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क्या है कुण्डलिनी शक्ति जागरण का रहस्य ? PART-01


अधिकांश लोग ये समझते है कि कुण्डलिनी जागरण का तात्पर्य है, आत्मज्ञान प्राप्त हो जाना, परमात्मा में विलीन हो जाना और ध्यान कि गहराई में उतरकर समाधिस्थ हो जाना । अगर आप भी यही समझते है तो आप गलत है । कुण्डलिनी जागरण पूरी तरह से नास्तिक प्रणालि है । जो कुण्डलिनी जागरण करनेवाला साधक है वो ईश्वर को नहीं मानता, वो ईश्वर की सत्ता को चुनौति देता है, कहता है, "परमात्मा मेरे अतिरिक्त कोई नहीं है । मैं स्वयं में ही परमात्मा हूँ इसलिए मैं केवल अपने भीतर निहित शक्ति को जागृत करुंगा ।"

और कुण्डलिनी क्या है ? कुण्डलिनी हमारे सात केन्द्र शरीर के भीतर है जिन्हें हमने सप्तचक्र कहा : मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार कमलदल । इनमें से सबसे मूल में अर्थात् सबसे निम्न चक्र में जिसे हम योनि अथवा लिंग कहते है और गुदाप्रदेश के भीतर ये शक्ति विद्यमान रहती है लेकिन इसका मूल केन्द्र मस्तिष्क ही है, मस्तिष्क से वो जुडी रहती है लेकिन उसका स्पंदन केन्द्र (चक्र) मूलाधार है; वही एक शक्ति मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार तक जाती है ।

लेकिन भगवान ने इस शक्ति को सहस्त्रार कमलदल में क्यों नहीं रखा ! कभी आपने सोचा ? ऐसा भी तो हो सकता था कि परमात्मा पहले ही इस कुण्डलिनी शक्ति को सहस्त्रार कमलदल में रखते लेकिन उन्होनें जब इस देह की रचना कि तो इस शक्ति को मूलाधार में रखा । मूलाधार में क्यों ? इस सृष्टि के लिए, सृष्टि को आगे बढाने के लिए, वासना के लिए और मूलाधार हमारा वासना (इच्छाओं) का केन्द्र है । हम संसार से जुडते है, हम पूरी दुनिया से जुडते है, कैसे ?

मनुष्य के भीतर कुण्डलिनी शक्ति को मूलाधार चक्र में इसलिए स्थापित किया गया क्योंकि वो इच्छाएं उत्पन्न करने वाली है, वो वासना उत्पन्न करने वाली है, वो सृष्टि के साथ हमें जोड़ती है मूलाधार चक्र जो है वही प्रमुख चक्र माना गया और किसी प्रमुख चक्र के ऊपर ध्यान लगाकर इस कुंडलिनी शक्ति को ऊर्ध्वमुखी किया जाता है और कुंडलिनी जागरण है क्या ? कुंडलिनी जागरण उस मूलाधार चक्र के लिए जो मस्तिष्क के द्वारा शक्ति रखी गई है उस शक्ति को अपने मौलिक स्थान से, अपनी तो उसकी इंद्री है उस पर से हटा कर उसे धीरे-धीरे ऊपर की इंद्रियों की तरफ गतिशील किया जाता है।

ये ठीक वैसे ही है जैसे मान लीजिए कि हिमालय पर्वत के ऊपर कहीं बर्फ का बड़ा हिमनद या ग्लेशियर है, वह अपने आप पिघलता है तो एक नदी बनती है वह नीचे की ओर जाती है लेकिन कुंडलिनी साधना का तात्पर्य है कि उस नदी पर एक बांध बना दिया जाए बड़ा, ताकि वह पानी धीरे-धीरे भरता जाए और उसमें शक्ति पैदा होती जाए और अंततः वह इतना भर जाए कि जहां से वह पानी आ रहा है वहीं तक वह जा कर पहुंच जाए वह पानी वापस । तो यह प्रणाली कुंडलिनी जागरण कहलाती है ।

वह मस्तिष्क के भीतर निहित हमारी ही शक्ति है कुंडलिनी, वह कोई नई शक्ति नहीं है लेकिन वह मस्तिष्क के भीतर, सहस्त्रार के भीतर जुड़ी होने के बावजूद स्वभावतया आज्ञा चक्र में स्पंदित होती है लेकिन मुख्यतया सबसे ज्यादा सक्रिय वह मूलाधार चक्र में है इसलिए लोग प्रेम करना चाहते हैं क्योंकि प्रेम में भी मूलाधार चक्र से और अनाहत चक्र से जुड़ा हुआ तत्व है, हृदय चक्र से जुड़ा हुआ तत्व है लेकिन उसमें मूलाधार का संपुट है. लोग वासना में अधिक से अधिक खोए और डूबे रहना चाहते हैं उसका केंद्र भी मूलाधार चक्र ही है.

हम मन में इच्छा करते है कि अच्छे कपड़े पहने, राजसी दिखें, धन, वाहन, वैभव हमारे पास हो, बहुत सारे दास-दासियां, नौकर-चाकर हमारे पास हो; यह जो भावनाएं पैदा होती है और यह जो विचार पैदा होते हैं इन सबको हमारा मूलाधार प्रेरित करता है हमें, इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था, कि क्रोध कैसे पैदा होता है ? काम से क्रोध पैदा होता है । तो जो काम अर्थात मूलाधार चक्र अर्थात वासनाएं अर्थात इच्छाएं ।

जब इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती है तो क्रोध पैदा होता है और क्रोध से अनेकों प्रकार के फिर क्रमशः विकार उत्पन्न होते जाते हैं, बढ़ते चले जाते है । ठीक वैसे ही कुंडलिनी शक्ति मस्तिष्क से संचालित होने के बावजूद हमारे मूलाधार चक्र में निवास करती है और अलग अलग कुंडलिनी चक्रों के साथ उसका संबंध है, जब हम उसको मुख्य चक्र से काट डालते हैं तो वह हमें अनेकों तरह के अनुभव देने लगती है, और वह तो देगी ही ! अब आप सोचिए की यह यह जो कुंडलिनी ऊर्जा है यह बनी किस चीज के लिए है ?

यह बनी है मूलाधार चक्र के लिए, लेकिन हम उस ऊर्जा का मूलाधार चक्र में प्रयोग नहीं करके मस्तिष्क में भर देते हैं और आप सोच लीजिए हमारा मस्तिष्क पहले ही कितना बड़ा झंझाल हैं ! उसमें कितने तंतु है, उसमें कितनी उर्जा है, उसमें कितने विचार चल रहे हैं, वह सोचता भी है, समझता भी है, सुनता भी है, टेस्ट भी लेता है, रूप, रस, गंध को अनुभव करता है और निरंतर अपने जीवन को सुचारु रखने के लिए हमारा मस्तिष्क सौ तरह के षड्यंत्र तैयार करता है, निरंतर विचारशील है, स्वप्न में भी विचारशील है, निरंतर कार्यवान है, निरंतर कार्य करता रहता है ।

पहले ही इतने झंझट इस मस्तिष्क में है और ऊपर से हम मूलाधार चक्र को बंद करके उसकी ऊर्जा को ऊर्ध्वमुखी करते हैं इसीलिए आपने सुना होगा प्राचीन काल में बार-बार हिदायत दी जाती थी कि कुंडलिनी जागरण ना करें और करें तो अत्यंत योग्य गुरु के सानिध्य में और योग्य गुरु मिलते कहां है आजकल? और योग्य गुरु का तात्पर्य है जिसने स्वयं अपनी कुंडलिनी शक्ति को जगा लिया हो और आपने कहा कि भारत में तो बहुत सारे गुरु कुंडलिनी जागरण की दीक्षा दे रहे हैं और करवा रहे हैं, तो प्रश्न है, यदि उनकी स्वयं की कुंडलिनी जागृत हो गई है तो वह क्या कर रहे हैं?

इस देश में इतना पाप बढ़ रहा है, इतना अधर्म बढ़ रहा है, देश में इतना संकट है, पूरी दुनिया में त्राहि-त्राहि मची हुई है तो उनको चाहिए ना कि वह अपनी कुंडलिनी शक्ति का प्रयोग करके कुछ तो सार्थक कर्म करें और आप उन गुरुओं को देखिए, उनके जीवन में तो कुछ है ही नहीं, कुंडलिनी ऊर्जा या कुंडलिनी जागृत हुई है ऐसा प्रतीत ही नहीं होता । ना तो उनकी आंखे देखकर आपको लगेगा कि इनमें कोई सिद्धि है, इनमें कोई तेजस्विता, ओजस्विता है, ना ही वह निर्भय है, ना ही वह निडर है, ना ही उनमें वह फक्कडपना है, बस केवल अभिनय मात्र है ।

तो जब उनकी स्वयं की ही कुंडलिनी जागृत नहीं हुई तो वह तुम्हारी कुंडलिनी कैसे जागृत करेंगे यह तो सवाल ही पैदा नहीं होता, तो ठीक उसी तरह कुंडलिनी ऊर्जा के संबंध में शास्त्रों ने भी कहा, किसी योग्य गुरु के दिशा-निर्देश मैं करें, इसका कारण यह है कि पहले ही मस्तिष्क इतनी सारी मुसीबतों से भरा पड़ा है और हमारे मूलाधार चक्र की उर्जा भी जब ऊपर आने लगती है तो मस्तिष्क इस उर्जा को संभाल नहीं पाता ।

मस्तिष्क उसके लिए निर्मित नहीं है, तैयार नहीं है और मस्तिष्क में तो पहले ही बहुत सारे झंझट और बखेडे है, तो मस्तिष्क के तंतु फटने लग जाते हैं, ऊर्जा इतनी प्रवाहित हो जाती है कि व्यक्ति विक्षिप्त हो जाता है, उसके मस्तिष्क के बहुत सारे हिस्सेे काम करना बंद कर देते है और यह एक तरह की आत्महत्या है और आपने देखा होगा कि भारत में तो एक तरीका है कि कोई भी आदमी साधु बन जाता है, पेड़ के नीचे बैठता है, वहां वह गाली भी दे रहा है!

लेकिन लोग कहते हैं, "अरे! यह तो संत महात्मा है, समाधि की अवस्था में कुछ भी बोलते हैं, यह तो प्रसाद ही होता है ।" अरे वह प्रसाद नहीं है, वह बेवकूफी है, कि अगर उसने हठयोग करके, जटिल योगासन करके, प्राणायाम करके अपनी कुंडलिनी ऊर्जा को ऊर्ध्वमुखी करने की कोशिश की तो उसका मस्तिष्क बावरा हो रहा है, विक्षिप्त अवस्था उसे कहा गया है, की मस्तिष्क कैसे विक्षिप्त अवस्था में है ? कि वह अपने आप को संभाल नहीं पा रहा, वह अपने आप को संभालना चाहता है, अपने आप को स्वस्थ रखना चाहता है पर उर्जा इतनी ज्यादा एकत्रित हो गई है कि बेचारे साधु सन्यासी गालियां देते फिर रहे हैं और लोग उनकी पूजा कर रहे हैं ! वह पूजा के लायक है ही नहीं क्योंकि उन्हें यह ही नहीं मालूम कि ऊर्जा को कैसे निर्मित किया जाता है । कुंडलिनी साधना के लिए कोई तैयार ही कहां है ..रीति बिलकुल वैसी ही होनी चाहिए जो ऋषि परंपरा की है।उन्होंने कहा कि, "मस्तिष्क में इतने विचार, इतनी चीजें भरी पड़ी है, मस्तिष्क इतने सारे क्रियाओं को एक साथ संपादित करता है कि उसके पास जगह नहीं है कि उसके पास समय नहीं है इस उर्जा को संभालने के लिए और उसमें इतने विचार इस संसार के भरे है कि वासना का जो केंद्र है जो व्यक्ति को भड़काता है., जैसे मान लीजिए एक सुंदर सी लड़की ने किसी सुंदर से लड़के को देखा तो उसके मन में वासना पैदा हुई; उसे और कुछ नहीं दिखाई देगा, कुछ नहीं सुनाई देगा । यहां तक की उस लड़के में बहुत सी बुराइयां हैं, तब भी वह बुराइयां बिल्कुल नजर नहीं आएगी । बस उसे प्रेम नजर आएगा प्रेम, आकर्षण, प्यार । वह बस उसके प्यार के लिए मर जाना चाहेगी, लेकिन जैसे ही उनका विवाह होगा ..तब उस लड़की को एहसास होगा कि, हां मेरा प्यार बहुत अच्छा तो है लेकिन तब ढलान की प्यार का वह आकर्षण नहीं होगा, तब एकदम से परिस्थिति बदलेगी, फिर उसे तैयार होना पड़ेगा धीरे-धीरे उस ऊर्जा को संचित करना पड़ेगा ताकि पुनः वह युवक उसे उतना ही खूबसूरत लगे लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता ।

शादियां लंबे समय क्यों नहीं चलती ? चार-पांच सालों में वह ऊर्जा का जो ढलान है, ऊर्जा का ऊपर चढ़ना, नीचे आना वह असंतुलित हो जाता है, फिर पति पत्नी का संबंध सामाजिक संबंध रह जाता है, कि 'चलो ठीक है मेरी पत्नी है, मेरे पति है,अब जैसा भी है रहना तो साथ है, समाज जानता है इस बात को, कहीं और जाऊंगा तो गाली पड़ेगी इत्यादि इत्यादि लेकिन मन में वह आकर्षण नहीं रहा, वह संबंध नहीं रहा, क्यों?

क्योंकि मूलाधार की ऊर्जा को व्यवस्थित करके चलाना उसे नहीं आया । सोचिए कि वह मूलाधार की ऊर्जा हमें इतना भड़काती है, तो जब वह मूलाधार की ऊर्जा पूरी तरह आपके मस्तिष्क पर छा जाएगी तो आपको कैसा बना देगी ? आपको ऐसी-ऐसी कल्पनाओं के उड़ानों में ले जाएगी कि आपको अनेकों चांद, सितारे, ब्रह्म लोक, देवलोक, ईश्वर के लोक, अप्सराओं का नाचना, गंधर्वों का गायन सुनाई देने लगेगा ।

बहुत सारे लोग कहते हैं कि, "जी मैं ध्यान कर रहा था, मेरी पीठ में से कुछ उठा ऊपर, रीड की हड्डी में फस गया, अब तब से वह फंसा हुआ ही है, मुझे ना नींद आती है, ना मैं जागता हूं, न सो पाता हूं'' । कुछ कहते हैं कि मुझे 24 घंटे सिर में दर्द है, कुछ कहते हैं मुझे ढोल-नगाड़े, चिमटे, शंख, नाद, भूतों की आवाज, चिल्लाने की आवाज सुनाई देती है दिन रात, मैं पागल हो रहा हूं ''।किसी ने उन्हें यह ध्यान करने की विधि सिखाई थी कि कुंडलिनी ऊपर चढेगी, तो अब उसे कहो कि ''नीचे उतार'' क्योंकि जब तक वह उतरेगी नहीं ..तुम्हारी तो यही दुर्दशा रहेगी । पागल तो होंगे ही तुम क्योंकि कुंडलिनी उर्जा का मतलब ही है कि जो तुम हो मनुष्यत्व उससे अलग हो जाना, मनुष्य तत्व से अलग हो जाना ।

मनुष्य समय पर सोता है, समय पर जागता है, समय पर खाता है, समय पर सब कार्य करता है । अब जब कुंडलिनी जागरण हो जाएगा तो तुम मनुष्य नहीं रहोगे ना फिर ! तब तुम सो नहीं सकते? तो फिर अब क्यों कहते हो कि हम सोना चाहते हैं लेकिन नींद नहीं आती । अब जब कुंडलिनी जागृत हो गई है .. तो फिर निद्रा कहां से आएगी ? नींद आने के लिए मनुष्य होना जरूरी है और उर्जा का सही केंद्रों में शीत होना जरूरी है । अब तुम्हारी कुंडलिनी तो मस्तिष्क पर आ गई, मस्तिष्क के तंतु अब भिनभिना रहे हैं, झनझना आ रहे हैं तो निद्रा कहां से आएगी ? तो शरीर का संतुलन तो खराब होगा ही ना ?

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कुण्डलिनी-साधना

कुण्डलिनी शक्ति क्या है?

योग कुण्डल्युपनिषद् में कुण्डलिनी का वर्णन इस तरह किया गया है- ´कुण्डले अस्या´ स्त: इति: कुण्डलिनी। दो कुण्डल वाली होने के कारण पिण्डस्थ उस शक्ति प्रवाह को कुण्डलिनी कहते हैं। दो कुण्डल अर्थात इड़ा और पिंगला। बाईं ओर से बहने वाली नाड़ी को ´इड़ा´ और दाहिनी ओर से बहने वाली नाड़ी को ´पिगला´ कहते हैं। इन दोनों नाडियों के बीच जिसका प्रवाह होता है, उसे सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं। इस सुषुम्ना नाड़ी के साथ और भी नाड़ियां होती है। जिसमें एक चित्रणी नाम की नाड़ी भी होती है। इस चित्रणी नाम की नाड़ी में से होकर कुण्डलिनी शक्ति प्रवाहित होती है, इसलिए सुषुम्ना नाड़ी की दोनों ओर से बहने वाली उपयुक्त 2 नाड़ियां ही कुण्डलिनी शक्ति के 2 कुण्डल हैं। कुण्डलिनी यज्ञ का विशेष वर्णन करते हुए मुण्डकोपनिषद के २/१/८ संदर्भ में कहा गया है- ''सत्तप्राणी उसी से उत्पन्न हुए । अग्नि की सात ज्वालाएँ उसी से प्रकट हुईं । यही सप्त समिधाएँ हैं, यही सात हवि हैं । इनकी ऊर्जा उन सात लोकों तक जाती जिनका सृजन परमेश्वर ने उच्च प्रयोजनों के लिए किया गया है ।'' उपनिषद् में कुण्डलिनी शक्ति के स्वरूप का वर्णन- मूलाधारस्य वहवयात्म तेजोमध्ये व्यवस्थिता। जीवशक्ति: कुण्डलाख्या प्राणाकारण तैजसी।। अर्थात कुण्डलिनी मूलाधार चक्र में स्थित आत्माग्नी तेज के मध्य में स्थित है। वह जीवनी शक्ति है। तेज और प्राणाकार है। कुण्डलिनी शक्ति का ज्ञानार्णव तंत्र में वर्णन इस प्रकार किया गया है- मूलाधारे मूलविद्दया विद्युत्कोटि समप्रभासम्। सूर्यकटि प्रतीकाशां चन्द्रकोटि द्रवां प्रिये।। अर्थात मूलाधार चक्र में विद्युत प्रकाश ही करोड़ों किरणों वाला, करोड़ों सूर्यो और चन्द्रमाओं के प्रकाश के समान, कमल की डण्डी के समान अविच्छिन्न तीन घेरे डाले हुए मूल विद्या रूपिणी कुण्डलिनी स्थित है। वह कुण्डलिनी परम प्रकाशमय है, अविच्छिन्न शक्तिधारा है और तेजोधारा है। घेरण्ड संहिता के अनुसार- घेरण्ड संहिता में कुण्डलिनी को ही आत्मशक्ति या दिव्य शक्ति व परम देवता कहा गया है। मूलाधारे आत्मशक्ति: कुण्डली परदेवता। शमिता भुजगाकारा, सार्धत्रिबलयान्विता।। अर्थात मूलाधार में परम देवी आत्माशक्ति कुण्डलिनी तीन बलय वाली सर्पिणी के समान कुण्डल मारकर सो रही है। महाकुण्डलिनी प्रोक्त: परब्रह्म स्वरूपिणी। शब्दब्रह्ममयी देवी एकाऽनेकाक्षराकृति:।। अर्थात कुण्डलिनी शक्ति परम ब्रह्मा स्वरूपिणी, महादेवी, प्राण स्वरूपिणी तथा एक और अनेक अक्षरों के मंत्रों की आकृति में माला के समान जुड़ी हुई बतायी जाती है। कन्दोर्ध्व कुण्डली शक्ति: सुप्ता मोक्षाय योगिनाम्। बन्धनाय च मूढ़ानां यस्तां वेति से योगिवित्।। अर्थात कन्द के ऊपर कुण्डलिनी शक्ति अवस्थित है। यह कुण्डलिनी शक्ति सोई हुई अवस्था में होती है। इस कुण्डलिनी शक्ति के द्वारा ही योगिजनों को मोक्ष प्राप्त होता है। सुख के बन्धन का कारण भी कुण्डलिनी है। जो कुण्डलिनी शक्ति को अनुभाव पूर्ण रूप से कर पाता है, वही सच्चा योगी होता है। सप्त लोकों का देवी भागवत में अन्य प्रकार से उल्लेख हुआ है- उसमें भूः में धरित्री भुवः में वायु स्वः में तेजस महः में महानता, जनः में जनसमुदाय, तपः में तपश्चर्या एवं सत्य में सिद्धवाण्-वाक सिद्धि रूप सात शक्तियाँ समाहित बतायी गयी हैं । इस प्रकार कुण्डलिनी योग के अंतर्गत चक्र समुदाय में वह सभी कुछ आ जाता है, जिसकी कि भौतिक और आत्मिक प्रयोजनों के लिए आवश्यकता पड़ती है । मानवी काया को एक प्रकार से भूलोक के समान माना गया है। इसमें अवस्थित मूलाधार चक्र को पृथ्वी की तथा सहस्रार को सूर्य की उपमा दी गई है । दोनों के बीच चलने वाले आदान-प्रदान माध्यम को मेरुदण्ड कहा गया है । ब्रह्मरंध्र ब्रह्मण्ड का प्रतीक है । ठीक इसी प्रकार सहस्रार लोक ब्रह्मण्डीय चेतना का अवतरण केन्द्र है और इस महान् भण्डागार में से मूलाधार को जिस कार्य के लिए जितनी मात्रा में जिस स्तर की शक्ति कि आवश्यक्ता होती है उसकी पूर्ति लगातार होती रहती है । कुण्डलिनी प्रसंग योग वशिष्ठ, योग चूड़ामणि, देवी भवगत्, शारदा तिलक, शान्डिल्योसपनिषद मुक्ति-कोपनिषद, हठयोग संहिता, कुलार्णन तंत्र, योगिनी तंत्र बिन्दूपनिषद, रुद्र यामल तंत्र सौन्दर्य लहरी आदि गंथों में विस्तार पूर्वक दिया गया है । यही कारण है कि ऋग्वेद में ऋषि कहते हैं- हे ''प्राणाग्नि! मेरे जीवन में ऊषा बनकर प्रकटों अज्ञान का अंधकार दूर करों, ऐसा बल प्रदान करो जिससे देव शक्तियाँ खिंची चली आएँ ।'' त्रिशिखिब्रहोपनिषद में शास्त्रकार ने कहा है- ''योग साधना द्वारा जगाई हुई कुण्डलिनी बिजली के समान लडपती और चमकती है । उससे जो है, सोया सा जागता है । जो जागता है, वह दौड़ने लगता है ।'' महामंत्र में वर्णन आता है- ''जाग्रत हुई कुण्डलिनी असीम शक्ति का प्रसव करती है । उससे नाद बिन्दू, कला के तीनों अभ्यास स्वयंमेव सध जाते हैं । परा, पश्यन्ति, मध्यमा और बैखरी चारों वाणियाँ मुखर हो उठती हैं । इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति में उभार आता है । शरीर-वीणा के सभी तार क्रमबद्ध हो जाते हैं और मधुर ध्वनि में बजते हुए अन्तराल को झंकृत करते हैं । शब्दब्रह्म की यह सिद्धि मनुष्य को जीवनमुक्त कर देवात्मा बना देती है ।'' शरीर में कुण्डलिनी की अवस्था

जननेन्द्रिय के मूल में या लिंग उपस्थ में नाड़ियों का एक गुच्छा है। योग शास्त्रों में इसी को “कन्द” कहा जाता है। इसी पर कुण्डलिनी गहरी नींद में जन्म-जन्मान्तर से सो रही होती है। कुण्डलो कुटिलाकारा सर्पवत् परिकीर्तिता। सा शक्तिश्चालिता येन, स युक्तों नात्र संशय।। अर्थात कुण्डलिनी को सर्प के आकार की कुटिल कहा गया है। जिस तरह सांप कुण्डली मारकर सोता है, उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति भी आदिकाल से ही मनुष्य के अन्दर सोई हुई रहती है। यावत्सा निद्रिता देहे तावज्जीव: पयुयेथा। ज्ञान न जायते तावत् कोटि योगविधेरपि।। अर्थात जब तक कुण्डलिनी शक्ति मनुष्य के अन्दर सोई हुई अवस्था में रहती है, तब तक मनुष्य परिस्थिति के अधीन रहता है। ऐसे व्यक्ति का आचरण पशुओं के समान होता है। ऐसे व्यक्ति दीन-हीन जीवन यापन करते हैं, तथा उनका रहन-सहन, भावों और विचारों, आहार-विहार आदि में आत्म विश्वास, धैर्य, सूझ-बूझ, उमंग, उत्साह, उल्लास, दृढ़ता, स्थिरता, एकाग्रता, कार्य कुशलता, उदारता और हृदय विशालता जैसे गुणों का अभाव होता है। ऐसे व्यक्ति अनेक योग साधना, पूजा-पाठ आदि करके भी अपने ब्रह्माज्ञान विवेक को प्राप्त नहीं कर पाता। मूलाधारे प्रसुप्त साऽऽमशक्ति उन्न्द्रिता- विशुद्धे तिष्ठति मुक्तिरूपा पराशक्ति:। अर्थात वह प्रबल आत्मशक्ति मूलाधार में सो रही है। उसका प्रयोग किसी बड़े या चमत्कारी कार्य में न होने से वह अपमानित व्यक्ति की तरह शिथिल और गतिहीन बनी हुई है। व्यक्ति के अन्दर जागी हुई इच्छाशक्ति के महान उद्देश्यों की पूर्ति में नियोजित वही शक्ति पराशक्ति के रूप में विराजती है।

कुण्डलिनी जागृत करने का कारण

शरीर के अन्दर कुण्डलिनी शक्ति का जागरण होने से शरीर के अन्दर मौजूद दूषित कफ, पित्त, वात आदि से उत्पन्न होने वाले विकार नष्ट हो जाते हैं। इसके जागरण से मनुष्य के अन्दर काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे दोष, आदि खत्म हो जाते हैं। इस शक्ति का जागरण होने से यह अपनी सोई हुई अवस्था को त्याग कर सीधी हो जाती है और विद्युत तरंग के समान कम्पन के साथ इड़ा, पिंगला नाड़ियों को छोड़कर सुषुम्ना से होते हुए मस्तिष्क में पहुंच जाती है। कुण्डल्येव भवेच्छक्तिस्तां तु सचालयेत बुध:। स्पश्यनादाभ्रवोर्मध्य, शक्तिचालनमुच्चते।। अर्थात अपने अन्दर आंतरिक ज्ञान व अत्याधिक शक्ति की प्राप्ति के लिए सभी मनुष्यों को चाहिए कि वह अपने अन्दर सोई हुई कुण्डलिनी (आत्मशक्ति) का जागरण करें, उसे कार्यशील बनाएं! प्राणायाम के द्वारा जब मूलाधार से स्फूर्ति तरंग की तरह ऊर्जा शक्ति उठकर मस्तिष्क में आती हुई महसूस होने लगे तो समझना चाहिए कि कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो चुकी है। ज्ञेया शक्तिरियं विश्नोनिर्भया स्वर्णभ: स्वरा। अर्थात शरीर में उत्पन्न होने वाली इस कुण्डलिनी शक्ति को स्वर्ण के समान सुन्दर विष्णु की निर्भय शक्ति ही समझना चाहिए। यही शक्ति आत्मशक्ति, जीवशक्ति आदि नाम से भी जाना जाता है। यही ईश्वरीय शक्ति भी है, प्राणशक्ति और कुण्डलिनी शक्ति भी है। मनुष्य के शरीर में मौजूद कुण्डलिनी शक्ति और पारलौकिक शक्ति दोनों एक ही शक्ति के अलग-अलग रूप हैं। पतांजलि द्वारा रचित ´योग दर्शन´ शास्त्र के अनुसार- पतांजलि द्वारा रचित ´योग दर्शन´ शास्त्र के साधनापद में कुण्डलिनी शक्ति के जागरण के अनेकों उपाय बताए गए है। मंत्र ग्रन्थों में जितने योगों का वर्णन है, वे सभी कुण्डलिनी जागरण की ही साधना है। महाबन्ध, महावेध, महामुद्रा, खेचरी मुद्रा, विपरीत करणी मद्रा, अश्विनी मुद्रा, योनि मुद्रा, शक्ति चालिनी मुद्रा, आदि कुण्डलिनी जागरण में सहायता करते हैं। इसमें प्राणायाम के द्वारा कुण्डलिनी को जागरण करना और उसे सुषुम्ना में लाना कुण्डलिनी जागरण का सबसे अच्छा उपाय है। प्राणायाम के द्वारा कुछ समय में ही कुण्डलिनी शक्ति का जागरण कर उसके लाभों को प्राप्त किया जा सकता है। प्राणायाम से केवल कुण्डलिनी शक्ति ही जागृत ही नहीं होती बल्कि इससे अनेकों लाभ भी प्राप्त होते हैं। ´योग दर्शन´ के अनुसार प्राणायाम के अभ्यास से ज्ञान पर पड़ा हुआ अज्ञान का पर्दा नष्ट हो जाता है। इससे मनुष्य भ्रम, भय, चिंता, असमंजस्य, मूल धारणाएं और अविद्या व अन्धविश्वास आदि नष्ट होकर ज्ञान, अच्छे संस्कार, प्रतिभा, बुद्धि-विवेक आदि का विकास होने लगता है। इस साधना के द्वारा मनुष्य अपने मन को जहां चाहे वहां लगा सकता है। प्राणायाम के द्वारा मन नियंत्रण में रहता है। इससे शरीर, प्राण व मन के सभी विकार नष्ट हो जाते हैं। इससे शारीरिक क्षमता व शक्ति का विकास होता है। प्राणायाम के द्वारा प्राण व मन को वश में करने से ही व्यक्ति आश्चर्यजनक कार्य को कर सकने में समर्थ होता है। प्राणायाम आयु को बढ़ाने वाला, रोगों को दूर करने वाला, वात-पित्त-कफ के विकारों को नष्ट करने वाला होता है। यह मनुष्य के अन्दर ओज-तेज और आकर्षण को बढ़ाता है। यह शरीर में स्फूर्ति, लचक, कोमल, शांति और सुदृढ़ता लाता है। यह रक्त को शुद्ध करने वाला है, चर्म रोग नाशक है। यह जठराग्नि को बढ़ाने वाला, वीर्य दोष को नष्ट करने वाला होता है। प्राणायाम के द्वारा वीर्य और प्राण के ऊर्ध्वगमन से बुद्धि तंत्र के बन्द कोष खुलते है, साथ ही शरीर की नस-नस में अत्यंत शक्ति, साहस का संचार होने से क्रियाशीलता का विकास भी होता है।

कुंडलिनी जागरण का अर्थ है

मनुष्य को प्राप्त महानशक्ति को जाग्रत करना। यह शक्ति सभी मनुष्यों में सुप्त पड़ी रहती है। कुण्डली शक्ति उस ऊर्जा का नाम है जो हर मनुष्य में जन्मजात पायी जाती है। इसे जगाने के लिए प्रयास या साधना करनी पड़ती है। कुंडली जागरण के लिए साधक को शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक स्तर पर साधना या प्रयास करना पड़ता है। जप, तप, व्रत-उपवास, पूजा-पाठ, योग आदि के माध्यम से साधक अपनी शारीरिक एवं मानसिक, अशुद्धियों, कमियों और बुराइयों को दूर कर सोई पड़ी शक्तियों को जगाता है। अत: हम कह सकते हैं कि विभिन्न उपायों से अपनी अज्ञात, गुप्त एवं सोई पड़ी शक्तियों का जागरण ही कुंडली जागरण है। योग और अध्यात्म में इस कुंडलीनी शक्ति का निवास रीढ़ की हड्डी के समानांतर स्थित छ: चक्रों में से प्रथम चक्र मूलाधार के नीचे माना गया है। यह रीढ की हड्डी के आखिरी हिस्से के चारों ओर साढे तीन आँटे लगाकर कुण्डली मारे सोए हुए सांप की तरह सोई रहती है। आध्यात्मिक भाषा में इन्हें षट्-चक्र कहते हैं। ये चक्र क्रमश: इस प्रकार है:- मूलधार-चक्र, स्वाधिष्ठान-चक्र, मणिपुर-चक्र, अनाहत-चक्र, विशुद्ध-चक्र, आज्ञा-चक्र। साधक क्रमश: एक-एक चक्र को जाग्रत करते हुए, आज्ञा-चक्र तक पहुंचता है। मूलाधार-चक्र से प्रारंभ होकर आज्ञाचक्र तक की सफलतम यात्रा ही कुण्डलिनी जागरण कहलाता है। षट्-चक्र एक प्रकार की सूक्ष्म ग्रंथियां है। इन चक्र ग्रंथियों में जब साधक अपने ध्यान को एकाग्र करता है तो उसे वहां की सूक्ष्म स्थिति का बड़ा विचित्र अनुभव होता है। इन चक्रों में विविध शक्तियां समाहित होती है। उत्पादन, पोषण, संहार, ज्ञान, समृद्धि, बल आदि। साधक जप के द्वारा ध्वनि तरंगों को चक्रों तक भेजता है। इन पर ध्यान एकाग्र करता है। प्राणायम द्वारा चक्रों को उत्तेजित करता है। आसनों द्वारा शरीर को इसके लिए उपयुक्त बनाता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विभिन्न शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक प्रयासों के द्वारा साधक, शक्ति के केंद्र इन चक्रों को जाग्रत करता है। वैदिक ग्रन्थों में लिखा है कि मानव शरीर आत्मा का भौतिक घर मात्र है। आत्मा सात प्रकार के कोषों से ढकी हुई हैः- १- अन्नमय कोष (द्रव्य, भौतिक शरीर के रूप में जो भोजन करने से स्थिर रहता है), २- प्राणामय कोष (जीवन शक्ति), ३- मनोमय कोष (मस्तिष्क जो स्पष्टतः बुद्धि से भिन्न है), ४- विज्ञानमय कोष (बुद्धिमत्ता), ५- आनन्दमय कोष (आनन्द या अक्षय आनन्द जो शरीर या दिमाग से सम्बन्धित नहीं होता), ६- चित्-मय कोष (आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता) तथा ७- सत्-मय कोष (अन्तिम अवस्था जो अनन्त के साथ मिल जाती है)। मनुष्य के आध्यात्मिक रूप से पूर्ण विकसित होने के लिये सातों कोषों का पूर्ण विकास होना अति आवश्यक है। साधक की कुण्डलिनी जब चेतन होकर सहस्त्रार में लय हो जाती है, तो इसी को मोक्ष कहा गया है। कुण्डलिनी योग के अंतर्गत शक्तिपात विधान का वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है जैसे- योग वशिष्ठ, तेजबिन्दूनिषद्, योग चूड़ामणि, ज्ञान संकलिनी तंत्र, शिव पुराण, देवी भागवत, शाण्डिपनिषद, मुक्तिकोपनिषद, हठयोग संहिता, कुलार्णव तंत्र, योगनी तंत्र, घेरंड संहिता, कंठ श्रुति ध्यान बिन्दूपनिषद, रुद्र यामल तंत्र, योग कुण्डलिनी उपनिषद्, शारदा तिलक आदि ग्रंथों में इस विद्या के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है । तैत्तरीय आरण्यक में चक्रों को देवलोक एवं देव संस्थान कहा गया । शंकराचार्य कृत आनन्द लहरी के १७ वें श्लोक में भी ऐसा ही प्रतिपादन है । योग दर्शन समाधिपाद का ३६वाँ सूत्र है- 'विशोकाया ज्योतिष्मती' इसमें शोक संतापों का हरण करने वाली ज्योति शक्ति के रूप में कुण्डलिनी शक्ति की ओर संकेत है। हमारे ऋषियों ने गहन शोध के बाद इस सिद्धान्त को स्वीकार किया कि जो ब्रह्माण्ड में है, वही सब कुछ पिण्ड (शरीर) में है। इस प्रकार “मूलाधार-चक्र” से “कण्ठ पर्यन्त” तक का जगत “माया” का और “कण्ठ” से लेकर ऊपर का जगत “परब्रह्म” का है। मूलाद्धाराद्धि षट्चक्रं शक्तिरथानमूदीरतम् । कण्ठादुपरि मूर्द्धान्तं शाम्भव स्थानमुच्यते॥ -वराहश्रुति अर्थात मूलाधार से कण्ठपर्यन्त शक्ति का स्थान है । कण्ठ से ऊपर से मस्तक तक शाम्भव स्थान है । मूलाधार से सहस्रार तक की यात्रा को ही महायात्रा कहते हैं । योगी इसी मार्ग को पूरा करते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचते हैं । जीव, सत्ता, प्राण, शक्ति का निवास जननेन्द्रिय मूल में है । प्राण उसी भूमि में रहने वाले रज वीर्य से उत्पन्न होते हैं । ब्रह्म सत्ता का निवास ब्रह्मलोक (ब्रह्मरन्ध्र) में माना गया है । यही द्युलोक, देवलोक, स्वर्गलोक है। आत्मज्ञान (ब्रह्मज्ञान) का सूर्य इसी लोक में निवास करता है । पतन के गर्त में पड़ी क्षत-विक्षत आत्म सत्ता अब उर्ध्वगामी होती है तो उसका लक्ष्य इसी ब्रह्मलोक (सूर्यलोक) तक पहुँचना होता है । योगाभ्यास का परम पुरुषार्थ इसी निमित्त किया जाता है । कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य यही है । आत्मोत्कर्ष की महायात्रा जिस मार्ग से होती है उसे मेरुदण्ड या सुषुम्ना कहते हैं । मेरुदण्ड को राजमार्ग या महामार्ग कहते हैं । इसे धरती से स्वर्ग पहुँचने का देवयान मार्ग कहा गया है । इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं । इस्लाम धर्म के सातवें आसमान पर खुदा का निवास माना गया है । ईसाई धर्म में भी इससे मिलती-जुलती मान्यता है । हिन्दू धर्म के भूः, भुवः, स्वः, तपः, महः, सत्यम् यह सात-लोक प्रसिद्ध है । आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया है । षट्-चक्र-भेदन- षट्-चक्र-भेदन विधान कितना उपयोगी एवं सहायक है इसकी चर्चा करते हुए ‘आत्म विवेक’ नामक साधना ग्रंथ में कहा गया है कि-

गुदालिङान्तरे चक्रमाधारं तु चतुर्दलम्। परमः सहजस्तद्वदानन्दो वीरपूर्वकः॥ योगानन्दश्च तस्य स्यादीशानादिदले फलम्। स्वाधिष्ठानं लिंगमूले षट्पत्रञ्त्र् क्रमस्य तु॥ पूर्वादिषु दलेष्वाहुः फलान्येतान्यनुक्रमात्। प्रश्रयः क्रूरता गर्वों नाशो मूच्छर् ततः परम्॥ अवज्ञा स्यादविश्वासो जीवस्य चरतो ध्रुरवम्। नाभौ दशदलं चक्रं मणिपूरकसंज्ञकम्। सुषुप्तिरत्र तृष्णा स्यादीष्र्या पिशुनता तथा॥ लज्ज् भयं घृणा मोहः कषायोऽथ विषादिता। लौन्यं प्रनाशः कपटं वितर्कोऽप्यनुपिता॥ आश्शा प्रकाशश्चिन्ता च समीहा ममता ततः। क्रमेण दम्भोवैकल्यं विवकोऽहंक्वतिस्तथा॥ फलान्येतानि पूर्वादिदस्थस्यात्मनों जगुः। कण्ठेऽस्ति भारतीस्थानं विशुद्धिः षोडशच्छदम्॥ तत्र प्रणव उद्गीथो हुँ फट् वषट् स्वधा तथा। स्वाहा नमोऽमृतं सप्त स्वराः षड्जादयो विष॥ इति पूर्वादिपत्रस्थे फलान्यात्मनि षोडश॥ ---------------------------------------------------------------------

(1) गुदा और लिंग के बीच चार दल (पंखुड़ियों) वाला ‘आधार चक्र’ है। वहाँ वीरता और आनन्द भाव का वास है। (2) इसके बाद स्वाधिष्ठान-चक्र लिंग मूल में है। इसके छः दल हैं। इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश होता है। चक्रों की जागृति मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव को प्रभावित करती है। स्वाधिष्ठान की जागृति से मनुष्य अपने में नव शक्ति का संचार अनुभव करता है। उसे बलिष्ठता बढ़ती प्रतीत होती है। श्रम में उत्साह और गति में स्फूर्ति की अभिवृद्धि का आभास मिलता है। (3) नाभि में दस दल वाला मणिपूर-चक्र है। यह प्रसुप्त पड़ा रहे तो तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह, आदि कषाय-कल्मष मन में जड़ जमाये रहते हैं। मणिपूर चक्र से साहस और उत्साह की मात्रा बढ़ जाती है। संकल्प दृढ़ होते हैं और पराक्रम करने के हौसले उठते हैं। मनोविकार स्वयंमेव घटते जाते हैं और परमार्थ प्रयोजनों में अपेक्षाकृत अधिक रस मिलने लगता है। (4) हृदय स्थान में अनाहत-चक्र है। यह बारह दल वाला है। यह सोता रहे तो लिप्सा, कपट, तोड़-फोड़, कुतर्क, चिन्ता, मोह, दम्भ, अविवेक तथा अहंकार से साधक भरा रहेगा। इसके जागरण होने पर यह सब दुर्गुण हट जायेंगे। अनाहत चक्र की महिमा ईसाई धर्म में भी बहुत मानी जाती है। हृदय स्थान पर कमल के फूल की भावना करते हैं और उसे महाप्रभु ईसा का प्रतीक ‘आईचीन’ कनक कमल मानते हैं। भारतीय योगियों की दृष्टि से यह भाव संस्थान है। कलात्मक उमंगें-रसानुभुति एवं कोमल संवेदनाओं का उत्पादक स्रोत यही है। बुद्धि की वह परत जिसे विवेक-शीलता कहते हैं। आत्मीयता का विस्तार, सहानुभूति एवं उदार सेवा, सहाकारिता, इस अनाहत चक्र से ही उद्भूत होते हैं। (5) कण्ठ में विशुद्ध-चक्र है। यह सरस्वती का स्थान है। यह सोलह दल वाला है। यहाँ सोलह कलाएँ तथा सोलह विभूतियाँ विद्यमान है। कण्ठ में विशुद्ध चक्र है। इसमें बहिरंग स्वच्छता और अंतरंग पवित्रता के तत्त्व रहते हैं। दोष व दुर्गुणों के निराकरण की प्रेरणा और तदनुरूप संघर्ष क्षमता यहीं से उत्पन्न होती है। मेरुदण्ड में कंठ की सीध पर अवस्थित विशुद्ध चक्र, चित्त संस्थान को प्रभावित करता है। तदनुसार चेतना की अति महत्वपूर्ण परतों पर नियंत्रण करने और विकसित एवं परिष्कृत कर सकने के सूत्र हाथ में आ जाते हैं। नादयोग के माध्यम से दिव्य श्रवण जैसी कितनी ही परोक्षानुभूतियाँ विकसित होने लगती हैं। (6) भ्रू-मध्य में आज्ञा चक्र है। यहाँ- ॐ, उद्गीय, हूँ, फट, विषद, स्वधा, स्वहा, सप्त स्वर आदि का वास है। आज्ञा चक्र के जागरण होने से यह सभी शक्तियाँ जाग जाती हैं। (7) सहस्रार मस्तिष्क के मध्य भाग में है। शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथियों का अस्तित्व है। वहाँ से ऊर्जा का स्वयंभू प्रवाह होता है। यह ऊर्जा मस्तिष्क के अगणित केन्द्रों की ओर जाती/दौड़ती हैं। इसमें से छोटी-छोटी किरणे निकलती रहती हैं। उनकी संख्या की सही गणना तो नहीं हो सकती, पर वे हजारों में होती है। इसलिए इस चक्र के लिये ‘सहस्रार’ शब्द प्रयोग में लाया जाता है। सहस्रार चक्र का नामकरण इसी आधार पर हुआ है। यह संस्थान ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ सम्पर्क साधने में अग्रणी है, इसलिए उसे ब्रह्मरन्ध्र या ब्रह्मलोक भी कहते हैं। हिन्दू धर्मानुयायी इस स्थान पर शिखा रखते हैं। कबीर साहिब ने अपनी निम्नलिखित प्रसिद्ध रचना ‘कर नैनों दीदार महल में प्यारा है’ में सब कमलों का वर्णन विस्तार पूर्वक इस प्रकार किया है-

कर नैनो दीदार महल में प्यारा है ॥टेक॥ काम क्रोध मद लोभ बिसारो, सील संतोष छिमा सत धारो । मद्य मांस मिथ्या तजि डारो, हो ज्ञान घोड़े असवार, भरम से न्यारा है ॥1॥ धोती नेती वस्ती पाओ, आसन पद्म जुगत से लाओ । कुंभक कर रेचक करवाओ, पहिले मूल सुधार कारज हो सारा है ॥2॥ मूल कँवल दल चतुर बखानो, कलिंग जाप लाल रंग मानो । देव गनेस तह रोपा थानो, रिध सिध चँवर ढुलारा है ॥3॥ स्वाद चक्र षट्दल बिस्तारो, ब्रह्मा सावित्री रूप निहारो । उलटि नागिनी का सिर मारो, तहां शब्द ओंकारा है ॥4॥ नाभी अष्टकँवल दल साजा, सेत सिंहासन बिस्नु बिराजा । हिरिंग जाप तासु मुख गाजा, लछमी सिव आधारा है ॥5॥ द्वादस कँवल हृदय के माहीं, जंग गौर सिव ध्यान लगाई । सोहं शब्द तहां धुन छाई, गन करै जैजैकारा है ॥6॥ षोड़श दल कँवल कंठ के माहीं, तेहि मध बसे अविद्या बाई । हरि हर ब्रह्मा चँवर ढुराई, जहं शारिंग नाम उचारा है ॥7॥ ता पर कंज कँवल है भाई, बग भौरा दुह रूप लखाई । निज मन करत तहां ठुकराई, सौ नैनन पिछवारा है ॥8॥ कंवलन भेद किया निर्वारा, यह सब रचना पिण्ड मंझारा । सतसंग कर सतगुरु सिर धारा, वह सतनाम उचारा है ॥9॥ आंख कान मुख बंद कराओ अनहद झिंगा सब्द सुनाओ । दोनों तिल इकतार मिलाओ, तब देखो गुलजारा है ॥10॥ चंद सूर एकै घर लाओ, सुषमन सेती ध्यान लगाओ । तिरबेनी के संघ समाओ, भोर उतर चल पारा है ॥11॥ घंटा संख सुनो धुन दोई सहस कँवल दल जगमग होई । ता मध करता निरखो सोई, बंकनाल धस पारा है ॥12॥ डाकिन साकिनी बहु किलकारें, जम किंकर धर्म दूत हकारें । सत्तनाम सुन भागें सारे, जब सतगुरु नाम उचारा है ॥13॥ गगन मंडल विच उर्धमुख कुइआ, गुरुमुख साधू भर भर पीया । निगुरे प्यास मरे बिन कीया, जा के हिये अंधियारा है ॥14॥ त्रिकुटी महल में विद्या सारा, घनहर गरजें बजे नगारा । लाला बरन सूरज उजियारा, चतुर कंवल मंझार सब्द ओंकारा है ॥15॥ साध सोई जिन यह गढ़ लीना, नौ दरवाजे परगट चीन्हा । दसवां खोल जाय जिन दीन्हा, जहां कुंफुल रहा मारा है ॥16॥ आगे सेत सुन्न है भाई, मानसरोवर पैठि अन्हाई । हंसन मिल हंसा होइ जाई, मिलै जो अमी अहारा है ॥17॥ किंगरी सारंग बजै सितारा, अच्छर ब्रह्म सुन्न दरबारा । द्वादस भानु हंस उजियारा, खट दल कंवल मंझार सब्द रारंकारा है ॥18॥ महासुन्न सिंध बिषमी घाटी, बिन सतगुर पावै नाही बाटी । ब्याघर सिंह सरप बहु काटी, तहं सहज अचिंत पसारा है ॥19॥ अष्ट दल कंवल पारब्रह्म भाई, दाहिने द्वादस अचिंत रहाई । बायें दस दल सहज समाई, यूं कंवलन निरवारा है ॥20॥ पांच ब्रह्म पांचों अंड बीनो, पांच ब्रह्म निःअक्षर चीन्हो । चार मुकाम गुप्त तहं कीन्हो, जा मध बंदीवान पुरुष दरबारा है ॥21॥ दो पर्बत के संध निहारो, भंवर गुफा ते संत पुकारो । हंसा करते केल अपारो, तहां गुरन दरबारा है ॥22॥ सहस अठासी दीप रचाये, हीरे पन्ने महल जड़ाये । मुरली बजत अखंड सदाये, तहं सोहं झुनकारा है ॥23॥ सोहं हद्द तजी जब भाई, सत्त लोक की हद पुनि आई । उठत सुगंध महा अधिकाई, जा को वार न पारा है ॥24॥ षोड़स भानु हंस को रूपा, बीना सत धुन बजै अनूपा । हंसा करत चंवर सिर भूपा, सत्त पुरुष दरबारा है ॥25॥ कोटिन भानु उदय जो होई, एते ही पुनि चंद्र लखोई । पुरुष रोम सम एक न होई, ऐसा पुरुष दीदारा है ॥26॥ आगे अलख लोक है भाई, अलख पुरुष की तहं ठकुराई । अरबन सूर रोम सम नाहीं, ऐसा अलख निहारा है ॥27॥ ता पर अगम महल इक साजा, अगम पुरुष ताहि को राजा । खरबन सूर रोम इक लाजा, ऐसा अगम अपारा है ॥28॥ ता पर अकह लोक हैं भाई, पुरुष अनामी तहां रहाई । जो पहुँचा जानेगा वाही, कहन सुनन से न्यारा है ॥29॥ काया भेद किया निर्बारा, यह सब रचना पिंड मंझारा । माया अवगति जाल पसारा, सो कारीगर भारा है ॥30॥ आदि माया कीन्ही चतुराई, झूठी बाजी पिंड दिखाई । अवगति रचन रची अंड माहीं, ता का प्रतिबिंब डारा है ॥31॥ सब्द बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुर दइ तारी । खुले कपाट सब्द झुनकारी, पिंड अंड के पार सो देस हमारा है ॥32॥


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