क्या है श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय 2) में श्रीकृष्ण की सांख्ययोग की दृष्टि ?PART-03
सांख्ययोग की दृष्टि;-
45 FACTS;-
1-श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं...
''हे पार्थ, यह सब तेरे लिए सांख्य (ज्ञानयोग) के विषय में कहा गया और इसी को अब (निष्काम कर्म) योग के विषय में सुन कि जिस बुद्धि से युक्त हुआ तू, कर्मों के बंधन को अच्छी तरह से नाश करेगा।''
2-श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, अब तक जो मैंने तुझसे कहा, वह सांख्य की दृष्टि थी।
सांख्य की दृष्टि ..गहरी से गहरी ज्ञान की दृष्टि है। सांख्य का जो मार्ग है, वह परम ज्ञान का
मार्ग है।परन्तु श्रीकृष्ण ने पहले सांख्य की ही बात की ...क्योकि अगर सांख्य काम में आ जाए, तो फिर और कोई आवश्यकता नहीं है। सांख्य काम में न आ सके, तो ही फिर कोई और आवश्यकता है।
3-अनंत हैं सत्य तक पहुंचने के मार्ग। अनंत हैं प्रभु के मंदिर के द्वार। अनंत ही होंगे, क्योंकि अनंत तक पहुंचने के लिए अनंत ही मार्ग हो सकते हैं। जो भी एकांत को पकड़ लेते हैं--जो भी सोचते हैं, एक ही द्वार है, एक ही मार्ग है--वे भी पहुंच जाते हैं। लेकिन जो भी पहुंच जाते हैं, वे कभी नहीं कह पाते कि एक ही मार्ग है, एक ही द्वार है। एक का आग्रह सिर्फ उनका ही है, जो नहीं पहुंचे है और जो पहुंच गए हैं, वे अनाग्रही हैं।
4-जापान में झेन साधना की एक पद्धति है और झेन सांख्य का ही एक रूप है।सांख्य का
कहना यही है कि जानना ही काफी है(KNOWLEDGE IS ENOUGH), करना कुछ भी नहीं है। इस जगत की जो पीड़ा है और बंधन है, वह न जानने से ज्यादा नहीं है। अज्ञान के अतिरिक्त और कोई वास्तविक बंधन नहीं है। कोई जंजीर नहीं है, जिसे तोड़नी है। न ही कोई कारागृह है, जिसे मिटाना है। न ही कोई जगह है, जिससे मुक्त होना है। सिर्फ जानना है। जानना है कि मैं कौन हूं? जानना है कि जो चारों तरफ फैला है, वह क्या है? सिर्फ और सिर्फ 'जानना'।
5- लेकिन सांख्य को समझना कठिन है। कृष्णमूर्ति का सारा विचार सांख्य है।
जैसे एक आदमी दुख में पड़ा है, हम उससे कहें कि ''केवल जान लेना है कि दुख क्या है और तू दुख से बाहर हो जाएगा।'' वह आदमी कहेगा, ''जानता तो मैं भलीभांति हूं कि दुख है। जानने से कुछ नहीं होता; मुझे इलाज चाहिए, औषधि चाहिए। कुछ करो कि मेरा दुख चला जाए।''
6-एक आदमी, जो वस्तुतः चिंतित और परेशान है, विक्षिप्त है, पागल है, उससे हम कहें कि सिर्फ जानना काफी है और तू पागलपन के बाहर आ जाएगा। वह आदमी कहेगा, जानता तो मैं काफी हूं; जानने को अब और क्या बचा है! लेकिन जानने से पागलपन नहीं मिटता। कुछ और करो! जानने के अलावा भी कुछ और जरूरी है।इसलिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सबसे पहले
सांख्य की दृष्टि कही, क्योंकि यदि सांख्य काम में आ जाए तो किसी और बात के कहने की कोई जरूरत नहीं है।
7-सुकरात का बहुत ही कीमती वचन है, जिसमें उसने कहा है,'' ज्ञान ही सदगुण है'' (KNOWLEDGE IS VIRTUE)। वह कहते है , ''जान लेना ही ठीक हो जाना है''। उससे लोग पूछते थे कि हम भलीभांति जानते हैं कि चोरी बुरी है, लेकिन चोरी छूटती नहीं! तो सुकरात कहते ,'' तुम जानते ही नहीं कि चोरी क्या है। अगर तुम जान लो कि चोरी क्या है, तो छोड़ने के लिए कुछ भी न करना होगा''।
8-हम जानते हैं, क्रोध बुरा है; हम जानते हैं, भय बुरा है; हम जानते हैं, काम बुरा है, वासना बुरी है, लोभ बुरा है, मद-मत्सर सब बुरा है; सब जानते हैं। सांख्य या सुकरात या कृष्णमूर्ति, वे सब कहेंगे: ''नहीं, जानते नहीं हो... सुना है कि क्रोध बुरा है, जाना नहीं है।'' किसी और ने कहा है कि क्रोध बुरा है, स्वयं जाना नहीं है। और जानना कभी भी उधार का नहीं होता। जानना सदा स्वयं का होता है। फर्क है दोनों बातों में।
9-एक बच्चे ने सुना है कि आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है, और एक बच्चे ने आग में हाथ डालकर देखा है कि हाथ जल जाता है। इन दोनों बातों में जमीन-आसमान का फर्क है। दोनों के वाक्य एक से हैं। जिसने सिर्फ सुना है, वह भी कहता है, मैं जानता हूं कि आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है। और जिसने आग में हाथ डालकर जाना है, वह भी कहता है, मैं जानता हूं कि आग में हाथ डालने से हाथ जल जाता है।
10-इन दोनों के वचन एक-से हैं, लेकिन इन दोनों की मनःस्थिति एक-सी नहीं है। और जिसने सिर्फ सुना है, वह कभी भी हाथ डाल सकता है। और जिसने जाना है, वह कभी हाथ नहीं डाल सकता है। और जिसने सिर्फ सुना है, वह कभी हाथ डालकर कहेगा कि जानता तो मैं था कि हाथ डालने से हाथ जल जाता है, फिर मैंने हाथ क्यों डाला? वह जानने में भूल कर रहा है। दूसरे से मिला हुआ जानना, जानना नहीं हो सकता।
11-जिस जानने की सांख्य बात करता है, वह ..'वह जानना है', जो उधार नहीं है। इस जानने से क्या हो जाएगा?उदाहरण केअनुसार लिए, एक छोटी-सी कहानी है।एक युद्ध में ऐसा
हुआ कि एक आदमी युद्ध-स्थल पर आहत हो गया। जब बेहोशी से, होश में आया तो पता चला कि उसे सब स्मरण भूल गया है; वह अपना सब अतीत भूल चुका है। उसे यह भी पता नहीं है कि उसका नाम क्या है! कठिनाई न आती, क्योंकि सेना में नाम की कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन उसका नंबर भी खो गया युद्ध के स्थल पर।
12-सेना में तो आदमी नंबर से जाना जाता है, सेना में नाम से नहीं जाना जाता। सुविधा है नंबर से जानने में। और जब पता चलता है कि ग्यारह नंबर आज मर गया, तो कोई तकलीफ नहीं होती। क्योंकि नंबर के न बाप होते, न मां होती, न बेटा होता। नंबर का कोई भी नहीं होता। नंबर मर जाता है, मर जाता है। तख्ती पर सूचना लग जाती है कि इतने नंबर गिर गए। किसी को कहीं कोई पीड़ा नहीं होती। नंबर रिप्लेस हो जाते हैं। दूसरा नंबर ग्यारह नंबर उसकी जगह आ जाता है। किसी आदमी को रिप्लेस करना मुश्किल है, लेकिन नंबर को रख देना नंबर की जगह कोई कठिन नहीं है। यह मिलिटरी तो नंबर से चलती है। दफ्तर में नाम होते हैं, रजिस्टर में।
13-लेकिन उसका नंबर भी खो गया है। उसे नाम याद नहीं रहा। अब वह कौन है? अब क्या करें? उसे कहां भेजें? उसका घर कहां है? उसके मां-बाप कहां हैं? बहुत कोशिश की, खोज-बीन की, कुछ पता नहीं चल सका। फिर आखिर किसी ने सुझाव दिया कि एक ही रास्ता है कि उसे इंग्लैंड के गांव-गांव में घुमाया जाए। शायद कहीं उसे देखकर याद आ जाए कि यह मेरा घर है, यह मेरा गांव है। शायद वह जान ले।
14-फिर उसे ले गए। स्टेशनों पर उसे उतारकर खड़ा कर देते, वह देखता रह जाता; कुछ याद न आता। फिर तो जो ले गए थे घुमाने, वे भी थक गए। एक छोटे स्टेशन पर, जिस पर उतरकर देखने का इरादा भी नहीं है, गाड़ी खड़ी है, चलने को है। उस आदमी ने खिड़की से झांककर देखा और उसने कहा, मेरा गांव! उतरा, बताना ही भूल गया, कि जो साथ थे उनको बता दे। भागा, सड़क पर आ गया। चिल्लाया, मेरा घर! दौड़ा, गली में पहुंचा। दरवाजे के सामने खड़े होकर कहा, मेरी मां! लौटकर पीछे देखा, साथी पीछे भागकर आए हैं। उनसे बोला, यह रहा मेरा नाम। याद आ गया।
15-सांख्य कहता है, आत्मज्ञान सिर्फ रिमेंबरेंस है, सिर्फ स्मरण है। कुछ खोया नहीं है, कुछ मिटा नहीं है, कुछ गया नहीं है, कुछ नया बना नहीं है, सिर्फ स्मृति खो गई है। और जिसे हम जानने जा रहे हैं, अगर वह नया जानना है, तब तो फिर कुछ और करना पड़ेगा। लेकिन अगर वह भूला हुआ ही है, जिसे पुनः जानना है, तब कुछ करने की जरूरत नहीं है... जान लेना ही काफी है।
16-तो श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि ..अभी जो मैंने तुझसे कहा , वह सांख्य की दृष्टि थी। इस पूरे वक्त श्रीकृष्ण ने सिर्फ स्मरण दिलाने की कोशिश की, कि आत्मा अमर है; न उसका जन्म है, न उसकी मृत्यु है। स्मरण दिलाया कि अव्यक्त था, अव्यक्त होगा, बीच में व्यक्त का थोड़ा-सा खेल है। स्मरण दिलाया कि जो तुझे दिखाई पड़ते हैं, वे पहले भी थे, आगे भी होंगे। स्मरण दिलाया कि जिन्हें तू मारने के भय से भयभीत हो रहा है, उन्हें मारा नहीं जा सकता है।
17-इस पूरे समय श्रीकृष्ण क्या कर रहे हैं? श्रीकृष्ण अर्जुन को, जैसे उस सिपाही को घुमाया जा रहा है इंग्लैंड में, ऐसे ही उसे किसी विचार के लोक में घुमा रहे हैं कि शायद कोई विचार-कण, कोई स्मृति चोट कर जाए और वह कहे कि ठीक, यही है। ऐसा ही है। लेकिन ऐसा वह
नहीं कह पाता।वह शिथिल , अपने गांडीव को रखे, उदास मन, वैसा ही हताश, विषाद से घिरा बैठा है।
18-वह श्रीकृष्ण की बातें सुनता है। वह उसे पूरे इंग्लैंड में घुमा दिए--हर स्टेशन, हर जगह। कहीं भी उसे स्मरण नहीं आता कि वह दौड़कर कहे, कि यह रहा मैं; ठीक है, बात अब बंद करो, पहचान आ गई; , स्मरण आ गया है। ऐसा वह कहता नहीं। वह बैठा है। वह रीढ़ भी नहीं उठाता; वह सीधा भी नहीं बैठता। उसे कुछ भी स्मरण नहीं आ रहा है।इसलिए श्रीकृष्ण
उससे कहते हैं कि' सांख्ययोग श्रेष्ठतम योग है।परन्तु अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात करता हूं।' वे जो जानने से ही नहीं जान सकते, जो बिना कुछ किए स्मरण ला ही नहीं सकते-- उनके लिए कुछ करना ही पड़ेगा ।
19-झेन और सांख्य के बीच जो साम्य है, उस साम्य का कारण है 'ज्ञान की प्रधानता'। झेन कहता है, करने को कुछ भी नहीं है; और जो करेगा, वह व्यर्थ ही भटकेगा। झेन तो यहां तक कहता है कि तुमने खोजा कि तुम भटके। खोजो ही मत, खड़े हो जाओ और जान लो। क्योंकि तुम वही हो, जिसे तुम खोज रहे हो। झेन कहता है, जिसने प्रयास किया, वह मुश्किल में पड़ेगा। क्योंकि जिसे हमें पाना है, वह प्रयास से पाने की बात नहीं है। केवल अप्रयास (EFFORTLESSNESS) में, जानने की बात है।
20-झेन कहता है,श्रम से उसे पा सकते हैं, जो हमारा नहीं है , जो हमें मिला हुआ नहीं है। धन पाना हो तो बिना श्रम के नहीं मिलेगा; धन पाने के लिए श्रम करना होगा। धन हमारा कोई स्वभाव नहीं है। एक आदमी को दूसरे के घर जाना हो, तो रास्ता चलना पड़ेगा, क्योंकि दूसरे का घर अपना घर नहीं है। लेकिन एक आदमी अपने घर में बैठा हो और पूछता हो कि मुझे मेरे घर जाना है, मैं किस रास्ते से जाऊं? तो झेन कहता है, जाना ही मत, अन्यथा घर से दूर निकल जाओगे।
21-एक छोटी-सी कहानी है, जो झेन फकीर कहते हैं। वे कहते हैं, एक आदमी ने शराब पी ली। शराब पीकर आधी रात अपने घर पहुंचा। हाथ-पैर डोलते हैं, आंखों को ठीक दिखाई नहीं पड़ता। ऐसे भी अंधेरा है, भीतर नशा है, बाहर अंधेरा है। टटोल-टटालकर किसी तरह अपने दरवाजे तक पहुंच गया है। और फिर थक गया है। बहुत देर से भटक रहा है। फिर जोर-जोर से चिल्लाने लगा कि कोई मुझे मेरे घर पहुंचा दो। मेरी मां राह देखती होगी।
22-पास-पड़ोस के लोग उठ आए। और उन्होंने कहा, पागल तो नहीं हो गए हो! तुम अपने ही घर के सामने खड़े हो, अपने ही घर की सीढ़ियों पर। यही तुम्हारा घर है। लेकिन वह आदमी इतना परेशानी में चिल्ला रहा है कि मुझे मेरे घर पहुंचा दो, मुझे मेरे घर जाना है, मेरी बूढ़ी मां राह देखती होगी, कि सुने कौन! सुनने के लिए भी तो चुप होना जरूरी है। वह आदमी चिल्ला रहा है। पास-पड़ोस के लोग उससे कह रहे हैं, यही तुम्हारा घर है।
23-लेकिन यही तुम्हारा घर है--यह भीतर कैसे प्रवेश करे? वह आदमी तो भीतर चिल्ला रहा है, मेरा घर कहां है? शोरगुल सुनकर उसकी बूढ़ी मां भी उठ आई, जिसकी तलाश में वह है। उसने दरवाजा खोला, उसने उसके सिर पर हाथ रखा और कहा, बेटा तुझे क्या हो गया है! उसने उसके ही पैर पकड़ लिए और उसने कहा कि मेरी बूढ़ी मां राह देखती होगी; मुझे रास्ता बताओ कि मेरा घर कहां है?
24-तो पास-पड़ोस में कोई मजाक करने वाले लोग एक बैलगाड़ी लेकर आ गए और उन्होंने कहा कि बैठो, हम तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा देते हैं। वह आदमी बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने कहा कि यह भला आदमी है। ये सारे लोग मुझे घर पहुंचाने का कोई उपाय ही नहीं करते! कोई उपाय नहीं करता, न कोई बैलगाड़ी लाता, न कोई घोड़ा लाता, न मेरा कोई हाथ पकड़ता। तुम एक भले आदमी हो। उसने उसके पैर पड़े। वह आदमी हंसता रहा। उसे बैलगाड़ी में बिठाया, दस-बारह चक्कर लगाए घर के, फिर उसे द्वार के सामने उतारा। फिर वह कहने लगा, धन्यवाद! बड़ी कृपा की, मुझे मेरे घर पहुंचा दिया।
25-अब श्रीकृष्ण अर्जुन से पहली वाली कोशिश कर चुके ''कि यही तेरा घर है''। अब नहीं मानता, तो बैलगाड़ी जोतते हैं। वे कहते हैं, कर्मयोग में चल। अब तू चक्कर लगा। अब तू दस-पांच चक्कर लगा ले, फिर ही तुझे खयाल में आ सकता है कि पहुंचा। बिना चले तू स्वयं तक भी नहीं पहुंच सकता है।झेन कहता है कि जिसे हम खोज रहे हैं,वह वहीं है जहां हम हैं;
इंच भर का भी फासला नहीं है। इसलिए जाओगे कहां? खोजोगे कैसे? श्रम क्या करोगे? असल में श्रम करके हम पराए को पा सकते हैं, स्वयं को नहीं। ''स्वयं ''तो सब श्रम के पहले ही उपलब्ध है।
26-तो झेन और सांख्य का साम्य इसलिए है कि सांख्य भी कर्म को व्यर्थ मानता है...कोई अर्थ नहीं है कर्म का। झेन भी कर्म को व्यर्थ मानता है..कोई अर्थ नहीं कर्म का। क्योंकि जिसे जानना है, वह सब कर्मों के पहले ही मिला हुआ है।तो जो अड़चन है, जो कठिनाई है,जो
हमें समझ में नहीं आती, वह इस तरह की है कि कोई चीज जो हमें मिली हुई नहीं है, उसे पाना है, यह एक बात है। और कोई चीज जो हमें मिली ही है, उसे सिर्फ जानना है, यह बिलकुल दूसरी बात है। यदि आत्मा भीतर है ही, तो कहां खोजना है? और अगर मैं ब्रह्म हूं ही, तो क्या करना है? करने से क्या संबंध है? करने से क्या होगा?
27-इसलिए न-करने में(NON-ACTION), उतरना होगा, अकर्म में उतरना होगा। छोड़ देना होगा करना...वरना और थोड़ी देर रुककर उसे देखना होगा, जो करने के पीछे खड़ा है, जो सब
करने का आधार है, फिर भी करने के बाहर है।उदाहरण केअनुसार लिए,एक झेन कहानी है कि झेन में कोई पांच सौ वर्ष पहले, एक बहुत अदभुत फकीर हुआ, बांकेई। जापान का सम्राट उसके दर्शन को गया। बड़ी चर्चा सुनी, बड़ी प्रशंसा सुनी, तो गया। सुना उसने कि दूर-दूर पहाड़ पर फैली हुई मोनेस्ट्री है, आश्रम है। कोई पांच सौ भिक्षु वहां साधना में रत हैं.. तो गया। बांकेई से उसने कहा, एक-एक जगह मुझे दिखाओ तुम्हारे आश्रम की, मैं काफी समय लेकर आया हूं। मुझे बताओ कि तुम कहां-कहां क्या-क्या करते हो? मैं सब जानना चाहता हूं।
28-आश्रम के दूर-दूर तक फैले हुए मकान हैं। कहीं भिक्षु रहते हैं, कहीं भोजन करते हैं, कहीं सोते हैं, कहीं स्नान करते हैं, कहीं अध्ययन करते हैं--कहीं कुछ, कहीं कुछ। बीच में, आश्रम के सारे विस्तार के बीच एक बड़ा भवन है, स्वर्ण-शिखरों से मंडित एक मंदिर है।बांकेई ने
कहा, भिक्षु जहां-जहां जो-जो करते हैं, वह मैं आपको दिखाता हूं। फिर वह ले चला। सम्राट को ले गया भोजनालय में और कहा, यहां भोजन करते हैं। ले गया स्नानगृहों में कि यहां स्नान करते हैं भिक्षु। ले गया जगह-जगह। सम्राट थकने लगा। उसने कहा कि छोड़ो भी, ये सब छोटी-छोटी जगह तो ठीक हैं, वह जो बीच में स्वर्ण-शिखरों से मंडित मंदिर है, वहां क्या करते हो? वहां ले चलो। मैं वह देखने को बड़ा आतुर हूं।
29-लेकिन न मालूम क्या हो कि जैसे ही सम्राट उस बीच में उठे शिखर वाले मंदिर की बात करे, बांकेई एकदम बहरा हो जाए, वह सुने ही न। एक दफा सम्राट ने सोचा कि शायद चूक गया, खयाल में नहीं आया। फिर दुबारा जोर से कहा कि और सब बातें तो तुम ठीक से सुन लेते हो! यह स्नानगृह देखने मैं नहीं आया, यह भोजनालय देखने मैं नहीं आया, उस मंदिर में क्या करते हो? लेकिन बांकेई एकदम चुप हो गया, वह सुनता ही नहीं। फिर घुमाने लगा--यहां यह होता है, यहां यह होता है।
30-आखिर वापस द्वार पर लौट आए, उस बीच के मंदिर में बांकेई नहीं ले गया। सम्राट घोड़े पर बैठने लगा और उसने कहा, या तो मैं पागल हूं या तुम पागल हो। जिस जगह को मैं देखने आया था, तुमने दिखाई ही नहीं। तुम आदमी कैसे हो? और मैं बार-बार कहता हूं कि उस मंदिर में ले चलो, वहां क्या करते हैं? तुम एकदम बहरे हो जाते हो। सब बात सुनते हो, इसी बात में बहरे हो जाते हो!
31-बांकेई ने कहा, आप नहीं मानते तो मुझे उत्तर देना पड़ेगा। आपने कहा, वहां-वहां ले चलो, जहां-जहां भिक्षु कुछ करते हैं, तो मैं वहां-वहां ले गया। वह जो बीच में मंदिर है, वहां भिक्षु कुछ भी नहीं करते। वहां सिर्फ भिक्षु भिक्षु होते हैं। वह हमारा ध्यान मंदिर है, मेडिटेशन सेंटर है। वहां हम कुछ करते नहीं, सिर्फ होते हैं। वहां DOING नहीं है, वहां BEING है। वहां करने का मामला नहीं है। वहां जब करने से हम थक जाते हैं और सिर्फ होने का आनंद लेना चाहते हैं, तो हम वहां भीतर जाते हैं। अब मेरी मजबूरी थी, आपने कहा था, क्या करते हैं, वहां ले चलो।
32-अगर मैं उस भवन में ले जाता, आप पूछते कि भिक्षु यहां क्या करते हैं, तो मैं क्या कहता? और नहीं करने की बात आप समझ सकते, इसकी मुझे आशा नहीं है। अगर मैं कहता, ध्यान करते हैं, तो भी गलती होती, क्योंकि ध्यान कोई करना नहीं है, ध्यान कोई एक्शन नहीं है। अगर मैं कहता, प्रार्थना करते हैं, तो भी गलती होती; क्योंकि प्रार्थना कभी कोई कर नहीं सकता, वह कोई 'ACT' नहीं है, भाव है। तो मैं मुश्किल में पड़ गया, इसलिए मुझे मजबूरी में बहरा हो जाना पड़ा। फिर मैंने सोचा, बजाय गलत बोलने के यही उचित है कि आप मुझे पागल या बहरा समझकर चले जाएं।
33-झेन कहता है, ध्यान अर्थात न-करना। इस न-करने में ही वह जाना जाता है, जो है। सांख्य और झेन का इस वजह से साम्य है। झेन बात नहीं करता ब्रह्म की। क्योंकि झेन का कहना यह है कि जब तक ध्यान नहीं, जब तक ज्ञान नहीं, तब तक ब्रह्म की बात व्यर्थ है। और जब ज्ञान हुआ, ध्यान हुआ, तब भी ब्रह्म की बात व्यर्थ है। क्योंकि जिसे हमने नहीं जाना, उसकी बात क्या करें! और जिसे हमने जान लिया, उसकी बात की क्या जरूरत है! इसलिए झेन चुप है, वह मौन है; वह ब्रह्म की बात नहीं करता।
34-लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि ब्रह्म नहीं जानता। यह तो निर्भर करेगा व्यक्तियों पर। सांख्य बात करता है, इसी आशा में कि शायद उसकी चर्चा--उसकी चर्चा से उसे जाना नहीं जा सकता, लेकिन उसकी चर्चा शायद किसी के मन में छिपी हुई प्यास पर चोट बन जाए। शायद उसकी चर्चा किसी के मन में चल रही आकांक्षा को मार्ग दे दे। शायद उसकी चर्चा ऊंट के लिए आखिरी तिनका सिद्ध हो जाए।
35-इसलिए सांख्य बात करता है। लेकिन कैसे मिलेगा वह? कुछ करने से? नहीं; जानने से। जानना और करना(DOING & KNOWING) का जो फर्क है, उस मामले में झेन और सांख्य बिलकुल समान हैं। और जगत में जितने भी परम ज्ञानी हुए हैं, उन सब परम ज्ञानियों की बातों में सांख्य तो होगा ही। सांख्य से बचा नहीं जा सकता। सांख्य तो होगा ही। यह हो सकता है कि किसी की चर्चा में शुद्ध सांख्य हो। तब ऐसा आदमी बहुत कम लोगों के काम का रह जाएगा।
36-जैसे बुद्ध की चर्चा शुद्ध सांख्य है। इसलिए हिंदुस्तान से बुद्ध के पैर उखड़ गए। क्योंकि सिर्फ जानना, सिर्फ जानना, सिर्फ जानना! करना कुछ भी नहीं! वह जो इतना बड़ा जगत है, जहां सब करने वाले इकट्ठे हैं, वे कहते हैं कि कुछ तो करने को बताओ, कुछ पाने को बताओ! बुद्ध कहते हैं, न कुछ पाने को है, न कुछ करने को। झेन जो है, वह बुद्धिज्म की शाखा है। वह शुद्धतम बुद्ध का विचार है। लेकिन हिंदुस्तान के बाहर बुद्ध के पैर जम गए--चीन में, बर्मा में, थाईलैंड में, तिब्बत में।
37-तिब्बत में वह 'करना' बन गया, रिचुअल बन गया। चीन में जाकर उसने करने के लिए स्वीकृति दे दी कि ऐसा-ऐसा करो। थाईलैंड में वह' करना' बन गया, लंका में 'करना' बन गया। वह कर्मयोग बना। जब तक वह शुद्ध सांख्य रहा, तब तक उसकी जड़ें फैलनी मुश्किल
हो गईं।थोड़े से लोगों की ही पकड़ में आ सकती है शुद्ध सांख्य की बात। इसलिए श्रेष्ठतम विचार सांख्य ने दिया, लेकिन सांख्य को मानने वाला व्यक्ति हिंदुस्तान में खोजे से नहीं मिलेगा। सब तरह के, हजार तरह के मानने वाले व्यक्ति मिल जाएंगे, सांख्य को मानने वाला व्यक्ति नहीं मिलेगा।
38-असल में जो ABSOLUTE-TRUTH की बात करेंगे, उनको राजी होना चाहिए कि आम जनता तक उनकी खबर मुश्किल से पहुंचेगी। जो पूर्ण सत्य की बात करेंगे, उनको राजी रहना चाहिए कि उनकी बात आकाश में घूमती रहेगी... जमीन तक उतारना बहुत मुश्किल है। क्योंकि यहां जमीन पर सिर्फ अशुद्ध सत्य उतरते हैं। यहां जमीन पर जिस सत्य को भी पैर जमाने हों, उसे जमीन के साथ समझौता करना पड़ता है।
39-श्रीकृष्ण ने पहले NON-COMPROMISING.. सांख्य की बात की। कहा कि मैं तुझे सांख्य की बुद्धि बताता हूं। लेकिन देखा कि अर्जुन के भीतर उसकी जड़ें नहीं पहुंच सकतीं। इसलिए दूसरे(SECONDARY), वे कहते हैं, अब मैं तुझसे कर्मयोग की बात कहता हूं। जो
भी ब्रह्मवादी है, वह ईश्वरवादी भी हो...आवश्यक नहीं । अगर वह ईश्वर को जगह भी देगा, तो वह जगह माया के भीतर ही होगी , बाहर नहीं हो सकती।तो वह कह देगा, कोई ईश्वर नहीं है, ब्रह्म पर्याप्त है, अव्यक्त पर्याप्त है। या अगर समझौता किया , तो वह कहेगा, ईश्वर है; वह भी अव्यक्त का एक रूप है, लेकिन माया के घेरे के भीतर।
40-सांख्य के जो मौलिक सूत्र हैं, वे शुद्धतम हैं।हमे ईश्वर और ब्रह्म का फर्क समझ
लेना चाहिए। ब्रह्म का अर्थ है, शुद्धतम जीवन की ऊर्जा।ईश्वर का मतलब है, सृजन करने वाला।पालन करने वाला,संहार करने वाला ।ईश्वर के पहले भी ब्रह्म है।जो लोग ब्रह्म
की यात्रा पर निकलते हैं, यात्रा के अंत पर जिसे पाते हैं, वह ब्रह्म है। और यात्रा पास आती जाती है, पास आती जाती है, उस पास आते जाते में जिसे पाते हैं, वह ईश्वर है। ईश्वर ब्रह्म को दूर से देखा गया कंसेप्शन है, धारणा है। हम सोच ही नहीं सकते ब्रह्म को। जब हम सोचते हैं, तब हम ईश्वर बना लेते हैं। निर्गुण को हम सोच ही नहीं सकते, जब सोचते हैं तो सगुण बना लेते हैं। निराकार को हम सोच नहीं सकते, जब सोचते हैं तो उसे भी आकार दे देते हैं।
41- निरीश्वर सांख्य तो था ही, लेकिन वह भी हवा में खोने लगा, तो सेश्वर सांख्य भी
निर्मित हुआ।कुछ लोगों ने सांख्य में भी ईश्वर को जोड़ा। और कहा कि काम नहीं चलेगा, क्योंकि आदमी ब्रह्म को पकड़ नहीं पाता, उसके लिए बीच की मंजिलें बनानी पड़ेंगी। और न ही पकड़ पाए, इससे तो अच्छा है कि चार कदम चले और ईश्वर को पकड़े। फिर ईश्वर को छुड़ा लेंगे। चलने को ही जो राजी न हो, उसे चार कदम चलाओ। चार कदम चलने के बाद कहेंगे कि यह जो तुम्हें दिखाई पड़ता था, गलत दिखाई पड़ता था, इसे छोड़ो। और चार कदम चलो। हो सकता है, बीच में कई ईश्वर के मंदिर खड़े करने पड़ें--इससे पहले कि ब्रह्म का अव्यक्त, ब्रह्म का निराकार मंदिर प्रकट हो।
42-पश्चिम में भी सांख्य का प्रभाव है। और जैसे-जैसे मनुष्य की बुद्धि और विकसित होगी, सांख्य और भी प्रभावी होता चला जाएगा। भारत में सांख्य का उतना प्रभाव नहीं है जितना प्रभाव योग का है, जो कि बिलकुल ही दूसरी... उलटी बात है। योग कहता है, कुछ करना पड़ेगा। योग मनुष्य की निम्नतम बुद्धि से चलता है। सांख्य मनुष्य की श्रेष्ठतम बुद्धि से
चलता है।स्वभावतः, जो श्रेष्ठतम से शुरू करेगा, वह आखिर तक नहीं आ पाएगा। और अक्सर ऐसा होता है कि जो आखिरी से शुरू करेगा, वह चाहे तो श्रेष्ठतम तक पहुंच जाए।
43-सांख्य शुद्धतम ज्ञान है, योग शुद्धतम क्रिया है। और अगर हम सारी दुनिया के चिंतन को दो हिस्सों में बांटना चाहें, तो सांख्य और योग दो शब्द काफी हैं। जिनका भी करने पर भरोसा है, उनको योग में; और जिनको न-करने पर भरोसा है, सिर्फ जानने पर भरोसा है, उनको सांख्य में। असल में जगत में सांख्य और योग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। बाकी सब इन दो केटेगरी में कहीं न कहीं खड़े होंगे। चाहे दुनिया के किसी कोने में कोई चिंतन पैदा हुआ हो जीवन के प्रति, बस दो ही विभाजन में बांटा जा सकता है।
44-पश्चिम में सांख्य का प्रभाव निरीश्वरवादी होने की वजह से नहीं है। पश्चिम में भी जो बुद्धिमान, विचारशील आदमी पैदा हुआ है, वह भी जानता है कि बात तो सिर्फ ज्ञान की ही है, सिर्फ जान लेने की ही है। अगर हमें समझ में न आए, तो वह हमारी मजबूरी है, लेकिन बात केवल जान लेने की है।वह कहेगा, बात तो यही है कि सिर्फ जान लेना है, और कुछ भी नहीं करना है। जरा हिले.. करने के लिए--कि चूक हुई। क्योंकि करना.. बिना हिले न होगा। करेंगे तो हिलना ही पड़ेगा। और वह जो अकंप है, वह हम जरा भी हिले... कि खोया।
45-उसी की तरह अकंप हो जाना पड़ेगा। जैसे दीए की लौ किसी बंद घर में--जहां हवा के झोंके न आते हों--अकंप जलती है। ऐसे ही अकर्म (NON-ACTION)में व्यक्ति की चेतना अकंप हो जाती है। और जैसे ही व्यक्ति की चेतना अकंप होती है, विराट की चेतना से एक हो जाती
है।सिर्फ दो विभाजन किए जाने चाहिए, योग और सांख्य। योग पर वे आस्थाएं हैं, जो कहती हैं, कुछ करने से होगा। सांख्य पर वे आस्थाएं हैं, जो कहती हैं, कुछ न करने से ही होता है।
.....SHIVOHAM...