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क्या हैं सातों लोकों में निवास करने वाली चेतना और आत्मा की सात अवस्थाएं? क्या है माण्डूक्योपनिषद के


चेतना का क्या अर्थ है?-

08 FACTS;-

1-चेतना कुछ जीवधारियों में स्वयं के और अपने आसपास के वातावरण के तत्वों का बोध होने, उन्हें समझने तथा उनकी बातों का मूल्यांकन करने की शक्ति का नाम है। विज्ञान के अनुसार चेतना वह अनुभूति है जो मस्तिष्क में पहुँचनेवाले आवेगों से उत्पन्न होती है। इन आवेगों का अर्थ तुरंत अथवा बाद में लगाया जाता है।

2-मनोविज्ञान की दृष्टि से चेतना मानव में उपस्थित वह तत्व है जिसके कारण उसे सभी प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं। चेतना के कारण ही हम देखते, सुनते, समझते और अनेक विषय पर चिंतन करते हैं। इसी के कारण हमें सुख-दु:ख की अनुभूति भी होती है और हम इसी के कारण अनेक प्रकार के निश्चय करते तथा अनेक पदार्थों की प्राप्ति के लिए चेष्टा करते हैं।

3-मानव चेतना की तीन विशेषताएँ हैं। वह ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक होती है। भारतीय दार्शनिकों ने इसे सच्चिदानंद रूप कहा है। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों के विचारों से भी इसकी पुष्टि होती है। चेतना वह तत्व है जिसमें ज्ञान की, भाव की और व्यक्ति, अर्थात् क्रियाशीलता की अनुभूति है। चेतना को दर्शन में स्वयंप्रकाश तत्व माना गया है।

4-मनोविज्ञान अभी तक चेतना के स्वरूप में आगे नहीं बढ़ सका है। चेतना ही सभी पदार्थो को, जड़ चेतन, शरीर मन, निर्जीव जीवित, मस्तिष्क स्नायु आदि को बनाती है, उनका स्वरूप निरूपित करती है। फिर चेतना को इनके द्वारा समझाने की चेष्टा करना अविचार है। चेतना के विषय में भौतिक विज्ञान की विधियों से न तो सोचा जा सकता है और न उसके प्रदत्त इसके काम में आ सकते हैं।

5-आप जिसे चेतना कहते हैं, वह कोई कार्य, कोई विचार या गुण नहीं है -- यह तो सृष्टि का आधार है। अगर आप की चेतना बढ़ गयी है तो इसका अर्थ ये नहीं है कि आप सतर्क हो गये हैं। सतर्कता दिमाग का विषय है। चेतना दिमाग की नहीं होती, लेकिन अगर चेतना जागृत है तो मन स्पष्ट हो जाता है। यह आपके मन और शरीर के माध्यम से, आपकी हर एक कोशिका से, शक्तिशाली रूप से अभिव्यक्त होती है।चेतना का अर्थ यह नहीं है कि आप खुद के बारे में सचेत रहें। खुद के प्रति सचेत रहना एक बीमारी है, और अचेत होना मृत्यु। चेतन होने का मतलब ये है कि आप अपने मूल से जुड़े रहते हैं।

सातों लोकों में निवास करने वाली चेतना क्या है?-

04 FACTS;-

1-भारतीय तत्वदर्शियों और योगियों ने लोकों के अध्ययन के साथ-साथ उनमें पाये जाने वाले तत्वों और उनकी मानसिक संरचना का भी विस्तृत अध्ययन किया और जब उसे मनुष्य के मनोविज्ञान से मिलाया, तो उसमें अद्भुत सामंजस्य मिला। सातों लोकों में प्राप्त चेतना यद्यपि अपने मूल परिवेश में एक ही है तथापि उसके गुण और सामर्थ्य अलग-अलग क्रमशः ऊपर से नीचे की ओर विघटित या नीचे से ऊपर की ओर विकसित हैं।

2-विकसित अवस्था को जीव का लक्ष्य बताया, क्योंकि उससे आनन्द, सुख सौंदर्य, श्री और शाँति मिलती है, जबकि पतन की स्थिति में जीवात्मा अपनी सूक्ष्म शक्तियाँ साँप की केंचुल की तरह छोड़ती चली जाती हैं। निकृष्ट योनियों में पड़ने से वह दुख, कष्ट और क्लेशपूर्ण जीवन में ही फँसती चली जाती हैं। इसलिए शास्त्रकार सदैव ऊर्ध्व मुखी जीवन की प्रेरणा देते रहे और भोगवादी प्रवृत्तियों से सावधान करते रहे हैं।

3-सातों लोकों में निवास करने वाली चेतना का विस्तार जब परमात्मा से प्रकृति की ओर होता है तब प्रथम अवस्था बीज ..''जागृत'' कहलाती है। विज्ञान बताता है कि संसार स्थूल कुछ है ही नहीं। सब कुछ शक्तिमय, चिन्मय है। यह सारा संसार परमाणुओं से बना है और परमाणु अपने आप में कोई स्थूल पदार्थ न होकर धन विद्युत आवेश (प्रोटोन) ऋण विद्युत आवेश (इलेक्ट्रान) नाभिक (न्यूक्लियस) न्यूट्रॉन पाजिट्रान आदि शक्तियों की सम्मिलित इकाई है।

4-भारतीय योग ग्रन्थों में उसे ही -’या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता’ कहा है। अर्थात्- सृष्टि के परमाणुओं को पृथक नहीं किया जा सकता जबकि सभी में नाभिक, धन विद्युत, ऋण विद्युत आदि तो उन्हें भी अलग नहीं किया जा सकता। एक ही वस्तु में या विराट ब्रह्माँड में उन-उन सभी चेतनाओं के स्वरूप को अलग -अलग अनुभव भर किया जा सकता है।इन शक्तियों में जो मूल चेतना है वही 'खोज बीज' अर्थात्-जागृत अवस्था है। इस अवस्था में चेतना नितान्त शुद्ध निर्विकार और नाम आदि से मुक्त होती है। पर उसे भविष्य में नामों से पुकारा जा सकता है।

चेतना के स्तर;-

02 FACTS;- 1-मनोविज्ञान के अनुसार;-

चेतना के तीन स्तर माने गए हैं : चेतन, अवचेतन और अचेतन।जो अनुभूतियाँ एक बार चेतना में रहती हैं, वे ही कभी अवचेतन और अचेतन मन में चली जाती हैं। ये अनुभूतियाँ सर्वथा निष्क्रिय नहीं होतीं, वरन् मानव को अनजाने ही प्रभावित करती रहती हैं।

1-1-चेतन स्तर पर वे सभी बातें रहती हैं जिनके द्वारा हम सोचते समझते और कार्य करते हैं। चेतना में ही मनुष्य का अहंभाव रहता है और यहीं विचारों का संगठन होता है।

1-2-अवचेतन स्तर में वे बातें रहती हैं जिनका ज्ञान हमें तत्क्षण नहीं रहता, परंतु समय पर याद की जा सकती हैं।

1-3-अचेतन स्तर में वे बातें रहती हैं जो हम भूल चुके हैं और जो हमारे यत्न करने पर भी हमें याद नहीं आतीं और विशेष प्रक्रिया से जिन्हें याद कराया जाता है।

2-माण्डूक्योपनिषद के अनुसार...

संस्कृत भाषा में लिखित माण्डूक्योपनिषद अथर्ववेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। इसके रचियता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है। इसमें आत्मा या चेतना के चार अवस्थाओं का वर्णन मिलता है - जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय।इस उपनिषद् में ऊँ की मात्राओं की विलक्षण व्याख्या करके जीव और विश्व की ब्रह्म से उत्पत्ति और लय एवं तीनों का तादात्म्य अथवा अभेद प्रतिपादित हुआ है। इसके अलावा वैश्वानर शब्द का विवरण मिलता है जो अन्य ग्रंथों में भी प्रयुक्त है।

2-1-इस उपनिषद में कहा गया है कि विश्व में एवं भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालों में तथा इनके परे भी जो नित्य तत्व सर्वत्र व्याप्त है वह ॐ है। यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म है।आत्मा चतुष्पाद है अर्थात उसकी अभिव्यक्ति की चार अवस्थाएँ हैं..

1-जाग्रत अर्थात् वैश्वानर

2-स्वप्न अर्थात् तैजस

3-सुषुप्ति अर्थात् प्राज्ञ

4-तुरीय अर्थात् त्रिकालतीत

क्या ऊँकार की तरह वाणी के भी चार स्वरुप हैं ?-

06 FACTS;-

1-शास्त्र मे वाणी के चार स्वरुप गिनाए गये हैं-

1-1-परावाणी(तुरीयरूपा)

1-2-पश्यन्ती

1-3-मध्यमा

1-4-वैखरी

2-इसके स्थान क्रमशः निर्धारित हैं-नाभि, हृदय, कण्ठ और मुख के बाहर का अविच्छिन्न

आकाश।इनमें से तीन भेद बुद्धिरूपी गुफा में ही विद्यमान हैं और इनमें किसी भी प्रकार की स्थूलरूप शारीरिक चेष्टा नहीं होती है अतः ये तीनों सुनने योग्य नहीं होती है । केवल चतुर्थ वैखरी वाणी को ही मनुष्य लोग अपने व्यवहार में प्रयोग कर पाते हैं अथवा उच्चारण के पश्चात् सुन पाते हैं ।

3-परावाणी का क्या अर्थ है?-

परा वाणी शुद्ध ज्ञानरूप है और सर्वत्र व्यापक रहने वाली है । यह शान्त समुद्र के तुल्य निश्चल और निष्क्रिय है।यह अक्षय है, विनाशरहित है । इस अवस्था में यह अपने शुद्ध शब्दब्रह्म के रूप में विद्यमान रहती है । यह वाणी की अव्यक्त एवं सूक्ष्मतम अवस्था मानी जाती है ।योगी ही इसके शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार कर पाते हैं ।इस प्रकार से परावाणी का अर्थ ये है कि जब परमात्मा को कुछ कहना होता है तो वे परावाणी में कहते हैं जिसे आप सुन नही सकते।

4-पश्यन्ति वाणी का क्या अर्थ है?-:-

जब किसी विचार या भाव को प्रकट करने की इच्छा होती है, तब पश्यन्ति वाणी का कार्य प्रारम्भ होता है । शान्त समुद्र में छोटी तरंग के समान विचाररूपी तरंग वाक् तत्व में प्रकट होते हैं । इन विचारों को व्यक्त करने की भावना का उदय होना और शान्त समुद्र में थोड़ी हलचल का होना, तरंगे उठना और विचारों की अभिव्यक्ति की प्रक्रिया का प्रारम्भ होना पश्यन्ति अवस्था है । यह द्वितीय अवस्था है जो कि मस्तिष्क तक सीमित है, अतः अव्यक्त है । योगी ही विचारों के उदय होने की प्रक्रिया को देख सकते हैं ।

5-मध्यमा वाणी का क्या अर्थ है?- :-

यह तृतीय अवस्था है । इसमें शरीर यंत्र में हलचल प्रारंभ हो जाती है । नाभि से प्राणशक्ति ऊपर उठती है और सर से टकराकर स्वरयंत्र तक मुख में पहुँच जाती है । केवल वर्णों के उच्चारण का कार्य ही शेष रह जाता है । यह उच्चारण से पूर्व की अवस्था है, अतः इसे मध्यमा या मध्यगत वाणी कहते हैं ।

6-वैखरी वाणी का क्या अर्थ है?- :-

यह वाणी की चतुर्थ अवस्था है । इसमें वर्णों का कंठ, तालु आदि स्थानों से उच्चारण प्रारंभ हो जाता है । अब विचार या भाव अव्यक्त या गुप्त न रहकर प्रकट हो जाते हैं । यह वैखरी वाणी ही जन साधारण के व्यवहार में आती है ।

NOTE;-

1-इस विवेचना से ऐसा लगता है कि-नाभि मे सुषुप्त अवस्था मे विद्यमान वाणी(परा) जब हृदय पर आता है तो अनहद बन जाता है और पश्यन्ति कहलाता है क्योंकि यह मात्र साक्षी रूप होता है।वाणी की , नाद की वह शक्ति साक्षी मात्र है और अनहद अवस्था है।और तब यह विशुद्धि स्तर पर आती है और मध्यमा कहलाती है। अभी भी यह मध्यम अवस्था में है, गले तक है परंतु जब यह मुँह तक आती है तब यह बैखरी बन जाती है अर्थात तब यह बोलती है । 2-जो साधक इन इन वाणी के अवस्थानों की अनुभूति किए रहते हैं, वे आवश्यकता के अनुरूप उसे वहीं कण्ठगत रख लेते हैं अथवा बहुत आवश्यक होने पर, बाहर आकाश गत अभिव्यक्त कर देते हैं।यही रहस्य है... मितभाषी होने का।योगप्रक्रिया मे साधक ,पूर्वतः मालादि साधनों ..और बाद मे उसे भी त्याग कर अपने मन्त्र देवता का मन मे ही स्मरण(जप)करते हैं।यह चित्त शुद्धि का प्राथमिक प्रयोग है।

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क्या हैं आत्मा की सामान्य तीन अवस्थाएं ?-

03 FACTS;-

1-वेद अनुसार जन्म और मृत्यु के बीच और फिर मृत्यु से जन्म के बीच तीन अवस्थाएं ऐसी हैं जो अनवरत और निरंतर चलती रहती हैं। वह तीन अवस्थाएं हैं : जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति। उक्त तीन अवस्थाओं से बाहर निकलने की विधि का नाम ही है हिन्दू धर्म।

2-यह क्रम इस प्रकार चलता है- जागा हुआ व्यक्ति जब पलंग पर सोता है तो पहले स्वप्निक अवस्था में चला जाता है फिर जब नींद गहरी होती है तो वह सुषुप्ति अवस्था में होता है। इसी के उल्टे क्रम में वह सवेरा होने पर पुन: जागृत हो जाता है। व्यक्ति एक ही समय में उक्त तीनों अवस्था में भी रहता है। कुछ लोग जागते हुए भी स्वप्न देख लेते हैं अर्थात वे गहरी कल्पना में चले जाते हैं। 3-जो व्यक्ति उक्त तीनों अवस्था से बाहर निकलकर खुद का अस्तित्व कायम कर लेता है वही मोक्ष के, मुक्ति के और ईश्वर के सच्चे मार्ग पर है। उक्त तीन अवस्था से क्रमश: बाहर निकला जाता है। इसके लिए निरंतर ध्यान करते हुए साक्षी भाव में रहना पड़ता है तब हासिल होती है : तुरीय अवस्था, तुरीयातीत अवस्था, भगवत चेतना और ‍ब्राह्मी चेतना।

आत्मा की सात अवस्थाएं;-

1. जागृत अवस्था :-

05 POINTS;-

1- ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है लेकिन अधिकतर लोग ठीक-ठीक वर्तमान में नहीं रहते।वे या तो भूत में होते है या भविष्य में।वास्तव में, जागते हुए

कल्पना और विचार में खोए रहना तो स्वप्न की अवस्था है।जब हम भविष्य की

कोई योजना बना रहे होते हैं, तो वर्तमान में न रहकर कल्पना-लोक में चले जाते हैं। कल्पना का यह लोक यथार्थ नहीं एक प्रकार का स्वप्न-लोक होता है। जब हम अतीत की किसी याद में खो जाते हैं, तो हम स्मृति-लोक में चले जाते हैं। यह भी एक-दूसरे प्रकार का स्वप्न-लोक ही है।

2-उदाहरण के लिए हमारा जब जन्म नहीं हुआ था, तब हम केवल चेतन रूप में थे। उसका कोई नाम नहीं था, पर जब शरीर से संयोग हुआ, तो लोगों की पहचान के लिए नाम रखा जाने लगा। इस अवस्था में ‘मैं हूँ’, ‘यह मेरा है’ आदि अनुभव होने लगते हैं। इस अवस्था को जागृत अवस्था कहते हैं। इस स्थिति में अपने पूर्व स्वरूप का कोई ज्ञान नहीं होता। मन्त्रों के द्वारा, पुनर्जन्म ,हवा भूतप्रेत और आत्मा के आह्वान आदि की, घटनाओं से मरणोत्तर जीवन की पुष्टि तो कर सकते हैं पर हमारी चेतना का मूल स्वरूप क्या है- यह एकाएक अनुभव नहीं कर सकते, जब तक कि तप और साधनाओं के द्वारा इन अवस्थाओं का विकास बीज जागृत अवस्था में न कर लें।

3-योग-वशिष्ठ के अनुसार ''जब कई जन्म हो चुकते हैं तो अहंभाव ( मेरे-तेरे का) स्वार्थ दृढ़ हो जाता है। यही महाजागृत अवस्था है।''इस अवस्था से छूटने के लिए वैराग्य और अहंकार भावना के परित्याग का अभ्यास करना पड़ता है। इस अवस्था में मनुष्य अपने अनादि जीवन का चिन्तन करें, तो भी वह मेरे-तेरे के भाव से छूट नहीं पाता। पर जब वह साँसारिक जीवन में इतना घुल जाता है कि उसे अनन्त जीवन का भान ही नहीं होता, तब वह जागृत स्वप्न अवस्था में होता है।

4-वास्तव में, हमारा जो जीवन चल रहा है, वह इतना दृढ़ हो गया है कि वह कल्पित नहीं, उसी प्रकार सत्य प्रतीत होने लगा है जैसे एक चन्द्रमा पानी में दो, सीप को चाँदी और रेगिस्तान को देखकर नदी का भ्रम होता है। इस अवस्था में जीव अपनी मृत्यु का भी ध्यान नहीं करता। उसे प्रकट ही सत्य भासता है, भले ही उसे कितना ही दुख क्यों न मिल रहा हो।

अधिकतर लोग स्वप्‍न लोक में जीकर ही मर जाते हैं, वे वर्तमान में अपने जीवन का सिर्फ 10 प्रतिशत ही जी पाते हैं, तो ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।

2. स्वप्न अवस्था :-

02 POINTS;-

1-जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था को स्वप्न अवस्था कहते हैं। निद्रा में डूब जाना अर्थात सुषुप्ति अवस्था कहलाती है। स्वप्न में व्यक्ति थोड़ा जागा और थोड़ा सोया रहता है। इसमें अस्पष्ट अनुभवों और भावों का घालमेल रहता है इसलिए व्यक्ति कब कैसे स्वप्न देख

ले कोई भरोसा नहीं।हमारे स्वप्न दिन भर के हमारे जीवन, विचार, भाव और सुख-दुख पर आधारित होते हैं। यह किसी भी तरह का संसार रच सकते हैं।

2-स्वप्न जाग्रत अवस्था के सम्बन्ध में योग-वसिष्ठ कहती है- अधिक समय तक जागृत अवस्था के स्थूल विषयों और इन्द्रिय सुखों का अनुभव नहीं होता। पर स्वप्न में ही अपने द्वारा किए जाने वाले क्रिया-कलाप महाजागृत अवस्था के से जान पड़ने लगते हैं। उस समय यह आवश्यक नहीं, कि यह स्थूल शरीर रहे ही अर्थात् मरणोपरान्त भी ऐसे अनुभव होते हैं। यह अवस्था स्वप्न जागृत कहलाती है।कुछ दिनों तक विविध साधनाएं और योगाभ्यास आदि करने से इस स्थिति का स्पष्ट आभास शरीर रहते हुए भी हो जाता है। इस अवस्था में साधक के अधिकाँश स्वप्न सच्चे भी होने लगते हैं।

3. सुषुप्ति अवस्था : -

04 POINTS;-

1-गहरी नींद को सु‍षुप्ति कहते हैं।अन्तिम अवस्था सुषुप्ति की है। यह जीव की सर्वथा जड़ स्थिति है। वह केवल वही कल्पनाएं करता है, जिसमें भविष्य में दुख ही दुख होता है। इस अवस्था में पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां सहित चेतना (हम स्वयं) विश्राम करते हैं। पांच ज्ञानेंद्रियां- चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण और त्वचा। पांच कर्मेंन्द्रियां- वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ और पायु।

2-सुषुप्ति की अवस्था चेतना की निष्क्रिय अवस्था है। यह अवस्था सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है। इस अवस्था में किसी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न क्रिया की संभावना। मृत्यु काल में अधिकतर लोग इससे और गहरी अवस्था में चले जाते हैं।

3-योग वसिष्ठ में लिखा है- ''संसार के मिट्टी, कंकड़, तृण, पत्थर आदि सभी पदार्थ इसी अवस्था में स्थित रहते हैं।'' अर्थात् इन सबमें भी चेतना तो होती है। इसलिए जो कुन्द बुद्धि लोग होते हैं, जिन्हें आत्मा और परमात्मा आदि सूक्ष्म सत्ताओं की ओर ध्यान ही नहीं जाता, प्रायः जड़ कहा जाता है।

4-यह अवस्था बीज जागृत अवस्था की ठीक उल्टी होती है। एक में.. सारा संसार चेतन ही चेतन होता है, दूसरे में जड़ ही जड़। जो जिस अवस्था में होता है- उसे वही सत्य दिखाई देता है। जब तक चेतना की धारा और दिशा एकाएक परिवर्तित न हो या परिवर्तित न की जाये।

4. तुरीय अवस्था :-

03 POINTS;-

1-चेतना की चौथी अवस्था को तुरीय चेतना कहते हैं। तुरीय का अर्थ संस्कृत में "तीन से परे" से है। यह अवस्था व्यक्ति के प्रयासों से प्राप्त होती है। चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है, न ही कोई रूप। यह निर्गुण है, निराकार है। इसमें न जागृति है, न स्वप्न और न सुषुप्ति। यह निर्विचार और अतीत व भविष्य की कल्पना से परे पूर्ण जागृति है।

2-तुरीय अवस्था .. उस साफ और शांत जल की तरह है जिसका तल दिखाई देता है यह पारदर्शी कांच या सिनेमा के सफेद पर्दे की तरह है जिसके ऊपर कुछ भी प्रोजेक्ट नहीं हो रहा।

जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि चेतनाएं तुरीय के पर्दे पर ही घटित होती हैं और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें हू-ब-हू हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है। यहीं से शुरू होती है आध्यात्मिक यात्रा, क्योंकि तुरीय के इस पार संसार के दुःख तो उस पार मोक्ष का आनंद होता है... बस, छलांग लगाने की जरूरत है।

3-यह समाधि की वह अवस्था है जिसको केवल सिद्ध योगी ही अनुभव कर पाते हैं ;क्योकि यह अवस्था परमात्मा के ज्ञान और आनन्द का अनुभव करवाती है l अद्वैत वेदान्त के अनुसार सर्वोच्च स्तर की समाधि की अवस्था मे जीवात्मा अपने वास्तविक रूप को पहचानता है,और समाधि की वह अवस्था 'तुरीय समाधि' की अवस्था ही है lसमाधि के भी बहुत से स्तर होते हैं और सबसे गहरा स्तर योग के अनुसार असम्प्रज्ञात समाधि होती है, जो की तीनो अवस्थाओं से परे.. हमे तुरीय अवस्था में अनुभव होती है lजव घटाकाश महाकाश में लीन होता है, जब बूँद वापिस सागर में मिल जाती है उसे समाधि का सबसे उंचा स्तर कहते हैंl

5. तुरीयातीत अवस्था :

02 POINTS;-

1-तुरीय अवस्था के पार पहला कदम तुरीयातीत अनुभव का। यह अवस्था तुरीय का अनुभव स्थाई हो जाने के बाद आती है। चेतना की इसी अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को योगी या योगस्थ कहा जाता है।

2-इस अवस्था में अधिष्ठित व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए भी थकता नहीं। इस अवस्था में काम और आराम एक ही बिंदु पर मिल जाते हैं। इस अवस्था को प्राप्त कर लिया, तो हो जाते हैं ..जीवन रहते ''जीवन-मुक्त''। इस अवस्था में व्यक्ति को स्थूल शरीर या इंद्रियों की आवश्यकता नहीं रहती। वह इनके बगैर भी सब कुछ कर सकता है। चेतना की तुरीयातीत अवस्था को ही सहज-समाधि भी कहते हैं।

6. भगवत चेतना :-

तुरीयातीत की अवस्था में रहते-रहते भगवत चेतना की अवस्था बिना किसी साधना के प्राप्त हो जाती है। इसके बाद का विकास सहज, स्वाभाविक और निस्प्रयास हो जाता है।

इस अवस्था में व्यक्ति से कुछ भी छुपा नहीं रहता और वह संपूर्ण जगत को भगवान की सत्ता मानने लगता है। यह एक महान सि‍द्ध योगी की अवस्था है।

7. ब्राह्मी चेतना :-

भगवत चेतना के बाद व्यक्ति में ब्राह्मी चेतना का उदय होता है अर्थात कमल का पूर्ण रूप से खिल जाना। भक्त और भगवान का भेद मिट जाना।'' अहम् ब्रह्मास्मि और तत्वमसि'' अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं और यह संपूर्ण जगत मुझे ब्रह्म ही नजर आता है।इस अवस्था

को ही योग में समाधि की अवस्था कहा गया है अर्थात जीते-जी मोक्ष।

क्या हैं माण्डूक्योपनिषद के अनुसार.. ऊँकार/आत्मा की चार अवस्थाएँ?-

02 FACTS;-

1-ऊँकार शब्दातीत है ;जिसका कभी क्षरण नहीं होता। ।तात्पर्य यह कि ऊँकार जगत् की

उत्पत्ति और लय का कारण है।माना जाता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डसे सदा ॐ की ध्वनी निसृत होती रहती है। हमारी और आपके हर श्वास से ॐ की ही ध्वनि निकलती है। यही हमारे-आपके श्वास की गति को नियंत्रित करता है।ॐ’ – यह अक्षर ही सर्व है । सब उसकी ही व्याख्या है । भूत, भविष्य, वर्तमान सब ओंकार ही हैं । तथा अन्य जो त्रिकालतीत है, वह भी

ओंकार ही है।यह सब कुछ ब्रह्म ही है और यह आत्मा भी ब्रह्म ही है । ऐसा यह आत्मा चार पादों वाला है।

2-ओउ्म तीन शब्द 'अ' 'उ' 'म' से मिलकर बना है जो त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा त्रिलोक भूर्भुव: स्व:(भूः :भूलोक,भुवः - अंतरिक्ष लोक,स्वः - स्वर्ग लोक) का प्रतीक है।

माना गया है कि अत्यन्त पवित्र और शक्तिशाली है ॐ। किसी भी मंत्र से पहले यदि ॐ जोड़ दिया जाए तो वह पूर्णतया शुद्ध और शक्ति-सम्पन्न हो जाता है। किसी देवी-देवता, ग्रह या ईश्वर के मंत्रों के पहले ॐ लगाना आवश्यक होता है, जैसे, विष्णु का मंत्र — ॐ विष्णवे नमः, शिव का मंत्र — ॐ नमः शिवाय, प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है कि ॐ से रहित कोई मंत्र फलदायी नहीं होता, चाहे उसका कितना भी जाप हो।

3-"ध्यान बिन्दुपनिषद्" के अनुसार ॐ मन्त्र की विशेषता यह है कि पवित्र या अपवित्र सभी स्थितियों में जो इसका जप करता है, उसे लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। जिस तरह कमल-पत्र पर जल नहीं ठहरता है, ठीक उसी तरह जप-कर्ता पर कोई कलुष नहीं लगता।मंत्र के रूप में मात्र ॐ भी पर्याप्त है। माना जाता है कि एक बार ॐ का जाप हज़ार बार किसी मंत्र के जाप से महत्वपूर्ण है। ॐ का दूसरा नाम प्रणव (परमेश्वर) है अर्थात् उस परमेश्वर का वाचक प्रणव है। इस तरह प्रणव अथवा ॐ एवं ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। ॐ अक्षर है इसका क्षरण अथवा विनाश नहीं होता।

4-मुण्डकोपनिषद् के अनुसार;-

'' प्रणव धनुष है, (सोपाधिक) आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। उसका सावधानी पूर्वक बेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए।।वह यह आत्मा ही अक्षर दृष्टि से ओंंकार है; वह मात्राओं का विषय करके स्थित है। पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है; वे मात्रा अकार, उकार और मकार हैं।"ॐ" ब्रह्माण्ड का नाद है एवं मनुष्य के अन्तर में स्थित ईश्वर का प्रतीक है।

5-ॐ अर्थात् ओउम् तीन अक्षरों से बना है, जो सर्व विदित है। ''अ उ म्''। "अ" का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न होना, "उ" का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास, "म" का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् "ब्रह्मलीन" हो जाना। ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है। ॐ में प्रयुक्त "अ" तो सृष्टि के जन्म की ओर इंगित करता है, वहीं "उ" उड़ने का अर्थ देता है, जिसका मतलब है "ऊर्जा" सम्पन्न होना। किसी ऊर्जावान मंदिर या तीर्थस्थल जाने पर वहाँ की अगाध ऊर्जा ग्रहण करने के बाद व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को आकाश में उड़ता हुआ देखता है। मौन का महत्व ज्ञानियों ने बताया ही है।श्री गीता जी में परमेश्वर श्रीकृष्ण ने मौन के महत्व को प्रतिपादित करते हुए स्वयं को मौन का ही पर्याय बताया है ।

6-ओंकार रूपी आत्मा का जो स्वरूप उसके चतुष्पाद की दृष्टि से निष्पन्न होता है ..उसे ही ऊँकार की मात्राओं के विचार से व्यक्त किया गया है।ऊँ की चार मात्रा है...

1-अकार

2-उकार

3-मकार

4-बिन्दु/ अर्धचंद्र /नाद,/ नादांत,/ व्यापिनी या महाशून्य,/ समना तथा उन्मना।

7-इस उपनिषद में कहा गया है कि विश्व में एवं भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालों में तथा इनके परे भी जो नित्य तत्व सर्वत्र व्याप्त है वह ॐ है। यह सब ब्रह्म है और यह आत्मा भी ब्रह्म है।आत्मा चतुष्पाद है अर्थात उसकी अभिव्यक्ति की चार अवस्थाएँ हैं..

1-जाग्रत ,वैश्वानर अथार्त अकार

2-स्वप्न ,तैजस अथार्त उकार

3-सुषुप्ति , प्राज्ञ अथार्त मकार

4-तुरीय ,त्रिकालतीत अथार्त अर्धचंद्र

ऊँकार/आत्मा की चार अवस्थाएँ;-

04 FACTS;- 1-अकार,जाग्रत और वैश्वानर;-

02 POINTS;-

1-ऊँ की अकार मात्रा से वाणी का आरंभ होता है और अकार वाणी में व्याप्त भी है।जाग्रत अवस्था की आत्मा को वैश्वानर कहते हैं, इसलिये कि इस रूप में सब नर एक योनि से दूसरी में जाते रहते हैं।

2- इस अवस्था का जीवात्मा बहिर्मुखी होकर "सप्तांगों" तथा इंद्रियादि 19 मुखों से स्थूल अर्थात् इंद्रियग्राह्य विषयों का रस लेता है। अत: वह बहिष्प्रज्ञ है। जाग्रत स्थान वाला वैश्वानर ही अकार है । सबमे व्याप्त और आदि होने के कारण ही प्रथम मात्रा है ।

2-उकार,स्वप्न और तैजस ;-

02 POINTS;-

1-दूसरी तेजस नामक स्वप्नावस्था है जिसमें जीव अंत:प्रज्ञ होकर जाग्रत अवस्था की अनुभूतियों का मन के स्फुरण द्वारा बुद्धि पर पड़े हुए विभिन्न संस्कारों का शरीर के भीतर भोग करता है।स्वप्न जिसका स्थान है, अन्दर की ओर जिसकी प्रज्ञा है, सात अंगों वाला, उन्नीस मुखों वाला, सूक्ष्म विषय का भोक्ता, तैजस ही दूसरा पाद है।

2-स्वप्न स्थान वाला तैजस ही उकार है। उत्कर्ष और उभयत्व के कारण ही द्वितीय मात्रा है।

3-मकार ,सुषुप्ति और प्राज्ञ;-

03 POINTS;-

1-सुषुप्ति स्थानीय प्राज्ञ ऊँ कार की मकार मात्रा है जिसमें विश्व और तेजस के प्राज्ञ में लय होने की तरह अकार और उकार का लय होता है।वास्तव में, ऊँ का उच्चारण दुहराते समय मकार के अकार -उकार निकलते से प्रतीत होते है। वैश्वानर, तेजस और प्राज्ञ अवस्थाओं के सदृश त्रैमात्रिक ओंकार प्रपंच तथा पुनर्जन्म से आबद्ध है।

2-सोया हुआ, जब किसी काम की कामना नहीं करता, न कोई स्वप्न देखता है, वह सुषुप्ति की अवस्था है । सुषुप्ति जिसका स्थान है, एकीभूत और प्रज्ञा से घनीभूत, आनन्दमय, चेतनारूपी मुख वाला, आनन्द का भोक्ता, प्राज्ञ ही तीसरा पाद है ॥सुषुप्ति स्थान वाला प्राज्ञ ही मकार है ।जाननेवाला और विलीन करने वाला होने के कारण ही तृतीय मात्रा है ।

3-तीसरी अवस्था सुषुप्ति अर्थात् प्रगाढ़ निद्रा का लय हो जाता है और जीवात्मा क स्थिति आनंदमय ज्ञान स्वरूप हो जाती है। इस कारण अवस्थिति में वह सर्वेश्वर, सर्वज्ञ और अंतर्यामी एवं समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और लय का कारण है।

4-बिन्दु,तुरीय और त्रिकालतीत;-

09 POINTS;-

1-चतुर्थ पाद में मात्रा नहीं है एवं वह व्यवहार से अतीत तथा प्रपंचशून्य अद्वैत है। इसका अभिप्राय यह है कि ओंकारात्मक शब्द ब्रह्म और उससे अतीत परब्रह्म दोनों ही अभिन्न तत्व हैं।तुरीय की तरह मात्र अव्यवहार्य आत्मा है जहाँ जीव, जगत् और आत्मा (ब्रह्म) के भेद का प्रपंच नहीं है और केवल अद्वैत शिव ही शिव रह जाता है।

2-जो न अन्दर की ओर प्रज्ञा वाला है, न बाहर की ओर प्रज्ञा वाला है, न दोनों ओर प्रज्ञा वाला है, न प्रज्ञा से घनीभूत ही है, न जानने वाला है, न नहीं जानने वाला है, न देखा जा सकता है, न व्यवहार में आ सकता है, न ग्रहण किया जा सकता है, लक्षणों से रहित है, न चिन्तन में आ सकता है, न उपदेश किया जा सकता है, एकमात्र आत्म की प्रतीति ही जिसका सार है, प्रपञ्च से रहित, शान्त, शिव, अद्वैत ही चौथा पाद कहा जाता है । वही आत्मा है, वही जाननेयोग्य है।

3-मात्रारहित ही वह चतुर्थ है । अव्यवहार्य, प्रपञ्चरहित, शिव, अद्वैत, ओंकाररूप वह आत्मा आत्मा के द्वारा आत्मा में ही प्रविष्ट होता है। ऐसा वह आत्मा अक्षरदृष्टि से,मात्राओं का

आश्रयरूप, ओंकार ही है । पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है, जो कि अकार, उकार और

मकार हैं।परंतु इन तीनों अवस्थाओं के परे आत्मा का चतुर्थ पाद अर्थात् तुरीय अवस्था ही उसक सच्चा और अंतिम स्वरूप है जिसमें वह शांत, शिव और अद्वैत है जहाँ जगत्, जीव और ब्रह्म के भेद रूपी प्रपंच का अस्तित्व नहीं है । 4- बिन्दु अर्धमात्रा है। उसके अनंतर प्रत्येक स्तर में मात्राओं का विभाग है। समना भूमि में जाने के बाद मात्राएँ इतनी सूक्ष्म हो जाती हैं कि किसी योगी अथवा योगीश्वरों के लिए उसके आगे बढ़वा संभव नहीं होता, अर्थात् वहाँ की मात्रा वास्तव में अविभाज्य हो जाती है। आचार्यो का उपदेश है कि इसी स्थान में मात्राओं को समर्पित कर अमात्र भूमि में प्रवेश करना चाहिए।

5-क्या अमात्र की गति बिंदु से ही प्रारंभ होती है?-

योगी संप्रदाय में स्वच्छंद तंत्र के अनुसार ओंकारसाधना का एक क्रम प्रचलित है। उसके अनुसार "अ" समग्र स्थूल जगत् का द्योतक है और उसके ऊपर स्थित कारण जगत् का वाचक है मकार। स्थूल,सूक्ष्म, कारण आदि तीन जगतों के प्रतीक अ, उ और म हैं। ऊर्ध्व गति के प्रभाव से शब्दमात्राओं का मकार में लय हो जाता है। तदनंतर मात्रातीत की ओर गति होती है। 'म' पर्यत गति को अनुस्वार गति कहते हैं। अनुस्वार की प्रतिष्ठा अर्धमात्रा में विसर्गरूप में होती है। इतना होने पर मात्रातीत में जाने के लिए द्वार खुल जाता है। वस्तुत: अमात्र की गति बिंदु से ही प्रारंभ हो जाती है।

6-क्या प्रणव के सूक्ष्म उच्चारण द्वारा विश्वातीत तक की प्राप्ति हो जाती है?-

तंत्र शास्त्र में इस प्रकार का मात्राविभाग ..नौ नादों की सूक्ष्म योगभूमियां के नाम से प्रसिद्ध है। इसका तात्पर्य यह है कि अ, उ और म प्रणव के इन तीन अवयवों का अतिक्रमण करने पर अर्थतत्व का अवश्य ही भेद हो जाता है। उसका कारण यह है कि यहाँ योगी को सब पदार्थो के ज्ञान के लिए सर्वज्ञत्व प्राप्त हो जाता है एवं उसके बाद बिंदुभेद करने पर वह उस ज्ञान का भी अतिक्रमण कर लेता है।

6-1-अर्थ और ज्ञान इन दोनों के ऊपर केवल नाद ही अवशिष्ट रहता है एवं नाद की नादांत तक की गति में नाद का भी भेद हो जाता है। उस समय केवल कला या शक्ति ही विद्यमान रहती है। जहाँ शक्ति या चित् शक्ति प्राप्त हो गई वहाँ ब्रह्म का प्रकाशमान होना स्वत: ही

सिद्ध है।इस प्रकार प्रणव के सूक्ष्म उच्चारण द्वारा विश्व का भेद होने पर विश्वातीत तक सत्ता की प्राप्ति हो जाती है।

7-क्या है उन्मनी स्थिति?-

बिन्दु मन का ही रूप है। मात्राविभाग के साथ-साथ मन अधिकाधिक सूक्ष्म होता जाता है। अमात्र भूमि में मन, काल, कलना, देवता और प्रपंच, ये कुछ भी नहीं रहते। इसी को उन्मनी स्थिति कहते हैं। वहाँ स्वयंप्रकाश ब्रह्म निरंतर प्रकाशमान रहता है।

8-ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि तथा रुद्रग्रंथि का छेदन का क्या अर्थ है?-

"अ" ब्रह्मा का वाचक है; उच्चारण द्वारा हृदय में उसका त्याग होता है। "उ" विष्णु का वाचक हैं; उसका त्याग कंठ में होता है तथा "म" रुद्र का वाचक है ओर उसका त्याग तालुमध्य में होता है। इसी प्रणाली से ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि तथा रुद्रग्रंथि का छेदन हो जाता है। तदनंतर बिंदु है, जो स्वयं ईश्वर रूप है अर्थात् बिंदु से क्रमश: ऊपर की ओर वाच्यवाचक का भेद नहीं रहता।

9-क्या है ब्रह्मा से शिवपर्यन्त छह कारणों(अविद्यारूपी छह : प्रकार की माया )का उल्लंघन?-

03 POINTS;-

1-भ्रूमध्य में 'बिंदु' का त्याग होता है। 'नाद' सदाशिवरूपी है। ललाट से मस्तक (मूर्धा) तक के स्थान में उसका त्याग करना पड़ता है। यहाँ तक का अनुभव स्थूल है। इसके आगे शक्ति का

व्यापिनी तथा समना भूमियों में सूक्ष्म अनुभव होने लगता है। इस भूमि के वाच्य शिव हैं, जो सदाशिव से ऊपर तथा परमशिव से नीचे रहते हैं।

2-मस्तक के ऊपर स्पर्शनुभूति के अनंतर शक्ति का भी त्याग हो जाता है एवं उसके ऊपर व्यापिनी का भी त्याग हो जाता है। उस समय केवल मनन मात्र रूप का अनुभव होता है। यह समना भूमि का परिचय है। इसके बाद ही मनन का त्याग हो जाता है। इसके उपरांत कुछ समय तक मन के अतीत विशुद्ध आत्मस्वरूप की झलक दीख पड़ती है। इसके अनंतर ही परमानुग्रहप्राप्त योगी का उन्मना शक्ति में प्रवेश होता है।

3-इसी को परमपद या परमशिव की प्राप्ति समझना चाहिए और इसी को एक प्रकार से उन्मना का त्याग भी माना जा सकता है।माया दो प्रकार की होती है एक विद्या और दूसरी अविद्या।अविद्यारूपी माया छह : प्रकार की होती है ..काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर । इस प्रकार ब्रह्मा से शिवपर्यन्त छह कारणों का उल्लंघन हो जाने पर अखंड परिपूर्ण सत्ता में स्थिति हो जाती है। ऊर्ध्व गति में कारणों का परित्याग होते होते अखंड पूर्णतत्व में स्थिति हो जाती है।

....SHIVOHAM....


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