कैवल्य उपनिषद के अनुसार ह्रदय गुहा में प्रवेश कैसे हो सकता है ?
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कैवल्य उपनिषद के अनुसार सांख्य और योग;-
12 FACTS;-
1-कैवल्य उपनिषद इस सूत्र पर समाप्त होता है ...''मेरे लिए भूमि, जल, अग्रि, वायु आकाश कुछ नहीं है।वही मनुष्य मेरे शुद्ध परमात्म स्वरूप का साक्षात्कार करता है, जो मायिक प्रपंचों से परे, सब के साक्षी,सत -असत
अर्थात अस्तित्व-अनस्तित्व से परे, निराकार, हृदय की गुहा में स्थित
मुझ परमात्मा को जान जाता है''। इस सूत्र में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात समझने की है कि उस परम सत्ता को जानने वाला हृदय की गुहा में प्रवेश पाता है, या फिर हृदय की गुहा में प्रवेश करने वाला उस परम सत्ता को जान लेता है। ये दो ही उपाय है।इसलिए दो ही निष्ठाएं हैं मनुष्य की साधना की।
2-जीवन के सत्य को जानने की दो निष्ठाएं मानी जाती हैं।एक का नाम है सांख्य और दूसरे का नाम है योग।सांख्य का अर्थ है, जो उस परम सत्ता को जान लेता है वह हृदय की गुहा में प्रविष्ट हो जाता है। योग का अर्थ है, जो हृदय की गुहा में प्रविष्ट हो जाता है ;वह उस परम सत्ता को जान लेता है।
सांख्य शुद्ध ज्ञान है और योग साधना है।सांख्य कहता है कि करना कुछ भी नहीं है, सिर्फ जानना है।योग कहता है कि करना बहुत कुछ है और तभी जानना फलित होगा।यह दोनों ही सही हैं और यह दोनों ही गलत भी हो सकते हैं।ये निर्भर करेगा एक साधक पर।
3-अगर कोई साधक ज्ञान की अग्रि इतनी जलाने में समर्थ हो कि उस अग्रि में उसका अहंकार जल जाए, सिर्फ ज्ञान की अग्रि ही रह जाए अथार्त ज्ञान ही रह जाए, ज्ञाता न रहे; भीतर कोई अहंकार का केंद्र न रह जाए, सिर्फ जानना मात्र रह जाए, बोध/अवेयरनेस' रह जाए तो कुछ भी करने की
जरूरत नहीं है।जानने की इस अग्रि से ही सब कुछ हो जाएगा।जानने की ही चेष्टा करना ; उसी स्थिति को बढ़ाने के लिए प्रतिदिन अग्रसर होना पर्याप्त है।अथार्त होश बढ़ जाए और जागृति आ जाए। 4-लेकिन करोङो में किसी एक व्यक्ति के साथ यह घटना घटती है।और जिस व्यक्ति के साथ भी यह घटना घटती है, वह भी न मालूम कितने जन्मों की चेष्टाओं का फल होता है।लेकिन जब भी सांख्य की घटना किसी को घटती है तो वैसे व्यक्ति को प्रतीत होता है कि सिर्फ जानना काफी है। जानने से ही सब कुछ हो गया।वह सांख्य योग के विपरीत बातें करता
है।क्योंकि जिसको भी सांख्य की अवस्था उत्पन्न होगी, उसे लगेगा कि कुछ और तो करना ही नहीं पड़ता है ..सिर्फ होश से भर जाना काफी है।लेकिन उसके अनंत जन्मों में करने से ही अनंत धाराएं बहती हैं।
5-लेकिन जो बेहोश पड़ा है, उसे होश से भर जाना ही तो सबसे बड़ी उलझन की बात है। जिसकी नींद खुल गयी, वह कह सकता है कि मुझे कुछ और नहीं करना पड़ा, नींद खुल गयी और मैंने प्रकाश का दर्शन कर लिया। लेकिन जो सोया पड़ा है, और सोया ही नहीं जहर खाकर बेहोश पड़ा है, उससे हम चिल्ला चिल्लाकर कहते रहें कि जागो, सिर्फ जागना काफी है, नींद का टूट जाना काफी है, कुछ करने की जरूरत नहीं और सत्य उपलब्ध हो जाएगा...तो ये बातें भी उसे सुनायी नहीं पड़ती।जो अभी मूर्छित है, पहले तो उसकी मूर्छा तोड़नी पड़ेगी, ताकि वह सुन सके।आंख खोलने की बात भी तो उसके भीतर पहुंचनी चाहिए।
6-इसलिए सांख्य की मान्यता बिलकुल सही होकर भी काम नहीं कर पाती है।सांख्य का कोई व्यक्तित्व सांख्य की बातें कहे चला जाता है कि कुछ भी करना जरूरी नहीं है ;सिर्फ होश से भर जाना काफी है।लेकिन लोगों को सुनायी ही नहीं पड़ता है।क्योंकि वे सोए हुए नहीं हैं, वे मूर्च्छित हैं।और उनकी समझ में भी आ जाता है, तब वह समझ मात्र बौद्धिक होती है,अथार्त ऊपरी होती है।शब्द , सिद्धांत पकड लेते हैं और फिर उन्हीं सिद्धांतों को दोहराने भी लगते हैं। लेकिन उनके जीवन में कहीं कोई रूपांतरण नहीं होता।
7-सांख्य एक फूल की तरह है और जब फूल खिलता है, तब हमें जड़ों का खयाल भी नहीं आता।क्योंकि जड़ें तो अंधेरे गर्त में, पृथ्वी में छिपी पड़ी होती हैं। लेकिन वर्षों तक जड़ें निर्मित होती हैं, फिर पौधा निर्मित होता है और तब कहीं फूल खिलता है।फूल का खिल जाना एक लंबी शृंखला का हिस्सा है।जब फूल खिलता है तो सारी शृंखला भूल जाती है। जब फूल खिलता है तब सारी शृंखला छिप जाती है।और जब अंतिम फल आता है तो उस फल के आच्छादन में सब कुछ विस्मृत हो जाता है, जो लंबी यात्रा है।
8-लेकिन फूल न खिला हो, तो किसी से यह कहना कि फूल खिलना काफी है, खतरनाक भी हो सकता है। क्योंकि वह व्यक्ति जड़ों को संभालने के लिए और पौधे को बड़ा करने के लिए जो कर सकता था वह भी नहीं करेगा।अब तो वह भी यह सोचेगा, फूल खिल जाना काफी है, खिल जाएंगे। और खिलना तो एक लंबी शृंखला का हिस्सा है।जब लोग समझ लेते हैं
कि कुछ नहीं करना है तो जो कर रहे थे वह भी छोड़ देते हैं।और जिस फूल के खिलने की बात हैं; वह फूल भी नहीं खिलता।
9-मुसीबत यह है कि हमारी समझ में यह बात बिलकुल गहराई से आ जाती हैं कि कुछ नहीं करना है क्योंकि वह फूल तो बिना किये, निष्प्रयास से ,अप्रयत्न से खिलता है; 'एफर्टलेस' है, उसमें कोई साधना की जरूरत नहीं है।अब हम जो करते थे वह भी छूट गया है, और न करने से वह फूल कहीं खिलता हुआ दिखायी भी नहीं पड़ता। तब उनके चित्त में घनी दुविधा हो जाती है। क्योंकि अभी वे उस जगह नहीं पहुंचे थे जहां फूल अपने -आप खिलता है।
10-शायद वे अभी जड़ें ही हैं या शायद अंकुरित ही हुए थे और अब वे पानी सींचने या कुछ भी करने को राजी नहीं हैं कि पौधे की रक्षा हो सके।लेकिन उनके प्राण बेचैन हैं, भीतर प्राणों में फूल न प्रगट होने की पीड़ा है
लेकिन कुछ करना नहीं है।तो एक तरफ सांख्य की यह दुविधा है कि सांख्य फूल की बात करता है और कठिनाई खड़ी होती है। दूसरी तरफ योग है। योग जड़ों की, भूमि की, पानी की, सूरज की गहन खोज करता है। लेकिन तब एक खतरा वहां भी घटित होता दिखायी पड़ता है कि व्यक्ति क्रियाओं में ही लीन हो जाता है। जिस फूल के खिलने के लिए क्रियाएं शुरू की थीं वह फूल तो भूल ही जाता है। क्रियाएं इतना संलग्न कर लेती हैं कि ऐसा लगता है इन क्रियाओं को करते जाना ही जीवन है।
11-महृषि पतंजलि ने योग के आठ अंग कहे हैं, जिनमें अंतिम तीन अंग धारणा, ध्यान, समाधि अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। बाकी पांच उनकी तरफ ले जाने वाले प्राथमिक चरण हैं। समाधि फूल है तो शेष सात उसका वृक्ष है। लेकिन अक्सर योगी आसन -प्राणायाम ही जीवन भर करते रहते हैं।समाधि
का फूल तो भूल ही जाता है, ये क्रियाएं स्वयं में महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। जब साधन ही साध्य बन जाते हैं तो मार्ग ही मंजिल मालूम होने लगता है। सांख्य की यह भ्रांति होती है कि मंजिल ही इतनी महत्वपूर्ण बन जाती है कि मार्ग की कोई जरूरत ही नहीं। और योग की यह भ्रांति होती है कि मार्ग ही इतना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि अगर मंजिल भी छोड़नी पड़े तो हम मार्ग को ही पकड़ेंगे, मंजिल को नहीं।क्रियाओं में फंसे व्यक्ति के सामने अगर परमात्मा भी खड़ा हो तो वह कहेगा थोड़ी देर रुको, मैं पहले पूजा -पाठ कर लूं।
12-योग की क्रियाएं की भ्रांति भी हजारों लोगों को भटकाती है; लेकिन सांख्य की भ्रांति तो विरले ही होती है, क्योंकि सांख्य का व्यक्तित्व कभी
कभी ही आता है।इसीलिए योगी की भ्रांति ज्यादा व्यापक है। क्योंकि पृथ्वी के अधिकतम लोग जब भी धर्म में उत्सुक होते हैं, तो तत्काल कर्म में उत्सुक हो जाते हैं। क्योंकि बिना कर्म के व्यक्ति जिंदगी में कुछ भी नहीं पाता, इसीलिए वह सोचता हैं कि धर्म को भी तो कर्म से ही पाएगा। जैसे धन प्रयास से पाया जाता है, वैसे ही धर्म भी पाया जाएगा।परमात्मा को भी पाना है तो कुछ करके ही तो पाना होगा।यह तर्क सामान्यत: समझ में आता है। लेकिन इसका दूसरा अधूरा हिस्सा ही खतरा है कि मन क्रियाओं में इतना रस लेता है कि फिर छोड़ना मुश्किल हो जाता है। मंजिल खो जाती है और मार्ग पकड़ा रह जाता है।
कैवल्य उपनिषद के अनुसार ह्रदय गुहा में प्रवेश कैसे हो सकता है ?-
23 FACTS;-
1-वास्तव में, सांख्य और योग को दो निष्ठाएं न होकर एक ही निष्ठा के दो अंग है।योग प्राथमिक और सांख्य अंतिम है।योग वृक्ष है तो सांख्य फूल है।इसलिए इन दोनों को इकट्ठा सांख्य योग कहते है। बिना किये कुछ नहीं
होता लेकिन यह भी ध्यान रखना है कि अगर करना ही करना रह गया तो वह घटना भी नहीं घटेगी।उदाहरण के लिए कोई सीढ़ी पर चढ़ता है तो चढ़ता भी है और फिर छोड़ भी देता है। कोई दवा लेता है तो बीमारी ठीक हो जाती है तो दवा छोड़ भी देता है।कोई मार्ग पर चलता है और मंजिल आ जाती है तो मार्ग छोड़ ही देता है।मंजिल की तरफ बढ़ने का मतलब है, मार्ग को छोड़ते चलना। मार्ग का मतलब ही यह होता है कि जिसको हमें प्रतिपल छोड़ते चलना है।
2-मंजिल मार्ग पर चलकर करीब आती है, उसका मतलब ही यह है कि
मार्ग को छोड्कर करीब आती है। मार्ग पर चलना पड़ता है, पकड़ना भी पड़ता है,और मार्ग को छोडना भी पडता है, तो ही मंजिल आती है।
लेकिन हमें दो में से एक बात आसान लगती है कि अगर मार्ग को छोड़ना ही है तो पकड़ना क्यों? यही सांख्य की भूल बन जाती है। और या फिर हमारी समझ में आता है कि जिसको एक बार पकड़ लिया उसको क्या छोड़ना! जब पकड़ ही लिया, तो पकड़ ही लिया। फिर निष्ठापूर्वक उसको पकड़े ही रहेंगे, फिर छोड़ेंगे नहीं। इससे योग की भूल पैदा होती है।
सांख्य और योग...दोनों निष्ठाएं साधक को ध्यान में रहें, तो हृदय की गुफा बहुत शीघ्रता से मिल जाती है।
3-जो भी ध्यान के प्रयोग हो , उनमें दोनों का संयोग होना चाहिए।ध्यान के,
प्राथमिक तीन चरण, वस्तुत: ध्यान नहीं हैं, केवल मूर्छा को तोड़ने की तैयारी हैं। मूर्छा टूट जाए तो चौथा चरण ध्यान का फलित हो सकता है। और खयाल रखना हैं कि तीन चरण तो आपने किये हैं परन्तु चौथा आप नहीं करेंगे ...चौथा स्वयं होगा। चौथे में आप सिर्फ विश्राम कर रहे हैं। चौथे का अर्थ है कि आप अपने को खुला छोड़ रहे हैं; कुछ घटता हो, तो हम द्वार बंद नहीं रखेंगे , हम तत्पर हैं।जो भी बरसेगा, हमारी तरफ से कोई रुकावट न होगी।अगर उसकी किरण आएगी तो स्वागत का भाव लिये हम द्वार पर खड़े हैं । तीन में हमने कुछ किया है; चौथे में कुछ हो, इसकी प्रतीक्षा है। तीन में प्रयास है, चौथे में प्रतीक्षा। चौथा सांख्य का हिस्सा है।
4-भूल यह होती है कि कुछ लोग चारों को सांख्य का हिस्सा बना लेते हैं, तो कुछ लोग चारों को योग का हिस्सा बना लेते हैं। तब हृदय की गुहा का
खुलना बहुत मुश्किल हो जाता है।इस सूत्र में दो बात है..जो उस परम सत्ता को उपलब्ध हो जाए उसकी हृदय की गुहा खुल जाती है ;जिसके हृदय की गुहा खुल जाए वह उस परम सत्ता को उपलब्ध हो जाता है। तो हम दोनों बात को... दोनों तरफ से ठीक से समझे।ज्ञान को बढ़ाने का
और कोई उपाय नहीं है।जब हम कहते हैं फलां व्यक्ति के पास बहुत ज्ञान है तो अक्सर हमारा मतलब होता है बहुत जानकारी है, बहुत बड़ी स्मृति है ; शास्त्र कंठस्थ हैं। और स्मृति कोई बहुत बहुमूल्य चीज नहीं ..यांत्रिक है।
5-ज्ञान आत्म -साक्षात्कार है ...सीधा है। न बीच में शास्त्र हैं, न सिद्धांत। तो ज्ञान को बढ़ाने के लिए जागरण मार्ग है...अध्ययन मार्ग नहीं है। जागने का अर्थ है, जो कुछ भी हम करे वह इतनी तीव्रता से, होशपूर्वक ,ध्यानपूर्वक
हो कि उसमें मूर्छा जरा भी न रहे। ऐसे कोई भी काम कर रहे हों तो होशपूर्वक करने की कोशिश करें। अलग से समय देने की कोई जरूरत नहीं है। भोजन कर रहे है,चबा रहे हैं तो होशपूर्वक करें।सांख्य की क्रिया अंतर्क्रिया है, इसीलिए सांख्य की साधना का किसी को पता नहीं चलता कि कोई साधना कर रहा है कि नहीं कर रहा है।परन्तु योग की साधना का पता चलता है, क्योंकि उसमें बाहर की क्रियाओं से प्रयोग करना होता है।
6-व्यक्ति चल रहा है, बैठा है, उठा है, लेटा है, एक चीज तो सतत चल रही है...श्वास -उसको देखते रहें। श्वास भीतर गयी, तो होशपूर्वक भीतर ले जाएं। श्वास बाहर गयी तो होशपूर्वक बाहर ले जाएं। एक भी श्वास बिना जाने न चले। थोड़े ही दिन में आप पाएंगे कि श्वास पर जितना आपका ध्यान सजग होने लगा है, उतना हीं आपके भीतर ज्ञान बढ़ने लगा है। अगर आप घंटे भर भी ऐसी स्थिति बना लें कि जब चाहें घंटे भर श्वास को आते-जाते देख लें और कोई बाधा न पड़े, तो सांख्य का दरवाजा बिलकुल निकट है।
लेकिन, शुरू करें, तो कभी अंत भी होता है। प्रारंभ करें, तो कभी प्राप्ति भी होती है। यह अंतर्क्रिया है। यह ईश्वर का नाम जपने से ज्यादा कठिन है। क्योंकि नाम जपने में होश रखना आवश्यक नहीं है।
7-वास्तव में,व्यक्ति ईश्वर का नाम भी यंत्रवत जपता रहता है और तब ऐसी हालत बन जाती है कि वह काम भी करता रहता है,और नाम भी जपता रहता है।इसलिए अगर ईश्वर का नाम जपना हो, तो दोहरे काम करने जरूरी हैं-जप भी रहे, और जप का होश भी रहे, तो ही फायदा है ... नहीं
तो बेकार।तो बहुत लोग जप कर रहे हैं और व्यर्थ है।उनके जप ने उनकी बुद्धि को तीव्र नहीं किया या उनके ज्ञान को नहीं बढ़ाया।क्योंकि बुद्धि का वह बोध जो ज्ञान है, वह सिर्फ जागरण से बढ़ता है और अगर कोई भी क्रिया मूर्छित होकर की जाए, तो घटता है।वास्तव में, हम सब मुर्च्छित होकर क्रियाएं कर रहे हैं।उसी में हम नाम-जप भी जोड़ लेते हैं तो वह भी एक मूर्छित क्रिया हो जाती है।
8-बजाय एक नयी क्रिया जोड़ने के, जो क्रियाएं चल रही हैं उनमें ही जागरण बढ़ाना उचित है। आज असफलता होगी,तो कल असफलता होगी-कोई चिंता नहीं है-लेकिन हर असफलता से सफलता का जन्म होता है। और अगर सतत चोट पड़ती रही, तो एक दिन आप अचानक पाएंगे कि आप किसी भी क्रिया को समग्र चैतन्य में करने में सफल हो गये हैं।
जिस दिन आप इस चैतन्य में सफल हो जाएंगे, उसी दिन सांख्य का द्वार
खुल गया।और कोई बाहरी क्रिया जरूरी नहीं है।जब अंतर्गुहा में प्रवेश हो जाता है ;तब हम अपने भीतर के साक्षी को जान लेते हैं , क्योंकि यह जागरण की क्रिया ही साक्षी की क्रिया है। जब हम जागकर कुछ करते हैं तो साक्षी हो जाते हैं.. कर्ता नहीं होते।
9-जब हम सोकर कुछ करते हैं ;तभी कर्ता होते हैं। कुछ भी करें-तो जागकर ही करें ;यदि भोजन कर रहे हैं, तो जागकर करें, तब आप भोजन करने वाले नहीं ,भोजन की क्रिया को देखने वाले हो जाएंगे। रास्ते पर चल रहे हैं, जागकर चलें, तो आप चलनेवाले नहीं रह जाएंगे; जो चल रहा है,
उसके आप द्रष्टा और साक्षी हो जाएंगे।तो जैसे- जैसे जागरण की क्रिया बढ़ती जाएगी ;आपके भीतर साक्षी भी विकसित होता जाएगा। जिस दिन आपके भीतर साक्षी पूरी तरह कर्ता भाव से मुक्त हो जाएगा,उसी दिन कर्ता की खोल बिलकुल टूट जाएगी और साक्षी का अंकुर पूरा बाहर निकल
आएगा।
10-उसी दिन इस सूत्र का जो एक हिस्सा है आपके समझ में आ जाएगा। भीतर का साक्षी खयाल में आ जाए, तो वह परम साक्षी समझ में आ जाता है।क्योंकि हमारे भीतर का साक्षी उस परम साक्षी का हीअंश है।उदाहरण के लिए कोई वृक्ष की एक छोटी-सी पत्ती भी होश से भर जाए कि ' मैं कौन हूं' तो उसी क्षण उसे पता नहीं चल जाएगा कि पूरा वृक्ष भी वही है। क्योंकि पत्ती सिर्फ वृक्ष का फैला हुआ एक छोटा-सा अंग है। अगर पत्ती जग जाए तो उसे यह भी पता चल जाएगा कि वृक्ष कौन है। क्योंकि 'मैं 'और वृक्ष में तब कोई फासला नहीं होगा। यह भीतर जो छिपा हुआ प्रगट हो रहा है, यह उसी विराट का फैला हुआ हिस्सा है। अगर 'मैं' अपने साक्षी के प्रति भीतर जाग जाये , तो तत्क्षण वह विराट साक्षी भी अनुभव का हिस्सा हो जाता है।
11-तो हृदय की' गुहा में जाने का एक मार्ग तो है कि ज्ञान प्रगाढ़ ,प्रखर , तीव्र होता जाए और ऐसा क्षण आ जाए कि ज्ञान की अग्रि जागरण ही रह जाए और भीतर इस जागरण का कोई अहंकार केंद्र न हो।जितनी मूर्छा
होती है उतना बड़ा अहंकार होता है। जितना जागरण होता है उतना बड़ा साक्षी होता है। और साक्षी और अहंकार में कोई संबंध नहीं है। साक्षी होता है, तो अहंकार नहीं होता। अहंकार होता है, तो साक्षी नहीं होता। वे दोनों कभी साथ -साथ मौजूद नहीं होते। इसलिए जब किसी क्रिया के प्रति आप जागकर साक्षी बन जाएंगे, तो उस क्षण में आप पाएंगे कि 'आप नहीं हैं' ; 'मैं' नहीं है। अहंकार उस क्षण अनुभव नहीं हो सकता।
12-जब पूर्ण जागरण होता है, तो वहां कोई आत्मा भी नहीं है। वहां सिर्फ जागरण ही रह गया, जागा हुआ कोई भी नहीं है।क्योंकि अगर अभी जागा हुआ भी है और वहां जागरण भी है, तो अब भी दो व्यक्ति मौजूद है।
जब कोई व्यक्ति जागता है तो वहां कोई बुद्धत्व नहीं, सिर्फ जागापन होता
है।इस साक्षी की अवस्था में हृदय की गुहा खुल जाती है। क्योंकि हृदय की गुहा पर जो पत्थर है, वह अहंकार का है।जितना सघन मेरा 'मैं' है, उतना ही हृदय सिकुड़ जाता है।यदि हम उस परम अवस्था को छोड़ दें, जहां अहंकार बिलकुल ही नहीं होता; तो साधारण जीवन में भी जिनका जितना 'मैं' सघन होता है, उनके पास हृदय उतना ही छोटा होता है।और जिस व्यक्ति का हृदय जितना बड़ा होता है, 'मैं' उतना ही छोटा होता है।
13- इसलिए हृदय के साथ अहंकार की तृप्ति नहीं हो सकती। और जिसको ह्दय की तृप्ति करनी है, उसे सारी महत्वाकांक्षाएं छोड़ देनी पड़ती हैं।और सब अहंकार की यात्राएं बंद कर देनी पड़ती हैं। हृदय के मार्ग पर जाने वाला व्यक्ति महत्वाकांक्षा के मार्ग पर नहीं जा सकता। इसलिए इस जगत में बड़ी दुर्घटना घटती है कि जिन लोगों के हाथ में शक्ति हैं ,लाभ हैं , वे लोग शक्ति के मार्ग पर नहीं जाते। और जिनके हाथ में शक्ति होने से खतरा ही होगा, वे लोग ही शक्ति के मार्ग पर जाते हैं। जहां शक्ति है, वहां अहंकार जाता है। जहां प्रेम है, वहां हृदय जाता है। प्रेम और शक्ति का कोई सम्बन्ध नहीं है।
14-अहंकार हृदय को,सब तरफ से सिकोड़ देता है ,बंद कर देता है।
क्योंकि अहंकार को हृदय से डर है...हृदय दूसरे से जुड़ने का द्वार है और अहंकार दूसरे से टूटने की प्रक्रिया है। ''मैं अलग, मैं भिन्न'', यह अहंकार की आधार शिला है। और हृदय दूसरे से ,तू से ,अन्य से जोड़ता है। और अगर हम हृदय की ही मानते चले जाएं तो समग्र से जोड़ देता है। अगर हम अहंकार की मानते चले जाएं तो समग्र से तो तोड़ता ही है, अंततः किसी से भी जोड़ने की हालत नहीं रह जाती।व्यक्ति बिलकुल अलग पड़ जाता है और फिर भयंकर पीड़ा भी होती है। क्योंकि व्यक्ति जितना ही दूसरे से टूटता है, उतना ही जीवन से टूट जाता है; उतनी ही जड़ें कट जाती हैं। इसलिए अहंकार अपनी पूर्ति में ही जीवन को दुख और नरक से भर लेता है।
15-हृदय जितना दूसरों से जुड़ता है, उतना आनंद से भरता चला जाता है। क्योंकि दूसरों से जुड़ना जीवन से जुडना है और नयी जड़ें खोजना है। और जिस दिन हृदय परमात्मा से जुड़ जाता है अर्थात सबसे जुड़ जाता है, उस दिन परम जीवन से जुड़ जाता है। उस दिन जीवन का परम स्रोत उपलब्ध हो जाता है। उस स्रोत को दुख का , पीडा का कोई पता ही नहीं है। अपने को अस्तित्व से तोड़ लेना ही पीड़ा है और अपने को जोड़ देना ही आनंद
है। सांख्य का यह उपाय सुनने में सरल,परन्तु समझने में , उतरने में बहुत कठिन है। क्योंकि मूर्छा हमारी बीमारी है और यह जागरण का उपाय है । इसलिए कठिन है क्योंकि हमारी बीमारी ही मूर्छा है और यह पद्धति जागरण की है। हम जाग नहीं सकते , यही तो हमारी तकलीफ है और जागना ही इसमें उपाय है। इसलिए बहुत मुश्किल है।
16-दूसरी ओर योग आपको जागने को नहीं ; कुछ क्रियाएं करने को कहता है जिनसे जागरण फलित होता है। योग आपसे सीधा नहीं कहता कि जाग जाओ,परन्तु कहता है कि यह करो.. वह करो। लेकिन वे क्रियाएं ऐसी हैं कि उनके करने से जागरण पैदा होगा। श्वास पर ध्यान सांख्य की प्रक्रिया है और योग कहता है ध्यान की चिंता छोड़ो,क्योंकि ध्यान की तुमसे आशा नहीं है। पहले श्वास को ही व्यवस्थित करो ;वह प्राणायाम है ,तुम तीव्र
श्वास तो ले ही सकते हो..तो तीव्र श्वास लो।वास्तव में, जितनी धीमी श्वास हो, उतना इस पर ध्यान रखना मुश्किल होगा और जितनी तीव्र श्वास हो, ध्यान रखना आसान होगा। मूर्छा तोड़ने के लिए कुछ इतने तीव्र उपाय चाहिए कि आप चाहें भी ..तो सो न सकें। इतनी गहरी चोट आप पर होनी चाहिए।
17-तो योग कहता है श्वास की इतनी तीव्र चोट करो कि सोना मुश्किल हो जाए ..मूर्छा मुश्किल हो जाए। वास्तव में, प्राणायाम करने वाले की साधारण नींद भी कम होती चली जाती है क्योंकि गहरी मूर्छा पर चोट लगती है।और अगर आप सतत प्राणायाम का प्रयोग करें तो नींद बिलकुल भी समाप्त
हो सकती है।वास्तव में, शरीर में कार्बन की मात्रा कम हो जाए और आक्सीजन की मात्रा बढ़ जाए तो नींद खो जाएगी।योग कहता है कि
अगर प्राणायाम से साधारण नींद पर चोट पहुंचती है, तो उस भीतरी नींद पर भी इससे चोट पहुंचती है।योग कहता है कि हम तुम्हें ऐसे आसन सिखाते हैं जिनसे तुम्हारी कामवासना की ऊर्जा नीचे की तरफ बहना बंद हो जाए।और अगर तुम्हारी काम-ऊर्जा ऊपर की तरफ बहने लगे, तो जागना सरल हो जाएगा।
18-आपका जागरण आपके भीतर ऊर्जा की मात्रा पर निर्भर करता है।
योग कहता है जागरण को हम सीधा नहीं छूते, हम आपकी ऊर्जा को आसन से, प्राणायाम से, प्रत्याहार से बचाने की चेष्टा करते हैं।क्योंकि इंद्रियों से ऊर्जा प्रतिक्षण नष्ट हो रही है।आप चौबीस घंटे व्यर्थ भी देखते रहते हैं। जब देखने को कुछ नहीं होता, तब भी लोग आ-जा रहे हैं, उन्हीं को देख रहे हैं। जिस अखबार को दो बार पढ चुके हैं, उसको फिर तीसरी बार पढ़ रहे है।जिन बातों को हजार बार कर चुके, फिर उन्हीं को कर रहे है तो
आप अपनी शक्ति खो रहे हैं।
19-एक व्यक्ति जो व्यर्थ की बातें करता है, उससे नब्बे प्रतिशत मुसीबतें निकलती हैं। किसी से कुछ कह दिया, फिर उसने कुछ कह दिया, फिर सिलसिला जारी है, फिर उसका अंत नहीं होता।तो योग कहता है, प्रत्याहार...। अपनी शक्ति को बाहर मत जाने दो, भीतर ले जाओ। इसके दोहरे अंग है। एक तो अपनी शक्ति को व्यर्थ मत खोओ। आंख खोलने की, ओंठ खोलने की ,सुनने की जरूरत हो तो ही सुनो। बोलने की जरूरत हो तो ही बोलो अन्यथा शक्ति को बचाओ। और अगर एक बार आपको समझ में आ जाए, तो आप खुद ही हैरान होंगे कि कम-से-कम आपके सौ में से नब्बे कृत्य व्यर्थ थे, जिनको करने की कोई भी जरूरत न थी
20-तो प्रत्याहार का पहला नियम यह है कि हम शक्ति को व्यर्थ न करें। और दूसरा नियम यह है कि जहां-जहां शक्ति मिल सकती हो, वहां-वहां से लें। अभी हम जहां-जहां खो सकते हैं, वहां-वहां खोते हैं। आप वृक्ष के पास बैठे हैं, अगर आप वृक्ष की तरफ आंखें एकाग्र कर लें और अनुभव करें कि वृक्ष से शक्ति आपकी तरफ प्रवाहित हो रही है, तो आप अपनी आंखों को ताजा करके वापिस लौटेंगे। आप आकाश के नीचे लेटे हैं, अगर धारणा करें कि आकाश से शक्ति आप में प्रवाहित हो रही है, तो शक्ति आप में
प्रवाहित होगी।योग की प्रक्रिया यह थी कि सारा जगत प्राण का एक सागर है। अब वैज्ञानिक भी इसको स्वीकार कर रहे है कि प्राण जैसी ऊर्जा चारों तरफ व्याप्त है, वृक्षों में भी, पौधों में भी, चट्टानों में भी, आकाश में, तारों में, सब तरफ प्राण -ऊर्जा व्याप्त है। अगर हम ऊर्जा ग्रहण कर सकें, तो वह प्राण ऊर्जा कहीं से भी भीतर ले जायी जा सकती है।
21-योग का प्रयोग करें और सांख्य पर ध्यान रखें, तो एक दिन वह द्वार खुल जाएगा जिसे हृदय की गुहा कहा गया है।योग और सांख्य संयुक्त है,हृदय की गुहा खोलनी है तो दोनों जारी रखें। समय कम लगेगा, शक्ति कम व्यय होगी और ज्यादा गहरे परिणाम मिलेंगे। एक तरफ ध्यान रखें कि जागरण बढ़ता जाए,तो दूसरी तरफ ध्यान रखें कि ऊर्जा संगृहीत होती चली
जाए। यह कैवल्य उपनिषद जिसका नाम परमात्मा है, स्वतंत्रता है उसकी ओर संकेत है, इशारा है। इसे जानने की मेरी भी वही संभावना है जो किसी और मनुष्य की है। और इसे न जानने से मैं पीड़ा और दुख और न—मालूम कितने अनंत नरक भोग रहा हूं उनसे भी मुक्ति हो सकती है।एक कारागृह है, इसे न जानने से मैं बंधन में पडा हूं.. इसे जानने से मैं भी स्वतंत्र हो सकता हूं। मैं भी मुक्ति के आकाश में उड़ सकता हूं लेकिन
संकेतों की सार्थकता तभी है जब कोई उन संकेतों पर चल पड़े ..यात्रा पर निकल जाए। यह जो प्यास जगे, तो इसकी खोज के लिए शक्ति को लगाने का संकल्प ,एक दृढ़ इरादा और एक श्रद्धा और एक निष्ठा भी चाहिए।
22-तो एक संकल्प करे और ध्यान रखें कि जब संकल्प को पूरा करते हैं तभी पता चलता है कि कितनी शक्ति मेरे भीतर पूरा करने की थी। जब तक पूरा नहीं करते, तब तक शक्ति का भी कोई पता नहीं होता। शक्ति को भी, अपनी शक्ति का तभी पता चलता है जब वह सक्रिय होती है। खुद की शक्ति का भी हमें कोई अंदाज नहीं होता कि हम कितना कर सकते हैं, और जितना ज्यादा हम करते हैं उतना ही पता चलता है कि और भी ज्यादा
कर सकते हैं।हर एक कदम उठते ही दूसरे कदम को उठने की शक्ति उपलब्ध हो जाती है। और एक एक कदम चलकर आदमी हजारों मील का रास्ता तय कर लेता है। तो संकल्प करे और संकल्प को सक्रिय बनाएं । 23-संकल्प का अर्थ है,कि चौबीस घंटे उठते -बैठते, चलते -बोलते, बात करते यह स्मरण रहने लगे...केवल स्मरण करना ही आपको योगी बना
देगा। प्रकाश दिखायी पड़ जाए, सुखद अनुभव है, लेकिन तृप्त नहीं हो जाना है।आनंद भी मालूम होने लगे, तो भी सुखद है, तृप्त नहीं हो जाना है। परमात्मा की उपस्थिति भी मालूम होने लगे, कीमती है, लेकिन तृप्त नहीं हो जाना है।उस समय तक तृप्त ही नहीं होना है जब तक कि स्वयं और
परमात्मा में रत्ती भर का भी फासला है।जिस दिन स्वयं का होना परमात्मा का होना हो जाए या परमात्मा का होना स्वयं का होना हो जाए, जिस दिन हृदय की गुहा में छिपे हुए परमात्मा का अनावरण हो जाए, उस समय तक
तृप्त नहीं होना है। तब तक ध्यान से,योग से और सांख्य से स्वयं को साधते ,निखारते ही जाना है.. तो एक दिन घटना जरूर घटती है।वह घटना बिलकुल ही सुलभ है ,हाथ के भीतर है ;परन्तु हाथ बढ़ाना चाहिए। लेकिन हम ऐसे हैं कि जन्मों -जन्मों तक द्वार पर बैठकर खटखटाते भी नहीं...खटखटाओ और द्वार खुल जाएंगे।कैवल्य उपनिषद जहां समाप्त होता है, वहीं से आपको जीवन की एक यात्रा शुरू करनी चाहिए।
...SHIVOHAM...