चित्त और बुद्धि में क्या अंतर है ? क्या है चित्त और छह प्रकार के रंगों की धर्म और अधर्म की “छ
''चित्त'' शब्द का सामान्य अर्थ क्या हैं?;-
06 FACTS;-
चित्त का मतलब हुआ विशुद्ध प्रज्ञा व चेतना, जो स्मृतियों से पूरी तरह से बेदाग हो। यहां कोई स्मृति नहीं होती है।मन का अगला आयाम चित्त
कहलाता है।चित्त मन का सबसे भीतरी आयाम है, जिसका संबंध उस चीज से है जिसे हम चेतना कहते हैं। अगर आपका मन सचेतन हो गया, अगर आपने चित्त पर एक खास स्तर का सचेतन नियंत्रण पा लिया, तो आपकी पहुंच अपनी चेतना तक हो जाएगी।
2-हम जिसे चेतना कह रहे हैं, वो वह आयाम है, जो न तो भौतिक है और न ही विद्युतीय और न ही यह विद्युत चुंबकीय है। यह भौतिक आयाम से अभौतिक आयाम की ओर एक बहुत बड़ा परिवर्तन है। यह अभौतिक ही है, जिसकी गोद में भौतिक घटित हो रहा है। भौतिक तो एक छोटी सी घटना है। इस पूरे ब्रह्माण्ड का मुश्किल से दो प्रतिशत या शायद एक प्रतिशत हिस्सा ही भौतिक है, बाकी सब अभौतिक ही है।
3-योगिक शब्दावली में इस अभौतिक को हम एक खास तरह की ध्वनि से जोड़ते हैं। हालांकि आज के दौर में यह समझ बहुत बुरी तरह से विकृत हो चुकी है, इस ध्वनि को हम ‘शि-व’ कहते हैं। शिव का मतलब है, ‘जो है नहीं’। जब हम शिव कहते हैं तो हमारा आशय पर्वत पर बैठे किसी इंसान से नहीं होता। हम लोग एक ऐसे आयाम की बात कर रहे होते हैं, जो है नहीं, लेकिन इसी ‘नहीं होने’ के अभौतिक आयाम की गोद में ही हरेक चीज घटित हो रही है।
4-अंग्रेजी भाषा में माइंड यानी मन बस एक शब्द है, जिससे उम्मीद की जाती है कि वह सब कुछ समेट ले, लेकिन योग में इसके सोलह पहलू होते हैं।हर हिस्से का अपना एक विशेष काम होता है। ऐसे कई अभ्यास और प्रक्रियाएं हैं, जिनकी मदद से कोई इंसान अपने मन के इन सोलह पहलुओं को अपने काबू में कर सकता है।
5-मन के तीन हिस्से..हम मन को तीन हिस्सों में बांट सकते हैं। मन का विवेक-विचार करने वाला आयाम बुद्धि कहलाता है, दूसरा है संग्रह करने वाला हिस्सा जो सूचनाएँ एकत्रित करता है; और तीसरा है, जागरूकता जो प्रज्ञा कहलाती है।
6-चित्त मन के सोलह आयामों में से एक है।मन के ये आयाम पूरी तरह से मस्तिष्क में स्थित नहीं होते, ये पूरे सिस्टम में होते हैं। तो ये आठ तरह की स्मृतियां, बुद्धि के ये पांच आयाम और अहंकार यानी पहचान के दो आयाम व चित्त कुल मिलाकर मन के सोलह हिस्से होते हैं।चित्त चूंकि असीमित होता है, इसलिए यह सिर्फ एक ही होता है।समझने की सहूलियत के लिए इन सोलह हिस्सों को चार समूहों में बांटा जा सकता है। 1-मन 2-बुद्धि
3-चित्त 4- अहंकार
क्या हैं आठ तरह की स्मृतियां?-
08 FACTS;-
बुनियादी तौर पर स्मृति के आठ रूप होते हैं। हम इन्हें तात्विक स्मृति, परमाणविक स्मृति, क्रमिक विकास की स्मृति, जेनेटिक स्मृति, कार्मिक स्मृति, स्पष्ट स्मृति, अस्पष्ट स्मृति और संवेदी स्मृति के तौर पर बांटते हैं।
1-तात्विक स्मृति;-
हर मूल तत्व अपनी स्मृति के अनुसार कार्य करता है। तात्विक स्मृति का मतलब है
कि तत्वों की अपनी स्मृति। अगर ऐसा न हो तो वे काम ही नहीं कर पाएंगे। वे अपनी अलग ही स्मृति विकसित कर लेते हैं, ताकि वे एक खास तरह से काम कर पाएं।वही पानी
हमारे भीतर एक तरीके से काम करता है, एक चींटी में दूसरी तरह से काम करता है, आम के पेड़ में अलग तरीके से काम करता है, नीम के पेड़ में अलग तरीके से व्यवहार करता है। जबकि पानी वही एक सा होता है। तो तत्व अपनी याद्दाश्त को विकसित कर एक खास तरीके से काम करते हैं।
2-परमाणविक स्मृति;-
परमाणुओं की अपनी अलग स्मृति होती है। भले ही हर परमाणु में एक जैसे ही तीन सूक्ष्माणु होते हैं, लेकिन अलग-अलग परमाणुओं में वे अलग-अलग तरीके से काम करते हैं। यह परमाणु की स्मृति होती है। वे किसी चीज को कुछ खास तरीके से याद रखते हैं और फिर उस खास गुण को जारी रखते हैं।
3-क्रमिक विकास की स्मृति;-
फिर क्रमिक विकास की स्मृति होती है। ऐसा कभी नहीं होता कि आप अपना खाना अगर कुत्ते को दे दें तो वह आपकी तरह बात करने लगे या अगर आप कुत्ते का खाना खा लें तो आप उसकी तरह भौंकने लगें।ऐसी चीजें कभी नहीं होतीं, क्योंकि एक क्रमिक विकास की स्मृति होती है।
4-जेनेटिक स्मृति;-
इसी तरह से एक जेनेटिक स्मृति होती है। अगर आप अमेरिकी खाना खाते हैं, तो आप अमेरिकी नहीं बन जाते।
5-कार्मिक स्मृति;-
एक कार्मिक स्मृति होती है, जो आपकी समझ से परे अलग-अलग तरीके से काम करती है। या यह अपने ही तरीके से काम करती है।
6-संवेदी स्मृति;-
एक संवेदी स्मृति भी होती है। अलग-अलग संवेदी अंग अलग-अलग चीजों को अलग-अलग तरीके से लेते हैं। मान लीजिए किसी जगह कोई घटना घटती है, हो सकता है कि वही एक घटना अलग-अलग संवेदी अंगों द्वारा अलग-अलग ढंग से ली जाए या फिर अलग-अलग लोगों के संवेदी अंगों द्वारा अलग-अलग तरीकों से ली गई हो। उसी के अनुसार स्मृति इकट्ठी होती है और फिर उसी हिसाब से यह मन में चलती है।
7-स्पष्ट स्मृति;-
इसके अलावा, स्पष्ट स्मृति भी होती है, जिसका मतलब है सचेतन स्मृति, जिससे आप स्पष्टता से शब्दों में कह सकते हैं।
8-अस्पष्ट स्मृति ;-
फिर अस्पष्ट स्मृति भी होती है। यह स्मृति ऐसी है, जो लगभग रोज कौंधती है, लेकिन आप कभी इसका अंदाजा ही नहीं लगा पाते, क्योंकि यह सचेतन नहीं होती। इस तरह से
कुल आठ तरह की स्मृतियां होती हैं।
क्या शरीर और विचारों से परे जाने पर बुद्धि स्थिर हो जाएगी?-
02 FACTS;-
1-मानस एक विशालकाय स्मृतिकोष है, जो बुद्धि को चलाने के लिए लगातार खुराक दे रहा है। अगर आप स्मृति को मिटा देंगे तो बुद्धि भ्रमित हो जाएगी, उसे समझ में ही नहीं आएगा कि वह क्या करे। अगर आपके भीतर कोई भी स्मृति नहीं होगी तो यह एक बेहद महत्वूपर्ण आयाम होगा। अगर आप अपने शरीर व अपने विचार प्रक्रिया की सीमाओं से परे निकल जाएं तो अचानक बुद्धि को समझ नहीं आएगा कि वह क्या करे, यह स्थिर हो जाएगी, क्योंकि बिना स्मृति के यह काम ही नहीं कर सकती।
2-अगर बुद्धि में सभी तरह की स्मृतियों का लगातार प्रवाह बना रहता है तो यह चलती रहती
है।यह कंप्यूटर की तरह है। आप ने उसकी मेमोरी हटा दी तो वह महज एक खाली स्क्रीन भर रह जाएगा। तो अगर आप खुद को स्मृतियों से दूर कर लें, स्मृतियों के उस विशाल कोष से, जिन्हें आप शरीर व मन या मानस कहते हैं तो बुद्धि स्थिर हो जाएगी या पूरी तरह से खाली हो जाएगी।
बुद्धि क्या हैं?-
03 FACTS;-
1-जब हम बुद्धि कहते हैं तो हमारा मतलब मन के तार्किक पक्ष से होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो आपकी बुद्धि आपको इस बात को नहीं मानने देगी कि दो और दो छह होते हैं।दो और दो चार ही होने चाहिए, नहीं तो
आप मान लेंगे कि सामने वाला पागल है। तो बुद्धि तथ्यपरक है, यह तथ्यों को समझती है, उन्हें अपने भीतर उतारती है, उनका आकलन करती है और इस दुनिया के कामकाज में हमारी मदद करती है।
2-दूसरे शब्दों में ,यह चाकू की तरह है, जितनी तेज धार, उतना बेहतर। चाकू को चीजों को काटकर खोलने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। तो इस जगत को समझने, उसकी पड़ताल करने का एक तरीका चीरफाड़ है। हाई स्कूल में आपने भी जरूर कोई केंचुआ या फिर कोई मेंढक की चीरफाड़ की होगी। चीरफाड़ के जरिए आप कुछ न कुछ तो जान ही जाते हैं, लेकिन इससे जीवन की मूल प्रकृति को नहीं समझा जा सकता।
3-आपके दिमाग में जितने सारे प्रभाव हैं, वे सिर्फ पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही घुसे हैं और ज्ञानेन्द्रियाँ हर चीज़ का अनुभव सिर्फ तुलना द्वारा ही कर सकती हैं।आपकी बुद्धि आपकी पांचों इंद्रियों के जरिए ही काम करती है। अगर इंद्रियों के जरिये सूचना नहीं मिल रही है, तो आपकी बुद्धि काम नहीं करेगी।
बुद्धि के पांच बुनियादी रूप क्या हैं?-
07 FACTS;-
1-बुद्धि के पांच बुनियादी रूप होते हैं।पांच ज्ञानेन्द्रियाँ अथार्त आकार, ध्वनि, सुगंध, स्वाद और स्पर्श को समझने के लिए बुद्धि के ये पांच अलग-अलग रूप होते हैं। इनमें से आकार को
समझने वाली बुद्धि को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि इसी से सृष्टि की ज्यामिति समझ में आती है।यदि जीवन में आपने अंधकार नहीं देखा होता, आप नहीं जान पाते कि प्रकाश क्या है। इंद्रिय ज्ञान आपको यथार्थ का एक विकृत रूप दिखाता है, क्योंकि ज्ञानेन्द्रियाँ हर चीज़ का अनुभव सिर्फ तुलना द्वारा ही कर सकती हैं और जहाँ तुलना होती है वहाँ हमेशा दोहरापन या द्वैत होता है। आप सिर्फ टुकड़ों में ही अनुभव कर सकते हैं। अतः आपका सारा अनुभव छोटे-छोटे अंशों में है और ये अंश कभी पूर्ण तस्वीर नहीं दिखाते।
2-इस विभाजन को यदि आप अपनी जागरूकता से मिटा दें, फिर आपकी बुद्धि यह स्पष्ट कर देगी कि क्या सच है और क्या सच नहीं है। तब आपकी बुद्धि चाक़ू के समान तेज़ हो जाती है और इस पर कुछ भी नहीं चिपकता, यह किसी चीज़ के साथ आसक्त नहीं होती। यह किसी वस्तु से पहचान नहीं बनाती, यह हर चीज़ को वैसी दिखाती है जैसी वह है यह आपके संग्रह से, आपकी पहचानों से, आपकी भावनाओं से प्रभावित नहीं होती।
3-अगर आप किसी चीज को देखते हैं और सबसे पहले उसके आकार पर आप गौर करते हैं, तो इसका मतलब है कि आकार को समझने वाली आपकी बुद्धि दूसरे तरह की बुद्धियों से ज्यादा प्रभावशाली है। अगर रंग की समझ ज्यादा प्रभावशाली है, तो आपको पूरा का पूरा जगत ही रंगीन और खूबसूरत नजर आएगा, लेकिन आपके तर्क इतने प्रबल नहीं होंगे। अगर ध्वनि की समझ ज्यादा शक्तिशाली है, तो आप पाएंगे कि अपने आसपास के जीवन को लेकर आपके पास एक खास तरह की समझ है। एक खास सीमा से परे ध्वनि खूबसूरत बन जाती है, जिसका आप आनंद तो लेते हैं, लेकिन तर्क का इस्तेमाल करने के लिए आपके पास कोई मजबूत आधार नहीं होगा।
4-अगर आपके पास स्पर्श या भावों को समझने की बुद्धि है तो इससे भी आपको आनंद की अनुभूति होगी, लेकिन एक बार फिर आपके पास कोई मजबूत तार्किक आधार नहीं होगा।
इस तरह आकार को समझने वाली बुद्धि सबसे अच्छी मानी जाती है, क्योंकि यह हर चीज को ज्यामितीय तरीके से देखती है। इसका मतलब है कि यह हर चीज के साथ संरेखित यानी ‘अलाइन’ या एक सीध में आ सकती है।
5-बाकी पहलू हमें अलग-अलग विशेषताएं देते हैं, लेकिन इस जगत के साथ अलाइन होने की काबिलियत इसी के साथ आती है। अलाइनमेंट इसलिए अहम है, क्योंकि एक बार अगर आपका अलाइनमेंट ठीक हो जाए तो घर्षण सबसे कम होगा। किसी मशीन को अच्छा तभी कहा जाता है, जब उसमें कम-से-कम घर्षण हो। प्रभावशाली काम का मतलब है आपके साथ हर चीज सबसे कम घर्षण के साथ हो रही है।
6-आनंद में होना, प्रफुल्लित होना, ब्रह्माण्ड की खोज करने की चाह होना, ये सब इसके स्वाभाविक नतीजे हैं। अगर दो विचार उठते ही आपको अपने भीतर एक टकराव महसूस होता हो, तो ऐसी स्थिति में आपका किसी चीज की खोज करने का मन नहीं होगा। अपने आप में यह बात आपको जीवन भर व्यस्त रखेगी।
7-हमारे जीवन की सबसे बुनियादी क्षमता विचार, भाव और संवेदनाएं हैं और इन्हें ही संभालने का तरीका लोग जीवन भर नहीं सीख पाते। कुत्ते, बिल्ली जैसे सारे जानवर अपनी सभी क्षमताओं को अपनी खुशहाली के लिए इस्तेमाल करने का तरीका अच्छी तरह जानते हैं, लेकिन इंसान यह सब नहीं सीख पाता। किसी भी दूसरे प्राणी की तुलना में इंसान के पास कहीं ज्यादा उच्च स्तरीय क्षमताएं और योग्यताएं हैं।परंतु वह इन्हें अपनी खुशहाली के लिए इस्तेमाल करने का तरीका नहीं सीखता ।
क्या है बुद्धि के पांच प्रकार ?-
बुद्धि पांच प्रकार की होती है-
1) बुद्धि
2)विवेक
3) मेधा बुद्धि
4) ऋतम्भरा बुद्धि
5) प्रज्ञा बुद्धि ।
1-बुद्धि ;-
बुद्धि वह होती है जो यथार्थ निर्णय देने वाली हो । हमारे नेत्र के पिछले विभाग में पीला पटल है , इस पीले पटल में तन्मात्राएँ लगी है । तन्मात्राओं के पश्चात मन है । मन का सम्बन्ध बुद्धि से है । इस प्रकार जो पदार्थ नेत्रों के समक्ष आता है वह मन के द्वारा बुद्धि तक पहुचता है और हम यथार्थ निर्णय लेते है । इन्द्रिय जो भी कार्य करती है तो यह सब विषय मन के द्वारा बुद्धि तक पहुँचते है और बुद्धि उनका निर्णयात्मक उत्तर देती है ।
2-विवेक बुद्धि;-
विवेक का शाब्दिक अर्थ तो भेद करना ही है; अंतर करना।विवेक का अर्थ होता है ये देखना कि कौन सी चीज़ है जो मन के आयाम की है, और कौन सी चीज़ है जो मनातीत है| इनमें अंतर कर पाए तो विवेक है| जगतगुरु आदिशंकर,के अनुसार ''नित्य और अनित्य में भेद करना विवेक है ''।'नित्य' माने वो जो है भी, होगा भी, जिसका समय से कोई लेना ही देना नहीं है, जो समय के पार है| और दूसरी चीज़ें, वस्तुएं, व्यक्ति, विचार होते हैं, जो समय में आते हैं और चले जाते हैं, उनको 'अनित्य' कहते हैं| 'नित्य' वो जिसका समय से कोई लेना देना नहीं है, जो कालातीत सत्य है, वो नित्य है| और वो सब कुछ जो समय की धार में है, अभी है, अभी नहीं होगा, यानि कि मानसिक है; वो सब अनित्य है|
3- मेधा बुद्धि;-
02 FACTS;-
1-मेधावी बुद्धि उसको कहते है जिसके आने के पश्चात मानव के जन्म जन्मान्तरों के संस्कार जाग्रत हो जाते है । मेधावी बुद्धि का सम्बन्ध अंतरिक्ष से होता है । जो वाणी अंतरिक्ष में रमण करती है , मेधावी बुद्धि प्राप्त होने पर उसको जान लिया जाता है । मेधावी बुद्धि अंतरिक्ष में संसार के ज्ञान विज्ञान को देखा करती है कि यह संसार का विज्ञान और कौन कौन से वाक्य अंतरिक्ष में रमण कर रहे है । मेधावी बुद्धि उस विवेक का नाम है जब मानव संसार से विवेकी होकर परमात्मा के रचाये हुए तत्वों पर विवेकी होकर जाता है ।
2-इस मेधावी बुद्धि का क्षेत्र है , पृथ्वी के गर्भ में नाना प्रकार कि धाराए तथा खनिज , समुद्रो की तरंगो में रमण करने वाली धातुए तथा प्राणी, वायुमंडल में रमण करने वाले, रजोगुणी, तमोगुणी तथा सतोगुणी परमाणु , इन परमाणुओ तथा वाणी का मंथन करना इसका क्षेत्र है । मानव मेधावी बुद्धि का विवेकी बनकर परमात्मा के रचाये हुए विज्ञान को जानता हुआ यह आत्मा ऋतम्भरा बुद्धि के द्वार पर चला जाता है ।
4-ऋतम्भरा बुद्धि;-
03 FACTS;-
1-ऋतम्भरा बुद्धि उसको कहते है जब मानव योगी और जिज्ञासु बनने के लिए परमात्मा की गोद में जाने के लिए लालयित होता है तो वही मेधावी बुद्धि , ऋतम्भरा बुद्धि बन जाती है । पांचो प्राण ऋतम्भरा बुद्धि के अधीन हो जाते है । योगी जब इन पांचो प्राण को अपने अधीन करके उनसे मिलान कर लेता है तो आत्मा इन प्राणो पर सवार हो जाता है और सर्वप्रथम मूलाधार में रमण करता है ।
2- मूलाधार में लगभग 4 ग्रन्थियां,स्वाधिष्ठान में लगभग 6 ग्रन्थियां,लगी है। आत्मा के यहाँ पहुचने पर ये ग्रन्थियां स्पष्ट हो जाती है , इस आत्मा का प्राणो के सहित आगे को उत्थान हो जाता है ।आगे चलकर यह आत्मा नाभि चक्र में आता है ,जिसमे 10 ग्रथियां
होती है। इसके आगे यह आत्मा गंगा , यमुना, सरस्वती में स्नान करता हुआ ह्रदय चक्र में पहुचता है । इसको अविनाश चक्र भी कहते है ।
3-आगे यह आत्मा कंठ चक्र में जाता है जिसे उदान चक्र या ब्राह्यी चक्र भी कहते है ।
इसके आगे यह आत्मा घ्राण चक्र में जाता है , आत्मा के यहाँ पहुचने पर ये भी स्पष्ट हो
जाती है । आगे वह स्थान आता है जहाँ इड़ा, पिंगला , सुषुम्ना नाम की नाड़ियों , जिन्हे गंगा, यमुना, सरस्वती भी कहते है, का मिलन होता है , इसे त्रिवेणी या आज्ञाचक्र भी कहते है ।आत्मा प्राणो सहित त्रिवेणी में स्नान करता हुआ ब्रह्मरंध्र में पहुँचता है , उस स्थान पर सूर्य का प्रकाश भी फीका पड़ जाता है ।इतने प्रबल प्रकाश से आगे चलकर आत्मा रीढ़ में जाता है जहाँ कुंडली जाग्रत हो जाती है । इस कुंडली के जाग्रत होने का नाम ही परमात्मा से मिलन होना है ।
5-प्रज्ञा बुद्धि;-
05 FACTS;-
1-प्रज्ञा अंग्रेजी भाषा के शब्द wisdom के समतुल्य होती है और बुद्धि, intelligence के समतुल्य। अधिकांश लोग यह समझ ही नहीं पाते कि कहां बुद्धि का दायरा खत्म होता है और कहां से प्रज्ञा का आयाम शुरू होता है।बुद्धि हमें प्राप्त एक उपहार है अगर ये हमारे पास है तो हम बुद्धिमान हैं परन्तु यदि हम जानते हैं की इसका उपयोग किस दिशा में कितना करना और कैसे करना है तो हम प्रज्ञावान हैं |
2-योगसूत्र के अनुसार ज्ञान की पराकाष्टा वैराग्य है..जबकि प्रज्ञा – तीन तरह से प्राप्त हो सकती है..
2-1-आगम (श्रुति ) :वैदिक साहित्य के पठन अर्थात पढने से
2-2-ज्ञान से अनुमान : मनन अर्थात सोचने से
2-3-निर्विचार समाधि के उपरान्त
3-योगसूत्र के अनुसार , अंतिम प्रकार की प्रज्ञा – सर्वश्रेष्ठ होती है क्योंकि यह आत्म साक्षात्कार से प्राप्त होती है । स्मृति परिशुद्ध होने पर स्वरुप शून्य होकर अर्थमात्र दिखाई देने वाली, सब समाप्त करनेवाली अवस्था अचानक मिल जाती है – जिसका सतत प्रवाह – अध्यात्म रुपी प्रसाद है- ''प्रज्ञा'' । प्रज्ञा बुद्धि उस ऋषि को प्राप्त होती है जो मुक्ति को प्राप्त कर लेता है ।
4-हमारे कंठ के निचले भाग में ह्रदय चक्र होता है , उस चक्र में मेधावी बुद्धि का संक्षेप रमण करता है । उसमे ब्रह्माण्ड के सारे के सारे ज्ञान और विज्ञानं रमण करने लगता है । जैसे अंतरिक्ष में हमारे वाक्य रमण करते है , उस विद्या से जो वाक्य हम उच्चारण करना चाहते है , वही वाक्य अंतरिक्ष से हमारे समीप आने लगते है । उसी वाक्य के आरम्भ होने को मेधावी बुद्धि का ” ऋद्धि भूषणम ” कहा जाता है । इस भूषण को धारण करने से मानव का जीवन विकासदायक बनता है । वह नाना प्रकार के छल , दम्भ, आडम्बर आदि से दूर हो जाता है । और वह योगी त्रिकालदर्शी यानि भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनो कालों का ज्ञाता हो जाता है।
5-प्रज्ञावान का अर्थ है जो आत्मज्ञानी होकर ब्रह्मँ में लीन होकर मात्र ब्रह्मँकार्य समझकर ही सारा कार्य करता है,इसलिए उसे दिव्यदृष्टी के साथ परब्रह्मँ से वो परमज्ञान स्वत: ही प्राप्त होने लगता है जिसके लिए लाखों रिषी-मुनी युगों युगों तक तपस्या करते रहते हैं।
और जब एक बार कोई भी जीवात्माँ, आत्माँस्वरुप परमात्माँ में स्थिर हो जाता है,तो स्वत: ही आत्माँ में स्थिर होकर परमात्माँ का परम-ज्ञान प्राप्त कर लेता है।उसे फिर और कुछ
जानने को शेष नहीं रहता,वो महा-ज्ञानी महाँत्माँ हो जाता है,एैसे ही योगी को प्रज्ञावान सन्त कहते हैं।
क्या है "वृत्ति" शब्द का सामान्य अर्थ?-
"वृत्ति" शब्द का सामान्य अर्थ होता है-व्य''वहार ''।सामान्य रूप से किया गया व्यवहार ही 'वृत्ति' कहलाता है।वृत्ति, योग से सम्बन्धित एक शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ 'भँवर' है।
चित्त की वृत्तियां कौन कौन सी हैं?-
"मन की पांच तरह की वृत्तियाँ हैं- प्रमाण, विपर्याय, विकल्प, निद्रा एवं स्मृति। मन इन्हीं पांचों वृत्तियों में से किसी न किसी में उलझा रहता है।" (1)प्रमाण, अर्थात् प्रत्यक्ष अनुमान और आगम (2) विपर्यय, अर्थात् मिथ्याज्ञान (3) विकल्प, अर्थात् वस्तु शून्य कल्पित नाम (4) निद्रा (सोना) (5) स्मृति, अर्थात् पूर्व श्रुत और दृष्ट पदार्थ का स्मरण चित्त में आना।
1-पहली वृत्ति प्रमाण ;-
04 FACTS;-
1-मन प्रमाण खोजता रहता है, मन को निरंतर स्पष्ट ठोस प्रमाण की चाह रहती है, यह मन की गतिविधि का एक तरीका है।
प्रमाण तीन तरह के हैं-
1-1-प्रत्यक्ष
1-2-अनुमान
1-3-आगम
2-प्रत्यक्ष अर्थात जो स्पष्ट है, आपके अनुभव में है।जो भी अभी आप देख रहे हैं, वही सब प्रमाण है...किसी से आपको पूछने की भी जरुरत नहीं, यह प्रत्यक्ष है।
दूसरा है अनुमान, अर्थात जो उतना स्पष्ट नहीं है, आप उसे मान लेते है, विश्वास कर लेते है।
फिर है आगम, अर्थात शास्त्र, क्योंकि कहीं कुछ लिखा है इसीलिए आप उसे मान लेते है। लोग कहते हैं, देखो लिखा हुआ है और लोग उसका अनुसरण भी करते हैं। कई बार ऐसे भी मान लेते हैं क्योंकि कोई वैसा कहते हैं या कई सारे लोग वैसा करते हैं या कहते हैं- मन इसी तरह चलता है।
3-प्रमाण से मुक्ति ...आप निरंतर कुछ न कुछ प्रमाण ढूंढ़ते रहते हैं, यह मन की गतिविधि है, योग है इससे मुक्त हो जाना, योग है मन को इस वृत्ति से पुनः स्वयं में वापिस ले आना।
सत्य प्रमाण से परे है ..सत्य को प्रमाण से नहीं समझ सकते, जो भी प्रमाणित किया जा सकता है वो अप्रमाणित भी किया जा सकता है। सत्य प्रमाण और अप्रमाण के परे है ।ईश्वर प्रमाण के परे है- तुम न ईश्वर के होने का प्रमाण दे सकते हो न उनके न होने का। प्रमाण तर्क से जुड़ा हुआ है और तर्क का दायरा बहुत सीमित है। ऐसे ही प्रेम है,आत्मज्ञान है, … न तुम उसे प्रमाणित कर सकते हो न ही अप्रमाणित।
4-किसी के क्रियाकलाप उसके प्रेम का प्रमाण नहीं है, तुम्हें सब कुछ का प्रमाण चाहिए, कोई तुम्हें प्रेम करता है की नहीं, तुम्हें सबसे स्वीकृति चाहिए। प्रमाण मन की प्रमुख वृत्ति है, संसार में प्रमाण ही मुख्य है, जिसमे तुम फंस सकते हो।आत्मा इस सब के परे है।
आत्मा का संसार प्रमाण से परे है।
2-विपर्यय;-
02 FACTS;-
1-प्रमाण में मन तर्क वितर्क और जानकारियों में लगा रहता है अथवा मन मिथ्या ज्ञान
अथवा गलत समझ में उलझ जाता है।इस क्षण यदि आप सजगतापूर्वक परखें तो पाएंगें कि , वह ऐसा कुछ मान बैठता है जो वास्तविक नहीं होता है। अधिकतर समय हम अपने विचार, भावनाएं और राय दूसरों पर थोपते रहते हैं, हमें ऐसा लगता है कि वह इस तरह के हैं, मन की इसी वृत्ति को विपर्यय कहते हैं।
2-एकदम से कभी लोगों को लगता है कि उन्हें कोई प्रेम नहीं करता, कई बार बच्चो (बच्चों) को ऐसा लगता है कि उनके माता - पिता उनसे प्रेम नहीं करते, ऐसे में माता पिता परेशान
होते है की कैसे वो अपने प्रेम को प्रमाणित करें।विपर्यय आ जाए तो प्रमाण का स्थान नहीं रहता, तर्क विफल हो जाता है। मन की दूसरी वृत्ति विपर्यय में किसी भी तरह का कोई तर्क काम नहीं करता, केवल गलत समझ बनी रहती है। मन के भीतर ऐसे में तर्क उठता भी है तो बार बार पीछे चला जाता है और मिथ्या ज्ञान बना रहता है।
3-विकल्प;-
03 FACTS;-
1-मन की तीसरी वृत्ति विकल्प है, यह एक तरह का मतिभ्रम है, जैसे कोई कुछ कल्पना कर ले कि दुनिया समाप्त होने वाली है। वास्तविकता में ऐसा कुछ भी होता नहीं है बस कुछ मन के भीतर शब्द चलते हैं। ऐसे सभी व्यर्थ डर, कपोल कल्पना और निराधार शब्द जिनका कोई अर्थ नहीं है, ऐसे विचार और ऐसी वृत्ति को विकल्प कहते हैं।
2-मन या तो प्रमाण ढूंढ़ता है या मिथ्या ज्ञान में रहता है नहीं तो कपोल कल्पना करने लगता है। ऐसा नहीं है की सिर्फ बच्चे ही कल्पना करते हैं, व्यस्क भी अपनी ही कुछ कल्पना में लगे रहते हैं। तुम बैठ के 40-50 की उम्र में कल्पना करते हो, ''ओह, यदि में सोलह बरस का होता" ऐसे ही "यदि मैं कहीं जाऊंगा तो मुझे हीरे जवाहरात से भरा एक खजाना मिल जायेगा और फिर मेरा उड़ने के लिए खुद का एक हेलीकाप्टर होगा" इत्यादि।
3-विकल्प भी दो तरह के होते हैं, एक तो सुहाने सपने की तरह अथवा व्यर्थ निराधार से डर। भय भी एक विकल्प है, तुम्हें लग सकता है कि यदि मैं गाडी चलाऊंगा तो मेरी दुर्घटना हो सकती है, मैं अपंग हो सकता हूँ, यह शब्द मात्र हैं, जिनका कोई मोल नहीं, मन के निराधार भय अथवा कपोल कल्पनाएं विकल्प हैं।
4-निद्रा;-
मन यदि इन तीन वृत्तियों में से किसी एक में भी नहीं होता है तब मन चौथी अवस्था निद्रा, नींद में चला जाता है।
5-स्मृति;-
02 FACTS;-
1-मन की पांचवी वृत्ति स्मृति है, अर्थात पुराने अनुभवों को याद करना, जो बीत चुके हैं।
अब देखो, जब तुम जागृत हो तो क्या तुम चारों वृत्तियों में से किसी एक में लगे हो, तो वह ध्यान नहीं है, योग नहीं है। क्या तुम कुछ प्रमाण ढूंढ़ रहे हो? क्या तुम्हारे भीतर कोई वाद विवाद है? क्या तुम किसी मिथ्या ज्ञान में फंसे हो, किसी धारणा में कि सब कुछ ऐसा है?
तुम यह जान ही नहीं सकते कि सब कुछ कैसा है, सारा संसार तरल है, यहाँ कुछ भी ठोस नहीं है, कोई भी ठोस नहीं है, किसी का भी मन ठोस नहीं है, कोई विचार ठोस नहीं है, कुछ भी ठोस नहीं है।
2-तुम थोड़ा और आगे बढ़ोगे तो तुम्हें पता लगेगा की सब ऐसे ही हैं, कुछ भी,कभी भी कैसे भी बदल सकता है, पूरा संसार सभी तरह की संभावनाओं से भरा है, पर मन वस्तुओं को, व्यक्तियों को, परिस्थितियों को निश्चित कर देना चाहता है, निर्धारण कर देना चाहता है, यह ऐसे है... प्रमाण से, मिथ्या ज्ञान से, विकल्प से, कल्पना से अथवा स्मृति से।
चित्त का निरोध क्यों?-
04 FACTS;-
1-मन की वृत्तियों का जब तक चित्त एकाग्र रहता है, तब तक चित्त की वृत्तियां अपने काम में लगी रहती हैं और आत्मा की बहिर्मुखी वृत्ति में ही काम करती रहती हैं। चित्त की एकाग्रता से आत्मा की बहिर्मुखी वृत्ति जागृत होती है, और जब बहिर्मुखी वृत्ति को भी बन्द कर दिया जाता है, तब अन्तर्मुखी वृत्ति स्वयमेव जागृत होकर अपना काम करने लगती है।
2-चित्त वृत्तियों के निरोध का दूसरा तात्पर्य यही है कि वैयक्तिक कर्त्तव्यों एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों के लिए उन प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाया जाय जो वनमानुष काल से लेकर अब तक किसी न किसी रूप में अचेतन क्षेत्र में दबी पड़ी है। नीति ,धर्म और अनुशासन के अनुयायियों को तोड़कर जो दाँव लगते ही उसी पुराने अभ्यास को कार्यान्वित करने लगती है जिसे मानवी स्तर विकास को देखते हुए हेय ठहराया गया है और दण्डनीय अपराधों की श्रेणी में सम्मिलित किया गया है।
3-इस रोकथाम के लिए आवश्यक है कि ऐसा चिन्तन क्रम अपनाया जाय; ऐसी मान्यता, भावना एवं आकाँक्षा का घेरा बनाया जाय; जिससे पशु प्रवृत्तियों को उच्छृंखलता प्रकट करने से पूर्व ही जकड़ा और मर्यादा में रहने के लिए बाधित किया जा सके।यही है चित्त वृत्तियों के
निरोध का योगानुशासन जिसे अपनाने पर मानसिक बिखराव रुकता और अनौचित्य अपनाने पर अंकुश लगता है। यह प्रयास देखने में निषेधात्मक लगता है। पर वह उतना सीमित है नहीं।
4-बिखराव और अपव्यय की रोकथाम करने पर सहज ही सामर्थ्य का संचय होता है। इस संचय को उपयोगी दिशा में नियोजित करना योग का दूसरा प्रयोजन है।आत्मिक प्रगति का यही एकमात्र सुनिश्चित मार्ग है।चित्त को एकाग्रता में कैसे लाया जाये ..इसके लिये
योगदर्शन में आठ अंगों का विधान किया गया है(1) यम (2) नियम (3) आसन (4) प्राणायाम (5) प्रत्याहार (6) धारणा (7) ध्यान (8) समाधि, ये आठ अंग चित्त की एकाग्रता के साधन हैं।
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लेश्या का क्या अर्थ होता है?-
02 FACTS;-
1-लेश्या महावीर की विचार-पद्धति का पारिभाषिक शब्द है। उसका अर्थ होता है: मन, वचन, काया की काषाययुक्त वृत्तियां।लेश्या का अर्थ... जो बाँधती है। ऐसा समझें कि सागर शांत है। कोई लहर नहीं है,फिर हवा का एक झोंका आजा है, लहरें उठनी शुरू हो जाती है, तरंगें उठती है। सागर डांवांडोल हो जाता है, छाती अस्त वस्त हो जाती है। सब अराजक हो जाता है। उन लहरों का नाम लेश्या है।
2-तो लेश्या का अर्थ हुआ चित की वृतियां। जिसको पतंजलि ने चित-वृति कहा है। उसको महावीर ने‘’लेश्या’’ कहा है । चित की वृतियां चित के विचार, वासनायें, कामनायें लोभ, अपेक्षायें, ये सब लेश्यायें है।मनुष्य की आत्मा बहुत-से पर्दों में छिपी है। ये छह लेश्याएं छह पर्दे हैं।महावीर कहते हैं, जैसे-जैसे पर्दे उठते हैं, वैसे-वैसे तुम्हें दूसरे में आत्मा दिखाई पड़नी शुरू होती है। ऐसी घड़ी आती है, जब पत्थर में भी आत्मा दिखाई पड़नी शुरू होती है।
"लेश्या ''के छह प्रकार;-
08 FACTS;-
1-लेश्याएं छह प्रकार की हैं: कृष्णलेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, तेजो लेश्या (पीत लेश्या), पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या।'"कृष्ण, नील और कापोत, ये तीनों अधर्म या अशुभ लेश्याएं हैं। इनके कारण जीव विभिन्न दुर्गतियों में उत्पन्न होता है।'"पीत (तेज), पद्म और शुक्ल; ये तीनों धर्म या शुभ लेश्याएं हैं। इनके कारण जीव विविध सुगतियों में उत्पन्न होता है।ध्यान रहे, शुभ्र लेश्या के पैदा हो जाने पर भी जन्म होगा। अच्छी गति होगी, सदगति होगी, साधु का जीवन होगा। लेकिन जन्म होगा क्योंकि लेश्या अभी भी बाकी है, थोड़ा-सा बंधन शुभ्र का बाकी है।
2-इसलिए पूरा विज्ञान विकसित हुआ था प्राचीन समय में–मरते हुए आदमी के पास ध्यान रखा जाता था कि उसकी कौन सी लेश्या मरते क्षण में है, क्योंकि जो उसकी लेश्या मरते क्षण में है, उससे अंदाज लगाया जा सकता है कि वह कहां जायेगा, उसकी कैसी गति होगी।सभी लोगों के मरने पर लोग रोते नहीं थे, लेश्या देखकर..अगर कृष्ण-लेश्या हो तो ही रोने का कोई अर्थ है। अगर कोई अधर्म लेश्या हो तो रोने का अर्थ है, क्योंकि यह व्यक्ति फिर दुर्गति में जा रहा है, दुख में जा रहा है, नरक में भटकने जा रहा है।
3-तिब्बत में बारदो पूरा विज्ञान है, और पूरी कोशिश की जाती थी कि मरते क्षण में भी इसकी लेश्या बदल जाये, तो भी काम का है। मरते क्षण में भी इसकी लेश्या काली से नील हो जाए, तो भी इसके जीवन का तल बदल जायेगा। क्योंकि जिस क्षण में हम मरते हैं–जिस ढंग से, जिस अवस्था में–उसी में हम जन्मते हैं। ठीक वैसे, जैसे रात आप सोते हैं, तो जो विचार आपका अंतिम होगा, सुबह वही विचार आपका प्रथम होगा।इसे आप प्रयोग करके देखें। बिलकुल आखिरी विचार रात सोते समय जो आपके चित्त में होगा, जिसके बाद आप खो जायेंगे अंधेरे में नींद के–सुबह जैसे ही जागेंगे, वही विचार पहला होगा। क्योंकि रातभर सब स्थगित रहा, तो जो रात अंतिम था वही पहले सुबह प्रथम बनेगा।
4-बीच में तो गैप है, अंधकार है, सब खाली है। इसलिए हमने मृत्यु को महानिद्रा कहा है। इधर मृत्यु के आखिरी क्षण में जो लेश्या होगी, जन्म के समय में वही पहली लेश्या होगी।इसलिए मरते समय जाना जा सकता है कि व्यक्ति कहां जा रहा है। मरते समय जाना जा सकता है कि व्यक्ति जायेगा कहीं या नहीं जायेगा और महाशून्य के साथ एक हो जायेगा। जन्म के समय भी जाना जा सकता है। ज्योतिष बहुत भटक गया, और कचरे में भटक गया। अन्यथा जन्म के समय सारी खोज इस बात की थी कि व्यक्ति किस लेश्या को लेकर जन्म रहा है। क्योंकि उसके पूरे जीवन का ढंग और ढांचा वही होगा।
5-तेजो लेश्या से क्रांतिकारी परिवर्तन शुरू होता है। पहली तीन लेश्याएं अधर्म की, बाद की तीन लेश्याएं धर्म की--तेजो, पद्म और शुक्ल। तेजो लेश्या के साथ ही तुम्हारे भीतर पहली झलकें आनी शुरू होती हैं।ये रंगों के आधार पर पर्दों के नाम रखे महावीर ने। यह जीवन का इंद्रधनुष है। है तो रंग एक ही। वैज्ञानिक उसे कहते हैं श्वेत। बाकी सब रंग श्वेत रंग के ही खंड हैं।इसलिए प्रिज्म के कांच के टुकड़े से जब सूरज की किरण गुजरती है तो सात रंगों में बंट जाती है।
6-उदाहरण के लिए,एक चाक पर सात रंग लगा देते हैं। चाक को जोर से घुमाते हैं तो सातों रंग खो जाते हैं, सफेद रंग रह जाता है। सफेद रंग सातों रंगों का जोड़ है। या सातों रंग सफेद रंग से ही जन्मते हैं।इंद्रधनुष पैदा होता है हवा में लटके हुए जलकणों के कारण। जलकण लटका है हवा में, सूरज की किरण निकलती है, टूट जाती है सात हिस्सों में। सूरज की किरण सफेद है।लेकिन महावीर कहते हैं, सफेद के भी पार जाना है। अधर्म के तो पार जाना ही है, धर्म के भी पार जाना है। अधर्म तो बांध ही लेता है, धर्म भी बांध लेता है। धर्म का उपयोग करो अधर्म से मुक्त होने के लिए। कांटे को कांटे से निकाल लो, फिर दोनों कांटों को फेंक देना। फिर दूसरे कांटे को भी सम्हालकर रखने की कोई जरूरत नहीं है।
7-बीमारी है औषधि ले लो। बीमारी समाप्त हो, औषधि को भी कचरे-घर में डाल आना। फिर बीमारी के बाद औषधि को छाती से लगाए मत घूमना। वह केवल इलाज थी। उसका उपयोग संक्रमण के लिए था।राग शब्द का अर्थ रंग होता है;विराग शब्द का अर्थ,रंग के बाहर हो जाना होता है।वीतराग शब्द का अर्थ होता है, रंग का अतिक्रमण कर जाना ।जैसे-जैसे शुभ लेश्याओं का जन्म होता है, जैसे-जैसे आदमी श्वेत की तरफ बढ़ता है, वैसे-वैसे दृष्टि की गहराई बढ़ती है। वैसे-वैसे दूसरों में भी परमात्मा की झलक मिलती है।श्वेत लेश्या की आखिरी घड़ी में जब पूर्णिमा का प्रकाश जैसा भीतर हो जाता है तो पत्थर में भी परमात्मा दिखाई पड़ता है। इसी अनुभव से महावीर की अहिंसा का जन्म हुआ।
8-छह पथिकों के विचार, वाणी तथा कर्म, क्रमशः छहों लेश्याओं के उदाहरण हैं...
"छह पथिक थे। जंगल के बीच जाने पर वे भटक गए। भूख सताने लगी। कुछ देर बाद उन्हें फलों से लदा एक वृक्ष दिखाई दिया। उनकी फल खाने की इच्छा हुई। वे मन ही मन विचार करने लगे। एक ने सोचा कि पेड़ को जड़मूल से काटकर उसके फल खाए जाएं। दूसरे ने सोचा, केवल स्कंध ही काटा जाए। तीसरे ने विचार किया कि शाखा को तोड़ना ठीक रहेगा। चौथा सोचने लगा कि उपशाखा ही तोड़ी जाए। पांचवां चाहता था कि फल ही तोड़े जाएं। छठे ने सोचा कि वृक्ष से टपककर फल जब नीचे गिरें तभी चुनकर खाए जाएं।'
1-कृष्ण लेश्या का क्या अर्थ होता है
28 FACTS;-
1-पहला पर्दा है: कृष्ण लेश्या। बड़ा अंधकार, काला, अमावस की रात जैसा। जिस पर कृष्ण लेश्या पड़ी है, उसे अपनी आत्मा का कोई पता नहीं चलता। इतने अंधेरे में दबे हैं प्राण, कि प्राण हो भी सकते हैं, इसका भी भरोसा नहीं आता। स्वयं ही पता नहीं चलती आत्मा तो दूसरे को तो पता कैसे चलेगी?
2-हमारा युग कृष्ण लेश्या का युग है। लोग अमावस में जी रहे हैं। पूर्णिमा खो गई है। पूर्णिमा तो दूर, दूज का चांद भी कहीं दिखाई नहीं पड़ता। इसीलिए आत्मा पर भरोसा नहीं आता।भरोसा आए भी कैसे?पर्दा इतना
काला है कि भीतर प्रकाश का स्रोत छिपा है, इसकी प्रतीति कैसे हो? जब तुम दूसरे को भी देखते हो, तब भी देह ही दिखाई पड़ती है। स्वयं को देखते हो, तब भी देह ही दिखाई पड़ती है।
3-दर्पण के सामने खड़े होकर तुम अपने को देखते हो, वह तुम्हारा होना नहीं है; तुम्हारी देह की छाया है। न तुम्हें अपना पता चलता है, न दूसरों की आत्मा का कोई बोध होता है।कृष्ण लेश्या उठे, तो ही आत्मदर्शन हो
सकते हैं।कृष्ण लेश्या, फिर नील लेश्या, फिर कापोत लेश्या...क्रमशः अंधेरा कम होता जाता है।
4-कृष्ण के बाद नील। अंधेरा अब भी है, लेकिन नीलिमा जैसा है। फिर कापोत--कबूतर जैसा है। आकाश के रंग जैसा है।जैसे-जैसे पर्दे उठते हैं,
वैसे-वैसे भीतर की झलक स्पष्ट होने लगती है। लेकिन एक बात खयाल रखना। महावीर कहते हैं, शुभ्र लेश्या भी पर्दा है। वह अंतिम लेश्या है। जब तक रंग हैं, तब तक पर्दा है। जब तक रंग हैं, तब तक राग है।
अब तुम पर कोई रंग न रहा। क्योंकि जब तक रंग है, तब तक स्वभाव दबा रहेगा। तब तुम्हारे ऊपर कुछ और पड़ा है। चाहे सफेद ही क्यों न हो, शुभ्र ही क्यों न हो।
5-हम तो काली अंधेरी रात में दबे हैं। महावीर पूर्णिमा को भी कहते हैं, कि वह भी पूर्ण अनुभूति नहीं है। अमावस तो छोड़नी ही है, पूर्णिमा भी छोड़ देनी है। कृष्ण लेश्या तो जाए ही, शुक्ल लेश्या भी जाए। कृष्ण पक्ष तो विदा हो ही, शुक्ल पक्ष भी विदा हो। तुम पर कोई पर्दा ही न रह जाए। तुम
बेपर्दा हो जाओ।ऐसी ही आत्मा भी भीतर बेपर्दा हो, तभी उसका अहसास शुरू होता है। और जब अपनी आत्मा का पता चले तो औरों की आत्मा का पता चलता है। जितना गहरा हम अपने भीतर देखते हैं, उतना ही गहरा हम दूसरे के भीतर देखते हैं।
6-हमें तो अभी मनुष्यों में भी आत्मा है, इसका भरोसा नहीं होता। ज्यादा से ज्यादा अनुमान...होनी चाहिए। है, ऐसी कोई प्रामाणिकता नहीं मालूम होती। अंदाज करते हैं--होगी। तर्कयुक्त मालूम पड़ती है कि होनी चाहिए। लेकिन वस्तुतः है, ऐसा कोई अस्तित्वगत हमारे पास प्रमाण नहीं है। अपने भीतर ही प्रमाण नहीं मिलता, दूसरे के भीतर कैसे मिले?
7-क्या है कृष्ण लेश्या....
महावीर ने बहुत कम बोध कथाओं का उपयोग किया है। उन बहुत कम बोध कथाओं में एक यह है:
"छह पथिक थे। जंगल के बीच जाने पर भटक गए। भूख लगी। कुछ देर बाद उन्हें फलों से लदा एक वृक्ष दिखाई दिया। फल खाने की इच्छा हुई। मन ही मन विचार करने लगे। पहले ने सोचा, पेड़ को जड़मूल से काटकर इसके फल खाए जाएं।'महावीर कहते हैं, यह कृष्ण लेश्या में दबा हुआ आदमी है।
8-भूख सदा के लिए तो मिटती नहीं। लेकिन यह पूरे वृक्ष को मिटा देने को आतुर है। इसे वृक्ष की भी आत्मा है, वृक्ष को भी भूख लगती है, प्यास लगती है, वृक्ष को भी सुख और दुख होता है, इसकी कोई प्रतीति नहीं है।
यह आदमी अंधा है, जिसे वृक्ष में कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है। सिर्फ अपनी भूख को तृप्त करने का उपाय दिखाई पड़ रहा है। और अपनी भूख की तृप्ति के लिए, जो फिर लौट आनेवाली है, कोई शाश्वत तृप्ति हो जानेवाली नहीं है, वह इस वृक्ष को जड़मूल से काट देने के लिए उत्सुक हो गया।ऐसे आदमी तुम्हें सब तरफ मिलेंगे। ऐसा आदमी तुम्हें स्वयं के भीतर भी मिलेगा।
9-कितनी बार हीं तुमने अपने छोटे-से सुख के लिए दूसरे को विनष्ट तक कर देने की योजना नहीं बना ली। कितनी बार, जो मिलनेवाला था वह ना-कुछ था, लेकिन तुमने दूसरे की हत्या कर दी; कम से कम हत्या का विचार किया। जमीन के लिए, दो इंच जमीन के लिए; धन के लिए, पद के लिए, तुमने प्रतिस्पर्धा की। दूसरे की गर्दन को काट देना चाहा। इसकी बिलकुल भी चिंता न की, कि जो मिलेगा वह ना-कुछ है। और जो तुम विनष्ट कर रहे हो, उसे बनाना तुम्हारे हाथ में नहीं।
10-तुम एक जीवन की समाप्ति कर रहे हो। एक परम घटना के विनाश का कारण बन रहे हो। एक दीया बुझा रहे हो। एक तुम जैसा ही प्राणवंत, तुम जैसा ही परमात्मा को सम्हाले हुए कोई चल रहा है, तुम उस अवसर को विनष्ट कर रहे हो। और तुम्हें कुछ भी मिलनेवाला नहीं। तुम्हें जो मिलेगा, वह थोड़ी-सी क्षणभंगुर की तृप्ति है। घड़ीभर बाद फिर भूख लग आएगी।
11-कृष्ण लेश्या से भरा आदमी महत हिंसा से भरा होता है। जब भी तुम्हारे मन में अपने सुख के लिए दूसरे को दुख देने तक की तैयारी हो जाए तो तत्क्षण समझ लेना, कृष्ण लेश्या में दबे हो। पर्दा पड़ा। इस पर्दे को अगर तुम बार-बार भोजन दिए जाओगे तो यह मजबूत होता चला जाएगा।
जागना..जब ऐसा मौका आए कि अपने छोटे सुख के लिए दूसरे को दुख देने का खयाल उठे, तब सम्हलना।
12-तब अपने हाथ को खींच लेना। क्योंकि असली सवाल यह नहीं है कि तुमने दूसरे को दुख दिया या नहीं दिया; असली सवाल यह है कि दूसरे को दुख देने में तुमने अपनी कृष्ण लेश्या पर पानी सींचा। उसकी जड़ों को मजबूत किया। उसी में तुम्हारा आत्मतत्व खो गया है। उसी में खो गया जीवन का अभिप्राय। उसी से पता नहीं चलता कि जीवन में कुछ अर्थ भी है? पता नहीं चलता कौन हूं मैं? कहां जा रहा हूं? क्यों जा रहा हूं?
13-तुम अंधे हो क्योंकि कृष्ण लेश्या की तुम अब तक सम्हाल करते रहे। उसे खाद दिया, पानी दिया। उस पर्दे में कभी छेद भी हुआ तो जल्दी से तुमने रफू किया, सुधार लिया। तुम जब-जब दूसरे पर नाराज होते हो, तब त्ब तुम खयाल करना, किसी अर्थों में वह तुम्हारे कृष्ण लेश्या के पर्दे पर चोट कर रहा है। तुम्हारे अहंकार को चोट लगती है, तुम नाराज हो जाते
हो।बहुत बार तुम्हारे मन में भी--चाहे तुमने गोली न मारी हो ..लेकिन बहुत बार गोली मार देने का मन तो हो ही गया है। बहुत छोटी बातों पर--कि कोई तुम्हारी सीट पर बैठ गया है--गोली मार देने का मन तो हो ही गया है।
14-महावीर कहते हैं, मन भी हो गया तो बात हो गई।इस कहानी में
वे यह नहीं कह रहे हैं कि पहले आदमी ने वृक्ष तोड़ा; सिर्फ सोचा।
"...भूख लगी, फल खाने की इच्छा हुई, वे मन ही मन विचार करने लगे।''
ऐसा कुछ किया नहीं है अभी; ऐसी भावत्तरंग आयी, ऐसा विचार आया। लेकिन महावीर कहते हैं, विचार आ गया तो बात हो गई। जहां तक तुम्हारा संबंध है, हो गई। जहां तक वृक्ष का संबंध है, अभी नहीं हुई; लेकिन तुम्हारा संबंध है, वहां तक तो हो गई।
15-जब तुम ने सोचा किसी को मार डालें, ऐसी मन में एक कल्पना भी उठ गई तो बात हो गई। दूसरा अभी मारा नहीं गया। अपराध अभी नहीं
हुआ, पाप हो गया।पाप और अपराध में यही फर्क है। पाप का अर्थ है, तुम्हें जो करना था, वह भीतर तुमने कर लिया। अभी दूसरे तक उसके परिणाम नहीं पहुंचे। परिणाम पहुंच जाएं तो अपराध भी हो जाएगा। अदालत अपराध को पकड़ती है, पाप को नहीं पकड़ सकती। पाप तो मन के भीतर है। अपराध तो तब है, जब मन का विष बाहर पहुंच गया और उसके परिणाम शुरू हो गए। और बाह्य जगत में तरंगें उठने लगीं। तब पुलिस पकड़ सकती है। तब अदालत पकड़ सकती है।
16-कानून तुम्हें तब पकड़ता है, जब पाप अपराध बन जाता है।
लेकिन महावीर कहते हैं, धर्म के लिए उतनी देर तक रुकना आवश्यक नहीं है। जीवन की परम अदालत में तो हो ही गई बात। तुमने सोचा कि हो गई। नहीं किया, क्योंकि करने में बाधाएं हैं, कठिनाइयां हैं, सीमाएं हैं। करना महंगा सौदा हो सकता है। सोच-विचार करके तुम रुक गए। होशियार आदमी हो, चालाक आदमी हो, मुस्कुराकर गुजर गए, लेकिन भीतर सोच लिया गोली मार दूं। पर जहां तक धर्म का संबंध है, बात हो गई; क्योंकि तुम्हारी कृष्ण लेश्या मजबूत हो गई।
17-कृष्ण लेश्या को मजबूत करना पाप है।कृष्ण लेश्या को क्षीण करना
पुण्य है।शुक्ल लेश्या को मजबूत करना पुण्य है। और शुक्ल लेश्या के भी पार उठ जाना, पाप और पुण्य दोनों के पार चले जाना मुक्ति है, निर्वाण
है।जब तुम्हारे मन में पाप का विचार उठता है, तब तुम दूसरे का नुकसान करना चाहते हो--अपने छोटे-मोटे लाभ के लिए। वह भी पक्का नहीं है कि होगा। लेकिन यह संभव कैसे हो पाता है? दुनिया में इतने युद्ध, इतनी हिंसा, इतनी हत्याएं, इतनी आत्महत्याएं, छोटी-छोटी बात पर कलह, यह संभव कैसे हो पाता है? क्या लोगों को बिलकुल पता नहीं चलता कि वे क्या कर रहे हैं? क्या लोगों को मूल्यों का कोई भी बोध नहीं है?
18-बोध हो ही नहीं सकता इस काले पर्दे के कारण, जो आंख पर पड़ा है। महावीर कहते हैं, तुम अंधे नहीं हो, सिर्फ आंख पर पर्दा है। बुर्का ओढ़े हुए हो--काला बुर्का; कृष्ण लेश्या का।हमारे छोटे-छोटे कृत्य में हमारी लेश्या
प्रगट होती है। तुम उसे छिपा नहीं सकते। और अब तो इसके लिए वैज्ञानिक आधार भी मिल गए हैं।
19-किरलियान फोटोग्राफी के विकास ने बड़ी हैरानी की बात खोज निकाली है कि जो तुम्हारे भीतर चेतना की दशा होती है, ठीक वैसा आभामंडल तुम्हारे मस्तिष्क के आसपास होता है। और किरलियान की खोज महावीर से बड़ी मेल खाती है। जिस व्यक्ति के जीवन में हिंसा के भाव सरलता से उठते हैं, उसके चेहरे के पास एक काला वर्तुल...।
20-संतों के चित्रों में तुमने प्रभामंडल बना देखा है, ऑरा बना देखा है। वह एकदम कवि की कल्पना नहीं है--अब तो नहीं है। किरलियान की खोज के बाद तो वह कवि की कल्पना बड़ा सत्य साबित हुई। किरलियान की खोज ने तो यह सिद्ध किया कि जो कैमरा हजारों साल बाद पकड़ पाया, वह कवि की सूक्ष्म मनीषा ने बहुत पहले पकड़ लिया था। ऋषियों की मनीषा ने बहुत पहले देख लिया था।
21-जब तुम्हारी दृष्टि साफ होने लगती है तो जब तुम्हारे पास कोई आता है, तो तत्क्षण तुम्हें उसके चेहरे के आसपास विशिष्ट रंगों के झलकाव दिखाई पड़ते हैं।अब तो इसके फोटोग्राफ भी लिए जा सकते हैं। क्योंकि किरलियान ने जो सूक्ष्मतम कैमरे विकसित किए हैं, उन्होंने चमत्कार कर दिया। अगर हिंसक व्यक्ति है, लोभी व्यक्ति है, क्रोधी व्यक्ति है, मद-मत्सर, अहंकार से भरा व्यक्ति है तो उसके चेहरे के आसपास एक काला वर्तुल होता है।और ठीक ऐसा ही वर्तुल जब आदमी मरने के करीब होता है, तब भी होता है।
22-जो आदमी मरने के करीब है, किरलियान कहता है, छह महीने पहले अब घोषणा की जा सकती है कि यह आदमी मर जाएगा। क्योंकि छह महीने पहले उसके चेहरे के आसपास मृत्यु घटना शुरू हो जाती है। जो छह महीने बाद उसके हृदय में घटेगी, वह उसके आभामंडल में पहले घट जाती है।
23-इन दोनों का जोड़ खयाल में लेने जैसा है। इसका अर्थ हुआ, जो काला मंडल है हिंसा का, अहंकार का, क्रोध का, मत्सर का, मद का, वही मृत्यु का मंडल भी है। इसका अर्थ हुआ, जो काले मंडल के साथ जी रहा है, वह जी ही नहीं रहा। वह किसी अर्थ में मरा हुआ है। उसके जीवन का उन्मेष पूरा नहीं होगा। उसके जीवन की लहर, तरंग, पूरी नहीं होगी--दबी-दबी, कटी-कटी, टूटी-टूटी। जैसे जीते भी वह मुर्दे की तरह ही ढोता रहा अपनी लाश को। कभी जीया नहीं , कभी उसके जीवन में वसंत नहीं आया। कभी नई कोंपलें नहीं फूटीं। पुराना ही होता रहा। जन्म के बाद बस मरता ही रहा।
24-काला पर्दा पड़ा हो आदमी के चित्त पर तो जीवन संभव भी नहीं है। जीवन की किरण हृदय तक पहुंच पाए, इसके लिए खुले द्वार चाहिए। और जीवन का उल्लास तुम्हें भी उल्लसित कर सके और जीवन का नृत्य तुम्हें भी छू पाए इसके लिए बीच में कोई भी पर्दा नहीं चाहिए। बेपर्दा होना है।
तुम जब बेपर्दा होकर, खुले आकाश को अपने भीतर निमंत्रण देते हो, तभी परमात्मा भी तुम्हारे भीतर आता है।
25-इसका होश रखो। तुम दूसरे की हानि नहीं करते हो, हानि तो अंततः तुम्हारी है। तुम अगर किसी को मार भी डालो तो उसका तो कुछ भी नहीं बिगड़ता है। क्योंकि यहां जीवन का तो कोई अंत नहीं है। ज्यादा से ज्यादा पुराना शरीर चला गया, नया मिल जाएगा। जीवन की यात्रा तो अनंत है। तुम मारकर भी किसी की कोई हानि नहीं कर पाते हो। लेकिन बिना मारे भी अगर मारने का विचार उठा तो तुमने अपनी बड़ी हानि कर
ली।महावीर कहते हैं, हर हत्या आत्यंतिक अर्थों में आत्महत्या है।
26-दूसरे को कौन कब मार पाया? अपने को ही आदमी मारता रहता है। मारते रहने का अर्थ हुआ: जी नहीं पाता। जीने के मार्ग में इतनी बाधाएं खड़ी कर लेता है...और हम सबको इसका पता भी चलता है। यह कोई दर्शनशास्त्र नहीं है, जो महावीर कह रहे हैं। ये जीवन के सीधे-सीधे गणित हैं।
27-यह तुम्हें भी पता चलता है कि तुम जितने क्रोधी हो, उतने कम जी पाते हो। क्रोध जीने दे तब न... तुम जितने हिंसक हो उतना ही जीना मुश्किल हो जाता है। हिंसा के साथ जीवन की प्रफुल्लता कैसे घट सकती है । तुम जितने ज्यादा लोभी हो, उतने ही सिकुड़ते जाते हो; फैल नहीं पाते। फैलाव के लिए थोड़ी दान की क्षमता चाहिए। फैलाव के लिए देने की हिम्मत चाहिए, बांटने का साहस चाहिए। तुम कृपण की भांति इकट्ठा करते चले जाते हो।
28-लेकिन कृष्ण लेश्या में दबे हुए आदमी के जीवन में कभी वसंत आता ही नहीं। कोयल कूकती ही नहीं। कोंपलें पायल नहीं बजातीं। ऐसा आदमी नाममात्र को जीता है--मिनिमम। श्वास लेता है कहना चाहिए, जीता है कहना ठीक नहीं। गुजार देता है कहना चाहिए।अगर तुम नाचे नहीं,
गाए नहीं, गुनगुनाए नहीं, अगर आनंद का उत्सव तुम्हारे ऊपर नहीं बरसा तो कहीं चूक हो रही है।
कृष्ण लेश्या को कैसे पहचान सकते हैं?-
16 FACTS;-
1-कृष्ण लेश्या का आदमी अपनी आँख फोड़ सकता है,अगर दूसरे की फूटती हों। अपने लाभ का कोई सवाल नहीं है, दूसरे की हानि ही जीवन का लक्ष्य है। ऐसे व्यक्ति के आस-पास
काला वर्तुल होगा।महावीर कहते है, यह निम्नतम दशा है, जहां दूसरे का दुःख ही एकमात्र सुख मालूम पड़ता है। ऐसा आदमी सुखी हो नहीं सकता। सिर्फ वहम में जीता है। क्योंकि हमें मिलता वही है जो हम दूसरों को देते है—वही लौट कर आता है। जगत एक प्रतिध्वनि है।
2-इसलिए हमने यम को , मृत्यु को काले रंग में चित्रित किया है; क्योंकि उसका कुल रस इतना है कि कब आप मरे, कब आपको ले जाया जाये। आपकी मृत्यु ही उसके जीवन का आधार है, इसलिए काले रंग में हमने यम को पोता है। आपकी मृत्यु उसके जीवन का आधार है—कुल काम इतना है कि आप कब मरे, प्रतीक्षा इतनी सी है।
3-यह जो काला रंग है, इसकी कुछ वैज्ञानिक ख़ूबियाँ समझ लेनी जरूरी है। काला रंग गहन भोग का प्रतीक है। काले रंग को वैज्ञानिक अर्थ होता है जब सूर्य की किरण आप तक आती है, तो उसमें सभी रंग होते है। इसलिए सूर्य की किरण सफेद है, शुभ्र है। सफेद सभी रंगों का जोड़ है, एक अर्थ में अगर आपकी आँख पर सभी रंग एक साथ पड़ें तो सफेद बन जायेंगे। छोटे बच्चों को स्कूल में एक रंगों का वर्तुल दे दिया जाता है। जब उस वर्तुल को जोर से घुमाया जाता है, तो सभी रंग गड्ड-मड्ड हो जाते है। और सफेद बन जाता है।
4-सफेद सभी रंग का जोड़ है। जीवन समग्र स्वीकार सफेद में है, कुछ अस्वीकार नहीं है, कुछ निषध नहीं है, काला सभी रंगों का आभाव है, वहां कोई रंग नहीं है। जीवन में रंग होते है, मौत में कोई रंग नहीं….वहां कोई रंग नहीं है। मौत रंग विहीन है। काले रंग का अर्थ है…दुख का
रंग,ध्यान रहे, रंग आपको दिखाई पड़ते है उन किरणों से जो आपकी आंखों तक आती है। अगर आपको लाल साड़ी दिखाई पड़ रही है, तो उसका मतलब है कि उस कपड़े से लाल किरण वापस आ रही है। एक अर्थ में काला रंग सभी रंगों का अभाव है। इसीलिए महावीर ने सफेद को त्याग का प्रतीक कहा है और काले को भोग का प्रतीक कहा है।
5-उसने सभी पी लिया,कुछ भी छोड़ा नहीं—सभी किरणों को पी गया।तो जितना भोगी आदमी होगा, उतनी कृष्ण लेश्या में डूबा हुआ होगा। जितना त्यागी व्यक्ति होगा, उतना ही
कृष्ण लेश्या से दूर उठने लगेगा।दान और त्याग की इतनी महिमा लेश्याओं को बदलने का एक प्रयोग है। जब आप कुछ देते है किसी को, आपकी लेश्या तत्क्षण बदलती है, लेकिन अगर आप व्यर्थ चीज देते है तो लेश्या नहीं बदल सकती। कुछ सार्थक,जो प्रतिकर हे, जो आपके हित का था और काम का था। और दूसरे के भी काम पड़ेगा—जब भी आप ऐसा कुछ देते है। आपकी लेश्या तत्क्षण परिवर्तित होती है। क्योंकि आप शुभ्र की तरफ बढ़ रहे है, कुछ छोड़ रहे है।
6-उस सब छोड़ने का केवल इतना अर्थ है कि कोई पकड़ न रही। और जब कोई पकड़ नहीं रहती तो स्वेत, शुक्ल लेश्या का जन्म होता है।काली लेश्या सघनतम लेश्या है। काली
निम्नतम स्थिति है।जब भी चित में कोई वृति होती है तो उसके चेहरे के आस पास उसके रंग की आभा आ जाती है। आपको दिखाई नहीं पड़ती। छोटे बच्चों को ज्यादा प्रतीत होती है। आपको भी दिखाई पड़ सकती है। अगर आप थोड़े सरल हो जायें। जब कोई व्यक्ति सच में साधु चित हो जाता है, तो वह आपकी आभा से ही आपको नापता है; आप क्या कहते है, उससे नहीं, वह आपको नहीं देखता, आपकी आभा को देखता है।
7-अब एक आदमी आ रहा है। उसके आस-पास कृष्ण लेश्या की आभा है, काला रूप है चारों तरफ; उसके चेहरे के आस-पास एक पर्त है काली तो वह कितनी ही शुभ्रता की बातें करे, वे व्यर्थ है, क्योंकि वह काली पर्त असली खबर दे रही है।और यह आभा प्रतिपल बदलती रहती
है।महावीर, बुद्ध, कृष्ण और राम, क्राइस्ट के आस-पास सारी दुनिया के संतों के आस-पास हमने उनके चेहरे के प्रभा मंडल बनाया है। हमारे कितने ही भेद हो—ईसाई में,मुसलमान में, हिन्दू में,जैन में बौद्ध में—एक मामले में हमारा भेद नहीं है कि इन सभी ने जाग्रत महापुरुषों के चेहरों के आस पास प्रभा मंडल बनाया है। वह प्रभा-मंडल शुभ्र आभा प्रगट करता है।
8-हमारे चेहरे के आस पास सामान्यतया काली आभा होती है। और या फिर बीच की आभायें होती है। प्रत्येक आभा भीतर की अवस्था की खबर देती है। अगर आपके आस पास काली आभा मंडल है, आरा है, तो आपके भीतर भंयकर हिंसा, क्रोध,भंयकर कामवासना होगी। आप उस अवस्था में होंगे, जहां आपको खुद भी नुकसान हो तो कोई हर्ज नहीं दूसरे को नुकसान हो तो आपको आनंद मिलेगा।
9-आप जैसे कपड़े पहनते हे, वे भी आपके चित की लेश्या की खबर देते है।कामुक आदमी एक तरह के कपड़े पहनेगा। कामवासना से हटा हुआ आदमी दूसरी तरह के कपड़े पहनेगा। रंग बदल जायेंगे,कपड़े के ढंग बदल जायेंगे। कामुक आदमी चुस्त कपड़े पहनेगा। गैर-कामुक आदमी ढीले कपडे पहनने शुरू कर देगा। क्योंकि चुस्त कपड़ा शरीर को वासना देता है,हिंसा देता है।
10- सैनिक को हम ढीले कपड़े नहीं पहना सकते। ढीले कपडे पहनकर सैनिक लड़ने जायेगा तो हारकर वापस लौटेगा। साधु को चुस्त कपड़े पहनाना बिलकुल नासमझी की बात है। क्योंकि चुस्त कपड़े का काम नहीं साधु के लिए। इसलिए साधु निरंतर ढीले कपड़े चुनेगा। जो
शरीर को छूते भर रहे, बाँधते नहीं रहे। ये छोटी-छोटी बातें आपके जीवन को संचालित करती है; क्योंकि चित क्षुद्र चीजों से ही बना हुआ है। अगर आप चुस्त कपड़े पहने हुए है तो आप दो-दो सीढ़ियां चढ़ने लगते है। एक साथ। अगर आप ढीले कपड़े पहने हुए है तो आपकी चाल भारी होती है। एक सीढ़ी भी आप मुश्किल से चढ़ते है। चुस्त कपड़े पहन कर आप में गति आ जाती है।
11-जब आप रंग चुनते है, वह भी खबर देता है आपके चित की। क्योंकि चुनाव अकारण नहीं है। चित चुन रहा है। रंग चुनने का कारण यह है कि जब आपके चित में एक वृति होती है तो आपके चेहरे के आसपास एक आरा एक प्रभा मंडल निर्मित होता है। इस प्रभा मंडल के चित्रों से ये भी पता लगाया जा सकता है, आपके भीतर अब क्या चल रहा है। कारण क्या है, क्योंकि आपका पूरा शरीर विद्युत का एक प्रवाह है। आपको शायद ख्याल न हो कि पूरा शरीर वैद्युतिक यंत्र है।
12-जो अपराधी इतने अदालत-कानून के बाद भी अपराध करते है, उनके पास निश्चित ही कृष्ण लेश्या पाई जायेगी। और आप अगर डरते है अपराध करने से कि नुकसान न पहुंच जाए। और आप देख लेते है कि पुलिसवाला रास्ते पर खड़ा है,तो रूक जाते है लाल लाइट देखकर —नीली लेश्या। कृष्ण लेश्या का आदमी है उसको कोई दंड नहीं रोक सकता पाप से ;क्योंकि 'क्या होगा' इसकी उसे जरा भी फिक्र नहीं होती। वह खोया है अंधेरी घाटियों में। दूसरों को क्या होता है, उसको इससे कुछ लेना देना नहीं है, उसे रस है तो दूसरों को केवल नुकसान पहुंचाने मात्र से है।
13-जिन अंतर्शत्रुओं की सारे शास्त्रों में चर्चा है, वे सभी कृष्ण लेश्या को
मजबूत करते हैं।जब भी धन और जीवन में चुनाव होता है, तुम धन चुनते हो, जीवन नहीं चुनते। इस बात को अतिशयोक्ति मत समझना। अगर दस रुपये बचते हों, थोड़ा जीवन खोता हो तो तुम दस रुपये बचाते हो। शायद भीतर एक हिसाब है कि जीवन तो मुफ्त में मिला है। कुछ खर्च तो करना पड़ा नहीं है। धन तो बड़ी मुश्किल से मिलता है। बड़े श्रम से मिलता है।
14-अपने भीतर चिंतन की इन प्रक्रियाओं को पकड़ना चाहिए। इन्हीं के ताने-बाने से कृष्ण लेश्या बनती है।कोयल गुनगुनाती हैं, या पक्षी वृक्षों में कूकते रहते हैं, या वृक्षों में फूल खिलते हैं, या आकाश में तारे हैं, या पहाड़ों से झरने फूटते हैं--कहां प्रयोजन है? कहां उपयोगिता है? तुम किसी झरने से पूछो कि क्या लाभ है, तू बहता ही रहता है? फायदा क्या है ... इसमें सार क्या है?
15-यह पूरी प्रकृति निस्सार है मनुष्य के अर्थों में। क्योंकि इसमें से कहीं रुपये तो निकलते नहीं। आदमी तो उतना ही करता है, जिसका उपयोग
हो, युटीलिटी हो।लेकिन ध्यान रखना, अगर तुम उतना ही करते हो जिसका उपयोग है तो तुम मशीन हो गए, आदमी न रहे। तुम मुर्दा हो गए। तुम्हारी उपयोगिता हो गई, लेकिन जीवन का कोई गहन आनंद न रहा।
16-सभी आनंद उपयोगिता मुक्त हैं। और जब तुम उपयोगिता मुक्त होओगे, तभी तुम आनंद के जगत में प्रवेश करोगे। उल्लास का कोई मूल्य नहीं है।उल्लास अपने आप में मूल्यवान है। उल्लास किसी और चीज का साधन थोड़े ही है; अपने आप में साध्य है। जीवन स्वयं साध्य है। इससे कुछ और पाना नहीं है।जिसने जीवन से कुछ और पाने की कोशिश की, उसकी कृष्ण लेश्या कभी कटेगी नहीं।
2-दूसरी लेश्या – नील लेश्या;-
05 FACTS;-
1-नील लेश्या दूसरी लेश्या है। जो व्यक्ति अपने को भी हानि पहुँचाकर दूसरे को हानि पहुंचने में रस लेता है। वह कृष्ण लेश्या में डूबा है। जो व्यक्ति अपने को हानि न पहुँचाए, खुद को हानि पहुंचाने लगे तो रूक जाये। लेकिन दूसरे को हानि पहुंचाने की चेष्टा करे, वैसा व्यक्ति नील लेश्या में है।
2-नील लेश्या कृष्ण लेश्या में बेहतर हे। थोड़ा हल्का हुआ कालापन,थोड़ा नील हुआ। जो निहित स्वार्थ में जीते है…यह जो पहला आदमी है—जिसके बारे में कहा गया ,कि मेरी एक आँख फूट जाये—यह तो स्वार्थी नहीं है। यह तो स्वार्थी से नीचे गिर गया है। इसको अपनी आँख की फिकर ही नहीं है। इसको दूसरे की दो फोड़नें का रस है। यह तो स्वार्थ से भी नीचे खड़ा है।
3-नील लेश्या वाला आदमी वह है। जिसको हम सेल्फिस कहते है, जो सदा अपनी चिंता करता है। अगर उसको लाभ होता है तो आपको हानि पहुंचा सकता है। लेकिन खुद हानि होती हो तो वह आपको हानि पहुंचायेंगा। ऐसे ही आदमी को.. नील लेश्या के आदमी को, हम दंड से रोक पाते है। पहले आदमी को दंड देकर नहीं रोका जा सकता। जो कृष्ण लेश्या वाला आदमी है, उसको कोई दंड नहीं रोक सकते पाप से ;क्योंकि उसे फिकर ही नहीं कि मुझे क्या होता है। दूसरे को क्या होता है उसका रस….उसको नुकसान पहुंचाना। लेकिन नील लेश्या वाले आदमी को पनिशमेंट से रोका जा सकता है। अदालत, पुलिस, भय….कि पकड़ा जाऊंगा, सज़ा हो जायेगी, तो वह दूसरे को हानि करने से रूक सकता है।
4-तो ध्यान रहे,जो अपराधी इतने अदालत कानून के बाद भी अपराध करते है उनके पास निश्चित ही कृष्ण लेश्या पाई जायेगी। और आप अगर डरते है अपराध करने से कि नुकसान न पहुंच जाए तो —नील लेश्या।कोई क्रोध आ जाये, तो हम उतर जाते है और इसलिए क्रोध के बाद हम पछताते है। और हम कहते है,जो मुझे नहीं करना था वह मैंने किया। जो मैं नहीं करना चाहता था। वह मैंने किया।
5-बहुत बार हम कहते है, 'मेरे सोचने के बावजूद यह हो गया'। यह आप कैसे कह पाते है? क्योंकि यह आपने ही किया। आप एक सीढ़ी नीचे उतर गए। जो आपके जीवन का ढांचा था; जिस सीढ़ी पर आप सदा जीते है—नील लेश्या–उससे जब आप एक सीढ़ी नीचे उतरते है तो ऐसा लगता है कि किसी और ने आपसे करवा लिया। क्योंकि उस लेश्या से आप अपरिचित
है।जब भी आप गलत करते है तो आप नशे में धुत होते ही है। क्योंकि गलत हो ही नहीं सकता मूर्छा के बिना। लेकिन मूर्छा भी इतना ख्याल रखती है कि खुद को नुकसान न पहुंचे, इतनी सुरक्षा रखती है। नील लेश्या शुद्ध स्वार्थ है, लेकिन कृष्ण लेश्या से बेहतर।
3- तीसरी लेश्या – कापोत लेश्या ;-
10 FACTS;-
1-तीसरी लेश्या को महावीर ने ‘’कापोत’’ कहा है—कबूतर के कंठ के रंग की। नीला रंग और भी फीका हो गया। आकाशी रंग हो गया। ऐसा व्यक्ति खुद को थोड़ी हानि भी पहुंच जाए, तो भी दूसरे को हानि नहीं पहुँचाता। खुद को थोड़ा नुकसान भी होता हो तो सह लेगा। लेकिन इस कारण दूसरे को नुकसान नहीं पहुँचाएगा। ऐसा व्यक्ति प्रार्थी होने लगेगा। उसके जीवन में दूसरे की चिंतना और दूसरे का ध्यान आना शुरू हो जायेगा।
2-ध्यान रहे पहली दो लेश्याओं के व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकते। कृष्ण लेश्या वाला तो सिर्फ घृणा कर सकता है। नील लेश्या वाला व्यक्ति सिर्फ स्वार्थ के संबंध बना सकता है। कापोत लेश्या वाला व्यक्ति प्रेम कर सकता है। प्रेम का पहला चरण उठा सकता है; क्योंकि प्रेम का अर्थ ही है कि दूसरा मुझसे ज्यादा मुल्य वान है। जब तक आप ही मूल्य वान है और दूसरा कम मूल्यवान है, तब तक प्रेम नहीं है।
3-तब तक आप शोषण कर रहे है। तब तक दूसरे का उपयोग कर रहे है। तब तक दूसरा एक वस्तु है, व्यक्ति नहीं। जिस दिन दूसरा भी मूल्यवान है, और कभी आपसे भी ज्यादा मूल्यवान है कि वक्त आ जाये तो आप हानि सह लेंगे लेकिन उसे हानि न सहने देंगे। तो आपके जीवन में एक नई दिशा का उद्भव हुआ।यह तीसरी लेश्या अधर्म की धर्म-लेश्या
के बिलकुल करीब है, यही से द्वार खुलेगा। परार्थ प्रेम करूणा की छोटी सी झलक इस लेश्या में प्रवेश होगी। लेकिन बस छोटी सी झलक।
4-आप दूसरे पर ध्यान देते है, लेकिन यह भी अपने ही लिए। आपकी पत्नी है, अगर कोई हमला कर दे तो आप बचायेंगे उसको—यह कापोत लेश्या हे। आप बचायेंगे उसको—लेकिन आप बचा इसलिए रहे है कि वह आपकी पत्नी हे। किसी और की पत्नी पर हमला कर रहा हो तो आप खड़े देखते रहेगें।
5-‘मेरे’ का विस्तार हुआ, लेकिन ‘मेरे’ मौजूद है। और अगर आपको यह भी पता चल जाए कि यह पत्नी धोखे बाज है, तो आप हट जायेंगे। आपको पता चल जाये कि इस पत्नी का लगाव किसी और से भी है, तो सारी करूणा, सारा प्रेम, सारी दया खो जायेगी। इस प्रेम में भी एक गहरा स्वार्थ है कि पत्नी के बिना मेरा जीवन कष्ट पूर्ण होगा,पत्नी जरूरी है, आवश्यक है। उस पर ध्यान गया है, उस को मूल्य दिया है; लेकिन मूल्य मेरे लिए ही है।
6-कापोत लेश्या अधर्म की पतली से पतली कम-से-कम भारी लेश्या है। लेकिन अधर्म वहां है। हममें से मुश्किल से कुछ लोग ही इस लेश्या तक उठ पाते है। दूसरा मूल्यवान हो जाये। लेकिन इतना भी जो कर पाते है, वह भी काफी बड़ी घटना है। अधर्म के द्वार पर आप आ गये, जहां से दूसरे जगत में प्रवेश हो सकता है। लेकिन आम तौर से हमारे संबंध इतने भी ऊंचे नहीं होते। नील-लेश्या पर ही होते है। और कुछ के तो प्रेम के संबंध भी कृष्ण लेश्या पर होते है।
7-ये जो कृष्ण लेश्या है इसमें प्रेम भी जन्म हो तो वह भी हिंसा के ही माध्यम से होगा। ऐसे प्रेमियों की अदालतों में कथायें है, जिन्होंने अपनी प्रेयसी को मार डाला। और बड़े प्रेम से विवाह किया था। थोड़ी बहुत तो हम सभी में ,यह वृति होती है—दबाने की, नाखून चुभाने
की।छोटा बच्चा भी कीड़ा दिख जाये, फौरन मसल देगा,उसको पैर से। तितली दिख जाए—पंख तोड़कर देखेगा। क्या हो रहा है। मेंढक को पत्थर मार मर कर देखेगा। क्या हो रहा है। कुत्ते को मारेगा,उसे सतायेगा। ये आप बच्चे में बचपन से ही देख सकते है।
8-छोटा बच्चा भी आपका ही छोटा रूप है…बड़ा हो रहा है। आप कुत्ते की पूछ में डिब्बा नहीं बाँधते, आप आदमियों की पूछ में डिब्बा बाँधते है—रस लेते है, फिर क्या है, कुछ लोग उस को राजनीति कहते है। कुछ लोग उसको व्यवसाय कहते है,कुछ लोग जीवन के प्रतिस्पर्धा कहते है; लेकिन दूसरे को सतानें में बड़ा रस आता है। जब दूसरे को बिलकुल चारों खाने चित कर देते है तब आपको बड़ी प्रसन्नता होती है। जीवन में कोई परम गुहा की उपलब्धि हो गई।
9-नील लेश्या वाला व्यक्ति आमतौर से, जिसको हम विवाह कहते है वह नील लेश्या वाले व्यक्ति का लक्षण है—दूसरे से कोई मतलब नहीं है, प्रेम की कोई घटना नहीं है। इसलिए भारतीयों ने अगर विवाह पर इतना जोर दिया और प्रेम विवाह पर बिलकुल जोर नहीं दिया तो उसका बड़ा कारण यही है कि अधिकतर लोग नील लेश्या में जीते है। प्रेम उनके जीवन में है ही नहीं,इसलिए प्रेम को कोई जगह देने का कारण नहीं। उनको जीवन में केवल एक स्त्री चाहिए। जिसका वे उपयोग कर सकें ।
10-कापोत….आकाश के रंग की जो लेश्या है, उसमें प्रेम की पहली किरण उतरती है। इसलिए अधर्म के जगत में प्रेम सबसे ऊंची घटना है। ज्यादा से ज्यादा धर्म की घटना। और अगर आपके जीवन में प्रेम मूल्यवान है, तो उसका अर्थ है कि दूसरा व्यक्ति मूल्यवान हुआ। यद्यपि यह भी अभी आपके लिए ही है। इतना मूल्यवान नहीं है कि आप कह सकें कि मेरा न हो तो भी मूल्यवान है।वह इतनी मूल्यवान नहीं है; कि मेरे सुख के अलावा किसी और का सुख उससे निर्मित होता हो, तो भी मैं सुखी रहूँ।
NOTE;-
फिर तीन लेश्याएं है: तेज, पद्म और शुक्ल, तेज का अर्थ है .. अग्नि की तरह सुर्ख लाल। जैसे ही व्यक्ति तेज लेश्या में प्रवेश करता है, वैसे ही प्रेम गहन प्रगाढ़ हो जाता है। अब यह प्रेम दूसरे व्यक्ति का उपयोग करने के लिए नहीं है। अब यह प्रेम लेना नहीं है। अब यह प्रेम देना है, यह सिर्फ दान है। और इस व्यक्ति का जीवन प्रेम के इर्द-गिर्द निर्मित होता है।
4- चौथी लेश्या – तेज(लाल) लेश्या
06 FACTS;-
1-यह जो लाल लेश्या है, इसके संबंध में कुछ बातें समझ लेनी चाहिए। क्योंकि धर्म की यात्रा पर यह पहला रंग हुआ। आकाशी, अधर्म की यात्रा पर संन्यासी रंग था। लाल, धर्म की यात्रा पर पहला रंग हुआ। इसलिए हिन्दुओं ने लाल को, गेरूवा को संन्यासी का रंग चुना; क्योंकि धर्म के पथ पर यह पहला रंग है। हिंदुओं ने साधु के लिए गेरूवा रंग चुना है, क्योंकि उसके शरीर की पूरी आभा लाल से भर जाए। उसका आभा मंडल लाल होगा। उसके वस्त्र भी उसमे ताल मेल बन जाएं, एक हो जायें। तो शरीर और उसकी आत्मा में उसके वस्त्रों और आभा में किसी तरह का विरोध न रहे; एक तारतम्य,एक संगीत पैदा हो जाये।
2-ये तीन रंग है धर्म के—तेज, पद्म, शुक्ल। तेज हिंदुओं ने चुना है, शुक्ल जैनों ने चुना हे। पद्म दोनों के बीच। बुद्ध हमेशा मध्य मार्ग के पक्षपाती थे, हर चीज में। क्योंकि बुद्ध कहते थे कि जो है वह मूल्यवान नहीं है, क्योंकि उसे छोड़ना है। और जो अभी हुआ नहीं वह भी बहुत मूल्यवान नहीं, क्योंकि उसे अभी होना है—दोनों के बीच में साधक है।लाल यात्रा का प्रथम
चरण है, शुभ्र यात्रा का अंतिम चरण है। पूरी यात्रा तो पीत की है। इसलिए बुद्ध ने भिक्षुओं के लिए पीला रंग चुना है। तीनों चुनाव अपने आप में मुल्यवान है; कीमती है, बहुमूल्य है।
3-यह जो लाल रंग है, यह आपके आस पास तभी प्रगट होना शुरू होता है। जब आपके जीवन में स्वार्थ बिलकुल शून्य हो जाता है। अहंकार बिलकुल टूट जाता है। यह लाल आपके अहंकार को जला देता है। यह अग्नि आपके अहंकार को बिलकुल जला देती है। जिस दिन आप ऐसे जीने लगते है जैसे ‘’मैं नहीं हूं’’ उस दिन धर्म की तरंग उठनी शुरू होती है। जितना आप कहेगे ' मैं हूं 'उतनी ही अधर्म की तरंग उठनी शुरू होती है। क्योंकि 'मैं 'का भी दूसरे को हानि पहुंचाने का ही भाव होता है।मैं हो ही तभी सकता हूं, जब मैं आपको दबाऊ। जितना आपको दबाऊ, उतना ज्यादा मेरा ‘’मैं’’ मजबूत होता है। सारी दूनिया को दबा दूँ पैरों के नीचे, तभी मुझे लगेगा कि ‘’मैं हूं’’।
4-अहंकार दूसरे का विनाश है। धर्म शुरू होता है वहां से जहां से हम अहंकार को छोड़ते है। जहां से मैं कहता हूं कि अब मेरे अहंकार की अभीप्सा वह जो अहंकार की महत्वाकांक्षा थी, वह मैं छोड़ता हूं। संघर्ष छोड़ता हूं,दूसरे को हराना दूसरे को मिटाना दूसरे को दबाने का भाव छोड़ता हूं। अब मेरे प्रथम होने की दौड़ बंद होती है। अब मैं अंतिम भी खड़ा हूं, तो भी प्रसन्न हूं। सन्यासी का अर्थ ही यही है कि जो अंतिम खड़े होने को राज़ी हो गया। जीसस ने कहा है 'मेरे प्रभु के राज्य में वे प्रथम होंगे, जो पृथ्वी के राज्य में अंतिम खड़े होने को राज़ी है।'
5-लाल रंग की अवस्था में व्यक्ति पूरी तरह प्रेम से भरा होगा,खुद मिट जायेगा। दूसरे महत्वपूर्ण हो जायेंगे। ईसाइयत, लाल रंग को अभी भी पार नहीं कर पाई। क्योंकि अभी भी दूसरे को कनवर्ट करने की आकांक्षा है। इस्लाम लाल रंग को पार नहीं कर पाया । दूसरों को बदल देना है, किसी भी तरह बदल देना है उसकी वजह है ..एक मतांधता।आप जान कर
हैरान होंगे की दुनिया के दो पुराने धर्म—हिंदू और यहूदी, दोनों पीत अवस्था में है। हिंदुओं और यहूदियों ने कभी किसी को बदलने की कोशिश नहीं की। बल्कि कोई आ भी जाये तो बड़ा मुश्किल है ..उसको भीतर लेना। द्वार जैसे बंद है, सब शांत है। दूसरे में कोई उत्सुकता नहीं है। संख्या कितनी है इसकी कोई फिक्र नहीं है।
6-संन्यासी का अर्थ है, जिसने महत्वाकांक्षा छोड़ दिया है , जिसने संघर्ष छोड़ दिया है। जिसने दूसरे अहंकारों से लड़ने की वृति छोड़ दी। इस घड़ी में चेहरे के आस-पास लाल,गेरूवा रंग का उदय होता है। जैसे सुबह का सूरज जब उगता है। जैसा रंग उस पर होता है, वैसा रंग पैदा होता है। इसलिए संन्यासी अगर सच में सन्यासी हो तो उसके चेहरे पर रक्त आभा, जो लाली होगी ; जो सूर्य के उदय के क्षण की ताजगी होगी...वही खबर दे देगी।
5) पांचवी – पद्म लेश्या;-
05 FACTS;-
1-पद्म..महावीर कहते है, दूसरी धर्म लेश्या है पीत। इस लाली के बाद जब जल जायेगा अहंकार…..स्वभावत: अग्नि की तभी तक जरूरत है जब तक अहंकार जल न जाये। जैसे ही अहंकार जल जायेगा, तो लाली पीत होने लगेगी। जैसे, सुबह का सूरज जैसे-जैसे ऊपर उठने लगता है। वैसा लाल नहीं रह जायेगा,पीला हो जाये। स्वर्ण का पीत रंग प्रगट होने लगेगा। जब स्पर्धा छूट जाती है, संघर्ष छूट जाता है, दूसरों से तुलना छूट जाती है और व्यक्ति अपने साथ राज़ी हो जाता है—अपने में ही जाने लगता है—जैसे संसार हो या न हो कोई फर्क नहीं पड़ता—यह ध्यान की अवस्था है।
2-लाल रंग की अवस्था में व्यक्ति पूरी तरह प्रेम से भरा होगा, खुद मिट जायेगा,दूसरे महत्वपूर्ण हो जायेंगे। पीत की अवस्था में न खुद रहेगा, न दूसरे रहेगें। सब शांत हो जायेगा। पीत ध्यान का अवस्था है—जब व्यक्ति अपने में होता है, दूसरे का पता ही नहीं चलता कि दूसरा है भी। जिस क्षण मुझे भूल जाता है कि ‘’मैं हूं’’ उसी क्षण यह भी भूल जायेगा कि दूसरा भी है।
3-पीत बड़ा शांत, बड़ा मौन, अनुद्विग्न रंग है। स्वर्ण की तरह शुद्ध,लेकिन कोई उत्तेजना नहीं। लाल रंग में उत्तेजना है,वह धर्म का पहला चरण है।इसलिए ध्यान रहे,जो लोग धर्म
के पहले चरण में होते है, वे उत्तेजित होते है। धर्म उनके लिए खींचता है। धर्म भी उनके लिए एक ज्वर की तरह होता है। लेकिन,जैसे-जैसे धर्म में गति होती जाती है,वैसे-वैसे सब शांत हो जाता है।
4- व्यक्ति जब पहली दफा धार्मिक होना शुरू होता है, तो बड़ा धार्मिक जोश खरोश होता है। यही लोग उपद्रव का कारण है, क्योंकि उनमें इतना जोश खरोश होता है कि वे फेनेटिक हो जाते है; वे अपने को ठीक मानते है, सबको गलत मानते है। और सबको ठीक करने की चेष्टा में लग जाते है….दयावश। लेकिन वह दया भी कठोर हो सकती है।
5-जैसे ही ध्यान पैदा होता है, प्रेम शांत होता है। क्योंकि प्रेम में दूसरे पर नजर होती है, ध्यान में अपने पर नजर आ जाती है। पीत लेश्या—पद्म लेश्या ध्यानी की अवस्था होती है। बारह वर्ष महावीर उसी अवस्था में रहे। और पीला भी जब और बिखरता जाता है, विलीन होता जाता है तो शुभ्र का जन्म होता है। जैसे सांझ जब सूरज डूबता है और रात अभी नहीं आई,और सूरज डूब गया है। और संध्या फैल जाती है। शुभ्र, कोई उत्तेजना नहीं, वह समाधि की अवस्था है। उस क्षण में सभी लेश्याएं शांत हो जाती है। सभी लेश्या शुभ्र बन गई। शुभ्र अंतिम अवस्था है चित की।
6) छठी लेश्या – शुभ्र लेश्या;-
06 FACTS;-
1-शुभ्र चित की आखरी अवस्था है। झीने से झीना पर्दा बचा है, वह भी खो जायेगा। तो सातवीं को महावीर ने नहीं गिनाया; क्योंकि सांतवीं फिर चित की अवस्था नही, आत्मा का स्वभाव है। वहां सफेद भी नहीं बचता।मृत्यु में जैसे खोते है, जैसे काल में खोते है।वैसे नहीं—
मुक्ति में जैसे खोते है। काले में तो सारे रंग इसलिए खो जाते है कि काला सभी रंगों को हजम कर जाता है, पी जाता है, भोग लेता है। मुक्ति में सभी रंग इसलिए खो जाते है, कि किसी रंग पर पकड़ नहीं रह जाती। जीवन की कोई वासना, जीवन की कोई आकांशा जीवेषणा नहीं रह जाती। सभी रंग खो जाते है। इसलिए सफेद के बाद जो अंतिम छलांग है, वह भी रंग विहीन है।
2-और ध्यान रहे, मृत्यु और मोक्ष बड़े एक जैसे है, और बड़े विपरीत भी; दोनों में इसलिए रंग खो जाते है। एक में रंग खो जाते है कि जीवन खो जाता है। दूसरे में इसलिए रंग खो जाते है कि जीवन पूर्ण हो जाता है, और अब रंगों की कोई इच्छा नहीं रह जाती।मोक्ष ,मृत्यु जैसा है,
इसलिए मुक्त होने से हम डरते है। जो जीवन को पकड़ता है, वहीं मुक्त हो सकता है। जो जीवन को पकड़ता है, वह बंधन में बना रहता है।
3-जीवेषणा,जिसको बुद्ध ने कहा है,लास्ट फार लाइफ। वही इन रंगों को फैलाव है। और अगर जीवेषणा बहुत ज्यादा हो तो दूसरे की मृत्यु बन जाती है। वह कृष्ण लेश्या है। अगर जीवेषणा तरल होती जाये, कम होती जाये। फीकी होती जाये, तो दूसरे का जीवन बन जाती है—वह
प्रेम है।महावीर ने छह लेश्याएं कही है—अभी पश्चिम में इस पर खोज चलती है तो अनुभव में आता है कि ये छह रंग करीब-करीब वैज्ञानिक सिद्ध होंगे। और मनुष्य के चित को नापने की इससे कुशल कुंजी नहीं हो सकती। क्योंकि यह बाहर से नापा जा सकता है। भीतर जाने की कोई जरूरत नहीं।
4-जैसे एक्सरे लेकर कहा जा सकता है कि भीतर कौन सी बीमारी है वैसे आपके चेहरे का ऑरा पकड़ा जाये तो उस ऑरा से पता चल सकता है। चित किस तरह से रूग्ण है, कहां अटका है ; और तब मार्ग खोज जा सकते है कि क्या किया जा सकता है। जो इस चित की
लेश्या से ऊपर उठा जा सके।अंतिम घड़ी में लक्ष्य तो वहीं है। जहां कोई लेश्या न रह जाये। लेश्या का अर्थ: जो बाँधती है। जिससे हम बंधन में होते है। जो रस्सी की तरह हमें चारों तरफ से घेरे रहती है।
5-जब सारी लेश्याएं गिर जाती है तो जीवन की परम ऊर्जा मुक्त हो जाती है। उस मुक्ति के क्षण को हिंदुओं ने ब्रह्मा कहा है—बुद्ध ने निर्वाण, कहा है, महावीर ने कैवल्य कहा है।
जब भी कोई व्यक्ति श्वेत लेश्या के साथ मरता है, तो जो लोग भी धर्म लेश्याओं में जीते है, पीत या लाल में, उन लोगों को अनुभव होता है; क्योंकि यह घटना जागतिक है। और जब भी कोई व्यक्ति शुभ्र लेश्या में जन्म लेता है, तो जो लोग भी लाल और पीत लेश्या के करीब होते है, या शुभ्र लेश्या में होते है; उनको अनुभव होता है.. 'कौन पैदा हो गया है'।
6-जिसे हम गुरु या भगवान कहते है उसे सब क्यों नहीं पहचान पाते, जितनी लेश्या निम्न होगी, वह उतना ही सत गुरु से दूर भागेगा या विरोध करेगा। आपने पूरे इतिहास में देखा है..जीसस, कृष्ण,मीरा,कबीर, नानक,मोहम्मद,रविदास, बुद्ध, महावीर….किसी भी सत गुरु को ले लीजिए । सम कालीन कुछ गिने चुने लोग ही इनके आस पास आ पाते है। इसे आप प्रकृति का शाश्वत नियम मान ले।
...SHIVOHAM....