क्या “विचार'' की त्वरित उत्पत्ति वास्तविक समस्या है?क्या अर्थ है विचार के स्वरूप का? PART 01
विचार क्या है?-
05 FACTS;-
1-विचार कैसे पैदा होते हैं ..यह जानना जरूरी है, तभी उन्हें जन्मने से रोका जा सकता है।साधारणतया उनकी उत्पत्ति के
सत्य को जाने बिना ही साधक उनके दमन, सप्रेशन में लग जाते हैं। इससे कोई विक्षिप्त तो हो सकता है, विमुक्त नहीं हो सकता है। विचार के दमन से कोई अंतर नहीं पड़ता है, क्योंकि वे प्रतिक्षण नये -नये उत्पन्न हो जाते हैं। वे पौराणिक
कथाओं के उन राक्षसों की भांति हैं, जिनके एक सिर को काटने पर दस सिर पैदा हो जाते थे। विचारों को मारने की आवश्यकता नहीं हैं क्योकि वे स्वयं ही प्रतिक्षण मरते रहते हैं। विचार बहुत अल्पजीवी है। कोई भी विचार ज्यादा नहीं टिकता, पर विचार प्रक्रिया /थॉट प्रोसेस टिकती है।एक -एक विचार तो अपने आप मर जाता है, पर विचार- प्रवाह नहीं मरता है।एक
विचार मर भी नहीं पाता है कि दूसरा उसका स्थान ले लेता है। यह स्थानपूर्ति बहुत त्वरित है और यही समस्या है।
2- विचार की मृत्यु नहीं, उसकी त्वरित उत्पत्ति.. वास्तविक समस्या है।जो विचार की उत्पति के विज्ञान को
समझ लेता है, वह उससे मुक्त होने का मार्ग सहज ही पा जाता है।और जो यह नहीं समझता है, वह स्वयं ही
एक ओर विचार पैदा किए जाता है और दूसरी ओर उनसे लड़ता भी है। इससे विचार तो नहीं टूटते, इसके विपरीत वह स्वयं ही टूट जाता है। विचार समस्या नहीं, विचार की उत्पत्ति समस्या है।वह कैसे पैदा होता है, यह सवाल है।यह हम सब जानते हैं
कि चित्त चंचल है। इसका अर्थ है कि कोई भी विचार दीर्घजीवी नहीं ..पलजीवी है। वह तो जन्मता है और मर जाता है। उसके जन्म को रोक लें तो उसकी हत्या की हिंसा से भी बच जाएंगे और वह अपने आप विलीन भी हो जाता है।
3-विचार की उत्पत्ति कैसे होती है?...वास्तवमें,विचार की उत्पत्ति, बाह्य जगत के प्रति हमारी प्रतिक्रिया, रिएक्शन से होता है। बाहर घटनाओं और वस्तुओं का जगत है। इस जगत के प्रति हमारी प्रतिक्रिया ही हमारे विचारों की जन्मदात्री है।विचार से विमुख
और निर्विचार होना ...थॉटलेसनेस के सन्मुख होना है।कोई एक फूल को देखता है तो ‘ देखना’ कोई विचार नहीं है और यदि वह देखता ही रहे तो कोई विचार पैदा नहीं होगा। पर वह देखते ही कहता है कि ‘ फूल बहुत सुंदर है ‘ और विचार का जन्म हो जाता है।मात्र देखने से सौंदर्य की अनुभूति तो होगी, पर विचार का जन्म नहीं होगा। पर अनुभूति होते ही हम उसे शब्द देने
में लग जाते हैं।अनुभूति को शब्द देते ही विचार का जन्म हो जाता है। यह प्रतिक्रिया, यह शब्द देने की आदत, अनुभूति को, दर्शन को ..विचार से आच्छादित कर देती है। अनुभूति दब जाती है, दर्शन /View दब जाता है। और शब्द चित्त में तैरते रह जाते हैं। ये शब्द ही विचार हैं।
4-ये विचार अत्यंत अल्पजीवी हैं और इसके पहले कि एक विचार मरे हम दूसरी अनुभूति को विचार में परिणत कर लेते हैं। फिर यह प्रक्रिया जीवन भर चलती रहती है और हम शब्दों से इतने भर जाते और दब जाते हैं कि स्वयं को ही उनमें खो देते
हैं। दर्शन/Viewको शब्द देने की आदत छोड़ने से विचार का जन्म निषेध हो जाता है।कोई मात्र देखता/जस्ट सीइंग ही रहे और View को कोई शब्द न दे तो जीवन में इतनी बड़ी क्रांति होगी कि उससे बड़ी कोई क्रांति/रिवोल्यूशन नहीं हो सकती है।
शब्द बीच में आकर उस क्रांति को रोक लेते हैं।मात्र देखने से एक अलौकिक शांति भीतर अवतरित हो जाती है, एक शून्य व्याप्त हो जाता है।क्योंकि शब्द का न होना ही शून्य है, और इस शून्य में चेतना की दिशा परिवर्तित होती है, फिर क्रमश: वह भी उभरने लगता है जो आपको देख रहा है।
5-चेतना -क्षितिज/Consciousness पर एक नया जागरण होता है जैसे कि हम किसी स्वप्न से जाग उठे हों और एक निर्मल आलोक /Pure Prospect और एक अपरिसीम शांति से चित्त भर जाता है।इस आलोक में स्वयं का दर्शन होता है।इस शून्य में सत्य का अनुभव होता है। इस प्रयोग को ही ‘सम्यक स्मृति’ /Right Mindfulness कहा जाता है।यह स्मृति या अवेअरनेस
रखना है कि शब्द का संगठन न हो और शब्द बीच में न आए। यह हो सकता है, क्योंकि शब्द केवल हमारी आदत है।एक नवजात शिशु जगत को बिना शब्द के देखता है। वह शुद्ध प्रत्यक्षीकरण है। फिर धीरे -धीरे वह शब्द की आदत सीखता है, क्योंकि बाह्य जगत और बाह्य जीवन के लिए वह सहयोगी और उपयोगी है।पर जो बाह्य जीवन के लिए सहयोगी है, वही अंतस जीवन को जानने में बाधा हो जाता है। और इसलिए एक बार फिर वृद्धों को भी नवजात शिशु के शुद्ध दर्शन को जगाना पड़ता है, ताकि वे स्वयं को जान सकें। शब्द से जगत को जाना, फिर शून्य से स्वयं को जानना होता है।
क्या अर्थ है विचार के स्वरूप का?-
13 FACTS;-
1- विचार का स्वरूप "नहीं' है। विचार "हां' को जानता ही नहीं और "नहीं' शब्द में विचार की प्रक्रिया समा जाती है।विचार सदा ही अंत में निराशाजनक होता है क्योंकि उसकी उत्पत्ति नेगेटिव है। विचार को उसके तार्किक अंत तक ले जाया जाए तो नास्तिकता के अतिरिक्त और कुछ भी हाथ नहीं लगता। ध्यान पॉजिटिव है; वह अस्तित्व में ले जाता है। विचार निषेध है; वह तुम्हारे भ्रमों को तोड़ देता है।इसलिए विचारक की यह मजबूरी है कि जितना सोचेगा उतना ही उदास होता जाएगा। क्योंकि जितना सोचेगा उतने जीवन के भ्रम टूटेंगे और जीवन के सत्यों का उसे कुछ भी पता नहीं चलेगा। भ्रम टूटने से रिक्तता हाथ लगती है। और रिक्तता वही नहीं है जिसे शून्य कहा गया है क्योकि शून्य तो रस से सरोबोर होता है।लेकिन रिक्तता में कुछ भी नहीं है ...खालीपन है। विचार का उपयोग किया जा सकता है लेकिन ध्यान के सेवक की तरह। अगर किसी ने विचार को मालिक बना लिया तो बहुत पछताएगा।सत्य भी बहुत खतरनाक है क्योंकि जिसके भी जीवन के भ्रम टूट जाते हैं उसका जीना मुश्किल हो जाता है।
2- उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति मंदिर में पूजा करता है;और मानता है कि उसकी पूजा परमात्मा तक पहुंच रही है।वह मानता है तो सुखी है। फिर विचार जगे,सोचने लगे कहां परमात्मा, कैसा परमात्मा! कभी देखा तो नहीं। किसने देखा? यह पत्थर की मूर्ति है जिसके सामने मैं पूजा कर रहा हूं। यह मैं ही बाजार से खरीद लाया हूं। यह मनुष्य की बनायी हुई मूर्ति है। परमात्मा तो वह है जिसने मनुष्य को बनाया। और यह कैसा परमात्मा, जिसको मनुष्य ने बनाया? यह परमात्मा नहीं हो
सकता।तब पूजा का थाल हाथ से गिर जाएगा ,फूल बिखर जाएंगे और प्रार्थना खंडित हो जाएगी। इस व्यक्ति के जीवन में अमावस आ गई। चांद तो कभी था ही नहीं,अमावस ही थी, मगर चांद को मान रखा था क्योंकि मानने में भी मजा था और वह
मजा भी गया।इसके जीवन में भ्रम टूटा, यह आधा काम है। अब इसके आगे विचार की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है और ध्यान की प्रक्रिया शुरू होती है।बाहर भगवान नहीं है, मंदिर में भगवान नहीं है, मूर्ति में भगवान नहीं है। यह पूजा का थाल व्यर्थ हुआ। ये सब हीरे नहीं ,केवल पत्थर थे और सब मान्यताएं उखड़ गईं।
3-अगर यहीं कोई रुक गया तो आत्मघात के अतिरिक्त और कुछ बचता नहीं। जिएगा भी तो मरा -मरा जिएगा। ध्यान यहीं से शुरू होता है। अब भीतर मुड़ो बाहर के मंदिर व्यर्थ हो गए, अब भीतर के मंदिर में तलाशो। विचार व्यर्थ हो गया, विचार ने
अपना काम पूरा कर दिया, अब निर्विचार को काम करने दो। पश्चिम विचार से ऊपर नहीं जाता। ध्यान पूरब की महिमा है। हमने भी इतना विचार किया कि विचार बिल्कुल व्यर्थ हो गया।लेकिन हम वहीं नहीं रुके।हमने वहीं से शुरुआत मानी
और असली तीर्थयात्रा वहीं से शुरू हुई है। फिर हमने निर्विचार में झांका... मौन हुए। फिर हमने आंखें बंद कीं और आंखें बंद करके देखा। तर्क छोड़ा, सिर्फ देखा अथार्त भीतर साक्षी बने।लेकिन सोचा नहीं, केवल देखा कि भीतर क्या है ..यह मैं कौन हूं? यह मेरा अस्तित्व क्या है ..मेरा चैतन्य क्या है? विचार भ्रम तोड़ता है, ध्यान सत्य को देता है।
4-वास्तव में, जिस दिन मनुष्य के सारे भ्रम टूट जाएंगे उस दिन वह जी न सकेगा...विक्षिप्त हो जाएगा।इसीलिए उसको अपने भ्रमों में जीने दो ...करने दो उसे पूजा पाठ, जपने दो उसे मंत्र, फेरने दो उसे माला, मानने दो उसे आकाश में किसी परमात्मा को, रहने दो भयभीत नरक से, भरा रहने दो लोभ से ,स्वर्ग के प्रति, करने दो कामना स्वर्ग की। उसके जीवन में उत्साह रहेगा। मिट्टी मिट्टी में मिल जानेवाली है; न कोई स्वर्ग है, न कोई मोक्ष है; न कोई परमात्मा है न कोई आगे जीवन है। मगर कहो मत। मनुष्य के पैर के नीचे की जमीन मत खींच लो।जब उसके सारे भ्रम टूट गए तो विक्षिप्त न होगा तो और क्या करेगा ? धन व्यर्थ है, प्रेम व्यर्थ है, परमात्मा भी व्यर्थ हो गया। पद व्यर्थ है, प्रतिष्ठा व्यर्थ है ..सब कुछ व्यर्थ हो गया, अब कैसे जिये?इसीलिए
मनुष्य बिना भ्रमों के नहीं जी सकता। भ्रम उसका आधार है, उसकी बुनियाद है।
5-लेकिन यह बात अधूरी है और अधूरे सत्य असत्यों से भी ज्यादा भयंकर होते हैं। तुमसे कुछ छीन तो लेते हैं , लेकिन तुम्हें देते कुछ भी नहीं। तुम्हारे हाथ में कांटा था, वह तो छिन जाता है लेकिन फूल नहीं आता। माना कि कांटा दुःख भी दे रहा था तो भी कम से कम कुछ तो हाथ में था! कुछ व्यस्त होने का उपाय तो था ..वह भी गया।वास्तवमें, मनुष्य रिक्तता की बजाय
बीमारियां ,उलझनें पसंद करेगा। कम से कम उलझा तो रहता है ..रिक्तता तो बहुत भयानक है, बहुत घबड़ानेवाली है। रिक्तता में जिसने भी झांका.. वह पागल हो जाएगा। उसने एक ऐसे जगत में देख लिया जहां कोई अर्थ नहीं है। कोई पशु-पक्षी
अपनी जाति को नहीं मारते।सारी पृथ्वी पर, सिर्फ मनुष्य अकेला प्राणी है, जो मनुष्य को मारता है। कोई पशु -पक्षी दूसरी जातियों को भी मारते हैं ..तो सिर्फ भोजन की दृष्टि से --भूख के कारण।वे शिकार खेलने नहीं जाते। मनुष्य अकेला है जो शिकार खेलता है।
9-कोई सिंह शिकार नहीं खेलता और तभी मारता है जब भूखा हो। सिर्फ मनुष्य खेल में भी मारता है; मारने में भी रस लेता
है। मारने में ,ध्वंस में एक कुत्सित रस है। मनुष्य बस, बातें करने में कुशल हो गया है लेकिन भीतर...।ऊपर सम्हला
दिखता है, भीतर बिल्कुल पागल है।इसलिए उसको सपना देखने दो ..उसका सपना तोड़ दोगे,तो फिर उसे सुलाना मुश्किल
हो जाएगा। एक बार नींद टूट गई तो फिर कोई उपाय उसे सुलाने का नहीं है।मगर यह बात अधूरी है। हमने और आगे भी तलाश की है। जहां विचार के पार .ध्यान में झांकते हो ..तो रिक्तता मिट जाती है, वहां पूर्ण का अवतरण होता है। ध्यान परम
आलोक से भर जाता है। शाश्वत जीवन की प्रतीति होने लगती है।लेकिन सुबह होने के पहले रात खूब काली हो जाती है ।यह
निराशा एक बड़ी आशा का जन्म बन सकती है।इसलिए ध्यान की तलाश शुरू हुई है। विचार ले आया ..आखिरी कगार पर।
अब लौटने का कोई उपाय नहीं है।जीवन की सारी मान्यताएं उखड़ गईं।लेकिन भारत अभी भी इतना दरिद्र है कि विचार
भी नहीं कर पाया, ध्यान कैसे करें? अभी तो भारत अपनी मान्यताओं में डूबा हुआ सपने देख रहा है।संत -महात्मा की पिटी -पिटायी पुरानी बातें दोहराए चले जा रहा हैं।अभी भी करोड़ों रुपए विश्वशांति के लिए यज्ञ में खर्च किए जाते हैं।
10- ध्यान भीतरी घटना है, बाहर से देखने का कोई उपाय नहीं है।इसलिए भारत की उत्सुकता ध्यान में नहीं बल्कि धन में है। और तुम लाख कहो कि भारत धार्मिक देश है ..कभी रहा होगा, अभी तो नहीं है। और तुम सदा यही दोहराते
रहते हो कि हम धार्मिक हैं।तुमने धार्मिक होने को मान्यता की , विश्वास की बात बना ली है। धार्मिक होना विश्वास की बात नहीं है, बल्कि एक जीवंत रूपांतरण है। जब तक तुम्हारे सारे विश्वास और तुम्हारी सब धारणाएं न गिर जाएं तब तक तुम जानने के
मार्ग पर कदम नहीं उठा सकते।हीरे तुम्हारे भीतर हैं ..कंकड़ पत्थर बाहर हैं।बाहर जो है, सब पाखंड है। अगर परमात्मा को खोजना है तो भीतर खोजो। अकेले ,अपने भीतर चलो ..जहां कोई न रह जाए, कोई दूसरा , दूसरे की छाया भी न रह जाए। जहां सब निर्विचार हो, उसी निर्विचार चैतन्य में तुम जानोगे कि ईश्वर है और फिर वह ईश्वर न हिंदुओं का , न मुसलमानों का और न ईसाइयों का ईश्वर है ..वह मात्र ईश्वर है।
11-और तब श्रद्धा का आविर्भाव होता है जो ज्ञान से उपलब्ध होती है। विश्वास अज्ञान में उत्पन्न होता है और विश्वास को श्रद्धा मत समझ लेना क्योकि वह धोखा है। विश्वास झूठा सिक्का है;जो श्रद्धा जैसा लगता है .. तभी तो बाजार में चल
सकता है। है।विश्वास ने व्यक्ति को बहुत भरमाया है, भटकाया है और अगर विश्वास छीन लोगे,तो व्यक्ति घबड़ा जाएगा। इसलिए केवल सद्गुरु ही केवल विश्वास छीन सकता है। क्योंकि उसे भरोसा है कि जब तुम रिक्त हो जाओगे तो वह तुम्हें
शून्य होने की कला भी सिखा देगा।परन्तु रिक्तता और शून्यतापर्यायवाची शब्द नहीं हैं। केवल भाषाकोश में पर्यायवाची हैं, जीवन के कोष में नहीं हैं।रिक्तता का मतलब है, कुछ भी नहीं है। शून्य का मतलब है ...सब कुछ का स्रोत । शून्य पॉजिटिव शब्द है और शून्य में ''पूर्ण ''समाया हुआ है, सोया हुआ है। रिक्त में कुछ भी नहीं है .. सिर्फ खाली है।अगर व्यक्ति रिक्त हो गया तो फिर अपना ही सत्य मार डालेगा; फिर उससे छुटकारा पाना मुश्किल है। 12- वास्तवमें, असत्य का छूटना सत्य का हो जाना नहीं है। पैर से कांटा निकल गया, इसका यह मतलब नहीं है कि तुम्हारे हाथ में फूल आ गए। पैर से कांटा निकल गया, वह अच्छा हुआ। कांटा चुभा रहता तो फूल को खोजना मुश्किल था। अब पैर स्वस्थ हैं, अब तुम चल सकते हो .. फूल की खोज हो सकती है। विचार का कांटा निकल जाए तो ध्यान का फल खोजा जा सकता है। इसलिए समस्त ध्यानियों ने निर्विचार को समाधि कहा है।सत्य तो मुक्त करता है।तुमने जिसे सत्य मान रखा है वह सत्य नहीं है। इसलिए जब तुम थोड़े जागोगे, थोड़ा सोचोगे तो पहले तो घबड़ाहट आएगी।विश्वास तो छीनने ही पड़ेंगे। जगह खाली करनी पड़ेगी कचरे से, तभी परमात्मा आएगा; तभी विराजेगा तुम्हारे भीतर।
13-जैसे छोटे बच्चे के खिलौने छीन लो तो छोटा बच्चा जिएगा कैसे? लेकिन कभी ऐसी प्रौढ़ता आती है ..जब खिलौने बच्चा खुद ही छोड़ देता है। एक दिन ऐसा लगता था कि बच्चा बिना खिलौनों के नहीं जी सकता। रात भी अपने खिलौने अपने साथ छाती से लगाकर सोता है। सुबह होते ही पहले अपने खिलौने को तलाशता है। पर हम जानते हैं कि कल प्रौढ़ हो जाएगा, यह खिलौना आज जो इतना प्यारा है, किसी दिन कोने में पड़ा रह जाएगा, कचरे में फेंक दिया जाएगा। फिर इस पर ध्यान भी न आएगा।ऐसे ही तुम्हारे विश्वास बचपन के खिलौने हैं। उन्हें तो छोड़ना ही होगा ..जो पीड़ादायी भी है ।जब कांटा निकाला जाता है तो भी तो तकलीफ होती है। मवाद भरी हो और उसे देह से निकालना हो ..तो भी तो तकलीफ होती है। सभी तरह की सर्जरी तकलीफ की होती है। और यह तो देह की ही सर्जरी नहीं है, आत्मा की सर्जरी है। लेकिन एक बार सारी मवाद निकल जाए, सारे भ्रम गिर जाएं तो तुम तैयार हो जाओगे उड़ान भरने को। हां, वहां रुकना नहीं है उससे आगे जाना है ... जब तक शून्य न मिल जाए, समाधि न मिल जाए। समाधि है; और उसमें तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
‘सम्यक स्मृति’ का प्रयोग;-
07 POINTS;-
1-इस प्रयोग में हम शांत बैठेंगे। शरीर को शिथिल, रिलैक्स और रीढ़ को सीधा रखेंगे।
2-शरीर के सारे मूवमेंट को छोड़ देंगे। शांत, धीमी, पर गहरी श्वास लेंगे। और मौन, अपनी श्वास को देखते रहेंगे और बाहर की जो ध्वनियां सुनाई पड़े, उन्हें सुनते रहेंगे। कोई प्रतिक्रिया नहीं करेंगे। उन पर कोई विचार नहीं करेंगे।
3-शब्द न हों और हम केवल साक्षी हैं, जो भी हो रहा है, हम केवल उसे दूर खड़े जान रहे हैं ऐसे भाव में अपने को छोड़ देंगे। 4-कहीं कोई एकाग्रता, कनसनट्रेशन नहीं करनी है। बस चुप जो भी हो रहा है उसके प्रति जागरूक बने रहना है।
5-आंखें बंद कर लो और चुपचाप मौन में सुनो।चिड़ियों की आवाज ,हवाओं की वृक्षों को हिलाते थपेड़े की आवाज, किसी बच्चे का रोना और बस अपने भीतर श्वास का स्पंदन और हृदय की धड़कन सुनते रहो और फिर एक अभिनव शांति और सन्नाटा उतरेगा और आप पाओगे कि बाहर ध्वनि है पर भीतर निस्तब्धता है ...एक नये शांति के आयाम में प्रवेश हुआ है।
6-तब विचार नहीं रह जाते हैं, केवल चेतना रह जाती है।और इस शून्य के माध्यम में ध्यान, अटेंशन उस ओर मुड़ता है
जहां हमारा आवास है अथार्त हम बाहर से घर की ओर मुड़ते हैं।
7-दर्शन/View बाहर लाता है और वही भीतर ले जाता है। केवल विचार को, श्वास को, नाभि -स्पंदन को देखते रहो ...देखते रहो और कोई प्रतिक्रिया मत करो। और फिर कुछ होता है, जो हमारे चित्त की सृष्टि नहीं है जो हमारी सृष्टि नहीं है। वह जो हमारा होना है, हमारी सत्ता है, जो धर्म है, जिसने हमें धारण किया है ...वह उदघाटित हो जाता है और हम आश्चर्यों के आश्चर्य अथार्त स्वयं के समक्ष खड़े हो जाते हैं।
CONTD,
...SHIVOHAM...
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
"एक शांत मन को कैसे पाया जाए?"-
मन कभी शांत नहीं होता; अ-मन शांत होता है। मन अपने आप में कभी भी शांत, मौन नहीं होता। क्योंकि मन का स्वभाव ही है तनावग्रस्त होना, उलझन में पड़ रहना। मन कभी भी स्पष्ट नहीं होता, उसे स्पष्टता नहीं मिल सकती, क्योंकि मन स्वभाव से उलझन है, अस्पष्टता है। स्पष्टता तभी संभव है जब मन ना हो; मौन तभी संभव है जब मन ना हो, इसलिय कभी भी शांत मन को पाने की चेष्ठा ना करें। यदि तुम ऐसा करते हो, तो तुम आरम्भ से ही एक असंभव आयाम में जा रहे हो।
सदा स्मरण रखें कि जो कुछ भी तुम्हारे आस-पास घट रहा है उन सब की जड़े तुम्हारे मन में निहित है। मन ही सदा कारण होता है। वह एक प्रक्षेपण करने वाला यंत्र है, और बाहर केवल पर्दे ही पर्दे हैं--तुम उन पर्दों पर अपने आप को प्रक्षेपित कर लेते हो। यदि तुम्हे यह भद्दा प्रतीत होता है तो अपने मन को परिवर्तित कर लो। यदि तुम्हेप्रतीत होता है कि जो कुछ भी मन से आ रहा है वह नारकीय है और भयानक है, तो मन को गिरा दो। मन पर कार्य करना है, परदे पर नहीं; उस पर बार-बार चित्रकारी कर के उसे बदलते मत रहो। मन पर कार्य करो।
परंतु एक समस्या है, क्योंकि तुम सोचते हो कि तुम मन हो । तो तुम इसे गिरा कैसे सकते हो? तो तुम्हे लगता है कि तुम सब-कुछ गिरा सकते हो, सबकुछ बदल सकते हो, उसे फिर से रंग सकते हो, फिर से संवारसकते हो, पुनर्व्यवस्थित कर सकते हो, किन्तु तुम खुद को कैसे गिरा सकते हो? यही सारे उपद्रव की जड़ है।
तुम मन नहीं हो, तुम मन के पार हो। यह सत्य है कि तुमने उसके साथ तादात्म बना लिया है, किन्तु तुम मन हो नहीं।
और यही ध्यान का उद्देश्य है: तुम्हे छोटी झलकियां दिखाना कि तुम मन नहीं हो। यदि कुछ क्षण के लिए भी मन ठहर जाए, तुम तब भी वहीँ के वहीँ हो! इसके विपरीत, तुम और भी ज्यादा उपस्थित होते हो, तुम्हारी उपस्थिति और भी ज्यादा प्रवाहमान हो जाती है।
मन का ठहर जाना ऐसा होता है जैसे एक जल-निकास जोलगातार तुम्हे खाली कर था, रुक जाये। अचानक तुम ऊर्जा से भर गए। तुम और संवेदनशील हो गए।
यदि तुम क्षण भर के लिए भी इस बात के प्रति सचेत हो जाओ कि मन नहीं है, केवल "मैं हूँ", तुम सत्य के भीतरी केंद्र तक पहुँच गए। तब मन को गिरा देना सरल हो जाएगा। तुम मन नहीं हो अन्यथा तुम अपने आप को गिराओगे कैसे? पहले तादात्म को गिराना होगा, तब मन को गिराया जा सकता है।
जब मन के साथ सारे तादात्म गिरा दिए जाये, जब तुम पर्वत पर बैठे एक द्रष्टा रह जाते हो और मन अँधेरी घाटियों कि गहराइयों में छूट जाता है। जब तुम सूर्य से प्रकाशित शिखरों पर होते हो, बस शुद्ध साक्षी, द्रष्टा मात्र, देखते हुए, परंतु किसी भी चीज़ से कोई तादात्म्य ना बनाते हुए--अच्छा या बुरा, पापी या पुण्यात्मा, यह या वह, केवल एक शुभ उपस्तिथी—एक श्वांस, एक धड़कता हुआ ह्रदय, उस द्रष्टा भाव में सब प्रश्न मिट जातें हैं। मन मिट जाता है, पिघल जाता है, भाप बन कर उड़ जाता है। तुम बस एक शुद्ध आत्मा की तरह रह जाते हो, एक शुद्ध अस्तित्व--एक श्वास, एक ह्रदय की धड़कन, पूर्णता क्षण में, ना अतीत, ना भविष्य इसलिए वर्तमान भी नहीं ।
मन भ्रामक है--जो होता तो नहीं है पर दिखता है, और इतना दिखता है कि तुम सोचते हो कि तुम मन हो। मन माया है, मन मात्र एक स्वप्न है, मन एक प्रक्षेपण है...एक पानी का बुलबुला--जिस में कुछ भी नहीं है, परन्तु ये एक पानी का बबूला नदी में तैरता प्रतीत होता है । सूरज बस उग ही रहा है, किरने बुलबुले में प्रवेश करती हैं और इंद्रधनुष निर्मित हो जाता है और उस में कुछ भी नहीं है। जब तुम बुलबुले को छूते हो तो वहटूट जाता है और सब-कुछ मिट जाता है—वो इंद्रधनुष, वो सौन्दर्य--कुछ भी नहीं बचता। केवल शुन्यता ही अनंत शून्य के साथ एक हो जाती है। वहां बस एक दीवार थी, एक बुलबुले कि दीवार। तुम्हारा मन एक बस एक बुलबुले कि दीवार है—भीतर, तुम्हारा शून्य है; बाहर, मेरा शून्य। यह मात्र एक बुलबुला है: छेद दो, और मन विदा हो जाएगा।
तुम कहते हो, "आप मन के इतने विरुद्ध क्यों हैं?" मैं मन के विरुद्ध में नहीं हूँ; मैं केवल एक तथ्यगत बात कह रहा हूँ--मन क्या है। यदि तुम देख लो कि मन क्या है तो, तुम इसे गिरा दोगे। जब मैं कहता हूँ कि "मन को गिरा दो," तब मैं यह मन के विरोध में नहीं कह रहा। मैं तुम्हे केवल यह स्पष्ट कर रहा हूँ कि मन है क्या, इसने तुम्हारे साथ क्या किया है, कैसे यह एक बंधन बन गया है।
इसे प्रयोग या दुरूपयोग में लाने का प्रश्न नहीं है। मन अपने आप में एक समस्या है, न कि इसका प्रयोग या दुरूपयोग। और स्मरण रहे, तुम मन का प्रयोग तब तक नहीं कर सकते जब तक कि तुम्हे यह न पता चल जाए कि मन के बिना कैसे हुआ जाए। केवल वे ही लोग जो मन के बिना होना जान लेते हैं, मन का उपयोग करने में सक्षम हो जाते हैं, नहीं तो मन ही उनका उपयोग करता है। यह मन ही है जो तुम्हारा उपयोग कर रहा है, परन्तु मन बहुत चालाक है, वह तुम्हे धोका दिए चला जाता है। वह कहे चला जाता है, "तुम मेरा उपयोग कर रहे हो।"
यह मन है जो तुम्हारा उपयोग कर रहा है। तुम्हारा उपयोग हो रहा है; मन तुम्हारा मालिक बन गया है, तुम उसके गुलाम, परन्तु मन बहुत चालाक है, वह तुम्हारी खुशामद करता चला जाता है। वह कहता है "मैं केवल एक उपकरण हूं, तुम मेरे मालिक हो।" लेकिन देखो, दिमाग की व्यवस्था पर गौर करो, यह कैसे आपका इस्तेमाल करते जाता है। तुम्हे लगता है कि तुम इसका उपयोग कर रहे हो। तुम उसका उपयोग तभी कर सकते हो जब तुम्हे पता हो कि तुम इससे पृथक हो; वर्ना तुम इसका उपयोग कैसे करोगे? तुम इससे तादात्म बनाए हुए हो।
क्या मन और चेतना दो अलग वस्तुएं हैं? या फिर वो शांत मन, या एकाग्र मन, "चेतना" किसे कहतें हैं?
यह तुम्हारी परिभाषा पर निर्भर करता है। पर मेरे अनुसार मन वह हिस्सा है जो तुम्हे दिया गया है। वह तुम्हारा नहीं है। मन का अर्थ है उधार लिया गया, मन का अर्थ है वह जो बनाया गया हो, मन का अर्थ है वह जो समाज ने तुम में भर दिया है। वह तुम नहीं हो।
चैतन्य तुम्हारा स्वभाव है; मन बस एक परिधि है, समाज द्वारा तुम्हारे आस-पास निर्मित की हुई, तुम्हारी संस्कृति द्वारा, तुम्हारी शिक्षा द्वारा।
मन का अर्थ है संस्कार। तो तुम्हारे पास एक हिन्दू मन हो सकता है, पर तुम्हारे पास एक हिन्दू चेतना नहीं हो सकती। तुम्हारे पास एक ईसाई मन हो सकता है, पर तुम्हारे पास एक ईसाई चेतना नहीं हो सकती। चेतना एक होती है: वह बंट नहीं सकती। मन अनेक होतें हैं। समाज अनेक होतें हैं, संस्कृतियाँ, धर्म अनेक होतें हैं, और हर संस्कृति हर समाज, एक अलग मन निर्मित करता है। मन समाज का उपोत्पाद है। और जब तक यह मन मिट नहीं जाता तुम भीतर प्रवेश नहीं कर सकते; तुम मूलतया अपने स्वभाव को नहीं जान सकते, प्रमाणिक रूप से तुम्हारा क्या आस्तित्व है, तुम्हारा चैतन्य क्या है तुम नहीं जान सकते। ध्यान के लिए संघर्ष करना मन के विरुद्ध संघर्ष करना है। मन कभी ध्यानपूर्ण नहीं होता और न ही मन कभी शांत होता है, तो "शांत-मन" कहना एक निरर्थक बात है, और बेतुकी भी। यह ऐसा कहना है जैसे कि "एक स्वस्थ रोग।" यह अर्थहीन है। क्या कभी कोई स्वस्थ रोग जैसी भी चीज़ हो सकती है? रोग तो रोग है, और स्वास्थ्य रोग का आभाव है।
शांत मन जैसी कोई चीज़ नहीं होती। जब शान्ति होती है तब मन नहीं होता। जब मन होता है तब शान्ति नहीं होती। मन, एक तरह से उपद्रव है, एक रोग। ध्यान है अ-मन की चित्त-दशा, मौन मन की नहीं, स्वस्थ मन की नहीं, एकाग्र मन की नहीं, नहीं। ध्यान अ-मन की स्थिति है: तुम्हारे भीतर कोई समाज नहीं, कोई संस्कृति नहीं- बस तुम, तुम्हारी शुद्ध चेतना के साथ।
उदासी
उदासी उतना उदास नहीं करती, जितना उदासी आ गई, यह बात उदास करती है। उदासी की तो अपनी कुछ खूबियां हैं, अपने कुछ रहस्य हैं। अगर उदासी स्वीकार हो तो उदासी का भी अपना मजा है। मुझे कहने दो इसी तरह, कि उदासी का भी अपना मजा है। क्योंकि उदासी में एक शांति है, एक शून्यता है। उदासी में एक गहराई है। आनंद तो छिछला होता है। आनंद तो ऊपर-ऊपर होता है। आनंद तो ऐसा होता है जैसे नदी भागी जाती है और उसके ऊपर पानी का झाग। उदासी ऐसी होती है जैसी नदी की गहराई--अंधेरी और काली। आनंद तो प्रकाश जैसा है। उदासी अंधेरे जैसी है। अंधेरी रात का मजा देखा? अमावस की रात का मजा देखा? अमावस की रात का रहस्य देखा? अमावस की रात की गहराई देखी? मगर जो अंधेरे से डरता है, वह तो आंख ही बंद करके बैठ जाता है, अमावस को देखना ही नहीं चाहता। जो अंधेरे से डरता है, वह तो अपने द्वार-दरवाजे बंद करके खूब रोशनी जला लेता है। वह अंधेरे को झुठला देता है। अमावस की रात आकाश में चमकते तारे देखे? दिन में वे तारे नहीं होते। दिन में वे तारे नहीं हो सकते। दिन की वह क्षमता नहीं है। वे तारे तो रात के अंधेरे में, रात के सन्नाटे में ही प्रकट होते हैं। वे तो रात की पृष्ठभूमि में ही आकाश में उभरते हैं और नाचते हैं। ऐसे ही उदासी के भी अपने मजे हैं, अपने स्वाद हैं, अपने रस हैं।
मैत्री;-
मित्रता संबंध है। तुम कुछ लोगों के साथ संबंध बना सकते हो। मैत्री गुणवत्ता है न कि संबंध। इसका किसी दूसरे से कुछ लेना-देना नहीं है; मौलिक रूप से यह तुम्हारी आंतरिक योग्यता है। जब तुम अकेले हो तब भी तुम मैत्रीपूर्ण हो सकते हो। जब तुम अकेले हो तब तुम संबंध नहीं बना सकते--दूसरे की जरूरत होती है--पर मैत्री एक तरह की खुशबू है। जंगल में फूल खिलता है; कोई भी नहीं गुजरता--तब भी वह खुशबू बिखेरता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई जानता है या नहीं, यह उसका गुण है। हो सकता है कि कभी किसी को पता नहीं चलेगा, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। फूल आनंदित हो रहा है।
संबंध एक मनुष्य और दूसरे मनुष्य के बीच ही बन सकता है या अधिक से अधिक मनुष्य और जानवर के साथ--घोड़ा, कुत्ता। लेकिन मैत्री चट्टान के साथ, नदी के साथ, पहाड़ के साथ, बादल के साथ, दूर के तारों के साथ भी हो सकती है। मैत्री असीम है क्योंकि यह दूसरों पर निर्भर नहीं है, यह पूरी तरह से आपकी अपनी खिलावट है।
इसलिए, मैत्री बनाओ, बस मैत्री सारे अस्तित्व के साथ। और उस मैत्री में तुम वह सब पा लोगे जो पाने योग्य है। मैत्री में तुम आत्यंतिक मित्र पा लोगे।
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
निर्विचारिता;-
हमारे अंदर लगातार पॉजिटिव और नेगेटिव विचार श्रंखला चलती रहती है प्रसन्न रहने के लिए और खुशी पाने के लिए हम इन विचारों से ऊपर उठना होगा। निर्विचारिता की स्थिति भी हमारे अंदर गहन शांति का एहसास कराती है जिससे हमें एक ऐसी खुशी का अनुभव होता है जो किसी भी चीज़ से प्राप्त नहीं हो सकती। नश्वर वस्तुओं से प्राप्त होने वाली खुशी स्थाई नहीं होती। अतः हमें अपने अंदर चलने वाले असंख्य विचारों को कम करने का अभ्यास या सजग रहने का अभ्यास करना चाहिए। हमें यह ध्यान देना चाहिए की हमारे अंदर कम से कम विचार उठे और जो विचार आते - जाते हैं उन्हें हम सिर्फ साक्षी भाव से और सजगता से देखें । यह ध्यान रखे कि उन विचारों का हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। विचार आए जाए उससे हमारे ऊपर कोई असर नहीं होना चाहिए। हमारे अंदर उठने वाले सकारात्मक या नकारात्मक दोनों प्रकार के विचारों का प्रभाव हम पर ना पड़े, हमें यह ध्यान रखना होगा इसका एक ही उपाय है कि हम वर्तमान में ही रहे भूतकाल और भविष्य काल के बारे में ना सोचे। अपना पूरा ध्यान वर्तमान में जो कर रहे है, उसी पर हो।इसके है लिए जरूरी कि पूरे दिन में आप अपने शौक को पूरा करने वाले कार्य के लिए अवश्य समय निकालें। इससे आपके ध्यान को एकाग्रता मिलेगी।
जब आप निर्विचारिता में होते हैं तो आप परमात्मा की श्रृष्ठि का पूरा आनंद लेने लगते हैं, बीच में कोई वाधा नहीं रहती है ।विचार आना हमारे और सृजनकर्ता के बीच की बाधा है । हर काम करते वक्त आप निर्विचार हो सकते हैं, और निर्विचार होते ही उस काम की सुन्दरता,उसका सम्पूर्ण ज्ञान और उसका सारा आनंद आपको मिलने लगता है ।।
निर्विचारिता एक औलौकिक स्थिति है जहॉ से परमात्मा के दर्शन होते हैं, मस्तिष्क को विचारशून्य रखें यही निर्विचारिता है। निर्विचारिता की अवस्था में जो भी घटित होता है वह प्रकाशवान होता है, निर्विचारिता में आपके मन में जो विचार आता है वह एक अन्तःप्रेरणा होती है।निर्विचारिता में आप परमात्मा की शक्ति के साथ एक रूप हो जाते है,अर्थात आप परमात्मा में आकर मिल जाते हैं। परमात्मा की शक्ति आपके अन्दर आ जाती है।कोई भी निर्णय लेने से पहले निर्विचारिता में जाओ, अब जो निर्णय सामने आ जाए, उसी को कीजिए, यही सबसे उपयुक्त निर्णय होगा, क्योंकि उसमें आपका ईगो और सुपर ईगो दोनों काम करते हैं। आपका संसार आपके पीछे खडा है, आपने जो भी लौकिक कमाया है,वह आपके पीछे खडा होगा लेकिन निर्विचारिता में करोगो तो आलौकिक व चमत्कारिक निर्णय होगा,आप ऎसा निर्णय लेंगे जो बडे-बडे लोगों के बस में नहीं। किसी भी कार्य को निर्वचारिता में करने से जान जाओगे कि कहॉ से कहॉ डाएनैमिक हो गया मामला। निर्विचारिता में रहना सीखें यही आपका स्थान है, आपका धन, आपका बल, शक्ति, आपका स्वरूप, सौन्दर्य तथा यही आपका जीवन है। निर्विचार होते ही बाहर का यन्त्र पूरा आपके हाथ में घूमने लग जाता है। सिर्फ जीवंतता का दर्शन होगा,आपको उस जगह से दिखाई देगा जहॉ से जीवन की धारा बहती है। इसलिए निर्विचारिता समाधि से स्वयं कोज्योतिर्मय बनाइये यह कार्य कठिन नहीं है । यह स्थिति आपके अन्दर है,क्योंकि विचार या तो इधर से आते हैं या उधर से,ये आपके मस्तिष्क की लहरियॉ नहीं हैं, ये तो आपकी प्रतिक्रियायें हैं लेकिन ध्यान धारण करने पर आप निर्विचार चेतना में चले जाते हैं,यह स्थिति प्राप्त करना आवश्यक है और तब आपके मस्तिष्क में आने वाले मूर्खता पूर्ण एवं व्यर्थ विचार समाप्त हो जाते है, इन विचारोंके समाप्त होने पर ही आपका उत्थान सम्भव है तभी हम उन्नत होते हैं।
अपने शरीर में चैतन्य लहरियों की अनुभूति करें। यह ह्दय मे प्रकाश की टिमटिमाती लपट है,जो हर समय जलती रहती है। यह परमात्मा का प्रतिबिम्ब है।जब कुण्डलिनी उठती है और ब्रह्मरन्द्र को खोलती है तो सदाशिव के दर्शन होते है,प्रकाश दैदीप्यमान होता है,चैत्य लहरियॉ हमारे अन्दर से बहने लगती हैं,ये चैतन्य लहरियॉ हमारे शरीर में बहने वाली सूक्ष्म ऊर्जा का प्रवाह होना है ।यह तभी होता है जब कुण्डलिनी ब्रह्मरन्द्र का भेदन कर ऊपर सदा शिव से मिलन होता है । ये चैतन्य लहरियॉ हमें पूर्ण सन्तुलन प्रदान करती है,हमारी शारीरिक,मानसिक एवं भावनात्मक समस्याओं का निवारण करती है। ये हमें परमात्मा से पूर्ण आध्यात्मिक एकाकारिता का विवेक प्रदान करती है,तथा परमात्मा से पूर्णतः एकरूप कर देती है ।
कुणडलिनी छोटे-छोटे तन्तुओंसे बनी ज्योतितसम रस्सी सम है। सुषुम्ना नाडी अत्यन्त पतलीनाडी है,पापों और बुराइयों के कारण इतनी संकीर्ण हो जाती है किकुण्डलिनी के सूक्ष्म तन्तु ही इसमें से गुजर सकते हैं ।यह अत्यन्तसुक्ष्म और गहन प्रक्रिया है,मूलाधार से इस पतले मार्ग में कमसे कमएक सूक्ष्म तन्तु गुजर सकता है, उसी एक तन्तु से ये ब्रह्मरन्द्र का भेदनकरती है।आरम्भ में अधिकतर लोगों में यह घटना आसानी से घट जातीहै, प्रकाश में देखने पर उन्हैं लगता है कि ये सब चीजों उनके अन्दर निहितहैं आनंदित हो जाते हैं । लेकिन बोझ के दवाव से पुनः नीचे की ओर खिंच जातीहै,उन्हैं बहुत बडा झटका लगता है तब वे घबराकर संशयालु बन जाते हैं । समस्याओं को केवल निर्विचारिता को समर्पित कर दे ------ अब मैं आपको अपना रहस्य बताती हूँ। आप प्रार्थना कीजिये , माँ मेरे लिए कृपया ऐसा कर दीजिये। आप आश्चर्य करेंगे। मैं आपकी विनती पर विचार नहीं करती। केवल उसे निर्विचारिता को समर्पित कर देती हूँ। सम्पूर्ण संयंत्र वहां क्रियाशील होता है। उसे ( विचार को ) उस संयंत्र ( निर्विचारिता ) में डालिये और माल तैयार होकर आपके सम्मुख आ जाता है। आप उस संयंत्र - यों कहें नीरव अथवा शांत संयंत्र को काम तो करने दीजिये। अपनी सारी समस्याए उसको सौपियें। किन्तु बुद्धि-जीवियों के लिए यह अत्यंत कठिनकठीण है क्योंकि उनको प्रत्येक बात के बारे में सोचने कि आदत होती है। किसी विषय को समझने कि कोशिश करते समय आप निर्विचारिता में प्रवेश करने कि क्षमता प्राप्त कीजिये। आप देखेंगे सबकुछ स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है। आप जो अनुसन्धान करते है वह भी निर्विचार अवस्था में करना चाहिए। निर्विचार अवस्था में कार्यरत रहने का अभ्यास कीजिये। इस भांति आप अति उत्तम ढंग से अपना अनुसंधान कार्य कर सकते है। मैं अनेक विषयों पर बोलती हूँ। अपने जीवन में मैंने कभी विज्ञानं का अध्ययन नहीं किया और उस विषय में कुछ नहीं जानती। फिर यह सब ज्ञान कहा से आता है ? निर्विचारिता से। मैं बोलती जाती हूँ और जो कुछ होता है उसे देखती रहती हूँ। मेरे वाणीरूपी कंप्यूटर में मानो यह सब कुछ पहले से तैयार करा कराया रखा था। यदि आप निर्विचार अवस्था में नहीं है तो आप उस कंप्यूटर ( अर्थात निर्विचारिता ) का उपयोग नहीं करा रहे है और अपने मस्तिष्क को उसके ऊपर प्रतिष्ठित करते हैं। ( अर्थात आपका निर्विचारितरूपी कंप्यूटर निष्क्रिय रहता है और आपके सब कार्य मानव मस्तिष्क शक्ति , जो सिमित है , उसके बल पर होते है ) निर्विचारिता एक प्राचीन कंप्यूटर है और इसकी शक्ति से विपुल परिणाम में सही कार्य किया गया है। यदि आप अपने मस्तिष्क का उपयोग करते है और इस कंप्यूटर का आश्रय नहीं लेते है तो आप निश्चित रूप से गलतियाँ करेंगे। निर्विचार अवस्था में जो कुछ भी घटित होता है वह प्रबुद्ध और प्रकाशमान होता है। हिंदी , मराठी तथा संस्कृत भाषाओं में किसी शब्द से पहले 'प्र' युक्त करने से उसका अर्थ होता है प्रकाशित , प्रकाशमान। प्रकाश कभी बोलता नहीं। यदि आप कमरे कि बत्ती जला दे , तो वह बत्ती ( दीप ) बोलेगी नहीं अथवा कोई विचार आपको नहीं देगी। यह बात निर्विचारिता रूप प्रकाश के बारे में है। निर्विचार , निरहंकार ( अर्थात अहंकार रहित ) इत्यादि सब शब्दों से पहले निः जुड़ा है। आप इसे ( अर्थात निः को ) अपने भीतर स्थापित कीजिये और तब आप निर्विकल्प अवस्था में आ जायेंगे। पहले निर्विचार , तत्पश्चात निर्विकल्प। तब आपके समस्त संदेह व् शंकायें समाप्त हो जाती है और प्रतीत होता है कि कार्य करने वाली शक्ति अत्यंत द्रुत गति से काम करती है और अत्यंत सूक्ष्म है। आप आश्चर्य करेंगे यह सब कैसे घटित होता है। यही बात समय के विषय में है। मैं कभी घडी कि तरफ नहीं देखती। यह कभी - कभी रुक जाती है , कभी गलत समय बताती है। किन्तु मेरी असली घडी निर्विचारिता में है। यह हमेशा स्थिर ( शांत ) रहती है। यदि कोई कार्य करना हो तो वह उचित समय पर हो जाता है। फिर मन में कुछ पश्चाताप नहीं होता कि यह समय पर हुआ अथवा देरी से। जब भी हो , मुझे कोई चिंता नहीं। ;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
मनुष्य की उम्र जितनी बढ़ति जाएगी, उतना ही ध्यान करना, निर्विचारिता की स्थिति पाना कठिन हो जाएगा। ध्यान की आदत बच्चो को बचपन से लगानी चाहिए क्योंकि बचपन मे बुरे अनुभवों का जहर मनुष्य के पास नहीं होता है। इसलिए बच्चों के जीवन मे विचारों का भंडार भी नही होता है। 12 वर्ष की आयु से ध्यान सीखना चाहिए। आनेवाले समय मे मन कि एकाग्रता की बड़ी आवश्यकता होगी। तब बच्चो के काम ध्यान की साधना ही आएगी। क्योकि आनेवाला समय कठिन होगा। क्योंकि टेक्नोलॉजी और मीडिया के हुए व्यापक प्रभाव के कारण बच्चों को अपना चित्त दूषित वातावरण से बचाने में ध्यान ही काम आएगा। जितना समय के साथ साथ विचारों का प्रदूषण बढ़ने लगेगा, वैसे वैसे जीवन मे कठिनाइयां भी बढ़ने लगेगी। निर्विचारिता की स्थिति यानी ध्यान नहीं है।ध्यान में जाने में सहायक स्थिति निर्विचारिता की स्थिति है। कई बार समाज में लोग निर्विचारिता की स्थिति को ही ध्यान की स्थिति समज लेते हैं।ध्यान की स्थिति निर्विचारिता के उपर की स्थिति होती है। और जब तालु भाग में स्पंदन का अनुभव होने लगता है तो एक आत्मानंद हमें प्राप्त होता है। ईसी स्थिति का वर्णन संत कबीर ने अपने शब्दों में किया है शून्य शिखर पर अनहत बाजे यानी जब आप शून्य शिखर यानी इस सहस्त्रार चक्र पर पहुंच जाते हैं तो आपको अनहत का नाद वह स्पंदन का नाद सुनाई देने लगता है। यह तो वही अनुभव कर सकता है जो इस चक्र तक पहुंचा हो। यह स्थिति निर्विचारिता की स्थिति के भी ऊपर की स्थिति होती है।
आत्म साक्षात्कार के बाद आप चक्रों की तरह घूमते हुय़े बहुत से छल्ले देख सकते हैं। आत्मा सभी तत्वों के कारण-कार्य़ सम्बन्धों से लीला करती है। छल्लों के रूप में ये हमारे शरीर के पिछले हिस्से से जुडी है। सभी चक्रों एवं पावन अस्थि में इसका निवास है।ये सात छल्ले बनाती है ।आत्म साक्षात्कार के पश्चात आप चक्रों के इर्द-गिर्द घूमते हुये और एक छल्ले को दूसरे छल्ले में जाते हुये बहुत से छल्लों को देख सकते हैं।कभी-कभीb तो एक छल्ले में बहुत से छल्ले और कभी एक छल्ले में चिंगारियों जैसे अर्धविराम चिन्ह भी आप देख सकते हैं ।ये चेतन्य होता है ।ये मृत आत्मायें होती हैं ।ये हमारे ऊपर ग्री क्षेत्र में प्रतिविम्बित होती है हाल ही में अमेरिका में एक कोषाणु के ग्राही का फोटो लिया गया,ये बिल्कुल वैसा ही दिखाई दिया जैसा आप आत्म साक्षात्कार के बाद देखते हैं ।लेकिन व्यक्ति पर कोई अन्य आत्मा बैठती है तो वह कोषाणु पर प्रतिविम्बित होती है।ये आत्मा किसी भी चक्र से या सभी चक्रों से जुड सकती है।जुससे व्यक्ति अचेतन हो जाता है और मादकता, मिर्गी, मस्तिष्क रोग तथा कैंसर आदि रोगों का कारण बनती है।
मूलाधार चक्र सबसे अधिक कोमल और सबसे अधिक शक्तिशाली है इसकी बहुत सी सतहें हैं और बहुत से आयाम। यदि मूलाधार ठीक नहीं है तो आपकी याददास्त खराब हो जायेगी आपका विवेक गडबड हो सकता है। आपमें दिशा विवेक नहीं रहेगा।अमेरिका में 40 वर्ष से कम उम्र में किसी प्रकार का पागलपन रोग आ रहा है, इसका कारण मूलाधार चक्र का खराब होना है ।बहुत से असाध्य रोग दुर्वल मूलाधार के कारण कारण आते हैं ।90प्रतिशत मानसिक रोगी दुर्वल मूलाधार के कारण होते हैं।यदि व्यक्ति का मू लाधार शक्तिशाली है तो उसे किसी भीप्रकार की तखलीफ नहीं होगी । आप मस्तिष्क को दोष देते हैं यह मस्तिष्क के कारण नहीं बल्कि मूलाधार के कारण होता है। इसलिए मूलाधार के प्रति विवेकशील रहें ।
क्षमा प्रार्थना आज्ञाचक्र का मंत्र हैं।हं और क्षं इसके दो पक्ष हैं ।हं अर्थात ‘मैं हूं’ और “क्षं‘अर्थात ‘मैं क्षमा करता हूं ‘।अतः जब आज्ञाचक्र पकडता है है तो आपको कहना पडता है “ मै क्षमा करता हूं“आपके अन्दर यदि प्रति अहं है तो भी आपको कहना होगा “मैं क्षमा करता हूं” ।यदि हमारे अन्दर प्रति अहं है तो हमें कहना चाहिए ‘मैं हूं मै हूं’ तो ‘हं’ और ‘क्षं’ बीज मंत्र हैं।ये प्रार्थना के –क्षमा प्रवचन के बीज हैं।
जब किसी चीज से अधिक लगाव होता है तो मेरा,तेरा शव्द का प्रयोग होने लगता है, मेरा घर है मेरा शव्द को त्याग देना चाहिए, इसके स्थान पर हम शव्द का प्रयोग करें, हम अर्थात सब एक हैं, आप उस परमात्मा के अंग प्रत्यंग हैं ? क्या हम हम नहीं हैं ? क्या मैं अपनी अंगुली को ह्दय सेअलग कर सकता हूं ?अपना तो इस पृथ्वी पर कुछ भी नहीं है? ये मेरा बच्चा है,मेरी पत्नी है ? निसंदेह आपने अपनी पत्नी ,बच्चों की देख-भाल करनी है क्योंकि यह आपकी जिम्मेदारी है, लेकिन जितना आप अपने बच्चों के लिए करते हैं उससे अधिक अन्य बच्चों के लिए भी करें ,आपको विश्वास करना होगा कि आपका परिवार आपके पिता(परमात्मा)का परिवार है और आपकी मॉ (आदिशक्ति) इसकी देख-भाल कर रही है । यदि आप सोचते हैं कि आप अपने परिवार की देख- भाल स्वयं कर रहे हैं तो-आगे बढकर देखें ?इसलिए अपने परिवार के बारे में अधिक चिंतित नहों । किसी चीज को अपने तक सीमित न रखें, आप तभी करते हैं जब वह करवाता है ।डोर तो उसके हाथ में है ।
यह वैसे गहन अध्यन का विषय है कि मस्तिष्क में जब कुण्डलिनी का प्रकाश आता है तो मस्तिष्क के माध्यम से सत्य को समझा जा सकता है। इसी कारण इसे सत्य खण्ड कहा जाता है, अर्थात मस्तिष्क द्वारा समझे गये सत्य को आप देखने लगते हैं।क्योंकि अभीतक मस्तिष्क द्वारा जो कुछ भी आप देख रहे थे वह सत्य नहीं था,वह सिर्फ वाह्य पक्ष था। अपने मस्तिष्क द्वारा आप दिव्यता के विषय में कुछ नहीं जान पाते हैं,जब तक कुण्डलिनी इस भाग में नहीं पहुंच जाती किसी व्यक्ति को दिव्यता के बारे में जान पाना कठिन है, कोई व्यक्ति सच्चा है या नहीं यह जान पाना कठिन है, जबतक आत्मा का प्रकाश मस्तिष्क में चमकने न लग जाय।वैसे आत्मा की अभिव्यक्ति ह्दय में होती है अर्थात आत्मा का केन्द्र ह्दय में होता है , लेकिन वास्तव में आत्मा की पीठ ऊपर है,श्री माता जी अपना दॉयॉ हाथ अपने सिरके ऊ पर रखकर कहती हैं कि यही आत्मा है। जिसे हम सर्व शक्तिमान परमात्मा कहते हैं,सदा शिव,परवर्दिगार कहते हैं, जिस नाम से भी भगवान को बुलाया जाता है,बुलाते हैं। जोकि प्रकाश के रूप में चमकने लगता है।
होता क्या है कि कुण्डलिनी मध्य भाग में जुडी हुई नहीं है लेकिन इसके अन्दर बीते हुये समय का पूरा लेखा-जोखा टेप होता है, जब आप बहुत गहन सुषुप्त अवस्था में चले जाते हैं, तब नीचे से प्रतीक उभरते हैं और नीली लाइन से होते हुये आपके मस्तिष्क से गुजरते हैं,जिससे आप स्वप्न देखने लगते हैं लेकिन सारे स्वप्न विकृत हो जाते हैं।उसमें अजीबोगरीव प्रतीकात्मकता आ जाती है ।कभी- कभी तो आपके समझ में ही नहीं आता कि क्या हो रहा है,एक प्रकार की मिली-जुली अभिव्यक्ति बन जाती है। इसलिए सपनों पर विश्वास न करें ।
जो लोग यह सोचते हैं कि मैं बेहत्तर हूं परमात्मा से मेरा कोई लेना- देना नहीं है,ऐसे लोगो को बायें ओर के एकादश की समस्या हो जाती है, जोकि बहुत खतरनाक होता है इन लोगों को दायें ओर के ह्दयघात की समस्या हो जाती है। कुण्डलिनी के सहस्रार में प्रवेश करने में एकादश रुद्र सबसे बडी समस्या है ।यह समस्या भवसागर से आती है,इस प्रकार यह तालू क्षेत्र में भी प्रवेश करती है , गलत गुरुओं के पास गये हैं और बाद में सही निष्कर्ष पर न पहुंचने से सहजयोग के प्रति समर्पित हुये हैं अपनी गलतियॉ स्वीकार कर कहते हैं कि मैं स्वयं का गुरु हूं तो वे ठीक हो सकते हैंऔर जो लोग कहते हैं मैं सबसे ऊपर हूं मैं परमात्मा में विश्वास नहीं करता परमात्मा कौन है, उसके अन्दर की समस्या का निवारण भी हो सकता है कि वह नम्र होकर सहजयोग की परम चेतना में प्रवेश करने का एक मात्र मार्ग स्वीकार कर लें।
हर शव्द का अपना महत्व है,और मंत्र इन्हीं शव्दों से बनें होते हैं, जैसे हमारे शरीर के अन्दर तीन देवियॉ विराजमान हैं महॉ काली, महॉलक्ष्मी, और सरस्वती तो इन्हैं ऐं,हीं, क्लीं कहते हैं । इसी प्रकार ‘री’ र..र..शव्द शक्ति का शव्द है। र जैसे राधा रा अर्थात शक्ति और धा धारण करने वाली जैसे राधा- राम-और कृष्ण शव्द की उत्पत्ति कृषि शव्द से हुई कृ का उच्चारण करते ही विशुद्धि चक्र कार्यान्वित होने लगता है,इसलिए कृष्ण शव्द का उच्चारण करना चाहिए, क्योंकि कृष्ण शव्द सीधा विशुद्धि चक्र से जुडा है, अतःकृष्ण नाम केवल उसी का हो सकता है।क्षं शब्द का अर्थ है क्षमा करना। सहजयोग प्रेम का पथ है,प्रेम में अधिक विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है।छोटे से शव्द प्रेम को संमझ लेने मात्र से ही व्यक्ति पंडित हो जाता है।वैसे अधिक पढ-पढकर पंडित भी मूर्ख बन जाता है ।
कुण्डलिनी जब उठती है तो स्वर उत्पन्न करती है, सभी स्वरों के अलग-अलग अर्थ होते हैं । और चक्रो पर जो स्वर सुनाई देते हैं उनका उच्चारण इस प्रकार है- मूलाधार पर चार पंखुडियॉ हैं-निम्न स्वर हैं-व,श,ष,स-।स्वादिष्ठान पर छः पंखुडियॉ हैं तो छः स्वर निकलते हैं-ब,भ,म,य,र,ल -मणिपुर पर दस पंखुडियॉ हैं दस स्वर उत्पन्न होते हैं –ड, ढ,ण,त,थ,द,ध,न,प,फ-अनाहत चक्र पर बारह पंखुडियॉ हैं-स्वर –क,ख,ग,घ,ड.च,छ,ज,झ,ञ,ट,ठ –।विशुद्धि चक्र- सोलह पंखुडियॉ- सोलह स्वर अ,आ, इ,ई,उ, ऊ,श्र,रू, लृ,ए,ऐ,ओ,,अं,अः आज्ञा चक्र में के स्वर-ह,क्ष -। सहस्रार पर पहुंचने पर साधक निवर्विचार हो जाता है और कोई स्वर नहीं निकलता है शुद्ध स्पंदन ह्दय में होता है-लप-टप-लप- टप ।ये सारे स्वर एकत्रित होकर इस समन्वय से उत्पन्न होने वाला स्वर ओं …होता है।सूर्य के सातों रंग अंततः सफेद किरणें बन जाती हैं या स्वर्णिम रंग की किरणें ।
ह्दय सात चक्रों के सात परिमलों से घिरा हुआ है और इसके अन्दर आत्मा निवास करती है । आपके सिर के शिखर पर सर्व शक्तिमान सदाशिव निवास करते हैं ।कुण्डलिनी जब इस विन्दु को छूती है तो आपकी आत्मा प्रसारित होने लगती है,और आपके मध्य नाडी तन्त्र पर कार्य करने लगती है क्योंकि स्वतःचैतन्य लहरियॉ आपके मस्तिष्क में प्रवाहित होने लगती है ,और आपकी नाडियों को ज्योतिर्मय करती है।परन्तु अभी भी ह्दय में पहचान नहीं आई कि आप शीतल लहरियॉ महशूस करने लगते हैं, आप उस स्थिति में दूसरों की कुंण्डलिनी उठा सकते हैं,लोगों को रोग मुक्त कर सकते हैं तथा और भी बहुत से कार्य कर सकते हैं ।परन्तु अभी भी यह पहचान नहीं है क्योंकि पहचान तॉ आपके ह्दय की मानसिक गतिविधि है ।यदि आप हिन्दू हैं तो श्री राम की फोटो देखते ही आपका ह्दय पहचान लेता हैं।लेकिन एक ऐसे व्यक्ति को पहचानना बहुत कठिन है जो आपके साथ रह रहा है ।ह्दय की गहनता में जाने के लिए क्या किया जाना चाहिए? ह्दय के माध्यम से दिमाग के कार्य को किस प्रकार किया जा सकता है। आपको याद रखना होगा कि ह्दय पूरी तरह से मस्तिष्क से जुडा हुआ है, ह्दय जब रुक जाता है तो मस्तिष्क भी रुक जाता है।सारा शरीर बेकार हो जाता है।कोई खतरा दिखने लगता है कि ह्दय धडकने लगता है। आपके ह्दय में इसकी रचना करने के लिए आपको क्या अनुभव होना चाहिए । ये आपके अपने दिव्यत्व और आध्यात्मिकता का अनुभव है।एक बार जब आपमें यह अनुभव विकसित होने लगता है तब आप जान पाते हैं कि आप दिव्य व्यक्ति हैं । और जब तक आप पूर्ण रूपेण विश्वस्त नहीं होते कि आप दिव्य व्यक्ति हैं तो चाहे जितनी क्षद्धा आपमें हो यह पहचान अधूरी है,क्योंकि मुझे पहचानने वाला व्यक्ति अन्धा व्यक्ति है ।
हम जब भी और जहॉ भी विद्युत चुम्बकीय शक्ति को कार्य करते हुये देखते हैं तो यह हनुमान के आशीर्वाद से होता है ।वे ही विध्युत चुम्बकीय शक्तियों का सृजन करते हैं । अतः हम देख सकते हैं कि श्री गणेश जी के अन्दर चुम्बकीय शक्तियॉ हैं वे चुम्बक हैं उनमें चुम्बकीय शक्ति है पदार्थ की अवस्था में वे मस्तिष्क तक जाते हैं । मस्तिष्क के विभिन्न पक्षों में सहसम्बंधों का सृजन करते हैं।अतः गणेश जी हमें बुद्धि प्रदान करते हैं तो श्री हनुमान हमें सद्विवेक प्रदान करते हैं ।
शिव आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं और आत्मा का निवास आपके ह्दय में है सदा शिव का स्थान आपके सिर के शिखर पर है परन्तु आपके ह्दय में प्रतिविम्बित होते हैं आपका मस्तिष्क विठ्ठल है आत्मा को आपके मस्तिष्क में लाने का अर्थ आपके मस्तिष्क का ज्योतिर्मय होना है।अर्थात परमात्मा का साक्षात्कार करने की आपके मस्तिष्क की सीमित क्षमता का असीमित बनना आत्मा मस्तिष्क में आती है तो आप जीवन्त चीजों का सृजन करते हैं।मृत भी जीवित की तरह से व्यवहार
करने लगता है।
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
निर्विचार कैसे हुआ जाए?
जिसे निर्विचार होना हो, उसे व्यर्थ के विचारों को लेना बंद कर देना चाहिए । उसे व्यर्थ के विचारों को लेना बंद कर देना चाहिए। इसकी सजगता उसके भीतर होनी चाहिए कि वह व्यर्थ के विचारों का पोषण न करे, उन्हें अंगीकार न करे, उन्हें स्वीकार न करे और सचेत रहे कि मेरे भीतर विचार इकट्ठे न हो जाएं। इसे करने के लिए जरूरी होगा कि वह विचारों में जितना भी रस हो, उसको छोड़ दे।
हमें विचारों में बहुत रस है। अगर आप एक धर्म को मानते हैं, तो उस धर्म के विचारों में आपको बहुत रस है।
जिसे निर्विचार होना है, उसे विचारों के प्रति विरस हो जाना चाहिए। उसे किसी विचार में कोई रस नहीं रह जाना चाहिए। उसे यह सोचना चाहिए कि विचार से कोई प्रयोजन नहीं, इसलिए उसमें कोई रस रखने का कारण नहीं। कैसे वह विरस होगा?
यह संभव होगा विचारों के प्रति जागरूकता से। अगर हम अपने विचारों के साक्षी बन सकें—और यह बन सकना कठिन नहीं है—अगर हम अपने विचारों की धारा को दूर खड़े होकर देखना शुरू करें, तो क्रमशः जिस मात्रा में आपका साक्षी होना विकसित होता है, उसी मात्रा में विचार शून्य होने लगते हैं।
विचार को शून्य करने का उपाय है विचार के प्रति पूर्ण सजग हो जाना। जो व्यक्ति जितना सजग हो जाएगा विचारों के प्रति, उतने ही विचार उसी भांति उसके मन में नहीं आते, जैसे घर में दीया जलता हो तो चोर न आएं। और घर में अंधकार हो तो चोर झांकें और अंदर आना चाहें।
भीतर जो होश को जगा लेता है, उतने ही विचार क्षीण होने लगते हैं। जितनी मूर्च्छा होती है भीतर, जितना सोयापन होता है भीतर, उतने ज्यादा विचारों का आगमन होता है। जितना जागरण होता है, उतने ही विचार क्षीण होने लगते हैं।
निर्विचार होने का उपाय है: विचारों के प्रति साक्षी-भाव को साधना। कोई एक क्षण में सध जाएगा, यह नहीं कहता। कोई एक दिन में सध जाएगा, यह भी नहीं कह रहा हूं। लेकिन अगर निरंतर प्रयास हो, तो थोड़े ही दिनों में आपको पता चलेगा कि जैसे-जैसे आप विचारों को देखने लगेंगे...कभी घंटे भर को किसी एकांत कोने में बैठ जाएं और कुछ भी न करें, सिर्फ विचारों को देखते रहें। कुछ भी न करें उनके साथ, कोई छेड़-छाड़ न करें, सिर्फ उन्हें देखते रहें। और देखते-देखते ही धीरे-धीरे आपको पता चलेगा,
वे कम होने लगे हैं। देखना जैसे-जैसे गहरा होगा, वैसे-वैसे वे विलीन होने लगेंगे। जिस दिन देखना पूरा हो जाएगा, जिस दिन आप अपने भीतर आर-पार देख सकेंगे, जिस दिन आपकी आंख बंद होगी और आपकी दृष्टि भीतर पूरी की पूरी देख रही होगी, उस दिन आप पाएंगे—कोई विचार का कोलाहल नहीं है, वे गए। और जब वे चले गए होंगे, उसी शांत क्षण में आपको अदभुत दृष्टि, अदभुत दर्शन, अदभुत आलोक का अनुभव होगा। वह अनुभव ही सत्य का दर्शन है। और वही अनुभव स्वयं का दर्शन है। स्वयं के माध्यम से ही सत्य जाना जाता है। और कोई द्वार नहीं है।
स्वयं के द्वार से ही सत्य को जाना जाता है। और सत्य को जान लेना आनंद में प्रतिष्ठित हो जाना है। असत्य में होना दुख में होना है। अज्ञान में होना दुख में होना है। और सत्य की उस ज्ञान-दशा में आनंद उपलब्ध होता है। आनंद और आत्मा अलग न समझें। आनंद और सत्य अलग न समझें। स्वयं और सत्य अलग न समझें। ऐसी जो प्रक्रिया का उपयोग क्रमशः अपने जीवन में करेगा, वह कभी निर्विचार को अनुभव कर लेता है। निर्विचार को जो अनुभव कर लेता है, उसकी पूरी विचार की शक्ति जाग्रत हो जाती है, उसे च्रु मिल जाते हैं।
जैसे किसी ने अंधेरे में प्रकाश कर दिया हो या जैसे किसी ने अंधे को आंख दे दी हों, ऐसा उसे अनुभव होता है। यह अगर क्रमिक साधना इसकी हो तो निश्चित ही उपलब्ध हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अधिकारी है और हकदार है। जो अपने अधिकार को मांगेगा, उसे मिल जाता है। जो उसे छोड़े रखता है, वह खो देता है।
ज्ञान क्या निर्विचार अवस्था में ही रहता है?-
जो ज्ञान है वह निर्विचार अवस्था में ही रहता है।ज्ञान की उपलब्धि निर्विचार में होती है। और उपलब्धि हो जाए तो वह हर अवस्था में रहता है। फिर तो विचार की अवस्था में भी रहता है। फिर तो उसे खोने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन उपलब्धि निर्विचार में होती है। अभिव्यक्ति विचार से भी हो सकती है, लेकिन उपलब्धि निर्विचार में होती है। उसे पाना हो तो निर्विचार होना पड़े। क्यों निर्विचार होना पड़े? क्योंकि विचार की तरंगें मन को दर्पण नहीं बनने देतीं। जैसे समझें, एक चित्र उतारना हो कैमरे से। तो उतारने में तो एक विशेष अवस्था का ध्यान रखना पड़े कि कैमरे में प्रकाश न चला जाए, कैमरा न हिल जाए। लेकिन एक दफा चित्र उतर गया, तो फिर खूब हिलाइए, और खूब प्रकाश में रखिए। उससे कोई फिर फर्क नहीं पड़ता। लेकिन उतारने के क्षण में तो कैमरा हिल जाए तो सब खराब हो जाए। एक दफा उतर जाए तो बात खतम हो गई। फिर खूब हिलाइए और नाचिए लेकर, तो कोई फर्क नहीं पड़ता। ज्ञान की उपलब्धि चित्त की उस अवस्था में होती है जब कुछ भी नहीं हिलता, सब शांत और मौन है। तब तो ज्ञान का चित्र पकड़ता है। लेकिन पकड़ जाए एक दफे, तो फिर खूब नाचिए, खूब हिलिए, कुछ भी करिए, फिर कोई फर्क नहीं पड़ता। ज्ञान की उपलब्धि निर्विचार में है। और विचार फिर कोई बाधा नहीं डालता। लेकिन अगर सोचते हों कि विचार से उपलब्धि कर लेंगे, तो कभी न होगी, विचार बहुत बाधा डालेगा। उपलब्धि में बहुत बाधा डालेगा, उपलब्धि के बाद विचार बिलकुल नपुंसक है। फिर उसकी कोई ताकत नहीं है। फिर वह कुछ भी नहीं कर सकता।
यह बहुत मजे की बात है कि शांति की जरूरत प्राथमिक है, ज्ञान को पाने में। ज्ञान पा लेने के बाद किसी चीज की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन वे बाद की बातें हैं। और बाद की बातें पहले कभी नहीं करनी चाहिए, नहीं तो नुकसान होता है। नुकसान यह होता है कि हम सोचने लगते हैं कि जब बाद में कोई फर्क नहीं पड़ेगा तो अभी भी क्या हर्ज है!तब नुकसान हो जाएगा।
तुम जरा अपने मन की जांच—पड़ताल करना, तुम्हें हजार उदाहरण मिल जाएंगे। बैठे- बैठे न मालूम क्या—क्या विचार उठ आते हैं! और जब कोई विचार उठता है तो तुम क्षण भर को तो भूल ही जाते हो कि यह विचार है। क्षण भर तो मूर्च्छा छा जाती है, और विचार सच मालूम होने लगता है।
तुमने कई दफे पाया होगा, तुम ऐसी चीजों के लिए भी व्याकुल हो जाते हो जो हैं ही नहीं। जरा कभी बैठ कर कल्पना करना शुरू करो। तुम ऐसी चीजों के लिए व्याकुल हो जाओगे, जो हैं ही नहीं। तब तुम हंसोगे भी कि यह भी मैंने क्या किया। यह तो है ही नहीं बात।
वह जो विचार का सच मालूम होना है, वही संसार है। एक बार विचारों से तुम मुक्त हो गए तो संसार से मुक्त हो गए। निर्विचार होना संन्यास है। और कोई उपाय संन्यासी होने का नहीं है।
दो स्थिति की बात हैं।विचार चलते हैं और पीछे ऐसा भी लगता है कि थोड़ा निर्विचार हुआ और चारों तरफ विचार चलते रहते हैं और केंद्र पर कहीं कोई निर्विचार का भी खयाल होता है, और वह स्थिति जब कि सब विचार बंद हो जाते हैं। जब तक विचार चलते हैं, तब तक निर्विचार का खयाल सिर्फ एक विचार है। जब तक विचार चलते हैं, तब तक निर्विचार का खयाल सिर्फ एक विचार है। वह भी एक विचार है कि मैं निर्विचार हूं; और इधर विचार चल रहे हैं, और मैं निर्विचार हूं। क्योंकि मैं निर्विचार हूं, इसकी स्थिति तो तभी स्मरण में आएगी, जब विचार नहीं चल रहे होंगे। और मजे की बात यह है कि यह जब स्थिति बनेगी, तब यह खयाल भी नहीं रहेगा कि मैं निर्विचार हूं। क्योंकि निर्विचार होने का खयाल एक विचार मात्र है। जैसे एक आदमी जब पूर्ण स्वस्थ होता है, तो यह भी पता नहीं रहता कि मैं स्वस्थ हूं। इस बात का पता कि मैं स्वस्थ हूं, बीमारी की खबर देता है। इसलिए अक्सर बीमार आदमी स्वास्थ्य की बात करते हुए देखे जाते हैं--स्वस्थ आदमी नहीं, बीमार आदमी। बीमारी बनी रहे किसी कोने पर, तो स्वास्थ्य का बोध बन सकता है। और कई दफा स्वास्थ्य का खयाल एक नई तरह की बीमारी ही सिद्ध होती है। अगर कोई आदमी स्वास्थ्य के प्रति बहुत सचेतन हो गया, तो रुग्ण हो जाता है। यह रोग है एक। तो ऐसी घटना घटती है, जब कि आप मन से सोच-सोच कर, सुन-सुन कर, समझ-समझ कर यह आकांक्षा मन में बना लेते हैं कि निर्विचार हो जाऊं। क्योंकि सुना कि पवित्र है वही, सुना कि परम आनंद है वही, सुना कि वहीं है समाधि का सुख, सुना कि सब फीका पड़ जाता है, वहीं है आनंद, तो फिर आकांक्षा बनती है, वासना बनती है कि मैं निर्विचार हो जाऊं। अब ध्यान रखें, निर्विचार होने को कभी वासना नहीं बनाया जा सकता। पर बनती है। असल में मन की तरकीब ही यही है कि आप कुछ भी कहो, वह उसको वासना में निर्मित कर देता है। वह कहता है, मोक्ष चाहिए? मोक्ष में बड़ा आनंद है, मोक्ष चाहिए? मोक्ष की कोशिश करो, खोजो, मिल जाएगा। अब मोक्ष की खोज शुरू हो गई। और जिस मोक्ष को मन खोजता है, वह मोक्ष नहीं है। असल में, जहां मन नहीं होता, वहां मोक्ष है। इसलिए मन का खोजा हुआ मोक्ष तो मोक्ष नहीं हो सकता। निर्विचार की बात सुनते-सुनते मन में बैठ जाता है, निर्विचार होना चाहिए। ध्यान रखें, निर्विचार होना चाहिए, यह एक विचार है। यह लाओत्से को सुन कर आ गया हो खयाल में, यह मुझे सुन कर खयाल में आ जाए, किसी और को सुन कर खयाल में आ जाए, किसी किताब से पढ़ लें और यह खयाल में आ जाए कि निर्विचार होना चाहिए। पर यह आपके पास क्या है--निर्विचार होना? यह एक विचार है। सिर्फ निर्विचार होना है, इसलिए विचार नहीं है, इस भूल में पड़ने की कोई जरूरत नहीं है। दिस इज़ ए मोड ऑफ थॉट, टु बी थॉटलेस। यह एक प्रकार हुआ विचार का। अब अगर इस विचार पर आप जिद्द देकर पड़ जाएं, तो मन आपको दूसरा धोखा देगा। वह कहेगा कि देखो, भीतर तो निर्विचार है, आस-पास विचार घूम रहे हैं; आर-पार चल रहे हैं विचार, मैं तो बाहर खड़ा हुआ हूं। लेकिन मैं जो बाहर खड़ा हुआ हूं, यह क्या है? इज़ इट मोर दैन ए थॉट? यह जो मैं बाहर खड़ा हूं, यह क्या है? यह एक विचार है। पर इससे भी थोड़ा सुख मिलेगा, थोड़ी शांति मिलेगी। वह शांति नहीं, जो कालजयी है; वह शांति नहीं, जिसका कोई नाम नहीं है। न, इससे एक शांति मिलेगी, जो कि मन को सदा मिलती है, जब भी वह अपनी किसी वासना को पूरा कर लेता है। यह एक वासना थी मन में कि निर्विचार हो जाऊं। अब यह विचार बीच में खड़ा हो गया कि मैं निर्विचार हूं। मन को बड़ी तृप्ति मिलती है कि देखो, मैं निर्विचार भी हो गया। और मन बड़ा कुशल है। एक छोटे से कोने में एक विचार को खड़ा कर देगा कि मैं निर्विचार हूं, और चारों तरफ विचार घूमते रहेंगे। और चारों तरफ कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भीतर जहां मैं कह रहा हूं कि मैं निर्विचार हूं, वहां भी विचार अभी खड़ा हुआ है। वहां भी विचार मौजूद है। हां, ज्यादा से ज्यादा यह हो सकता है कि वहां जरा एक थिर विचार खड़ा है, बाकी विचार चल रहे हैं। बाकी विचार चल रहे हैं--दूकान है, बाजार है, काम है, धंधा है--वे चारों तरफ चल रहे हैं। और यह एक विचार, कि मैं निर्विचार हूं, खड़ा हो गया है बीच में। लेकिन अगर इसको भी बहुत गौर से देखेंगे तो यह भी पूरा खड़ा हुआ नहीं मिलेगा, क्योंकि कोई विचार पूरा खड़ा हुआ नहीं हो सकता। यह भी दीए की लौ की भांति नीचा-ऊंचा होता रहेगा। एक क्षण को लगेगा, हूं; एक क्षण को लगेगा, नहीं हूं। एक क्षण को लगेगा कि अरे, ये तो विचार भीतर घुस गए! एक क्षण को लगेगा, मैं फिर बाहर हूं। एक क्षण को लगेगा, मैं फिर खो गया। यह बस ऐसा ही होता रहेगा। यह, क्योंकि कोई भी विचार परिवर्तन के बाहर नहीं हो सकता--यह विचार भी नहीं कि मैं निर्विचार हूं--यह भी डोलता रहेगा, फ्लक्चुएटिंग, नीचा-ऊंचा, इधर-उधर पूरे वक्त होता रहेगा। क्षण भर को ऐसा लगेगा कि हूं, और लगा नहीं कि गया। नहीं, ताओ ऐसी स्थिति की बात नहीं है। ऋत और बात है। नहीं, विचार तो हैं ही नहीं चारों तरफ, यह विचार भी नहीं है कि मैं निर्विचार हूं। कोई भी नहीं बचा जो कह सके, मैं निर्विचार हूं। भीतर कोई है ही नहीं, निपट सन्नाटा है। चुप्पी के सिवाय कुछ भी नहीं है। यह जानने वाला भी नहीं है, खड़े होकर जो कह दे कि देखो, मैं बिलकुल चुप हूं। इतना भी अगर मौजूद है, तो जानना, मन आखिरी धोखा दे रहा है--दि लास्ट डिसेप्शन! और इसी धोखे में आए कि मन फौरन आपको वापस पूरे चक्कर में खड़ा कर देगा एक सेकेंड में। अगर आप इस खयाल में आ गए कि अरे, हो गया निर्विचार, आप वापस पहुंच गए गहनतम नर्क में। यह एक विचार करीब-करीब ऐसे ही काम करता है, जैसा बच्चे लूडो का खेल खेलते हैं। चढ़ते हैं, बड़ी मुश्किल लगाते हैं, नसेनियां, सीढ़ियां, और फिर एक सांप के मुंह पर पड़ते हैं और सरक कर नीचे सांप की पूंछ पर आ जाते हैं। अगर एक भी विचार का खयाल आ गया, मैं निर्विचार हूं, यह भी खयाल आ गया, तो सांप के मुंह में पड़े आप। आप नीचे उतर जाएंगे; वे सब सीढ़ियां जो चढ़े थे, वे सब बेकार हो गई हैं। इसलिए बोधिधर्म ने कहा, आई डू नॉट नो, मैं नहीं जानता। कौन खड़ा है आपके सामने, मुझे खुद ही पता नहीं। किसी ने बाद में बोधिधर्म को कहा कि वू बहुत दुखी और पीड़ित हुआ है। सम्राट बहुत अपमानित हुआ है। आपने इस तरह के जवाब दिए! सम्राट को ऐसे जवाब नहीं देने थे। आपने कह दिया कि मुझे पता ही नहीं कौन है। बोधिधर्म ने कहा कि तुम सम्राट की बात कर रहे हो! सम्राट की वजह से, कि यह बेचारा इतनी दूर आया, मैंने इतना भी जवाब दिया। अन्यथा इतना जवाब भी गलत था। वह भी नहीं है मेरे भीतर जो कह सके कि मुझे पता नहीं कौन है। यह तो सिर्फ उसकी वजह से कि वह और ही हैरान हो जाएगा इसलिए उसको मैंने कह दिया। बट डोंट मिसअंडरस्टैंड मी, बोधिधर्म ने कहा, मुझे गलत मत समझना। इतना भी मेरे भीतर नहीं है कोई जो कहे कि मुझे पता नहीं है। यह सिर्फ सम्राट इतनी दूर से चल कर आया था, वर्षों से प्रतीक्षा कर रहा था मेरी। जैसे कोई बच्चा आ जाए और हम उसे खिलौना पकड़ा दें, ऐसा मैंने उसे एक खिलौना दिया है। जब तक विचार चल रहे हैं चारों तरफ, तब तक जानना कि आप भी एक विचार हो--यू आर ए थॉट। जब कुछ भी न रह जाए, यह पता करने वाला भी न रह जाए, कुछ रह ही न जाए...। और जरा भी कठिनाई नहीं है, जरा भी कठिनाई नहीं है। यह हमें दिक्कत की बात मालूम पड़ती है। और बुद्ध को समझने में इस देश में जो बड़ी से बड़ी कठिनाई हुई, वह यही थी। और चीन में बुद्ध को समझने में आसानी पड़ी, उसका कारण यह लाओत्से था, और कोई नहीं। चीन में बुद्ध समझे जा सके लाओत्से की वजह से। लाओत्से बुद्ध के पहले वह सब कह चुका था। तो जब बुद्ध की बात पहुंची चीन में और बुद्ध का शब्द लोगों ने सुना कि आत्मा भी नहीं है, तो लोग समझ पाए। लाओत्से की एक भूमिका थी, जो कह रहा था, कुछ भी नहीं है। भारत में बड़ी कठिनाई हो गई। हम यह बात मानने को तैयार हैं, विचार समाप्त हो जाए, बहुत अच्छा; लेकिन मैं तो रहूं। मोक्ष मिले, बिलकुल ठीक; लेकिन मैं रहूं। मुझे तो बचना ही चाहिए। तो जब बुद्ध ने इस देश में कहा, अनत्ता, अनात्मा। कहा कि नहीं, आत्मा भी नहीं है, क्योंकि यह भी एक विचार है। इसे समझें थोड़ा। मैं आत्मा हूं, यह भी एक विचार है। और निश्चित ही वह जगह है, जहां यह विचार भी नहीं होता। और वहीं आत्मा है। यह उलटा दिखता है। यह विचार भी जहां नहीं होता कि मैं आत्मा हूं, वहीं आत्मा है। लेकिन वह तो प्रकट हो जाएगी। आप काटते चले जाएं, काटते चले जाएं, आखिर में खुद कट जाएं। करीब-करीब ऐसा करना पड़ता है जैसे दीया जलता है, आग जलती है, लौ जलती है। लौ पहले तेल को जलाती रहती है। फिर तेल चुक जाता है। फिर लौ बाती को जलाने लगती है। फिर बाती चुक जाती है। फिर पता है, लौ का क्या होता है? लौ खो जाती है। लौ पहले तेल को जला देती है, फिर बाती को जला देती है, फिर स्वयं को जला लेती है। विचार को छोड़ दें, विचार काट डालें। फिर स्वयं को भी छोड़ दें। फिर विचारों को काट डाला, स्वयं को भी छोड़ दिया, यह भी छोड़ दें। तब कुछ नहीं बचता। एक निर्विकार भाव-अवस्था, एक निर्विकार अस्तित्व, एक मौन-शांत सत्ता, एक्झिस्टेंस शेष रह जाता है, जहां मैं का भंवर नहीं बनता। पानी में भंवर बनते देखे होंगे। जोर चक्कर से भंवर बनता है। और भंवर की एक खूबी होती है, आप कुछ भी डाल दो तो वह भंवर उसको फौरन खींच कर घुमाने लगता है। मैं एक भंवर है। जिसमें आप कुछ भी डालें, वह किसी भी चीज को पकड़ कर घुमाने लगेगा। इस निर्विचार, निरहंकार स्थिति में कोई भंवर नहीं रह जाता, कोई घूमने की स्थिति नहीं रह जाती। और तब, तब ताओ का अनुभव है, तब धर्म का, या बुद्ध जिसे धम्म कहते थे, नियम का, ऋषि जिसे ऋत कहते रहे हैं, महावीर जिसे कैवल्य कहते हैं। कैवल्य का अर्थ है, कुछ भी न बचा, केवल होना ही बचा; कोई उपाधि न रही, कोई विशेषण न रहा; सिर्फ अस्तित्व रह गया। मात्र होना, जस्ट बीइंग! जैसे कोई एक गहन गङ्ढ में झांके, या जैसे कोई खुले आकाश में झांके--न कोई बादल, न कोई तारे, खाली आकाश रह गया। ऐसा ही जब भीतर रह जाता है, झांकने वाला भी नहीं रह जाता, सिर्फ खालीपन रह जाता है, तब पता चलता है उसका, उस पथ का, जिस पर विचरण संभव नहीं है, उस पथ का, जो अविकारी है। और तब पता चलता है उस सत्य का, जिसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता, जो कालजयी है, जो कालातीत है, जो सदा एकरस है, जो केवल स्वयं है। जीसस के एक भक्त ने, तरतूलियन ने...तरतूलियन से कोई पूछता है कि जीसस के संबंध में कुछ समझाओ, कुछ हमें उदाहरण दो जिससे पता चले कि जीसस कैसे थे। तो तरतूलियन कहता है कि मत मुझसे गलती करवाओ। जीसस बस बिलकुल अपने ही जैसे थे--जस्ट लाइक हिमसेल्फ। बस अपने ही जैसे; और किसी से कोई तुलना नहीं हो सकती। क्या होगा वहां? उस ताओ की दशा में, उस ऋत में डूब कर क्या होगा? कैसे होंगे हम? क्या होगा हमारा रूप? क्या होगी आकृति? क्या होगा नाम? कोई बचेगा जानने वाला? नहीं बचेगा? क्या होगा? कोई तुलना नहीं हो सकती, कुछ कहा भी नहीं जा सकता। इशारे सब नकारात्मक हैं। इतना कहा जा सकता है, आप नहीं होंगे। आप बिलकुल नहीं होंगे। और जो होगा, उसे आपने अपने भीतर कभी नहीं जाना है। इतना कहा जा सकता है, कोई विचार न होगा, यह विचार भी नहीं कि मैं निर्विचार हूं। फिर भी होगी चेतना, लेकिन ऐसी, जिसे आपने कभी नहीं जानी है। और उसके पहले मन सब तरह की वंचनाएं खड़ी करने में समर्थ है। इसलिए सजग रहना जरूरी है। मन इतना कुशल है, इतना सूक्ष्म रूप से चालाक और कुशल है कि सब धोखे खड़े करने में समर्थ है। कामवासना से भरे चित्त को ब्रह्मचर्य का धोखा दे सकता है। परिपूर्ण स्वयं के प्रति अज्ञानी को आत्मज्ञानी का धोखा दे सकता है। जिसे कुछ भी पता नहीं है, उसे खयाल दिला सकता है कि उसे सब पता है। जो नहीं मिला है, उसकी भी खबर दे सकता है कि मिल गया है। इसलिए मन की डिसेप्टिविटी, उसकी जो प्रवंचकता है, उसके सब रूप ठीक से समझ लेने जरूरी हैं। हुआंग पो के सामने एक युवक आया है और कह रहा है कि मैं शांत हो गया हूं। हुआंग पो पूछता है, फिर तुम यहां किसलिए आए हो? अगर तुम शांत हो गए हो, तो तुम यहां किसलिए आए हो? जाओ! क्योंकि मैं तो सिर्फ अशांत लोगों का इलाज करता हूं। युवक न तो जा सकता है, क्योंकि देखता है, हुआंग पो किसी और ही ढंग से शांत मालूम होता है। कहता है, नहीं, कुछ दिन तो रुकने की आज्ञा दें। हुआंग पो कहता है, शांत लोगों के लिए रुकने की कोई भी आज्ञा नहीं है। जरा सोच कर बाहर से फिर आओ। अशांत तो नहीं हो? क्योंकि मैं नहीं सोचता हूं, हुआंग पो कहता है, कि तुम दो सौ मील पैदल चल कर मुझे बताने सिर्फ यह आओगे कि मैं शांत हूं। दो सौ मील पैदल चल कर मुझे यह बताने आओगे कि मैं शांत हूं! और अगर इसके लिए आए हो, तो बात खतम हो गई। धन्यवाद! परमात्मा करे कि तुम सच में ही शांत होओ। लेकिन एक दफा बाहर जाकर फिर सोच आओ। युवक बाहर जाता है। और तभी हुआंग पो कहता है, अब बाहर जाने की कोई जरूरत नहीं, लौट आओ। क्योंकि अगर अभी इतनी भी अशांति बाकी है कि सोचना है कि शांत हूं या नहीं, वापस आ जाओ। तुम्हारी झिझक ने सब कुछ कह दिया है। तुम सोचने जा रहे हो बाहर कि मैं शांत हूं या नहीं, यह काफी अशांति है। हुआंग पो कहता है, रुको! हुआंग पो कहता है, व्हेयरएवर देयर इज़ च्वॉइस--जहां भी चुनाव है, वहीं अशांति है। अभी तुम चुनने जा रहे हो कि शांत हूं कि अशांत हूं? तुम पर्याप्त अशांत हो। बैठो! मैं तुम्हारे काम पड़ सकता हूं। लेकिन तभी, जब तुम अपने मन की धोखे देने की कुशलता को समझ जाओ। तुम अशांत हो और मन तुम्हें धोखा दे रहा है कि तुम शांत हो। तुम्हें कुछ पता नहीं है और तुम कहते हो, मुझे मालूम है कि भीतर आत्मा है। तुम्हें कुछ पता नहीं और तुम कहते हो, यह सारा संसार परमात्मा ने बनाया है। तुम्हें कुछ भी पता नहीं है और तुम कहते हो कि आत्मा अमर है। मन के इस धोखे में जो पड़ेगा, वह फिर उसे न जान पाएगा जो जानने जैसा है। और उसे न जान पाए, इसलिए मन ये सारे धोखे निर्मित करता है। तो जब तक तुम्हें पता चलता हो कि विचार चल रहा है और मुझे पता चल रहा है कि विचार चल रहा है, तब तक तुम जानना कि मन ने अपने दो हिस्से किए: एक हिस्सा विचार चलाने वाला, और एक हिस्सा एक विचार का कि मैं विचार नहीं हूं, मैं निर्विचार हूं। यह मन का ही द्वैत है। सच तो यह है कि मन के बाहर द्वैत होता ही नहीं। मन के बाहर अद्वैत हो जाता है। और अद्वैत का कोई बोध नहीं होता, ऐसा बोध नहीं होता कि तुम कह सको, ऐसा है। ज्यादा से ज्यादा तुम इतना ही कह सकोगे, ऐसा नहीं है, ऐसा नहीं है, ऐसा नहीं है।
क्या अध्यात्म का प्रसाद परम शुद्घ को ही मिलता है?-
यही निर्बीजता योग साधक का अन्तिम लक्ष्य है। अन्तर्यात्रा विज्ञान अस्तित्व में क्रियाशील रहे, तो यह अध्यात्म प्रसाद मिले बिना नहीं रहता। व्यवहार में परिस्थितियों से गहरा सामञ्जस्य, शरीर की स्थिरता, प्राणों की समधुर लय अन्तर्यात्रा विज्ञान के प्रयोगों की पृष्ठभूमि तैयार करती है। मन की एकाग्र, स्थिर एवं शान्त स्थिति में पवित्र धारणाओं के पुष्प मुस्कराते हैं। और तब शुरू होता है— चित्त के संस्कारों का परिशोधन। गहरे में अनुभव करें, तो यही संस्कार बीज हमारे जीवन में प्रवृत्ति एवं परिस्थितियों की फसल रचते हैं। इसीलिए सभी अध्यात्मवेत्ता अपने मार्गों की भिन्नता के बावजूद चित्त के परिशोधन को साधना जीवन का मुख्य कर्तव्य बताते रहे हैं। चित्त को समझना एवं सँवारना ही तप है और इसकी आत्मतत्त्व में विलीनता ही योग। अब भवचक्र की बेड़ियों को तोड़ने के विषय में महर्षि पतंजलि कहते हैं-
''समाधि की निर्विचार अवस्था की परमशुद्धता उपलब्ध होने पर प्रकट होता है- अध्यात्म प्रसाद।'' महर्षि पतंजलि ने अपने सूत्रों में अध्यात्म विज्ञान के गहरे निष्कर्ष गूँथे हैं। यह निष्कर्ष भी बड़ा गहन है। इसमें निर्विचार समाधि के तत्त्व को उन्होंने प्रकट किया है। महर्षि अपने योगदर्शन में बड़ी स्पष्ट रीति से समझाते हैं कि योग की यथार्थता- सार्थकता ध्यान में फलित होती है। इसके पूर्व जो भी है- वह सब तैयारी है ध्यान की। यह ध्यान गाढ़ा हुआ तो समाधि फलती है। और समाधि को विविध अवस्थाओं में सबसे पहले आती है- संप्रज्ञात अवस्थाएँ। ये संप्रज्ञात समाधियाँ हालाँकि सबीज है, फिर भी इसमें निर्विचार का मोल है। इसमें विचारों की लहरों से चित्त मुक्त होता है। बुद्धि के भ्रम दूर होते हैं। कर्म- क्लेश भी शिथिल होते हैं। इसकी प्रगाढ़ता में चित्त स्वच्छ हो जाता है, दर्पण की भाँति। और तब इसमें झलक उठती है- आत्मा की छवि। यही तो अध्यात्म का प्रसाद है। इस सूत्र का सार कहें या फिर योग के सभी सूत्रों का सार- महर्षि पतंजलि के प्रतिपादन की मुख्य विषय वस्तु चित्त है। चित्त की अवस्थाएँ, इसमें आने वाले उतार- चढ़ाव, इसमें जमा होने वाले कर्मबीज, इन्हीं की तो शुद्धि करनी है। व्यवहार के रूपान्तरण, परिवर्तन से करें या फिर ध्यान की तल्लीनता से कार्य एक ही है- चित्त का शोधन। इसकी अशुद्धि के यूँ तो कई रूप है, पर मूल रूप एक ही है- संस्कार बीज। इन्हीं को चित्त की गहराई में जाकर खोजना है, खोदना है, बाहर निकालना है, जलाना है और अन्ततोगत्वा इन्हें सम्पूर्णतया समाप्त करके चित्त को शुद्ध करना है। चित्त के संस्कार अदृश्य होने पर भी बड़े बलशाली होते हैं। यूँ समझो यदि इन संस्कारों का रूप शुभ नहीं है, यदि ये अशुभ है या अन्य शब्दों में कुसंस्कार है, तो इनकी प्रक्रिया व प्रतिक्रिया जीवन में बड़े दारुण दुष्परिणाम पैदा करती है। इस प्रक्रिया के तहत ये कुसंस्कार अपने पहले चरण में चित्त के गहरे से ऊपर आकर कुप्रवृत्तियों के रूप में समस्त मनोभूमि में छा जाते हैं। यह सब निश्चित समय अथवा जीवन का निश्चित मौसम आने पर ही होता है। मनोभूमि में उदय हुई इन कुप्रवृत्तियों की सघनता अपने अनुरूप कुपरिस्थितियों को रचती है। और तब एक सुनिश्चित घड़ी में होता है—कुप्रवृत्तियों एवं कुपरिस्थितियों का मेल। और तब शुरू होता है-कुकर्मो का सिलसिला, जो एक बाढ़ की तरह पूरी जीवन चेतना को डूबा देता है। इसके बाद जीवन की कुसंगति का दण्ड विधान क्रियाशील होता है। इस प्रक्रिया की उलट स्थिति सुसंस्कारों की है। जो आन्तरिक रूप से सत्प्रवृत्तियों एवं बाहरी तौर पर सत्परिस्थितियों के रूप में प्रकट होती है। इसके बाद प्रारम्भ होते हैं-सत्कर्म और जीवन चल पड़ता है- सदगति के राह पर। महर्षि पतंजलि कहते हैं कि आध्यात्मिक जीवन के लिए चित्त के संस्कारों से मुक्त होना ही चाहिए। इस शुद्धिकरण के लिए भी एक प्रक्रिया है और वह प्रक्रिया पवित्र भाव, पवित्र विचार, पवित्र दृश्य अथवा पवित्र व्यक्तित्व के ध्यान की। अच्छा हो कि इसके लिए हम अपने सद्गुरु का चयन करें। गुरुदेव की छवि को अपने हृदय में प्रतिष्ठित कर उन्हें अपनी भावनाओं का, विचारों का अर्घ्य चढ़ाएँ। गुरुचरणों पर अर्पित करने के लिए आन्तरिक रूप से भाव- विचार एवं बाहरी तौर पर सभी कर्म- यही गुरु अर्चना एवं ध्यान निष्ठा का सर्वोत्तम रूप है। जब हमारे विचार का प्रत्येक स्पन्दन, भाव की प्रत्येक लहर गुरुदेव को अर्पित होगी, तो चित्त की वृत्तियाँ न केवल क्षीण होगी; बल्कि वे रूपान्तरित भी होंगी और शनैः शनैः चित्त निरुद्ध अवस्था की ओर आगे बढ़ता है। इस निरुद्ध अवस्था की अग्रगमन के क्रम में चित्त को निर्विचार अवस्था प्राप्त होती है, जबकि चित्त में किसी भी तरह की कोई लहर नहीं उठती। ऐसे में होती है, तो केवल शून्यता एवं स्वच्छता। विचारों के सभी स्पन्दनों से रहित यह अवस्था परम निर्मल आध्यात्मिक ज्ञान को देने वाली है। इस अवस्था को पाने के लिए क्या साधना हो? इस सवाल के उत्तर में एक बड़ी मार्मिक अनुभूति हो रही है। आज से सोलह- सत्रह साल पहले जबकि गुरुदेव अपनी स्थूल देह में थे। उनके तप एवं ज्ञान की आभा उनकी वाणी एवं कार्यों से विकरित होती रहती थी। उनसे मिलने, उनके पास रहने वाले शिष्यों- स्वजनों में बड़ा ही मधुर एवं प्रगाढ़ आकर्षण था उनके प्रति। उन्हें लेकर जब तब चित्त चिन्ताकुल भी होता था। गुरुदेव के स्थूल रूप में न रहने पर क्या होगा, कैसे होगा? शिष्य के मन में उफनते ये प्रश्र उन अन्तर्यामी सद्गुरु से छुपे न रहे। एक दिवस मध्याह्न में उन्होंने शिष्य की इस चिन्ता को भाँप लिया और लगभग हँसते हुए बोले- पहली बात तो यह जान ले बेटा! कि मैं देह नहीं हूँ। यह सच है कि देह अभी है, अभी नहीं रहेगी। अभी तू देह की उपस्थिति के साथ जीता है, फिर तुम्हें देह की अनुपस्थिति के साथ जीना पड़ेगा। उक्त शिष्य ने बड़े सहमते मन से कहा- हे गुरुदेव आपकी यह उपस्थिति ही तो मेरे ध्यान का विषय है। गुरुदेव बोले, हाँ सो तो ठीक है। अभी मेरी उपस्थिति तुम्हारे ध्यान का विषय है। बाद में जब न रहूँ, तो मेरी अनुपस्थिति को अपने ध्यान का विषय बनाना। गुरुदेव का यह कथन सुनने वाले शिष्य की चेतना में व्यापक गया। गुरुदेव का भाव नहीं, विचार नहीं, छवि नहीं, वरन् उनकी अनुपस्थित ही ध्यान का विषय। शिष्य के चिन्तन की इस कड़ियों को जोड़ते हुए वे कह रहे थे- मेरी अनुपस्थिति का ध्यान तुम्हें अध्यात्म का प्रसाद देगा। और सचमुच ही- अनुपस्थिति के इस ध्यान से निर्विकार की स्वाभाविक दशा मिलती है और तब अध्यात्म प्रसाद में कोई सन्देह नहीं रहता है। यह प्रसाद साधक में निर्मल बुद्धि का अवदान भरता है।
... SHIVOHAM....