वैदिक ग्रंथ के अनुसार , अशरीरी आत्मा का रूप स्थिर है या गतिमान?क्या ये आत्माएं, कभी -कभी किन्हीं शरी
आत्मा का अशरीरी रूप स्थिर है या गतिमान?-
14 FACTS;-
1-वेद,स्मृति और पुराणों के अनुसार आत्मा की गति और उसके किसी
लोक में पहुंचने का वर्णन अलग-अलग मिलता है।हमें समझना आसान होता है कि गति न हो, तो स्थिरता होगी। स्थिरता न हो, तो गति होगी। क्योंकि हमारे खयाल में गति और स्थिरता दो ही संभावनाएं हैं।और एक न हो तो दूसरा अनिवार्य है। हम यह भी समझते है कि वे दोनों एक -दूसरे के विरोधी है।
2-परन्तु गति और स्थिरता विरोधी नहीं हैं ;एक ही चीज की तारतम्यता है। जिसको हम स्थिरता कहते हैं वह ऐसी गति है जो हमारी पकड़ में नहीं आती। जिसको हम गति कहते हैं वह भी ऐसी स्थिरता है जो हमारे खयाल में नहीं आती। यदि गति बहुत तीव्र हो तो भी स्थिर मालूम होगी।
3-उदाहरण के लिए,एक आदमी खड़ा हुआ है या चल रहा है। तर्क कहेगा, दों में से एक ही हो सकता है। आप कहें कि वह एक साथ खडा भी है और चल भी रहा है।तो तर्क नहीं मानेगा,क्योकि तर्क के पास कोई धारणा नहीं है। लेकिन इलेक्ट्रान के अनुभव ने वैज्ञानिकों को कहा कि तर्क की फिक्र छोड़ देनी पड़ेगी, अन्यथा तथ्य को झुठलाना पड़ेगा । सारे प्रयोग कहते हैं कि वह दोनों हैं।
4-जब हमारी धारणाओं से भिन्न कोई स्थिति का अनुभव होता है तो बड़ी
कठिनाई शुरू हो जाती है।जैसेकि चालीस साल पहले जब पहली दफा विज्ञान को ..इलेक्ट्रान का अनुभव हुआ तो सवाल उठा... कि इलेक्ट्रान कण है या तरंग? और बडी कठिनाई खडी हो गयी। न तो उसे कण कह सकते है,न तरंग, क्योंकि क्योंकि कण ठहरा हुआ होता है, और तरंग गतिमान।
5-इलेक्ट्रान दोनों एक साथ है ..कण भी और तरंग भी। कभी हमारी पकड़ में आता है कि वह कण है और कभी हमारी पकड़ में आता है कि वह तरंग है। और अब शब्द ही नहीं है .. दुनिया की किसी भाषा में ... कि जिससे
हम प्रकट कर सकें।और जब वैज्ञानिको ने यह देखा तो वैज्ञानिक खुद कहने लगे, कि इलेक्ट्रान कण और तरंग दोनों है। लेकिन बात रहस्यमय हो गयी ।
6-और तब आइन्स्टीन से लोगों ने कहा कि आप दोनों बातें एक साथ कहते है जो कि तर्क में नहीं आती है, हम तर्क को मानें कि तथ्य को ? वास्तव में, तथ्य यही है कि वह दोनों है ..एक साथ ।और तर्क यही कहता है कि दोनों में से एक ही हो सकता है।
7-उदाहरण के लिए एक आदमी है, अंधा है। तो हमें खयाल होता है कि शायद उसको अंधेरा ही दिखायी देता होगा। यह हमारी भ्रांति है। अंधेरा देखने के लिए भी आंख जरूरी है। आंख के बिना अंधेरा भी दिखाई नहीं पड़ सकता। क्योंकि अंधेरा जो है, वह आंख का ही अनुभव है। जिससे प्रकाश का अनुभव होता है, उसी से अंधकार का भी अनुभव होता है। जो जन्मांध है, उसे अंधेरे का भी कोई पता नहीं।
8-तो जिस इंद्रिय से गति होती है, उसी इंद्रिय से ठहराव होता है। और दो में से यदि एक चीज नहीं है तो दूसरी भी नहीं हो सकती। ये सब उपकरण निर्भर घटनाएं हैं। इन दोनों के लिए उपकरण/इंद्रियां चाहिए। जगत के समस्त अनुभव के लिए उपकरण चाहिए, साधन चाहिए, इंद्रियां चाहिए।
9-सारे धार्मिक लोगों के अनुभव कहते हैं कि आत्मा का अशरीरी रूप न ठहरा हुआ है, न गतिमान। लेकिन जो भी यह कहेगा कि दोनों नहीं है तो वह समझ के बाहर हो जाएगी।उस अंतराल के क्षण, यानी एक शरीर के छूटने और दूसरे के मिलने के बीच के क्षण में दोनों बातें नहीं हैं। इसलिए कुछ धर्मों ने तय किया है कि वह कहेंगे कि अशरीरी रूप स्थिर है; और कुछ धर्मों ने तय किया कि वह कहेंगे कि वह गतिमान है।लेकिन यह सिर्फ समझाने की कठिनाई का परिणाम है। अन्यथा दोनों नहीं कहे जा सकते। क्योंकि जिस परिवेश में स्थिति और गति घटित होती हैं, वह परिवेश ही उस जगत में नहीं है।
10-उदाहरण के लिए, पंखा तेज गति से चलता हो तो इसकी तीन पंखुडियां दिखाई नहीं देंगी ।क्योंकि तीन पंखुड़ियों के बीच की जो खाली जगह है ,इसके पहले कि वह हमें दिखाई पड़ें, पंखुडी उस जगह को भर देती है। वह पंखा इतनी तेज चल सकता है कि हम इसके आर पार किसी चीज को भी न निकाल सकें या हम इसको छुएँ और इसकी गति न मालूम पड़े।इसलिए विज्ञान कहता है कि हर चीज जो हमे स्थिर मालूम पड़ती है, वह सब गति मान है। पर गति बहुत तीव्र है, हमारी पकड़ के बाहर है। तो गति और स्थिर होना.. दो चीजें नहीं हैं ...एक ही चीज की दो डिग्रियां है।
11-उस जगत में जहां शरीर नही है ये दोनों नहीं होगी। क्योंकि जहां शरीर नही है वहा स्पेस भी नहीं है, टाइम भी नहीं है। जैसा हम जानते हैं; समय और स्थान के बाहर किसी भी चीज को सोचना हमें अति कठिन है। क्योंकि हम ऐसी कोई चीज नहीं जानते जो समय और स्थान के बाहर हो।
12-स्थिति और गति दोनों के लिए शरीर अनिवार्य है। शरीर के बिना गति नहीं हो सकती। और शरीर के बिना स्थिति भी नहीं हो सकती। क्योंकि जिसके माध्यम से स्थिति हो सकती है, उसी के माध्यम से गति हो सकती है।ठहरना और गति दोनों ही शरीर के गुण हैं। शरीर के बाहर ठहरने और गति का कोई भी अर्थ नहीं है। ठीक यही बात समस्त द्वंद्वों पर लागू होती है।
13-जैसे बोलना या मौन होना लीजिए। शरीर के बिना न तो बोला जा सकता है और न मौन हुआ जा सकता है।आमतौर से हम समझते
है कि शरीर के बिना बोला नहीं जा सकता; लेकिन मौन नहीं हुआ जा सकता, यह समझ में आना कठिन मालूम पड़ेगा।जिस माध्यम से बोला जा सकता है उसी माध्यम से मौन हुआ जा सकता है। क्योंकि मौन होना भी बोलने का एक ढंग है। 'मौन होना' बोलने की ही एक अवस्था है—'न बोलने की', लेकिन है बोलने की ही।
14-क्या आप स्वप्न में स्थिर होते हैं या गतिमान?-
अगर कोई आपसे पूछे कि स्वप्न में आप स्थिर होते हैं या गतिमान हैं, तो कठिनाई होगी। स्वप्न से जागते हैं तो यह अनुभव होता है कि अपनी जगह पर पड़े हुए हैं, लेकिन स्वप्न के बाहर आकर पता लगता है कि स्वप्न में तो बड़ी गति थी।वास्तव में ,स्वप्न में गति नहीं होती। अगर बहुत ठीक से समझें तो स्वप्न में आप भागीदार भी नहीं होते। बहुत गहरे में सिर्फ साक्षी हो सकते हैं। इसलिए स्वप्न में अपने को चलता हुआ देखते हैं,मरता हुआ भी देख सकते हैं , और अपनी लाश को पडे हुए भी देख सकते हैं।
14-1-स्वप्न में आप जिसे भी देखते हैं वह सिर्फ स्वप्न होता है, आप तो देखनेवाले ही होते हैं। स्वप्न को यदि ठीक से समझें तो आप सिर्फ विटनेस
होते हैं।इसीलिए धर्म ने एक सूत्र खोज निकाला कि जो व्यक्ति जगत को स्वप्न की भांति देखने लगे, वह परम अनुभूति को उपलब्ध हो जाता है। इसलिए जगत को माया और स्वप्न कहने वाली चितनाएं पैदा होने लगीं। राज उनका यही है कि अगर जगत को हम सपने की भांति देखने लगें तो हम साक्षी हो जाएं। सपने में कभी भी कोई पार्टिसिपेट नहीं होता, हमेशा विटनेस होता है। कभी भी, किसी भी स्थिति में आप सपने में पात्र नहीं होते। भले ही आपको पात्र दिखायी पड़े, आप; लेकिन आप तो वही हैं, जिसको दिखायी पड़ता है, आप हमेशा ही देखनेवाले होते हैं, दर्शक होते हैं।
14-2-अशरीरी रूप को जितने अनुभव होंगे, बीज के होंगे ...शरीर रहित होंगे, स्वप्न जैसे होंगे। जिनके अनुभवों ने दुख को निर्मित किया है वे नरक के स्वप्न देखेंगे—नाइटमेयर्स देखेंगे। जिनके अनुभवों ने सुख को अर्जित किया है, वे स्वर्ग देखते रहेंगे, सुखद होंगे सपने उनके। लेकिन ये सब सपने जैसे अनुभव होंगे। कभी—कभी इसमें और घटनाएं घटेंगी। उन घटनाओं के अनुभव में भी भेद पड़ेगा।
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वेद,स्मृति और पुराणों के अनुसार आत्मा की गति;-
संक्षिप्त वैदिक मत ;-
02 FACTS;-
1-वैदिक ग्रंथ के अनुसार आत्मा पांच तरह के कोश में रहती है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय। इन्हीं कोशों में रहकर आत्मा जब शरीर छोड़ती है तो मुख्यतौर पर उसकी तीन तरह की गतियां होती हैं। इसे ही अगति और गति में विभाजित किया गया है।-
1.उर्ध्व गति,
2.स्थिर गति
3.अधोगति
1-1.उर्ध्व गति :-
इस गति के अंतर्गत व्यक्ति उपर के लोक की यात्रा करता है। ऐसा वही व्यक्ति कर सकता है जिसने जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में खुद को साक्षी भाव में रखा है या निरंतर भगवान की भक्ति की है।ऐसे व्यक्ति पितृ या देव योनी के सुख भोगकर पुन: धरती पर जन्म लेते है।
1-2.स्थिर गति :-
इस गति का अर्थ है व्यक्ति मरने के बाद न ऊपर के लोक गया और न नीचे के लोक में। अर्थात उसे यहीं तुरंत ही जन्म लेना होगा। यह जन्म उसका मनुष्य योनी का ही होगा।
1-3.अधोगति :-
जिस व्यक्ति ने किसी भी प्रकार का पाप करके या नशा करके अपनी चेतना या होश के स्तर को नीचे गिरा लिया है वह नीचे के लोकों की यात्रा करता है। रेंगने वाले, कीड़े -मकोड़े या गहरे जल में रहने वाले जीव-जंतु अधोगति का ही परिणाम है।
2-यजुर्वेद में कहा गया है कि शरीर छोड़ने के पश्चात, जिन्होंने तप-ध्यान किया है वे ब्रह्मलोक चले जाते हैं अर्थात ब्रह्मलीन हो जाते हैं। कुछ सत्कर्म करने वाले भक्तजन स्वर्ग चले जाते हैं। स्वर्ग अर्थात वे देव बन जाते हैं। राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेतयोनि में अनंतकाल तक भटकते रहते हैं और कुछ पुन: धरती पर जन्म ले लेते हैं। जन्म लेने वालों में भी जरूरी नहीं कि वे मनुष्य योनि में ही जन्म लें। इससे पूर्व ये सभी पितृलोक में रहते हैं वहीं उनका न्याय होता है।
पौराणिक मान्यता:-
09 FACTS;-
1-पुराणों के अनुसार जब भी कोई मनुष्य मरता है या आत्मा शरीर को त्यागकर यात्रा प्रारंभ करती है तो इस दौरान उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं। उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर करता है। ये तीन मार्ग हैं-
1-1-अर्चि मार्ग;-
अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है।
1-2-धूम मार्ग;-
धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है।
1-3-उत्पत्ति-विनाश मार्ग;-
उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है।
2-सभी मार्ग से गई आत्माओं को कुछ काल भिन्न-भिन्न लोक में रहने के बाद पुन: मृत्युलोक में आना पड़ता है। अधिकतर आत्माओं को यहीं जन्म लेना और यहीं मरकर पुन: जन्म लेना होता है।माना जाता है कि जब कोई व्यक्ति मरता है तो सबसे पहले वह गहरी नींद के हालात में ऊपर उठने लगता है। जब आंखें खुलती हैं तो वह स्वयं की स्थिति को समझ नहीं पाता है। कुछ जो होशवान हैं वे समझ जाते हैं। मरने के 12 दिन के बाद यमलोक के लिए उसकी यात्रा शुरू होती है। वह हवा में स्वत: ही उठता जाता है, जहां रुकावट होती है वहीं उसे यमदूत नजर आते हैं, जो उसे ऊपर की ओर गमन कराते हैं।
3-गरूड़ पुराण के अनुसार आत्मा सत्रह दिन तक यात्रा करने के पश्चात अठारहवें दिन यमपुरी पहुंचती है।यमपुरी के इस रास्ते में वैतरणी नदी का उल्लेख मिलता है। वैतरणी नदी विष्ठा और रक्त से भरी हुई है। जिसने गाय को दान किया है वह इस वैतरणी नदी को आसानी से पार कर यमलोक पहुंच जाता है अन्यथा इस नदी में वे डूबते रहते हैं और यमदूत उन्हें निकालकर धक्का देते रहते हैं।
4-यमपुरी पहुंचने के बाद आत्मा 'पुष्पोदका' नामक एक और नदी के पास पहुंच जाती है जिसका जल स्वच्छ होता है और जिसमें कमल के फूल खिले रहते हैं। इसी नदी के किनारे छायादार बड़ का एक वृक्ष है, जहां आत्मा थोड़ी देर विश्राम करती है। यहीं पर उसे उसके पुत्रों या परिजनों द्वारा किए गए पिंडदान और तर्पण का भोजन मिलता है जिससे उसमें पुन: शक्ति का संचार हो जाता है।
5-यमलोक के चार द्वार है। चार मुख्य द्वारों में से दक्षिण के द्वार से पापियों का प्रवेश होता है। यम-नियम का पालन नहीं करने वाले निश्चित ही इस द्वार में प्रवेश करके कम से कम 100 वर्षों तक कष्ट झेलते हैं। पश्चिम का द्वार ऐसे जीवों का प्रवेश होता है जिन्होंने दान-पुण्य किया हो, धर्म की रक्षा की हो और तीर्थों में प्राण त्यागे हो। उत्तर के द्वार से वही आत्मा प्रवेश करती है जिसने जीवन में माता-पिता की खूब सेवा की हो, हमेशा सत्य बोलता रहा हो और हमेशा मन-वचन-कर्म से अहिंसक हो। पूर्व के द्वार से उस आत्मा का प्रवेश होता है, जो योगी, ऋषि, सिद्ध और संबुद्ध है। इसे स्वर्ग का द्वार कहते हैं। इस द्वार में प्रवेश करते ही आत्मा का गंधर्व, देव, अप्सराएं स्वागत करती हैं।
6-आत्माओं के मरने की दिशा उसके कर्म और मरने की तिथि अनुसार तय होती है। जैसे कृष्ण पक्ष में देह छोड़ दी है तो उस काल में दक्षिण और उसके पास के द्वार खुले होते हैं, लेकिन यदि शुक्ल में देख छोड़ी है तो उत्तर और उसके आसपास के द्वार खुले होते हैं। लेकिन तब कोई नियम काम नहीं करता जबकि व्यक्ति पाप से भरा हो। शुक्ल में मरकर भी वह दक्षिण दिशा में गमन करता है। इसके अलावा उत्तरायण और दक्षिणायन सबसे ज्यादा महत्व होता है।
7-उत्तरायण में मरने वाले .. चार द्वारों, सात तोरणों तथा पुष्पोदका, वैवस्वती आदि सुरम्य नदियों से पूर्ण अपनी पुरी में पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर के द्वार से प्रविष्ट होने वाले पुण्यात्मा को भगवान विष्णु के दर्शन होते हैं जो शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी, चतुर्भुज, नीलाभ रूप में अपने महाप्रासाद में रत्नासन पर दर्शन देते हैं। ऐसी शुभ आत्मा स्वर्ग का अनुभव करती है और उसे शांति व स्थिरता मिलती है। स्वर्ग में रहने के पश्चात वह किसी अच्छे समय में पुन: अच्छे कुल और स्थान में जन्म लेती है।
8-दक्षिणायन में मरने वाले ..जो लोग पापी और अधर्मी हैं जिन्होंने जीवनभर शराब, मांस और स्त्रीगमन के अलावा कुछ नहीं किया, जिन्होंने धर्म का अपमान किया और जिन्होंने कभी भी धर्म के लिए पुण्य का कोई कार्य नहीं किया वे मरने के बाद स्वत: ही दक्षिण दिशा की ओर खींच लिए जाते हैं। ऐसे पापियों को सबसे पहले तप्त लौहद्वार तथा पूय, शोणित एवं क्रूर पशुओं से पूर्ण वैतरणी नदी पार करना होती है।
9-नदी पार करने के बाद दक्षिण द्वार से भीतर आने पर वे अत्यंत विस्तीर्ण सरोवरों के समान नेत्र वाले, धूम्र वर्ण, प्रलय-मेघ के समान गर्जन करने वाले, ज्वालामय रोमधारी, बड़े तीक्ष्ण प्रज्वलित दंतयुक्त, संडसी जैसे नखों वाले, चर्म वस्त्रधारी, कुटिल-भृकुटि भयंकरतम वेश में यमराज को देखते हैं। वहां घोरतर पशु तथा यमदूत उपस्थित मिलते हैं। यमराज हमसे सदा शुभ कर्म की आशा करते हैं लेकिन जब कोई ऐसा नहीं कर पाता है तो भयानक दंड द्वारा जीव को शुद्ध करना ही इनके लोक का मुख्य कार्य है। ऐसी आत्माओं को यमराज नरक में भेज देते हैं।
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अशरीरी साधारण और मुक्त आत्मा में क्या अंतर हैं ?
04 FACTS;-
1-जहां भी शरीर नहीं है, वहां शरीर से संबंधित समस्त अनुभव तिरोहित हो जाते हैं। प्रश्न उठता है कि फिर वहां कुछ बचेगा? अगर आपके जीवन में कोई भी शरीर के भीतर रहते हुए, अशरीरी अनुभव हुआ.. जिसके लिए शरीर माध्यम नहीं था, तो बचेगा। अन्यथा कुछ भी नहीं बचेगा।साधारण अनुभव नहीं बचेंगे।उदाहरण के लिए, ध्यान में आपको प्रकाश दिखायी पड़ा,वह नहीं बचेगा। लेकिन ध्यान में अगर कोई ऐसा अनुभव हुआ हो जिसमें शरीर ने कोई माध्यम का काम ही नहीं किया हो, तो बच जाएगा। और ऐसे अनुभव के लिए कोई भाषा नहीं है। ये सारी कठिनाइयां हैं।
फिर भी इसका यह मतलब नहीं है कि वैसी आत्मा मोक्ष में पहुंच गयी, क्योंकि ये दोनों विवरण एक जैसे लगेंगे।
2-अशरीरी साधारण और मुक्त आत्मा में पोटिंशियलिटी के, बीज के भेद रहेंगे.. वास्तविकता के नहीं।अशरीरी मुक्त आत्मा संस्कार रहित हो जाती है ;सिर्फ इंद्रिय ..रहित होती है।अशरीरी साधारण आत्मा में आपके समस्त जन्मों के, जितने संस्कार हैं वह बीज रूप में सब मौजूद रहेंगे। शरीर के मिलते ही वे फिर सक्रिय हो जाएंगे।
3-जैसे एक आदमी कार चलाता है, और उसकी कार छीन ली। अब वह कार नहीं चला सकता, एक्सीलरेटर नहीं दबा सकता; ब्रेक भी नहीं लगा सकता और कार रोक भी नहीं सकता, वह दोनों ही कार के अनुभव हैं। अब वह कार के बाहर है,लेकिन कार के चलाने का जो भी अनुभव है, वह सब बीज रूप में मौजूद है। वर्षों बाद, एक्सीलरेटर पर ज्यों ही पैर रखेगा, वह कार चला सकेगा।
4-मोक्ष में समस्त अनुभव, समस्त अनुभवजन्य संस्कार, सब कर्म, सब तिरोहित हो जाते हैं ,उनकी निर्जरा हो जाती है। अशरीरी साधारण और मुक्त आत्मा में एक समानता है,.. दोनों में शरीर नहीं होता है।और एक असमानता है—मोक्ष में शरीर नहीं होता,शरीर से संबंधित अनुभवों का ज्ञान भी नहीं होता।जबकि अशरीरी साधारणआत्मा में शरीर से संबंधित अनुभवों की सब सूक्ष्म तरंगें बीज रूप से मौजूद होती हैं, जो कभी भी सक्रिय हो सकती हैं। और इस बीच जो ..जो अनुभव होंगे, वह वैसे ही अनुभव होंगे जहां शरीर नहीं था, ..स्वप्न के अनुभव ,जहाँ शरीर की कोई इंद्रिय काम नहीं करती या ध्यान के अनुभव।
क्या ये आत्माएं कभी -कभी किन्हीं शरीरों में प्रवेश कर जाती हैं?अशरीरी देव आत्मा और अशरीरी प्रेतात्मा के प्रवेश में क्या अंतर हैं?
09 FACTS;-
1-कभी -कभी ऐसा होगा कि ये आत्माएं जो न गतिमान हैं, न चलित हैं; ये कभी -कभी किन्हीं शरीरों में प्रवेश कर जाएंगी। अब यह भाषा की ही भूल है कहना, कि प्रवेश कर जाएंगी। उचित होगा ऐसा कहना कि कभी -कभी ,कोई शरीर इनको अपने में प्रवेश दे देगा।
2-इन आत्माओं का लोक कुछ हमसे भिन्न नहीं है। ठीक हमारे निकट और पड़ोस में हैं। ठीक हम एक ही जगत में अस्तित्ववान हैं।यहां इंच -इंच जगह भी आत्माओं से भरी हुई है। यहां जो हमें खाली जगह दिखायी पड़ती है वह भी भरी हुई है।दूसरे ग्रहों के शरीर, गाहक अवस्था में होते हैं।
दो तरह के शरीर, गहरी रिसेप्टिव हालत में होते हैं, एक तो बहुत भयभीत अवस्था में—दूसरा बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में।
3-यानी जितना भयभीत व्यक्ति हो उसकी खुद की ही आत्मा उसके शरीर में भीतर सिकुड़ जाती है।अथार्त शरीर के बहुत हिस्सों को खाली छोड़ देती है। उन खाली जगहों में पास -पड़ोस की कोई भी आत्मा ऐसे बह सकती है जैसे गड्डे में पानी बहता है। तब इसको जो अनुभव होते हैं ठीक वैसे हो जाते हैं जैसे शरीरधारी आत्मा को हो जाते हैं।
4-लेकिन भय की अवस्था में केवल वे ही आत्माएं सरककर भीतर प्रवेश कर सकती हैं। जो दुख स्वप्न देखती हैं , जिन्हें हम बुरी आत्माएं कह, सकते है। क्योंकि भयभीत व्यक्ति बहुत ही कुरूप और गंदी स्थिति में है। उसमें कोई श्रेष्ठ आत्मा प्रवेश नहीं कर सकती। और भयभीत व्यक्ति गड्डे की भांति है जिसमें नीचे उतरनेवाली आत्माएं ही प्रवेश कर सकती हैं।
5-दूसरा-बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में भी कोई आत्मा प्रवेश करती है। जिसको इनवोकेशन कहते हैं, आह्वान कहते है, प्रार्थना कहते है उससे भी प्रवेश होता है,लेकिन श्रेष्ठतम आत्माओं का।बहुत गहरी प्रार्थना के क्षण में भी आत्मा सिकुड़ जाती है।प्रार्थना से भरा हुआ व्यक्ति शिखर की भांति है जिसमें सिर्फ ऊपर चढनेवाली आत्माएं प्रवेश कर सकती हैं। प्रार्थना से भरा हुआ व्यक्ति इतनी आंतरिक सुगंध से और सौंदर्य से भर जाता है कि उनका रस तो केवल बहुत श्रेष्ठ आत्माओं को हो सकता है।उस समय इन दोनों अवस्थाओं में अनुभव ठीक वैसे ही हो जाते हैं जैसे कि शरीर रहते हुए होते हैं,
6-तो जिनको देवताओं का आह्वान कहा जाता रहा है उसका पूरा विज्ञान है। ये देवता कहीं आकाश से नहीं आते। जिन्हें भूत प्रेत कहा जाता रहा, वे भी किन्हीं नरकों से, किन्हीं प्रेत—लोकों से नहीं आते। वे सब मौजूद
है, यहीं है।असल में एक ही स्थान पर ,एक ही बिंदु पर बहुआयामी अस्तित्व/ मल्टीडाइमेंशनल एक्जिस्टेंस है।
7-उदाहरण के लिए, एक कमरा है, जहां हम बैठे है।वहां हवा भी है ;यदि कोई धूप जला दे तो सुगंध भी भर जाएगी, यदि कोई गीत गाने लगे तो ध्वनि तरंगें भी भर जाएंगी। धूप का कोई भी कण ध्वनि तरंग के किसी भी
कण से नहीं टकरायेगा।इस कमरे में संगीत भी भर सकता है, प्रकाश भी भरा है। लेकिन प्रकाश की कोई तरंग, संगीत की किसी तरंग से टकराएगी नहीं। और न संगीत के भरने से प्रकाश की तरंगों को बाहर निकलना पड़ेगा या जगह खाली करनी पड़ेगी।
8-असल में इसी स्थान को ध्वनि की तरंगें एक आयाम में भरती हैं और प्रकाश की तरंग दूसरे आयाम में भरती हैं। वायु की तरंगें तीसरे आयाम में भरती हैं और इस तरह से हजार आयाम इसी कमरे को हजार तरह से भरते है। एक दूसरे में कोई बाधा नहीं पड़ती। एक दूसरे को एक दूसरे के लिए कोई स्थान खाली नहीं करना पड़ता। इसलिए स्पेस जो है, मल्टीडायमेंशनल है।
9-यदि यहां हमने एक टेबल रखी, तो इस जगह दूसरी टेबल नहीं रख सकते। क्योंकि एक टेबल एक ही आयाम में बैठती है।वह इसी आयाम की है। लेकिन दूसरे आयाम का अस्तित्व उस टेबल की वजह से कोई बाधा नहीं पाएगा। ये सारी आत्माएं ठीक हमारे निकट है। और कभी भी इनका प्रवेश हो सकता है। जब इनके प्रवेश होंगे तब ही इनके अनुभव होंगे। वह ठीक वैसे ही हो जाएंगे, जैसे शरीर में प्रवेश पर होते हैं।
क्या ये अशरीरी आत्मा व्यक्तियों में प्रवेश कर ; वाणी का उपयोग कर सकतीं हैं?-
05 FACTS;-
1-जब ये अशरीरी आत्मा व्यक्तियों में प्रवेश कर जाएं ..तब ये वाणी का उपयोग कर सकते हैं। तब संवाद संभव है। इसलिए आज तक पृथ्वी पर कोई प्रेत या कोई देव प्रत्यक्ष, या सीधा कुछ भी संवादित नहीं कर पाया है। लेकिन ऐसा नहीं है कि संवाद नहीं हुआ। संवाद हुए हैं। और देवलोक या प्रेतलोक के संबंध में, स्वर्ग और नरक के संबंध में जो भी हमारे पास सूचनाएं हैं वह काल्पनिक लोगों के द्वारा नहीं हैं, वह इन लोकों में रहनेवाले लोगों के ही द्वारा हैं। लेकिन किसी के माध्यम से हैं।
2-उदाहरण के लिए, वेद है -तो वेद का कोई ऋषि नहीं कहेगा कि हम इनके लेखक हैं। वह है भी नहीं। इसमें कोई विनम्रता कारण नहीं है कि वह विनम्रतावश कहते हैं कि हम लेखक नहीं हैं। इसमें तथ्य है। ये जो कही गयी बातें हैं, यह उन्होंने नहीं कही हैं, किसी और आत्मा ने उनके द्वारा कहलवायी हैं। और यह अनुभव बड़ा साफ होता है।
3-जब कोई और आत्मा तुम्हारे भीतर प्रवेश करके बोलेगी.. तब यह अनुभव इतना साफ है कि तुम पूरी तरह जानते हो कि तुम अलग बैठे हो, तुम बोल ही नहीं रहे हो, कोई और ही बोल रहा है। तुम भी सुननेवाले हो, बोलनेवाले नहीं हो। वैसे बाहर से पता चलाना मुश्किल होगा, लेकिन बाहर से भी जो लोग ठीक से कोशिश करें तो बाहर से भी पता चलेगा। क्योंकि आवाज का ढंग बदल जाएगा, टोन बदल जाएगी, शैली बदल जाएगी, भाषा भी बदल जाती है। उस व्यक्ति को तो भीतर बहुत ही साफ मालूम पड़ेगा।
4-अगर प्रेत आत्मा ने प्रवेश किया है तो शायद वह इतना भयभीत हो जाए कि मूर्च्छित हो जाए, लेकिन अगर देव आत्मा ने प्रवेश किया है तो वह इतना जागरूक होगा जितना कि कभी भी नहीं था; और तब स्थिति बहुत साफ इसे दिखायी पड़ेगी। तो जिनमें प्रेतात्माएं प्रवेश करेंगी वह तो प्रेतात्माओं के जाने के बाद ही कह सकेंगे कि कोई हममें प्रवेश कर गया था। वे इतने भयभीत हो जाएंगे कि मूर्च्छित हो जाएंगे।
5-लेकिन जिनमें दिव्य आत्मा प्रवेश करेगी, वे उसी क्षण भी कह सकेंगे कि यह कोई और बोल रहा है, 'यह मैं नहीं बोल रहा'। यह दो आवाजें एक ही उपकरण का उपयोग करेंगी, जैसे एक ही माइक्रोफोन का दो आदमी एक साथ उपयोग कर रहे हों। एक चुप खड़ा रह जाए और दूसरा बोलना शुरू कर दे। जब शरीर की इंद्रियों का ऐसा उपयोग हो तब संवाद हो पाता है।
इसलिए देवताओं के, प्रेतों के संबंध में जो भी जगत में,उपलब्ध है वह सवांदित है। वह कहा गया है। और कोई जानने का उपाय भी तो नहीं है ।
आह्वान/ इनवोकेशन का क्या महत्व है?-
09 FACTS;-
1-सारी दुनिया के धर्मों के पास ऐसे मंत्र हैं जिनसे संबंध जोड़ा जाता रहा है;आह्वान किया जाता रहा है। और तब वह 'शक्ति मंत्र 'बन गए। और जन -जन के बीच महत्ता हो गयी।उदाहरण के लिए आपका नाम रख दिया 'श्याम'। फिर 'श्याम' की आवाज दी तो आप चौकन्ने हो गए। ऐसे ही सारे मंत्र हैं। प्रेतात्माओं के लिए भी वैसे ही मंत्र हैं। दोनों का अपना शास्त्र है।
2-व्यक्ति तो खोते चले जाएंगे, आत्माएं बदलती चली जाएंगी। लेकिन ताल -मेल खाती आत्माएं सदा उपलब्ध रहेंगी, जिनसे संबंध जोड़ा जा सके। इस स्थिति में संवाद हो सकता है।और इन सबके पूरे के पूरे
विज्ञान निर्मित हो गए हैं। और जब विज्ञान पूरा निर्मित होता है तो बडी आसानी हो जाती है। जैसे कोई दिव्य आत्मा किसी में प्रवेश कर गयी है आकस्मिक रूप से, तो धीरे— धीरे इसका विज्ञान निर्मित कर लिया गया कि किन परिस्थितियों में वह दिव्य आत्मा प्रवेश करती है। वे परिस्थितियां अगर पैदा की जा सकें तो वह फिर प्रवेश कर सकेंगी।
3-उदाहरण के लिए, मुसलमान लोबान जलाएंगे। वह किन्हीं विशेष दिव्य आत्माओं के प्रवेश करने के लिए सुगंध के द्वारा वातावरण निर्मित करना है। हिंदू धूप जलाएंगे, या घी के दीये जलाएंगे। ये आज सिर्फ औपचारिक हैं, लेकिन कभी उनके कारण थे। एक विशेष मंत्र बोलेंगे। विशेष मंत्र इनवोकेशन बन जाता है। इसलिए जरूरी नहीं है कि मंत्र में कोई अर्थ हो। क्योंकि अर्थवाले मंत्र विकृत हो जाते हैं। अर्थहीन मंत्र विकृत नहीं होते। अर्थ में आप कुछ और भी प्रवेश कर सकते हैं। समय के अनुसार उसका अर्थ बदल सकता है, लेकिन अर्थहीन मंत्र में आप कुछ भी प्रवेश नहीं करवा सकते हैं, समय के अनुसार कोई अर्थ नहीं बदलता।
4-इसलिए जितने गहरे मंत्र हैं वह अर्थहीन हैं, सिर्फ ध्वनियां हैं। और ध्वनि उच्चारण की एक विशेष व्यवस्था है, उसी ढंग से उसका उच्चारण होना चाहिए। उतनी ही चोट, उतनी ही तीव्रता, उतना उतार -चढ़ाव, उतनी चोट होने पर वह आत्मा तत्काल प्रवेश हो सकेगी।अथवा वह आत्मा
खो गयी होगी तो उस जैसी कोई अन्य आत्मा प्रवेश हो सकेगी।
5-उदाहरण के लिए, जैनों का नमोकार मंत्र है—उसके पांच हिस्से हैं और प्रत्येक हिस्से पर जो इनवोकेशन है, जो आह्वान है, वह गहरा होता जाता है। प्रत्येक पद पर आह्वान गहरा होता जाता है। और गहरी आत्माओं के लिए होता चला जाता है।मंत्र इस प्रकार है :-''णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं''। 6-साधारणत: जैसा लोग समझते हैं, कि पूरे नमोकार को पढेंगे -यह ठीक स्थिति नहीं है। जिसको पहले पद से संबंध जोड़ना है उसको पहले पद को ही दोहराना चाहिए। बाकी चार को बीच में लाने की जरूरत नहीं है। उस एक पर ही जोर देना चाहिए। क्योंकि उस पद से संबंधित आत्माएं बिलकुल अलग हैं।
7-जैसे, नमो अरिहताणम्। उसमें अरिहंत के लिए नमस्कार है। अब 'अरिहंत' विशेष रूप से जैनों का शब्द है। जिसने अपने समस्त शत्रुओं को नष्ट कर दिया, अरिहंतहार। ’अरि' का अर्थ है शत्रु 'हत' जिसने मार डाले। तो वह ऐसी आत्मा के लिए पुकार है जो अपनी इंद्रियों को बिलकुल ही समाप्त करके बिदा हुई। यह उस आत्मा के लिए पुकार है जिसका सिर्फ एक ही जन्म हो सकता है। इस एक ही पद को दोहराना है विशेष ध्वनि और चोट के साथ।
8-यह बहुत विशेष/स्पेसिफिक पुकार है। इस पुकार के द्वारा इतर जैन दिव्य आत्मा से संबंध नहीं होता। यह एक पारिभाषिक शब्द है, जो शुद्ध जैन दिव्य आत्मा से संबंध जुड़ा पायेगा। इसमें क्राइस्ट से संबंध नहीं हो सकता। इसमें आकांक्षा नहीं है। इसमें बुद्ध से संबंध नहीं हो सकता। यह पारिभाषिक शब्द है, यह पारिभाषिक आत्मा के लिए पुकार है। ठीक ऐसे, अलग -अलग पूरे पांच हिस्सों में पांच अलग तरह की आत्माओं के लिए पुकार है।
9-अंतिम जो पुकार है, 'नमो लोए सब्ब साहूणं' वह समस्त साधुओं को नमस्कार है। उसमें विशेष पुकार नहीं है। उसमें साधु आत्मा मात्र के लिए आह्वान है। उसमें जैन और इतर जैन का प्रश्न नहीं है। वह किसी भी साधु आत्मा से संबंध जोड्ने की आकांक्षा है। वह बडी जनरलाइज्ड पुकार है ; कोई विशेष निमंत्रण नहीं है उस पर।
क्या दो प्रेतात्माएं भी अगर परिचित होना चाहें तो दो व्यक्तियों में प्रवेश करके ही परिचित हो सकती हैं?-
12 FACTS;-
1-परिचय की जहां तक बात है,दो प्रेतात्माएं सीधे परिचित नहीं हो सकतीं। उदाहरण के लिए, बीस आदमी एक कमरे में सो जाएं। हम बीस रात भर यहीं होंगे लेकिन नींद से परिचित नहीं हो सकते। हमारा जो परिचय है वह जागने पर ही होगा। जब हम जागेंगे तो फिर कन्टीन्यू हो जाएंगे, लेकिन नींद में हम परिचित नहीं हो सकते।हां, यह हो सकता है कि एक आदमी जाग जाए, और वह सबको देख ले ।
2-इसका मतलब यह है कि अगर एक आत्मा किसी के शरीर में प्रवेश कर जाए, तो वह आत्मा इन सारी आत्माओं को देख सकती है। फिर भी वे आत्माएं उसे नहीं देखेंगी। और अगर एक आत्मा किसी के शरीर में प्रवेश कर जाए तो वह दूसरी आत्माओं को, जो कि अशरीरी हैं, उनके बाबत कुछ जान सकती है। लेकिन वे आत्माएं उसके बाबत कुछ भी नहीं जान सकतीं।
3-असल में जो जानना है, परिचय है, वह भी जिस मस्तिष्क से संभव होता है वह भी शरीर के साथ बिदा हो जाता है। हां, कुछ संभावनाएं फिर भी शेष रह जाती हैं जो कि हो सकती हैं।जैसे अगर किसी व्यक्ति ने
जीते—जी मस्तिष्क मुक्त टेलीपैथी या क्लेअरवायंस के संबंध निर्मित किए हों, किसी व्यक्ति ने जीते—जी मस्तिष्क के बिना जानने के मार्ग निर्मित कर लिए हों, तो वह प्रेत या देव -योनि में भी जा सकेगा। पर ऐसे बहुत कम लोग हैं।
4-इसलिए उस लोक की जिन आत्माओं ने कुछ खबरें दी हैं.. आत्माओं के बाबत। तो यह स्थिति ऐसी है कि जैसे बीस आदमी शराब पी लें, सब बेहोश हो जाएं लेकिन एक आदमी ने शराब पीने का इतना अभ्यास किया हो कि कितनी ही शराब पी ले और बेहोश न हो, तो वह शराब पीकर भी होश में बना रहेगा।वह शराब के अनुभव के संबंध में ऐसा कुछ कह सकता है जो बेहोश रहनेवाले नहीं कह सकते। क्योंकि वह जानने के पहले ही बेहोश हो गए होते हैं।
5-दुनिया में,इस तरह के भी छोटे -छोटे संगठन काम करते रहे हैं जो कुछ लोगों को तैयार करते हैं कि वह मरने के बाद जो लोक होगा, उस लोक के संबंध में कुछ जानकारी दे सकें। जैसे लंदन में एक छोटी सी संस्था थी। कुछ बड़े -बड़े लोग ..'ओलिवर लाज' जैसे लोग उसके सदस्य थे। उन्होंने पूरी कोशिश की।जब ओलिवर लाज मरा, उन्होंने पूरी चेष्टा की.. कि मरने के बाद वह खबर भेज सके। लेकिन बीस साल तक मेहनत करने पर भी कोई खबर न मिल सकी।
6-ऐसी संभावना मालूम होती है कि ओलिवर लाज ने भी बहुत कोशिश की, क्योंकि कुछ और आत्माओं ने खबर दी कि ओलिवर लाज पूरी कोशिश कर रहा है,लेकिन कोई टूयूनिग नहीं बैठ पायी।बीस साल निरंतर,
बहुत दफा ओलिवर लाज ने उन लोगों को ,खटखटाया जिनसे उसने वायदा किया था कि मैं खबर भेजूंगा।उसकी सारी तैयारी करवायी गयी थी कि वह खबर दे सकेगा।
7-कभी-कभी ऐसा होता था जैसे नींद में सोए आदमी को वह हड़बड़ा दे, घबड़ाकर उसका साथी बैठ जाएगा। ऐसा लगेगा कि ओलिवर लाज कहीं पास में है। लेकिन टूयूनिग नहीं बैठ पायी। ओलिवर लाज तैयार गया, लेकिन कोई दूसरा आदमी इस योग्य,तैयार नहीं था ..जो ओलिवर लाज कुछ कहे तो उसे पकड़ ले।
8-न मालूम कितनी दफा ऐसा होता कि रास्ते में अकेले कोई जाए, एकदम कोई कंधे पर... कोई हाथ रख दे।और वह मित्र जो कि ओलिवर लाज के हाथ के स्पर्श को जानते थे वह एकदम चौंककर कहेंगे कि लाज, लेकिन फिर बात खो जाती है। इसकी बहुत कोशिश चली, बीस साल—उसके साथी तो सब घबरा गए और परेशान हो गए कि यह क्या हो रहा है! लेकिन कोई संदेश, एक भी संदेश नहीं दिया जा सका।और वह बीस साल निरंतर चेष्टा करता रहा।
9-दोहरी तैयारी चाहिए। अगर टेलीपैथी का जीते -जी ठीक अनुभव हुआ हो , बिना शब्द के बोलने की क्षमता आयी हो,या बिना आंख के देखने की क्षमता आयी हो, तब उस योनि में उस तरह का व्यक्ति बहुत चीजें जान सकेगा। जानना भी सिर्फ हमारे होने पर निर्भर नहीं होता है।उदाहरण के
लिए, एक वनस्पतिशाखी, एक कवि, एक दुकानदार और एक छोटा बच्चा ..एक बगीचे में जाए।
10-वे सभी एक ही बगीचे में ,एकसाथ जाते हैं परन्तु बच्चा तितलियों के पीछे भागने लगता है, दुकानदार बैठकर अपनी दुकान की बात सोचने लगता है। उसे न फूल दिखायी पड़ते हैं, न कविता दिखायी पड़ती है।कवि फूलों में अटक जाता है, और कविताओं में खो जाता है।वनस्पति -शास्री
कुछ जानता है। उसकी भारी ट्रेनिंग है—पचास साल या बीस साल या तीस साल उसने वनस्पति की जो जानकारी ली है, वही, वहां से बोलना शुरू कर देता है। एक-एक जड़, एक -एक पत्ता और एक -एक फूल में उसे दिखायी पड़ने लगता है, जो उनमें से किसी को दिखायी नहीं पड सकता।
11-ठीक इसी प्रकार उस लोक में भी, जो इस जीवन में ऐसे ही मर जाते हैं..शरीर के अतिरिक्त बिना कुछ जाने, उनका तो कोई परिचय, कोई संबंध कुछ नहीं हो पाता। वह तो एक कोमा में, एक गहरी तंद्रा में पड़े रहकर, नए जन्म की प्रतीक्षा करते' हैं। लेकिन जो कुछ तैयारी करके जाते हैं वे कुछ कर सकते हैं। इसकी तैयारी के भी शास्त्र हैं। और मरने से पहले अगर कोई वैज्ञानिक ढंग से मरे, विज्ञानपूर्वक मरे, और मरने की पूरी तैयारी करके मरे, मरने के बाद के पूरे सूत्र लेकर कि क्या -क्या करेगा, तो बहुत काम कर सकता है। विराट अनुभव की संभावनाएं वहां हैं ;लेकिन साधारणत: नहीं।
12-साधारणत: आदमी मरा, अभी जन्म पाए कि वर्षों बाद जन्मे, वह इस बीच से कुछ भी लेकर, कुछ भी करके नहीं जाता। और इसलिए भी सीधे संवाद की कोई संभावना नहीं है।आज हम ऐसे ही समय में हैं,जहां सब
चीजें तीव्रता में हैं, जहां कोई भी चीज स्थिर नहीं है। जितनी तीव्रता
से विज्ञान कदम भरता है, उतनी ही तीव्रता से,बल्कि थोड़ा उससे भी ज्यादा धर्म को गति करना चाहिए। क्योंकि धर्म जब भी आदमी से पीछे पड़ जाए तभी आदमी का नुकसान होता है। यह बहुत बुनियादी फर्क है।
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दिव्य आत्मा के द्वारा जो वाणियों का उतरना है,क्या वह ह्वीकल
पर आधारित है?-
16 FACTS;-
1-उस जगत में ,आत्माएं संवाद नहीं कर सकती हैं, जब तक वह किसी के शरीर को न ग्रहण कर लें। और उस बीच में उनकी कोई प्रगति नहीं होती। इसीलिए मनुष्य -जन्म अनिवार्य है। जैसे आज कोई मरा और सौ साल तक वह अशरीरी हालत में रहे तो इन सौ साल में किसी तरह का विकास ही नहीं होता। वह पिछले जन्म में जहां मरा था ,ठीक वहीं से नए जन्म में प्रवेश करेगा, चाहे कितने ही समय बाद प्रवेश करे। यह विकास का काल नहीं है। ठीक वैसे ही जैसे रात जहां आप सोते हैं, सुबह आप वही उठते हैं। नींद कोई विकास का काल नहीं है।
2-इसलिए अगर बहुत से धर्म नींद के खिलाफ हो गए तो उसका कारण था, वे उसको कम करने में लग गए। क्योंकि उसमें कोई विकास नहीं होता। जहां आप थे, सुबह आप वहीं उठते हैं। ऐसे दो शरीरों के बीच, जहां से आप मरे थे, वहीं आप जन्मते हैं। आपकी स्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ता। इसीलिए कोई भी देव—योनि से मोक्ष नहीं जा सकता।देव -योनि
से मोक्ष न जाने का कुल कारण इतना ही है कि देव -योनि में कोई कर्मयोनि नहीं है। आप कुछ कर नहीं सकते हैं। कुछ हो नहीं सकता। सपने देख सकते हैं, अंतहीन सपने देख सकते हैं। मनुष्य होने के लिए लौटना ही पड़ेगा।
3-यह जो वाणियों का उतरना है, वह किसी और बड़ी दिव्य आत्मा के द्वारा किसी पर प्रयोग करना है। हर किसी का प्रयोग नहीं हो सकता, उसी का प्रयोग हो सकता है—ऐसा ह्वीकल, वाहन बनने की पवित्रता चाहिए। तब संवाद हुआ। संवाद तो हो सकता है, लेकिन तब दूसरे के शरीर का उपयोग करना पड़ेगा।
4-उदाहरण के लिए, मुहम्मद साहब ने सदा यही कहा कि मैं सिर्फ पैगंबर हूं सिर्फ पैगाम दे रहा हूं—मैसेंजर। क्योंकि मुहम्मद साहब को कभी ऐसा नहीं लगा कि जो वह दे रहे हैं वह उनका है। इतनी साफ आवाज ऊपर से आयी, जिसे मुसलमान इलहाम कहते हैं, रिवील हुआ—कि कोई अन्य भीतर प्रवेश कर गया, और बोलना शुरू कर दिया। खुद मुहम्मद साहब को भरोसा नहीं आया—''कि यह मैं बोल रहा हूं कोई मेरी मानेगा? क्योंकि कभी मैंने बोला नहीं, मेरा कोई परिचय नहीं है लोगों से ऐसा। लोग जानते नहीं हैं कि मैं इस तरह की बात बोल सकता हूं इसलिए कोई मेरा माननेवाला नहीं है''।
5-इसलिए मुहम्मद साहब डरे हुए घर लौटे। और रास्ते में बचे हुए घर आये कि कहीं किसी से बोल न लें, अन्यथा अविश्वास के सिवाय कुछ भी नहीं होगा। क्योंकि पीछे तो कोई भी आधार/पृष्ठभूमि नहीं है। तो पहले आकर सिर्फ अपनी पत्नी से कहा, और उससे भी कहा कि ''तुझे भरोसा हो तो करना, नहीं भरोसा हो तो मत करना। और तुझे भरोसा आ जाए तो फिर मैं किसी और से कहूं अन्यथा नहीं कह सकता। क्योंकि जो हुआ है, जो आया है, ऊपर से आया है; वह कोई बोल गया है। वह आवाज मेरी नहीं है ! सिर्फ शब्द मेरे हैं, बोल ..कोई और रहा है।'' जब पत्नी को भरोसा आया, तो फिर और किसी निकट से कहा।
6-हजरत मूसा के साथ भी ठीक ऐसा ही हुआ। वाणी उतरी।परन्तु अभी इस तरह की कोशिश कृष्णमूर्ति के साथ चली, जो असफल हुई।उदाहरण
के लिए,गौतम बुद्ध का एक अवतार होने की बात है—मैत्रेय। बुद्ध ने कहा है कि मैं मैत्रेय के नाम से एक बार और लौटूंगा। बहुत वक्त हो गया, ढाई हजार साल हो गए हैं। और ऐसी प्रतीति है कि कोई योग्य गर्भ नहीं उपलब्ध हो रहा है और मैत्रेय जन्म लेना चाहता है। लेकिन कोई योग्य गर्भ उपलब्ध नहीं है।
7-तब एक दूसरी कोशिश करने की व्यवस्था की गयी कि गर्भ अगर नहीं मिल सकता है तो कोई एक व्यक्ति को विकसित किया जाए और उस व्यक्ति के माध्यम से वह बोल डाले। इसके लिए बड़ा आयोजन चला।थियोसाफी शब्द ब्रह्म विद्या का द्योत्तक है;वेद एवं तंत्र सम्मत आध्यात्म विज्ञान है। यह हमें न्याय, प्रेम, विवेक, वैराग्य, सदाचार, प्रेम एवं इच्छामुक्ति की राह दिखाती है। यह सारी थियोसाफी का, पूरा का
पूरा आंदोलन सिर्फ एक काम के लिए निर्मित हुआ है कि वह उतना काम कर दे, कि एक ऐसे व्यक्ति को खोज कर तैयार कर दे ;जो सब तरह से, एक ह्वीकल बन जाए।
8-मुहम्मद साहब से जो आत्मा संदेश देना चाहती थी उसको यह तकलीफ नहीं हुई, ह्वीकल बनाना नहीं पड़ा, तैयार ही मिला।हजरत मूसा से जिस आत्मा ने संदेश दिया उसको भी वाहन बनाने के लिए कोई चेष्टा नहीं करनी पड़ी। वाहन मिल गया। बहुत सरल युग थे। वाहन मिलना कठिन नहीं था। अहंकार इतना कम था, इतनी विनम्रता से समर्पण हो सकता था कि कोई दूसरा शरीर का उपयोग कर ले और कोई हट जाए बिलकुल ऐसे ही जैसे उसका शरीर है ही नहीं। अब यह असंभव हो गया है।इडीवीजुअलिटी प्रगाढ़ है। व्यक्ति -अहंकार भारी है। कोई इंचभर नहीं हट सकता। कठिन मामला है । तो व्यक्ति तैयार कर लिया गया।
9-थियोसाफिस्टों ने तीन -चार छोटे बच्चों को चुना, क्योंकि पक्का भरोसा नहीं कि किस बच्चे का भविष्य क्या हो जाए। उन्होंने कृष्णमूर्ति को , उनके एक भाई नित्यानंद को, कृष्ण मैनन को और एक व्यक्ति जार्ज अरंडेल को भी चुना। नित्यानंद की तो मैत्रेय का संदेश देने की अति चेष्टा करने से,दुर्घटना हुई.. मृत्यु हुई ।उसकी मृत्यु से भी कृष्णमूर्ति को इतना धक्का पहुंचा कि उनके लिए माध्यम बनने में भी बाधा पड़ी। उसकी मृत्यु उनके लिए तुलना हो गई।
10-कृष्णमूर्ति को नौ साल की उम्र में एनीबीसेन्ट और लीड बीटर ने ले लिया। लेकिन यह जगत एक बड़ा ड्रामा है। छोटी शक्तियों का खेल नहीं, बड़ी शक्तियों का खेल है।जब मैत्रेय की आत्मा की संभावना
बढ़ने लगी कि हो सकता है कृष्णमूर्ति में उतर जाए, तो जिस आत्मा ने, देवदत्त नाम का व्यक्ति, जिसने गौतम बुद्ध का जीवनभर विरोध किया, गौतम बुद्ध के जीवन में हत्या की अनेक कोशिशें कीं ,जो उनका चचेरा भाई था, उसकी आत्मा कृष्णशूइrत के पिता पर हावी हो गयी। और एक मुकदमा चला जो प्रिवीकौसिल तक गया।यह बात कभी नहीं कही गयी है।
11-कृष्णमूर्ति के पिता के द्वारा यह दावा करवाया गया कि उसके बच्चे पर जबर्दस्ती इन लोगों ने कब्जा कर लिया है और उसे वह वापस चाहते हैं। नाबालिग बच्चा है। एनीबीसेन्ट ने जी—जान लगाकर वह संघर्ष किया। फिर भी नियमानुसार वह जीत नहीं सकती थी। क्योंकि नाबालिग बच्चे पर पिता का हक था। अगर बच्चा भी कहे तो भी कोई अर्थ नहीं था, क्योंकि वह नाबालिग था, उसकी बात का कोई मतलब नहीं हो सकता था।
12-इसलिए कृष्णमूर्ति को लेकर हिंदुस्तान के बाहर भाग जाना पड़ा। इधर मुकदमा चलाया गया, उधर उसे लेकर भाग जाना पड़ा। इधर मुकदमा चला, उधर एनीबीसेन्ट.. लेकिन तब तक कृष्णमूर्ति को बाहर निकाल लिया गया। मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में चला। वहां से भी एनीबीसेन्ट हारी, क्योंकि वह तो कानूनी मामला था। देवदत्त के हाथ में ज्यादा ताकत थी।
13-फिर वह प्रिवीकौसिल में गया। और प्रिवीकौसिल ने, सब कानून को तोड़कर निर्णय दिया कि वह एनीबीसेन्ट के पास जाए। इसके लिए कोई प्रेसीडेंट नहीं था। यह बिलकुल न्यायोचित घटना नहीं थी। इसके लिए कोई नियम नहीं था, यह बिलकुल ही गैरकानूनी फैसला था ।लेकिन
प्रिवीकौसिल के ऊपर तो कोई उपाय नहीं था। यह निर्णय भी मैत्रेय की आत्मा के द्वारा ही संभव हुआ, नहीं तो संभव नहीं हो सकता था। इसलिए छोटी कोर्ट में इसकी कोशिश नहीं की गयी, क्योंकि उनके ऊपर बड़ी कोर्ट थी, आखिरी कोर्ट में ही उपयोग किया गया और आखिरी अदालत के लिए रोक कर रखा गया।
14-यह नीचे के तल पर तो एक खेल था, जो इधर दिखायी पड़ रहा था, अखबारों में चल रहा था, अदालतों में मुकदमा लड़ा जा रहा था। यह ऊपर के तल पर भी शक्तियों का एक संघर्ष था। फिर कृष्णमूर्ति पर जितनी मेहनत की गयी, उतनी शायद ही कभी किसी व्यक्ति पर की गयी। व्यक्तियों ने खुद की है अपने ऊपर, इससे भी ज्यादा मेहनत की है, लेकिन दूसरे लोगों ने किसी पर इतनी मेहनत की हो, ऐसा कभी नहीं हुआ। पर सारी मेहनत के बावजूद भी ऐन वक्त पर बात बिगड़ गयी ।
थियोसाफिस्ट्स ने सारी दुनिया से छह हजार लोगों को हालैण्ड में इकट्ठा कर रखा था और घोषणा होनेवाली था कि कृष्णमूर्ति उस दिन अपने व्यक्तित्व को छोड़ देंगे और मैत्रेय के व्यक्तित्व को स्वीकार कर लेंगे। सारी तैयारियां हो गयी थीं।
15-आखिरी घोषणा थी, एक बिंदु की बात थी कि मंच पर खड़े होकर वह कहेंगे कि अब मैं कृष्णमूर्ति नहीं हूं। सारी भीतरी तैयारी पूरी थी कि वे इतना कह देंगे कि अब मैं कृष्णमूर्ति के व्यक्तित्व को इनकार करता हूं और खाली बैठ जाएंगे, ताकि मैत्रेय की आत्मा प्रवेश हो जाए और बोलना
शुरू कर दें।सारी दुनिया के छह हजार लोग जो समझते थे और उत्सुक थे, प्यासे थे, वह इकट्ठे हुए थे दूर -दूर से आकर, इस घटना को देखने के लिए और मैत्रेय की आवाज को सुनने के लिए।
16-एक अनूठी घटना होनेवाली थी। लेकिन कुछ नहीं हुआ— और ऐन वक्त पर कृष्णमूर्ति ने इनकार कर दिया। देवदत्त ने फिर धक्का दिया। वह जो प्रिवीकौसिल में नहीं हो सका था, वह अंततः आखिरी अदालत में हार गया। देवदत्त ने धक्का देकर ऐन वक्त पर कृष्णमूर्ति से इनकार करवा दिया कि'' मैं कोई शिक्षक नहीं हूं मैं कोई जगतगुरु नहीं हूं किसी की आत्मा से मुझे कुछ लेना -देना नहीं है। मैं, मैं हूं और जो मुझे कहना था
-वह कह दिया।''बहुत बड़ा प्रयोग असफल हुआ है, पर एक अर्थ में पहला प्रयोग था उस तरह का, और असफल होने की संभावना...ज्यादा थी। THE KEY POINTS;-
1-अगर हम श्रीराम के जमाने में जाएं तो धर्म सदा आदमी से आगे है और अगर हम आज अपने जमाने में आएं तो आदमी सदा धर्म से आगे है। जितना विकासमान आज आदमी हुआ है, उसका धर्म से संबंध छूट गया है -या औपचारिक संबंध रह गया है जो वह दिखाने के लिए रखता है।परन्तु धर्म आगे होना चाहिए ।
2-अगर हम गौतमबुद्ध और महावीर के जमाने को देखें तो उस युग के जो श्रेष्ठतम लोग हैं,जमाने में जो अग्रणी है, चोटी पर है, वह धार्मिक हैं और अगर हम आज के धार्मिक आदमी को देखें तो... ।इसका कारण है कि धर्म आदमी 'से आगे कदम नहीं बढ़ा पा रहा है।
3-कल का सर्वाधिक ..कम भरोसा आज अमरीका में है।कल होगा भी या नहीं, इसका पक्का नहीं। इसलिए इतनी जोर से.. आज को ही भोग लेने की आकांक्षा है। यह आकस्मिक नहीं है। यह बहुत तीव्र... चारों तरफ साफ स्थिति है कि ''चीजें कल बिखर सकती हैं''। ऐसी पूरी आदमियत है।
4-यह तो बाहर की स्थिति है, लेकिन जब भी कोई युग जैसे -जैसे ध्वंस के करीब आता है, तब भीतरी तल पर बहुत सी आत्माएं विकास के आखिरी किनारे पर पहुंच गयी होती हैं। उनको जरा से धक्के की जरूरत होती है। जरा से इशारे से उनकी छलांग लग सकती है।जैसे आमतौर से हम जानते हैं कि मौत करीब देखकर; आदमी मौत के पार का चिंतन करने लगता है। एक -एक व्यक्ति जैसे -जैसे मौत निकट आती है, वैसे धार्मिक होने लगता है। धर्म बिलकुल वैज्ञानिक प्रक्रिया है।
5-मौत करीब आती है तो सवाल उठने शुरू होते हैं मौत के पार के, अन्यथा जिंदगी इतनी उलझाए रखती है कि सवाल ही नहीं उठते। जब कोई पूरा युग मरने के करीब आता है, तब करोड़ों आत्माओं में भी वह खयाल भीतर से आना शुरू होता है। वह भी संभावना है, कि उसका उपयोग किया जा सकता हैं।
6-अब अमरीका इससे आगे नहीं जा सकेगा, बिखराव होगा।अब कोई संभावना नहीं है। इस युग की सभ्यता बिखराव पर है।आखिरी क्षण है।
गौतम बुद्ध और महावीर के बाद फिर वह स्वर्ण -शिखर नहीं छुआ जा सका। लोग आमतौर से सोचते हैं कि गौतम बुद्ध और महावीर की वजह से ऐसा हो गया होगा। बात उल्टी है। असल में बिखराव के पहले ही गौतम बुद्ध और महावीर की हैसियत के लोग काम कर पाते हैं, नहीं तो काम नहीं कर पाते। क्योंकि बिखराव के पहले जब सब चीजें अस्त -व्यस्त होती हैं, सब चीजें गिरने के करीब होती हैं।
7-जैसे व्यक्ति के सामने मौत खड़ी हो जाती है, वैसे ही पूरी सामूहिक चेतना के सामने मौत खड़ी हो जाती है। और समूहगत चेतना धर्म के और अज्ञात के चिंतन में उतरने के लिए तैयार हो जाती है। इसलिए यह संभव हो पाया कि बिहार जैसी छोटी सी जगह में पचास -पचास हजार संन्यासी महावीर के साथ घूम सके। यह फिर संभव हो सकता है।
8-उदाहरण के लिए,जीसस ने तो कहा कि ''बहुत जल्दी सब समाप्त होनेवाला है।तुम अपनी आंखों के सामने देखोंगे कि सब नष्ट हो जाएगा। चुनाव का वक्त करीब है। और जो आज नहीं बदलेंगे, उनको बदलने का फिर कोई मौका नहीं बचेगा।'' जिन्होंने सुना, समझा, उन्होंने अपने को बदला लेकिन अधिक लोग तो पूछने लगे कि कब आएगा वह समय?
9-अभी भी दो हजार साल बाद, ईसाई, पंडित, पुरोहित और थियोलाजिस्ट्स बैठकर विचार कर रहे हैं कि जीसस से कुछ गलती हो गयी मालूम होती है। क्योंकि अभी तक तो वह निर्णय का दिन /'डे आफ जजमेंट' आया नहीं।वह अभी तक नहीं आया, दो हजार साल हो गए।
यह जीसस से कोई भूल हो गयी या फिर हमने कुछ समझने में भूल कर दी? कुछ हैं ..जो कहते हैं कि शास्त्र की व्याख्या में भूल हो गयी। लेकिन उनमें से किसी को पता नहीं कि जीसस जैसे लोग जो कहते हैं, उसके प्रयोजन होते हैं।
10-जीसस ने इतनी तीव्रता पैदा की,उस तीव्रता में जो लोग समझ सके वह लोग रूपांतरित हो गए। और आदमी तीव्रता में ही रूपांतरित होता है। नहीं तो रूपांतरित नहीं होता। उसको अगर पता है कि कल हो जाएगा, तो वह आज तो करेगा ही नही। वह कहेगा, कल करेंगे। उसे अगर पता है,परसों हो जाएगा, तो वह कहेगा, परसों कर लेंगे। उसे अगर पता चल जाए कि कल है ही नही, तो ही रूपांतरण की क्षमता आती
11-एक लिहाज से जब सभ्यता बिखरती है तब कल बहुत संदिग्ध हो जाता है। कल का कोई पक्का नहीं रहता।तब 'आज ही 'सिकोड़ना पड़ता है हमें। भोगना हो तो भी और त्यागना हो तो भी आज सिकोड़ना पड़ता है। स्वयं को नष्ट करना हो तो भी , रूपांतरित करना हो तो भी आज ही करना पड़ता है।तो भौतिक तल पर एक घटना तो घट गयी है कि यूरोप और अमेरिका भोगने के लिए आज तैयार हो गए हैं कि जो करना है,आज कर लो। कल की फिक्र छोड़ दो। पीना है पी ले, भोगना है भोग लो, चोरी करना है चोरी कर लो, खाना है खा लो। जो करना है, आज कर लो।
12-आध्यात्मिक तल पर भी यह घटना घट जानी चाहिए कि जो रूपांतरण करना है वह आज कर लो, अभी कर लो। वह ठीक इसके समानांतर घट सकती है।निश्रय ही,उसकी हवा पूरब से ही जा सकेगी। पश्चिम इस हवा में जोर से बह सकता है। लेकिन हवा उसकी पूरब से ही जाएगी।चीजों के
पैदा होने का भी स्थान होता है। जैसे सभी वृक्ष सब मुल्कों में नहीं हो जाते हैं।
13-अलग -अलग जड़ें होती हैं,जमीन होती है, हवा होती है, पानी होता है। ऐसे ही सभी विचार भी सभी भूमियों में नहीं हो जाते हैं। भिन्न प्रकार की जड़ें होती हैं, हवा होती है, पानी होता है। विज्ञान पूरब में पैदा नहीं हो सका। उस वृक्ष के लिए पूरब में जड़ें नहीं हैं।धर्म पूरब में ही पैदा होता रहा,
उसके लिए बड़ी गहरी जड़ें हैं, उसकी हवा बिलकुल तैयार है, पानी बिलकुल तैयार है,भूमि बिलकुल तैयार है। अगर विज्ञान पूरब में आया है, तो पश्चिम से ही आया है। अगर धर्म पश्चिम में जाएगा, तो पूरब से ही जाएगा।
14-कई बार मुकाबला पैदा हो सकता है। जैसे जापान पूरब का मुल्क है, लेकिन विज्ञान में पश्चिम के किसी भी मुल्क से मुकाबला ले सकता है। फिर भी मजे की बात है, सिर्फ इमीटेट करता है, कभी भी मौलिक नहीं हो
पाता।ऐसा भी कर लेता है कि इमीटेशन के आगे मूल भी फीका दिखायी पड़ने लगता है। लेकिन फिर भी होता 'इमीटेशन' ही है।ठीक धर्म के
साथ,अमेरिका भी पश्चिम में आगे जा सकता है । अगर पूरब से हवा पहुंच जाए तो वह एक मामले में पूरब को फीका कर सकेगा। लेकिन फिर भी वह नकल होगी। जो इनीशिएटिव है, जो पहला कदम है.. वह पूरब के हाथ में है। इसलिए चिंगारी पूरब से ही जानी है।
....SHIVOHAM....