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क्या है सांख्ययोग के तीन तत्व?क्या है आपका तत्व(ELEMENT) ? PART-01


क्या है सांख्ययोग?-

04 FACTS;-

1-सांख्य दर्शन भारत के 6 आस्तिक दर्शनों में से एक है। योग और वेदांत भी सांख्य के मूल ढांचे को स्वीकार करते हैं। इस प्रकार यह दर्शन भारतीय चिंतन की एक प्रमुख आधारभूमि है। सांख्य दर्शन के अनुसार समूचा ब्रह्मांड केवल दो प्रमुख तत्वों से बना है- पुरुष (चैतन्य) और प्रकृति। इनमें से पुरुष चेतन किंतु निष्क्रिय तत्व है, जो जीवधारियों के शरीर में रहकर सुख-दु:ख का भोग करता है। अपने मूल रूप में ''पुरुष''... जो कुछ भी ब्रह्मांड में हो रहा है उसका साक्षीमात्र है।

2-प्रकृति मूलतया अचेतन है, पर वह चेतन पुरुष से इस प्रकार गुंथी हुई है कि वह विश्व के प्रतीत होने वाले निर्माण में अपना भाग अदा करती है। गहनतम स्तर पर विश्व की सृष्टि कभी नहीं होती।

3-"सांख्य" शब्द की निष्पत्ति "संख्या" शब्द के आगे अणु प्रत्यय जोड़ने से होती है,जिसके अनुसार इसका अर्थ सम्यक् ख्याति, साधु दर्शन अथवा

सत्य ज्ञान है।भारतीय संस्कृति में किसी समय सांख्य दर्शन का अत्यंत ऊँचा स्थान था...अत्यंत लोकप्रिय था। देश के उदात्त मस्तिष्क सांख्य की विचार पद्धति से सोचते थे। वस्तुत: महाभारत में दार्शनिक विचारों की जो पृष्ठभूमि है, उसमें सांख्यशास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है।सांख्य दर्शन का प्रभाव गीता में प्रतिपादित दार्शनिक पृष्ठभूमि पर पर्याप्त रूप से विद्यमान है।

4-मूल-साँख्य के अनुसार प्रधान (आद्य प्रकृति) में ये तीनों घटक साम्यावस्था में थे। आपसी अंतक्रिया के परिणाम से भंग हुई इस साम्यावस्था ने प्रकृति के विकास को आरंभ किया जिस से जगत (विश्व Universe) का वर्तमान स्वरूप संभव हुआ। हम इस सिद्धान्त की तुलना आधुनिक भौतिक विज्ञान द्वारा प्रस्तुत विश्व के विकास (Evolution of Universe) के सर्वाधिक मान्य महाविस्फोट के सिद्धांत (Big-Bang theory) के साथ कर सकते हैं। दोनों ही सिद्धांतों में अद्भुत साम्य देखने को मिलता है।

क्या है सांख्य-दर्शन का मुख्य आधार?-

06 FACTS;-

1-सांख्य-दर्शन का मुख्य आधार सत्कार्यवाद है।सत्कार्यवाद के दो भेद हैं- परिणामवाद तथा विवर्तवाद। परिणामवाद से तात्पर्य है कि कारण वास्तविक रूप में कार्य में परिवर्तित हो जाता है। जैसे तिल तेल में, दूध दही में रूपांतरित होता है। विवर्तवाद के अनुसार परिवर्तन वास्तविक न होकर आभास मात्र होता है। जैसे-रस्सी में सर्प का आभास होना।

2-इस सिद्धान्त के अनुसार, बिना कारण के कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। फलतः, इस जगत की उत्पत्ति शून्य से नहीं किसी मूल सत्ता से है। यह सिद्धान्त बौद्धों के शून्यवाद के

विपरीत है।कार्य, अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान रहता है। कार्य अपने कारण का सार है। कार्य तथा कारण वस्तुतः समान प्रक्रिया के व्यक्त-अव्यक्त रूप हैं।

3-सांख्य दृश्यमान विश्व को ''प्रकृति-पुरुष'' मूलक मानता है। उसकी दृष्टि से केवल चेतन या केवल अचेतन पदार्थ के आधार पर इस चिदविदात्मक जगत् की संतोषप्रद व्याख्या नहीं की जा सकती। इसीलिए सांख्य न केवल जड़ पदार्थ ही मानता है और न अनेक वेदांत संप्रदायों की भाँति वह केवल चिन्मात्र ब्रह्म या आत्मा को ही जगत् का मूल मानता है। अपितु जीवन या जगत् में प्राप्त होने वाले जड़ एवं चेतन, दोनों ही रूपों के मूल रूप से प्रकृति, एवं चिन्मात्र पुरुष... इन दो तत्वों की सत्ता मानता है।

4-सांख्य के अनुसार सारा विश्व त्रिगुणात्मक प्रकृति का वास्तविक परिणाम है।जड़ प्रकृति सत्व, रजस एवं तमस् - इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का नाम है।इस प्रकार प्रकृति को पुरुष की ही भाँति अज और नित्य मानने तथा विश्व को प्रकृति का वास्तविक परिणाम ''सत् कार्य'' मानने के कारण सांख्य सच्चे अर्थों में बाह्यथार्थवादी या वस्तुवादी दर्शन हैं। किंतु जड़ बाह्यथार्थवाद भोग्य होने के कारण किसी चेतन भोक्ता के अभाव में अर्थशून्य अथवा निष्प्रयोजन है, अत: उसकी सार्थकता के लिए सांख्य चेतन पुरुष या आत्मा को भी मानने के कारण अध्यात्मवादी दर्शन है।

5-सांख्य मूलत: दो तत्व मानता है। तत्व का अर्थ है 'सत्य ज्ञान'। इसके अनुसार प्रकृति से महत् या बुद्धि, उससे अहंकार, तामस, अहंकार से पंच-तन्मात्र (शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध) एवं सात्विक अहंकार से ग्यारह इंद्रिय (पंच ज्ञानेंद्रिय, पंच कर्मेंद्रिय तथा उभयात्मक मन) और अंत में पंच तन्मात्रों से क्रमश: आकाश, वायु, तेजस्, जल तथा पृथ्वी नामक पंच महाभूत, इस प्रकार तेईस तत्व क्रमश: उत्पन्न होते हैं।

6-इस प्रकार मुख्यामुख्य भेद से सांख्य दर्शन 25 तत्व मानता है। प्राचीनतम सांख्य ईश्वर को 26वाँ तत्व मानता रहा होगा। इसके साक्ष्य महाभारत, भागवत इत्यादि प्राचीन साहित्य में प्राप्त होते हैं। यदि यह अनुमान यथार्थ हो तो सांख्य को मूलत: ईश्वरवादी दर्शन मानना होगा।

सांख्य दर्शन के 25 तत्व;-

भारतीय दर्शन में मन को अणु आकार का माना गया है जिस कारण वह एक समय में एक ही ज्ञानेन्द्रिय से संयुक्त हो सकता है। साथ ही, वह एक समय में एक ही कर्मेन्द्रिय से काम कर सकता है। इस विकास की अगली प्रक्रिया में उत्पन्न होने वाले पदार्थों में आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी की 5 तन्मात्राएं हैं जिनका संबंध 5 ज्ञानेन्द्रियों से है। सबके अंत में इन 5 तन्मात्राओं के स्थूल रूप में 5 महाभूतों का विकास होता है। सांख्य दर्शन के अनुसार विकास की इस प्रक्रिया को आगे दिए गए चार्ट और रेखाचित्र से समझा जा सकता है।

1-पुरुष (आत्मा,ईश्वर-अंश, स्थायी ,क्षेत्रज्ञ, अपरिवर्तिनीय )

2-त्रिगुणा प्रकृति (शरीर,ईश्वर-लीला,अस्थायी,क्षेत्र,परिवर्तिनीय)

3-महत (बुद्धि)..(महत्व ,उपयोग, बोध)

4-अहंकार(आकर साकार व्यवस्था)

5-मन(निर्देशक, धारक 5 ज्ञानेन्द्रियाँ और 5 कर्मेन्द्रियाँ का)

ज्ञानेन्द्रियाँ (5) : नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कर्ण

कर्मेन्द्रियाँ (5) : पाद, हस्त, उपस्थ, पायु, वाक्

तन्मात्रायें (5) : गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द

महाभूत (5) : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश

THE KEY POINTS;-

1-इस दर्शन ने त्रिगुणात्मक प्रकृति(सत्व, रजस् तथा तमस् )तत्वों की सर्वकारण रूप में प्रतिष्ठा करके पृथक्-पृथक् तत्वों के आधार पर जगत् के वैषम्य का बड़ा न्याययुक्त तथा

बुद्धिगम्य समाधान किया है।शरीर के अंदर रह रहे चेतन तत्व को ''जीव'' कहा जाता है। यह विश्व चैतन्य का अंश है और उससे समानता रखता है, पर अपने अज्ञान और अहंकार के कारण जीव हमेशा बंधन में रहता है। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि बुद्धि का स्तर अहंकार से ऊपर है।

2-बुद्धि के स्तर पर व्यक्तियों में कोई भेद नहीं रहता। दूसरी ओर मन अहंकार के अधीन है और सदैव ही उससे प्रभावित रहता है। मनुष्य के दु:ख का मुख्य कारण यह है कि उस पर अहंकार की जकड़ है और उसका मन अशांत है।

3-चित्र में अहंकारों के बीच में छायांकित भाग दो अहंकारों के बीच के सामान्य अंश का संकेत करता है। कोई भी अहंकार सर्वथा अलग और स्वतंत्र नहीं है। अनेक अहंकार एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। किसी परिवार, समाज, व्यवसाय, धर्म, राष्ट्र आदि के सदस्यों के अहंकारों में सामान्य अंश होते हैं जिनके कारण उन सभी को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों में वे सामान्य रूप से सुख-दु:ख का अनुभव करते हैं।

4-किसी मैच में किसी देश की टीम के जीतने पर उस देश के सभी निवासियों के अहंकार को संतोष मिलता है। परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु पर उस परिवार के सभी सदस्य दु:ख का अनुभव करते हैं। मनुष्य का मन जितना अशांत होगा और उसका अहंकार जितना प्रबल होगा उसके जीवन में दु:ख भी उतने ही ज्यादा होंगे। अनियंत्रित मन और प्रबल अहंकार की अवस्था से मनुष्य को शांत बुद्धि की अवस्था तक पहुंचना है, यह गीता का एक प्रमुख संदेश है।

क्या है प्रकृति ?

07 FACTS;-

1-प्रकृति अर्थात् ..प्र = विशेष और कृति = किया गया। स्वाभाविक की गई चीज़ नहीं ... विशेष रूप से की गई चीज़, वही प्रकृति है।प्रकृति तो

स्त्री है, स्त्री का रूप है और ‘खुद’(सेल्फ) पुरुष है। कृष्ण भगवान ने अर्जुन से कहा कि त्रिगुणात्मक से परे हो जा, अर्थात् त्रिगुण, प्रकृति के तीन गुणों से मुक्त, ‘तू’ ऐसा पुरुष बन जा। क्योंकि यदि प्रकृति के गुणों में रहेगा, तो ‘तू’ अबला है और पुरुष के गुणों में रहा, तो ‘तू’ पुरुष है।

2-सारा संसार प्रकृति को समझने में फँसा है। पुरुष और प्रकृति को तो अनादि से खोजते आए हैं।क्रमिक मार्ग में पूरी प्रकृति को पहचान ले उसके बाद में पुरुष की पहचान होती है।प्रकृति की भूलभूलैया में अच्छे-अच्छे फँसे हुए हैं, और वे करे भी क्या? प्रकृति द्वारा प्रकृति को पहचानने जाते

हैं तो कैसे पार पाएँ...पुरुष होकर प्रकृति को पहचानना है, तभी प्रकृति का हर एक परमाणु पहचाना जा सकता है

3-प्रकृति का विश्लेषण करने पर हम इसमें तीन प्रकार का द्रव्य प्राप्त करते हैं। इन्हीं का नाम त्रिगुण है। अत: सत, रज, तम ये मूल द्रव्य प्रकृति के उपादान द्रव्य हैं। ये गुण इसलिए कहलाते हैं कि ये रस्सी के रेशों की तरह आपस में मिलकर पुरुष के लिए बंधन का कार्य करते हैं अथवा पुरुष के उद्देश्य साधन के लिए गौण रूप से सहायक हैं।

4-कार्य का गुण कारण में बना रहता है। विषयों के मूल कारण में सुख, दु:ख और मोह के तत्व विद्यमान रहते हैं। यही तीनों तत्व क्रमश: सत, रज व तम कहलाते हैं। यही प्रकृति के मूल तत्व हैं जिनसे संसार के समस्त विषय बनते हैं। सत गुण को शुक्ल (उजला), रज गुण को रक्त (लाल) व तमोगुण को कृष्ण (काला) कल्पित किया गया है। 5-गुण प्रत्यक्ष नहीं देखे जाते हैं। सांसारिक विषयों को देखकर उनका अनुमान किया जाता है। कार्य-कारण का तादात्म्य रहता है। इसलिए विषय रूपी कार्यों का स्वरूप देखकर हम गुणों के स्वरूप का अनुमान करते हैं। संसार के समस्त विषय - सूक्ष्म बुद्धि से लेकर स्थूल पत्थर, लकड़ी, पर्वत- में ये तीनों गुण पाए जाते हैं।

6-एक ही वस्तु एक के मन में सुख और दूसरे के मन में दु:ख और तीसरे के मन में औदासिन्य का सृष्टि करती है। जैसे संगीत रसिक को आनंद, बीमार को कष्ट और भैंस को हर्ष या विषाद कुछ भी नहीं देता। जज का फैसला एक पक्ष के लिए आनंददायक, दूसरे पक्ष के लिए कष्टदायक और गैर लोगों के लिए नजीर होता है। नदी सैर करने वाले के लिए आनंद की वस्तु है, डूबने वाले के लिए मृत्यु स्वरूप है और उसमें रहने वाले जीवों के लिए साधारण वस्तु है।

7-मूल तत्वों से रासायनिक तत्व जिनसे अन्य यौगिक बनते हैं और जिन्हें किसी अन्य तत्व में नहीं तोड़ा जा सकता और इनसे ही भौतिक संसार के दृश्य वस्तुएं व् जीव बनते हैं।इनकी सहज प्रकृति को दूषित, खंडित या दुरूपयोग करने से जीवन धारा टूट जाती है।

त्रिगुण और पंचमहाभूत;-

1-पंचमहाभूत भी त्रिगुणों से बने हैं।पंचतत्व को ब्रह्मांड में व्याप्त लौकिक एवं अलौकिक वस्तुओं का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष कारण और परिणति माना गया है। ब्रह्मांड में प्रकृति से उत्पन्न सभी वस्तुओं में पंचतत्व की अलग-अलग मात्रा मौजूद है। अपने उद्भव के बाद सभी वस्तुएँ नश्वरता को प्राप्त होकर इनमें ही विलीन हो जाती है। यहाँ तत्व के नाम का अर्थ उनके भौतिक रूप से नहीं है - यानि जल का अर्थ पानी से जुड़ी हर प्रकृति या अग्नि का अर्थ आग से जुड़ी हर प्रकृति नहीं है।

2-जब पांच तत्वों(महाभूतों )ने तामस अहंकार में विकार उत्पन्न किया तो फिर ''शब्द ''में इन्ही पांचतत्वों ने विकार उत्पन्न करके ''आकाश''; आकाश में पांच तत्वों ने विकार उत्पन्न करके ''वायु''; वायु में पांच तत्वों ने विकार उत्पन्न करके ''तेज''; तेज में पांच तत्वों ने विकार उत्पन्न करके ''जल ''और क्रमशः जल में पांच तत्वों ने विकार उत्पन्न करके ''पृथिवी '' (मिट्टी) का निर्माण किया। इन्ही पांच तत्वों को आकाश, वायु, तेज(अग्नि), जल, पृथिवी या पंच तत्व कहते हैं। मनुष्य 5 मूल तत्वों से बना एक प्राणी अर्थात जीव हैं।

3-योगी आपके छोड़े हुए सांस (प्रश्वास) की लंबाई के देख कर तत्व की प्रधानता पता लगाने की बात कहते हैं। इस तत्व से आप अपने मनोकायिक (मन और तन) अवस्था का पता लगा सकते हैं। इसके पता लगाने से आप, योग द्वारा, अपने कार्य, मनोदशा आदि पर नियंत्रण रख सकते हैं। यौगिक विचारधारा में इसका प्रयोजन (भविष्य में) अवसरों का सदुपयोग तथा कुप्रभावों से बचने का प्रयास करना होता है।

4-हर आध्यात्मिक प्रक्रिया का आधार इस स्थूल शरीर से परे जाना है। स्थूल शरीर से परे जाने का मतलब है जीवन के पांच तत्वों से परे जाना। आप जो भी अनुभव करते हैं, उस पर इन पांच तत्वों की जबर्दस्त पकड़ होती है। इनके परे जाने के लिए जो मौलिक योग किया जाता है उसे भूत शुद्धि कहा जाता है। प्रकृति के तीन गुण सत्(AIR- ELEMENT), रजस (FIRE- ELEMENT)और तमस् (WATER- ELEMENT)क्या हैं?-

07 FACTS;-

1-प्रकृति, व्यापकतम अर्थ में, प्राकृतिक, भौतिक या पदार्थिक जगत या ब्रह्माण्ड हैं।प्रकृति चेतन आत्मा के द्वारा जानने में आता है ,वेदांत में उसका नाम माया है।साधारण अर्थ में वह अज्ञान है।ज्ञान और अज्ञान यानि विद्या और अविद्या दोनों ही प्रकृति के के रूप हैं।

2-सम्पूर्ण सृष्टि सत्व, रज व तम तीन गुण से बनी हुई है, इनमें रज गुण चंचल होता है जिसके कारण हमारे शरीर, इन्द्रियों व मन में चंचलता बनी रहती है। इस रज गुण की चंचलता के कारण ही ध्यान लगना कठिन होता है।प्रकृति के तीन गुण से सृष्टि की रचना हुई है।ये तीनों घटक सजीव-निर्जीव, स्थूल-सूक्ष्म वस्तुओं में विद्यमान रहते हैं।इन तीनों के बिना किसी वास्तविक पदार्थ का अस्तित्व संभव नहीं है।किसी भी पदार्थ में इन तीन गुणों के न्यूनाधिक प्रभाव के कारण उस का चरित्र निर्धारित होता है। 3-गुण शब्द से हमें किसी एक पदार्थ की प्रतीति न हो कर, उस गुण को धारण करने वाले अनेक पदार्थों की एक साथ प्रतीति होती है। जैसे खारा कह देने से तमाम खारे पदार्थों की प्रतीति होती है, न कि केवल नमक की। इस तरह हम देखते हैं कि गुण का अर्थ है किसी पदार्थ का स्वभाव। लेकिन साँख्य के त्रिगुण गुणवत्ता या स्वभाव नहीं हैं। यहाँ वे प्रकृति के आवश्यक घटक हैं।

4-सत्व, रजस् और तमस् नाम के तीनों घटक प्रकृति और उस के प्रत्येक अंश में विद्यमान रहते हैं। इन तीनों के बिना किसी वास्तविक पदार्थ का अस्तित्व संभव नहीं है। किसी भी पदार्थ में इन तीन गुणों के न्यूनाधिक प्रभाव के कारण उस का चरित्र निर्धारित होता है।

5-हमें अन्य तत्वों के बारे में जानने के पूर्व साँख्य सिद्धांत के इन तीन गुणों के बारे में समझना चाहिए।सत्व का संबंध प्रसन्नता और उल्लाससे है, रजस् का संबंध गति और क्रिया से है। वहीं तमस् का संबंध अज्ञान और निष्क्रीयता से है।

6-जब आध्यात्मिक प्रगति होती है, आंतरिक रूप से पंचज्ञानेंद्रियां, मन एवं बुद्धि का अंधकार दूर होता है तथा हमारे भीतर की आत्मा (ईश्‍वर) का चैतन्य बढने लगता है ।इसको पंचज्ञानेंद्रिय, मन तथा बुद्धि का लय होना भी कहते हैं । हम पंचज्ञानेंद्रिय, मन तथा बुद्धि को अंधकार अथवा अविद्या कहते हैं क्योंकि वे हमारे वास्तविक स्वरूप हमारे भीतर के परमात्मा अथवा आत्मा, को पहचानने नहीं देते ।

7-जीवात्मा, जो हमारे भीतर का ईश्‍वर है, त्रिगुणातीत है अर्थात त्रिगुणों के परे है, तथा उसकी रचना त्रिगुणों से नहीं हुई है । इसीलिए साधना से हमारी आत्मा जितनी प्रकाशमान होगी, उतना ही त्रिगुणों का प्रभाव हमारे व्यक्तित्व, कर्म तथा निर्णयों पर अल्प मात्रा में होगा । आध्यात्मिक प्रगति के अंतिम चरण में जब आत्मज्योत पूर्ण रूप से हमें प्रकाशित करती है तब हम अपना जीवन पूर्णत: ईश्‍वरेच्छा से व्यतीत करते हैं, तथा त्रिगुणातीत होने पर, उनका हमारे व्यक्तित्व पर नगण्य प्रभाव होता है ।

सत्त्व अथार्त 'AIR ELEMENT' का क्या अर्थ हैं?-

05 FACTS;-

1-सत्वगुण का अर्थ "पवित्रता" तथा "ज्ञान" है।सत्व अर्थात अच्छे कर्मों की ओर मोड़ने वाला गुण | तीनों गुणों ( सत्त्व , रजस् और तमस् ) में से सर्वश्रेष्ठ गुण सत्त्व गुण है।सत्त्वगुण दैवी तत्त्व के सबसे निकट है।

इसलिए सत्त्व प्रधान व्यक्ति के लक्षण हैं – प्रसन्नता, संतुष्टि, धैर्य, क्षमा करने की क्षमता, अध्यात्म के प्रति झुकाव ।एक सात्विक व्यक्ति हमेशा वैश्विक कल्याण के निमित्त काम करता है। हमेशा मेहनती, सतर्क होता है । एक पवित्र जीवनयापन करता है। सच बोलता है और साहसी होता है।

2-सत्व प्रकृति का ऐसा घटक है जिस का सार पवित्रता, शुद्धता, सुंदरता और सूक्ष्मता है। सत्व का संबंध चमक, प्रसन्नता, भारन्यूनता और उच्चता से है। सत्व अहंकार, मन और बुद्धि से जुड़ा है। चेतना के साथ इस का गहरा संबंध है।

3-सत गुण लघु, प्रकाशक और इष्ट (आनंददायक) होता है। ज्ञान में जो विषय प्रकाशकत्व होता है, इन्द्रियों में जो विषय ग्रहिता होती है, वह सब सत्व गुण के कारण होता है। मन, बुद्धि, तेज का प्रकाश, दर्पण या कांच की प्रतिबिम्ब शक्ति आदि सभी सत गुण के कार्य हैं। इसी तरह जहां-जहां लघुता (हल्कापन) के कारण उर्ध्व दिशा में गमन का दृष्टांत मिलता है, जैसे जैसे अग्नि ज्वाला का ऊपर उठना या मन की शांति, वह सब सत गुण के कारण होता है। इसी तरह सभी प्रकार के आनंद जैसे हर्ष, संतोष, तृप्ति, उल्लास आदि और विषय मन में अवस्थित सत गुण के कारण होते हैं।

4-वायु अति मूल तत्व है जिसमे एक उपयुक्त प्रतिशत ऑक्सीजन व् जलतत्व है। ये प्रतिशत आद्रता व् पेड़ पौधों द्वारा संचारित घटती बढ़ती है। जिस क्षेत्र में वायु शुद्ध नहीं हो वहां जीवों का रहना कठिन है।वायु तत्व विस्तार या प्रतिकारक बलों की गुणवत्ता का प्रतिनिधित्व करता है।जहां प्रतिकारक बल प्रमुखता में हैं... वायु तत्व कहा जाता है। आंतरिक वायु तत्वों साँस [श्वास] लेने के लिए फेफड़े प्रणाली के साथ जुड़े वायु,आंतों प्रणाली ( पेट में आंत की अग्नि व् वायु ) सम्मिलित हैं।

5-वायु तत्व का कारकत्व स्पर्श है. इसके अधिकार क्षेत्र में श्वांस क्रिया आती है. वात इस तत्व की धातु है। यह धरती चारों ओर से वायु से घिरी हुई है। संभव है कि वायु अथवा वात का आवरण ही बाद में वातावरण कहलाया हो। वायु में मानव को जीवित रखने वाली आक्सीजन गैस मौजूद होती है. जीने और जलने के लिए आक्सीजन बहुत जरुरी है।इसके बिना मानव

जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। यदि हमारे मस्तिष्क तक आक्सीजन पूरी तरह से नहीं पहुंच पाई तो हमारी बहुत सी कोशिकाएँ नष्ट हो सकती हैं। व्यक्ति अपंग अथवा बुद्धि से जड़ हो सकता है।प्राचीन समय से ही विद्वानों ने वायु के दो गुण माने हैं। वह है - शब्द तथा स्पर्श. स्पर्श का संबंध त्वचा से माना गया है। संवेदनशील नाड़ी तंत्र और मनुष्य की चेतना श्वांस प्रक्रिया से जुड़ी है और इसका आधार वायु है।

रजस् अथार्त 'FIRE ELEMENT' का क्या अर्थ हैं?--

07 FACTS;-

1-रजस् का अर्थ क्रिया तथा इच्छाएं है। राजसिक मनुष्य अथार्त– स्वयं के लाभ तथा कार्यसिद्धि हेतु जीना । जो गति पदार्थ के निर्जीव और सजीव दोनों ही रूपों में देखने को मिलती है ...वह रजस् के कारण है।

2-रजस् प्रकृति का दूसरा घटक है जिस का संबंध पदार्थ की गति और कार्रवाई के साथ है। भौतिक वस्तुओं में गति रजस् का परिणाम हैं। जो गति पदार्थ के निर्जीव और सजीव दोनों ही रूपों में देखने को मिलती वह रजस् के कारण देखने को मिलती है। निर्जीव पदार्थों में गति और गतिविधि, विकास और ह्रास रजस् का परिणाम हैं वहीं जीवित पदार्थों में क्रियात्मकता, गति की निरंतरता और पीड़ा रजस के परिणाम हैं।

3-रजोगुण क्रिया का प्रवर्तक होता है। यह स्वयं चल होता है और अन्य वस्तुओं को चलाता है। यह चल होने के साथ-साथ उत्तेजक भी होता है। रजोगुण के कारण हवा बहती है, इंद्रिया विषयों की तरफ दौड़ती हैं और मन चंचल हो उठता है। सत व तम दोनों स्वत: निष्क्रिय होते हैं। वे रजोगुण की सहायता से ही प्रवर्तित होते हैं। रजोगुण दु:खात्मक होता है। जितने प्रकार के दु:खात्मक (शारीरिक या मानसिक कष्ट) होते हैं, वे रजोगुण के कारण होते हैं।

4-अग्नि तत्व ऊष्मा या ऊर्जा की गुणवत्ता का प्रतिनिधित्व करता है। कोई तत्व, जहां ऊर्जा प्रमुखता में है अग्नि या तेज़ तत्व कहा जाता है। आंतरिक अग्नि तत्व शारीरिक तंत्र में शारीरिक गर्मी या उष्णता, वीर्य, आयुष्मान रख, पाचन शक्ति व् ऊर्जा को संतुलित रखता है।अग्नि तत्व को मनुष्य नष्ट नहीं कर सकता पर वृक्षों को मूर्खतापूर्वक काट कर अग्नि तत्व को समाप्त या सिमित कर सकता है। 5-अग्नि तत्व ही क्रोध की लहरों को तीव्र करता है।इसका सही नियंत्रण जरुरी है और इसके दुरूपयोग से मनुष्य शरीर की आयु को घटाता है। इस तत्व को संयंम व् शारीरिक कार्यों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। अग्नि तत्व ऊर्जा का प्राथमिक साधन है जो गैसीय वाष्प रूप में खनिजों, वृक्षों व् धातु पाषाण में स्थापित रहता है।अग्नि तत्व ही मनुष्य , जीवों व् जैविक उत्पादों को ग्रहण कर उन्हें शुद्धता देता है।अग्नि शेष तत्वों को परिवहन कर उनके मूल स्थान तक वापिस ले जाती है। 6-अग्नि के तेज से किसी भी भवन या घर में शुद्धता लायी जा सकती है।इसके समय समय पर सतर्क ज्वलन से विषैले विषाणु व् वायु शोधन भी किया जा सकता है।अग्नि का कारकत्व रुप है। इसका अधिकार क्षेत्र जीवन शक्ति है। इस तत्व की धातु पित्त है। सभी जानते हैं कि सूर्य की अग्नि से ही धरती पर जीवन संभव है। यदि सूर्य नहीं होगा तो चारों ओर सिवाय अंधकार के कुछ नहीं होगा और मानव जीवन की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती है। सूर्य पर जलने वाली अग्नि सभी ग्रहों को ऊर्जा तथा प्रकाश देती है।

7-इसी अग्नि के प्रभाव से पृथ्वी पर रहने वाले जीवों के जीवन के अनुकूल परिस्थितियाँ बनती हैं। शब्द तथा स्पर्श के साथ रुप को भी अग्नि का गुण माना जाता है। रुप का संबंध नेत्रों से माना गया है। ऊर्जा का मुख्य स्त्रोत अग्नि तत्व है। सभी प्रकार की ऊर्जा चाहे वह सौर ऊर्जा हो या आणविक ऊर्जा हो या ऊष्मा ऊर्जा हो सभी का आधार अग्नि ही है।अग्नि के देवता सूर्य अथवा अग्नि को ही माना गया है।

तमस् अथार्त 'WATER ELEMENT' का क्या अर्थ हैं?--

11 FACTS;-

1-तमस् का अर्थ अज्ञानता तथा निष्क्रियता है।तामसिक मनुष्य अथार्त – दूसरों को अथवा समाज को हानि पहुंचाकर स्वयं का स्वार्थ सिद्ध करना|तम प्रधान व्यक्ति, आलसी, लोभी, सांसारिक इच्छाओं से आसक्त रहता

है।तमस् गुण के प्रधान होने पर व्यक्ति को सत्य-असत्य का कुछ पता नहीं चलता, यानि वो अज्ञान के अंधकार (तम) में रहता है। यानि कौन सी बात उसके लिए अच्छी है वा कौन सी बुरी ये यथार्थ पता नहीं चलता और इस स्वभाव के व्यक्ति को ये जानने की जिज्ञासा भी नहीं होती।

2-तमस् प्रकृति का तीसरा घटक है जिस का संबंध जीवित और निर्जीव पदार्थों की जड़ता, स्थिरता और निष्क्रीयता के साथ है। निर्जीव पदार्थों में जहाँ यह गति और गतिविधि में अवरोध के रूप में प्रकट होता है वहीं जीवित प्राणियों और वनस्पतियों में यह अशिष्टता, लापरवाही, उदासीनता और निष्क्रियता के रूप में प्रकट होता है।मनुष्यों में

यह अज्ञानता, जड़ता और निष्क्रियता के रूप में विद्यमान है।

3-तमोगुण गुरु (भारी) और अवरोधक होता है। यह सतगुण का उलटा है। यह प्रकाश का आवरण करता है। यह रजोगुण की क्रिया का भी अवरोध करता है जिसके कारण वस्तुओं की गति नियंत्रित हो जाती है। तत्व जड़ता व निष्क्रियता का प्रतीक है। इसी के कारण बुद्धि, तेज आदि का प्रकाश फीका पड़ने से मूर्खता या अंधकार की उत्पत्ति होती है। यह मोह या अज्ञान का जनक है। यह क्रिया की गति अवरोध करता है, निद्रा, तंद्रा या आलस्य उत्पन्न करता है। यह अवसाद का कारण है।

4-पृथ्वी , जल , वायु , आकाश और अग्नि इन पांच तत्वों से हम जीवन धारण करते हैं। इन तत्वों में जल सबसे विलक्षण तत्व है , जिसके बिना जीवन संभव ही नहीं है। विश्व की समस्त संस्कृतियों और धार्मिक पुराकथाओं में सृष्टि का आरंभ जल से ही माना जाता है।ऋग्वेद में

सृष्टिपूर्व की अवस्था के विषय में उल्लेख है कि तब चारों ओर गहन गम्भीर जल ही व्याप्त था। मनु ने जगत का मूल कारण जल को माना है। कालिदास ने भी जल को आधी सृष्टि स्वीकार किया है।

5-इसके अतिरिक्त जल प्लावन का वर्णन भी अनेक ग्रंथों में प्राप्त होता है। इसका अभिप्राय यह है कि इस पृथ्वी पर जीवन-मृत्यु , सृष्टि और प्रलय सब का आधार जल ही है। कुछ लोग इसकी व्याख्या इस प्रकार

करते हैं कि ' ज ' से जन्म तथा ' ल ' से लय। यानी जन्म से लेकर लय तक प्राणी का जीवन अथवा यह सम्पूर्ण सृष्टि , सब जल पर ही निर्भर है। जल के लिए सलिल , पय: , रस , कीलाल , जीवन , भुवन वन आदि पर्याय प्रयुक्त हैं , परंतु सर्वाधिक प्रयुक्त एवं उपयुक्त नाम आप: है।

6-जल तीसरा तत्व है जो सदैव उतना ही सीमित रहता है जितना पृथ्वी पर आरम्भ में था। प्रकृति अपने संचलन से जल को प्रवाहित करती है। जल तत्व तरलता या सापेक्ष गति की गुणवत्ता का प्रतिनिधित्व करता है। कोई तत्व जहां कणों की सापेक्ष गति प्रमुखता में है जल तत्व कहा जाता है। आंतरिक जल तत्वों में पित्त, कफ, मवाद, खून, पसीना, वसा, आँसू,श्लेष्मा, मूत्र, आदि हैं।जल दूषित या जल का निरादर करने वाले जीवों का आंतरिक जल तत्व दूषित होता है जिससे इनसे सम्बंधित बीमारियां होती हैं।जल तत्व की प्रधानता होने के कारण मनुष्य शरीर अंतर जल दूषित होने पर कई व्याधियों से रुग्ण हो जाते हैं ।उष्म जल को 40 दिन ग्रहण कर प्रतिदिन 13 बार पीने से शरीर के जल की मलिनता कम हो जाती है।

7-जल का पर्याय अमृत भी है। ''आप: ''जल की सर्वत्र व्यापनशीलता का संकेत करता है। जो सबमें व्याप्त है तथा अपने में सबको सन्निहित कर लेता है। जल की धारा में मातृत्व का प्रतीकात्मक रूप है। माता , स्त्री , बहिन , वरप्रदात्री स्त्रियों के रूप में इनका मानवीकरण कर दिया गया है। इसीलिए यहाँ नदियों को माता कह कर बुलाने की प्रथा विकसित हुई है।

8-करुणा , प्रेम , स्नेह और वात्सल्य का आधार जल ही है। यज्ञ में उपस्थित रहने वाला जल सब प्रकार से लोक कल्याण और हित में संनद्ध रहता है। मातृत्व से परिपूर्ण जलधाराएं मानव मन को आह्लादित कर देती हैं। पांचों तत्वों में जल ही शांति , आह्लाद और आनंद का परिचायक है। जल के निकट ही पुष्कल बुद्धि का आविर्भाव होता है। नदियों के समीप विशालता एवं व्यापकता में विराट् की अनुभूति संभव है। वहाँ संकीर्णता , संकोच और मतिभ्रम दूर हो जाता है , तृप्ति की अनुभूति होती है और सभी ओर शीतल भावना का उदेक होता है।

9-सृष्टि का आदि तत्व होने के साथ-साथ जल सर्वाधिक प्रवाहमान तत्व है। इसी प्रवाह के गुण तथा गति से जल में देवत्व है। यह गति ही सृष्टि को गति देती है। जल और जल से उत्पन्न हुई औषधियों से कल्याण की कामना हमारे ऋषि मुनियों ने अनेक बार की है। जल के भीतर वर्तमान अमृतत्व गुण इसके लोकोपकारी देवत्व भाव को पुष्ट करते हैं। सृष्टि के अन्य तत्व एवं प्राकृतिक क्रियाएं स्वभावत: दूसरे तत्वों का शोधन करती हैं। जल में भी शोधन एवं पवित्र करने का गुण विद्यमान है। इसीलिए जल को पवित्र माना गया है। पवित्र जल हमें भी शुद्ध एवं पवित्र बनता है।

10-ऋग्वेद की एक ऋचा के अनुसार जल में जो शुद्धि का गुण है , शोधन करने की जो क्षमता है , और जो जीवन शक्ति है वही इसे देवत्व प्रदान करती है। अग्नि आदि समस्त देवता जल में समाहित हैं। मरूत , इन्द्र , वरुण आदि सभी जलीय देवता हैं। जल प्राय: सभी देवताओं का निवास माना गया है। अत: जल को देवालय कहा जाता है।जल की दैवी शक्ति से

अभिभूत होकर ही यजुर्वेद में कामना की गई है: '' पृथ्वी , अन्तरिक्ष , औषधि आदि सभी क्षेत्र और दिशाएं जल से ही आवृत्त हैं और कोई स्थल या पदार्थ जल से रिक्त न हों''।

11-इस तत्व का कारकत्व रस को माना गया है। इन दोनों का अधिकार रुधिर अथवा रक्त पर माना गया है क्योंकि जल तरल होता है और रक्त भी तरल होता है।कफ धातु इस तत्व के अन्तर्गत आती है। विद्वानों ने जल के चार गुण शब्द, स्पर्श, रुप तथा रस माने हैं। यहाँ रस का अर्थ स्वाद से है। स्वाद या रस का संबंध हमारी जीभ से है।पृथ्वी पर मौजूद सभी प्रकार के जल स्त्रोत जल तत्व के अधीन आते हैं।जल के बिना जीवन संभ्हव नहीं है।

TEN KEY POINTS;-

1-तीनों गुण प्रकृति के ही हैं लेकिन सतोगुण पर जो चलता है, उसकी गुणों के पार निकल जाने की संभावना बढ़ जाती है। तीनों गुण प्रकृति के ही हैं लेकिन जो तमस में फँसा हुआ है, वो तमस में फँसा रहेगा, जो रजोगुण में फँसा है, वो वहीं फँसा रहेगा। लेकिन जो सतोगुण में है , वो हो सकता है कि गुणातीत निकल जाए।

2-प्राकृतिक रूप से महिलाओं में आमतौर पर अंतर्बोध होता हैं, जबकि पुरुषों में ज्यादातर तर्किकता अधिक होती है।स्त्री और पुरुष तंत्र के तत्वों की प्रवृत्ति में जो अंतर होता है - एक का झुकाव जल तत्व की ओर होता है और दूसरे का अग्नि तत्व की ओर - यह बस अस्थायी है। आप कितनी जल्दी इस लिंगगत प्रकृति से परे निकलते हैं, यह इस पर भी निर्भर करता है कि आप अपने भीतर कितना आकाश तत्व विकसित करते हैं।

3-अगर आप अपनी मौजूदा सीमाओं से परे निकलना चाहते हैं तो आप अपने बोध को अपनी पांच इंद्रियों व भौतिकता के आयाम से आगे बढ़ाना चाहते हैं और अस्तित्व की दिव्य प्रकृति की खोज करना चाहते हैं, तो इसके लिए अपने सिस्टम में आकाशतत्व का अनुपात बढ़ाना जरूरी है।

आकाश तत्व को बढ़ाने का मतलब आपके दिमाग में खालीपन पैदा करना नहीं है। आकाश को बढ़ाने का मतलब आध्यात्मिक व भौतिक दोनों ही तरीकों से अपनी मूल प्रकृति की तरफ बढ़ना है।

4-अगर आपकी प्रवृत्ति आकाश की तरफ बढ़ती है तो आध्यात्मिकता के प्रति आपकी चाहत आपकी सभी जरूरतों से ऊपर निकल जाएगी।

जब आपके सिस्टम में आकाश तत्व प्रभावशाली होता है तो भौतिक आयाम कम महत्वपूर्ण होने लगते हैं। इसका मतलब भौतिकता को अनदेखी करना नहीं, बल्कि उससे परे जाना है। परे जाने का मतलब मौजूदा सीमाओं से आगे निकलना या ऊपर उठाना। आमतौर पर लोग खुद को अपनी जाति, धर्म, राष्ट्रीयता या लिंगगत पहचानों या फिर अपने व्यक्तित्व की खूबियों से परिभाषित करते हैं।

5-बुनियादी तौर पर आप खुद को अपनी उन सीमाओं या फिर अपनी उन चारदीवारियों से परिभाषित करते हैं, जो आपने अपने लिए तय कर रखी हैं। अपने भीतर आकाश तत्व का अनुपात बढ़ाना और आध्यात्मिकता की तरफ मुड़ने का मतलब हुआ कि आप खुद को असीम के तौर पर परिभाषित कर रहे हैं। और असीम की कोई परिभाषा नहीं होती।

6-एक बार आपका बोध भौतिक प्रकृति से ऊपर उठ जाता है तो फिर स्त्री या पुरुष जैसी कोई चीज नहीं रह जाती। फिर सिर्फ एक मानव आकार रह जाता है जिसे कई तरीके से सक्षम और कुशल बनाया जा सकता है।यहां कुशलता का जिक्र सिर्फ काम के संदर्भ में ही नहीं हो रहा, बलिक बोध के संदर्भ में भी हो रहा है। आप अपना कौशल सिर्फ एक इंसान के तौर पर ही नहीं बढ़ाते, बल्कि एक जीवन के तौर पर भी बढ़ाते हैं। इस तरह आप पहले से ज्यादा जीवंत हो उठते हैं। हर इंसान जीवन को उसके बड़े आयाम में जानने के लिए सक्षम है।

7-सीमाओं से परे जाने की चाहत हरेक में निहित होती है।अगर इंसान कुछ जरूरी वक्त खुद को दे देता है तो वह अपने अस्तित्व की सीमाओं को जान लेगा। एक बार आप अपनी ही सीमाओं के प्रति खुद सचेत हो गए तो फिर इससे परे जाने की चाहत स्वाभाविक प्रक्रिया होगी।

8-उपरोक्त विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि पंचतत्व मानव जीवन को अत्यधिक प्रभावित करते हैं. उनके बिना मानव तो क्या धरती पर रहने वाले किसी भी जीव के जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। इन पांच तत्वों का प्रभाव मानव के कर्म, प्रारब्ध, भाग्य तथा आचरण पर भी पूरा पड़ता है.

9-जल यदि सुख प्रदान करता है तो संबंधों की ऊष्मा सुख को बढ़ाने का काम करती है और वायु शरीर में प्राण वायु बनकर घूमती है. आकाश महत्वाकांक्षा जगाता है तो पृथ्वी सहनशीलता व यथार्थ का पाठ सिखाती है. यदि देह में अग्नि तत्व बढ़ता है तो जल्की मात्रा बढ़ाने से उसे संतुलित किया जा सकता है. यदि वायु दोष है तो आकाश तत्व को बढ़ाने से यह संतुलित रहेगें।

10-किसी का पूर्ण रूप से केवल सात्त्विक,राजसिक एवं तामसिक होना बहुत दुर्लभ है ।

व्यक्ति में जो सूक्ष्म गुण प्रबल है, वैसा उसका व्यक्तित्व प्रदर्शित होता है । अपने व्यक्तित्व को जितना चाहे हम अच्छे वस्त्र, आभूषण एवं ऊपरी बातों के पीछे छिपाएं, हमारे प्रबल सूक्ष्म गुण के अनुसार हमारे मूल स्पंदन प्रक्षेपित होते रहते हैं । हमारा मूल स्वरूप छिपता नहीं है । जिनकी प्रगत छठवीं ज्ञानेंद्रिय है, वे इन बाह्य छलावरण के पार देख पाते हैं तथा अदृश्य और सूक्ष्म स्पंदनों को अनुभव कर सकते हैं । इसीलिए वे किसी भी व्यक्ति का मूल स्वभाव -सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक तथा विशेषताओं के बारे में सरलता से बता सकते हैं ।

किसी भी व्यक्ति के प्रबल गुण हम तब जानते हैं, जब वह व्यक्ति अकेले अथवा एकांत में होता है । व्यक्ति अपना सत्य स्वरूप तब दर्शाता है, जब वह किसी के निरीक्षण में नहीं हो ।

त्रिगुण कैसे दिखते हैं ?-

05 FACTS;-

त्रिगुण अदृश्य कण हैं, परंतु सक्रिय होने पर अर्थात उर्जा के साथ तरंगों के रूप में दिखाई देते हैं ।यह छठवीं ज्ञानेंद्रिय (सूक्ष्म संवेदी क्षमता) से देखा जा सकता हैं।

आकृति का विवरण

1-रंग : जब छठवीं ज्ञानेंद्रिय से देखा जाए तो सत्त्वगुण का रंग पीला, रजोगुण का रंग लाल और तमोगुण का रंग काला दिखाई देता है ।

2-तरंगदैर्घ्य (wavelength) : सबसे अधिक कार्यरत-रजोगुण तरंगदैर्घ्य में दिखाई देता है तथा सत्त्वगुण का स्वरूप शांत होने के कारण रजोगुण की तुलना में सत्व गुण का तरंगदैर्घ्य लंबा है । तमो गुण का स्वरूप अव्यवस्थित तथा विकृत है और यह उसके अनियमित तरंगदैर्घ्य में स्पष्ट दिखता है ।

3-विस्तीर्णता (amplitude) : रजोगुण सर्वाधिक मात्रा में कार्यरत होने के कारण सबसे अधिक विस्तार में पाया जाता है । सत्त्वगुण की विस्तीर्णता अल्प मात्रा में है, और तमो गुण की उससे भी अल्प तथा अनियमित है ।

4-लंबाई : उनकी लंबाई कार्य की आवश्यकतानुसार रहती है ।

5-तत्व का स्वभाव ; पृथ्वीतत्त्व में तमो गुण सर्वाधिक होता है, इसीलिए इसमें जडता भी है । सूक्ष्म तमोगुण अस्तित्व को सीमित करता है, जबकि सत्त्व गुण अस्तित्व को व्यापक बनाता है । इसी से स्पष्ट होगा कि पंचमहाभूतों में पृथ्वी तत्त्व निम्न स्तर का,तो आकाशतत्त्व सूक्ष्मतम और सात्विक तथा सबसे शक्तिशाली माना जाता है।

त्रिगुण के आधारभूत पृथ्वी तत्व और आकाश तत्व का महत्व;-

04 FACTS;-

1-मनुष्य केवल पांच भूत, पांच पदार्थ, पांच ज्ञानेन्द्रिया, पांच कर्मेंद्रिया, तीन गुण ही नहीं; बल्कि मनुष्य को सारे कार्य करने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है.. जो चेतना तंत्र देता है।प्रकृति के 24 तत्वों के मेल से यह मनुष्य शरीर बना है।और यही 24 तत्वों से बना प्रकृति के शरीर में वास करता है पुरुष अर्थात परमात्मा का अंश... उसे आत्मा कहा गया है। जब पुरुष बनकर परमात्मा का अंश प्रकृति से बने मनुष्य के अंदर वास करता है तब मनुष्य में जीवन आता है।

2-मनुष्य का शरीर भी पाँच तत्वों से ही बना हुआ है। इन तत्वों का जब तक शरीर में उचित भाग रहता है तब तक स्वस्थता रहती है। जब कमी आने लगती है तो शरीर निर्बल, निस्तेज, आलसी, अशक्त तथा रोगी रहने लगता है। स्वास्थ्य को कायम रखने के लिए यह आवश्यक है कि तत्वों को उचित मात्रा में शरीर में रखने का हम निरंतर प्रयत्न करते रहें और जो कमी आवे उसे पूरा करते रहें।

3-पंचतत्व मानव जीवन को अत्यधिक प्रभावित करते हैं. उनके बिना मानव तो क्या धरती पर रहने वाले किसी भी जीव के जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है. इन पांच तत्वों का प्रभाव मानव के कर्म, प्रारब्ध, भाग्य तथा आचरण पर भी पूरा पड़ता है. जल यदि सुख प्रदान करता है तो संबंधों की ऊष्मा सुख को बढ़ाने का काम करती है और वायु शरीर में प्राण वायु बनकर घूमती है. आकाश महत्वाकांक्षा जगाता है तो पृथ्वी सहनशीलता व यथार्थ का पाठ सिखाती है. यदि देह में अग्नि तत्व बढ़ता है तो जल्की मात्रा बढ़ाने से उसे संतुलित किया जा सकता है. यदि वायु दोष है तो आकाश तत्व को बढ़ाने से यह संतुलित रहेगें.

4-त्रिगुण के आधारभूत पृथ्वी तत्व और आकाश तत्व है।यदि ये दोनों तत्व ही विकृत होंगे तो त्रिगुण का कार्य निष्फल हो जायेगा।उदाहरण के लिए आकाश की विकृत के कारण जिसका दिमाग मंद बुद्धि है.. वहां त्रिगुण क्या काम कर सकते है...

पृथ्वी तत्व :-

04 FACTS;-

1-पृथ्वी तत्व का कारकत्व गंध है. इस तत्व के अधिकार क्षेत्र में हड्डी तथा माँस आता है. इस तत्व के अन्तर्गत आने वाली धातु वात, पित्त तथा कफ तीनों ही आती हैं. विद्वानों के मतानुसार पृथ्वी एक विशालकाय चुंबक है. इस चुंबक का दक्षिणी सिरा भौगोलिक उत्तरी ध्रुव में स्थित है. संभव है इसी कारण दिशा सूचक चुंबक का उत्तरी ध्रुव सदा उत्तर दिशा का ही संकेत देता है।

2-पृथ्वी के इसी चुंबकीय गुण का उपयोग वास्तु शास्त्र में अधिक होता है. इस चुंबक का उपयोग वास्तु में भूमि पर दबाव के लिए किया जाता है. वास्तु शास्त्र में दक्षिण दिशा में भार बढ़ाने पर अधिक बल दिया जाता है. हो सकता है इसी कारण दक्षिण दिशा की ओर सिर करके सोना स्वास्थ्य के लिए अच्छा माना गया है. यदि इस बात को धर्म से जोड़ा जाए तो कहा जाता है कि दक्षिण दिशा की ओर पैर करके ना सोएं क्योंकि दक्षिण में यमराज का वास होता है।

3-पृथ्वी अथवा भूमि के पाँच गुण शब्द, स्पर्श, रुप, स्वाद तथा आकार माने गए हैं.

आकार तथा भार के साथ गंध भी पृथ्वी का विशिष्ट गुण है क्योंकि इसका संबंध नासिका की

घ्राण शक्ति से है।पृथ्वी अथवा भूमि के पाँच गुण शब्द, स्पर्श, रुप, स्वाद तथा आकार माने गए हैं. आकार तथा भार के साथ गंध भी पृथ्वी का विशिष्ट गुण है क्योंकि इसका संबंध नासिका की घ्राण शक्ति से है.

4-धरती इन पांचों तत्वों में सबसे बुनियादी और स्थायी तत्व है। बात जब ऊर्जा सिस्टम और चक्रों पर आती है तो इसका संबंध मूलाधार से होता है।पञ्चभूत भारतीय दर्शन में सभी पदार्थों के मूल माने गए हैं । पृथ्वी (ठोस), आप (जल, द्रव), आकाश (शून्य), अग्नि (प्लाज़्मा) और वायु (गैस) - ये पञ्चमहाभूत माने गए हैं जिनसे सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ बना है ।दृढ़ता आकर्षण बलों की गुणवत्ता का प्रतिनिधित्व करता है। कोई तत्व, जहां आकर्षण बलों की प्रमुखता ठोस निकायों में हैं पृथ्वी तत्व कहा जाता है। आंतरिक पृथ्वी तत्व सिर के

बाल, शरीर के बाल, नाखून, दांत, त्वचा, मांस, नसें, हड्डी, अंग, आंतों की सामग्री है ।

आकाश तत्व;-

03 FACTS;-

1-संसार में पंच महा भूतो में आकाश तत्व प्रधान होता है। यह सबसे अधिक उपयोगी एवं प्रथम तत्व हैै। जिस प्रकार परमात्मा असीम एंव निराकार है उसी प्रकार आकाश तत्व का असीम एवं निराकार है। आकाश तत्व का उसी प्रकार नाश नही हो सकता जिस प्रकार ईश्वर को कभी नश्ट नहीं किया जा सकता।आकाश एक ऎसा क्षेत्र है जिसका कोई सीमा नहीं है। पृथ्वी के साथ्-साथ समूचा ब्रह्मांड इस तत्व का कारकत्व शब्द है। इसके अधिकार क्षेत्र में आशा तथा उत्साह आदि आते हैं।. वात तथा कफ इसकी धातु हैं।

2-भारतीय मान्यताओं के अनुसार आकाश में परमात्मा का देवी, देवताओं का वास माना जाता है इसलिये आकाश तत्व के द्वारा उसे धारण करके उसके द्वारा चिकित्सा द्वारा मनुष्य भी उत्तम स्वास्थ्य एवं दीर्घ जीवन प्राप्त कर पाता है।जिस प्रकार हर ठोस वस्तु में एक अदृश्य शक्ति छीपी होती है और अदृश्य या निराकार वस्तु को देखने पर हमें कोई ठोस वस्तु के दर्शन नहीं होते है। ठीक उसी प्रकार निराकार आकाश तत्व में भी होता है।

3-निराकार से निराकार वस्तु की ही प्राप्ति होती है। आकाश निराकार है और इससे निराकार शक्ति की ही प्राप्ति होती है। यह शक्ति परम कल्याण कारी होती है।मानव शरीर एक अद्भूत यंत्र है, जिसकी संरचना एवं कार्य विचित्र है। मानव शरीर को हम एक ब्रहमाण्ड रूपी छोटी संरचना का रूप कह सकते है।वास्तविकता तो यह है कि यदि परमात्मा ने आकाश तत्व की उत्पत्ति नहीं की होती हो तो आज हमारा भी अस्तित्व नहीं होता। हम श्वास भी नहीं ले पाते। आन्तरिक स्फूर्ति एवं प्रसन्नता की अनुभूति आकाश तत्व से ही सम्भव होती है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु ये चारों तत्व आकाश तत्व का आधार लेकर ही कार्य करते है। वे सभी आकाश तत्व पर ही निर्भर रहते है।

आकाश तत्व का महत्व;-

06 FACTS;-

1-वास्तु शास्त्र में आकाश शब्द का अर्थ रिक्त स्थान माना गया है. आकाश का विशेष गुण "शब्द" है और इस शब्द का संबंध हमारे कानों से है. वास्तु शास्त्र में आकाश शब्द का अर्थ रिक्त स्थान माना गया है. आकाश का विशेष गुण "शब्द" है और इस शब्द का संबंध हमारे कानों से है जो श्रवण शक्ति का कारक है। शब्द जब हमारे कानों तक पहुंचते है तभी उनका कुछ अर्थ निकलता है. वेद तथा पुराणों में शब्द, अक्षर तथा नाद को ब्रह्म रुप माना गया है। वास्तव में आकाश में होने वाली गतिविधियों से गुरुत्वाकर्षण, प्रकाश, ऊष्मा, चुंबकीय़ क्षेत्र और प्रभाव तरंगों में परिवर्तन होता है। इस परिवर्तन का प्रभाव मानव जीवन पर भी पड़ता है। इसलिए आकाश कहें या अवकाश या रिक्त स्थान कहें, हमें इसके महत्व को कभी नहीं भूलना चाहिए ।

2-आकाश का अर्थ ‘खाली जगह’ होता है इसे अवकाश देने वाला भी कहते है। जहाँ खाली स्थान होता है। वहाँ वायु होती है। ठीक इसी प्रकार में ही मनुष्य अपना जीवन यापन करता है। आकाश के बिना मानव या अन्य प्राणियों की कल्पना नहीं की जा सकती। आकाश में ही प्राणी गति करते है। ठोस में गति करने के लिये अवकाश नहीं रहता है। जिस प्रकार पानी में मछली रहती है उसी प्रकार सभी जीव आकाश में अपना जीवन यापन करते है।

हम चारो ओर से आकाश तत्व द्वारा ही घिरे रहते है। हमारे शरीर के भीतर शरीर के बाहर आकाश ही है। हमारे शरीर के भीतर, रक्त गति करता है, असंक्ष्य कोश काये कार्य करती है, वायु गति करता है। इन सबको अपना कार्य सम्पन्न करने एवं अपने अस्तित्व के लिये आकाश तत्व की ही आवश्यकता होती है। इसके अभाव में इनके कार्य एंव स्थिति सम्भव नहीं होती है। 3-आकाश तत्व एक मूल तत्व माना गया है। अत: वास्तु विषय मे इसे ब्रहम तत्व (मध्य स्थान) कहा जाता है। इस तत्व की पूर्ति करने के लिये पुराने जमाने में मकान के मध्य में खुला आंगन रखा जाता था, ताकि अन्य सभी दिशाओं में इस तत्व की आपूर्ति हो सके। आकाश तत्व से अभिप्राय यह है कि गृह निर्माण में खुलापन रहना चाहिये। मकान में कमरों की ऊचांई और आंगन के आधार पर छत का निर्माण होना चाहिये। अधिक व कम ऊंचाई के कारण आकाश तत्व प्रभावित होता है। कई मकानों में दूषित वायु (भूत-प्रेत ) का प्रवेश एवं आवेश देखा गया है। इसका मूल कारण वायु तत्व और आकाश तत्व का सही निर्धारण नहीं होना ही पाया गया है। मानसिक रोगों का पनपना भी आकाश तत्व के दोष का ही नतीजा पाया जाता है। 4-मानव शरीर की संरचना बहुत ही विचित्र है। जिस प्रकार शरीर के भीतर आकाश तत्व यानि खाली स्थान होता है उसी आधार पर अब वैज्ञानिक भी ठोस पदार्थ में आकाश तत्व की स्थिति को बताते है क्योंकि उनमें भी इलेक्ट्रोन तथा प्रोटोन परस्पर गतिशील रहते है। जब स्थूल सृष्टि की रचना होती है तब यह सबसे पहले शक्ति से उत्पन्न होता है और महाप्रलय के समय ही जब समस्त सृष्टि का अंत होता है तब यह शक्ति में ही विलीन हो जाता है। आकाश तत्व का सूक्ष्म विषय ‘‘शब्द’’ है यानि ‘‘शब्द’’ के माध्यम से ही आकाश तथा आकाश तत्व प्रधान वस्तुओं की जानकारी प्राप्त होती है। इस संसार में सभी प्रकार के सूचना प्रसारण तंत्रो का मुख्य आधार यही आकाश तत्व होता है।

5-आकाश को शास्त्रों में पिता भी माना गया है । आकाश हमारा पालन करता है,हमारी रक्षा करता है। आकाश ये सब ठीक उसी तरह करता है जिस तरह एक पिता अपने बच्चों के लिए सारी तकलीफे उठाता है और उनका पालन करता है जब तक बच्चे बडे न हो जाये। भारतीय संस्कृति की प्रारम्भ मान्यता रही है कि आत्मा के बिना शरीर मिट्टी का खिलौना है और आत्मा अजय और अमर है। 6-आकाश हमारे भीतर-बाहर, ऊपर-नीचे चारों ओर है। त्वचा के एक छेद के बीच जहां है.. वहीं आकाश है। इस आकाश की खाली जगह को हमें भरने की कोशिश नहीं करनी चाहिये। यदि दैनिक दिनचर्या में हम बिना ठूसे भोजन करें तो पेट में रिक्त स्थान बचा रहेगा जो कि आकाश तत्व ही है। और साथ ही यह एक अच्छे स्वास्थ्य के लिये भी उत्तम रहता है। उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति एवं रोग की निवृत्ति के लिये आकाश तत्व एक साधन के रूप में कार्य करता है। आकाश तत्व की प्राप्ति विभिन्न साधनो द्वारा की जा सकती है। जैसे - उपवास , ब्रहमचर्य, संयम, सदाचार, मानसिक अनुशासन, मानसिक संतुलन, विश्राम या शिथिलीकरण, प्रसन्नता, मनोरंजन एवं गहरी निद्रा।

क्या है आपका तत्व(ELEMENT) ?-

मनुष्य का स्वभाव और बर्ताव और कार्य कैसे बनते है यह समझना अत्यंत जरूरी है। मनुष्य दृश्य और अदृश्य पदार्थो का मेल है केवल। फिर भी प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव, बर्ताव और कार्य भिन्न भिन्न होते है। इसका कारण है प्रकृति के तीन गुण।सत्व, रजस और तमस के कम और अधिक मात्रा के समन्वय से मनुष्य का स्वभाव बनता है।श्रीकृष्ण में त्रिगुण का 33%अनुपात है परन्तु सामान्य मनुष्य में ये संभव नही है। कोई व्यक्ति जल-तत्व प्रधान हैहै,कोई अग्नि-तत्व प्रधान है,तो कोई वायु-तत्व प्रधान है।हमारे दिमाग रूपी कम्प्यूटर में जो चिप लगायी गयी.. हमारा स्वभाव और बर्ताव वैसा ही होगा जो अपरिवर्तिनीय है।हम इसे केवल विकृत ही कर सकते है...परिवर्तित नही कर सकते।इसीलिए प्रत्येक मनुष्य को अपने तत्व के अनुसार ही बर्ताव करना चाहिए।तभी हम सफल हो सकते है।

जल तत्व प्रधान व्यक्ति (WATER ELEMENT);-

03 FACTS;-

1-जल हमारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है . वायु और अग्नि तत्व मिल कर इस का निर्माण करते है। जहा हम भोजन के बिना महीनो जीवित रह सकते है तो पानी के बिना सिर्फ कुछ दिन ।चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति से जल आवेशित हो कर सैकड़ो फुट ऊपर उठ जाता है। हमारे शरीर में भी जल की अधिकता है।

2-जब हम तत्व के रूप में जल को जानने की कोशिस करते है तो हम पाते है की यही वो तत्व है जो की स्रष्टि के निर्माण के बाद जीवन की उत्पत्ति का कारण है। जल में दो तत्व और निहित हैं- देव तत्व और जीवन तत्व। इनके कारण जल का महत्व और बढ़ जाता है।

2-जल-तत्व में ग्रहण करने की क्षमता होती है, इसलिए जल-तत्व प्रधान व्यक्तियों में आत्मविश्लेषण, खोज एवं ग्रहण करने का विशेष गुण होता है।ये धीर-गंभीर व विशाल हृदया होते हैं।यदि जल तत्व के व्यक्तियों में

असंतुलन की स्थिति आ जाती है तो व्यक्ति, अकेला और अलग रहने वाला, भुलक्कड़, बांझ, या नपुंसक हो जाता हैं |

3-ये जोड़ो के दर्द, नेत्र हीनता, नींद न आना, खराब सपने या हीनता की भावना से ग्रसित रहते हैं | जल तत्व की अधिकता से व्यक्ति ज्यादा सक्रिय,सागर की तरह असमीमित, अभिभूत और ज्यादा ताकत दिखाने वाला हो जाता है |जहाँ पर बहता हुआ पानी कम मात्रा में रहता है जैसे कि चट्टानों से टपकता हुआ पानी या फ़व्वारे से निकलता हुआ पानी जो निकल तो रहा है पर जा कहीं नहीं जा रहा है |जल सामाजिक व्यवहार को दर्शाता हैं |

अग्नि तत्व प्रधान व्यक्ति(FIRE ELEMENT);-

05 FACTS;-

1-अग्नि तत्व प्रधान व्यक्तियों में क्रियात्मक शक्ति का समावेश होता है ।अग्नि में रूप परिवर्तन की क्षमता होती है।यदि हम अपने वैदिक ध्वज पर ध्यान दे जो उस का रंग और और उस की आकृति अग्नि का प्रतीक है। हमारा तेज जिसे वैज्ञानिक भाषा में हम अपनी इलेक्ट्रो मैग्नेटिक फील्ड भी कहते है अग्नि तत्व पर निर्भर करता है। यह असीम ऊर्जा का स्रोत है.. इसे हम शिव तत्व के नाम से भी जानते है। किसी भी कार्य चाहे वो अध्यात्मिक वो या सांसारिक हमें ऊर्जा की आवश्यकता होती है। और स्थूल से सूछ्म ऊर्जा अधिक प्रभावी होती है।

2-अग्नि तत्व न सिर्फ हमें प्रभावशली बनता है अपितु हमारी अध्यात्मिक और सांसारिक

उन्नति भी करता है।अग्नि में रूप परिवर्तन की क्षमता होती है।हम सतयुग से ही अग्नि के उपासक रहे है। अग्नि में सदैव ऊपर उठने का गुण होता है।जब किसी व्यक्ति की अध्यात्मिक उन्नति होती है, वह उच्चतर स्तर पर कार्य करने लगता है, जैसे तेज/अग्नितत्त्व । इस स्तर के आध्यात्मिक उन्नत व्यक्ति से विशिष्ट रूप का तेज/अग्नि प्रक्षेपित होता प्रतीत होता है । जब ऐसा होता है, उस जीव की मूलभूत इच्छाएं भी अल्प होती जाती हैं, जैसे अन्न तथा नींद । इसके अतिरिक्त, बोधगम्यता तथा कार्य करने की क्षमता संख्यात्मक तथा गुणात्मक रूप से प्रचंड मात्रा में बढ जाती है ।

3-अग्नि तत्व की प्रधानता वाले व्यक्ति भावनाओं को उचित रुप से जाहिर कर पाते हैं | इनको किसी प्रकार का बैर नहीं रहता है और दुसरो के प्रति दया भावना रहती हैं | जब अग्नि तत्व में असंतुलन आ जाता है तो यह अपने आपको जाहिर करने में असमर्थ बना देता है |ऎसा व्यक्ति जो रसोई घर या ऎसे ही गर्म वातावरण में काम करता है या रेगिस्तान में रहता है या त्रिकोणाकार पर्वत के नीचे रहता है उसकी भावनाएं निष्क्रिय और निर्जीव से उन्मत और अतिक्रियाशील हो जाती हैं ...चरम सीमाओं में प्रकट होती हैं | 4-अग्नि तत्व की कमी से जोड़ो का दर्द,शुष्क त्वचा,नजर की कमजोरी और खराब रक्त संचार की समस्या आती हैं |हम थके हुये महसूस करते हैं, जोश की कमी रहती है भविष्य को लेकर भय और उत्तेजना बनी रहती है |बहुत ज़्यादा अग्नि तत्व का प्रभाव... अस्थिर, आलोचनात्मक और अप्रिय व्यक्तित्व जो आसानी से गुस्सा होने वाले और झगड़े में पड़ने वाले होता हैं |

वायु-तत्व प्रधान व्यक्ति(AIR ELEMENT);-

1-इस की महत्ता इस बात से ही समझ में आती है की हमारा सूक्ष्म शरीर 5 प्रकार की वायु आपान , उदान, व्यान, समान और प्राण में और 10 प्रकार की उपवायु में वर्णित है।

वायु-तत्व प्रधान व्यक्ति परिवर्तन प्रिय एवं मानसिक रूप से सबल एवं प्रभावशाली होती हैं।इसमें चचंलता, अनिश्चय एवं बुद्धिमता का गुण है।

2-वायु-तत्व की कमी से आप किसी पर विश्वास नहीं कर पायेंगे |आप हमेशा चिंतित और परेशान रहेंगे |आपका अपना कोई मत नहीं होगा |और आप बहुत आसानी से दूसरों की बातों में आ जायेंगे और कुछ बोल नहीं पायेंगे |

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HOW CAN WE IDENTIFY OUR ELEMENT?

WATER ELEMENT;-

PROPERTIES :-

The cold, humidity

KEY NOTIONS;-

1-Feminine, receptive, manager,connected to the emotions, intuition, mysterious, the subconscious, etc.;Good in resource management,Saving etc.

2-People of water element possess a very subtle cast of mind; quite often they demonstrate parapsychological abilities. People of water element are very impressionable and sensitive. People of water element are distinguished by inconstancy, emotionality, and a rather extreme sensitivity.

3-Compatibility:People of water element should choose partners among water element .

INTERNAL ESSENCE OF WATER ELEMENT;-

03 POINTS ;-

1-The water element is an owner and captures everything. Water element may assume colours and paints at the same time hiding things like sugar or salt dissolved in water. Only shoaling water element is transparent, in depths water element is dark. Water element is able to hide only thoughts, but water element is frank in feelings. Therefore, water element frequently becomes a victim of one's own mood, imagination and subjectivity. Water element pays particular attention to trifles, details, surroundings. This basis gives rise to methodicalness.

2-Water excess results in hysterical reactions, pettiness, and psychopathy. However, water element is also merciful, can soothe, protect, pull through, and nurse. Water element is hard-working and endowed with sense of duty and responsibility. Water element is disposed to submission. Since water element is running, her feelings are changeable.

3-The sense of ownership may give rise to greediness and jealousy. The imagination of water element is peculiar and is the ground for romanticism,

subjectivity and idealism.People of water element possess a very subtle cast of mind; quite often they reveal parapsychological abilities. People of water element are very impressionable and sensitive.

4-People of water element are distinguished by inconstancy, emotionality, and a rather extreme sensitivity. But they are more capable of adaptation than it seems. At times it may seem that their condition is hopeless, however they find a way out of a difficult life situations like water that grides its way through rocks.

FIRE ELEMENT;-

PROPERTIES :-

Warmth and dryness

KEY NOTIONS;-

1-Energy, activity, idea;Masculine, projective, connected to the will, passion, creativity, etc.;Good in speaking and earning money,owners..

2-People of fire element are characterized by fiery temper, lively wit, and quick intelligence. People of fire element are not predisposed to long explanations, are impatient in trifles, but are smart and capable to grasp quickly the meaning of the main things. People of fire element frequently make thoughtless actions.

3-Compatibility:They should choose friends and beloved ones among the signs of fire element and air.

INTERNAL ESSENCE OF FIRE ELEMENT;-

03 POINTS ;-

1-The internal essence of the fire element is pitilessness - fire element burns mercilessly. The fire element likes to govern, rule over others, order people about. The fire element is very beautiful and bright, aspiring to be handsome and defiant. The basic feature of fire element is demonstrative behaviour.

2-People of fire element are hot and fiery tempered; they possess agile mind and quick wits. People of fire element are not predisposed to long explanations and are impatient in trifles; however, they are bright and capable to grasp the meaning of the main things quickly.

3-People of fire element do everything thoughtlessly and frequently commit rash actions. At the same time they do not regret the results of their own impetuosity. They have a hot blood and a hot head.People of fire element are lusty. Their temperament is explosive. Their warm-heartedness and fervor attract people. As a rule, people of fire element are successful in life, but if they are not lucky, failures follow one another.

AIR ELEMENT;-

PROPERTIES :-

Warmth, humidity

KEY NOTIONS;-

1-Circulation, communication,speed,service, information;Masculine, projective element connected to rational thought, the mind, intellect, wisdom, communication, etc.; Good artist

2-People of air element are very sociable and are peculiar guides, intermediaries among various people and even groups. Distinctive features of air element are quick-wittedness, cheerful, bright character, loquacity, and sociability. Particularities of air element people are juridical and reasonable arguments.

3-Compatibility:According their air element these people should choose friends and sweethearts belonging to the elements of air and fire .

INTERNAL ESSENCE OF AIR ELEMENT;-

04 POINTS ;-

1-Air element is endowed with the heightened receptivity. This is the leading quality because gases in space can penetrate everywhere. It provides high ability to the interaction, based on observation. Against the internal background of the air element one can notice anxiety, fussiness, nervousness, and increased uneasiness.

2-People of air element will never hurt themselves, they do not feel keenly. Their emotions are not destructive because they calm down quickly. Mind of air element helps to evade destruction.The characteristic features of

air element are attention, changeability, sincerity, and openness. Air element is able to escape without staying too long. Upward movement occurs due to the intellectual superiority.

3-On negative background the air element is garrulous(बातूनी) because of

excessive openness.People of air element are very sociable and are peculiar guides, intermediaries among various people and even groups. Distinctive features of air element are quick-wittedness, cheerful, bright character, loquacity, and sociability.

4-Particularities of air element people are juridical, reasonable arguments and explanations. Therefore air element is associated with thinking and imagination. People of air element live in the world of ideas, thoughts and associations. They like to operate with logic arguments and possess clear, sober judgment.

IN NUTSHELL;WATER IS EMOTION ,FIRE IS ACTION ,AIR IS KNOWLEDGE...And all of them are complement of each other.. Their behaviour is according to their element.Neither try to change yourself nor others. Only,trust on your element and behave accordingly..

.....SHIVOHAM...


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