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परमात्मा एक व्यक्ति है या एक ऊर्जा / शक्ति या दोनों ? क्या रहस्य है ''ज्ञानियों के शास्त्र


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क्या साधना में सीधे अचानक प्रसाद के उपलब्ध होने पर कभी -कभी दुर्घटना भी घटित हो सकती है ? क्या प्रसाद हमेशा ही कल्याणकारी नहीं होता है?

दो—तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। एक तो प्रभु कोई व्यक्ति नहीं है, शक्ति है। और शक्ति का अर्थ हुआ कि एक—एक व्यक्ति का विचार करके कोई घटना वहां से नहीं घटती है। जैसे नदी बह रही है। किनारे जो दरख्त होंगे, उनकी जड़ें मजबूत हो जाएंगी; उनमें फूल लगेंगे, फल आएंगे। नदी की धार में जो पड़ जाएंगे, उनकी जड़ें उखड़ जाएंगी, बह जाएंगे, टूट जाएंगे। नदी को न तो प्रयोजन है कि किसी वृक्ष की जड़ें मजबूत हों, और न प्रयोजन है कि कोई वृक्ष उखाड़ दे। नदी बह रही है। नदी एक शक्ति है, नदी एक व्यक्ति नहीं है।

परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं, शक्ति है:

लेकिन निरंतर यह भूल हुई है कि हमने परमात्मा को एक व्यक्ति समझ रखा है। इसलिए हम सोचते हैं, जैसे हम व्यक्ति के संबंध में सोचते हैं। हम कहते हैं, वह बड़ा दयालु है, हम कहते हैं, वह बड़ा कृपालु है; हम कहते हैं, वह सदा कल्याण ही करता है। ये हमारी आकांक्षाएं हैं जो हम उस पर थोप रहे हैं।

व्यक्ति पर तो ये आकांक्षाएं थोपी जा सकती हैं; और अगर वह इनको पूरा न करे तो उसको उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। शक्ति पर ये आकांक्षाएं नहीं थोपी जा सकतीं। और शक्ति के साथ जब भी हम व्यक्ति मानकर व्यवहार करते हैं तब हम बड़े नुकसान में पड़ते हैं; क्योंकि हम बड़े सपनों में खो जाते हैं। शक्ति के साथ शक्ति मानकर व्यवहार करेंगे तो बहुत दूसरे परिणाम होंगे।

जैसे कि जमीन में ग्रेविटेशन है, कशिश है, गुरुत्वाकर्षण है। आप जमीन पर चलते हैं तो उसी की वजह से चलते हैं। लेकिन वह इसलिए नहीं है कि आप चल सकें। आप न चलेंगे तो गुरुत्वाकर्षण नहीं रहेगा, इस भूल में मत पड़ जाना। आप नहीं थे जमीन पर, तो भी था, एक दिन हम नहीं भी होंगे, तो भी होगा। और अगर आप गलत ढंग से चलेंगे, तो गिर पड़ेंगे, टांग भी टूट जाएगी; वह भी गुरुत्वाकर्षण के कारण ही होगा। लेकिन आप किसी अदालत में मुकदमा न चला सकेंगे, क्योंकि वहां कोई व्यक्ति नहीं है। गुरुत्वाकर्षण एक शक्ति की धारा है। अगर उसके साथ व्यवहार करना है तो आपको सोच—समझकर करना होगा। वह आपके साथ सोच—समझकर व्यवहार नहीं कर रही है।

परमात्मा की शक्ति आपके साथ सोच—समझकर व्यवहार नहीं करती है। परमात्मा की शक्ति कहना ठीक नहीं है, परमात्मा शक्ति ही है। वह आपके साथ सोच—समझकर व्यवहार नहीं है उसका, उसका अपना शाश्वत नियम है। उस शाश्वत नियम का नाम ही धर्म है। धर्म का अर्थ है, उस परमात्मा नाम की शक्ति के व्यवहार का नियम। अगर आप उसके अनुकूल करते हैं, समझपूर्वक करते हैं, विवेकपूर्वक करते हैं, तो वह शक्ति आपके लिए कृपा बन जाएगी— उसकी तरफ से नहीं, आपके ही कारण। अगर आप उलटा करते हैं, नियम के प्रतिकूल करते हैं, तो वह शक्ति आपके लिए अकृपा बन जाएगी। परमात्मा अकृपा नहीं है, आपके ही कारण।

परमात्मा व्यक्ति भी है,और शक्ति भी ।इसलिए परमात्मा के साथ प्रार्थना , पूजा और अपेक्षाओं का भी अर्थ है। यदि चाहते हैं कि परमात्मा, वह शक्ति आपके लिए कृपा बन जाए, तो आपको जो भी करना है वह अपने साथ करना है। इसलिए साधना ध्यान का भीअर्थ है, प्रार्थना का कोई अर्थ नहीं है। का अर्थ है, पूजा का कोई अर्थ नहीं है।

इस फर्क को ठीक से समझ लें।

प्रार्थना में आप परमात्मा के साथ कुछ कर रहे हैं— अपेक्षा, आग्रह, निवेदन, मांग, ध्यान में आप अपने साथ कुछ कर रहे हैं। पूजा में आप परमात्मा से कुछ कर रहे हैं; साधना में आप अपने से कुछ कर रहे हैं। साधना का अर्थ है, अपने को ऐसा बना लेना कि धर्म के प्रतिकूल आप न रह जाएं; और जब नदी की धारा बहे तो आप बीच में न पड़ जाएं—तट पर हों कि नदी की धारा का पानी आपकी जड़ों को मजबूत कर जाए, उखाड़ न जाए। जैसे ही हम परमात्मा को शक्ति के रूप में समझेंगे, हमारे धर्म की पूरी व्यवस्था बदल जाती है।

तो जो मैंने कहा कि यदि आकस्मिक घटना घट जाए, तो दुर्घटना बन सकती है।

प्रसाद से दुर्घटना भी हो सकती है:

शक्ति है निष्पक्ष:

परमात्मा एक शक्ति है और वह तटस्थ नहीं हो सकता, क्योंकि आप उससे कुछ अलग नहीं हो; आप उसके ही फैले हुए विस्तार हो।

आपमें उसकी कोई विशेष रुचि नहीं है।वह शक्ति आपके लिए नियम से बाहर नहीं जाएगी । और अगर आप अपने सिर पर पत्थर मारेंगे, तो लहू बहेगा।शक्ति की रुचि सदा

नियम में होती है। व्यक्ति की रुचि विशेष बन सकती है। व्यक्ति पक्षपाती हो सकता है। शक्ति सदा निष्पक्ष है। निष्पक्षता ही उसकी रुचि है। इसलिए जो नियम में होगा, वह होगा, जो नियम में नहीं होगा, वह नहीं होगा। परमात्मा की तरफ से मिरेकल नहीं हो सकते, चमत्कार नहीं हो सकते।

ज्ञानियों के शास्त्र, अज्ञानियों के हाथ::-

अष्‍टावक्र महागीता में पहला सूत्र है...जनक ने कहा, ‘हे प्रभो, पुरुष ज्ञान को कैसे प्राप्त होता है। और मुक्ति कैसे होगी और वैराग्य कैसे प्राप्त होगा? यह मुझे कहिए..तो देखा होगा अष्‍टावक्र ने गौर से, जनक में झांक कर : यह व्यक्ति ज्ञानी तो नहीं है। यह ध्यान को तो उपलब्ध नहीं हुआ है। अन्यथा इसकी जिज्ञासा मौन होती; उसमें शब्द न होते। जनक भी जानता था। जो किताबों में भरा पड़ा है, वह ज्ञान नहीं; वह केवल ज्ञान की धूल है, राख है! ज्ञान की ज्योति जब जलती है तो पीछे राख छूट जाती है। राख इकट्ठी होती चली जाती है, शास्त्र बन जाती है। वेद राख हैं—कभी जलते हुए अंगारे थे। ऋषियों ने उन्हें अपनी आत्मा में जलाया था। फिर राख रह गये। फिर राख संयोजित की जाती है, संगृहीत की जाती है, सुव्यवस्थित की जाती है। जैसे जब आदमी मर जाता है तो हम उसकी राख इकट्ठी कर लेते हैं—उसको फूल कहते हैं। बड़े मजेदार लोग हैं! जिंदगी में जिसको फूल नहीं कहा, उसकी हड्डिया—वड्डिया इकट्ठी कर लाते हैं—कहते हैं, ‘फूल संजो लाये’!जनक भी जानता था कि शास्त्रों में सूचनाएं भरी पड़ी हैं। लेकिन उसने पूछा, ‘कथं ज्ञानम्? कैसे होगा ज्ञान?’ क्योंकि कितना ही जान लो, ज्ञान तो होता ही नहीं। जानते जाओ, जानते जाओ, शास्त्र कंठस्थ कर लो, तोते बन जाओ, एक—एक सूत्र याद हो जाये, पूरे वेद स्मृति में छप जायें—फिर भी ज्ञान तो होता नहीं।

जनक ने पूछा, ‘कैसे होगी मुक्ति और कैसे होगा वैराग्य? हे प्रभु, मुझे समझा कर कहिए!’ अष्टावक्र ने गौर से देखा होगा जनक की तरफ; क्योंकि गुरु के लिए वही पहला काम है कि जब कोई जिज्ञासा करे तो वह गौर से देखे. ‘जिज्ञासा किस स्रोत से आती है? पूछने वाले ने क्यों पूछा है?’ उत्तर तो तभी सार्थक हो सकता है जब प्रश्न क्यों किया गया है, वह समझ में आ जाये, वह साफ हो जाए।

ध्यान रखना, सदज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति, सदगुरु तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं देता—तुम्हें उत्तर देता है! तुम क्या पूछते हो, इसकी फिक्र कम है; तुमने क्यों पूछा है, तुम्हारे पूछने के पीछे अंतरचेतन में छिपा हुआ जाल क्या है, तुम्हारे प्रश्नों की आड़ में वस्तुत: कौन—सी आकांक्षा छिपी है..!

दुनियां में चार तरह के लोग हैं—ज्ञानी, मुमुक्षु, अज्ञानी, मूढ़। और दुनियां में चार ही तरह की जिज्ञासाए होती हैं। ज्ञानी की जिज्ञासा तो नि:शब्द होती है। कहना चाहिए, ज्ञानी की जिज्ञासा तो जिज्ञासा होती ही नहीं—जान लिया, जानने को कुछ बचा नहीं, पहुंच गये, चित्त निर्मल हुआ, शांत हुआ, घर लौट आये, विश्राम में आ गये! तो ज्ञानी की जिज्ञासा तो जिज्ञासा जैसी होती ही नहीं। इसका यह अर्थ नहीं कि ज्ञानी सीखने को तैयार नहीं होता। ज्ञानी तो सरल, छोटे बच्चे की भांति हो जाता है—सदा तत्पर सीखने को।

संसार में चार प्रकार के पुरुष हैं –एक ज्ञानी, दूसरा मुमुक्षु, तीसरा अज्ञानी और चौथा मूढ़ ।चारों में से राजा तो ज्ञानी नहीं है क्योंकि जो संशय और विपर्यय से रहित होता है और आत्मानंद करके आनंदित होता है वही ज्ञानी होता है परंतु राजा ऐसा नहीं है, किन्तु यह संशय से युक्त है ।एवं अज्ञानी भी नहीं है क्योंकि जो विपर्यय ज्ञान और असंभावना आदि को करके युक्त होता है उसका नाम अज्ञानी है परंतु राजा ऐसा भी नहीं है । तथा जिसके चित्त में स्वर्गादिक फलों कि कामनाएँ भरी हों उसका नाम अज्ञानी है परंतु राजा ऐसा भी नहीं है । यदि ऐसा होता तो यज्ञादिक कर्मों के विषय में विचार करता, सो तो इसने नहीं किया है एवं मूढ़बुद्धि वाला भी नहीं है क्योंकि जो मूढ़बुद्धि वाला होता है वह कभी भी महात्मा को दंडवत प्रणाम नहीं करता है किन्तु वह अपनी जाति और धनादिकों के अभिमान में ही मरा जाता है, सो ऐसा भी राजा नहीं क्योंकि हमको महात्मा जानकर हमारा सत्कार कर अपने भवन में लाकर संसार बंधन से छूटने कि इच्छा करके जिज्ञासुओं कि तरह राजा ने प्रश्नों को किया है । इसी से सिद्ध होता है कि राजा जिज्ञासु अर्थात मुमुक्षु है और आत्मविद्या का पूर्ण अधिकारी है, और साधनों के बिना आत्मविद्या कि प्राप्ति नहीं होती, इस वास्ते अष्टावक्रजी प्रथम राजा के प्रति साधनों को कहते हैं ॥१॥

ज्ञान—ज्ञान को संगृहीत नहीं करता; ज्ञानी सिर्फ ज्ञान की क्षमता को उपलब्ध होता है। इस बात को ठीक से समझ लेना, क्योंकि पीछे यह काम पड़ेगी। ज्ञानी का केवल इतना ही अर्थ है कि जो जानने के लिए बिलकुल खुला है; जिसका कोई पक्षपात नहीं, जानने के लिए जिसके पास कोई परदा नहीं; जिसके पास जानने के लिए कोई पूर्व—नियोजित योजना, ढांचा नहीं। ज्ञानी का अर्थ है ध्यानी जो ध्‍यान पूर्ण है।

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ज्ञानियों ने जो कहा, वह शास्त्र है और अज्ञानियों को उन्हें मानना ही चाहिए।

पहली बात, न तो शास्त्र अनेक हैं और न उनके वचन अनंत। एक ही बात को अनेक—अनेक रूपों से जरूर कहा गया है। लेकिन बात एक ही है।

उस एक को ही जानने वालों ने बहुत—बहुत भाति से कहा है। कुरान का एक ढंग है, गीता का दूसरा ढंग है, बाइबिल का तीसरा। पर बात वही है। और अगर तुम वस्तुत: अज्ञानी हो, तो कठिनाई न होगी यह बात समझने में कि तीनों शास्त्रों ने एक ही बात कही है। कठिनाई तो तब होती है, जब तुम झूठे ज्ञानी होते हो; जब पांडित्य तुम्हारे सिर पर सवार होता है, तब कठिनाई होती है।

अज्ञानी तो सरल होता है। अज्ञानी के पास शब्दों का कोई बोझ नहीं होता, न आख अंधी होती है, निर्मल होती है। ज्ञानी, तथाकथित ज्ञानी उपद्रव खड़ा करता है। वह तथाकथित ज्ञानी कहता है, जो गीता में कहा है, वह कुरान में नहीं है। क्योंकि इस तथाकथित ज्ञानी की पकड़ शब्दों पर है, सार पर नहीं; भाषा पर है, भाव पर नहीं। इसे शास्त्र की लकीरें घेर लेती हैं; शास्त्र के शून्य रिक्त स्थान इसे दिखाई नहीं पड़ते।

दुनिया में जो कलह है, वह पंडितों के कारण है, अज्ञानियों के कारण नहीं। मौलवी लड़ता है, लडवाता है; पंडित लड़ता है, लडवाता है। अज्ञानी का क्या झगड़ा है!

थोड़ी देर को सोचो, अगर दुनिया में पंडित न हों, तो दुनिया में हिंदू मुसलमान, ईसाई होंगे? अगर होंगे भी, तो बड़े सरल होंगे। चर्च पड़ जाएगा, तो तुम वहा भी नमस्कार कर लोगे, और मस्जिद आ जाएगी पास, तो कभी वहा भी प्रार्थना कर लोगे, क्योंकि कोई तुम्हें समझाने वाला न होगा कि मंदिर अलग है, मस्जिद अलग है। यह तो समझाने वालों ने उपद्रव खड़ा किया है।

सरल आदमी का कोई भी झगड़ा नहीं है। और अज्ञान में बड़ी सरलता है।

तो तुम जब पूछते हो कि अज्ञानी कैसे तय करे कि कौन—सा शास्त्र ठीक है, तुम काफी ज्ञानी हो गए; अज्ञानी तुम हो नहीं। यह काफी ज्ञान की बात हो गई; यह तो बड़ी समझदारी आ गई। अन्यथा तुम पहचान लोगे। तुम पहचान लोगे कि फर्क शब्दों का हो सकता है, लेकिन फर्क सत्य का नहीं है।

कोई एक ढंग से प्रार्थना करता है, कोई दूसरे ढंग से प्रार्थना करता है। कोई पूरब की तरफ सिर करके प्रार्थना करता है, कोई पश्चिम की तरफ सिर करके प्रार्थना करता है। लेकिन प्रार्थना का भाव, वह समर्पण, उस अनंत के चरणों में सिर रखने की वह धारणा, वह तो एक ही है।

अगर पंडित—मौलवी न हों, तो कोई झगड़ा नहीं है। तुम सभी जगह उस एक ही ध्वनि को सुनते हुए पाओगे, सभी जगह वही सार तुम्हें समझ में आ जाएगा।

इसलिए पहली तो बात, शास्त्र अनेक नहीं हैं, दिखाई पड़ते हैं। हो नहीं सकते अनेक। सत्य अनेक नहीं है, तो शास्त्र कैसे अनेक हो सकते हैं? भाषाएं तो अनेक होंगी, क्योंकि जमीन पर कोई तीन सौ भाषाएं हैं। तो जो आदमी अरबी जानता है, जब सत्य को उपलब्ध होगा, तो संस्कृत नहीं बोलेगा, अरबी ही बोलेगा। उसमें जो गीत पैदा होगा, वह अरबी भाषा को ही पकड़कर तरंगित होगा, तुम तक आएगा। कुरान ऐसा ही गीत है।

गीत को देखो, शब्द को छोड़ो, छंद को पकड़ो। तो उपनिषद में जो छंद है, वही कुरान में है। उपनिषद में जो गीत है, वही कुरान में है। धुन को पकड़ो, मस्ती को पकड़ो, तो उपनिषद जिन्होंने गाया है, तुम उन्हें उसी मस्ती में, उसी नशे में डोलते पाओगे, जिस नशे। में मोहम्मद को डोलते हुए पाया गया है।

क्या तुम समझते हो कि फर्क दिखाई पड़ेगा मस्ती में? नहीं, मस्ती में कोई फर्क न दिखाई पड़ेगा। ही, चोटी न बढ़ी होगी मोहम्मद की। चोटी कोई शास्त्र है? जनेऊ न पड़ा होगा गले में। जनेऊ कोई शास्त्र है?

तुमने अगर व्यर्थ को देखा, तो फर्क पाओगे, अगर सार्थक को देखा, तो जरा भी फर्क न पाओगे।

और दूसरी बात कि उपद्रव तुम्हारे ज्ञान के कारण है, अज्ञान के कारण नहीं। अज्ञान की बड़ी मधुरिमा है। काश, तुम अज्ञानी हो सको, तो तुम्हारे ज्ञानी होने का द्वार खुल जाए।

लेकिन तुम ज्ञानी होने के पहले ज्ञान से भर जाते हो। वे शब्द तुम्हारे चारों तरफ इकट्ठे हो जाते हैं। फिर वे शब्द द्वार नहीं खुलने देते, फिर तुम शब्दों में जीते हो। तुम्हारे असली प्रश्न भी खो जाते हैं, वे भी नकली हो जाते हैं। तुम जीवन के साक्षात्कार की आकांक्षा नहीं करते, तुम सिद्धांतों को समझने की आकांक्षा करने लगते हो। मेरे पास कोई आता है, दुखी है, अशांत है। और पूछता है, संसार परमात्मा ने बनाया या नहीं?

तुम अपनी गृहस्थी से ही काफी परेशान हो रहे हो, इतनी बड़ी गृहस्थी का बोझ मत लो। संसार किसने बनाया या नहीं बनाया, यह तुम्हारे प्राणों का प्रश्न भी कहा है! इससे तुम्हें लेना—देना क्या है? और बनाया हो किसी ने, यह जान लेने से तुम्हारे जीवन के। प्रश्न कहां हल होंगे? न बनाया हो किसी ने, तो भी क्या फर्क पड़ेगा; तुम तो तुम ही रहोगे।

ये व्यर्थ के प्रश्न हैं। सार्थक प्रश्न हमेशा वास्तविक होता है। तुम पूछते हो कि मैं अशांत क्यों हूं? तुम पूछते हो कि शांत होने का उपाय क्या है? तुम पूछते हो कि मैं दुख से भरा हूं आनंद की एक किरण नहीं जानी, कैसे जानूं? कैसे खोलूं वातायन? कैसे आख खुले? कैसे अंधेरे के बाहर आऊं? टटोलता हूं. दीए को, पाता हूं लेकिन कैसे जलाऊ? ज्योति कैसे जले?

और तुम्हारी ज्योति जले आनंद की, और शांति की बरखा होने लगे तुम्हारे आस—पास, तो तुम जानोगे। वे सब प्रश्नों के उत्तर भी जान लोगे, जो तुमने इसके पहले पूछे होते, तो व्यर्थ ही पूछे होते। और उन प्रश्नों के उत्तर जानने तुम्हें किसी के पास न जाना होगा। जो शांत हुआ, उसे परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है। असली सवाल परमात्मा नहीं है, असली सवाल शांति है।

शास्त्रों से तुम परमात्मा को मत पूछो, शास्त्रों से तुम शांति सीखो। और सभी शास्त्र शाति सिखाते हैं। सभी शास्त्र ध्यान की विधियां बताते हैं। सभी शास्त्र इशारे करते हैं कि कैसे तुम आनंदित हो जाओगे। फिक्र छोड़ो, कुरान से सीखते हो कि गीता से सीखते हो! किस घाट से पीते हो पानी; सारा पानी गंगा का है। कहीं से भी पी लो; घाटों के नाम पर बहुत ध्यान मत दो; उनका कोई भी मूल्य नहीं है।

उपद्रव लेकिन ज्ञान के कारण हो रहा है। तुम हिंदू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, जैन हो, यह अड़चन है। अज्ञानी हो, यह अड़चन नहीं है। अज्ञानी हो, तब तो बिलकुल भले हो; कोई अड़चन नहीं है। सरल हो, सीधे हो; मन की पट्टी खाली है, उस पर कुछ लिखा जा सकता है। भरे नहीं हो, जगह है तुम्हारे भीतर; सत्य को निमंत्रण दिया जा सकता है।

मैं तो अज्ञान की महिमा के गीत गाता हूं। अगर तुम अज्ञानी ही हो सको, तो तुम पाओगे, ज्ञान तुम पर बरसने लगा। अज्ञान को जान लेना ज्ञान का पहला कदम है।

लेकिन अड़चन कहा से आ रही है? अड़चन यहां से आ रही है, अज्ञान तो मिटा नहीं और तुमने कूड़ा—कचरा इकट्ठा कर लिया। शास्त्र से तुमने साधना नहीं सीखी, शास्त्र से तुमने सिद्धांत सीखे।

शास्त्र से अनुशासन सीखो! शास्त्र का मतलब ही यही होता है कि जिससे अनुशासन मिले, वह शास्त्र। जो तुम्हें जीवन की विधि दे, वह शास्त्र। लेकिन वह तुम्हें सुनाई नहीं पड़ती।

और तुम अपने शब्दों से इतने भरे हो कि मैं भी तुमसे जब बोल रहा हूं तब पक्का नहीं है कि तुम वही सुनते हो, जो मैं तुमसे कहता हूं। तुम्हारे शब्द उसमें बाधा डालते होंगे, रंग बदल देते होंगे, धुन बदल देते होंगे, अर्थ बदल देते होंगे।

आदमी वही सुनता है, जो सुनना चाहता है। आदमी वही सुनता है, जो वह पहले ही सुन चुका है। आदमी उसको छोड़ देता है, जो उसके भीतर न पच सकेगा। उसको पचा लेता है, जो पहले से पचा हुआ है।

तम मेरे पास आकर, अगर हिंदू हो, तो वही सुन लोगे जो हिंदू एन सकता है। अगर मुसलमान हो, तो वही सुन लोगे जो मुसलमान सुन सकता है। मुसलमान और मुसलमान होकर चला जग़ागा; हिंदू और हिंदू होकर चला जाएगा। और मैं चाहता था कि हिंदु, मुसलमान मिट जाएं।

मैं एक वैद्यजी के घर में ठहरा हुआ था। पंडित आदमी हैं। वे स्नान कर रहे थे सुबह—सुबह। मैं अखबार पढ़ रहा था बाहर बैठकर। उनका लड़का एक कोने में बैठकर अपने स्कूल का काम कर रहा था। वह जोर—जोर से कुछ रट रहा था। वह रट रहा था, अलंकार के भेद चार होते हैं, लाटानुप्रास, वृत्यानुप्रास, छेकानुप्रास, अंत्यानुप्रास...।

वह रट रहा था। मैंने उस पर कोई ज्यादा ध्यान भी नहीं दिया था। ध्यान तो तब दिया जब वैद्यजी, जो स्नान कर रहे थे अंदर स्नानगृह में, वहीं से चिल्लाए, अरे नालायक, कहां की दवाइयों के नाम रट रहा है! अपना च्यवनप्राश! उसकी तो विदेशों तक में मांग है। रख नंबर एक पर, च्यवनप्राश। यह कहां का छेकानुप्रास, अंत्यानुप्रास......।

लड़का भी चौंका, मैं भी चौंका। लेकिन तभी पत्नी, जो चौके में काम कर रही थी, जोर से भन्नाई। उसनै कहा, तुम अपना स्नान करो और दूसरों को अपना काम करने दो। यह तुम्हारे च्यवनप्राश की वजह से इस घर में कोई बीमार तक नहीं पड़ सकता। च्यवनप्राश! च्यवनप्राश! कोई बीमारी आ जाए, तो डर लगता है बताने में कि तुम फिर वह च्यवनप्राश ले आओगे!

कोई किसी की सुनता हुआ मालूम नहीं पड़ता। पत्नी शांत हो गई। मैं अपना अखबार पढ़ने लगा। लडका फिर देखकर कि उपद्रव जा चुका, फिर याद करने लगा, अलंकार चार प्रकार के होते हैं......। ऐसा वर्तुल है। कोई किसी की सुन नहीं रहा है। अपनी— अपनी सुन रहे हैं लोग।

शास्त्र की तुम कहां सुनते हो! शास्त्र के पास भी अगर तुम अज्ञानी होकर जाओ—अज्ञानी होकर जाओ मतलब, बालक की तरह होकर जाओ—तों शास्त्र भी तुम्हें जगा देगा। लेकिन तुम तो जीवित शास्त्रों के पास भी, गुरुओं के पास भी ज्ञानी होकर आते हो। वे भी तुम्हें नहीं जगा पाते।। शास्त्र तो मुरदा है, कागज पर खींची आड़ी—तिरछी लकीरें हैं। लेकिन वह भी जगा देगा, अगर तुम पंडित की तरह न गए, प्यासे की तरह गए, तो शास्त्र भी जगा देगा। और अगर पंडित की तरह तुम आए सदगुरु के पास भी, तो सदगुरु भी तुम्हें जगा नहीं पाएगा। तुम सदगुरु से भी अपनी नींद के बहाने खोजकर वापस लौट जाओगे।

इस बात को तय करने की जरूरत ही नहीं कि क्या मानने योग्य है, क्या मानने योग्य नहीं है। तुम कैसे तय करते हो, क्या खाने योग्य है, क्या खाने योग्य नहीं है? जो पच जाता है, जो स्वस्थ करता है, शक्तिवर्धक है, उसे तुम खाने योग्य समझ लेते हो। पत्थर—कंकड नहीं खाते। अज्ञानी से अज्ञानी नहीं खाता पत्थर—कंकड़। क्यों? जानता है, वे पचेंगे नहीं; दुख देंगे, पीड़ा देंगे।

जीवन जिससे रसपूर्ण हो जाए, वही चुनने योग्य है। जीवन में जिससे स्वास्थ्य बढ़े, सौरभ बढ़े, वही चुनने योग्य है। जीवन जिससे उत्सव बने, वही चुनने योग्य है। जिससे उदास हो जाए; टूट जाए, खंडहर हो जाए, वही छोड़ देने योग्य है।

मैं तुम्हें सिद्धांत चुनने की बात ही नहीं कर रहा; जीवन तुम्हारे पास है, वही कसौटी है। तुम उस पर ही कसे चलो।

जब तुम झूठ बोलते हो, तो जीवन में आनंद बढ़ता है? बस, इसको ही देखो। अगर बढ़ता हो, तो मैं कहता हूं झूठ ही बोलो। मैं तुमसे कभी न कहूंगा कि सच बोलो। अगर धोखा देने से, बेईमानी करने से, दूसरों को कष्ट देने से तुम्हारे जीवन में आनंद की वर्षा होती हो, तो वही धर्म है। तुम वही करो। किसी की मत सुनो। लेकिन ऐसा कभी होता नहीं। ऐसा हो नहीं सकता। वह जीवन का विधान नहीं है।

शास्त्र केवल इतना ही कहते हैं, वह जो अनंत— अनंत बार जाना गया है, उसी को दोहराते हैं, हर जानने वाले ने जो अनुभव किया ' है, उसी को दोहराते हैं। वे इतना ही कहते हैं, कंकड़—पत्थर मत खाओ। झूठ दुख देगा; सुख का कितना ही आश्वासन दे ,, दुख देगा। दूसरे को दुख दोगे, दुख लौटेगा। दूसरे को सताओगे, सताए जाओगे। अशांति पैदा करोगे लोगों के जीवन में, तुम्हारे जीवन में अशांति की प्रतिध्वनि होगी। और कुछ भी न होगा। क्योंकि संसार तो दर्पण है। तुम्हें अपना ही चेहरा सब तरफ दिखाई पड़ने लगेगा। तुम अपने ही चेहरों से घिर जाओगे।

बस, शास्त्र इतना ही कहते हैं। शास्त्र सीधे—साफ हैं। उलझाया है तो पंडितों ने। वे एक एक शब्द की इतनी बाल की खाल निकालते रहते हैं कि यह भूल ही जाता है कि शास्त्र भोजन की तरह है। वह चर्चा करने के लिए नहीं है बैठकर वह पचाने के लिए है। वह तुम्हारा खून बने, हड्डी—मांस—मज्जा बने।

बोधिधर्म चीन गया। जब वह वापस लौटने लगा नौ वर्ष के बाद, तो उसने अपने चार शिष्य, जो कि श्रेष्ठतम थे, जो अर्जुन जैसे होंगे, जो पुरुषश्रेष्ठ थे, जिन्होंने उसको पूरी तरह पचाया था, उनको बुलाया। और उसने पहले से पूछा कि मैं जाता हूं; परीक्षा की घड़ी आ गई। सार की बात जो तूने मुझसे सीखी हो, कह दे। उस व्यक्ति ने कहा, सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, यही धर्म है। बोधिधर्म ने कहा, तेरे पास मेरा शरीर है।

दूसरे से पूछा। उसने कहा, योग, साधना, विधियां, अभ्यास, यही सार है। बोधिधर्म ने कहा, तेरे पास मेरा मांस है।

तीसरे से पूछा। उसने कहा, ध्यान, शाति, शून्यता, यही सारा राज है, कुंजी है। बोधिधर्म ने कहा, तेरे पास मेरी हड्डियां हैं।

चौथे की तरफ आख फेरी। चौथा उसके चरणों पर गिर पड़ा; बोला कुछ भी नहीं। बोधिधर्म ने उठाया, उसकी आंखों में झांका। वह बोला कुछ भी नहीं। उसने कहा, तेरे पास मेरा सब कुछ है, मेरी आत्मा है।

क्या मामला था? एक ने इतना ही पचाया की चमड़ी बनी। बस, ऊपर—ऊपर रही। पचाया उसने भी, क्योंकि चमड़ी भी बिना पचाए नहीं बनती। लेकिन परिधि पर ही छुआ। दूसरा थोड़ा भीतर गया, वह मांस बना। उसने गुरु को थोड़ा गहरा पचाया। तीसरा और भीतर गया। उसने गुरु को और आत्मसात किया, वह हड्डियां बन गया। चौथा इतना गहरा गया कि कह भी न सका कि कितना गहरा गया हूं। क्योंकि जो शब्द में आ जाए, वह कोई गहराई है? जो कही जा सके, वह भी कोई समझ है? समझ तो अतीत है सब वचनों के। इसलिए वह चुप ही रह गया। उसने सिर्फ अपनी आंखें गुरु के सामने कर दीं कि अगर कुछ हुआ हो, तो तुम देख लो। मैं क्या कहूं! कहने को कुछ भी नहीं है। धर्म क्या कहा जा सकता है! कितना तुम पचाते हो? इसकी फिक्र छोड़ो कि शास्त्र अनेक हैं, कौन से चुनें। कोई भी चुन लो। जो हाथ आ जाए, वही काम दे देगा। इसकी बहुत बिगचना में मत पड़ो, क्योंकि समय व्यतीत होगा, जीवन खोएगा।

इसलिए पुराने दिनों में एक सहज व्यवस्था थी, और वह यह थी कि तुम जिस परंपरा में पैदा हुए हो, चुपचाप उसके शास्त्र को मानकर चलते चले जाओ। ताकि व्यर्थ की उलझन न खड़ी हो, कहां चुनो, क्या करो। जिस परंपरा में पैदा हुए हो, चुपचाप उस शास्त्र में डूबते चले जाओ। उसी शास्त्र में डूबकर तुम एक दिन पाओगे, सब परंपराओं के पार निकल गए।

कोई परंपरा तोड्ने की भी जरूरत नहीं है। उसमें से भी ऊपर जाने का उपाय है। गहरे गए कि ऊपर चले जाओगे। उथले रहे कि भीतर रह जाओगे। परंपरा बांधती है उनको, जो डुबकी लगाते ही नहीं। जो डुबकी लगाना जानते हैं, वे तो परंपरा में से भी परम स्वतंत्रता को उपलब्ध हो जाते हैं।

मगर अब यह न हो सकेगा। बात बिगड़ गई। वह बात गई, वह समय न रहा। अब तो सारी दुनिया छोटा—सा गांव बन गई है। अब तो यह असंभव है कि हिंदू मुसलमान से अपरिचित रह जाए। यह संभव नहीं है कि ईसाई हिंदू से अपरिचित रह जाए। और बुरा भी नहीं है, एकदम शुभ है।

सारे शास्त्र सब के लिए खुल गए हैं। हिंदू के लिए मंदिर था, मुसलमान के लिए मस्जिद थी, ईसाई के लिए चर्च था, अब सब मिश्रित हो गए। एक महासंगम घटित हुआ है पृथ्वी पर। इस महासंगम में जो नासमझ अपने को समझदार समझ बैठे हैं, वे बहुत कुछ गंवा देंगे। जो नासमझ अपने को नासमझ समझते हैं, वे बहुत कुछ बचा लेंगे।

अगर तुम अज्ञानी हो, तो इस महासंगम से बहुत लाभ होगा; क्योंकि तुम देख पाओगे। शब्दों से खाली आंखें कुरान में गीता को खोज लेंगी, गीता में कुरान को देख लेंगी। और तुम्हारा अहोभाव बढ़ेगा, तुम्हारी श्रद्धा और भरपूर होगी। क्योंकि सभी शास्त्र यही कहते हैं। सदियों—सदियों में, अलग—अलग देशों में, अलग—अलग हवाओं, परंपराओं में जो भी कहा गया है, वह सब एक ही तरफ इशारा करता है। अंगुलियां कितनी ही हों, चांद एक है।

तुम्हारी श्रद्धा बढ़ेगी, अगर तुममें थोड़ी—सी भी सरलता है। अगर नहीं है, तो तुम बड़े डांवाडोल हो जाओगे। तुम हिंदू थे अब तक, विश्वास था; वह विश्वास भी डगमगा जाएगा। क्योंकि कुरान कुछ और कहती मालूम पड़ेगी, बाइबिल कुछ' और कहती मालूम पड़ेगी। तुम उस हालत में हो जाओगे, जैसे धोबी का गधा, न घर का न घाट का। मस्जिद जाओगे, तो मंदिर बुलाएगा। मंदिर जाओगे, तो मस्जिद पुकारेगी। कुरान पढ़ोगे, तो गीता याद आएगी। गीता पढ़ोगे, तो कुरान याद आएगा। और तालमेल कुछ बैठेगा नहीं। क्योंकि ये सभी संगीत बड़े अलग— अलग हैं। ये वाद्य अलग—अलग हैं। इनका स्वर संयोजन अलग—अलग है।

तो तुम बिलकुल पगला जाओगे, विक्षिप्त होने लगोगे। तुम्हारा विश्वास भी खो जाएगा, अगर तुमने समझदार और पंडित की तरह इस महासंगम को देखा। लेकिन अगर तुमने सरल निर्दोष बालक की तरह देखा, तो तुम्हारी श्रद्धा अनंत गुनी हो जाएगी।

विश्‍वास झूठा है; उसकी सुरक्षा करनी पड़ती है। तुम्हें पता ही न चले कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं, तभी विश्वास बचता है। श्रद्धा बड़ी और बात है। श्रद्धा को तो खुला आकाश चाहिए, तभी बचती है। अगर घर में बंद कर दो, सड़ जाती है, मर जाती है।

तो अभी तक दुनिया विश्वास में जीयी है। हिंदू घर में तुम पैदा हुए थे, हिंदू पर विश्वास किया था। जैन घर में पैदा हुए थे, जैन पर विश्वास किया था। न केवल इतना कि जैन पर विश्वास किया था, हिंदू पर अविश्वास भी किया था। क्योंकि ये दोनों साथ—साथ रहेंगे, विश्वास अपने पर, दूसरे पर अविश्वास। ऐसे बाहर और भीतर से अपने को सम्हाले रखा था।

लेकिन अब इस तरह का विश्वास नहीं टिक सकता। अब तो ऐसी परम श्रद्धा टिकेगी, जिसके लिए न तो अपने पर विश्वास की कोई जरूरत है, न दूसरे पर अविश्वास की कोई जरूरत है। अब तो ऐसी परम श्रद्धा जगत में बचेगी, जिसको खुला आकाश घबड़ाता नहीं, जिसके लिए बंद घरों की दीवारों की जरूरत नहीं है। तो विश्वास तो गिरेगा। इसलिए जो लोग विश्वास से ही अब तक धार्मिक रहे थे, अब उनके धार्मिक होने का कोई उपाय नहीं है। वे तो अधार्मिक हो जाएंगे। अब तो उन थोड़े से लोगों के जीवन में धर्म की हवा होगी, जिनके जीवन में श्रद्धा है।

लेकिन बस वही धर्म सच्चा है, जो खुले आकाश में बचता है। वही धर्म सच्चा है, जो विपरीत धारणाओं को भी सुनकर बच रहता है। वही धर्म सच्चा है, जो सभी तर्क के पार भी बच रहता है। विरोधी विरोध करता रहे, फिर भी तुम्हारी श्रद्धा डगमगाए न।

ऐसा नहीं कि तुम विरोधी को सुनते नहीं, कान में कंकड़ डाल लेते हो, कान बंद कर लेते हो। वह भी कोई श्रद्धा हुई, जो विरोधी को सुनने से डरती है! वह तो गहरे में संदेह है, इसीलिए भय है। संदेह के साथ भय है, श्रद्धा के साथ अभय है।

इसलिए तो मैं सभी शास्त्रों की तुम से बात कर रहा हूं। मेरे पास केवल वे ही लोग टिक सकेंगे, जिनके भीतर श्रद्धा का जन्म हो रहा है। विश्वासी तो भाग जाएंगे घबड़ाकर कि यह आदमी तो हमारा विश्वास छीन लेगा! वे तो दूसरों को भी कहेंगे, वहा मत जाना, वहां नास्तिक हो जाओगे।

उनका कहना भी ठीक है। कमजोर आएगा, नास्तिक हो जाएगा; शक्तिशाली आएगा, आस्तिक हो जाएगा।

मुझे जीसस का एक वचन बहुत प्रिय है। जीसस ने कहा है, जिनके पास है, उन्हें और दिया जाएगा; और जिनके पास नहीं है, उनसे वह भी छीन लिया जाएगा जो उनके पास है।

तुम्हारे भीतर अगर श्रद्धा है, तो मैं उसे बढ़ा दूंगा। और अगर नहीं है, तो और घटा दूंगा। कम से कम बात तो साफ हो जाए। यह बीच में आधी लटकी त्रिशंकु की स्थिति तो न रहे। या नास्तिक, या आस्तिक। यह बीच में अटका होना उचित नहीं है।

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सभी शास्त्रों को पढ़कर आदमी दिक्कत में पड़ा है। क्योंकि वह कहना है जाननेवालों का और पढ़ रहे हैं न जाननेवाले— और वे उसको अपना कहना बना रहे हैं।सारी दुनिया में शास्त्रों से ऐसा हुआ। क्योंकि शास्त्र हैं उनके कहे हुए वचन जो जानते हैं। और निश्चित ही, जो जानता है वह शास्त्र—वास्त्र पढने काहे के लिए जाएगा! जो नहीं जानता वह शास्त्र पढ़ने चला जाता है। फिर दोनों के बीच उतना ही फर्क है जितना जमीन और आसमान के बीच फर्क है; और जो व्याख्या हम करते हैं वह हमारी है।कठोपनिषद के दूसरा सूत्र में कहा गया है ''उसकी जिसके प्रति पसंद होती, वह जिस पर प्रसन्न होता, वह जिस पर आनंदित होता, उसे ही मिलता है।''

जब हमें किसी सत्य को कहना होता है तो उसके बहुत पहलू हैं। असल में, जिनको वह मिला है, उनका यह कहना है कि हमारे प्रयास से क्या हो सकता था! हम क्या थे! हम तो ना—कुछ थे, हम तो धूल के कण भी न थे, फिर भी हमें वह मिल गया! और अगर हमने दो घड़ी ध्यान किया था, तो उसका भी क्या मूल्य था कि हम दो घड़ी चुप बैठ गए थे! जो मिला है, वह अमूल्य है। तो जो हमने किया था और जो मिला है, इसमें कोई तालमेल ही नहीं है।

तो जिनको मिला है, वे कहते हैं कि नहीं, यह अपने प्रयास का फल नहीं है, यह उसकी कृपा है। उसने पसंद किया तो मिल गया, अन्यथा हम क्या खोज पाते! यह निरहंकार व्यक्ति का कहना है। जिनको मिला है, उनकी तरफ से तो यह कहना बडा सुरुचिपूर्ण है, इसमें बड़ा ही सुसंस्कृत भाव है।

लेकिन, यह जिनको नहीं मिला है, अगर उनकी धारणा बन जाए तो बहुत खतरनाक है।तो न जाननेवाला कहता है कि ठीक है, फिर हमें क्या करना है! जब वह उसकी पसंद से ही मिलता है, तो हम परेशान क्यों हों! जिस पर उसकी इच्छा होती है, उसी को मिलता है, तो जब उसकी इच्छा होगी तब मिल जाएगा। तो हम क्यों परेशान हों? हम क्यों कुछ करें?

यह उनका कहना तो बिलकुल ठीक है, लेकिन कठोपनिषद पढ़कर जो निरहंकार का

दावा था, वह हमारे लिए आलस्य की रक्षा बन जाता है। यह इतना बड़ा परिवर्तन है इन दोनों में कि जमीन—आसमान का फर्क है। जो शून्यता का भाव था, वह हमारे लिए प्रमाद बन जाता है। हम कहते हैं, वह तो जिसको मिलना है उसको मिलेगा; जिसको नहीं मिलना है, नहीं मिलेगा।

शास्त्र का एक वचन है जिसमें वह कहता है कि ''जिसको उसने चाहा, अच्छा बनाया , जिसको उसने चाहा, बुरा बनाया..बड़ा खतरनाक मालूम होता है!क्योंकि अगर यह

उसकी चाह से हो गया कि जिसको उसने अच्छा बनाया था, अच्छा बनाया; और जिसको बुरा बनाना था, उसको बुरा बनाया; तो बात खत्म हो गई।

और परमात्मा भी अजीब है कि किसी को बुरा बनाना चाहता है और किसी को अच्छा बनाना चाहता है! न जाननेवाला जब इसको पड़ेगा, तो इसके अर्थ बड़े खतरनाक हैं। लेकिन शास्त्र कुछ और ही बात कह रहा है। वह अच्छे आदमी से कह रहा है कि तू अहंकार मत कर कि तू अच्छा है; क्योंकि जिसको उसने चाहा, अच्छा बनाया। वह बुरे आदमी से कह रहा है. परेशान मत हो, चिंता से मत घिर; उसने जिसको बुरा बनाया, बुरा बनाया। वह बुरे आदमी का भी दंश खींच रहा है, वह अच्छे आदमी का भी दंश खींच रहा है। लेकिन वह जाननेवाले की तरफ से है।

लेकिन बुरा आदमी सुन रहा है, वह कह रहा है तो फिर ठीक है, तो फिर मैं बुराई करूं। क्योंकि अपना तो कोई सवाल ही नहीं है; जिससे उसने बुरा करवाया, वह बुरा कर रहा है। और अच्छे आदमी की भी यात्रा शिथिल पड़ गई, क्योंकि वह कह रहा है कि अब क्या होना है! वह जिसको अच्छा बनाता है, बना देता है, जिसको नहीं बनाता, नहीं बनाता। तब जिंदगी बड़ी बेमानी हो जाती है।

वह (शास्त्र) हमारी व्याख्या नहीं है। इसलिए दो तरह के शास्त्र रचे जाने चाहिए— ज्ञानियों के कहे हुए अलग, अज्ञानियों के पढ़ने के लिए अलग। ज्ञानियों के कहे हुए बिलकुल छिपा देने चाहिए; अज्ञानियों के हाथ में नहीं पड़ने चाहिए। क्योंकि अज्ञानी उनसे अर्थ तो अपना ही निकालेगा। और तब सब विकृत हो जाता है, सब विकृत हो गया है।

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क्या अपात्र को भी वह घटना घट सकती है?

घटना तो सदा ही पात्र को घटती है.. जैसे प्रकाश आंख को ही दिखाई पड़ता है, आंखवाले को ही दिखाई पड़ता है, अंधे को नहीं दिखाई पड़ता; न दिखाई पड़ सकता है। लेकिन अगर अंधे की आंख का इलाज किया गया हो, और वह आज ही अस्पताल से बाहर निकलकर सूरज को देख ले, तो दुर्घटना घट जाएगी।

उसे महीने, दो महीने हरा चश्मा लगाकर प्रतीक्षा करनी चाहिए।

अपात्र को वह घटना कभी नहीं घटती, घटती तो है पात्र को ही, लेकिन अपात्र कभी आकस्मिक रूप से पात्र बन जाता है, जिसका उसे खुद भी पता नहीं चलता।अपात्र एकदम से पात्र बन जाए तो दुर्घटना ही घटेगी, इसमें सूरज कसूरवार नहीं होगा। उसको दो महीने आंखों को सूर्य के प्रकाश के झेलने की क्षमता भी विकसित करने देनी चाहिए। नहीं तो वह पहले जितना अंधा था उससे भी ज्यादा खतरनाक अंधा हो जाएगा; क्योंकि पहलेवाले अंधेपन का इलाज भी हो सकता था, अब इलाज भी मुश्किल होगा; क्योंकि यह दुबारा अंधा हुआ है वह।

तो इसको ठीक से समझ लेना : पात्र को ही अनुभूति आती है, लेकिन अपात्र कभी शीघ्रता से पात्र बन सकता है; कभी ऐसे कारणों से पात्र बन सकता है जिसका उसे पता भी न चले। और तब.. .तब दुर्घटना के सदा डर हैं; क्योंकि शक्ति अनायास उतर आए तो आप झेलने की स्थिति में नहीं होते।

ऐसा समझ लें, एक आदमी को अनायास कुछ भी मिल जाए— धन मिल जाए। तो धन के मिलने से दुर्घटना नहीं होनी चाहिए, लेकिन अनायास मिलने से दुर्घटना हो जाएगी। अनायास बहुत बड़ा सुख भी मिल जाए तो भी दुर्घटना हो जाएगी; क्योंकि उस सुख को भी झेलने के लिए क्षमता चाहिए। सुख भी धीरे— धीरे ही मिले तो हम तैयार हो पाते हैं; आनंद भी धीरे— धीरे ही मिले तो हम तैयार हो पाते हैं। क्योंकि तैयारी बहुत सी बातों पर निर्भर है; और हमारे भीतर झेलने की क्षमता भी बहुत सी बातों पर निर्भर है। हमारे मस्तिष्क के स्नायु, हमारे शरीर की क्षमता, हमारे मन की क्षमता, सब की सीमा है। और जिस शक्ति की हम बात कर रहे हैं, वह असीम है। वह ऐसा ही है, जैसे बूंद के ऊपर सागर गिर जाए। तो बूंद के पास कुछ पात्रता चाहिए सागर को पी जाने की, नहीं तो अनायास तो सिर्फ बूंद मरेगी ही, मिटेगी ही, पा नहीं सकेगी कुछ।

इसलिए, अगर इसे ठीक से समझें तो साधना में दोहरा काम है. उस शक्ति के मार्ग पर अपने को लाना है, उसके अनुकूल लाना है, और अनुकूल लाने के पहले अपने को सहने की क्षमता भी बढ़ानी है। ये दोहरे काम साधना के हैं। एक तरफ से द्वार खोलना है, आंख ठीक करनी है; और दूसरी तरफ से आंख ठीक हो जाए, तो भी प्रतीक्षा करनी है और आंख को भी इस योग्य बनाना है कि वह प्रकाश को देख सके। अन्यथा बहुत प्रकाश अंधेरे से भी ज्यादा अंधेरा सिद्ध होता है। इसमें प्रकाश का कोई भी कसूर नहीं है, इसमें प्रकाश का कोई लेना—देना नहीं है, यह बिलकुल एकतरफा मामला है; यह हमारे ऊपर ही निर्भर है। इसमें हम जिम्मेवारी कभी दूसरे पर न दे पाएंगे।

अब जैसे, आदमी की तो जन्मों—जन्मों की यात्रा है। उस जन्मों—जन्मों की यात्रा में उसने बहुत कुछ किया है। और कई बार ऐसा होता है कि वह बिलकुल पात्र होने के इंच भर पहले छूट गया। वे पिछले जन्मों की सारी स्मृतियां उसकी खो गईं; उसे कुछ पता नहीं है। यदि आप पिछले जन्म में किसी साधना में लगे थे और निन्यानबे डिग्री तक पहुंच गए थे, सौवीं डिग्री तक नहीं पहुंचे थे, अब वह साधना भूल गई, वह जीवन भूल गया, वह सारी बात भूल गई, लेकिन निन्यानबे डिग्री तक की जो आपकी स्थिति थी, वह आपके साथ है।

एक दूसरा आदमी आपके पास में बैठा हुआ है, वह एक ही डिग्री पर रुक गया है; उसको भी कोई पता नहीं है। आप दोनों एक ही दिन ध्यान करने बैठे हैं, तो भी आप दोनों अलग—अलग तरह के आदमी हैं। उसकी एक डिग्री बढ़ेगी तो अभी कोई घटना घटनेवाली नहीं है, वह दो ही डिग्री पर पहुंचेगा। आपकी एक डिग्री बढ़ेगी तो घटना घट जानेवाली है। यह आकस्मिक ही होगी आपके लिए घटना, क्योंकि आपको कोई अंदाज भी नहीं है कि निन्यानबे डिग्री पर आप थे। आप कहां हैं, इसका अंदाज नहीं है। और इसलिए एकदम से पहाड़ टूट पड़ सकता है। उसकी तैयारी चाहिए।

दुर्घटना, का मतलब इतना ही है कि जिसकी हमारे लिए तैयारी नहीं थी। अनिवार्य रूप से दुर्घटना का मतलब दुख नहीं होता; दुर्घटना का इतना ही मतलब होता है कि जिसके घटने के लिए हम अभी तैयार न थे। दुर्घटना का मतलब अनिवार्य रूप से बुरा नहीं होता। अब एक आदमी को एक लाख रुपये की लाटरी मिल गई हो, तो कुछ बुरा नहीं हो गया है, लेकिन मृत्यु घटित हो जाएगी; वह मर सकता है। एक लाख! ये उसके हृदय की गति को बंद कर जा सकते हैं। दुर्घटना का मतलब इतना है कि जिस घटना के लिए हम अभी तैयार न थे।

और इससे उलटा भी हो सकता है कि अगर कोई आदमी तैयार हो और उसकी मृत्यु आ जाए, तो जरूरी नहीं है कि मृत्यु दुर्घटना ही हो। अगर कोई आदमी तैयार हो, सुकरात जैसी हालत में हो, तो वह मृत्यु को भी आलिंगन करके स्वागत कर लेगा, और उसके लिए मृत्यु तत्काल समाधि बन जाएगी, दुर्घटना नहीं; क्योंकि उस मरते क्षण को वह इतने प्रेम और आनंद से स्वीकार करेगा कि वह उस तत्व को भी देख लेगा जो नहीं मरता है।

हम तो मरने को इतनी घबड़ाहट से स्वीकार करते हैं कि मरने के पहले बेहोश हो जाते हैं; मरने की प्रक्रिया हम होशपूर्वक नहीं अनुभव कर पाते, मरने के पहले बेहोश हो जाते हैं। इसलिए हम बहुत बार मरे हैं, लेकिन मरने की प्रक्रिया का हमें कोई पता नहीं। एक बार भी हमें पता चल जाए कि मरना क्या है, तो फिर हमें कभी भी यह खयाल नहीं उठेगा कि मैं और मर सकता हूं; क्योंकि मौत की घटना घट जाएगी और आप पार खड़े रह जाएंगे। लेकिन यह होश में होना चाहिए।

तो मृत्यु भी किसी के लिए सौभाग्य हो सकती है; और प्रसाद, ग्रेस भी किसी के लिए दुर्भाग्य हो सकती है। इसलिए साधना दोहरी है पुकारना है, बुलाना है, खोजना है, जाना है; और साथ—साथ तैयार भी होते चलना है कि जब आ जाए द्वार पर प्रकाश, तो ऐसा न हो कि प्रकाश भी हमें अंधेरा ही सिद्ध हो, और अंधा कर जाए। इसमें एक बात अगर खयाल रखेंगे , तो अड़चन न होगी। अगर परमात्मा को व्यक्ति मान लेंगे तो फिर बहुत अड़चन हो जाती है, अगर शक्ति मानेंगे तब कोई अड़चन नहीं।

व्यक्ति मानकर बहुत कठिनाई हो गई। और हमारे मन की इच्छा ऐसी होती है कि व्यक्ति हो; क्योंकि व्यक्ति बनाकर हम उसको रिस्पासिबल बना देते हैं; तो जिम्मेवारी अपनी पूरी नहीं रह जाती, उसकी भी कुछ हो जाती है।

और हम तो छोटी—छोटी चीजों के लिए उसकी उत्तरदायी बनाते हैं, बड़ी चीजों की तो बात अलग है। एक आदमी को नौकरी मिल जाए तो परमात्मा को धन्यवाद देता है, नौकरी छूट जाए तो परमात्मा पर नाराज होता है; किसी को फोड़ा—फुसी हो जाए तो परमात्मा को कहता है उसने कर दिया; किसी का फोड़ा—फुसी ठीक हो जाए तो वह कहता है, भगवान की कृपा से ठीक हो गया।

लेकिन हम कभी खयाल नहीं करते कि हम कैसे काम भगवान से ले रहे हैं! और कभी यह खयाल नहीं करते कि बड़ी ईगोसेंट्रिक धारणा है यह कि मेरे फोड़े—फुसी की फिकर भी भगवान कर रहा है! कि हमारा एक रुपया गिर गया और सड़क पर लौटकर मिल गया तो हम कहते हैं, भगवान की कृपा से!

मेरे एक रुपये का भी हिसाब—किताब जो है वह भगवान रख रहा है, यह सोचकर भी मन को बड़ी तृप्ति मिलती है, क्योंकि मैं तब इस सारे जगत के केंद्र पर खड़ा हो गया। और परमात्मा से भी जो मैं व्यवहार कर रहा हूं वह एक नौकर का व्यवहार है। उससे भी हम एक पुलिसवाले का उपयोग ले रहे है—कि वह तैयार खड़ा है, हमारे रुपये को बचा रहा है।

व्यक्ति बनाने से यह सुविधा है कि जिम्मेवारी उस पर टाल सकते हैं। लेकिन साधक जिम्मेवारी अपने ऊपर लेता है। असल में, साधक होने का एक ही अर्थ है कि अब इस जगत में वह किसी बात के लिए किसी और को जिम्मेवार ठहराने नहीं जाएगा।

अब दुख है तो अपना है, सुख है तो अपना है, शांति है तो अपनी है, अशांति है तो अपनी है—कोई उत्तरदायी नहीं, कोई रिस्पासिबल नहीं, मैं ही उत्तरदायी हूं। अगर टांग टूट जाती है गिरकर, तो ग्रेविटेशन जिम्मेवार नहीं, मैं ही जिम्मेवार हूं। ऐसी मनोदशा हो तो फिर बात समझ में आ जाएगी। और तब, तब दुर्घटना का अर्थ और होगा। और इसलिए मैंने कहा कि प्रसाद भी तैयार व्यक्तित्व को उपलब्ध होता है, तो कल्याणकारी, मंगलदायी हो जाता है। असल में, हर चीज की एक घड़ी है, हर चीज का एक ठीक क्षण है, और ठीक क्षण और ठीक घड़ी को चूक जाना बड़ी दुर्घटना है। इस खयाल से।

गुरु और शिष्य का गलत संबंध:

शक्तिपात का प्रभाव धीरे— धीरे कम हो जाता है इसलिए माध्यम से बार— बार संबंध होना चाहिए तो यह क्या गुरुरूपी किसी व्यक्ति पर परावलंबन नहीं हुआ?

यह हो सकता है परावलंबन। अगर कोई गुरु बनने को उत्सुक हो, कोई बनाने को उत्सुक हो, तो यह परावलंबन हो जाएगा। इसलिए भूलकर भी शिष्य मत बनना और भूलकर भी गुरु मत बनना, यह परावलंबन हो जाएगा। लेकिन, यदि शिष्य और गुरु बनने का कोई सवाल नहीं है, तब कोई परावलंबन नहीं है; तब जिससे आप सहायता ले रहे हैं, वह अपना ही आगे गया रूप है। अपना ही आगे गया रूप है—कौन बने गुरु, कौन बने शिष्य?

मैं निरंतर कहता रहा हूं कि बुद्ध ने अपने पिछले जन्मों के स्मरण में एक बात कही है। कहा है कि मैं तब अज्ञानी था और एक बुद्ध पुरुष परमात्मा को उपलब्ध हो गए थे, तो मैं उनके दर्शन करने गया था। बुद्ध पिछले जन्म में, जब वे बुद्ध नहीं हुए थे, किसी बुद्ध पुरुष के दर्शन करने गए थे। झुककर उन्होंने प्रणाम किया था, और वे प्रणाम करके खड़े भी नहीं हो पाए थे कि बहुत मुश्किल में पड़ गए, क्योंकि वह बुद्ध पुरुष उनके चरणों में झुके और उन्हें प्रणाम किया। तो उन्होंने कहा, आप यह क्या कर रहे हैं? मैं आपके पैर छुऊं, यह ठीक। आप मेरे पैर छूते हैं! तो उन्होंने कहा था कि तू मेरे पैर छुए और मैं तेरे पैर न छुऊं तो बड़ी गलती हो जाएगी; गलती इसलिए हो जाएगी कि मैं तेरा ही दो कदम आगे गया एक रूप हूं।

और जब मैं तेरे पैर में झुक रहा हूं तो तुझे याद दिला रहा हूं कि तू मेरे पैरों पर झुका, वह ठीक किया, लेकिन इस भूल में मत पड़ जाना कि तू अलग और मैं अलग, और इस भूल में मत पड़ जाना कि तू अज्ञानी और मैं जानी। घड़ी भर की बात है कि तू भी ज्ञानी हो जाएगा। यानी ऐसे ही कि जब मेरा दायां पैर आगे जाता है तो बायां पीछे छूट जाता है। असल में, दायां आगे जाए, इसके लिए भी बाएं को पीछे थोड़ी देर छूटना पड़ता है।

गुरु और शिष्य का संबंध घातक है। गुरु और शिष्य का असंबंधित रूप बड़ा सार्थक है। असंबंधित रूप का मतलब ही यह होता है कि जहां अब दो नहीं हैं। जहां दो हैं, वहीं संबंध हो सकता है। तो यह तो समझ में भी आ सकता है कि शिष्य को यह खयाल हो कि गुरु है, क्योंकि शिष्य अज्ञानी है, लेकिन जब गुरु को भी यह खयाल होता है कि गुरु है, तब फिर हद हो जाती है; तब उसका मतलब हुआ कि अंधा अंधे को मार्गदर्शन कर रहा है! और इसमें आगे जानेवाला अंधा ही ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि वह एक दूसरे अंधे को यह भरोसा दिलवा रहा है कि बेफिकर रहो।

गुरु और शिष्य के संबंध का कोई आध्यात्मिक अर्थ नहीं है। असल में, इस जगत में हमारे सारे संबंध शक्ति के संबंध हैं, पावर पालिटिक्स के संबंध हैं। कोई पिता है, कोई पुत्र है।अगर प्रेम का संबंध हो तो बात और होगी। तब पिता को पिता होने का पता नहीं होगा,पुत्र को पुत्र होने का पता नहीं होगा। तब पुत्र पिता का ही बाद में आया हुआ रूप होगा, और पिता पुत्र का पहले आ गया रूप होगा। स्वभावत: बात भी यही है।

एक बीज हमने बोया है और वृक्ष आया, और फिर उस वृक्ष में हजार बीज लग गए। वह पहला बीज और इन बीजों के बीच क्या संबंध है? वे पहले आ गए थे, ये पीछे आए हैं, उसी की यात्रा हैं—उसी बीज की यात्रा है जो वृक्ष के नीचे टूटकर बिखर गया है। पिता पहली कड़ी थी, यह दूसरी कड़ी है उसी श्रृंखला में।

लेकिन तब श्रृंखला है और दो व्यक्ति नहीं हैं। तब अगर बेटा अपने पिता के पैर दबा रहा है तो सिर्फ बीती हुई कड़ी को—स्वभावत बीती हुई कड़ी को वह सम्मान दे रहा है, बीती हुई कड़ी की सेवा कर रहा है, जो जा रहा है उसको वह आदर दे रहा है। क्योंकि उसके बिना वह आ भी नहीं सकता था; वह उससे आया है। और अगर पिता अपने बेटे को बड़ा कर रहा है, पाल रहा है, पोस रहा है, भोजन—कपड़े की चिंता कर रहा है, तो यह किसी दूसरे की चिंता नहीं है, वह अपने ही एक रूप को सम्हाल रहा है। और अपने जाने के पहले उसे.. अगर इसे हम ऐसा कहें कि पिता अपने बेटे में फिर से जवान हो रहा है, तो कठिनाई नहीं है। तब संबंध की बात नहीं है, तब एक और बात है। तब एक प्रेम है जहां संबंध नहीं है।

लेकिन आमतौर से जो पिता और बेटे के बीच संबंध है, वह राजनीति का संबंध है।पिता ताकतवर है, बेटा कमजोर है ;पिता बेटे को दबा रहा है;पिता बेटे को कह रहा है कि तू अभी कुछ भी नहीं, मैं सब कुछ हूं। तो उसे पता नहीं कि आज नहीं कल बेटा ताकतवर हो जाएगा, पिता कमजोर हो जाएगा; और तब बेटा उसे दबाना शुरू करेगा कि मैं सब कुछ हूं और तू कुछ भी नहीं है।

यह जो गुरु और शिष्य के बीच जो संबंध है, पति और पत्नी के बीच जो संबंध है, ये सब परवरशंस हैं, विकृतियां हैं। नहीं तो पति और पत्नी के बीच संबंध की क्या बात है! दो व्यक्तियों ने ऐसा अनुभव किया है कि वे एक हैं, इसलिए वे साथ हैं। लेकिन नहीं, ऐसा मामला नहीं है। पति पत्नी को दबा रहा है— अपने ढंगों से, पत्नी पति को दबा रही है— अपने ढंगों से, और वे एक—दूसरे के ऊपर पूरी की पूरी ताकत और पावर पालिटिक्स का पूरा प्रयोग कर रहे हैं।

गुरु—शिष्य घूमकर फिर ऐसी की ऐसी बात है। गुरु शिष्य को दबा रहा है, और शिष्य गुरु के मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वे कब गुरु बन जाएं। या अगर गुरु ज्यादा देर टिक जाए तो बगावत शुरू हो जाएगी। इसलिए ऐसा गुरु खोजना बहुत मुश्किल है जिसके शिष्य उससे बगावत न करते हों। ऐसा गुरु खोजना मुश्किल है जिसके शिष्य उसके दुश्मन न हो जाते हों। जो भी चीफ डिसाइपल है वह दुश्मन होनेवाला है। तो चीफ डिसाइपल जरा सोचकर बनाना चाहिए। कहीं भी, वह अनिवार्य है; क्योंकि वह जो शक्ति का दबाव है, उसकी बगावत, रिबेलियन भी होती है। अध्यात्म का इससे कोई लेना—देना नहीं।

तो पिता बेटे को दबाए, क्योंकि दो अज्ञानियों की बात है, माफ की जा सकती है, अच्छी तो नहीं है, सही जा सकती है। पति पत्नी को दबाए, पत्नी पति को दबाए, चल सकता है; शुभ तो नहीं है, चलना तो नहीं चाहिए, लेकिन फिर भी छोड़ा जा सकता है। लेकिन गुरु भी शिष्य को दबा रहा है, तब फिर बड़ा मुश्किल हो जाता है। कम से कम यह तो जगह ऐसी है जहां कोई दावेदार नहीं होना चाहिए ।

अब गुरु और शिष्य के बीच क्या संबंध है? दावेदार है एक, वह कहता है, मैं जानता हूं और तुम नहीं जानते; तुम अज्ञानी हो और मैं ज्ञानी हूं इसलिए अज्ञानी को ज्ञानी के चरणों में झुकना चाहिए।

मगर हमें यह पता ही नहीं है कि यह कैसा ज्ञानी है जो किसी से कह रहा है कि चरणों में झुकना चाहिए! यह महाअज्ञानी हो गया। हां, इसे कुछ थोड़ी बातें पता चल गई हैं, शायद उसने कुछ किताबें पढ़ ली हैं, शायद परंपरा से कुछ सूत्र उसको उपलब्ध हो गए हैं, वह उनको दोहराना जान गया है। इससे ज्यादा कुछ और मामला नहीं है।

दावेदार गुरु अज्ञानी:

शायद तुमने एक कहानी न सुनी हो। मैंने सुना है कि एक बिल्ली थी जो सर्वज्ञ हो गई थी। बिल्लियों में उसकी बड़ी ख्याति हो गई, क्योंकि वह तीर्थंकर की हैसियत पा गई थी। और उसके सर्वज्ञ होने का, आलनोइंग होने का कारण यह था कि वह एक पुस्तकालय में प्रवेश कर जाती थी, और उस पुस्तकालय के बाबत सभी कुछ जानती थी। सभी कुछ का मतलब—कहां से प्रवेश करना, कहां से निकलना, किस किताब की आडू में बैठने से ज्यादा आराम होता है, और कौन सी किताब ठंड में भी गर्मी देती है। तो बिल्लियों में यह खबर हो गई थी कि अगर पुस्तकालय के संबंध में कुछ भी जानना हो, तो वह बिल्ली आलनोइंग है, वह सर्वज्ञ है।

और निश्चित ही, जो बिल्ली पुस्तकालय के बाबत सब जानती है— जो भी पुस्तकालय में है, सब जानती है—उसके ज्ञानी होने में क्या कमी थी! उस बिल्ली को शिष्य भी मिल गए थे। लेकिन उसको कुछ भी पता नहीं था; किताब का पता उसे इतना ही था कि उसकी आडू में बैठकर छिपने की सुविधा है। उस किताब के बाबत उसे इतना ही पता था कि उसकी जिल्द जो है वह ऊनी कपड़े की है, उसमें ठंड में भी गर्मी मिलती है। यही जानकारी थी उसकी किताब के बाबत, और उसे कुछ भी पता नहीं था कि भीतर क्या है। और भीतर का बिल्ली को पता हो भी कैसे सकता था!

आदमियों में भी ऐसी आलनोइंग बिल्लियां हैं, जिनको किताबों की आड़ में छिपने का पता है, जिन पर आप हमला करो तो फौरन रामायण बीच में कर लेंगे— और कहेंगे रामायण में ऐसा लिखा है! और आपकी गर्दन को रामायण से दबा देंगे। गीता में ऐसा लिखा है! अब गीता से कौन झगड़ा करेगा?

गीता गर्मी भी देती है ठंड में, व्यवसाय भी देती है, दुश्मन से बचाव के लिए शस्त्र भी बन जाती है; आभूषण भी बन जाती है; और गीता के साथ खेल खेला जा सकता है।

लेकिन गीता में जो है, ऐसे आदमी को उतना ही पता है, जितना कि उस बिल्ली को जो पुस्तकालय में आराम करती थी; उससे भिन्न कुछ पता नहीं है। और यह तो हो सकता है कि उस पुस्तकालय में रहते—रहते बिल्ली किसी दिन जान जाए कि किताब में क्या है, लेकिन ये किताब जाननेवाले गुरु बिलकुल भी नहीं जान पाएंगे। क्योंकि जितनी इनको किताब कंठस्थ हो जाएगी, उतना ही इनको जानने की कोई जरूरत न रह जाएगी; इनको भ्रम पैदा होगा कि हमने जान लिया है।

जब भी कोई आदमी दावा करे कि जान लिया है, तब समझना कि अज्ञान मुखर हो गया। दावेदार अज्ञान है। लेकिन जब कोई आदमी जानने के दावे से भी झिझक जाए, तब समझना कि कहीं कोई झलक और किरण मिलनी शुरू हुई। लेकिन ऐसा आदमी गुरु न बन सकेगा। ऐसा आदमी गुरु बनने की कल्पना भी नहीं कर सकता, क्योंकि गुरु के साथ अथॉरिटी है; गुरु के साथ दावा जरूरी है। गुरु का मतलब ही यह है कि मैं जानता हूं पक्का जानता हूं तुम्हें अब जानने की कोई जरूरत नहीं, मुझसे जान लो।

तो जहां अथॉरिटी है, जहां आप्तता है और जहां दावा है कि मैं जानता हूं वहां दूसरे की अन्वेषण और खोज की वृत्ति की हत्या भी है, क्योंकि अथॉरिटी बिना हत्या किए नहीं रह सकती; दावेदार दूसरे की गर्दन काटे बिना नहीं रह सकता; क्योंकि यह भी डर है कि कहीं तुम पता न लगा लो, अन्यथा मेरे अधिकार का क्या होगा, मेरी अथॉरिटी का क्या होगा! तो मैं तुम्हें रोकूंगा। अनुयायी बनाऊंगा, शिष्य बनाऊंगा। शिष्यों में भी हायरेरकी बनाई जाएगी— कौन प्रधान है, कौन कम प्रधान है। और सब वही जाल खड़ा हो जाएगा जो राजनीति का जाल है, जिससे अध्यात्म का कोई भी संबंध नहीं है।

शक्तिपात प्रोत्साहन बने, गुलामी नहीं:

तो जब मैं कहता हूं कि शक्तिपात जैसी घटना, परमात्मा के प्रकाश और उसकी विद्युत को, ऊर्जा को उपलब्ध करने की घटना किन्हीं व्यक्तियों के करीब सुगमता से घट सकती है, तो मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम उन व्यक्तियों को पकड़कर रुक जाना, न यह कह रहा हूं कि तुम परतंत्र हो जाना, न यह कह रहा हूं कि तुम उन्हें गुरु बना लेना, न यह कह रहा हूं कि तुम अपनी खोज बंद कर देना। बल्कि सच तो यह है कि जब भी तुम्हें किसी व्यक्ति के करीब वह घटना घटेगी, तो तुम्हें तत्काल ऐसा लगेगा कि जब दूसरे व्यक्ति के माध्यम से आकर भी इस घटना ने इतना आनंद दिया तो जब सीधी अपने माध्यम से आती होगी तो बात ही और हो जाएगी।

आखिर दूसरे से आकर थोडी तो जूठी हो ही जाती है, थोड़ी तो बासी हो ही जाती है। मैं बगीचे में गया और वहां के फूलों की सुगंध से भर गया, और फिर तुम मेरे पास आए, और मेरे पास से तुम्हें फूलों की सुगंध आई; लेकिन मेरे पसीने की बदबू भी उसमें थोड़ी मिल ही जाएगी; और तब तक फीकी भी बहुत हो जाएगी।

तो जब मैं कह रहा हूं कि यह प्राथमिक रूप से बड़ी उपयोगी है कि तुम्हें खबर तो लग जाए कि बगीचा भी है, फूल भी हैं, तब तुम अपनी यात्रा पर जा सकोगे। अगर गुरु बनाओगे तो रुकोगे।

मील के पत्थरों के पास हम रुकते नहीं हैं। हालांकि मील के पत्थर, जिनको हम गुरु कहते हैं, उनसे बहुत ज्यादा बताते हैं, पक्की खबर देते हैं. कितने मील चल चुके और कितने मील मंजिल की यात्रा बाकी है। अभी कोई गुरु इतनी पक्की खबर नहीं देता। लेकिन फिर भी मील के पत्थर की न हम पूजा करते हैं, न उसके पास बैठ जाते हैं। और अगर मील के पत्थर के पास हम बैठ जाएंगे तो हम पत्थर से बदतर सिद्ध होंगे। क्योंकि वह पत्थर सिर्फ बताने को था कि आगे! वह रोकनेवाला नहीं है, न रोकनेवाले का कोई अर्थ है।

लेकिन अगर पत्थर बोल सकता होता तो वह कहता, कहां जा रहे हो? मैंने तुम्हें इतना बताया और तुम मुझे छोड्कर जा रहे हो! बैठो, तुम मेरे शिष्य हो गए, क्योंकि मैंने ही तुम्हें बताया कि दस मील चल चुके और बीस मील अभी बाकी है। अब तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं है, मेरे पीछे रहो।

तो पत्थर बोल नहीं सकता, इसलिए गुरु नहीं बनता है; आदमी बोल सकता है, इसलिए गुरु बन जाता है, क्योंकि वह कहता है मेरे प्रति कृतज्ञ रहो, अनुगृहीत रहो, ग्रेटिटयूड प्रकट करो, मैंने तुम्हें इतना बताया। और ध्यान रहे, जो ऐसा आग्रह करता हो, अनुग्रह मांगता हो, समझना कि उसके पास बताने को कुछ भी न था, कोई सूचना थी। जैसे मील के पत्थर के पास सूचना है। उसे कुछ पता थोड़े ही है कि कितनी मंजिल है और कितनी नहीं है, उसे कुछ पता नहीं है, सिर्फ एक सूचना उसके ऊपर खुदी है। वह उस सूचना को दोहराए चला जा रहा है—कोई भी निकलता है, उसी को दोहराए चला जा रहा है।

ऐसे ही, अनुग्रह जब तुमसे मांगा जाए तो सावधान हो जाना। और व्यक्तियों के पास नहीं रुकना है, जाना तो है अव्यक्ति के पास, जाना तो है उसके पास जहां कोई आकार और सीमा नहीं। लेकिन व्यक्तियों से भी उसकी झलक मिल सकती है, क्योंकि अंततः व्यक्ति हैं तो उसी के। जैसा मैंने कल कहा कि कुएं से भी सागर का पता चलता है, ऐसे ही किसी व्यक्ति से भी उस अनंत का पता चलता है, अगर तुम झांक सको, तो तुम्हें पता चल सकता है। लेकिन कहीं निर्भर नहीं होना है, और किसी चीज को परतंत्रता नहीं बना लेना है। लेकिन सभी तरह के संबंध परतंत्रता बनते हैं—चाहे वह पति—पत्नी का हो, चाहे बाप—बेटे का हो, चाहे गुरु—शिष्य का हो; जहां संबंध है वहां परतंत्रता शुरू हो जाएगी।

तो आध्यात्मिक खोजी को संबंध ही नहीं बनाने हैं। और पति—पत्नी के बनाए रखे तो कोई बहुत हर्जा नहीं है, क्योंकि उनसे कोई बाधा नहीं है, वे इररेलेवेंट हैं। लेकिन मजा यह है कि वह पति—पत्नी के, बाप—बेटे के संबंध तोड़कर एक नया संबंध बनाता है जो बहुत खतरनाक है, वह गुरु—शिष्य का संबंध बनाता है। आध्यात्मिक संबंध का कोई मतलब ही नहीं होता। सब संबंध सांसारिक हैं। संबंध मात्र सांसारिक हैं। अगर हम ऐसा कहें कि संबंध ही संसार है, तो कोई कठिनाई नहीं होगी। असंग, अकेले हो तुम!

लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि अहंकार। क्योंकि तुम्हीं अकेले हो, ऐसा नहीं है, और भी अकेले हैं। और तुमसे कोई दो कदम आगे है। उसकी अगर तुम्हें पैरों की ध्वनि भी मिल जाती है कि कोई दो कदम आगे है, तो दो कदम आगे के रास्ते की भी खबर मिल जाती है। कोई तुमसे दो कदम पीछे है, कोई तुम्हारे साथ है, कोई दूर है—ये सब चारों तरफ हजार—हजार, अनंत— अनंत आत्माएं यात्रा कर रही हैं। इस यात्रा में सब संगी—साथी हैं, फासला आगे—पीछे का है। इससे जितना फायदा ले सको वह लेना, लेकिन इसको गुलामी मत बनाना। यह गुलामी संबंध बनाने से शुरू हो जाती है।

इसलिए परतंत्रता से बचना, संबंध से बचना; आध्यात्मिक संबंध से सदा बचना। सांसारिक संबंध उतना खतरनाक नहीं है, क्योंकि संसार का मतलब ही संबंध है; वहां कोई इतनी अड़चन की बात नहीं है। और जहां से तुम्हें खबर मिले, वहां से खबर ले लेना। और यह नहीं कह रहा हूं मैं कि तुम धन्यवाद मत देना। यह नहीं कह रहा हूं। इसलिए कठिनाई होती है; इसलिए जटिलता हो जाती है। कोई अनुग्रह मांगे, यह गलत है, लेकिन तुम धन्यवाद न दो तो उतना ही गलत है। मील के पत्थर को भी धन्यवाद तो दे ही देना जाते वक्त— कि तेरी बड़ी कृपा! वह सुने या न सुने।

तो इससे बड़ी भांति होती है। जब हम कहते हैं कि गुरु अनुग्रह न मांगे, तो आमतौर से आदमी के अहंकार को एक रस मिलता है, वह सोचता है. बिलकुल ठीक है, किसी को धन्यवाद भी देने की जरूरत नहीं। तब भूल हो रही है, यह बिलकुल दूसरे पहलू से बात को पकड़ा जा रहा है। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि तुम धन्यवाद मत दे देना। मैं यह कह रहा हूं कि कोई अनुग्रह मांगे, यह गलत है। लेकिन तुम अनुगृहीत न होओ तो उतना ही गलत हो जाएगा। तुम तो अनुगृहीत होना ही। लेकिन वह अनुग्रह बांधेगा नहीं, क्योंकि जो मांगा नहीं जाता, वह कभी नहीं बांधता है, जो दान है, वह कभी नहीं बांधता है। अगर मैंने तुम्हें धन्यवाद दिया है, तो वह कभी नहीं बांधता; और अगर तुमने मांगा है, फिर मैं दूं या न दूं उपद्रव शुरू हो जाता है।

और जहां से तुम्हें झलक मिले उसकी, वहां से झलक को ले लेना। और वह झलक चूंकि दूसरे से आई है, इसलिए बहुत स्थायी नहीं होगी, वह खोएगी बार—बार। स्थायी तो वही होगी जो तुम्हारी है। इसलिए उसे तुम्हें बार—बार, बार—बार लेना पड़ेगा। और अगर डरते हो परतंत्रता से तो अपनी खोजना।

परतंत्रता से डरने से कुछ भी न होगा, दूसरे पर निर्भर होने का भय भी लेने की जरूरत नहीं है। क्योंकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता मैं तुम पर परतंत्र हो जाऊं तो भी संबंधित हो गया, और तुमसे डरकर भाग जाऊं तो भी संबंधित हो गया और परतंत्र हो गया। इसलिए चुपचाप लेना, धन्यवाद देना, बढ़ जाना।

और अगर लगे कि कुछ है जो आता है और खो जाता है, तो फिर अपना स्रोत खोजना, जहां से वह कभी न खोए, जहां से खोने का कोई उपाय न रह जाए। अपनी संपदा ही अनंत हो सकती है। दूसरे से मिला हुआ दान चुक ही जाता है। भिखारी मत बन जाना कि दूसरे से ही मांगते चले जाओ। वह दूसरे से मिला हुआ भी तुम्हें अपनी ही खोज पर ले जाए। और यह तभी होगा जब तुम दूसरे से कोई संबंध नहीं बनाते हो, धन्यवाद देकर आगे बढ़ जाते हो।

आध्यात्मिक अनुभवों के नकली प्रतिरूप:

प्रश्न: ओशो आपने कहा है कि शक्तिपात अहंशन्य व्यक्ति के माध्यम से होता है; और जो कहता है कि मैं तुम पर शक्तिपात करूंगा तो जानना कि वह शक्तिपात नहीं कर सकता। लेकिन इस प्रकार शक्तिपात देनेवाले कत से व्यक्तियों से मैं परिचित हूं। उनके शक्तिपात से लोगों को ठीक शास्त्रोक्त ढंग से कुंडलिनी की प्रक्रियाएं होती हैं। क्या वे प्रामाणिक नहीं हैं? क्या वे झूठी स्युडो प्रक्रियाएं हैं?……. क्यों और कैसे?

हां, यह भी समझने की बात है। असल में, दुनिया में ऐसी कोई भी चीज नहीं है जिसका नकली सिक्का न हो सके दुनिया में ऐसी कोई भी चीज नहीं है जिसका फाल्स कॉइन न बनाया जा सके। सभी चीजों के नकली हिस्से भी हैं और नकली पहलू भी हैं। और अक्सर ऐसा होता है कि नकली सिक्का ज्यादा चमकदार होता है— उसे होना पड़ता है; क्योंकि चमक से ही वह चलेगा; असलीपन से तो चलता नहीं। असली सिक्का बेचमक का हो, तो भी चलता है। नकली सिक्का दावेदार भी होता है; क्योंकि असलीपन की जो कमी है, वह दावे से पूरी करनी पड़ती है। और नकली सिक्का एकदम आसान होता है, क्योंकि उसका कोई मूल्य तो होता नहीं।

तो जितनी आध्यात्मिक उपलब्धियां हैं, सबका काउंटर पार्ट भी है। ऐसी कोई आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं है, जिसका फाल्स, झूठा काउंटर पार्ट नहीं है। अगर असली कुंडलिनी है, तो नकली कुंडलिनी भी है। नकली कुंडलिनी का क्या मतलब है? और अगर असली चक्र हैं, तो नकली चक्र भी हैं। और अगर असली योग की प्रक्रियाएं हैं, तो नकली प्रक्रियाएं भी हैं। फर्क एक ही है, और वह फर्क यह है कि सब असली आध्यात्मिक तल में घटित होता है, और सब नकली साइकिक, मनस के तल में घटित होता है।

अब जैसे, उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति को चित्त की गहराइयों में प्रवेश मिले, तो उसे बहुत से अनुभव होने शुरू होंगे। जैसे उसे सुगंध आ सकती हैं, बहुत अनूठी, जो उसने कभी नहीं जानी, संगीत सुनाई पड़ सकता है, बहुत अलौकिक, जो उसने कभी नहीं सुना; रंग दिखाई पड़ सकते हैं, ऐसे, जैसे कि पृथ्वी पर होते ही नहीं।

लेकिन ये सब की सब बातें हिप्नोसिस से तत्काल पैदा की जा सकती हैं बिना कठिनाई के—रंग पैदा किए जा सकते हैं, ध्वनियां पैदा की जा सकती हैं, स्वाद पैदा किया जा सकता है, सुगंध पैदा की जा सकती है। और इसके लिए किसी साधना से गुजरने की जरूरत नहीं है, इसके लिए सिर्फ बेहोश होने की जरूरत है। और तब जो भी सजेस्ट किया जाए बाहर से, वह भीतर घटित हो जाएगा।

अब यह फाल्स कॉइन है। ध्यान में जो—जो घटित होता है, वह सब का सब हिप्नोसिस से भी घटित हो सकता है। लेकिन वह आध्यात्मिक नहीं है, वह सिर्फ डाला गया है, और ड्रीम है, स्वप्न जैसा है। अब जैसे, तुम एक स्त्री को प्रेम कर सकते हो जागते हुए भी, स्वप्न में भी कर सकते हो। और आवश्यक नहीं है कि स्वप्न की जो स्त्री है, वह जागनेवाली स्त्री से कम सुंदर हो। अक्सर ज्यादा होगी। और समझ लो कि एक आदमी अगर सोए और फिर उठे न, सपना ही देखता रहे, तो उसे कभी भी पता नहीं चलेगा कि जो वह देख रहा है वह असली स्त्री है, कि जो वह देख रहा है वह सपना है। कैसे पता चलेगा? वह तो नींद टूटे तभी वह जांच कर सकता है कि अरे, जो मैं देख रहा था वह सपना था!

तो इस तरह की प्रक्रियाएं हैं जिनसे तुम्हारे भीतर सभी तरह के सपने पैदा किए जा सकते हैं—कुंडलिनी का सपना पैदा किया जा सकता है, चक्रों के सपने पैदा किए जा सकते हैं, अनुभूतियों के सपने पैदा किए जा सकते हैं। और अगर तुम उन सपनों में लीन रहो— और वे इतने सुखद हैं कि तोड्ने का मन न होगा; और ऐसे सपने हैं जिनको कि सपना कहना मुश्किल है, क्योंकि वे जागते में चलते हैं, दिवा—स्वप्न हैं, डे—ड्रीम्स हैं, और उनको साधा जा सकता है— तो तुम उनको जिंदगी भर साधकर गुजार सकते हो। और तुम आखिर में पाओगे तुम कहीं भी नहीं पहुंचे हो; तुम सिर्फ एक लंबा सपना देखे हो।

इन सपनों को पैदा करने की भी तरकीबें हैं, व्यवस्थाएं हैं। और दूसरा व्यक्ति तुममें इनको पैदा कर सकता है। और तुम्हें तय करना मुश्किल हो जाएगा कि इन दोनों में फर्क क्या है, क्योंकि दूसरे का तुम्हें पता नहीं है। अगर एक आदमी को कभी असली सिक्का न मिला हो और नकली सिक्का ही हाथ में मिला हो, तो वह कैसे तय करेगा कि यह नकली है? नकली के लिए असली भी मिल जाना जरूरी है। तो जिस दिन व्यक्ति को कुंडलिनी का आविर्भाव होगा, उस दिन वह फर्क कर पाएगा कि इन दोनों में तो जमीन—आसमान का फर्क है! यह तो बात ही और है!

अनुभवों की जांच का रहस्य—सूत्र:

और ध्यान रहे, शास्त्रोक्त कुंडलिनी जो है, वह फाल्स होगी। उसके कारण हैं। अब यह तुम्हें मैं एक सीक्रेट की बात कहता हूं। उसके कारण हैं और बड़ा राज है। असल में, जो भी बुद्धिमान लोग इस पृथ्वी पर हुए हैं, उन सबने प्रत्येक शास्त्र में कुछ बुनियादी भूल छोड़ दी है, जो कि पहचान के लिए है। कुछ बुनियादी भूल छोड़ दी है। जैसे मैंने तुमसे कहा कि इस मकान में—मैंने तुम्हें खबर दी इस मकान के बाहर—कि इस मकान में पांच कमरे हैं। छह कमरे हैं, यह मैं जानता हूं मैंने तुमसे कहा, पांच कमरे हैं। एक दिन तुम आए और तुमने कहा कि वह मैं मकान देख आया, आपने बिलकुल ठीक कहा था, बिलकुल पांच ही कमरे हैं। तो मैं जानता हूं कि तुम किसी झूठे मकान में हो आए, तुमने कोई सपना देखा, क्योंकि कमरे तो वहां छह हैं।

वह एक कमरा बचाया गया है हमेशा के लिए। वह तुम्हें खबर देता है कि तुम्हें हुआ कि नहीं हुआ। अगर बिलकुल शास्त्रोक्त हो, तो समझना कि नहीं हुआ, फाल्स कॉइन है, क्योंकि शास्त्र में एक कमरा सदा बचाया गया है। उसे बचाना बहुत जरूरी है। उसे बचाना बहुत जरूरी है। तो अगर तुमको बिलकुल किताब में लिखे ढंग से सब हो रहा हो, तो समझना कि किताब प्रोजेक्ट हो रही है। लेकिन जिस दिन तुमको किताब में लिखे हुए ढंग से नहीं, किसी और ढंग से कुछ हो, जिसमें कि कहीं किताब से मेल भी खाता हो और कहीं नहीं भी मेल खाता हो उस दिन तुम जानना कि तुम किसी असली ट्रैक पर चल रहे हो, जहां चीजें अब तुम्हें साफ हो रही हैं; जहां तुम शास्त्र को ही सिर्फ कल्पना में पिरोए—पिरोए नहीं चले जा रहे हो।

तो जब कुंडलिनी तुम्हें ठीक से जगेगी, तब तुम जांच पाओगे कि अरे, शास्त्र में कहां—कहां, कुछ—कुछ तरकीब है। लेकिन वह तुम्हें उसके पहले पता नहीं चल सकती। और प्रत्येक शास्त्र को अनिवार्य रूप से कुछ चीजें छोड़ देनी पड़ी हैं, नहीं तो कभी भी तय करना मुश्किल हो जाए।

मेरे एक शिक्षक थे; यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर थे। कभी भी मैं किसी किताब का नाम लूं तो वे कहें, हां, मैंने पढ़ी है। एक दिन मैंने झूठी ही किताब का नाम लिया, जो है ही नहीं, न वह लेखक है, न वह किताब है। मैंने उनसे कहा, आपने फलां लेखक की किताब पढ़ी है? बड़ी अदभुत किताब है! उन्होंने कहा, हां, मैंने पढ़ी है। तो मैंने उनसे कहा कि अब जो पहले पढ़े हुए दावे थे, वे भी गड़बड़ हो गए; क्योंकि न यह कोई लेखक है और न यह कोई किताब है। मैंने कहा, अब इस किताब को आप मुझे मौजूद करवाकर बता दें, तो बाकी दावों के संबंध में बात होगी, बाकी अब खत्म हो गई बात। वे कहने लगे, क्या मतलब, यह किताब नहीं है? तो मैंने कहा, आपकी जांच के लिए अब इसके सिवाय कोई और रास्ता नहीं था।

जो जानते हैं, वे तुम्हें फौरन पकड़ लेंगे। अगर तुम्हें बिलकुल शास्त्रोक्त हो रहा है, तुम फंस जाओगे। क्योंकि वहां कुछ गैप छोड़ा गया है; कुछ गलत जोड़ा गया है, कुछ सही छोड़ दिया गया है। जो कि अनिवार्य था; नहीं तो पहचान बहुत मुश्किल है कि किसको क्या हो रहा है।

पर यह जो शास्त्रोक्त है, यह पैदा किया जा सकता है। सभी चीजें पैदा की जा सकती हैं। आदमी के मन की क्षमता कम नहीं है। और इसके पहले कि वह आत्मा में प्रवेश करे, मन बहुत तरह के धोखे दे सकता है। और धोखा अगर वह खुद देना चाहे, तब तो बहुत ही आसान है।

तो मैं यह कहता हूं कि व्यवस्था से, दावे से, शास्त्र से, नियम से, उतना नहीं है सवाल। और सवाल बहुत दूसरा है। फिर इसके पहचान के और भी रास्ते हैं। इसके पहचान के और भी रास्ते हैं कि तुम्हें जो हो रहा है, वह असली है या झूठ।

प्रामाणिक अनुभवों से आमूल रूपांतरण:

एक आदमी दिन में पानी पीता है तो उसकी प्यास बुझती है, सपने में भी पानी पीता है, लेकिन प्यास नहीं बुझती और सुबह जागकर वह पाता है कि ओंठ सूख रहे हैं और गला तड़प रहा है। क्योंकि सपने का पानी प्यास नहीं बुझा सकता, असली पानी प्यास बुझा सकता है। तो तुमने पानी जो पीया था, वह असली था या नकली, यह तुम्हारी प्यास बताएगी कि प्यास बुझी कि नहीं बुझी।

तो जिन कुंडलिनी जागरण करनेवालों की—या जिनकी जाग्रत हो गई—तुम बात कर रहे हो, वे अभी भी तलाश कर रहे हैं, अभी भी खोज रहे हैं। वे यह भी कह रहे हैं कि हमें यह हो गया, और वह खोज भी उनकी जारी है। वे कहते हैं, हमें पानी भी मिल गया। और अभी भी कह रहे हैं, सरोवर का पता क्या है?

परसों ही एक मित्र आए थे। और वे कहते हैं, मुझे निर्विचार स्थिति उपलब्ध हो गई; और मुझसे पूछने आए हैं कि ध्यान कैसे करें! तो अब क्या किया जाए? अब मैं कैसे कहूं उनसे कि यह क्या.. तुम्हारे साथ क्या.. .किया क्या जाए! तुम कह रहे हो, निर्विचार स्थिति उपलब्ध हो गई है; विचार शांत हो गए हैं; और ध्यान का रास्ता बता दें। क्या मतलब होता है इसका?

एक आदमी कह रहा है, कुंडलिनी जग गई है, और कहता है, मन शांत नहीं होता! एक आदमी कहता है, कुंडलिनी तो जग गई, लेकिन यह सेक्स से कैसे छुटकारा मिले!

तो अवांतर उपाय भी हैं— कि जो हुआ है, वह सच में हुआ है?

अगर सच में हुआ है तो खोज खत्म हो गई। अगर भगवान भी उससे आकर कहे कि थोड़ी शांति हम देने आए हैं, तो वह कहेगा अपने पास रखो, हमें कोई जरूरत नहीं है। अगर भगवान भी आए और कहे कि हम कुछ आनंद तुम्हें देना चाहते हैं, बड़े प्रसन्न हैं, तो वह कहेगा. आप उसको बचा लो, और थोड़े ज्यादा प्रसन्न हो जाओ, और हमसे कुछ लेना हो तो ले जाओ। तो उसको जांचने के लिए तुम उस व्यक्तित्व में भी देखना कि और क्या हुआ है?

झूठी समाधि का धोखा:

अब एक आदमी कहता है कि उसे समाधि लग जाती है, वह छह दिन मिट्टी के नीचे पड़ा रह जाता है। और वह बिलकुल ठीक पड़ा रह जाता है, गड्डे से वह जिंदा निकल आता है। लेकिन घर में अगर रुपये छोड़ दो तो वह चोरी कर सकता है; मौका मिल जाए तो शराब पी सकता है। और उस आदमी का अगर तुम्हें पता न हो कि इसको समाधि लग गई है, तो तुम उसमें कुछ भी न पाओगे; उसमें कुछ भी नहीं है—कोई सुगंध नहीं है, कोई व्यक्तित्व नहीं है, कोई चमक नहीं है—कुछ भी नहीं है; एक साधारण आदमी है।

नहीं, तो उसको समाधि नहीं लग गई है, वह समाधि की ट्रिक सीख गया है; वह छह दिन जमीन के अंदर जो रह रहा है, वह समाधि नहीं है। वह समाधि नहीं है, वह छह दिन जमीन के नीचे रहने की अपनी ट्रिक है, अपनी व्यवस्था है। वह उतना सीख गया है। वह प्राणायाम सीख गया है, वह श्वास को शिथिल करना सीख गया है; वह छह दिन, जितनी छोटी सी जमीन का घेरा उसने अंदर बनाया है, जिस आयतन का, वह जानता है कि उतनी आक्सीजन से वह छह दिन काम चला लेता है। वह इतनी धीमी श्वास लेता है कि जो मिनिमम, जिससे ज्यादा लेने में ज्यादा आक्सीजन खर्च होगी, उतनी श्वास लेकर वह छह दिन गुजार देता है। वह करीब—करीब उस हालत में होता है, जिस हालत में साइबेरिया का भालू छह महीने के लिए बर्फ में दबा पड़ा रह जाता है। उसको कोई समाधि नहीं लग गई है। बरसात के बाद मेंढक जमीन में पड़ा रह जाता है। आठ महीने पड़ा रहता है। उसे कोई समाधि नहीं लग गई है। वही इसने सीख लिया है; और कुछ भी नहीं हो गया।

लेकिन जिसको समाधि उपलब्ध हो गई है, उसको अगर तुम छह दिन के लिए बंद कर दो, तो वह हो सकता है मर जाए और यह निकल आए। क्योंकि समाधि से छह दिन जमीन के नीचे रहने का कोई संबंध नहीं है। महावीर स्वामी या बुद्ध कहीं मिल जाएं, और उनको जमीन के भीतर छह दिन रख दो, बचकर लौटने की आशा नहीं है। यह बचकर लौट आएगा। क्योंकि इससे कोई संबंध ही नहीं है। उससे कोई वास्ता ही नहीं है; वह बात ही और है। लेकिन यह जंचेगा। और अगर महावीर न निकल पाएं और यह निकल पाए, तो तीर्थंकर यह असली मालूम पड़ेगा, वे नकली सिद्ध हो जाएंगे।

तो ये सारे के सारे जो साइकिक फाल्स कॉइन्स पैदा किए गए हैं, जो मनस ने झूठे—झूठे सिक्के पैदा किए हैं, उन्होंने अपने झूठे दावे भी पैदा किए हैं, उन दावों को सिद्ध करने की पूरी व्यवस्था भी पैदा की है। और उन्होंने एक अलग ही दुनिया खड़ी कर रखी है। जिसका कोई लेना—देना नहीं है, जिससे कोई संबंध नहीं है। और असली चीजें उन्होंने छोड दी हैं; जो असली रूपांतरण थे, उनके छह दिन जमीन के नीचे रहने या छह महीने रहने से कोई संबंध नहीं है। लेकिन इस व्यक्ति का चरित्र क्या है? इस व्यक्ति के मनस की शांति कितनी है? इसके आनंद का क्या हुआ? इसका एक पैसा खो जाता है तो यह रात भर सो नहीं पाता, और छह दिन जमीन के भीतर रह जाता है! यह सोचना पड़ेगा कि इसके असली संबंध क्या हैं?

झूठे शक्तिपात के लिए सम्मोहन का उपयोग:

तो जो भी दावेदार हैं कि हम शक्तिपात करते हैं, वे कर सकते हैं, लेकिन वह शक्तिपात नहीं है, वह बहुत गहरे में किसी तरह का सम्मोहन है, हिप्नोसिस है; बहुत गहरे में कुछ मैग्नेटिक फोर्सेस का उपयोग है, जिनको वे सीख गए हैं। और जरूरी नहीं है कि वे भी जानते हों। उसके पूरे विज्ञान को जानते हों, यह भी जरूरी नहीं है। और यह भी जरूरी नहीं है कि वह दावा जो है जानकर कर रहे हों कि झूठा है। इतने जाल हैं!

अब एक मदारी को तुम सड़क पर देखते हो कि वह एक लड़के को लिटाए हुए है, चादर बिछा दी है, उसकी छाती पर एक ताबीज रख दी है। अब उस लड़के से वह पूछ रहा है कि फलां आदमी के नोट का नंबर क्या है? वह नोट का नंबर बता रहा है। फलां आदमी की घड़ी में कितना बजा है? वह घड़ी बता रहा है। पूछ रहा है कान में, इस आदमी का नाम क्या है? वह लड़का नाम बता रहा है। और वह सब देखनेवालों को सिद्ध हुआ जा रहा है कि ताबीज में कुछ खूबी है। वह ताबीज उठा लेता है और पूछता है, इस आदमी की घड़ी में क्या है? वह लड़का पड़ा रह जाता है, वह जवाब नहीं दे पाता। ताबीज वह बेच लेता है—छह आने, आठ आने में वह ताबीज बेच लेता है। तुम ताबीज घर पर ले जाकर छाती पर रखकर जिंदगी भर बैठे रहो, उससे कुछ नहीं होगा। अच्छा ऐसा नहीं है.. .नहीं, ऐसा नहीं है कि वह लड़के को सिखाया हुआ है उसने; ऐसा नहीं है कि वह कहता है कि जब ताबीज उठा लूं तो मत बोलना। नहीं, ऐसा नहीं है। और ऐसा भी नहीं है कि ताबीज में कुछ गुण है। लेकिन तरकीब और गहरी है। और वह खयाल में आए तो बहुत हैरानी होती है।

इसको कहते हैं पोस्ट हिप्‍नोटिक सजेशन। अगर एक व्यक्ति को हम बेहोश करें, और बेहोश करके उसको कहें कि आंख खोलकर इस ताबीज को ठीक से देख लो! और जब भी यह ताबीज मैं तुम्हारी छाती पर रखूंगा और कहूंगा—एक…… दो….. तीन….. .तुम तत्काल फिर से बेहोश हो जाओगे। यह बेहोशी में कहा गया सजेशन— जब भी इस ताबीज को मैं तुम्हारी छाती पर रखूंगा, तुम पुन: बेहोश हो जाओगे। और उस बेहोशी की हालत में इसकी बहुत संभावना है कि वह नोट का नंबर पढ़ा जा सकता है, घड़ी देखी जा सकती है। इसमें कुछ झूठ नहीं है। जैसे ही वह चादर रखता है और लड़के के ऊपर ताबीज रखता है, वह लड़का हिप्नोटिक ट्रांस में चला गया, वह सम्मोहित स्थिति में चला गया। अब वह तुम्हारे नोट का नंबर बता पाता है। यह कुछ सिखाया हुआ नहीं है वह। उस लड़के को भी पता नहीं है कि क्या हो रहा है।

इस आदमी को भी पता नहीं है कि भीतर क्या हो रहा है। इस आदमी को एक ट्रिक मालूम है कि एक आदमी को बेहोश करके अगर कोई भी चीज बताकर कह दिया जाए कि पुन: जब भी यह चीज तुम्हारे ऊपर रखी जाएगी, तुम बेहोश हो जाओगे, तो वह बेहोश हो जाता है, इतना इसको भी पता है। इसके क्या भीतर मैकेनिज्म है, इसका डाइनामिक्स क्या है, इन दोनों को किसी को कोई पता नहीं है। क्योंकि जिसको उतना डाइनामिक्स पता हो, वह सड़क पर मदारी का काम नहीं करता है। उतना डाइनामिक्स बहुत बड़ी बात है। मन का ही है, लेकिन वह भी बहुत बड़ी बात है। उतना डाइनामिक्स किसी फ्रायड को भी पूरा पता नहीं है, उतना डाइनामिक्स किसी कं को भी पूरा पता नहीं है, उतना डाइनामिक्स बड़े से बड़े मनोवैज्ञानिक को भी अभी पूरा पता नहीं है कि हो क्या रहा है। लेकिन इसको एक ट्रिक पता है, उतनी ट्रिक से यह काम कर लेता है।

तुम्हें बटन दबाने के लिए यह जानना थोड़े ही जरूरी है कि बिजली क्या है! और बटन दबाने के लिए यह भी जानना जरूरी नहीं है कि बिजली कैसे पैदा होती है। और यह भी जानना जरूरी नहीं है कि बिजली की पूरी इंजीनियरिग क्या है। तुम बटन दबाते हो, बिजली जल जाती है। तुम्हें एक ट्रिक पता है, हर आदमी दबाकर बिजली जला लेता है।

ऐसे ही ट्रिक उसको पता है कि यह ताबीज रखने से और यह—यह करने से यह हो जाता है, वह उतना कर ले रहा है। आप ताबीज खरीदकर ले जाओगे, वह ताबीज बिलकुल बेमानी है। क्योंकि वह सिर्फ उसी के लिए सार्थक है जिसके ऊपर पहले उसका प्रयोग किया गया हो सम्मोहित अवस्था में। आप अपनी छाती पर रखकर बैठे रहो, कुछ भी नहीं होगा। तब लगेगा कि हम ही कुछ गलत हैं, ताबीज तो ठीक; क्योंकि ताबीज को तो काम करते देखा है।

तो बहुत तरह की मिथ्या, झूठी…….मिथ्या और झूठी इस अर्थों में नहीं कि वे कुछ भी नहीं हैं। मिथ्या और झूठी इस अर्थों में कि वे स्‍प्रिचुअल नहीं हैं, आध्यात्मिक नहीं हैं, सिर्फ मानसिक घटनाएं हैं। और सब चीजों की मानसिक पैरेलल घटनाएं संभव हैं—सभी चीजों की। तो वे पैदा की जा सकती हैं; दूसरा आदमी पैदा कर सकता है। और दावेदार उतना ही कर सकता है। हां, गैर—दावेदार ज्यादा कर सकता है।

मात्र उपस्थिति से घटनेवाला शक्तिपात:

पर गैर—दावेदार का मतलब है. वह कहकर नहीं जाता कि मैं शक्तिपात कर रहा हूं! मैं तुममें ऐसा कर दूंगा, मैं तुममें ऐसा कर दूंगा! यह हो जाएगा तुममें, मैं करनेवाला हूं! और जब हो जाएगा तो तुम मुझसे बंधे रह जाओगे! वह इस सबका कोई सवाल नहीं है। वह एक शून्य की भांति हो गया है वैसा आदमी। तुम उसके पास भी जाते हो तो कुछ होना शुरू हो जाता है। यह उसको खयाल ही नहीं है कि यह हो रहा है।

एक बहुत पुरानी रोमन कहानी है कि एक बड़ा संत हुआ। और उसके चरित्र की सुगंध और उसके ज्ञान की किरणें देवताओं तक पहुंच गईं। और देवताओं ने आकर उससे कहा कि तुम कुछ वरदान मांग लो, तुम जो कहो, हम करने को तैयार हैं। लेकिन उस फकीर ने कहा कि जो होना था वह हो चुका है, और तुम मुझे मुश्किल में मत डालो। क्योंकि तुम कहते हो, मांगो! अगर मैं न मांगूं तो अशिष्टता होती है। और मांगने को मुझे कुछ बचा नहीं है; बल्कि जो मैंने कभी नहीं मांगा था, वह सब हो गया है। तो तुम मुझे क्षमा करो, इस झंझट में मुझे मत डालों, इस मांगने की कठिनाई मुझ पर पैदा मत करो। लेकिन वे देवता तो और भी……. क्योंकि अब तो यह सुगंध और भी जोर से उठी इस आदमी की, कि जो मांगने के ही बाहर हो गया है। उन्होंने कहा कि तब तो तुम कुछ मांग ही लो, और हम बिना दिए अब न जाएंगे।

उस आदमी ने कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई! तो तुम्हीं कुछ दे दो; क्योंकि मैं क्या मांगूं मुझे सूझता नहीं; क्योंकि मेरी कोई मांग न रही, तुम्हीं कुछ दे दो, मैं ले लूंगा। तो उन देवताओं ने कहा कि हम तुम्हें ऐसी शक्ति दिए देते हैं कि तुम जिसे छुओगे, वह मुर्दा भी होगा तो जिंदा हो जाएगा; बीमार होगा तो बीमारी ठीक हो जाएगी। उसने कहा कि यह तो बड़ा काम हो जाएगा। यह बड़ा काम हो जाएगा। और इससे जो ठीक होगा वह तो ठीक है, मेरा क्या होगा? मैं बड़ी मुश्किल में पड़ जाऊंगा। क्योंकि मुझको यह लगने लगेगा—मैं ठीक कर रहा हूं। तो यह जो बीमार ठीक हो जाएगा, वह तो ठीक है, लेकिन मैं बीमार हो जाऊंगा। उसने कहा कि मेरे बाबत क्या खयाल है? क्योंकि एक मुर्दे को मैं छुऊंगा, वह जिंदा हो जाएगा, तो मुझे लगेगा—मैं जिंदा कर रहा हूं। तो वह तो जिंदा हो जाएगा, मैं मर जाऊंगा। मुझे मत मारो, मुझ पर कृपा करो! ऐसा कुछ करो कि मुझे पता न चले।

तो उन देवताओं ने कहा, अच्छा हम ऐसा कुछ करते हैं तुम्हारी छाया जहां पड़ेगी, वहां कोई बीमार होगा तो ठीक हो जाएगा, कोई मुर्दा होगा तो जिंदा हो जाएगा। उसने कहा, यह ठीक है। और इतनी और कृपा करो कि मेरी गर्दन पीछे की तरफ न मुड़ सके। नहीं तो छाया से भी दिक्कत हो जाएगी— अपनी छाया! तो मेरी गर्दन अब पीछे न मुड़े।

वह वरदान पूरा हो गया, उस फकीर की गर्दन मुड़नी बंद हो गई। वह गांव—गांव चलता रहता। अगर कुम्हलाए हुए फूल पर उसकी छाया पड़ जाती तो वह खिल जाता, लेकिन तब तक वह जा चुका होता। क्योंकि उसकी गर्दन पीछे मुड़ सकती नहीं थी; उसे कभी पता नहीं चला। और जब वह मरा तो उसने देवताओं से पूछा कि तुमने जो दिया था, वह हुआ भी कि नहीं? क्योंकि हमको पता नहीं चल पाया।

तो मुझे लगता है—यह कहानी प्रीतिकर है—तो घटना तो घटती है, ऐसी ही घटती है, पर वह छाया से घटती है और गर्दन भी नहीं मुड़ती। पर शून्य होना चाहिए उसकी शर्त, नहीं तो गर्दन मुड़ जाएगी। अगर जरा सा भी अहंकार शेष रहा तो पीछे लौटकर देखने का मन होगा, कि हुआ कि नहीं हुआ! और अगर हो गया तो फिर मैंने किया है। उसे बचाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। तो शून्य जहां घटता है वहां आसपास शक्तिपात जैसी बहुत साधारण बातें हैं, बहुत बड़ी बातें नहीं हैं, वे ऐसे ही घटने लगती हैं जैसे सूरज निकलता है, फूल खिलने लगते है—बस ऐसे ही; नदी बहती है, जड़ों को पानी मिल जाता है—बस ऐसे ही। न नदी दावा करती है, न बड़े बोर्ड लगाती है रास्ते पर कि मैंने इतने झाड़ों को पानी दे दिया, इतनो में फूल खिल रहे हैं। यह सब कुछ.. .कोई सवाल नहीं है। यह नदी को इसका पता ही नहीं चलता। जब तक फूल खिलते हैं, तब तक नदी सागर पहुंच गई होती है। तो कहां फुर्सत? रुककर देखने की भी सुविधा कहां? पीछे लौटकर मुड़ने का उपाय कहां?

तो ऐसी स्थिति में जो घटता है, उसका तो आध्यात्मिक मूल्य है। लेकिन जहां अहंकार है, कर्ता है; जहां कोई कह रहा है मैं कर रहा हूं; वहां फिर साइकिक फिनामिनन है, फिर मनस की घटनाएं हैं, और वह सम्मोहन से ज्यादा नहीं है।

.....SHIVOHAM....


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