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मुक्ति तथा परम आनन्द का क्या अर्थ है?कितने प्रकार की मुक्ति होती है ?


मुक्ति का क्या अर्थ है ?-

05 FACTS;-

1-मुक्ति कर्म के बन्धन से मोक्ष पाने की स्थिति है। यह स्थिति जीवन में ही प्राप्त हो सकती है।मोक्ष का अर्थ जन्म और मरण के चक्र से मुक्त होने अलावा सर्वशक्तिमान बन जाना है। सनातन धर्म में मोक्ष तक पहुंचने के सैंकड़ों मार्ग बताए गए हैं। गीता में उन मार्गों को 4 मार्गों में समेटा है। ये 4 मार्ग हैं-

1-1-कर्मयोग

1-2-सांख्ययोग

1-3-भक्तियोग

1-4-ज्ञानयोग

2-मोक्ष का अर्थ होता है मुक्ति। अधिकतर लोग समझते हैं कि मोक्ष का अर्थ जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति। बहुत से लोग मानते हैं कि श्राद्ध या तर्पण करने से हमारे पूर्वजों को मोक्ष मिल जाएगा। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि अच्छे कर्म करने से मिलता है मोक्ष। कुछ लोग कहते हैं कि मोक्ष के बाद व्यक्ति शून्य हो जाता है, अंधकार में लीन हो जाता है या संसार से अलग हो जाता है।

3-हिन्दू धर्म अनुसार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से मोक्ष प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का अंतिम लक्ष्य माना गया है।मुक्ति का अर्थ होगा बन्धनों से छूटना । विचार करना है कि कौन से बन्धन हैं जिनसे हम बॅंधे हैं, शरीर को रस्सों से तो किसी ने जकड़ नहीं रखा है फिर मुक्ति किससे ?मुक्ति वस्तुत: अपने दोष-दुर्गुणों से, स्वार्थ-संकीर्णता से, क्रोध-अंहकार से, लोभ-मोह से, पाप-अविवेक से प्राप्त करनी चाहिए । यह अंतरंग की दुर्बलता ही सबसे बड़ा बन्धन है ।स्वर्ग और मुक्ति अपने दृष्टिकोण को परिष्कृत करके हम इसी जीवन में प्राप्त कर सकते हैं, इसके लिए मृत्यु काल तक की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं ।

4-मोक्ष की धारणा वैदिक ऋषियों से आई है। भगवान बुद्ध को निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए अपना पूरा जीवन साधना में बिताना पड़ा। महावीर को कैवल्य (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या करनी पड़ी और ऋषियों को समाधि (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए योग और ध्यान की कठिन साधनाओं को पार करना पड़ता है। मोक्ष मिलना आसान नहीं।

5-दुनिया में सब कुछ आसानी से मिल सकता है, लेकिन खुद को पाना आसान नहीं। खुद को पाने का मतलब है कि सभी तरह के बंधनों से मुक्ति। बंधन क्या है? यह समझना जरूरी है। भारतीय धर्मों को छोड़कर विदेशी धर्मों में मोक्ष की धारणा भिन्न है। यह आम धारणा है कि मरकर मिल जाती है मुक्ति ;परन्तु मौत के बाद नहीं मिलता है मोक्ष ...। मरकर इस जन्म के कष्टों से मिल जाती होगी मुक्ति, लेकिन फिर से जन्म लेकर व्यक्ति को नए सांसारिक चक्र में पड़ना होता है। प्रभु की कृपा से व्यक्ति के कष्ट दूर हो सकते हैं, दूसरा जन्म मिल सकता है, लेकिन मोक्ष नहीं। मोक्ष के लिए व्यक्ति को खुद ही प्रयास करने होते हैं। प्रभु उन प्रयासों में सहयोग कर सकते हैं।यदि जीवन की सार्थकता के लिए जो करना है उसे समझ और अपना लिया जाय तो फिर वह स्थिति बन जायेगी जिसे ईश्वर की समीपता कहते हैं। मोक्ष इसी का नाम है।

मोक्ष क्या है ?-

02 FACTS;-

1-मोक्ष एक ऐसी दशा है जिसे मनोदशा नहीं कह सकते। इस दशा में न मृत्यु का भय होता है न संसार की कोई चिंता। सिर्फ परम आनंद। परम होश। परम शक्तिशाली होने का अनुभव। मोक्ष समयातीत है जिसे समाधि कहा जाता है। 2-मोक्ष या समाधि का अर्थ अणु-परमाणुओं से मुक्त साक्षीत्व पुरुष हो जाना। तटस्थ या स्थितप्रज्ञ अर्थात परम स्थिर, परम जाग्रत हो जाना। ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय का भेद मिट जाना। इसी में परम शक्तिशाली होने का 'बोध' छुपा है, जहां न भूख है न प्यास, न सुख है, न दुख, न अंधकार है ,न प्रकाश, न जन्म है, न मरण और न किसी का प्रभाव। हर तरह के बंधन से मुक्ति। परम स्वतंत्रता ,अतिमानव या सुपरमैन।

3-ध्यान को छोड़कर संसार में अभी तक ऐसा कोई मार्ग नहीं खोजा गया जिससे समाधि या मोक्ष पाया जा सके। लोग भक्ति की बात जरूर करते हैं लेकिन भक्ति भी ध्यान का एक प्रकार है।परन्तु सवाल यह उठता है कि 'कौन सी' और 'किसकी' भक्ति? यह खोजना जरूरी है। गीता में जिन मार्गो की चर्चा की गई है वह सभी मार्ग साक्षित्व ध्यान तक ले जाकर छोड़ देते हैं।और योग के सभी आसन ध्यान लगाने के लिए ही होते हैं।

4-शिवगीता केअनुसार;-

''जब अन्तरात्मा का समाधान हो जाता है, शान्ति और समता रहती है तो अपने भीतर आत्म-ज्योति का दर्शन होता है। इसी अन्त स्थिति को मुक्ति कहते हैं।''

5-मरने के बाद स्वर्ग या मुक्ति का लाभ मिल सकता है। ऐसा सोचना व्यर्थ है। यह उपलब्धियाँ इसी जीवन की है। इनका आनन्द इसी जीवन में- आज ही मिलना चाहिए। यह सब कुछ दृष्टिकोण के- आन्तरिक स्तर के परिवर्तन पर निर्भर है। मुक्ति जीवित रहने पर ही मिलती है।आत्मिक प्रबल पुरुषार्थ की सुखद उपलब्धि इसी जीवन में मिलने की बात सोचनी चाहिए। जीवित रहते ही यह स्थिति मिलती है इसलिए उसे 'जीवन्मुक्तिः' भी कहा जाता है। मुक्ति जीवन मुक्ति का ही संक्षेप है। निष्कृष्टता से - ओछेपन से छुटकारा पाने वाला कोई भी व्यक्ति इसी जीवन में मुक्ति का आनन्द ले सकता है

6-महोपनिषद के अनुसार;-

''जो उद्वेग और आनन्द से रहित, शोक अथवा हर्षोत्साह से ममत्व एवं स्वच्छ बुद्धि वाला है, वह जीवन मुक्त है।''

7-मोक्ष का अर्थ सिर्फ जन्म और मरण के बंधन से मुक्त हो जाना ही नहीं है। बहुत से भूत-प्रेत और ‍देव आत्माएं हैं जो हजारों या सैकड़ों वर्षों तक जन्म नहीं लेती लेकिन उनमें वह सभी वृत्तियां विद्यमान रहती है जो मानव में होती है। भूख- प्यास, सत्य -असत्य, धर्म -अधर्म, न्याय- अन्याय आदि। सिद्धि प्राप्त करना या समाधि प्राप्त करना मोक्ष नहीं है।

क्या है मोक्ष या समाधि का अर्थ?-

10 FACTS;- 1-संपूर्ण समाधि का अर्थ है मोक्ष अर्थात प्राणी का जन्म और मरण के चक्र से छूटकर स्वयंभू और आत्मवान हो जाना है। समाधि चित्त की सूक्ष्म अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। जो व्यक्ति समाधि को प्राप्त करता है उसे स्पर्श, रस, गंध, रूप एवं शब्द इन 5 विषयों की इच्छा नहीं रहती तथा उसे भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान तथा सुख-दु:ख आदि किसी की अनुभूति नहीं होती। 2-समाधि से मतलब 'मूर्च्छित हो जाना' माना जाता है। हठयोग के अंतर्गत ऐसे प्रयोग भी हैं जिनमें श्वास क्रिया रुकती है और हृदय की धड़कन घटती है। वैसी दशा में चेतना निश्चेष्ट होकर बहुत समय तक पड़ी रहती है। चेतन और अचेतन को गहरी निद्रा में सुला कर पूर्वाग्रहों एवं पूर्व संस्कारों की उत्तेजना शान्त करना इसका उद्देश्य माना जाता है। ऐसा हर किसी के लिए सरल नहीं है। उसके लिए नाड़ी-शोधन ,चक्र-वेधन ,प्राण- साधना जैसी अनेक कठिन मंजिलें पार करनी पड़ती है। वह विशेष लोगों का विशेष कृत्य है।

3-सर्वसाधारण की समाधि वह है जिसमें जीवन की दिशा-धारा अस्त-व्यस्त न रहने देकर एक सुनिश्चित मार्ग पर प्रवाहित की जाती है। वर्षा का पानी मारा-मारा फिरे तो उससे हानि ही होगी। नदी-नाले के माध्यम से उसके बहने में ही लाभ है। चिन्तन की दिशा निर्धारण हो जाना और आकांक्षाओं एवं विचारणाओं का उत्कृष्टता की दिशा में बहने लगना ही समाधि है।

4-समाधि का अभ्यास होने पर बिखराव भटकाव समाप्त होता है और चिन्तन तथा कर्म का समुचित लाभ मिल सकने की स्थिति बन जाती है, इसलिए आनन्दमय कोश की साधना के प्रथम चरण में समाधि परक प्रयोग किये जाते हैं। यह जागृत समाधि है। इसमें मूर्च्छित होने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वरन् प्रलोभन एवं भय की उत्तेजनाओं को शान्त करना पड़ता है। ऐषणाओं के आवेश ठण्डे पड़ने पर मनुष्य अपना लक्ष्य देख पाता है।

5-जिसमें मन को विक्षेपों से हटाकर यथार्थ में एकाग्र किया जाता है, वह स्थिति समाधि है।स्वप्न में देखे गये पदार्थ मिथ्या होते हैं, जबकि समाधि स्थिति में अनुभूत बातें सत्य होती है तथा उनके द्वारा समाधि के उपरान्त भी वास्तविक लाभ होता है।समाधि की आन्तरिक स्थिरता प्राप्त होने पर साधक का दृष्टिकोण परिष्कृत होता है। वह सकारात्मक और रचनात्मक गुणग्राही चिन्तन पद्धति का अभ्यास करता है। अपने सद्गुणों को बढ़ाता है और दूसरों का सद्गुण प्रधान पक्ष खोजता है।

6-सृष्टि में यों कुरूपता भी विद्यमान् है और मनुष्य में तामसिकता के अंश भी मौजूद है, बदलने और सुधारने के लिए रचनात्मक प्रवृत्ति की

आवश्यकता है।पदार्थों और प्राणियों में पाई जाने वाली श्रेष्ठता के सम्पर्क में आने से शिवत्व की झाँकी मिलती है। इस विश्व के मूल में ब्रह्म सत्ता ही आलोकित है यह समझने वालों को ‘सत्य’ की प्राप्ति होती है। परिष्कृत दृष्टिकोण वालों को 'सत्यं शिवं सुंदरम्' का दर्शन हर घड़ी होता है और सर्वत्र स्वर्ग की उपस्थिति प्रतीत होती है।

7-सन्त इमर्सन कहा करते थे कि 'मुझे नरक में भेज दो मैं अपने लिए वहीं स्वर्ग बना लूँगा।' इस कथन में परिपूर्ण तथ्य भरा पड़ा है। परिष्कृत दृष्टि से समीपवर्ती वातावरण में भी बहुत कुछ सुधारात्मक अनुकूलता उत्पन्न की जा सकती है । स्वर्ग इस दिव्य दर्शन का-उत्कृष्ट चिन्तन का नाम है। उसे कोई स्थान विशेष नहीं माना जाना चाहिए, वह वस्तुतः एक दृष्टिकोण भर है।नरक और स्वर्ग को निकृष्ट ओर उत्कृष्ट चिन्तन की अशुभ एवं शुभ प्रतिक्रिया ही समझा जाना चाहिए।

8-हर व्यक्ति इमर्सन की तरह ही अपने लिए अपने सुखद स्वर्ग का सृजन दृष्टिकोण को परिष्कृत करके सहज ही कर सकता है। समाधि से स्वर्ग की अनुभूति और प्राप्ति होना सुनिश्चित है। इसी का उल्लेख इस प्रकार मिलता है-''वाणी की पवित्रता, कर्मों की पवित्रता, जलात्मक पवित्रता''। जो स्थान या अवस्था इन तीन पवित्रताओं से युक्त हो...वही स्वर्ग है, इसमें संशय नहीं है। मकड़ी अपना जाल आप बुनती और उसी में फँसी रहती है। रेशम के कीड़े भी अपना बंदीगृह आप बनाते हैं। मनुष्य के भव-बन्धन उसी ने अपने हाथों विनिर्मित किये हैं और स्वयं ने ही उन्हें हथकड़ी बेड़ी की तरह धारण किया है।बन्धनों का कितना कष्ट होता है इसे पशु-पक्षी तक जानते हैं।

9-आनन्दमय कोश अन्तरात्मा का उच्चतम स्तर है। उसमें पवित्रता एवं उत्कृष्टता की मात्रा बढ़ने से समाधि, स्वर्ग और मुक्ति का दिव्य रसास्वादन सम्भव होता है। इस ब्रह्मानंद को ही परमानन्द कहा गया है। सच्चिदानन्द प्रभु की उपलब्धि अपने ही अन्तःकरण में इसी आन्तरिक प्रगति के आधार पर सम्भव होती है। आनन्द का वास्तविक स्वरूप यही है। आनन्दमय कोश की साधना से इसी चरम उपलब्धि की दिशा में बढ़ चलना सम्भव होता है।

10-आनन्द प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम इसी आन्तरिक समाधान और दिशा निर्धारण का प्रयत्न करना पड़ता है। समाधि इसी स्थिति का नाम है। आनन्द की उपलब्धि में सर्वप्रथम इसी का प्रयत्न किया जाता है।

क्या है परम आनंद?-

09 FACTS;-

1-मनुष्य को तीन प्रकार की अनुभूतियां होती हैं। एक अनुभूति दुख की है; एक अनुभूति सुख की है; एक अनुभूति आनंद की है। सुख की और दुख की अनुभूतियां बाहर से होती हैं। बाहर हम कुछ चाहते हैं, मिल जाए, सुख होता है। बाहर हम कुछ चाहते हैं, न मिले, दुख होता है।

अप्रिय से मिलना हो जाए, दुख होता है; प्रिय से बिछुड़ना हो जाए, तो दुख होता है।

आनंद की अनुभूति बाहर से नहीं होती।

2-आनंद और सुख में अंतर है। सुख दुख का अभाव है; जहां दुख नहीं है वहां सुख है। दुख सुख का अभाव है; जहां सुख नहीं है वहां दुख है।परन्तु भूल करके भी आनंद को सुख न समझना।आनंद दुख और सुख दोनों का अभाव है; जहां दुख और सुख दोनों नहीं हैं, वैसी चित्तकी परिपूर्ण शांत स्थिति आनंद की स्थिति है। आनंद का अर्थ है– जहां बाहर से कोई भी आंदोलन हमें प्रभावित नहीं कर रहा–न दुख का और न सुख का।

3-सुख भी एक संवेदना है, दुख भी एक संवेदना है। सुख भी एक पीड़ा है, दुख भी एक पीड़ा है। सुख भी हमें बेचैन करता है, दुख भी हमें बेचैन करता है। दोनों अशांतियां हैं। इसे थोड़ा अनुभव करें, सुख भी अशांति है, दुख भी अशांति है। दुख की अशांति अप्रीतिकर है, सुख की अशांति प्रीतिकर है। लेकिन दोनों उद्विग्नताएं हैं, दोनों चित्त की उद्विग्न, उत्तेजित अवस्थाएं हैं। सुख में भी आप उत्तेजित हो जाते हैं।अगर आकस्मिक बहुत सुख हो जाए तो मृत्यु हो सकती है, इतनी उत्तेजना सुख दे सकता है।

4-दुख भी उत्तेजना है, सुख भी उत्तेजना है। ''अनुत्तेजना ''आनंद है। जहां कोई उत्तेजना नहीं, जहां चेतन पर बाहर का कोई कंपन, प्रभाव नहीं कर रहा, जहां चेतन बाहर से बिल्कुल पृथक और अपने में विराजमान है। उत्तेजना का अर्थ है– अपने से बाहर संबंधित होना, अपने से बाहर विराजमान होना।जैसे कि झील पर लहरें उठती हैं, लहरें झील में नहीं उठती हैं, लहरें हवाओं में उठती हैं और झील में कंपित होती हैं।

5-लहरों के उठने का अर्थ है– झील अपने से बाहर किसी चीज से प्रभावित हो रही है। अगर झील अपने से बाहर की किसी चीज से प्रभावित न हो तो क्या हो? तो झील परिपूर्ण शांत होगी, उसमें कोई लहरें नहीं होंगी। हमारा चित्त बाहर से प्रभावित होता है तो लहरें उठती हैं सुख की, और दुख की और जब हमारा चित्त बाहर से अप्रभावित होता है…नहीं होता। तब जो स्थिति है उस स्थिति का नाम आनंद है। सुख और दुख अनुभूतियां हैं बाहर से आई हुईं, आनंद वह अनुभूति है जब बाहर से कुछ भी नहीं आता। आनंद बाहर का अनुभव न होकर अपना अनुभव है।

6-इसलिए सुख और दुख छीने जा सकते हैं, क्योंकि वे बाहर से प्रभावित हैं, अगर बाहर से हटा लिए जाएंगे तो सुख और दुख बदल जाएंगे। जो आदमी सुखी था, किसी कारण से था; कारण हट जाएगा, दुखी हो जाएगा। जो आदमी दुखी था, किसी कारण से था; कारण हट जाएगा, सुखी हो जाएगा। आनंद निःकारण है, इसलिए आनंद को छीना नहीं जा सकता। आपका सुख छीना जा सकता है, आपके दुख छीने जा सकते हैं, आपका आनंद नहीं छीना जा सकता। जो भी बाहर पर निर्भर है वह छीना जा सकता है। इसलिए सुख भी क्षण स्थायी है, दुख भी क्षण स्थायी है, आनंद नित्य है।

7-सुख भी परतंत्रता है, दुख भी परतंत्रता है, क्योंकि दूसरे का उसमें हाथ है। आनदं स्वतंत्रता है। दुख भी बंधन है, सुख भी बंधन है, ''आनंद मुक्ति है''।तो आनंद मनुष्य का अपने चैतन्य

में स्थित होने का नाम है। सुख मिलता है, दुख मिलता है, आनंद मिलता नहीं है। आनंद मौजूद है, केवल जानना होता है। सुख को पाना होता है, दुख को पाना होता है, आनंद को पाना नहीं होता, केवल आविष्कार करना होता है । वह मौजूद है ...क्योंकि जो चीज पाई जाएगी वह खो सकती है।परन्तु 'आनंद ' खो नहीं सकता, इसलिए वह पाया ही नहीं जा सकता। वह मौजूद है, केवल जाना जाता है।

8-तो आनंद के संबंध में दो स्थितियां हैं – आनंद के प्रति अज्ञान और आनंद के प्रति ज्ञान। आनंद की और निरानंद की स्थितियां नहीं हैं, यानी मनुष्य ऐसी स्थिति में नहीं होता कि एक आनंद की स्थिति है और एक निरानंद की। वह दो स्थितियों में होता है– आनंद के प्रति ज्ञान की स्थिति, आनंद के प्रति अज्ञान की स्थिति। आनंद तो मौजूद है।महावीर को, बुद्ध को,

क्राइस्ट को जो आनंद मिला वह आपमें भी मौजूद है। आपमें और उनमें आनंद की दृष्टि से भेद नहीं है, भेद ज्ञान की दृष्टि से है। आनंद की दृष्टि से कोई भेद नहीं है।

9-महावीर को जो आनंद मिला वह आपमें भी उतना ही मौजूद है, जरा कण भर भी कम नहीं है। भेद ये है कि... वे आनंद को देख रहे हैं, आप आनंद को नहीं देख रहे। वे आनंद को जान रहे, आप आनंद को नहीं जान रहे हैं। भेद ज्ञान का , अवस्था का है । ज्ञान भेद है, स्थिति भेद नहीं है। फिर हमें क्यों उसका बोध नहीं हो रहा है जिसका महावीर को हो रहा है.. वास्तव में ,जो आदमी सुख-दुख का बोध कर रहा है वह आनंद का बोध नहीं कर सकेगा। क्योंकि सुख और दुख बाहर हैं, जो उनमें उलझा है वह बाहर उलझा है, उसके भीतर जाने की उसे फुर्सत नहीं है।

आनंद में कैसे पहुंचे ?-

08 FACTS;-

1-सुख-दुख का उलझाव मनुष्य को अपने से बाहर किए है। तो जिसको भीतर जाना हो, उसे सुख-दुख के उलझाव से पीछे सरकना होगा। स्मरणीय है, दुख से तो कोई भी हटना चाहता है, समस्त प्राणी-जगत हटना चाहता है, वह साधना नहीं है ।वह सामान्य चित्त का भाव है। जो लेकिन जो सुख से हटने में लग जाएगा वह आनंद पर पहुंच जाएगा। दुख से जो हटना चाहता है उसकी आकांक्षा सुख की है, जो सुख से हट रहा है उसकी आकांक्षा आनंद की है।

2-साधना का अर्थ है– सुख से हटना। साधना का अर्थ है– सुख-त्याग। त्याग का मतलब– सुख की जो हमारी चिंतना है, सुख को पाने की हमारी जो तीव्र आकांक्षा है, सुख के प्रति जो हम अतिशय उत्सुक हैं, इस उत्सुकता में थोड़ा सा 'असहयोग'।जब सुख आपको पीड़ित करने

लगे,खींचने लगे, तब असहयोग करें इस वृत्त से। और जाने कि ''ठीक है, सुख की आकांक्षा पैदा हो रही, मैं केवल जानूंगा, इस आकांक्षा से आंदोलित नहीं होऊंगा''।

3-सुख की आकांक्षा को जानना और सुख की आकांक्षा से आंदोलित हो जाना, दो अलग-अलग बातें हैं। जाने कि मेरे भीतर सुख की कामना पैदा होती है, लेकिन मैं इससे आंदोलित नहीं होऊंगा। मैं कोशिश करूंगा, कांशस एफर्ट करूंगा, सचेतन, सजग प्रयास करूंगा कि मैं इससे प्रभावित न होऊं, अप्रभावित होने का प्रयत्न करूंगा। इस माध्यम से अगर धीरे-धीरे सुख की आकांक्षा से कोई अप्रभावित होने का विचार करे,तो सुख से मुक्त हो ही जाएगा। जो सुख से मुक्त हुआ, वह दुख से मुक्त हो गया। सुख की आकांक्षा ही दुख देने का कारण है।

4-जो दुख से मुक्त होना चाहता है वह दुख से कभी मुक्त नहीं होगा, क्योंकि वह सुख की आकांक्षा करता है। जो सुख की आकांक्षा करता है उसके पीछे दुख मौजूद हो जाता है। क्योंकि जिनसे सुख मिलता है वही दुख देने के कारण बन जाते हैं। जो सुख से पीछे हटेगा, सुख से असहयोग करेगा, सुख के प्रति अनासक्ति के भाव की उदभावना करेगा, वह सुख से तो मुक्त होगा, तत्क्षण दुख से भी मुक्त हो जाएगा।

5-दुनिया में दो ही तरह के लोग हैं। दुख से बचने की चेष्टा करने वाले लोग, वे कभी दुख से मुक्त नहीं होते हैं। सुख से बचने की चेष्टा करने वाले लोग.. दुख से भी मुक्त हो जाते हैं और सुख से भी मुक्त हो जाते हैं। तब जो शेष रह जाता है, व'ह जो दुख और सुख दोनों के छूटने से शेष रह जाता है,' वह आनंद है। जब दुख भी नहीं है, सुख भी नहीं है, तो फिर कौन शेष रहेगा?

6-तब वह शेष रह जाएगा जो दुख को जानता था और सुख को जानता था।वह ज्ञात है, वह ज्ञान है, वह ज्ञाता है। वह ज्ञान की शक्ति मात्र शेष रह जाएगी। वही ज्ञान की शक्ति आनंद है। भेद आनंद का नहीं, ज्ञान का है।हम सतत आंतरिक की तरफ चलें, बाहर के प्रभावों से निष्प्रभाव होने की तरफ चलें।बाहर का प्रभाव हमारा बंधन है। हम चौबीस घंटे बाहर से प्रभावित हो रहे हैं।

7-आनन्द जीवात्मा का लक्ष्य है। उसे प्यास इसी की है। कस्तूरी का हिरन जिस प्रकार सुगन्ध की खोज में चारों ओर मारा-मारा फिरता है, उसी प्रकार जीव आनन्द की खोज में विविध कल्पनाएँ करता- विभिन्न योजनाएँ बनाता और अगणित प्रयत्न करता है, पर हर सफलता अपर्याप्त ही बनी रहती है। हिरन की नाभि में कस्तूरी होती है और आनन्द का अक्षय भण्डार अन्तः करण की गहरी परत आनन्दमय कोश में भरा रहता है। जो वस्तु जहाँ है उसे वहाँ तलाश न करके अन्यत्र ढूँढ़ा जाय तो उससे भटकाव और थकान के अतिरिक्त मिलता कुछ नहीं।

8-आनन्दमय कोश में प्रवेश करके ही जीवात्मा को परम तृप्ति का सन्तोष मिल सकता है। यही जीवन का लक्ष्य है। इसी की आशा पर प्राणी जीवित है। इसी के लिए वह शरीर बन्धन में बँधने को तैयार हुआ है।

आनन्द की आकांक्षा करने वाले हर व्यक्ति को आनन्दमय कोश की गहराई में उत्तर कर उस उद्गम स्त्रोत तक पहुँचना पड़ता है जहाँ से दिव्य आनन्द की प्रकाश किरणें फूटती है।

क्या है आनन्दमय कोश ?-

05 FACTS;-

1-आत्मा का चौथा आवरण आनन्दमय कोश है। इस अन्तिम द्वार के खुलते ही आत्म-दर्शन का अलौकिक आनन्द अनुमय होने लगता है। शरीर को इन्द्रिय सुखों में और मन को तृष्णा एवं अहंकार की पूर्ति में आनन्द आता है। इनका परिणाम एवं स्तर जितना ऊँचा होगा। सुख भी उतना ही अधिक मिलेगा। पर आत्मा को इन दोनों बातों से कोई सन्तोष नहीं होता उसके आनन्द का केन्द्र तो प्रेम ही है । प्रेम तत्त्व का जिसे जितना रसास्वादन उपलब्ध हुआ, उसकी आत्मा उतनी ही आनन्द विभोर रहने लगती हैं। माता और बच्चे के बीच प्रेम की जो निर्झर बहती रहती हैं। उसके आनन्द में माता विभोर हो जाती है और अपने को सर्व सुख सम्पन्न अनुभव करती है।

2-प्रेम इस लोक का अमृत है। थोड़ी भी चेतना जिनमें जागृत हो चुकी हैं ऐसे पशु-पक्षी तक प्रेम का रस जानते हैं। अध्यात्म विज्ञान में मोह की निन्दा और प्रेम की प्रशंसा की गई हैं। मोह में स्वार्थ और लोभ छिपा रहता हैं। प्रेम में त्याग और उदारता की भावना रहती हैं। मोह में पतन हो सकता हैं पर त्याग पूर्ण निस्वार्थ प्रेम से तो आत्मा का उत्थान एवं विकास ही सम्भव हैं।

3-इस क्लेश पूर्ण संसार में यदि कोई रस हैं, सार है, तथ्य है तो वह केवल प्रेम में ही हैं, जिसके हृदय में प्रेम-भावनाएँ उफनती रहती हैं वही करुणा, दया, सेवा और उदारता का मूर्तिमान् देवता हैं। जिसका हृदय निष्ठुर हैं, किसी को सुखी बनाने के लिए जिसे कुछ त्याग करने की इच्छा नहीं होती उस निष्ठुर व्यक्ति को निश्चय ही पशु कह सकते हैं। मानवता को कलंकित करने वाले ऐसे व्याघ्र अपना कोई स्वार्थ भले ही कर लें, आत्मिक

दृष्टि से पतित ही गिने जाएँगे ।और उनकी दुर्गति भी निश्चित हैं। ऐसे लोगों का अशान्त अन्तःकरण जीवन में चैन तो क्षण भर के लिए भी कभी पा नहीं सकता।

4-आनन्दमय कोश जीवात्मा पर चढ़ा अन्तिम आवरण है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय के उपरान्त इसी एक की साधना करनी शेष रह जाती है। इस आवरण के हटते की आत्मा को परमात्मा रूप में परिष्कृत होने का अवसर मिल जाता है। तब उसकी स्थिति वैसी हो जाती है जैसी कि वेदान्त में ‘अयमात्मा ब्रह्म’ तत्त्व मसि सोहमस्मि, सच्चिदानंदोऽहम्, शिवोऽहम् आदि उद्घोषों के अंतर्गत प्रतिपादित की गई है।

5-आनन्दमय कोश की स्थिति भिन्न है उसमें जीव और ब्रह्म के मिलने का सम्पर्क साधने वाले अति उच्चस्तरीय सूत्र हैं। आनन्दमय कोश की तीन् उपलब्धि है-समाधि स्वर्ग और मोक्ष।मोक्ष अर्थात् बन्धन मुक्ति।शरीर क्षेत्र में ईश्वर का निवास कहाँ है ? इसका उत्तर साधारणतया समूची सत्ता में कहा जा सकता है, पर यदि उसका अन्य कोशों जैसा प्रवेश द्वार या केन्द्र संस्थान पूछना हो तो उसे ब्रह्मरंध्र में अवस्थित सहस्रार चक्र कहना पड़ेगा।

क्या है ब्रह्मरंध्र ?-

06 FACTS;-

1-ब्रह्मरंध्र मस्तिष्क का मध्य भाग है। परमाणु के मध्य भाग को ‘नाभिक’ या ‘न्यूक्लियस’ कहते हैं। अणु सत्ता का उद्गम केन्द्र वही है। शेष भाग में तो उसका सहायक संरक्षक भरा पड़ा है। जीवाणु से लेकर ग्रह-नक्षत्रों तक में यह न्यूक्लियस ही सारे भाग और शक्ति स्रोत होता है। मस्तिष्कीय राश्ट्र की राजधानी इस मध्य केन्द्र ब्रह्मरंध्र में है। ब्रह्मसत्ता का अवतरण इसी स्थान पर होता है।

2-मस्तिष्कीय संचार सूत्रों का भी एक मध्य केन्द्र है। वही से अगणित धारा प्रवाह उठते हैं और उनके द्वारा अनेक विद्युत उन्मेष सक्रिय होते देखे जाते हैं। उन्हीं के द्वारा विभिन्न महत्त्वपूर्ण मस्तिष्कीय केन्द्रों को उत्तेजना मिलती है। सक्रियता इसी उत्तेजना से उत्पन्न

होती है।ब्रह्मरंध्र की रासायनिक संरचना को देखते हुए उसे कमल पुष्प की आकृति से मिलता-जुलता देखा जाता है। शरीर शास्त्र के अनुसार भी उस स्थान पर एक अणु गुच्छक पाया जाता है। सूक्ष्म दृष्टि से -सूक्ष्म शरीर में उसकी स्थिति और भी अधिक स्पष्ट होती है। वहाँ कमल पुष्प की आकृति में प्रायः हजार या हजारों पंखुड़ियाँ बिखरी दीखती है, साथ ही प्रकाश-ज्योति का आभास भी होता है।

3-इस स्थान में उठने वाली भाव सम्वेदना को कमल पुष्प और ज्ञान प्रखरता को प्रकाश-ज्योति नाम दिया गया है। इस स्थिति का चित्रण कमल पुष्प के दीपक में जलने वाली प्रकाश-ज्योति के रूप में किया गया है। इस ब्राह्मी स्थिति की प्रतीक प्रतिमा अखण्ड-ज्योति के रूप में की गई है। निरन्तर जलने वाला घृत दीप इस ब्रह्मरंध्र का ब्रह्मलोक का प्रतीक प्रतिनिधि मानकर पूजा उपचार में प्रतिष्ठापित किया जाता है।

4-देव सम्प्रदायों ने इस केन्द्र का चित्रण अपने-अपने ढंग से किया है...

4-1-विष्णु भक्तों ने ब्रह्मलोक व्याख्या में विस्तृत क्षीर सागर-सहस्र फन वाले शेषनाग की शैया और उस पर भगवान विष्णु के शयन का वर्णन है। क्षीर सागर मस्तिष्क में विद्यमान् मज्जा पदार्थ -'ग्रेमैटर' है। सहस्रार कमल 'सहस्रार चक्र 'है। उस पर अवस्थित ब्रह्म चेतना भगवान विष्णु है। साधारणतया यह सारी ब्रह्म चेतना भगवान विष्णु है। साधारणतया यह सारा क्षेत्र प्रसुप्त स्थिति में निष्क्रिय पड़ा रहता है। इसलिए विष्णु भगवान सोते हुए दर्शायें गये हैं

4-2-शिव भक्तों ने इसी ब्रह्मरंध्र को शिवलोक कहा है। मानसरोवर ,मध्य में कैलाश, उस पर समाधिस्थ शिव,गले में महासर्प ,..यह चित्रण में प्रकारान्तर से विष्णु व्याख्या के समतुल्य ही है। ग्रेमैटर- मानसरोवर, सहस्रार-कैलाश ,प्रकाश ज्योति- शिव,सिर पर चन्द्र-प्रकाश किरणें,गले में सर्प-शेषनाग, शिव के मस्तिष्क से गंगा का उद्गम -अथार्त ब्रह्मज्ञान का अवतरण । विष्णु के चरणों में से गंगा निकलती है और शिव के मस्तक में से। दोनों ही स्थिति में उस केन्द्र को दिव्य ज्ञान का गोमुख कहा जा सकता है।

4-3-गुरु भक्तों ने सहस्रार कमल पर गुरु तत्त्व की स्थापना करके अपनी आवश्यकता के अनुरूप प्रतीक- प्रतिष्ठा की है। शक्ति उपासक इसी सहस्रार कमल को अपनी-अपनी इष्ट देवियों के साथ जोड़ते हैं।माँ लक्ष्मी कमलासन पर विराजमान् है। ब्रह्म जी की भाँति ही माँ गायत्री भी कमलासन पर विराजती है।माँ सरस्वती,माँ दुर्गा आदि अन्य देवियों में से किसी के हाथ में ,किसी के गले में कमल पुष्प जोड़ने की चेष्टा की गई है।

5-सहस्रार चक्र कनपटियों की सीध में भ्रूमध्य भाग के पीछे मस्तिष्क के मध्य केन्द्र में माना गया है। तन्त्र ग्रन्थों में इसे ‘महाविवर’ की संज्ञा दी गई है। यही लययोग का ब्रह्मरंध्र है। निराकार उपासना में इसे दशम द्वार माना गया है। नौ द्वार तो इन्द्रिय छिद्र हैं ही। उन्हें दो नथुने, दो कान, दो आँखें , एक मुख , दो मल-मूत्र छिद्र ..इस प्रकार उनकी गणना सर्वविदित है।

6-दसवाँ द्वार यह ब्रह्मरंध्र है, इसी झरोखे में होकर आत्मा और परमात्मा की मिलन झाँकी -प्रणय केलि एवं समर्पण पाणिग्रहण का सरस शृंगारिक वर्णन मिलता है। योगी लोग इसी केन्द्र में प्राण को अवस्थित करके ब्रह्माण्ड का विचरण एवं नियन्त्रण करने जैसी सफलताएँ प्राप्त करते हैं। शरीर त्याग के समय प्राण इस दशम द्वार से निकलें तो प्राणी की पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त हुआ समझा जाता है।

NOTE;-

आनन्द का स्वरूप, आधार और सर्वविदित हो जाने पर मान्यता स्थिर होती है। 'क्या करने से क्या मिलता है' ...यह निश्चित हो जाना ही भ्रान्ति का निवारण है वस्तु स्थिति का ज्ञान ही तत्त्वज्ञान है। आत्मिक समस्याएँ ही सबसे बड़ी समस्याएँ है। उन्हीं के समाधान से वास्तविक समाधान होता है। अन्तरात्मा की उलझनों को सुलझा देने वाले ज्ञान को ही ब्रह्मज्ञान तत्त्वज्ञान, आत्म ज्ञान, सद्ज्ञान आदि के नाम से पुकारते हैं।

क्या है मुक्ति के प्रकार?-

02 FACTS;-

1-मोक्ष के सम्बन्ध में विचित्र मान्यताएँ प्रचलित है। कोई उसे जन्म-मरण से आवागमन से छुटकारा बताता है; तो कोई संसार को छोड़कर

किसी अन्य लोक में चले जाने की कल्पना करता है।मोक्ष का तात्पर्य है- ''आत्मसत्ता को भौतिक न मानकर विशुद्ध चेतन तत्त्व के रूप में अनुभव करने लगना। सुखानुभूति, प्रसन्नता एवं सफलता भौतिक साधनों से मिलने के स्थान पर आन्तरिक परिष्कार के आधार पर उपलब्ध होने के तथ्य पर विश्वास करना।'' पशु-प्रवृत्तियों की कुसंस्कारिता से छूटकर मानवी दैवी संस्कृति को व्यवहार में उतारना ...उत्कृष्टता ही ईश्वर है।

2-ईश्वर की समीपता अथवा प्राप्ति का मतलब है अपनी आकांक्षाओं, चेष्टाओं, दिशा-धाराओं को उत्कृष्टता के साथ अविच्छिन्न रूप से जोड़ देना। लोक-मानस ..लोक-प्रवाह, जिस स्वार्थ एवं पतन की दिशा में बहता चला जा रहा है। उस विवशता से अपने को मुक्त कर लेना- मछली की तरह धार को चीरते हुए उलटे प्रवाह में तैर सकना। यह अन्तः स्थिति जिसे भी प्राप्त हो... उसे बन्धन मुक्त कह सकते हैं। मोक्ष अथवा मुक्ति को जीवन का परम फल बताया गया है। उसका स्वरूप यही है।मुक्ति का मतलब है 'बंधनों से, दुखों से मुक्ति होना'। 'दुखों से मुक्‍त होना'... जो आत्‍मसाक्षात्‍कार के बिना संभव नहीं।

3-मुक्ति पांच प्रकार की होती है :-

1-सालोक्य

2-सार्ष्टि

3-सारूप्य,

4-सामीप्य

5-सायुज्य

[ 1 ] सालोक्य : -

सालोक्य का अर्थ है भौतिक मुक्ति के बाद उस लोक को जाना जहाँ पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् निवास करते हैं |‘सालोक्य’ मुक्तिमें भगवान का लोक प्राप्त होता है ...भगवद - धाम की प्राप्ति होती है | वहाँ सुख - दु:ख से अतीत ,अनंत आनंद है , और अनंत काल के लिए है |

[ 2 ] सार्ष्टि : -

सार्ष्टि का अर्थ है भगवान् जैसा ऐश्वर्य प्राप्त करना |यह सालोक्य से आगे की मुक्ति है |भगवान के समान ऐश्वर्य की प्राप्ति का नाम ‘सार्ष्टि’ है। इसमें भक्त को परम धाम में भगवान के समान ऐश्वर्य प्राप्त हो जाता है | सम्पूर्ण ऐश्वर्य , धर्म , यश , श्री , ज्ञान और वैराग्य ..ये सभी भक्त को प्राप्त हो जाते हैं | केवल संसार की उत्पत्ति व संहार करना भगवान के आधीन रहता है , वह भक्त नहीं कर सकता |

[ 3] सामीप्य : -

भगवान की निकटता की प्राप्ति का नाम ‘सामीप्य’ है।यह सार्ष्टि के आगे की मुक्ति है | इसमें भक्त भगवान के समीप रहता है और भगवान के माता - पिता , सखा , पुत्र , स्त्री आदि होकर रहता है |सामीप्य का अर्थ है पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् का पार्षद बनना |

[ 4 ] सारूप्य : -

सारुप्य का अर्थ है भगवान् जैसा चतुर्भुज रूप प्राप्त करना |यह सामीप्य के आगे की मुक्ति है | भगवान विष्णु जैसे चतुर्भुज रूप प्राप्ति को ‘सारूप्य’ मुक्ति कहते हैं।इसमें भक्त का रूप भगवान के समान हो जाता है | भगवान के तीन चिन्हों [ श्री वत्स , भृगु - लता , और कोस्तुभ -मणी ] को छोड़कर शेष ..शंख , चक्र , गदा और पद्म आदि सभी चिन्ह भक्त के भी हो जाते हैं |

[ 5 ] सायुज्य : -

02 POINTS;-

1-सायुज्य का अर्थ है भगवान् के ब्रह्मतेज या ब्रह्मज्योति में समा जाना | भगवान से एकाकार हो जाना ‘सायुज्य’ मुक्ति है।सायुज्य मुक्ति दो प्रकार की होती है – ब्रह्मतेज में समा जाना और भगवान् के शरीर में समा जाना | यह सारूप्य से भी आगे की मुक्ति है | इसका अर्थ है " एकत्व " | इसमें भक्त भगवान से अभिन्न हो जाता है |

2-यह ज्ञानियों को तथा भगवान द्वारा मारे जाने वाले असुरों की होती है | भगवान् श्री कृष्ण के दिव्य रूप को न मानने वाले निर्विशेषवादी तथा भगवान् की निन्दा करने वाले और उनसे युद्ध करने वाले असुर ब्रह्मज्योति में समाकर दण्डित होते हैं |

भक्ति और अद्वैत सिद्धांत से मोक्ष में अंतर;-

05 FACTS;-

1-प्रेमी [ ज्ञानी ] भक्त भगवान की सेवा को छोड़कर , उक्त सभी मुक्तियाँ भगवान द्वारा दिए जाने पर भी स्वीकार नहीं करता | वह केवल भगवान की सेवा करके , उनको सुख देना चाहता है | भक्त प्रेम का एक ही मतलब जानता है , देना , देना और देना | अपने सुख के लिए वह कोई काम नहीं करता |

2-अद्वैत सिद्धांत से जो मोक्ष होता है , उसमें जड़ता [ संसार ] से सम्बन्ध विच्छेद की मुख्यता रहती है और भक्ति से जो मोक्ष होता है , उसमें चिन्मय तत्त्व के साथ एकता की मुख्यता होती है |मायावादी वेदान्तियों के अनुसार जीव की चरम सफलता निर्विशेष ब्रह्म में समा जाना है | निर्विशेष ब्रह्म अर्थात भगवान् का शारीरिक तेज ब्रह्मज्योति, ब्रह्मलोक या सिद्धलोक के नाम से विख्यात है |

3-इस तरह ब्रह्मलोक या सिद्धलोक ऐसा स्थान है जहाँ स्फुलिंग के समान अनेक जीव रहते हैं जो भगवान् के अंश हैं | चूँकि ये जीव अपना अलग अस्तित्व बनाये रखना नही चाहते, अतएव उन सब को ब्रह्मलोक में रहने दिया जाता है, जिस प्रकार सूर्य से निकलने वाली किरणों में अनेक परमाणु-कण रहते हैं |

4-यदि शुद्ध भक्त को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा करने का अवसर मिले, तो कभी-कभी सालोक्य, सामीप्य, सारुप्य या सार्ष्टि मुक्ति को तो स्वीकार कर सकता है किन्तु सायुज्य को कभी नही | शुद्ध भक्त तो सायुज्य मुक्ति का नाम भी सुनना नही चाहता, वह भगवान् के तेज में समा जाने की अपेक्षा नरक जाना पसन्द करेगा क्योंकि वह नारकीय अवस्था में भी भगवान् की सेवा करने का इच्छुक बना रहता है |

5-शुद्ध भक्त तो निष्कंचन होता है और जन्म जन्मान्तर बस भगवान की अहैतुकी भक्ति करते रहना चाहता है | वह तो भव-बन्धन से भी मुक्त नही होना चाहता, जबकि मुक्ति तो भक्त के समक्ष उसकी सेवा करने के लिए हाथ जोड़े खड़ी रहती है | श्रीकृष्ण उद्धव से कहते हैं: “मेरे भक्त मेरे अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहते, सच तो यह है कि यदि मैं उन्हें जन्म-मृत्यु से मुक्ति भी प्रदान करता हूँ तो वे इसे स्वीकार नहीं करते”

...SHIVOHAM...


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