भक्ति और श्रद्धा में क्या फर्क हैं?भक्त कितने प्रकार के होते हैं?क्या हैं नवधा भक्ति का सूत्र ?
भक्ति और श्रद्धा में क्या फर्क हैं?-
02 FACTS;-
1-भक्ति और श्रद्धा में फर्क है। श्रद्धा दिमाग का विषय है, और भक्ति, दिल का। ध्यान दोनों का विषय है। ध्यान दिल और दिमाग दोनों को जोड़ता है।एक परिपक्व बुद्धि ही भक्ति कर सकती है। एक परिपक्व दिल ज्ञान से प्लावित होता है। ध्यान से तुम्हारी बुद्धि और दिल दोनों परिपक्व होते हैं। परन्तु एक बुद्धिमान व्यक्ति में श्रद्धा की कमी नज़र आती है।उन्हें भौतिक जगत में अधिक श्रद्धा होती है।
2-दिमाग को उस में अधिक श्रद्धा होती है जो नज़र आता है। दिल को उस में अधिक श्रद्धा होती है जो भले ही समझ के परे हो,परन्तु नज़र ना आता हो।किसी मे श्रद्धा का या भक्ति का पूरा अभाव हो, यह असंभव है। यह प्रश्न केवल संतुलन का है।
भाव, श्रद्धा और भक्ति में क्या अंतर हैं?-
साधना के प्रथम चरण में भाव होता है । उसका अगला चरण है, श्रद्धा और अंतिम चरण, भक्ति । इसीलिए हम साधना में भावोत्पत्ति को पहला स्थान देते हैं ।
1- भाव :-
देवता के अस्तित्व का अनुभव।
2-श्रद्धा :-
दृढ विश्वास कि भगवान सदैव अच्छा करते हैं ।
3-भक्ति :-
जो विभक्त नहीं होता वह भक्त है, अर्थात जो भगवान से एकरूप हुआ है ।
प्रेम और श्रद्धा में क्या अंतर हैं?-
03 FACTS;-
1-प्रेम और श्रद्धा में अन्तर यह है कि प्रेम स्वाधीन कार्यों पर उतना निर्भर नहीं है।-कभी-कभी किसी का रूप मात्र, जिसमेँ उसका कुछ भी हाथ नहीं, उसके प्रति प्रेम उत्पन्न होने का कारण होता है । श्रद्घा ऐसी नहीँ है । किसी की सुंदर आँख या नाक देखकर उसके प्रति श्रद्धा नहीं उत्पन्न होगी, प्रीति उत्पन्न हो सकती है ।
2-प्रेम के लिए इतना ही बस है कि कोई मनुष्य हमें अच्छा लगे; पर श्रद्धा क्रे लिए आवश्यक यह है कि कोई मनुष्य किसी बात में बढा हुआ होने के कारण हमारे सम्मान का पात्र हो ।श्रद्धा का व्यापार स्थल विस्तृत है, प्रेम का एकान्त।
3-प्रेम में घनत्व अधिक है और श्रद्धा में विस्तार।किसी मनुष्य से प्रेम रखने वाले दो ,एक ही मिलेगे, पर उस पर श्रद्धा रखने वाले सैकडों हजारो ,लाखों क्या.. करोडो' मिल सकते हैं।सच पूछिए तो इसी श्रद्धा के आश्रय से उन कर्मों के महत्व का भाव दृढ होता रहता है, जिन्हें धर्म कहते हैं और जिनसे मनुष्य-समाज की स्थिति है ।
क्या हैं भक्ति की अवस्था ?-
07 FACTS;-
1-इस संसार में जीवन जीने का सबसे समझदारी भरा तरीका है - हमेशा भक्ति की अवस्था में रहना। हालांकि ज्यादातर विचारशील लोग इस बात से सहमत नहीं होंगे, क्योंकि तथाकथित भक्त अकसर इस धरती के सबसे बड़े मूर्ख नजर आते हैं। एक कारण तो यह है कि लोग बस भक्त होने का ढोंग और दावा करते हैं, वे वास्तव में भक्त हैं नहीं। वे बस जबरदस्त प्रशंसक हैं, उन्हें आप बस 'फैन' के रूप में देख सकते हैं, लेकिन आमतौर पर उन्हें भक्त की तरह समझ लिया जाता है।
2-हो सकता है उसने कभी किसी की कोई पूजा न की हो लेकिन फिर भी वह भक्त है। हो सकता है वह उस अवस्था तक ध्यान, प्रेम या पूजा के जरिये पहुंचा हो, लेकिन अगर वह हरदम लगा हुआ है तो वह भक्त है।भक्त होने का मतलब प्रशंसक या फैन होना नहीं है। भक्त तो सभी कारणों से परे होता है।
3-भक्त एक ऐसी दुनिया में होता है जहां कुछ भी सही या गलत नहीं है, जहां कोई पसंद या नापसंद नहीं है। भक्ति वह तरीका है जो आपको उस दुनिया में आसानी से ले जाता है। भक्ति, प्रेम भी नहीं है। प्रेम तो एक फूल की तरह होता है, फूल सुंदर होता है, सुगंधित होता है लेकिन मौसम के साथ वह मुरझा जाता है। भक्ति पेड़ की जड़ की तरह होती है। चाहे जो भी हो, यह कभी नहीं मुरझाती, हमेशा वैसी ही बनी रहती है।
4-बसंत का समय हो तो पेड़ पर खूब पत्तियां आती हैं। पतझड़ आता है, तो यह फूलों से लद जाता है। सर्दियां आती हैं, यह उजड़ जाता है। बाहर चाहे जो चल रहा हो, लेकिन जड़ें अपना काम लगातार करती रहती हैं। एक पल के लिए भी इधर-उधर विचलित नहीं होतीं। पेड़ का पोषण करने का जड़ों का जो मकसद होता है, वह एक भी पल के लिए कम नहीं होता, भले ही उसकी सतह पर कैसे भी बदलाव हो रहे हों।
5-जड़ें कभी ऐसा नहीं सोचतीं कि अरे, कोई पत्ती ही नहीं बची, अब मैं क्यों काम करूं? कोई फूल नहीं है, कोई फल नहीं आ रहा है, मैं क्यों काम करूं? ऐसा नहीं होता है। जड़ें बस हमेशा काम करना जारी रखती हैं। अगर कोई हमेशा सजगता पूर्वक काम में लगा रहता है, नींद में भी उसका काम जारी है, तो वह भक्त है। केवल भक्त ही हमेशा लगा रह सकता है।
6-भक्ति का अर्थ मंदिर जा कर राम-राम कहना नहीं है। वो इन्सान जो अपने एकमात्र लक्ष्य के प्रति एकाग्रचित है, वह जो भी काम कर रहा है उसमें वह पूरी तरह से समर्पित है, वही सच्चा भक्त है।उसे भक्ति के लिए किसी देवता की आवश्यकता नहीं होती और वहां ईश्वर मौजूद रहेंगे। भक्ति इसलिए नहीं आई, क्योंकि भगवान हैं। चूंकि भक्ति है इसीलिए भगवान हैं।
7-भक्त होने का मतलब यह कतई नहीं है कि दिन और रात आप पूजा ही
करते रहें।भक्त वह है जो बस हमेशा लगा हुआ है, अपने मार्ग से एक पल के लिए भी विचलित नहीं होता। वह ऐसा शख्स नहीं होता जो हर स्टेशन पर उतरता-चढ़ता रहे। वह हमेशा अपने मार्ग पर होता है, वहां से डिगता नहीं है। अगर ऐसा नहीं है तो यात्रा बेवजह लंबी हो जाती है। भक्ति की शक्ति कुछ ऐसी है कि वह सृष्टा का सृजन कर सकती है।उसकी गहराई ऐसी है कि यदि ईश्वर नहीं भी हो, तो भी वह उसका सृजन कर सकती है, उसको उतार सकती है। जब भक्ति आती है तभी जीवन में गहराई आती है।
भक्त के प्रकार;-
02 FACTS;-
1-गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:-
चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।
अर्थात ''हे अर्जुन! आर्त,अर्थार्थी, जिज्ञासु और ज्ञानी- ये चार प्रकार के भक्त मेरा भजन किया करते हैं। इनमें से सबसे निम्न श्रेणी का भक्त अर्थार्थी है। उससे श्रेष्ठ आर्त, आर्त से श्रेष्ठ जिज्ञासु, और जिज्ञासु से भी श्रेष्ठ ज्ञानी है।'' 2-चार तरह के भक्त:-
2-1-अर्थार्थी :-
अर्थार्थी भक्त वह है जो भोग, ऐश्वर्य और सुख प्राप्त करने के लिए भगवान का भजन करता है। उसके लिए भोगपदार्थ व धन मुख्य होता है और भगवान का भजन गौण।
2-2-आर्त :-
आर्त भक्त वह है जो शारीरिक कष्ट आ जाने पर या धन-वैभव नष्ट होने पर, अपना दु:ख दूर करने के लिए भगवान को पुकारता है।
2-3-जिज्ञासु :-
जिज्ञासु भक्त अपने शरीर के पोषण के लिए नहीं वरन् संसार को अनित्य जानकर भगवान का तत्व जानने और उन्हें पाने के लिए भजन करता है
2-4- ज्ञानी :-
आर्त, अर्थार्थी और जिज्ञासु तो सकाम भक्त हैं परंतु ज्ञानी भक्त सदैव निष्काम होता है। ज्ञानी भक्त भगवान को छोड़कर और कुछ नहीं चाहता है। इसलिए भगवान ने ज्ञानी को अपनी आत्मा कहा है। ज्ञानी भक्त के योगक्षेम का वहन भगवान स्वयं करते हैं।
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क्या है नवधा भक्ति?
भक्ति हुए बिना निष्काम कर्मयोग कभी नहीं हो सकता।भगवद् भक्ति ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा हम निष्काम कर्म करते हुए ज्ञान के प्रकाश में अपना आत्मदर्शन कर पाते हैं। इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं...
1.श्रवण 2. कीर्तन, 3. स्मरण, 4. पादसेवन, 5. अर्चन, 6. वंदन, 7. दास्य, 8. सख्य 9.आत्मनिवेदन।
1-श्रवण:-
ईश्वर की लीला, कथा,स्त्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित मन से निरंतर सुनना।
2-कीर्तन:-
ईश्वर के गुण, चरित्र, नाम, पराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना। 3-स्मरण:-
निरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करना, उनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना। 4-पाद सेवन:-
ईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्य समझना। 5-अर्चन:- मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना। 6-वंदन:-
भगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजन, आचार्य, ब्राह्मण, गुरूजन, माता-पिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना। 7-दास्य:-
ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना। 8-सख्य:-
ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना। 9-आत्म निवेदन:-
अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।
रामचरितमानस में नवधा भक्ति का स्वरूप;-
05 FACTS;-
1-तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में राम-नाम का जाप करते हुए श्रीराम के आगमन की प्रतीक्षा करने वाली शबरी का चरित्रगान करते हुए उन्हें परमभक्त के रूप में निरूपित किया है।भगवान् राम शबरीजी के समक्ष नवधा भक्ति का स्वरूप प्रकट करते हुए उनसे कहते हैं कि- ''नवधा भकति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।। प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।। गुर पद पकंज सेवा तीसरि भगति अमान। चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।। मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा।। छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा।। सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा।। आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।। नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना।।'' 2-भक्ति नौ रूपों में की जा सकती है। प्रथम भक्ति सत्संग ही है। विद्वानों, भक्तों एवं संतों के सानिध्य में प्रभु चिंतन का ज्ञान प्राप्त होता है। दूसरी प्रकार की भक्ति जो पाप-कर्म में प्रवृत व्यक्ति को भी पवित्र करने वाली है, वह है प्रभु लीलाओं के कथा प्रसंग से प्रेम करना। जब मनुष्य भगवान की लीलाओं के प्रति लगनपूर्वक आसक्त होगा तो उन को अपने में ढालने का प्रयत्न करेगा।
3-तीसरी भक्ति है अभिमान रहित होकर गुरू के चरण कमलों की सेवा। चौथी भक्ति में वह माना जाएगा जो छल-कपट रहित होकर श्रद्धा प्रेम व लगन के साथ प्रभु नाम सुमिरन करता है। मन्त्र का जाप और दृढ़ विश्वास-यह पांचवी भक्ति है जो वेदों में प्रसिद्ध है।
4-छठवीं भक्ति है, जो शीलवान पुरुष अपने ज्ञान और कर्मेन्द्रियों पर नियंत्रण रखते हुए भगवद् सुमिरन करते हैं। सातवीं भक्ति में व्यक्ति सारे संसार को प्रभु रूप में देखते हैं। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए उसी में सन्तोष करना और स्वप्न में भी पराये दोषों को ना देखना। 5-नौवीं भक्ति है छल कपट का मार्ग छोड़ दूर रहना और किसी भी अवस्था में हर्ष और विषाद का न होना। उपरोक्त नौ प्रकार की भक्ति में कोई भी भक्ति करने वाला व्यक्ति भक्त होता है और भगवान का प्रिय होता है।
क्या नवधा भक्ति सभी साधनाओं का सार है?
भक्तियोग के विषय में गोस्वामी तुलसीदास जी ने प्रभु श्रीराम एवं भक्त शबरी के संवाद के माध्यम से जो प्रतिपादन श्रीरामचरितमानस में किया है, वह अपने आप में अनूठा है। शबरी जो कोलो की शबर जाति के मुखिया की बेटी थी, उसको भगवान ने पात्र बनाया नवधा भक्ति की व्याख्या के लिए। यह तथ्य चौंकाने वाला है आज के विषमता भरे युग में। प्रभु को पाने की आकुलता-विकलता हो तो लिंगभेद, जातिभेद, ऊँच-नीच का भेद कुछ भी आड़े नहीं आता।
1-क्या अर्थ है 'संतन्ह कर संगा' ?-
04 FACTS;-
1-प्रथम भक्ति इस नवधा भक्ति के अंतर्गत संतों के सत्संग के रूप में वर्णित की गयी है। साधुओं के, श्रेष्ठजनों के सत्संग से हमारी जड़ता-मूढ़ परंपरागत मान्यताएँ टूटती हैं एवं हमें होश आता है कि जिन्दगी कुछ अलग ढंग से अपने आपको सुव्यवस्थित बनाकर जी जा सकती है। सत्संग में प्रथम कोटि का सत्संग है, सत्य का, परमात्मा का संग। यह सर्वोच्च कोटि का सत्संग बताया गया है, जो कि समाधि की स्थिति में परमात्मसत्ता से एकात्मता स्थापित करके मिलता है।
2-दूसरी कोटि का सत्संग वह है जो सत् तत्व से आत्मसात् हो चुके महापुरुषों के साथ किया जाता है। ऐसे व्यक्ति वे होते हैं, जिनके पास बैठने पर हमारे अंतःकरण में ईश्वर के प्रति ललक-जिज्ञासा पैदा होने लगे। आज ऐसे व्यक्ति बिरले ही मिलते हैं, अतः तीसरी कोटि का सत्संग उनके विचारों का सामीप्य, महापुरुषों द्वारा लिखे गए अमृतकणों का स्वाध्याय भी उसकी पूर्ति करता है।
3-स्वामी रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे कि “गंगाजी की तरफ जाते ही शीतलता सहज ही मिलने लगती है।” महापुरुषों के चिन्तन की ओर उन्मुख होते ही तपते मन को शांति मिलती है। संतों के सत्संग की जब बात होती है और जब ‘प्रथम भक्ति संतन कर संग’ की व्याख्या करते हैं तो लगता हैं कि संत की परिभाषा भी होनी चाहिए। गोस्वामी जी के शब्दों में-
सठ-सुधरहिं सत संगति पायी। पारस परसि कुधातु सुहाई॥अर्थात् संतों का संग पाकर
जड़-मूर्ख-बदमाश भी सुधर जाते हैं यथा पारस के स्पर्श से लोहा सोना बन जाता है।
4-संत उन्हें कहा जाता है, जो व्यक्ति को परमात्मा का प्रकाश दिखा दें-उसे आत्मा की ओर उन्मुख कर दें, सद्गुरु से परिचय करा दें। संतों का हृदय नवनीत के समान होता है। जीवमात्र के प्रति उनके मन में दया होती है-अगाध प्रेम होता है। उनके सान्निध्य में आकर अनेकों लोग बदल जाते है ,उनके दुख मिट जाते है। सत्संग की महिमा अपरम्पार है एवं जिसे यह प्राप्त हो गया, वह नवधाभक्ति के प्रथम प्रसंग के माध्यम से भगवत्कृपा का पात्र बन गया। संतपुरुषों में क्रोध नहीं होता, वे सदैव क्षमाशील होते हैं। हम यदि ये दोनों गुण अपना लें-तो संतों का आचरण हमें भक्ति की पराकाष्ठा पर पहुँचा सकता है।
2-क्या अर्थ है 'कथा प्रसंगों में प्रेम-अभिरुचि'?-
05 FACTS;-
1-भगवान श्रीराम ने इस प्रसंग में बतायी है-दूसरी रति मम् कथा प्रसंगा। अर्थात् मेरे (भगवान के) कथा प्रसंगों में प्रेम-अभिरुचि भगवान ने श्रीमद्भागवत में कहा है-मैं वहाँ रहता हूँ जहाँ मेरे भक्त मेरी चर्चा करते हैं। भक्ति साधना में सबसे सुलभ मार्ग है-भगवान के लीला-प्रसंगों का चिंतन कर-गुणगान कर उनमें मन को लगा देना। देखा जाय तो आर्ष साहित्य में लोकमानस को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है, पुराणों के कथा-प्रसंगों ने, जिनमें या तो भक्त की कथा है या भगवान की। आदमी के मन को भगवान के स्वरूप में लीन करने की इनमें जबर्दस्त शक्ति है।
2-श्रीमद्भागवत सर्वाधिक लोकप्रिय है। देवी भागवत एवं रामचरितमानस का भी लगभग इसी के समकक्ष स्थान है। प्रज्ञापुराण ने कथा-साहित्य को नए आयाम दिए। भगवद्भक्ति की ओर उन्मुख करने वाले कथा-प्रसंग लोकमानस को छूते हैं-भावसंवेदना जगाते हैं एवं कल्याण का पथ प्रशस्त करते हैं। इस भक्ति का एक श्रेष्ठतम उदाहरण अभिमन्यु पुत्र राजा परीक्षित द्वारा अपने जीवन के अंतिम क्षणों में श्रीमद्भागवत कथा को सुनकर मोक्ष को प्राप्त होना है। ऐसा कहा जाता है कि इनके युग में कलियुग आया एवं उनके द्वारा बताये चार स्थानों (द्यूतक्रीड़ा, व्यभिचार, चोरी, स्वर्ण) में से स्वर्णमुकुट में आकर विराजमान हो गया।
3-कलियुग के अधिष्ठित होने का भाव है-बुद्धि का तापसी हो जाना। एक तपस्यारत ऋषि से पानी माँगने व उनकी समाधि में लीन स्थिति को उपेक्षा मानकर राजा परीक्षित द्वारा उनके गले में मरा सर्प डालने पर ऋषिपुत्र द्वारा श्राप दे दिया गया था कि एक सप्ताह में वे मृत्यु को प्राप्त होंगे। शाप अटल था। अब प्रश्न यह था कि मृत्यु को उत्तम कैसे बनाया जाय? परीक्षित सोचने लगे कि मरे तो ऐसी मृत्यु कि ईश्वर में लीन हो जाएँ। गीता में प्रसंग आया
है.. ''जिस-जिस भाव स्मरण करते हुए प्राणी शरीर को छोड़ते हैं, उसी भाव को वे प्राप्त हो जाते हैं।''
4-यही विचार कर ऋषिगणों से परामर्श कर शुकदेव जी से भागवत कथा सुनने का निश्चय किया। शुकदेव जी ने भक्ति में विभोर होकर कथा सुनायी। परीक्षित ने भी श्रद्धायुक्त होकर कथा सुनी। परीक्षित फूल में छिपे तक्षक द्वारा काटे जाने के बाद सायुज्य मुक्ति को प्राप्त हुए। तब से ही श्रीमद्भागवत सप्ताह का प्रचलन है।
5-आज के युग में परिस्थितियाँ बड़ी विषम है। स्थान-स्थान पर कथा-आयोजन होते देखे जाते हैं, अनेकानेक कथावाचक व महात्मा आयोजनों में बोलते, टीवी पर भी कहते देखे-सुने जा सकते हैं, परन्तु कथा में प्रभाव नहीं है। कारण मात्र यह है कि कथावाचक का आदर्श शुकदेव समान हो, सुनने वाला भी परीक्षित जैसा होना चाहिए। भगवत् कथामृतों में भगवान के दिव्य लीलाओं का वर्णन ही है एवं यह भावपूर्वक सुनना, मनन करना नवधा भक्ति के दूसरे प्रसंग में आता है।
3-क्या अर्थ है 'गुरुपद पंकज सेवा' ?-
05 FACTS;-
1-तीसरी भक्ति है-अभिमानरहित होकर गुरु के चरणकमलों की सेवा। (गुरुपद पंकज सेवा तीसरी भक्ति अमान) गुसाईं जी का इस भक्ति के वर्णन से तात्पर्य है-गुरु ही ब्रह्मा-शिव-विष्णु हैं उनके प्रति सर्वस्व समर्पण जब तक नहीं होगा, भक्ति नहीं सधेगी। गुरु की पहली चोट भक्त के, साधक के अहंकार पर ही होती है। सामान्यतया हम गुरु को सामान्य मनुष्य मान बैठते हैं। गुरु इन्सान जैसा दीखता अवश्य है, क्योंकि उसे संवाद स्थापित करने के लिए, लीलासंदेह के लिए मानवी चोला पहनना ही पड़ता है।
2-श्री अरविंद कहते थे-गुरु की चेतना का शिष्य में अवतरण होता है। यह तभी हो पाता है जब शिष्य की चेतना भी शिखर पर हो। गुरु के लिए उनने ‘डिसेण्डिंग कांशसनेश तथा शिष्य के लिए ‘एसेण्डिंग कांशसनेश शब्द इसीलिए प्रयुक्त किया है। जब तक अहं नहीं गलेगा, अभीप्सा तीव्रतम नहीं होगी, गुरुकृपा अवतरित नहीं होगी। गुरु अपने धरातल से काफी दलदल में फँसे शिष्य को उबारकर ऊपर ले जाता है। गुरु की सेवा अर्थात् स्वयं भगवान की, सच्चिदानन्द परमेश्वर की सेवा। ऐसा व्यक्ति स्वयं ईश्वर को पा जाता है। उसके लिए कुछ भी असंभव-असाध्य नहीं रहता।
3-श्री अरविंद के एक शिष्य थे चंपकलाल। उनका स्वभाव था श्री अरविंद के दैनन्दिन कार्य में उनकी सेवा में ही स्वयं को नियोजित करना। 1926 का प्रसंग है-उनने श्री अरविंद से पूछा-एक शिष्य के नाते हमारा क्या कर्त्तव्य हैं हमारे लिए निर्देश बतायें। योगीराज बोले-तुम्हारे लिए एक ही काम है, तुम हमेशा चुप रहना। बहुत कम बोलना। हमारे पास रहते हो तो लोग तुम से हमारे बारे में पूछेंगे। कुरेद-कुरेद कर जीवनचर्या के बारे में विस्तार से जानना चाहेंगे। तुम चुप ही रहना। चंपकलाल ने इसे गिरह बाँध लिया।
4- 1926 से 19 50 तक वे मौन रहे। जब श्री अरविंद ने समाधि ली तो उन्होंने उठकर चंपकलाल को छाती से लगाया- ''चंपकलाल, मेरे बेटे! मैं तुम्हें आशीर्वाद देकर जा रहा हूँ।” इस कृपास्पर्श ने चंपकलाल को महायोगी-सिद्धसाधक बना दिया। श्री अरविंद के महाप्रयाण के बाद अमेरिका की ‘श्री अरविंद सोसायटी’ ने श्री चंपकलाल को वार्षिक बैठक में बुलाया। श्री माँ ने कहा-तुम चले जाओ। बोलोगे तुम अपने व्रत के कारण बिल्कुल नहीं। मात्र खड़े होकर श्री अरविंद का ध्यान कर लेना।उन्होंने ऐसा ही किया। सभी को अनूठी तृप्ति मिली।
5-उनको संदेश मिला कि उनको क्या युगधर्म निबाहना चाहिए। चंपकलाल की वाणी’ नामक पुस्तक जो श्री अरविंद आश्रम से प्रकाशित हुई है, पढ़कर अनुमान लगाया जा सकता है कि गुरु की सेवा से बिना पढ़ा-लिखा भक्त भी कैसे साधना की उच्चतम सोपानों पर पहुँच सकता
है।मानरहित गुरु की भक्ति साधक को सब कुछ दे सकने में समर्थ है गुरु शिष्य के, भक्त के बने बनाए व्यक्तित्व को कूट-कूट कर मिट्टी बनाकर उससे एक नया खिलौना बनाता है, यदि वह उसके प्रति पूर्ण समर्पित हो जाय। गुरुदेव इसी को गलाई-ढलाई धुलाई-रँगाई नाम से संबोधित करते है ।
4-क्या अर्थ है 'गुणसमूह का गान' ?-
05 FACTS;-
1-नवधा भक्ति के अंतर्गत चौथी भक्ति है-कपट छोड़कर गुणसमूह का गान। (मम गुण गण करइ कपट तजि गान) श्रीमद्भागवत में परीक्षित से श्री शुकदेव जी ने कहा है-हे राजन! कलियुग में अनेकों दोष हैं, पर एक महान गुण है। इस युग में भगवान के संकीर्तन से व्यक्ति मुक्त होकर परमगति को प्राप्त होता है।
2-भगवद् गुणगान संकीर्तन की चार पारस्परिक पद्धतियाँ हैं-
1-हनुमदीय
2-शाँभवीय
3-नारदीय
4-वैयासकीय
3- हनुमदीय पद्धति में भगवन्नाम जप मस्ती में मस्त होकर किया जाता है। स्वरताल बिगड़ जाय, कोई बात नहीं। प्रेम का मूल्य ज्यादा होता है। शाँभवीय पद्धति में स्वरताल के साथ नृत्य का भी योगदान होता है। नारदीय पद्धति में वाद्ययंत्रों के साथ ताल-मृदंग आदि के साथ झुण्ड बनाकर संकीर्तन किया जाता है। वैयासकीय पद्धति में कथा के साथ-साथ बीच में संकीर्तन भी चलता है।
4-भगवान ने गीता में कहा है-
'' यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है, तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है। वह भजन के प्रभाव से शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और परमशान्ति को प्राप्त होता है। हे अर्जुन! मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता।''
5--संकीर्तन भक्ति से लोग बदलते हैं, वातावरण बदलता है-इसका सबसे बड़ा उदाहरण है-चैतन्य महाप्रभु द्वारा की गयी बंगक्षेत्र में महाक्रान्ति। बंगाल को कीकर देश माना जाता था। कहा जाता था कि समस्त तीर्थों का फल बंगाल जाने से समाप्त हो जाता है। भगवन्नाम संकीर्तन ने बंगाल की भूमि को उर्वर बना दिया।वहाँ महामानव जन्म लेने लगे।पापी व्यक्ति
भी भावों के प्रवाह से उबर गए। वस्तुतः कपट छोड़कर भक्ति की जो बात भगवान ने कही है उसे समझना जरूरी है। कपट छोड़ने के बाद ही अंदर से भावों का समुद्र उमड़कर आता है। भावसमाधि सर्वोच्च अवस्था है जो भगवत् कीर्तन से शीघ्र ही प्राप्त हो सकती है।
संगीत का अदृश्य प्रभाव ;-
12 FACTS;-
1-संगीत के अदृश्य प्रभाव को खोजते हुए भारतीय योगियों को वह सिद्धियाँ और अध्यात्म का विशाल क्षेत्र उपलब्ध हुआ, जिसे वर्णन करने के लिए एक पृथक वेद की रचना करनी पड़ी। सामवेद में भगवान् की संगीत शक्ति के ऐसे रहस्य प्रतिपादित और पिरोये हुए हैं, जिनका अवगाहन कर मनुष्य अपनी आत्मिक शक्तियों को, कितनी ही तुच्छ हों-भगवान् से मिला सकता है।पौराणिक उपाख्यान है कि ब्रह्मा जी के हृदय में उल्लास जागृत हुआ तो वह गाने लगे। उसी अवस्था में उनके मुख से गायत्री छंद प्रादुर्भूत
हुआ-गान करते समय ब्रह्मा जी के मुख से निकलने के कारण गायत्री नाम पड़ा।
2-विदेशों में विज्ञान की तरह ही एक शाखा विधिवत संगीत का अनुसंधान कर रही है और अब तक जो निष्कर्ष निकले हैं, वह मनुष्य को इस बात की प्रबल प्रेरणा देते हैं कि यदि मानवीय गुणों और आत्मिक आनंद को जीवित रखना है तो मनुष्य अपने आपको संगीत से जोड़े रहे। संगीत की तुलना प्रेम से की गई है। दोनों ही समान उत्पादक शक्तियाँ हैं, इन दोनों का ही प्रकृति (जड़ तत्त्व) और जीवन (चेतन तत्त्व) दोनों पर ही चमत्कारिक प्रभाव पड़ता है।
3-‘‘संगीत आत्मा की उन्नति का सबसे अच्छा उपाय है, इसलिए हमेशा वाद्य यंत्र के साथ गाना चाहिये।’’ यह पाइथागोरस की मान्यता थी; पर डॉ. मैकफेडेन ने वाद्य की अपेक्षा गायन को ज्यादा लाभकारी बताया है। मानसिक प्रसन्नता की दृष्टि से पाइथागोरस की बात अधिक सही लगती है। श्री टैगोर के शब्दों में स्वर्गीय सौंदर्य का कोई साकार रूप और सजीव प्रदर्शन है, तो उसे संगीत ही होना चाहिये। रस्किन ने संगीत को आत्मा के उत्थान, चरित्र की दृढ़ता कला और सुरुचि के विकास का महत्त्वपूर्ण साधन माना है।
4-विभिन्न प्रकार की सम्मतियाँ वस्तुतः अपनी-अपनी तरह की विशेष अनुभूतियाँ हैं, अन्यथा संगीत में शरीर, मन और आत्मा तीनों को बलवान् बनाने वाले तत्त्व परिपूर्ण मात्रा में विद्यमान हैं, इसी कारण भारतीय आचार्यों और मनीषियों ने संगीत शास्त्र पर सर्वाधिक जोर दिया। साम वेद की स्वतंत्र रचना उसका प्रणाम है। समस्त स्वर-ताल, लय, छंद, गति, मंत्र, स्वर, चिकित्सा, राग, नृत्य, मुद्रा, भाव आदि साम वेद से ही निकले हैं। किसी समय इस दिशा में भी भारतीयों ने योग सिद्धि प्राप्त करके, यह दिखा दिया था कि स्वर साधना के समक्ष संसार की कोई और दूसरी शक्ति नहीं। उसके चमत्कारिक प्रयोग भी सैकड़ों बार हुए हैं।
5-कोलाहल और समस्याओं से घनीभूत संसार में यदि परमात्मा का कोई उत्तम वरदान मनुष्य को मिला है, तो वह संगीत ही है। संगीत से पीड़ित हृदय को शांति और संतोष मिलता है। संगीत से मनुष्य की सृजन शक्ति का विकास और आत्मिक प्रफुल्लता मिलती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक, शादी विवाहोत्सव से लेकर धार्मिक समारोह तक के लिए उपयुक्त संगीत निधि देकर परमात्मा ने मनुष्य की पीड़ा को कम किया, मानवीय गुणों से प्रेम और प्रसन्नता को बढ़ाया।
6-नारद संहिता के अनुसार देवर्षि नारद ने एक बार लंबे समय तक यह जानने के लिए प्रव्रज्या की कि सृष्टि में आध्यात्मिक विकास की गति किस तरह चल रही है ? वे जहाँ भी गए, प्रायः प्रत्येक स्थान में लोगों ने एक ही शिकायत की भगवान परमात्मा की प्राप्ति अति कठिन है। कोई सरल उपाय बताइये, जिससे उसे प्राप्त करने, उसकी अनुभूति में अधिक कष्ट साध्य तितीक्षा का सामना न करना पड़ता हो। नारद ने इस प्रश्न का उत्तर स्वयं भगवान् से पूछकर देने का आश्वासन दिया और स्वर्ग के लिए चल पड़े।
7-नारद ने वहाँ पहुँचकर भगवान् विष्णु से प्रश्न किया-''आपको ढूँढ़ने में तप-साधना की प्रणालियाँ बहुत कष्टसाध्य हैं, भगवन् !ऐसा कोई सरल उपाय बताइए, जिससे भक्तगण सहज ही में आपकी अनुभूति कर लिया करें ?
भगवान् विष्णु ने उत्तर दिया -
''हे नारद ! न तो मैं वैकुंठ में रहता हूँ और न योगियों के हृदय में, मैं तो वहाँ निवास करता हूँ, जहाँ मेरे भक्त-जन कीर्तन करते हैं, अर्थात् संगीतमय भजनों के द्वारा ईश्वर को सरलतापूर्वक प्राप्त किया जा सकता है।''
8-अक्षर परब्रह्म परमात्मा की अनुभूति के लिए वस्तुतः संगीत साधना से बढ़कर अन्य कोई अच्छा माध्यम नहीं, यही कारण रहा है कि-यहां की उपासना पद्धति से लेकर कर्मकांड तक में सर्वत्र स्वर संयोजन अनिवार्य रहा है। मंत्र भी वस्तुतः छंद ही है। वेदों की प्रत्येक ऋचा का कोई ऋषि कोई देवता तो होता ही है, उसका कोई न कोई छंद जैसे ऋयुष्टुप, अनुष्टुप, गायत्री आदि भी होते हैं। इसका अर्थ ही होता है कि उस मंत्र के उच्चारण की ताल, लय और गतियाँ भी निर्धारित हैं। अमुक फ्रीक्वेन्सी पर बजाने से ही अमुक स्टेशन बोलेगा, उसी तरह अमुक गति, लय और ताल के उच्चारण से ही मंत्र सिद्धि होगी-यह उसका विज्ञान है।
9- 'अनेक मनीषी विश्व के महाराजाधिराज भगवान् की ओर संगीतमय स्वर लगाते हैं और उसी के द्वारा उसे प्राप्त करते हैं।'एक अन्य मंत्र में
बताया है कि ईश्वर प्राप्ति के लिए ज्ञान और कर्मयोग मनुष्य के लिए कठिन है। भक्ति-भावनाओं से हृदय में उत्पन्न हुई अखिल करुणा ही वह सर्व सरल मार्ग है, जिससे मनुष्य बहुत शीघ्र, परमात्मा की अनुभूति कर सकता है और उस प्रयोजन में भक्ति-भावनाओं के विकास में संगीत का योगदान असाधारण है-
10-ऋग्वेद में है ...
''हे शिष्य ! तुम अपने आत्मिक उत्थान की इच्छा से मेरे पास आये हो। मैं तुम्हें ईश्वर का उपदेश करता हूँ, तुम उसे प्राप्त करने के लिए संगीत के साथ उसे पुकारोगे तो वह तुम्हारी हृदय गुहा में प्रकट होकर अपना प्यार प्रदान करेगा।''
11-अकबर की राज्य- सभा में संगीत प्रतियोगिता रखी गई। प्रमुख प्रतिद्वंद्वी थे तानसेन और बैजूबावरा। यह आयोजन आगरे के पास वन में किया गया। तानसेन ने टोड़ी राग गाया और कहा जाता है कि उसकी स्वर लहरियां जैसे ही वन खंड में गुंजित हुईं, मृगों का एक झुंड वहाँ दौड़ता हुआ चला आया। भाव-विभोर तानसेन ने अपने गले पड़ी माला एक हरिण के गले में डाल दी। इस क्रिया से संगीत प्रवाह रुक गया और तभी सब के सब सम्मोहित हरिण जंगल में भाग गये।
12-टोड़ी राग गाकर तानसेन ने यह सिद्ध कर दिया कि संगीत मनुष्यों की ही नहीं, प्राणिमात्र की आत्मिक-प्यास है, उसे सभी लोग पसंद करते हैं। इसके बाद बैजूबाबरा ने मृग रंजनी टोड़ी राग का अलाप किया। तब केवल एक वह मृग दौड़ता हुआ राज्य-सभा में आ गया, जिसे तानसेन ने माला पहनाई थी। इस प्रयोग से बैजूबावरा ने यह सिद्ध कर दिया कि शब्द के सूक्ष्मतम कंपनों में कुछ ऐसी शक्ति और सम्मोहन भरा पड़ा है कि उससे किसी भी दिशा के कितनी ही दूरस्थ किसी भी प्राणी तक अपना संदेश भेजा जा सकता है।
5-क्या अर्थ है 'मंत्र जाप दृढ़ विश्वास' ?-
03 FACTS;-
1-पाँचवीं भक्ति है-''मेरे (भगवान के) मंत्र का जाप और मुझमें (परमात्मा में) दृढ़ विश्वास''। (मंत्र जाप दृढ़ विश्वास-पंचम भजन सो वेद प्रकाश)। मंत्र का माहात्म्य समझकर भावपूर्वक परमात्मसत्ता में विश्वास रख जब जप किया जाता है, तो वह भक्ति का पाँचवाँ सोपान ही नहीं बन जाता-सिद्धि का मूल भी बनता है जप में लम्बी साधना की नहीं, गहरी साधना.. श्रद्धा-विश्वासपूर्वक किये जाने की सर्वाधिक आवश्यकता है।
2-मंत्र की व्याख्या हेतु महार्थ-मंजरी में वर्णन आया है-''शक्ति के वैभव विकास में मननयुक्त अपूर्णता से त्राण करने वाली, विश्व-विकल्प (दुनियादारी) की झंझटों से मुक्ति
दिलाने वाली अनुभूति ही मंत्र है।”भगवान कहते हैं- ''जप से निश्चित ही सिद्धि ही मिलती है,
इसमें कोई संशय नहीं।''ईश्वर को संबोधित-निवेदन ही मंत्र है। चाहे वह नमो भगवते वासुदेवाय हो, नमः शिवाय हो अथवा गायत्री मंत्र के रूप में सद्बुद्धि की अवधारणा ... ।प्रार्थना-जप यदि विश्वासपूर्वक किया जाय तो निश्चित ही फल देता है।
3-योगदर्शन का सूत्र है- ''मंत्र का जप उसकी भावना, उसके देवता पर प्रगाढ़ भक्ति रखकर करना चाहिए।'' यदि मंत्र की सामर्थ्य पर जिस गुरु ने मंत्र दिया है, उसकी सत्ता पर एवं मंत्र के देवता पर विश्वास रख निरन्तर जप किया जाय, तो मंत्र की सामर्थ्य असंख्य गुनी हो जाती है।
6-क्या अर्थ है 'इंद्रियों का निग्रह'?-
04 FACTS;-
1-नवधा भक्ति में छठवीं भक्ति हैं-''इंद्रियों का निग्रह'', अच्छा चरित्र... बहुत कार्यों से वैराग्य और निरन्तर संतपुरुषों के आचरण में निरत रहना। दम का अर्थ है-संकल्पपूर्वक हठ के साथ अपने ऊपर नियंत्रण। मानसिक संयम सधते ही शारीरिक स्वयमेव सध जाता है। दम अर्थात् आत्मानुशासन प्रबलतम स्तर पर। इंद्रियों पर ताले लगा लेना ताकि अंतर्मुखी होकर इंद्रियों की संरचना में हम फेर-बदल कर सकें।
2-इसी पक्ष की महत्ता समझने के लिए विचारसंयम, इन्द्रियसंयम, समयसंयम, अर्थसंयम ...चारों पर जोर देना होगा एवं अस्वाद व्रत के माध्यम से उसका शुभारंभ करना होगा , ताकि सभी क्रमशः सध सकें। दम के बाद ही अंतर्जगत में शान्ति का पथ प्रशस्त हो पाता है। दम के बाद इस भक्ति में भगवान श्रीराम ने शील की चर्चा की है। अश्लील का उलटा है शील। शील अर्थात् शालीनता का निर्वाह। शीलव्रत की चर्चा शास्त्रों में आती है।
3-जब पति-पत्नी सद्गृहस्थ के रूप में परस्पर सहमति से संयम-पूर्वक जीवनयापन करते हैं, तो इसे शीलव्रत कहते हैं। अमर्यादित काम को मर्यादित करते हुए जीवनयापन शीलव्रत का पहला चरण है। दूसरा चरण है- काम का ऊर्ध्वारोहण.. आध्यात्मिक प्रगति के लिए। यह भारतीय संस्कृति के बहुआयामी एवं सबके लिए सुलभ एक दार्शनिक प्रतिपादन का परिचायक है।
4-अगला पक्ष इस भक्ति में हैं... बहुत कर्मों से, बहुत सारी आकांक्षाओं से विरक्ति-दूर रहना। भगवान ने कर्मों से साथ जुड़ी कामनाओं के त्याग को संन्यास कहा है- ''न लोभ करें, न भय । लोकहित के लिए कर्म करें-फल परमात्मा को अर्पित करें''। स्वामी विवेकानन्द कहते थे कि एक साधक के, भक्त के कर्म आत्मकल्याण व जगहित के लिए अर्पित होने चाहिए।
एक कोठरी में बंद होकर भी सारे विश्व को प्रचण्ड झंझावात से आंदोलन किया जा सकता है।
7-क्या अर्थ है 'मोते संत अधिक करि लेखा '?-
03 FACTS;-
1-नवधा भक्ति में सातवीं है- जगतभर को समभाव से परमात्म में ओत-प्रोत मानना और संतों को ईश्वर से भी अधिक करके मान्यता देना।यही बात भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कही है;-
''जो मुझे सर्वत्र संव्याप्त देखता है-सबको मुझमें देखता है उसके लिए मैं अदृश्य नहीं हूँ-नष्ट नहीं हूँ, न वह मेरे लिए अदृश्य है- (नष्ट नहीं होता)।''
2-सोना एक धातु है। उससे बने विभिन्न आभूषणों में अँगूठी-कंगन-बाजूबंद को हम अलग-अलग रूप में देखते हैं, किंतु सुनार को आभूषणों में सोना ही दिखाई देता है। भक्त भी सभी को प्रभु में एवं प्रभु को सभी में देखता है।वह किस का अहित करे-नुकसान पहुँचाए सोच ही नहीं पाता। हमें भक्ति के इस स्वरूप को इसी रूप में समझना चाहिए।
3-इस भक्ति के दूसरे प्रसंग में भगवान कहते हैं-'मुझसे अधिक मेरे भक्तों को मानना'। गोस्वामी जी ने कहा है- ''जो तप-जप-योग से संभव नहीं है वह भक्ति से संभव है।'' चाहे हम भक्त प्रहलाद की कथा में देखें-चाहे मीरा- के प्रसंगों में, भक्त की महिमा ही चारों ओर झलकती दिखाई देती है।सर्वस्व का समर्पण कर देने वाले भक्त की भगवान रक्षा करते हैं एवं सदा उनके साथ रहते हैं।
8-क्या अर्थ है 'सपनेहु नहिं देखहिं परदोषा ' ?-
04 FACTS;-
1-आठवीं भक्ति है- (यथा लाभ संतोषा। सपनेहु नहिं देखहिं परदोषा) जो कुछ मिल जाय उसी में संतोष, स्वप्न में भी पराये दोषों को न देखना। कबीरदास जी ने कहा है- ‘साईं इतना दीजिये जामे कुटुम्ब समाय। मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाय।’ अथार्त जिन्हें वैभव का संरक्षक होकर रहना पड़े , वे भी निजी जीवन में जनक की तरह परिश्रमी एवं मितव्ययी किसान जैसी रीति-नीति अपनाये।
2-चाणक्य एक चक्रवर्ती शासक के प्रधानमंत्री और विश्व-विद्यालय के सूत्र-संचालक थे। फिर भी इस अमानत में से अपने निजी प्रयोजन के लिए मात्र सूखी रोटियाँ ही उपलब्ध करते
थे। गोस्वामी जी के इस भक्ति के प्रतिपादन के दूसरे भाग में सपने में भी दूसरों का दोष न देखने की बात जो कही गयी है-वह आत्मिक प्रगति की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है। यह मानवी स्वभाव है कि सामान्यतया जीवन व्यापार में असफलता का दोष मनुष्य दूसरों पर मढ़ देता है।
3-बहिर्मुखी दृष्टि होने के कारण दूसरों के दोष अधिक दिखाई देते हैं, अपने आपको निर्दोष मान बैठते हैं। दूसरों के दोषों का चिन्तन करते-करते हमारा अंतःकरण भी दूषित होता चला जाता है।यह संदेश हम सबके लिए है। श्रीरामकृष्ण कहा करते थे- ''एक-दूसरे के गुणों को देखें-दोषों को नहीं, क्योंकि दोष-गुण तो हर मनुष्य में होते हैं। यही दृष्टि हर भक्त की होनी चाहिए।''
4-एक प्रसंग है-श्यामाचरण लाहिड़ी के जीवन का। वे हिमालय में महावतार बाबा के दर्शन कर लौटे। इलाहाबाद कुंभ में स्नान हेतु आए। वहाँ देखा गांजा–सुलफा पीने वाले साधुओं को, उनकी लोकसेवा के स्थान पर अधिक पाने की कामना को। सोचने लगे ये तो इस लोक से भी गए-परलोक से भी। विचार आया-मेरा बस चले तो इन दुष्टों को मार डालूँ। तभी एक दृश्य दिखाई पड़ा-एक सुलफा पी रहे साधु के पैर उनके गुरुदेव महावतार बाबा स्वयं दवा रहे हैं। आँखें मलीं-दृश्य वही था-उनके ही गुरु थे। थोड़ी देर में दृश्य बदला गया। घर पहुँचे-पूजा में उपासना स्थली पर महावतार बाबा प्रकट हुए-सूक्ष्मशरीर से संकेत किया कि-आत्मविकास करना है, तो दूसरों को सुधारों, अपने प्रगतिपथ को अवरुद्ध क्यों करते हो।”
9-क्या अर्थ है 'सरल सब सन छल हीना ' ?-
04 FACTS;-
1-नवधाभक्ति में नवीं भक्ति है- (नवम सरल सब सन छल हीना। मम भरोस हिय दरष न दीना।) 'सरलता'-सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में परमात्मा का भरोसा एवं किसी भी स्थिति में हर्ष व दैन्य का भाव न होना। भगवान इस अंतिम भक्ति प्रकरण में सर्वाधिक जोर देते हैं-'सरल व निष्कपट होने पर'।ऐसा वही हो पाता है जिसकी भावनाएँ ईश्वरोन्मुख हों-कामनाएँ न के बराबर हों।
2-ईश्वर भक्ति के माध्यम से मिलता ही उसे है, जो बुद्धि के सारे मानदण्डों, कुचक्रों से भरे षड्यंत्रों से उबर चुका है। बुद्धि से प्रज्ञा के धरातल पर पहुँच गया है।यदि क्षुद्र लोगों की तरह
गुरु-शिष्य का ढोंग बना ,अपनी कामनापूर्ति की माँग रखी और प्रेम को लाभदायक धंधे के रूप में मछली पकड़ने का जाल बनाया तो निराशा और शिकायतों भरा मस्तिष्क लेकर ही.. खाली हाथ लौटना पड़ेगा।
3-दिव्य तत्व में आखिर इतनी अक्ल होती है कि मनुष्य की स्वार्थपरता और प्रेम भावना की वस्तुस्थिति का अंतर समझ सके।वस्तुतः जब हृदय निष्कपट बच्चों की तरह सरल हो जाता है, तो उसमें वह चुम्बकत्व पैदा होता है, जो परमात्मा को स्वयं आकृष्ट कर सके।
इस भक्ति के दूसरे प्रसंग ‘मम भरोस’ की जहाँ चर्चा की गयी है-वहाँ गीता का वह वाक्य ठीक लगता है जिसमें कहा गया है- ''मेरे से युक्त-मेरे में लीन भक्तों की जिम्मेदारी मैं वहन करता हूँ।''
4-हमें इतना विश्वास होना चाहिए कि प्रभु ही हमारे रक्षक हैं। हमें उन पर पूरा भरोसा है। सफलता है तो प्रभु की, हमारी नहीं। हमें हर्षोन्मत्त हो श्रेय स्वयं को नहीं प्रभु को देना चाहिए। दैन्यभाव भी नहीं रखना चाहिए। जो भगवान का अपना है-वह किसी से डरेगा क्यों। आत्म-अवमानना का भाव क्यों कर रखेगा। भक्त दुख-सुख से परे हो जाते हैं, जब भगवान
पर भरोसा दृढ़ होता है।सच्चा भक्त वही है जो हर परिस्थिति में, सुख-दुख में भी उनका ही होकर रहे। बच्चा गिरकर माँ की गोद में ही शान्ति पाता है। सच्चे भक्त को भगवान की गोद में शिशुवत रहने का अभ्यास पालना चाहिए। इसी में दूसरे चरण की व्याख्या हो जाती है।
NOTE;-
नवधा भक्ति का प्रसंग शबरी को सुनाते हुए अंत में भगवान श्रीराम कहते हैं-''नवमहँ जिनके एकौ होई। नारी पुरुष सचराचर कोई।''इन नौ में से एक भी जिनके पास होती है, वह स्त्री पुरुष, जड़-चेतना कोई भी हो तर जाता है। नवधा भक्ति में से हम एक भी अपने जीवन में उतर लें, तो हमारे जीवन को कुसंस्कारों से, प्रारब्ध कर्मों के अंतःकरण से मुक्त होने में कोई देरी नहीं लगती। भक्ति ही कलियुग में साधने योग्य है। उसमें यदि नवधा भक्ति का सूत्र भी हमारे जीवन में उतर जाय तो हमारा कल्याण हो जाएगा।
....SHIVOHAM....