क्या है महान दार्शनिक आदि शंकराचार्य द्वारा रचित निर्वाण षट्कम / आत्म षट्कम का मूल भाव?
आदि गुरु शंकराचार्य ;-
03 FACTS;-
1-आदि शंकराचार्य भारत के एक महान दार्शनिक,एक महान बौद्धिक हस्ती , भाषाओं के महारथी, धर्मप्रवर्तक और सबसे बड़ी बात कि एक आध्यात्मिक प्रकाश पुंज व भारत का गौरव हैं।बेहद कम उम्र में उन्होंने ज्ञान और विवेक का जो स्तर दिखाया था, उसने उन्हें मानवता के लिए एक चमकती ज्योति बना दिया।उन्होने अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान किया। उन्होने सनातन धर्म की विविध विचारधाराओं का एकीकरण किया। उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई इनकी टीकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने भारतवर्ष में चार मठों की स्थापना की थी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिन पर आसीन संन्यासी 'शंकराचार्य' कहे जाते हैं। वे चारों स्थान ये हैं-
(1) ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, (2) श्रृंगेरी पीठ, (3) द्वारिका शारदा पीठ और (4) पुरी गोवर्धन पीठ। इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दीक्षित किया था।
2-इन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है।उनके विचारोपदेश
आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है।
3-इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारतवर्ष में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया।आज के दौर में
एक पहलू बहुत महत्वपूर्ण है कि यह सारी प्रज्ञा, सारा ज्ञान किसी मत या विश्वास के चलते नहीं आया है, बल्कि यह आत्म-ज्ञान से आया है। जब तक कि आध्यात्मिक प्रक्रिया किसी न किसी रूप में बुनियादी मानव तर्क व मौजूदा विज्ञान की खोज से जुड़ी नहीं होगी, लोग उसे स्वीकार नहीं करेंगे। आने वाली पीढ़ी ऐसी सभी चीजों को नकार देगी, जो उनकी तार्किकता पर खरी नहीं उतरेगी या उन्हें तार्किक रूप से ठीक नहीं लगेगी और जो वैज्ञानिक रूप से ठीक नहीं होगी।
आदि शंकराचार्य ने ब्रह्माण्ड को ''माया'' कहा... ''क्यों''?-
04 FACTS;-
1-आदि शंकराचार्य ने ब्रह्माण्ड को माया कहा , उसे लेकर कुछ
गलतफहमी है। इसे गलत तरीके से परिभाषित किया गया या समझा गया है कि माया का मतलब जिसका अस्तित्व ही नहीं है। माया का मतलब यह नहीं है कि इसका अस्तित्व ही नहीं है। माया का मतबल एक भ्रम है, यानी जैसी कोई चीज वास्तव में है, उसे आप वैसा नहीं देख रहे हैं।
2-आप यहां पर ठोस शरीर के तौर पर दिखाई देते हैं, लेकिन जो भोजन आप खाते हैं, जो पानी आप पीते हैं, जो हवा आप सांस के रूप में लेते हैं, उनसे आपके शरीर की कोशिकाएं अदल बदल रही हैं। आपके ऊतक व शरीर के अंग,कोशिकाओं की प्रकृति के आधार पर कुछ दिनों से लेकर कुछ सालों के भीतर पूरी तरह से बदल कर पुनर्जीवित हो जाते हैं। इसका मतलब हुआ कि कुछ समय बाद आप पूरी तरह से एक नया शरीर होते हैं। लेकिन अपने अनुभव में आपको ऐसा लगता है कि यह वही शरीर है, यही
माया है।पांच इन्द्रियों की सूचना भ्रमित करती है
3-इसी तरह से आप जिस तरह से इस अस्तित्व या सृष्टि को देखते हैं, आप अपनी पांच ज्ञानेंद्रियों द्वारा इस सृष्टि को समझते व महसूस करते हैं, वह सब पूरी तरह से वास्तविकता से दूर है, यह भ्रम या माया है। यह एक तरह की मृगतृष्णा या मरीचिका है। अगर आप हाइवे पर चले जा रहे हैं तो कभी-कभी काफी दूर पर आपको पानी सा कुछ दिखाई देता है। लेकिन जब आप वहां पहुंचते हैं तो आपको वहां पानी बिलकुल नहीं मिलता। इसका यह मतलब नहीं था कि वहां कुछ नहीं था। वहां प्रकाश का कुछ ऐसा परावर्तन हुआ कि जिसने वहां दूर से पानी होने का भ्रम पैदा कर दिया। जो एक चीज थी, वह दूसरे होने का भ्रम पैदा कर रही थी।
4-आप जिसे ‘मैं’ समझ रहे हैं, वास्तव में वह सबकुछ है, यही माया है।
आप जिसे दूसरा समझ रहे हैं, वही वास्तव में आप हैं। आप जिसे सब कुछ समझ रहे हैं, वह शून्य भी है। तो शंकराचार्य इस ''माया'' की बात कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि इस मानव सिस्टम को जानकर इंसान पूरे ब्रम्हांड को जान सकता है। आधुनिक भौतिक शास्त्र भी आपसे यही कह रहा है कि पूरा ब्रम्हांड बुनियादी तौर पर एक ही ऊर्जा है। इसी तरह से शंकराचार्य ने कहा कि सृष्टि और उसका रचयिता एक ही हैं। आज काफी कोशिशों के बाद आधुनिक विज्ञान भी उसी नतीजे पर पहुंचा है, जिसके बारे में शंकराचार्य और तमाम ऋषियों ने हजारों साल पहले पूरी स्पष्टता के साथ कह दिया था।
आदि गुरु शंकराचार्य का जीवनचरित;-
14 FACTS;-
1-शंकर आचार्य का जन्म 788 ई. केरल में कालड़ीपी अथवा 'काषल' नामक ग्राम में हुआ था। कालड़ी का शाब्दिक होता है- ‘पैरों के नीचे या पैरों तले’।हमने हमेशा सीखा है कि दैवीयता के चरणों में कैसे रहा जाए। यह संस्कृति आडंबर या दिखावे की नहीं, बल्कि स्वाभाविक भक्ति की है। चाहे वो भगवान हों, स्त्री हो, पुरुष हो, बच्चा हो, जानवर हो, पेड़ हो या फिर एक पत्थर हो, हमने हर चीज के सामने नमन करना सीखा है।हजारों साल पहले, शंकराचार्य से भी पहले, आदियोगी से लेकर तमाम योगियों, रहस्यदर्शियों, दिव्यात्माओं, साधु व संतों ने यह बात कई तरह से कही है।इनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम सुभद्रा था। बहुत दिन तक सपत्नीक शिव को आराधना करने के अनंतर शिवगुरु ने पुत्र-रत्न पाया था, अत: उसका नाम शंकर रखा। जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड पंडित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था।
2-इनके संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है।कहते हैं, माता एकमात्र
पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं देती थीं। तब एक दिन नदीकिनारे एक मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर पकड़ लिया तब इस वक्त का फायदा उठाते शंकराचार्यजी ने अपने माँ से कहा " माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नही तो हे मगरमच्छ मुझे खा जायेगी ", इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की ; और आश्चर्य की बात है की, जैसे ही माता ने आज्ञा दी वैसे तुरन्त मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर छोड़ दिया। और इन्होंने गोविन्द स्वामी से संन्यास ग्रहण किया।
3-पहले ये कुछ दिनों तक काशी में रहे, और तब इन्होंने विजिलबिंदु के तालवन में मण्डन मिश्र को सपत्नीक शास्त्रार्थ में परास्त किया। इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया।आदि शंकराचार्य वेदों के परम विद्वान थे, प्रखर भविष्यदृष्टा थे।
4-आदि शंकराचार्य ने अल्पायु में ही अपने अलौकिक वैदिक ज्ञान और वेदान्त दर्शन से बौद्ध, मीमांसा, सांख्य और चार्वाक अनुयायियों की वेद विरोधी भावनाओं को सफल नहीं होने दिया। आदि शंकराचार्य ने ज्ञान मार्ग के द्वारा ही न केवल बौद्ध धर्म और अन्य संप्रदायों के विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर वेद धर्म का मान बढ़ाया बल्कि उन धर्म और संप्रदायों के अनुयायियों ने भी वैदिक दर्शन को स्वीकार कर लिया।
5-ऐसा कर उन्होंने हिन्दू धर्म का पुर्नजागरण के साथ ही सनातन धर्म और वेदों को फिर से स्थापित और प्रतिष्ठित करने में अहम योगदान दिया। यही कारण है शंकराचार्य प्राचीन अद्वैतमत के प्रवर्तक कहलाए और उनके वैदिक दर्शन और अद्वैत मत शाङ्कर दर्शन या शाङ्कर मत कहलाया।आदि शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन के अनुसार ब्रह्म और जीव या आत्त्मा और परमात्मा एकरुप हैं। किंतु ज्ञान के अभाव में ही दोनों अलग-अलग दिखाई देते हैं।
6-आदि शंकराचार्य ने परमात्मा के साकार और निराकार दोनों ही रुपों को मान्यता दी। उन्होनें सगुण धारा की मूर्तिपूजा और निरगुण धारा के ईश्वर दर्शन की अपने ज्ञान और तर्क
के माध्यम से सार्थकता सिद्ध की। इसी उद्देश्य से उन्होंने देश की चारों दिशाओं में चार धाम, चार पीठ, बारह ज्योर्तिंलिंगों और अखाड़ों की स्थापना की। इनके व्यापक प्रभाव से बाद में अनेक संप्रदाय और पंथ स्थापित हुए। उनके द्वारा इन सब देवस्थानों और धर्म पीठों के स्थानों का चयन उनकी अद्भूत दूरदर्शिता का प्रमाण है। जहां बद्रीनाथ धाम और केदारनाथ ज्योर्तिंलिंग हिमालय पर्वत की श्रृंखलाओं में हैं, वहीं शेष सागर के तटों पर अन्य तीन दिशाओं में हैं। इस प्रकार आदि शंकराचार्य ने पूरे देश को सदियों पूर्व ही एक धर्म सूत्र में बांध दिया था, जो आज भी कायम है।
9-आदि शंकराचार्य की विद्वानता के कारण ही कहा जाता है कि उनकी जीभ पर माता सरस्वती का वास था। यही कारण है कि अपने 32 वर्ष के संपूर्ण जीवनकाल में ही आदि शंकराचार्य ने अनेक महान धर्म ग्रंथ रच दिये। जो उनकी अलौकिक प्रतिभा को साबित करते हैं।12 वर्ष की उम्र में हिन्दू धर्म शास्त्रों की गूढ़ता में दक्ष बने और 16 वर्ष की अल्पायु में ब्रह्मसूत्र पर भाष्य रच दिया।
10-काशी में मिला ज्ञान...अद्वैत वेदांत के प्रणोता आद्य शंकराचार्य ने दुनिया को ज्ञान दिया, इसकी अजस्त्र धारा उनमें देवाधिदेव की नगरी काशी में ही फूटी। इसका बड़ा स्रोत बनीं महामाया लीला जिन्होंने सत्य से उनका साक्षात्कार कराया। अद्वैत ब्रह्मवादी आचार्य शंकर केवल निर्विशेष ब्रह्म को सत्य मानते थे। ब्रह्म मुहूर्त में शिष्यों संग स्नान के लिए मणिकर्णिका घाट जाते आचार्य का राह में बैठी विलाप करती युवती से सामना हुआ। युवती मृत पति का सिर गोद में लिए बैठी करुण क्रंदन कर रही थी।
10-1-शिष्यों ने उससे शव हटाकर आचार्य शंकर को रास्ता देने का आग्रह किया। दुखित युवती के अनसुना करने पर आचार्य ने खुद विनम्र अनुरोध किया। इस पर युवती के शब्द थे कि 'हे संन्यासी, आप मुझसे बार-बार शव हटाने को कह रहे हैं। इसकी बजाय आप इस शव को ही हट जाने के लिए क्यों नहीं कहते।' आचार्य ने दुखी युवती की पीड़ा को महसूस करते हुए कहा कि देवी! आप शोक में शायद यह भी भूल गई हैं कि शव में स्वयं हटने की शक्ति नहीं होती। स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया- महात्मन् आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता।
11-एक सामान्य महिला के ऐसे गंभीर, ज्ञानमय व रहस्यपूर्ण शब्द सुनकर आचार्य वहीं बैठ गए। समाधि लग गई और अंत:चक्षु में उन्होंने देखा कि सर्वत्र आद्याशक्ति महामाया लीला विलाप कर रही हैं। उनका हृदय अविवर्चनीय आनंद से भर गया। मुख से मातृ वंदना की शब्द धारा फूट चली। इसके साथ आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए जिसमें अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टा द्वैतवाद, निगरुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण साकार भक्ति धाराएं एक साथ हिलोरें लेने लगीं।
12-उन्होंने यह भी अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है वही द्वैत भूमि पर सगुण साकार रूप हैं। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुंचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन धरती पर उन्होंने यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है।
13-एक तरफ वेदों में आस्था रखने वाले वेदों के समग्र ज्ञान से अनभिज्ञ होने के कारण कर्मकांड को ही मोक्ष प्रतिपादक भाग समझ बैठे थे, तो दूसरी तरफ कर्मकांड का उचित स्थान तथा प्रयोजन न जानने के कारण एवं कर्मकांड से प्रचलित कुछ कुरीितयों के कारण बौद्धों ने प्रतिक्रिया स्वरूप वेदों का ही खंडन करना प्रारंभ कर दिया था। ये दोनों अतियाँ त्याज्य थी,जिन्हें भगवत्पाद ने अपने दिव्य ज्ञान के प्रकाश से इन्हें दूर कर वेदोक्त दिव्य ज्ञान की सुगंध पूरे देश में फैला दी थी।
14-आचार्य का संदेश...प्रत्येक मनुष्य का यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह शाश्वत,दिव्य, कालातीत सत्ता को अपनीआत्मा की तरह से जानकर मोक्षानंद का पान करें। इस अन्तः जागृति के लिए केवल ज्ञान मात्र की अपेक्षा होती है, लेकिन ईश्वर से ऐक्य का ज्ञान तभी संभव होता है जब ईश्वर के प्रति प्रगाढभक्ति-भाव विद्यमान हो। ऐसी भक्ति एकदेशीय न होकर सार्वकालिक होनी चाहिए, अतः भक्त के प्रत्येक कर्म उत्साह से युक्त, निष्काम एवं सुंदर होने अवश्यंभावी है। इस तरह से समस्त ज्ञान, भक्ति एवं कर्म प्रधान साधनाओं का सुंदर समन्वय हो जाता है। जो भी मनुष्य ऐसी दृष्टि का आश्रय लेता है वह अपने धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष रूपी समस्त पुरुषार्थो की सिद्धि कर परम कल्याण को प्राप्त होता है।आचार्य
32 वर्ष की अल्प आयु में सन् 539 ईसा पूर्व में केदारनाथ के समीप स्वर्गवासी हुए थे।
निर्वाण षट्कम:-
03 FACTS;-
1-हजारों साल पहले आदि शंकर द्वारा रचित निर्वाण षट्कम आज भी श्रोताओं को मुग्ध करता है। यह हमें राग व रंगों से परे के आयाम में ले जाता है...निर्वाण षट्कम का मूल भाव वैराग्य है। इस मंत्र को ब्रह्मचर्य मार्ग का समानार्थी माना जाता है। इसकी ध्वनि हमारे अंतरतम की गहराइयों में हलचल पैदा कर देती है।निर्वाण का अर्थ है “निराकार”।
2-आदि गुरु शंकराचार्य बाल्यावस्था में अपनी माँ से सन्यास की अनुमति ले कर सतगुरु की खोज में निकले। सतगुरु की खोज में भटकते हुए वे नर्मदा नदी के तट पर पहुँचे। उस समय नर्मदा में बाढ़ आई हुई थी, नदी उफान पर थी और बालक शंकर को नदी पार करनी थी। बालक ने अपने कमंडल को आगे किया और आश्चर्यजनक रूप से बाढ़ का सारा पानी कमंडल में समा गया। नदी पार कर बालक ने कमंडल का सारा पानी पुनः नर्मदा में डाल दिया, नदी फिर से उफनने लगी। पास ही बैठे एक ऋषि गोविन्द भगवत्पाद यह लीला कौतुकवश देख रहे थे। उन्होंने बालक से पूछा “बालक, तुम कौन हो ?” इसका उत्तर बालक ने पद्य में दिया। 3-छः श्लोकों वाले इस पद्य को ही निर्वाण-षट्कम अथवा आत्म -षट्कम के नाम से जाना जाता है। अद्वैत वेदांत के सिद्धांत का मजबूती से प्रचार करनेवाले शंकर के इन छः श्लोकों में इसी सिद्धांत की झलक मिलती है। बालक का उत्तर सुनते ही ऋषि ने समझ लिया कि ज्ञान ग्रहण के लिए यह बालक उपयुक्त है और उसे अपना शिष्य स्वीकार कर लिया।
निर्वाण षट्कम निम्नलिखित है :–
निर्वाण षट्कम निम्नलिखित है :–
मनो बुद्धि -अहंकार-चित्तानि नाहम् न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे न च व्योम भूमिर् न तेजॊ न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्॥..1 न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु: न वा सप्त-धातुर् न वा पञ्चकोश: न वाक्पाणि-पादौ न चोपस्थ-पायू चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्॥..2 न मे द्वेष रागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्य भाव: न धर्मो न चार्थो न कामो ना मोक्ष: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम्॥..3 न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खम् न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा: न यज्ञा: अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥..4 न मृत्युर् न शंका न मे जाति-भेद: पिता नैव मे नैव माता न जन्म न बन्धुर् न मित्रं गुरु-र्नैव शिष्य: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥ ..5 अहं निर्विकल्पॊ निराकार रूपॊ विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् न चा संगतं नैव मुक्तिर् न मेय: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥ ..6
शिवोऽहं शिवोऽहम् शिवा स्वरूपम् शिवोऽहं शिवोऽहम् शिवा स्वरूपम् नित्योऽहं …… शुद्धोऽहं ………… बुद्धोऽहं ……… मुक्तोऽहम् !! शिवोहं शिवोहं, शिवोहं शिवोहं, शिवोहं शिवोहं
परमात्मा शिव ही सवर्त्र विद्यमान हैं, इसका सार यही है। निर्वाण षट्कम का शाब्दिक अर्थ इस प्रकार है,
1-न तो मैं मन हूँ न बुद्धि, न अहंकार, न चित्त हूँ और न ही कान हूँ न जीभ, न नाक और न आँख हूँ। मैं आकाश, भूमि, अग्नि और वायु भी नहीं हूँ। मैं चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ।
2- न तो मैं प्राण हूँ न पञ्च-वायु, न सप्त-धातु और न पञ्च – कोष हूँ। मैं वाणी, हाथ, पाँव और निकास भी नहीं हूँ। मैं चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ।
3- न तो मैं द्वेष हूँ न राग, न लोभ, न मोह हूँ। न घमंड हूँ, न मात्सर्यभाव हूँ। मैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष भी नहीं हूँ। मैं चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ।
4-न तो मैं पुण्य हूँ न पाप हूँ, न सुख -भाव हूँ, न दुःख-भाव हूँ और मैं न मन्त्र हूँ न तीर्थ हूँ, न वेद हूँ न ही यज्ञ हूँ। मैं भोजन, भोग की वस्तु और न ही उपभोग करनेवाला हूँ। मैं चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ।
5-न तो मैं मृत्यु से प्रभावित हूँ न डर से, न मैं जाति में बांटा जा सकता हूँ न मुझमे भेद किया जा सकता है। मेरा कोई बंधु नहीं, न मित्र, न गुरु और न शिष्य है। मैं चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ।
6-मैं निर्विकल्प, निरारकाररूप, स्वचालित, सर्वत्र एवं सभी इन्द्रियों में विद्यमान हूँ। न मैं किसी से बंधा हूँ और न मुक्त हूँ। मैं तो चिदानंद स्वरुप शिव हूँ, शिव हूँ।
NOTE;-
आदिगुरु शंकराचार्य के द्वारा बाल्य्काल में रचित यह “निर्वाण षट्कम” / “आत्म षट्कम” गूढ़ भी है सरल भी। व्यक्ति यदि इसका सदैव मनन चिन्तन करे तो आध्यात्मिक पथ पर निश्चित रूप से अग्रसर होगा।
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