साधना कितने प्रकार की होती है?क्या संकल्प की साधना (दक्षिणायन) नीचे के मार्ग पर ले जाती है और समर्पण
साधना कितने प्रकार की होती है?-
11 FACTS;-
1-साधना शब्द का प्रयोग देवी देवताओं को उपासना के लिए भी होता है, जिससे अभीष्ट महान् कार्य की सिद्धि होती है। देश, काल, क्रिया, वस्तु और कर्त्ता में पाँचों जब साधना के लिए उपयुक्त होते हैं तभी साधना सिद्ध होती है।साधना दो प्रकार की होती है दैवी और
आसुरी।इन्हीं को शास्त्र में दक्षिण और वाम मार्ग कहा गया है। दक्षिण मार्ग की साधना में साधक को लाभ चाहे न हो, परन्तु हानि तो होती ही नहीं। पर वाम मार्ग की साधना में लाभ नहीं होता तो नुकसान जरूर होता है। दक्षिण मार्ग में तत्काल लाभ नहीं दीखता, धीरे-धीरे कल्याण होता है, परन्तु वाम मार्ग में तत्काल ही लाभ-हानि हो जाती है।
2-दोनों में ही अक्रोध, शौच और ब्रह्मचर्य का पालन आवश्यक है। इनका पालन न करने से दक्षिण मार्ग में कोई फल नहीं मिलता परन्तु वाम मार्ग में बड़ा नुकसान हो जाता है। कभी-कभी तो प्राणों पर आ बीतती है। वाम मार्ग में जरा भी कहीं चूके कि बलिदान होते देर नहीं लगती।वेद में ब्राह्मण और मन्त्र- ये दो विभाग हैं, किसी भी देव की सिद्धि के लिए उस देवता की मूर्ति, यन्त्र और मन्त्र की जरूरत है। प्रयोग के समय वहाँ एक-दो आदमी उपस्थित रहने चाहिए। कभी-कभी तो मनुष्य एकाँत से ही डर जाता है ।
3-उदाहरण लिए,एक व्यक्ति ने किसी मन्त्र की सिद्धि के लिए ग्रहण के दिन श्मशान में एक आक के पेड़ के नीचे बैठकर साधना शुरू की। उन्हें सामने के पहाड़ से एक अघोरी उतरता दिखाई दिया। अघोरी ने श्मशान में पहुँच कर ..फिर वहीं गुम हो गया। यह देखकर उनका शरीर मारे डर के पसीने-पसीने हो गया, वे बड़े जोर से चीख मारकर वहीं ढुलक पड़े। वहाँ उनकी कौन सुनता? ग्रहण शुद्ध होने पर लोग नहाने को आये, तब किसी ने उनको वहाँ पड़े देखा। उठाकर मन्दिर में लाया गया। जोर से ज्वर चढ़ा था। तीन चार दिनों बाद बुखार उतरा, पर वे पागल हो गये और कुछ ही वर्षों के बाद शरीर छोड़ कर चल बसे।
4-एक व्यक्ति देवी के उपासक थे। वे अपने घर में रात्रि को सदा उनके मन्त्र का जाप करते। एक दिन उन्होंने एकाएक अपने शरीर पर कुछ बिच्छुओं को चढ़ते देखा। वे काँप उठे। बिच्छुओं को झड़काने लगे। फिर मंत्र शुरू किया, बिच्छू फिर चढ़ने लगे। बस, तब से उन्हें सिद्धि तो मिली ही नहीं, परन्तु जहाँ जप शुरू किया कि लगे कपड़े झड़काने! उनके मन में निश्चय हो गया कि मेरे कपड़ों पर अभी बिच्छू चढ़ रहे हैं। ऐसे समय में कोई दूसरा पुरुष पास होता तो शायद वे रास्ते पर आ सकते!
5-डामर-तन्त्र के मन्त्र तत्काल सिद्धि देते हैं, पर उनका फल थोड़े ही समय के लिए रहता है। स्थायी नहीं रहता। वे मन्त्र केवल चमत्कार दिखाने में ही काम करते हैं।उग्र देवता की साधना
और उग्र फल की प्राप्ति के लिए बहुत बार अपने प्राणों को हथेली पर रख देना पड़ता है। गाँवों और शहरों में कितने ही ऐसे साधू फकीर मिलते हैं, जो कुछ शून्य साधना करते हैं और जरूरत पड़ने पर किसी-किसी समय वे उन्हें आजमाते हैं।
6-कई मन्त्र देवताओं की साधना कष्टसाध्य है।अगर कहीं जरा भी चूके कि..।किसी-किसी देवता से साधक की पूरी पटती ही नहीं, इससे वह चाहे कितनी ही साधना करे, हाथ में आई हुई बाजी भी छटक जाती है और साधना व्यर्थ होती है।सिद्ध-देव की साधना सिद्धि प्राप्त
होने के बाद भी साधक को चालू रखनी चाहिये। नहीं तो, उस दैवी सिद्धि को अदृश्य होते देर नहीं लगती।साधक के लिये प्राप्त हुई सिद्धि का उपयोग स्वार्थ में न करके परमार्थ में ही
करना श्रेयस्कर है। थोड़े समय के लिये साधक को स्वार्थ-साधन होता देखकर सुख होता है, परन्तु इसके लिये आगे चलकर उसे बहुत कुछ सहन करना पड़ता है।
7-कलियुग में माँ काली और विनायक की साधना शीघ्र सिद्ध होती है।परन्तु माँ काली और
विनायक बहुत उग्र देवता हैं और उनकी सिद्धि भी बहुत उग्र है। कोई भी हो, आस्तिकता और श्रद्धा के साथ करने पर साधना सभी को फल देती है।‘शास्त्रों में सब गपोड़े भरे हैं’ यों कहने से कोई भी काम सिद्ध नहीं होगा। ‘साधना’ का शास्त्र ‘वरदान’ या शाप का शास्त्र नहीं है। साधना से भड़कने का कोई कारण नहीं है। भूख मिटाने के लिये हमें रोज का अन्न सिद्ध करना पड़ता है। यह जैसे हमेशा का ‘रुटीन’ है; इसी प्रकार किसी बड़े काम की सिद्ध के लिये हम बड़े लोगों की मदद लिया करते हैं। ठीक, इसी प्रकार हमें देवताओं की साधना करनी चाहिये। देवताओं की साधना से हमें चिर-स्थायी सुख मिल सकता है, यह निर्विवाद बात है।कर्ण, भीष्म, द्रोण आदि के पास महान सिद्धियाँ थी। इसी से वे महान् बन सके थे।
8- शास्त्रों के लेखानुसार तो योग संसार की सबसे बड़ी शक्ति है और इसके द्वारा मनुष्य के लिये कोई भी कार्य असम्भव नहीं रहता। प्रत्यक्ष में भी अनेक योगियों को नाना प्रकार के आश्चर्यजनक चमत्कार करते देखा गया है। अब भी योगी एक-एक महीने तक की समाधि लगाते, दिव्य दृष्टि का परिचय देते, शस्त्र, विष आदि के प्रभाव को व्यर्थ करते देखे गये हैं। उनके आशीर्वाद और शाप का प्रभाव भी कभी-कभी स्पष्ट देखने में आता है। पर ये सब बातें प्राचीन योगियों की शक्ति के सम्मुख नगण्य ही मानी जानी चाहियें।
9-यद्यपि उस समय के अधिकाँश साधक केवल परमात्मा की प्राप्ति के हेतु ही योग साधन करते थे, पर साधनावस्था में स्वभावतः उनको अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती थीं। यह बात सत्य है कि जो वास्तविक मुमुक्ष योगी होते थे, वे इन सिद्धियों की तरफ ध्यान नहीं देते थे और उनका प्रयोग भी कदाचित् ही करते थे। वे इन सिद्धियों के फेर में पड़ना और उनको अधिक विकसित करना मुक्ति -मार्ग में बाधा स्वरूप मानते थे और जहाँ तक संभव होता था उन्हें किसी पर प्रकट नहीं होने देते थे।
10-पर इस वक्तव्य पर से यह विचार कर लेना कि सिद्धियों की बात सर्वथा कल्पित या असम्भव है ठीक न होगा। किसी उच्चकोटि के साधक का यह कहना ठीक माना जा सकता है कि हमको सिद्धियों की ओर लक्ष्य करके मुक्ति की ओर ही बढ़ते जाना चाहिये। पर हर एक साधारण साधक का, जो योग की विधियों को भी अभी भली प्रकार नहीं जानता, यह कहना कि “सिद्धियाँ विघ्न स्वरूप हैं, इन से बच कर ही रहना चाहिये” कोई अर्थ नहीं रखता। त्याग उसी चीज का किया जाता है जो हमको प्राप्त हो चुकी है या शीघ्र ही मिलने वाली है। पर जो लोग अभी ठीक तरह से प्राणायाम करने में भी समर्थ नहीं है, उनके मुँह सिद्धियों के त्याग की बात निकलना बड़ा बेतुका जान पड़ता है।
11-फिर सब सिद्धियों का आशय वैभव या सम्पत्ति की प्राप्ति से भी नहीं होता। ये सिद्धियाँ वास्तव योग के साधन-काल में स्वभावतः प्राप्त होने वाली तरह-तरह की शक्तियाँ हैं जिनका चाहे तो आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जा सकता है, अथवा नहीं भी किया जाय। पर यह मानना हमें पड़ेगा कि वे हैं बड़ी विलक्षण। विज्ञान बड़ी-बड़ी असम्भव समझी जाने वाली बातों को सत्य सिद्ध कर दिखाया है, पर योग की सिद्धियाँ उनसे भी अधिक विस्मयजनक हैं। क्योंकि विज्ञान द्वारा किये जाने वाले कार्यों में बहुत अधिक यंत्रों और सैकड़ों प्रकार की रासायनिक पदार्थों या मसालों की आवश्यकता पड़ती है, जबकि योगी जो कुछ करते हैं वह सब आत्म-बल और आन्तरिक शक्तियों द्वारा सम्पन्न होता है। योग की ऐसी सिद्धियों की संख्या बहुत अधिक है।
क्या संकल्प की साधना, दक्षिणायन, नीचे के मार्ग पर ले जाती है और समर्पण की साधना, उत्तरायण, ऊपर के मार्ग पर ले जाती है?-
11 FACTS;-
1-यह प्रयोग संकल्प से ही शुरू होता है। सभी ध्यान संकल्प से शुरू होते हैं, लेकिन सभी ध्यान समर्पण पर समाप्त नहीं होते। जो ध्यान संकल्प से शुरू होते हैं और संकल्प पर ही पूर्ण होते हैं, वे दक्षिणायन में ले जाते हैं।क्रमशः संकल्प छूटता चला जाता है और आप समर्पण में प्रवेश करते हैं। अंतिम क्षण में आप सिर्फ समर्पण की स्थिति में होते हैं, संकल्प छूट चुका होता है। जो ध्यान की विधियां संकल्प से शुरू होती हैं और समर्पण पर पूर्ण होती हैं, वे उत्तरायण में ले जाती हैं।
2-समर्पण के लिए भी संकल्प का उपयोग करना पड़ता है। यदि आप संकल्प के लिए ही संकल्प का उपयोग कर रहे हैं, तो यात्रा दक्षिणायन हो जाती है। और यदि आप संकल्प का उपयोग समर्पण के लिए कर रहे हैं, तो यात्रा उत्तरायण हो जाती है।
3-संकल्प हमारी स्थिति का ही प्रयोग है।यदि हम कही खड़े हैं, तो वह संकल्प हमारी स्थिति है। हमें जहां भी जाना हो, ऊपर या नीचे, संकल्प से
ही जाना पड़ेगा।यदि आप संकल्प के लिए ही संकल्प कर रहे हैं.. विल फॉर विल्स सेक, तो आप नीचे उतर जाएंगे। और विल फॉर सरेंडर्स सेक, तो आप ऊपर चढ़ जाएंगे। अंतिम लक्ष्य समर्पण हो तो संकल्प की सीढ़ी का उपयोग भी किया जा सकता है। और अगर अंतिम लक्ष्य संकल्प हो तो आप समर्पण का भी उपयोग कर सकते हैं और नीचे उतर जाएंगे।
4-दूसरी बात भी खयाल में ले लें। पहली बात , संकल्प भी समर्पण के लिए मार्ग बन सकता है और समर्पण भी संकल्प के लिए मार्ग बन सकता है। एक आदमी सिर्फ परमात्मा के लिए इसलिए समर्पण करता है, ताकि मेरी संकल्प की शक्ति विराट हो जाए। एक आदमी कहता है, हे प्रभु, सब तेरे हाथों में छोड़ता हूं। लेकिन भीतर इच्छा होती है...
5-स्त्रैण चित्त, समर्पण से शुरू करता है और संकल्प पर पूरा होता है। और जिस दिन आपने उसका समर्पण स्वीकार कर लिया, उसी दिन आप उसके गुलाम हो गए।मालिक होने के भ्रम में आप गुलाम हो जाते हो। स्त्रैण चित्त की केमिस्ट्री, उसके चित्त के काम करने का ढंग ;ही यही है कि जिसे बांधना हो, पहले उसे मालिक होने का खयाल दो।
6-पुरुष का चित्त उलटा है। वह संकल्प से शुरू करता है और समर्पण पर पूरा होता है।वह पहले संकल्प से शुरू करता है। वह पहले स्त्री को जीतने की कोशिश करता है। उसे पता नहीं कि आखिर में हारोगे। यह जीतने से उनकी हार शुरू हो रही है।इसीलिए स्त्री और पुरुषों में मेल बन जाता है। नहीं तो मेल बनना मुश्किल हो जाए। अपोजिट, विरोध में उनमें मेल बन जाता है।
7-डाइलेक्टिक्स है, जीवन का एक द्वंद्वात्मक नियम है: विपरीत आकर्षित करते हैं। स्त्री और पुरुष बिलकुल विपरीत ढंग से जीते हैं। उनके जीने के ढंग की विपरीतता की गहराई यही है कि स्त्री शुरू करती है समर्पण से और पूर्ण करती है संकल्प पर। पुरुष शुरू करता है संकल्प से और पूर्ण करता है समर्पण पर। इसलिए दोनों के बीच आकर्षण है।
8- इसलिए पश्चिम में स्त्री और पुरुष के बीच के संबंध रोज-रोज शिथिल और विकृत होते चले जा रहे हैं। क्योंकि स्त्री ने तय किया है कि मैं अब समर्पण नहीं करूंगी। लेकिन जिस दिन स्त्री तय कर लेती है, अब मैं समर्पण नहीं करूंगी, उसी दिन पुरुष को जीतना मुश्किल हो जाएगा। और पुरुष ने भी तय कर लिया है कि स्त्री को बराबर मौका देना है, इसलिए मैं इसको जीतूंगा नहीं। और जिस दिन पुरुष स्त्री को जीतता नहीं, उसी दिन पुरुष की हार का कोई उपाय नहीं रह जाता।
9-आप दोनों काम शुरू कर सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर स्त्री भी छिपी है और पुरुष भी।पुरुष के भीतर भी स्त्री छिपी है, और स्त्री के भीतर भी पुरुष छिपा है। सब आदमी बाइसेक्सुअल हैं। कोई आदमी यूनिसेक्सुअल नहीं है। नवीनतम मनोविज्ञान की खोजें और नवीनतम बायोलाजी के अन्वेषण इस बात को सिद्ध करते हैं कि कोई आदमी न तो पुरुष है पूरा और न कोई स्त्री पूरी स्त्री है। फर्क डिग्रीज के हैं।
10-जो भेद हैं, वे परसेंटेज के हैं। इसलिए ऐसी घटना घटती है कि कभी-कभी हम पाते हैं कि कोई पुरुष बिलकुल स्त्रैण मालूम होता है और कोई स्त्री बिलकुल पुरुष जैसी मालूम होती है।कोई साठ परसेंट पुरुष हैं और चालीस परसेंट स्त्री हैं, इसलिए वह पुरुष मालूम पड़ता हैं।कोई साठ परसेंट स्त्री है और चालीस परसेंट पुरुष है, इसलिए स्त्री मालूम पड़ती है।
11-स्त्रैण पुरुष हैं, पुरुष जैसी स्त्रियां हैं, अनुपात अगर ज्यादा है और इसलिए कभी ऐसी दुर्घटना भी घटती है कि कोई पुरुष पुरुष की तरह शुरुआत करता है और बाद की उम्र में स्त्री हो जाता है। इक्यावन-उनचास
जैसा कोई अनुपात रहे, तो अनुपात गिर सकता है, बढ़ सकता है। और अब तो वैज्ञानिक कहते हैं कि इंजेक्शन देकर हम किसी भी पुरुष को स्त्री और किसी भी स्त्री को पुरुष बना सकते हैं। क्योंकि हार्मोन का ही फर्क है। तो हार्मोन कम-ज्यादा किए जा सकते हैं।
12- प्रत्येक व्यक्ति अर्धनारीश्वर है ..इसलिए आप संकल्प से भी शुरू कर सकते हैं और समर्पण से भी। अगर आप संकल्प से शुरू करते हैं और अंतिम लक्ष्य आपका समर्पण है, तो आप उत्तरायण पर निकल जाएंगे। और अगर आप संकल्प से शुरू करते हैं और अंतिम लक्ष्य संकल्प ही है, तो आप दक्षिणायन पर निकल जाएंगे। अगर आप समर्पण से शुरू करते हैं और अंतिम लक्ष्य समर्पण ही है, तो भी आप उत्तरायण पर निकल जाएंगे। और अगर आप समर्पण से शुरू करते हैं और अंतिम लक्ष्य संकल्प ही है, तो आप दक्षिणायन पर निकल जाएंगे।
“अपरा” सिद्धियों का संक्षिप्त परिचय;-
26 FACTS;-
(1) यह जगत संस्कारों का परिणाम है और उन संस्कारों के क्रम में अदल-बदल होने से ही तरह-तरह के परिवर्तन होते रहते हैं। योगी इस तत्व को जान कर प्रत्येक वस्तु और घटना के ‘भूत’ तथा भविष्यत् का ज्ञान प्राप्त कर लेता है।
(2) शब्द, अर्थ और ज्ञान का एक दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है इनके ‘संयम’ (धारणा, ध्यान और समाधि, इन तीनों साधन क्रियाओं के एकीकरण को ‘संयम’ कहते हैं) से ‘सब प्राणियों की वाणी’ का ज्ञान हो जाता है।
(3) अति सूक्ष्म संस्कारों को प्रत्यक्ष देख सकने के कारण योगी को किसी भी व्यक्ति के पूर्व जन्म का ज्ञान होता है।
(4)ज्ञान में संयम करने पर दूसरों के चित्त का ज्ञान होता है। इसके द्वारा योगी प्रत्येक प्राणी के मन की बात जान सकता है।
(5) कायागत रूप में संयम करने से दूसरों के नेत्रों के प्रकाश का योगी के शरीर के साथ संयोग नहीं होता। इससे योगी का शरीर ‘अन्तर्धान’ हो जाता है। इसी प्रकार उसके शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध को भी पास में बैठा हुआ पुरुष नहीं जान सकता।
(6) ’सोपक्रम’ का अभ्यास करने से योगी को मृत्यु का पूर्व ज्ञान हो जाता है।
(7) सातवीं सिद्धि से योगी के आत्म-बल का इतना विकास हो जाता है कि उसके मन पर इन्द्रियों का वश नहीं चलता।
(8) बल में संयम करने से योगी को हाथी, शेर, ग्राह, गरुड़ की शक्ति प्राप्त होती है।
(9) ज्योतिष्मती प्रकृति के प्रकाश को सूक्ष्म वस्तुओं पर न्यास्त करके संयम करने से सूक्ष्म, गुप्त और दूरस्थ पदार्थों का ज्ञान होता है। इससे वह जल या पृथ्वी के भीतर समस्त पदार्थों को देख सकने में समर्थ होता है।
(10) सूर्य नारायण में संयम करने से योगी को क्रमशः स्थूल और सूक्ष्म लोकों का ज्ञान होता है। सात स्वर्ग और सप्त पाताल सूक्ष्म लोक कहे जाते हैं। योगी का अन्यान्य ब्रह्मांडों का भी ज्ञान हो जाता है।
(11) चंद्रमा में संयम करने से समस्त राशियों और नक्षत्रों का ज्ञान होता है।
(12) ध्रुव में संयम करने से समस्त ताराओं की गति का पूर्ण ज्ञान होता है।
(13) नाभि चक्र में संयम करने से योगी को शरीर के भीतरी अंगों का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। वात, पित्त, कफ ये तीन दोष किस रीति से हैं; चर्म, रुधिर, माँस, नख, हाथ, चर्बी और वीर्य ये सात धातुएँ किस प्रकार से हैं; नाड़ी आदि कैसी-कैसी हैं, इन सब का ज्ञान हो जाता है।
(14) कण्ठकूप में संयम करने से भूख और प्यास निवृत्त हो जाती है। मुख के भीतर उदर में वायु और आहार जाने के लिये जो कण्ठछिद्र है उसी का ‘कण्ठ कूप’ कहते हैं। यही पर पाँचवाँ चक्र स्थित है और क्षुधा, पिपासा आदि क्रियाओं का इससे घनिष्ठ सम्बन्ध है।
(15) कूर्म नाड़ी में संयम करने से मन अपनी चंचलता त्याग कर स्थिर बन जाता है।
(16) कपाल की ज्योति में संयम करने से योगी को सिद्धगणों के दर्शन होते हैं। सिद्ध महात्मागण जीव श्रेणी से मुक्त होकर सृष्टि के कल्याणार्थ चौदह भुवन में विराजते हैं।
(17) योग-साधन करते समय ध्यानावस्था में दिखलाई पड़ने वाले ‘प्रातिभ’ नामक तारे में संयम करने से ज्ञान-राज्य की समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
(18) हृदय में संयम करने से चित्त का पूर्ण ज्ञान होता है। वैसे महामाया की माया से कोई चित्त का पूर्ण स्वरूप नहीं जान पाता, पर जब योगी हृत्कमल पर संयम करता है तो अपने चित्त का पूर्ण ज्ञाता बन जाता है।
(19) बुद्धि की चिद्भाव अवस्था में संयम करने से पुरुष के स्वरूप का ज्ञान होता है। इससे योगी को (1) प्रातिभ, (2) श्रावण, (3) वेदन, (4) आदर्श, (5) आस्वाद और (6) वार्ता—ये षट्सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
(20) बन्धन का जो कारण है उसके शिथिल हो जाने से और संयम द्वारा चित्त की प्रवेश निर्गमन मार्ग नाड़ी का ज्ञान हो जाने से योगी किसी भी शरीर में प्रवेश कर सकता है।
(21) उदान वायु को जीतने से जल, कीचड़ और कण्टक आदि पदार्थों का योगी को स्पर्श नहीं होता और मृत्यु भी वशीभूत हो जाती है अर्थात् वह इच्छा मृत्यु को प्राप्त होता है जैसा कि भीष्म पितामह का उदाहरण प्रसिद्ध है।
(22) समान वायु को वश में करने से योगी का शरीर तेज-पुञ्ज और ज्योतिर्मय हो जाता है।
(23) कर्ण इन्द्रिय और आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से योगी को दिव्य श्रवण की शक्ति प्राप्त होती है। अर्थात् वह गुप्त से गुप्त, सूक्ष्म से सूक्ष्म और दूरवर्ती से दूरवर्ती शब्दों को भली प्रकार सुन सकता है।
(24) शरीर और आकाश के सम्बन्ध में संयम करने से आकाश में गमन हो सकता है।
(25)शरीर के बाहर मन की जो स्वाभाविक वृत्ति ‘महा विदेह धारणा’ है। उसमें संयम करने
से अहंकार का नाश हो जाता है और योगी अपने अन्तःकरण को यथेच्छा ले जाने की सिद्धि प्राप्त करता है।
(26) पंच तत्वों की स्थूल, स्वरूप, सूक्ष्म, अन्वय और अर्थतत्व—ये पाँच अवस्थाएँ हैं। इन पर संयम करने से जगत् का निर्माण करने वाले पंचभूतों पर जयलाभ होता है और प्रकृति वशीभूत हो जाती है। इससे अणिमा, लघिमा, महिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, वशित्व, ईशित्व—ये अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
NOTE;-
इस प्रकार योगी, समाधि अवस्था में पहुँचने के बाद जिस किसी विषय पर अपना ध्यान लगाता है उसी का पूर्ण ज्ञान किसी से बिना सीखे अथवा कहीं गये हुये प्राप्त हो जाता है। अन्त में परमात्मा की ओर अग्रसर होते हुये उसे वैसी ही शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं जो ईश्वर में पाई जाती है। वह त्रिकालदर्शी हो जाता है और सब लोकों में उसकी गति हो जाती है और उसके संकल्प मात्र से महान परिवर्तन हो जाते हैं। पर यह सब कुछ संभव होने पर भी महात्माओं का मत यही है कि साधक को अपना लक्ष्य सदा “कैवल्य पद” रखना चाहिये। ये समस्त सिद्धियाँ “अपरा” कही जाती हैं। परा सिद्धि वही है जिसका लक्ष्य अपने स्वरूप अनुभव करके मुक्ति प्राप्त करना होता है।
..SHIVOHAM...
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क्या है संयम साधना?-
12 FACTS;-
1-संयम का अर्थ समझाते हुए श्रीकृष्ण ने दो निष्ठाओं की बात कही है।एक वे साधक, जो इंद्रियों का संयम कर लेते हैं। जिनकी इंद्रियां विषयों की तरफ दौड़ती ही नहीं हैं।विषयों की तरफ ..इंद्रियों की जो यात्रा है, उसे विदा कर देते हैं; यात्रा ही समाप्त कर देते हैं।दूसरे वे, जो विषयों को भोगते रहते हैं, फिर भी लिप्त नहीं होते। ये दोनों ही यज्ञ में रत हैं।
2-एक वे, जो इंद्रियों को विषयों तक जाने ही नहीं देते--उसकी अलग साधना है--इंद्रियों और विषयों के बीच में जो सेतु है, उसे ही तोड़ देते हैं। दूसरे वे, जो इंद्रियों को विषयों तक जाने देते हैं, लेकिन इंद्रियों और लिप्त हो जाने में जो सेतु है, उसे तोड़ देते हैं। अब यह दो सेतुओं का जो तोड़ना है, वह खयाल में ले लेना जरूरी है। दोनों ही स्थितियों से एक ही परम-अवस्था उपलब्ध होती है।
3-पहले साधक, इंद्रियों को विषयों तक नहीं जाने देते।वास्तव में,
इंद्रियां विषयों की तरफ भागती ही रहती हैं। आप रास्ते पर गुजरते हैं ..सुंदर भवन दिखाई पड़ गया, कि सुंदर चेहरा दिखाई पड़ गया, कि सुंदर कार दिखाई पड़ गई--आदि-आदि।आपको पता ही नहीं चलता कि जब आपने सुंदर कहा, तभी इंद्रियां दौड़ चुकीं होती है। ऐसा नहीं कि सुंदर है, ऐसा जानने के बाद इंद्रियां दौड़ना शुरू करती हैं।उनका निष्कर्ष/कनक्लूजन यह है कि है 'यह सुंदर है'।
4-आप ऐसा मत सोचना कि आप सुंदर चेहरा देख कर आकर्षित होते हैं; आप आकर्षित होते हैं, इसलिए चेहरा सुंदर दिखाई पड़ता है। आकर्षण की घटना सूक्ष्म है और बड़े अदृश्य में घट जाती है। सौंदर्य की घटना सूक्ष्म नहीं है और विचार में पता चलती है।सुंदर हमारी निष्पत्ति है,कारण नहीं।
सुंदर की वजह से कोई आकर्षित नहीं होता; आकर्षित होने की वजह से सुंदर का निष्कर्ष लेता है। यह हमारा बौद्धिक निष्कर्ष है।
5-इंद्रियों ने तो 'आकर्षण का' अनुभव किया है ; बुद्धि ने 'सुंदर का' निर्णय लिया है और इंद्रियां पहुंच चुकीं; क्योकि इंद्रियों ने स्पर्श कर लिया।
इंद्रियों की गति सूक्ष्म है। ऐसा नहीं कि जब आप किसी के शरीर को छूते हैं, तभी इंद्रियां छूती हैं। इंद्रियों के छूने के अलग-अलग मार्ग हैं। आंख देखती है, और छू लेती है। देखना आंख के छूने का ढंग है। सुनना कान के छूने का ढंग है। स्पर्श हाथ के छूने का ढंग है। ये सब छूने के ढंग हैं। सब इंद्रियां छूती हैं।
6-इंद्रिय का अर्थ है, स्पर्श की व्यवस्था, उपकरण। सब इंद्रियां स्पर्श करती हैं। सूक्ष्म स्पर्श दूर से हो जाते हैं। स्थूल स्पर्श पास से करने पड़ते हैं।
इससे विपरीत काम भी चलता है पूरे समय। शरीर से सबको नहीं छुआ जा सकता। लेकिन एक परफ्यूम डाल कर बड़े सूक्ष्म तल पर, गंध से, सब को छुआ जा सकता है। आवाज, गंध, ध्वनि, दृश्य, दर्शन--वे सब छूते हैं। जब आप सज-संवर कर घर से निकलते हैं, तो आप दूसरों की आंख से छुए जाने का निमंत्रण लेकर निकल रहे हैं। और अगर कोई आंख से न छुए, तो आप बड़े उदास लौटेंगे। यह दोहरा काम चल रहा है, छूने का, छुए जाने का। इंद्रियां प्रतिपल इस काम में संलग्न हैं। आपको पता भी नहीं चलता कि यह हो रहा है। यह खयाल में भी नहीं आता।इंद्रियां पूरे समय स्पर्श को
लालायित और स्पर्श देने को और लेने को आतुर हैं।
7-तो जिस व्यक्ति को इंद्रियों को विषयों तक जाने से रोकना है, उसे इंद्रियों की इस सूक्ष्म स्पर्श-व्यवस्था के प्रति जागरूक होना पड़ेगा। अत्यंत सूक्ष्म व्यवस्था है। आपको पता चलने के पहले घटित हो जाता है। इतना शीघ्रता से घटित होता है ''इंद्रिय का स्पर्श'', कि आपको पता ही तब चलता है, जब घटित हो जाता है। इसके प्रति जागना पड़े , देखना पड़े और इसको स्मरण रखना पड़े।
8-तुम्हारी आंख सिर्फ देख रही है या स्पर्श भी कर रही है, इन दोनों में फर्क है। फर्क कैसे पता चलेगा?
8-1-अगर सिर्फ देखा हो, तो पीछे कोई लकीर नहीं छूटेगी। और अगर स्पर्श भी किया हो, तो पीछे लकीर छूटेगी।
8-2-अगर सिर्फ देखा हो, तो लौट कर नहीं देखना पड़ेगा; अगर स्पर्श भी किया हो, तो लौट कर भी देखना पड़ेगा।
8-3-अगर सिर्फ देखा हो, तो स्मृति नहीं बनेगी; अगर स्पर्श भी किया हो, तो स्मृति बनेगी। अगर सिर्फ देखा हो, तो कल भी देखूं, ऐसी आकांक्षा नहीं जगेगी; अगर स्पर्श किया हो, तो फिर-फिर देखूं, ऐसी आकांक्षा जगेगी।
9-आंख से सिर्फ देखने का काम लें, स्पर्श करने का नहीं, तो जो श्रीकृष्ण कह रहे हैं, पहली घटना घट सकती है। हाथ से सिर्फ छूने का काम लें, स्पर्श करने का नहीं। अब आप कहेंगे, छूना और स्पर्श करना तो बिलकुल एक ही बात है। वही फर्क जो आंख के लिए है ... सिर्फ देखने का काम आंख से, स्पर्श करने का नहीं। कान से काम सुनने का, स्पर्श करने का नहीं। कोई आवाज कान सुनता है, ठीक। लेकिन मीठी लग गई, तो छू ली गई। फिर आकांक्षा जगेगी, --और.. और.. और सुनने। और सुनाई पड़े, तो स्पर्श हो गया। इंद्रिय ने रस लेना शुरू कर दिया।
10-अब इंद्रिय सिर्फ उपकरण न रही, मालिक हो गई। इंद्रिय ने सिर्फ देखा
नहीं, इंद्रिय ने पकड़ भी लिया।जो योगी इंद्रिय को विषय से तोड़ता है, वह विषय और इंद्रिय के बीच स्पर्श को, संस्पर्श को तोड़ता है। देखना तो नहीं तोड़ा जा सकता। देखने से तोड़ने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। आंख से स्पर्श विदा होना चाहिए। लेकिन कब होगा? जब आप जागेंगे, तो स्पर्श विदा हो जाएगा।
11-क्या करें.. जब भी देखें, तब होश से यह भी देखें कि सिर्फ देख रहे हैं या स्पर्श भी हो रहा है।धीरे, धीरे, धीरे, फासला साफ दिखाई पड़ने लगेगा। और साफ दिखाई पड़ने लगता है कि मैंने स्पर्श किया कि देखा। और जब आप पाएंगे कि दिखाई पड़ने लगा स्पर्श किया, तभी आपको अनुभव हो जाएगा कि इंद्रियां जहां-जहां स्पर्श करती हैं, वहीं-वहीं बंधन को निर्मित करती हैं। जहां-जहां स्पर्श नहीं करतीं, वहां-वहां बंधन निर्मित नहीं होता।
12-संयमी का अर्थ है, जो इंद्रियों से उपकरण का काम लेता है, भोग का नहीं। संयमी का अर्थ है, जो इंद्रियों से भोगता नहीं, केवल उपयोग लेता है। असंयमी का अर्थ है, जो इंद्रियों से उपयोग कम लेता, भोग ज्यादा लेता। आंख से देखना उपयोग है। आंख से भोगना, स्पर्श करना, उपयोग नहीं है; ..भोग है। भोग बंधन है, उपयोग बंधन नहीं है।इस स्पर्श की सूक्ष्म
व्यवस्था को स्मरणपूर्वक देखने से व्यवस्था क्रमशः टूटती चली जाती है।
क्या दमन संयम नहीं है?-
10 FACTS;-
इसलिए और दूसरी बात आपसे कहूं कि वन-डायमेंशनल जितने भी व्यक्तित्व हैं, इनके साथ निरंतर अनाचार होगा। सिर्फ मल्टी-डाइमेन्शनल व्यक्ति के साथ अनाचार आप नहीं कर सकते। क्योंकि आप कुछ भी करें, उसके लिए वह राजी हो सकता है। कृष्ण के साथ हजार तरह के लोग राजी हो सकते हैं, महावीर के साथ सिर्फ एक पर्टिकुलर टाइप राजी हो सकता है।
इस वजह से मैंने कहा कि वे जो चौबीस तीर्थंकर हैं वे सब एक रूप हैं, एक ही यात्रा पर हैं। उन सबकी एक ही दिशा है, एक ही उनकी साधना है। ऐसा नहीं है कि वे नहीं पहुंच जाते हैं, यह मैं नहीं कह रहा हूं, वे बिलकुल पहुंच जाते हैं। अंतिम क्षणों में ऐसा नहीं है कि जो कृष्ण को मिलता है वह उन्हें नहीं मिलता। वह उन्हें मिल जाता है। हजार धाराओं में नदी बह कर सागर पहुंचे कि एक धारा में पहुंचे, इससे क्या फर्क पड़ता है? सागर में पहुंच कर तो सब बात समाप्त हो जाती है। लेकिन एक धारा और एक मार्ग पर बहने वाली नदी सारी पृथ्वी को नहीं घेर सकती, यह समझना चाहिए। हजार धाराओं में बहने वाली नदी सारी पृथ्वी को भी घेर सकती है। एक धारा में बहने वाली नदी के तट पर जो वृक्ष हैं उनको पानी मिल सकता है; हजार धाराओं में बहने वाली नदी, हजार मार्गों पर जो वृक्ष हैं, उनकी जड़ों को पानी दे पाती है। वह फर्क है। उस फर्क को इनकार नहीं किया जा सकता। उतने फर्क को ध्यान में रखना जरूरी है। बहुआयामी से मैंने इतना ही कहना चाहा है।
तीसरी बात पूछी गई है कि दमन को छोड़ दें तो संयम का क्या अर्थ है?
साधारणतः वैराग्य की भाषा में संयम का अर्थ दमन ही है। वैराग्य की भाषा में संयम का अर्थ दमन ही है। इसलिए जैन शरीर-दमन शब्द का भी उपयोग करते हैं। शरीर को दबाना है, दमन करना है। लेकिन कृष्ण की भाषा में संयम का अर्थ दमन नहीं हो सकता। क्योंकि कृष्ण किस हिसाब से संयम का अर्थ दमन कर सकते हैं? कृष्ण की भाषा में संयम का अर्थ बिलकुल और है। शब्द भी बड़ी दिक्कत देते हैं। क्योंकि शब्द तो एक ही होते हैं--चाहे कृष्ण के मुंह पर हों और चाहे महावीर के मुंह पर हों। संयम, शब्द एक ही है। लेकिन अर्थ बिलकुल भिन्न है। क्योंकि ओंठ भिन्न हैं और उनका प्रयोग करने वाला आदमी भिन्न है। और उसमें जो अर्थ है, वह उस व्यक्तित्व से आता है। शब्द में जो अर्थ है, वह डिक्शनरी से नहीं आता। डिक्शनरी से सिर्फ उनके लिए आता है जिनके पास कोई व्यक्तित्व नहीं है। जिनके पास व्यक्तित्व है, उनके लिए शब्द का अर्थ भीतर से आता है। कृष्ण के ओंठ पर संयम का क्या अर्थ है, यह कृष्ण को समझे बिना नहीं कहा जा सकता। महावीर के ओंठ पर संयम का क्या अर्थ है, यह महावीर को समझे बिना नहीं कहा जा सकता। संयम का अर्थ महावीर से निकलेगा, या कृष्ण से निकलेगा। अब कृष्ण को देखते हुए कहा जा सकता है कि संयम का अर्थ दमन नहीं हो सकता। क्योंकि अगर दुनिया में कोई भी अ-दमित, अनसप्रेस्ड आदमी हुआ है, तो वह कृष्ण हैं।
तो संयम का क्या अर्थ होगा?
ऐसे मेरी भी समझ में, संयम का बहुत गहरा अर्थ दमन नहीं है। संयम शब्द बहुत अदभुत है। संयम का मेरे लिए अर्थ है--संतुलन, बैलेंस। संयम का मेरे लिए अर्थ है--न इस तरफ, न उस तरफ--बीच में, मध्य में। त्यागी असंयमी है--त्याग की तरफ; भोगी असंयमी है--भोग की तरफ। भोगी एक छोर छू रहा है, त्यागी दूसरा छोर छू रहा है। ये दो एक्सट्रीम हैं। संयम का अर्थ है, अन-अति, एक्सट्रीम नहीं, बीच में। कृष्ण के ओंठों पर संयम का अर्थ है, मध्य में। न त्याग, न भोग। या त्यागपूर्ण भोग, या भोगपूर्ण त्याग। यही अर्थ हो सकता है संयम का कृष्ण के ओंठों पर। त्यागपूर्ण भोग, या भोगपूर्ण त्याग; या न त्याग, न भोग--संयम का ऐसा अर्थ होगा। जो कहीं भी झुकता नहीं अति पर, वह व्यक्तित्व संयमित है।
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एक मित्र ने पूछा है कि वृत्तियों का देखना, ऑब्जर्वेशन भी क्या एक तरह का दमन नहीं है? एक प्रकार का सप्रेशन नहीं है?
आपकी आंतरिक आकांक्षा पर निर्भर करता है कि वृत्तियों का देखना भी दमन बन जाए या न बने।
यदि कोई व्यक्ति वृत्तियों का ऑब्जर्वेशन, निरीक्षण, देखना, साक्षी होना, इसीलिए कर रहा है कि वृत्तियों से मुक्त कैसे हो जाए, तो यह देखना दमन बन जाएगा, सप्रेशन बन जाएगा। यदि आपकी आकांक्षा निरीक्षण में केवल इतनी ही है कि मैं वृत्तियों से मुक्त कैसे हो जाऊं? मुक्त होने की बात आपने पहले ही तय कर रखी है, वृत्तियों को देखने के पूर्व आप एक पक्ष लेकर ही वृत्तियों को देखने जा रहे हैं कि ये वृत्तियां बुरी हैं,इनसे छुटकारा चाहिए; ये वृत्तियां नरक हैं, इनसे मुक्ति चाहिए; ये वृत्तियां ही दुख हैं, इनसे पार होना है;
ऐसा आपने निरीक्षण के पहले ही तय कर रखा हुआ मत है, आपकी पहले से ही एक पक्षपात की दृष्टि है, वृत्तियों की शत्रुता आपके मन में है, कंडेमनेशन, निंदा आपके मन में है, तो फिर वृत्तियों का देखना भी दमन बन जाएगा।
और जो देखना दमन बन जाए, वह देखना नहीं है। क्योंकि ऑब्जर्वेशन का, निरीक्षण का, साक्षी होने का एक ही अर्थ है कि निष्पक्ष दर्शन हो सके।
तो तय न करें पहले से कि वृत्तियों से मुक्त होना है। तय न करें पहले से कि वृत्तियां बुरी हैं। पहले से वृत्तियों के संबंध में निष्पक्ष भाव रखें। पता नहीं बुरी हों, न हों! और पता नहीं उनसे मुक्त होना है या मुक्त नहीं होना है! यह तो निरीक्षण से निष्कर्ष आने दें। निरीक्षण होने दें। यदि निरीक्षण गहरा जाएगा, तो आप वृत्तियों को समझने में सफल हो पाएंगे।
और छोड़ें निरीक्षण के निष्कर्ष पर मुक्ति या अमुक्ति, वृत्तियों में रहना या पार हो जाना। और आश्चर्य की बात यह है कि जो व्यक्ति निरीक्षण के निष्कर्ष के लिए प्रतीक्षा करता है, और पहले से ही मत, निर्णय नहीं कर लेता, वह अचानक वृत्तियों से मुक्त हो जाता है। वृत्तियों से मुक्त होना नहीं पड़ता, हो जाता है। निरीक्षण का सहज फल वृत्तियों से मुक्ति में ले जाता है।
लेकिन हम पहले से ही तय कर लेते हैं। और पहले से तय करके फिर हम निरीक्षण में भी पक्षपाती की तरह खड़े हैं, हम साक्षी नहीं हैं फिर।
सुना है मैंने कि अपने जीवन के आखिरी चरण में साठ-पैंसठ वर्ष का जब मुल्ला नसरुद्दीन हुआ, तो उसके गांव के लोगों ने उसे गांव का ऑनरेरी मजिस्ट्रेट चुना।
पहला ही मुकदमा उसके हाथ में आया। तो वकील ने अपराधी के संबंध में अपना वक्तव्य दिया। वक्तव्य सुनने के बाद मुल्ला अपना निर्णय लिखने लगा, जजमेंट लिखने लगा। तो कोर्ट के क्लर्क ने उससे कहा कि ठहरिए, अभी दूसरे वकील का वक्तव्य तो आपने सुना ही नहीं!
मुल्ला ने कहा कि दूसरा मुझे कनफ्यूज कर देगा। और दो-दो वक्तव्य सुनने के बाद तय करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। तो मुझे एक की ही बात करके साफ-सुथरा निर्णय दे देने दो।
हम सब भी अपने संबंध में इसी तरह के निर्णय लिए हुए हैं। आपने शास्त्र में पढ़ लिया है कि वृत्तियां बुरी हैं। शिक्षकों से सुन लिया है,महात्माओं के सत्संग में पकड़ लिया है कि वृत्तियां बुरी हैं। वृत्तियों का आपने कभी निरीक्षण नहीं किया और वृत्तियों को कभी मौका नहीं दिया कि वे अपनी पूर्ण नग्नता में आपके सामने प्रकट हो जाएं।
आपके निर्णय पक्षपातग्रस्त हैं। वृत्तियों से बिना पूछे लिए गए हैं। वृत्तियों को बिना जाने लिए गए हैं। तो अगर कोई आपसे कहे कि ऑब्जर्व करिए! तो आप ऑब्जर्व भी, निरीक्षण भी इसीलिए करते हैं कि कैसे छुटकारा हो।
एक मित्र मेरे पास, कोई तीन महीने हुए, आए थे। साठ साल के हो गए हैं। लेकिन कामवासना से उम्र से कोई छुटकारा नहीं होता। और आदमी बड़े अदभुत हैं इस दुनिया में। जब मैं 'संभोग से समाधि की ओर' इस संबंध में बोल रहा था, तो वे पहले दिन ही सभा छोड़ कर चले गए थे। और मुझे उन्होंने एक पत्र लिखा था कि आप इस तरह की बातें कह रहे हैं जिनसे मनुष्य-जाति का पतन हो जाएगा।
और अभी तीन महीने पहले, दो साल बाद--दो साल तक वे दिखाई नहीं पड़े--अभी आए थे और कहने लगे कि कामवासना पीछा नहीं छोड़ती!
मैंने कहा, मैं कामवासना पर बोल रहा था, तो आप मेरे सामने बैठे थे, आप हाल छोड़ कर चले गए थे। और दो दिन बाद मुझे पत्र लिखा था कि आप इस तरह की बातें कह रहे हैं। क्योंकि बाहर वे इस तरह का प्रचार कर रखे हैं अपने बाबत कि बड़े संयमी हैं, और भीतर...
संयमी जो अपने को प्रचारित किए होते हैं, अक्सर भीतर उबलते हुए ज्वालामुखी पर खड़े रहते हैं।
मैंने पूछा कि कामवासना अभी तक आपकी छूटी नहीं?
वे कहने लगे, यही मैं पूछने आया हूं कि यह कैसे छूटे?
तो मैंने उनसे कहा, आप निर्णय तो पहले ही ले चुके हैं कि कामवासना बुरी है, तो आप निरीक्षण कैसे कर सकेंगे?
उन्होंने मुझसे कहा कि मैं निरीक्षण करने को क्या, कुछ भी करने को राजी हूं, बस यह किसी भांति छूटे। वह निर्णय पक्का है।
मैंने उनसे कहा, निरीक्षण अगर करना है तो पहले तो अपना निर्णय छोड़ दो। कामवासना के संबंध में निष्पक्ष हो जाओ। उसे भी परमात्मा की एक देन समझो। है भी वह देन। नासमझ हैं जो उसे पाप कहते हैं। क्योंकि पाप कहने के कारण हम परमात्मा की एक देन का जो उपयोग कर सकते हैं महत, वह नहीं कर पाते हैं। जिस चीज को हमने बुरा कहा, उसका हम उपयोग करने में असमर्थ हो जाते हैं।
कामवासना बुरी नहीं है। इस जगत में कुछ भी बुरा नहीं है। इस जगत में किसी चीज का उपयोग न करना बुरा है, सदुपयोग न करना बुरा है। कोई चीज बुरी नहीं है।
कामवासना का भी सदुपयोग जो कर लेता है, वह कामवासना की सीढ़ी से ही परमात्मा की उपलब्धि को पहुंच जाता है। कामवासना का जो उपयोग नहीं कर पाता है, वह कामवासना में ही सड़ जाता है। जो शक्ति उसे परमात्मा तक पहुंचा सकती थी, वही शक्ति उसे पाप के गर्त में गिरा देती है। लेकिन शक्ति का कोई दोष नहीं है। उपयोग करने वाले का दोष है।
वृत्ति बुरी नहीं होती। आप बुरे होते हैं तो वृत्ति का दुरुपयोग हो जाता है, आप भले होते हैं तो वृत्ति का सदुपयोग हो जाता है। शक्तियां न्यूट्रल हैं, तटस्थ हैं।
आपके हाथ में एक तलवार दे दें। तलवार बुरी नहीं है, तलवार में क्या बुरा हो सकता है! लेकिन तलवार से आप किसी की गर्दन भी काट सकते हैं। तब बुरा हो जाएगा। लेकिन बुरापन आपके हाथ में और आपके मन में है, तलवार में नहीं। और उसी तलवार से, किसी की गर्दन कटती हो,तो आप उसे बचा भी सकते हैं। तब भी भलापन तलवार में नहीं, आप में ही है।
वृत्तियां शक्तियां हैं। उनका न दमन करना जरूरी है, न उनसे लड़ना जरूरी है, न उनकी निंदा करना जरूरी है। उन्हें समझना जरूरी है। और उनके भीतर जो छिपे हुए राज हैं, उनको पहचानना जरूरी है। और उनकी शक्तियों का कैसे हम ऊर्ध्वगमन के लिए उपयोग कर सकते हैं, यह निरीक्षण से स्पष्ट होना शुरू हो जाता है। निरीक्षण दमन बन जाएगा, अगर आप निरीक्षण इसीलिए कर रहे हैं कि कैसे छुटकारा हो? निरीक्षण मुक्ति बन जाता है, अगर आप निरीक्षण इसलिए कर रहे हैं, ताकि मैं जान सकूं यह वृत्ति क्या है? इसकी शक्ति क्या है? और परमात्मा ने इसे मुझे क्यों दिया है?
दुर्भाव छोड़ें। सदभाव से वृत्तियों के पास जाएं। और तब एक क्रांति घटित होती है। जिन्हें आपने अपना शत्रु जाना था, वे ही आपके सबसे बड़े मित्र सिद्ध होते हैं। निष्पक्ष निरीक्षण चाहिए। चुनाव-रहित निरीक्षण चाहिए। मत-शून्य निरीक्षण चाहिए। पूर्व-पक्ष से रिक्त निरीक्षण चाहिए। फिर निरीक्षण मुक्ति बन जाता है। और निरीक्षण के बाद मुक्त होने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता, निरीक्षण ही मुक्ति बन जाता है--दि वेरी ऑब्जर्वेशन। ऐसा नहीं कि निरीक्षण करने के बाद फिर आपको कुछ करना पड़ेगा, तब आप मुक्त होंगे।
रास्ते पर सांप हो, सांप का दिखाई पड़ना ही आपकी छलांग बन जाता है। ऐसा नहीं कि पहले सांप दिखाई पड़ता है, फिर खड़े होकर आप अपनी नोट-बुक निकालते हैं, फिर गणित करते हैं कि सांप सामने है, क्या मुझे कूदना चाहिए, नहीं कूदना चाहिए? क्या करना चाहिए? किस गुरु से पूछूं? कहां जाऊं?
सांप दिखाई पड़ा और छलांग घटित हो जाती है। छलांग और सांप का दिखना दो चीजें नहीं हैं। इधर बाहर सांप का दिखना और भीतर छलांग का लग जाना--एक साथ, युगपत, साइमलटेनियस घटित हो जाता है।
जैसे ही कोई व्यक्ति अपनी वृत्तियों के निरीक्षण को उपलब्ध होता है, वैसे ही छलांग भीतर लग जाती है। निरीक्षण, निष्पत्ति और परिणाम, सब एक साथ घटित होते हैं। इसलिए ऐसा नहीं कि पहले आप जान लेंगे कि यह वृत्ति कैसी है, फिर इससे कैसे छुटकारा पाएं, इसकी कोशिश लगेगी। नहीं; इसकी कोई कोशिश नहीं करनी पड़ती।
और अगर आप कहते हों, मुझे पता तो है कि वृत्ति बुरी है, अब छुटकारा कैसे पाऊं? तो आप सिर्फ एक खबर देते हैं कि आपको पता नहीं है कि वृत्ति बुरी है। सिर्फ आपने सुन लिया होगा। किसी ने कह दिया होगा।
और हम सब एक-दूसरे के मस्तिष्क को भ्रष्ट करने में संलग्न हैं। हम सब एक-दूसरे को बताए जा रहे हैं वे बातें जिनका हमें भी पता नहीं है। ज्ञानी होने का इतना मजा है कि इस जगत में अज्ञानी इतना नुकसान नहीं पहुंचाते जितना ज्ञान का मजा लेने वाले ज्ञानी नुकसान पहुंचा देते हैं। इतना मजा है दूसरे को बताने में कि हम इसकी फिक्र ही नहीं करते कि यह मुझे भी पता है या नहीं। अगर ज्ञानी ईमानदार हो जाएं, तो अज्ञान का खतरा समाप्त हो जाए। लेकिन ज्ञानी ईमानदार नहीं हो पाता। उन्हें खुद भी पता नहीं है।
एक संन्यासी ने ध्यान पर किताब लिखी थी। दस साल पहले मैंने पढ़ी थी। अदभुत किताब है। लेकिन दोत्तीन बिंदु ऐसे थे जो बताते थे कि इस आदमी ने ध्यान नहीं किया। किताब बहुत अदभुत है। सारी बातें बिलकुल ठीक हैं, लेकिन दोत्तीन जगह गैप हैं। और वे गैप, खाली स्थान बताते हैं कि इस आदमी ने ध्यान नहीं किया।
पूरब के सभी शास्त्र बहुत कुशल लोगों ने लिखे हैं। और पूरब के सभी शास्त्रों में गैप्स हैं, अंतराल हैं। जैसे पतंजलि का योग-सूत्र है, इस पर जो आदमी केवल पतंजलि के योग-सूत्र और योग के संबंध में साहित्य को पढ़ कर किताब लिखेगा, वह गैप्स को नहीं भर पाएगा। क्योंकि किताब में वे खाली स्थान जान कर छोड़े गए हैं। सिर्फ वही आदमी पतंजलि के योग-सूत्र पर लिखेगा जिसने ध्यान करके जाना है, तो पतंजलि ने जो अंतराल छोड़े हैं उनको वह भर सकेगा। और वही कसौटी है कि आदमी ने जाना है या बिना जाने कहा है।
किताब बहुत अदभुत थी। ध्यान पर जितनी किताबें लिखी गई हैं, उन सबको जान कर, पढ़ कर लिखी गई थी। लेकिन एक बात साफ थी कि उसमें जो खाली जगह सदा छोड़ी जाती है, उनके ऊपर कोई भी इशारा नहीं था। उस व्यक्ति ने ध्यान किया नहीं है।
दस साल बाद एक नगर में उन संन्यासी का मुझसे मिलना हुआ। अपने पचास-साठ शिष्यों को लेकर वे मुझसे मिलने आए थे। बातचीत हुई। मैंने उनसे कहा, किताब आपकी बहुत अदभुत है। लेकिन आपने ध्यान को बिना जान कर लिखा है। आपने कोई अनुभव नहीं किया।
वे थोड़े बेचैन हुए, रेस्टलेस हुए, क्योंकि उनके शिष्य चारों तरफ थे। फिर उन्होंने अपने प्रमुख शिष्य को कहा कि तुम लोग बाहर जाओ। मैं जरा एकांत में बात कर लूं। एकांत में उनकी आंखों में आंसू आ गए। ईमानदार थे। और उन्होंने कहा कि आपको कैसे पता चला कि मैंने ध्यान जान कर नहीं लिखा है? क्योंकि मैंने आज तक किसी से नहीं कहा कि मैंने ध्यान को नहीं जाना। और मेरी किताब के कारण हजारों मेरे शिष्य हैं। आपने कोई किताब में भूल देखी?
मैंने कहा, किताब में कोई भूल नहीं है। किताब बहुत अदभुत है। किताब बिलकुल निर्भूल है। आपने बिलकुल ठीक-ठीक अध्ययन किया है। लेकिन अनुभव नहीं किया है। अनुभव की कोई खबर किताब में नहीं है।
पर उनके हजारों शिष्य हैं! और उनकी बात मान कर हजारों लोग ध्यान कर रहे हैं! और यह आदमी रो रहा है, क्योंकि इसे ध्यान का कोई अनुभव नहीं है। अब यह जिन लोगों को बता रहा है, उनको गङ्ढे में गिरने का कारण हो जाएगा।
इस आदमी को क्या मिल रहा है?
इस आदमी को बताने का सुख मिल रहा है, बिना इस बात को समझे हुए कि जो मैंने नहीं जाना है उसे बताने का कोई भी उपाय नहीं है।
तो आप सुन लेते हैं। किसी ने कह दिया, क्रोध बुरा है। बाप ने कह दिया, यद्यपि बाप भी क्रोध करता था। मां ने कह दिया, यद्यपि मां भी क्रोध करती थी। स्कूल में शिक्षक ने कहा, क्रोध बुरा है, यद्यपि वह भी क्रोध करता था। तो बढ़ता हुआ बच्चा दो बातें सीख लेता है। वह सीख लेता है कि क्रोध बुरा है, सब कहते हैं, इसलिए बुरा होना चाहिए। और क्रोध सब करते हैं, इसलिए करना भी चाहिए। डबल तर्क, दोहरी बातें,डबल माइंड हो जाता है। क्रोध करने जैसी चीज है, यह भी तय हो जाता है; और क्रोध बुरी चीज है, यह भी तय हो जाता है। अब यह फंस गया। अब यह जिंदगी भर क्रोध करेगा और जिंदगी भर क्रोध को गाली भी देगा।
जिस दिन हमारी ठीक शिक्षा होगी, सम्यक, उस दिन हम 'क्रोध बुरा है', ऐसा सिखाएंगे नहीं; हम क्रोध की वृत्ति में प्रवेश सिखाएंगे। और जब भी क्रोध आए, तो क्रोध में कैसे प्रवेश करना है, इसकी प्रक्रिया सिखाएंगे। और प्रक्रिया ही बता देगी कि क्रोध क्या है। क्रोध बुरा है, ऐसा नहीं बता देगी। जैसे ही जाना जाता है कि क्रोध क्या है, क्रोध के पार व्यक्ति हो जाता है।
गुरजिएफ के पास कोई भी जाता था, पश्चिम में। वह एक जीवित सदगुरुओं में से, दो-चार सदगुरुओं में जमीन पर इस सदी में एक व्यक्ति था। तो वह कहता था कि तुम्हारी मूल कमजोरी क्या है? अगर वह कहता, वृत्ति मेरी मूल है--क्रोध की, लोभ की, मोह की, काम की, तो जो भी मूल कमजोरी होती, वह कहता कि अब पंद्रह दिन तुम अपनी मूल कमजोरी को प्रकट करने की कोशिश करो, जितना कर सको।
अगर वह कहता, क्रोध है। तो वह कहता कि तुम जितना क्रोध कर सकते हो, करो। और गुरजिएफ ऐसी सिचुएशंस, ऐसी स्थितियां पैदा कर देता कि उस आदमी को क्रोध में बिलकुल पागल हो जाना पड़ता। और जब वह आदमी बिलकुल पागल होता और कंप रहा होता उसका रोआं-रोआं क्रोध की आग में, तब गुरजिएफ कहता, नाउ ऑब्जर्व! अब निरीक्षण करो! जब क्रोध अपनी पूरी स्थिति में, लपटों में खड़ा होता और आदमी बीच में होता, तब गुरजिएफ उसे हिला कर कहता, यही है मौका! अब, अब निरीक्षण करो! अब जानो कि क्रोध क्या है!
और अक्सर ऐसा हुआ कि उस जलते हुए बिंदु से जिस आदमी ने निरीक्षण किया, दुबारा उस वृत्ति में गिरना असंभव हो गया।
तो वृत्ति का निरीक्षण करें निष्पक्ष, तो दमन फलित नहीं होगा।
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संयम जागरण है--होश, रिमेंबरिंग, स्मृति। इसको प्रयोग करके देखें।
इसे देखते रहें और प्रयोग करते रहें, तो पहली घटना घट सकती है संयम की, अर्थात विषयों तक इंद्रियों का रस तिरोहित हो जाता है। विषय तक इंद्रियां जाती हैं उपयोग के लिए, भोग के लिए नहीं। सेतु टूट गया। तब जो व्यक्ति है, वह संयमी है। ऐसा संयमी व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं,
एक वृद्ध अध्यापक आए हैं। वर्षों से साधना में लगे हैं। तन सूख कर हड्डी-हड्डी हो गया है और आंखें धूमिल हो गई हैं और गड्ढों में खो गई हैं। लगता है कि अपने को बहुत सताया है और उस आत्मपीड़न को ही साधना समझा है।
प्रभु के मार्ग पर चलने को जो उत्सुक होते हैं, उनमें अधिक का जीवन इसी भूल से विषाक्त हो जाता है। प्रभु को पाना, संसार के निषेध का रूप ले लेता है। और आत्मा की साधना, शरीर को नष्ट करने का। यह नकार-दृष्टि उन्हें नष्ट कर देती है और उन्हें खयाल भी नहीं आ पाता है कि पदार्थ का विरोध परमात्मा के साक्षात का पर्यायवाची नहीं है।
सच तो यह है कि देह के उत्पीड़क देहवादी ही होते हैं। और संसार के विरोधी, बहुत सूक्ष्म रूप से संसार से ही ग्रसित होते हैं।
संसार के प्रति भोग-दृष्टि जितना संसार में बांधती है, विरोध-दृष्टि उससे कम नहीं, ज्यादा ही बांधती है।
संसार और शरीर का विरोध नहीं, अतिक्रमण करना साधना है। और वह दिशा न भोग की है और न दमन की है। वह दिशा दोनों से भिन्न है।
वह तीसरी दिशा है। वह दिशा संयम की है। दो बिंदुओं के बीच मध्य बिंदु खोज लेना संयम है। पूर्ण मध्य में जो है, वह अतिक्रमण है। वह कहने को ही मध्य में है, वस्तुतः वह दोनों के अतीत है।
भोग और दमन के जो पूर्ण मध्य में है, वह कुछ भोग और कुछ दमन नहीं है। वह न भोग है और न दमन है। वह समझौता नहीं, संयम है।
अति असंयम है, मध्य संयम है। अति विनाश है, मध्य जीवन है। जो अति को पकड़ता है, वह नष्ट हो जाता है। भोग और दमन दोनों जीवन को नष्ट कर देते हैं। अति ही अज्ञान है और अंधकार है और मृत्यु है।
मैं संयम और संगीत को साधना कहता हूं।
वीणा के तार जब न ढीले होते हैं और न कसे ही होते हैं, तब संगीत पैदा होता है। बहुत ढीले तार भी व्यर्थ हैं और बहुत कसे तार भी व्यर्थ हैं। पर तारों की एक ऐसी भी स्थिति होती है जब वे न कसे कहे जा सकते हैं, न ढीले कहे जा सकते हैं। वह बिंदु ही उनमें संगीत के जन्म का बिंदु बनता है। जीवन में भी वही बिंदु संयम का है। जो नियम संगीत का है, वही संयम का है। संयम से सत्य मिलता है।
संयम की यह बात उनसे कही है और लगता है कि जैसे उसे उन्होंने सुना है। उनकी आंखें गवाही हैं। जैसे कोई सोकर उठा हो, ऐसा उनकी आंखों में भाव है। वे शांत और स्वस्थ प्रतीत हो रहे हैं। कोई तनाव जैसे शिथिल हो गया है और कोई दर्शन उपलब्ध हुआ है।
मैंने जाते समय उनसे कहा है: ‘सब तनाव छोड़ दें और फिर देखें। भोग छोड़ा है, दमन भी छोड़ दें। छोड़ कर--सब छोड़ कर देखें। सहज होकर देखें--सहजता ही स्वस्थ करती है, स्वभाव में ले जाती है।’
उन्होंने उत्तर में कहा: ‘छोड़ने को अब क्या रहा? छूट ही गया। मैं शांत और निर्भार होकर जा रहा हूं। एक दुख-स्वप्न जैसे टूट गया है। मैं बहुत उपकृत हूं।’ और उनकी आंखें बहुत सरल और शांत हो गई हैं और उनकी मुस्कुराहट बहुत भली लग रही है। वे वृद्ध हैं, पर बिलकुल बालक लग रहे हैं।
काश, यह उन सभी को दिख सके जो प्रभु में उत्सुक होते हैं।