैं। 3-जैसे अनेक रेडियो स्टेशनों से एक ही समय में अनेक प्रोग्राम ब्राडकास्ट होते रहते हैं, वैसे ही अनेक प्रकार के अनाहत शब्द भी प्रस्फुटित होते रहते हैं, उनके कारण, उपयोग और रहस्य अनेक प्रकार के हैं।चौसठ अनाहत अब तक गिने गए हैं, पर उन्हें सुनना हर किसी के लिए सम्भव नहीं। जिनकी आत्मिक शक्ति जितनी ऊँची होगी, वे उतने ही सूक्ष्म शब्दों को सुनेंगे, पर उपर्युक्त दस शब्द सामान्य आत्मबल वाले भी आसानी से सुन सकते हैं। 4-यह अनहद सूक्ष्म लोकों की दिव्य भावना है। सूक्ष्म जगत् में किस स्थान पर क्या हो रहा है, किस प्रयोजन के लिए कहाँ क्या आयोजन हो रहा है, इस प्रकार के गुप्त रहस्य इन शब्दों द्वारा जाने जा सकते हैं। कौन साधक किस ध्वनि को अधिक स्पष्ट और किस ध्वनि को मन्द सुनेगा, यह उसकी अपनी मनोभूमि की विशेषता पर निर्भर है। 5-अनहद नाद एक बिना तार की दैवी सन्देश प्रणाली है। साधक इसे जानकर सब कुछ जान सकता है। इन शब्दों में ॐ ध्वनि आत्मकल्याणकारक और शेष ध्वनियाँ विभिन्न प्रकार की सिद्धियों की जननी हैं।
6-शिव संहिता में विभिन्न प्रकार के अनहद ‘नाद’ बतलाये गये हैं।नाद श्रवण की साधना के प्रारम्भ में मधुमक्खी की भन-भनाहट,इसके बाद वीणा तब सहनाई और तत्पश्चात् घण्टे की ध्वनि और अनन्तः मेघ गर्जन आदि की ध्वनियाँ साधक को सुनाई पड़ती है।इस नाद-श्रवण में पूरी तरह लीन होने से मन लय हो जाता है और समाधि की अवस्था प्राप्त हो जाती है, ऐसा कहा जाता हैं।
7-इसी तरह कुछ साधक सिद्धासन में बैठ कर वैष्णवी मुद्रा धारण करके अनाहत ध्वनि को दाँये कान से सुनने का प्रयास करते हैं।इस ‘लययोग या नादयोग’ की साधना से बाहर की ध्वनियाँ स्वतः मिटने लगती है और साधक ‘अकार’ और ‘मकार’ के दोनों पक्षों पर विजय प्राप्त करते हुए धीरे-धीरे प्रणव को पीने लगते हैं, ऐसी मान्यता है।
8-प्रारम्भ में ‘नाद’ की ध्वनि समुद्र, मेघ-गर्जन, भेरी तथा झरने की तरह तीव्र होती है, मगर इसके पश्चात् यह ध्वनि मृदु होने लगती है और क्रमशः घण्टे की ध्वनि, किंकिणी, वीणा आदि जैसी धीमी होती जातीहै।इस प्रकार के अभ्यास से चित्त की चंचलता मिटने लगती है और एकाग्रता बढ़ने लगती है।नाद के प्रणव में संलग्न होने पर साधक ज्योतिर्मय हो जाता है और उस स्थिति में उसका मन लय हो जाता है।
9-इसके निरन्तर अभ्यास से साधक मन की सब ओर से खींच कर परम तत्व में लीन कर लेता है,यही नाद योग या लय योग कहलाता है। इसे ही नाद योग या लय योग की परम उपलब्धि बतलाया जाता है।कुछ लोग ‘नाद योग’ से अर्थ समझते हैं, वह ध्वनि जो सबके अन्दर विद्यमान है तथा जिससे सृष्टि के सभी आयाम प्राण तथा गति प्राप्त करते हैं, उसकी अनुभूति प्राप्त करना।मगर इस योग के तकनीक के सम्बन्ध में जो बातें की जाती हैं उसमें साधना की गहराई का अभाव दीखता है।
10-इस ‘नाद’ को ही कुछ विद्वान चार श्रेणियों बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ति और परा रूप में विभाजित करते हैंऔर इसे साधना की विभिन्न सीढ़ियाँ बतलाते हैं।कहीं-कहीं इस ‘नाद’ को चक्र-साधना से भी जोड़ दिया जाता है।इसके अन्तर्गत यह मान्यता है कि जैसे-जैसे चक्र जाग्रत होते है ‘नाद योग’ में सूक्ष्म ध्वनियों का अनुभव होता है।
11-मूलधार चक्र से आगे बढ़ने पर क्रमशः ध्वनियां सूक्ष्म होती जाती हैं और यह अभ्यास ‘बिन्दु’ पर जाकर समाप्त होता है।ऐसी मान्यता है कि ‘बिन्दु’ पर जो नाद प्रकट होता है उसकी पकड़ मन से परे होती है।कुछ लोग संगीत के सात स्वरों (सा, रे, ग, म, प, ध, नि, सा) को आँखें बन्द करके क्रमशःमूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्धि, बिन्दु (आज्ञा) तथा सहस्त्रार के साथ जोड़करआत्म-चेतना को ऊपर उठाने का अभ्यास करते हैं।
12-कहीं-कहीं तो मूलाधार चक्र पर मूलाधार के स्वर को मन-ही-मन दुहराया जाता हैऔर बिन्दु पर इसी शब्द की बार-बार मानसिक रूप से आवृत्ति की जाती है। आत्मिक-चेतना का विकास इस तथाकथित ‘लययोग या नाद योग’ से कहाँ तक सम्भव हो पाएगा- यह कहना कठिन है।
NOTE;-
नाद-साधना की इन क्रमिक प्रक्रियाओं के अभ्यास की चरम सार्थकता उस मूल ॐकार ध्वनि से पूर्ण तादात्म्य में है, जो सृष्टि मात्र के क्रिया-व्यापार का हेतु है। जो सृष्टि की समस्त शक्तिधाराओं का, ऊर्जा-प्रवाहों का केन्द्र एवं स्रोत है। व्यष्टि-सत्ता को समष्टि-केन्द्र से जोड़ने में समर्थ नाद-साधना के सभी अभ्यासों का लक्ष्य उसी एक परम तत्व की अनुभूति है, जिसे भारतीय मनीषियों ने प्रणव ध्वनि, उद्गीथ, अनाहत ब्रह्मनाद आदि कहकर पुकारा है।
नाद की स्वर लहरियों को पकड़ते-पकड़ते साधक ऊँची रस्सी को पकड़ता हुआ उस उद्गम ब्रह्म तक पहुँच जाता है, जो आत्मा का अभीष्ट स्थान है। ब्रह्मलोक की प्राप्ति, मुक्ति, निर्वाण, परमपद आदि नामों से इसी को पुकारी जाती है। नाद के आधार पर मनोलय करता हुआ साधक योग की अन्तिम सीढ़ी तक पहुँचता है और अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।