क्या पांचवें शरीर के बाद रहस्य ही रहस्य है? क्या है शक्तिपात का शुद्धतम माध्यम?PART-03
क्या चार शरीरों तक द्वैत की खोज चलती है?-
05 FACTS;-
1-तुम्हारी खोज ही तुम्हें अंत तक ले जा सकती है और जैसे -जैसे तुम भीतर खोजोगे, तो जो बातें कही गयी हैं, प्रत्येक केंद्र पर दो तत्व तुमको दिखाई पड़ेंगे -एक जो तुम्हें मिला है, और एक जो तुम्हें खोजना है। क्रोध तुम्हें मिला है, क्षमा तुम्हें खोजनी है; 'काम'तुम्हें मिला है, ब्रह्मचर्य तुम्हें खोजना है, स्वप्न तुम्हें मिला है, विजन तुम्हें खोजना है, दर्शन तुम्हें खोजना है।
2-चार शरीरों तक तुम्हारी द्वैत की खोज चलेगी, पांचवें शरीर से तुम्हारी अद्वैत की खोज
शुरू होगी।अगर किसी से पूछने भी गए हो, और किसी के पास समझने भी गए हो, तो मांगने मत जाना। मांगना और बात है; समझना और बात है, पूछना और बात है। अपनी खोज जारी रखना चाहिए।और जो समझकर आए हो, उसको भी अपनी खोज ही बनाना, उसको अपना विश्वास मत बनाना। नहीं तो वह मांगना हो जाएगा।
3-अगर तुम मांगने गए , तो तुमको जो किसी ने कहा, तुम इसे अपनी थैली में बंद करके सम्हालकर रख लोगे, इसको संपत्ति बना लोगे। तब तुम साधक नहीं, भिखारी ही रह जाते हो। किसी ने, तुमसे कुछ कहा, यह तुम्हारी खोज बना, इसने तुम्हारी खोज को गतिमान किया, इसने तुम्हारी जिज्ञासा को दौड़ाया और जगाया। इससे तुम्हें और मुश्किल और बेचैनी हुई, इसने तुम्हें और नये सवाल खड़े किए, और नई दिशाएं खोलीं, और तुम नई खोज पर निकले, तब तुमने मांगा नहीं, तब तुमने किसी से समझा है। और तुमने जो समझा, वह अगर तुम्हें स्वयं को समझने में सहयोगी हो गया, तब मांगना नहीं है।
4-तो समझने निकलो, खोजने निकलो। तुम अकेले नहीं खोज रहे, और बहुत लोग खोज रहे हैं। बहुत लोगों ने खोजा है, बहुत लोगों ने पाया है। उन सबको क्या हुआ है, क्या नहीं हुआ है, ..उस सबको समझो। लेकिन उस सबको समझकर तुम अपने को समझना बंद मत कर देना; उसको समझकर तुम यह मत समझ लेना कि यह मेरी जान बन गया। उसको तुम विश्वास मत बनाना, उस पर तुम भरोसा मत करना, उस सबसे तुम प्रश्न बनाना, उस सबको तुम समस्या बनाना, उसको समाधान मत बनाना, तो फिर तुम्हारी यात्रा जारी रहेगी। और तब फिर मांगना नहीं है, तब तुम्हारी खोज है।
5-पांचवें शरीर में तुम्हें जो मिल जाए, उससे भिन्न को खोजना जारी रखना। आनंद मिल जाए तो तुम खोजना कि और आनंद के अतिरिक्त क्या है? छठवें शरीर पर तुम्हें ब्रह्म मिल जाए तो तुम खोज जारी रखना कि ब्रह्म के अतिरिक्त क्या है? तब एक दिन तुम उस सातवें शरीर पर पहुंचोगे, जहां होना और न होना, प्रकाश और अंधकार, जीवन और मृत्यु, दोनों एक साथ ही घटित हो जाते हैं। और तब परम, दि अल्टिमेट…… और उसके बाबत फिर कोई उपाय नहीं कहने का।
क्या पांचवें शरीर के बाद रहस्य ही रहस्य है?-
11 FACTS;-
1- हमारे सब शास्त्र पांचवें पर पूरे हो जाते हैं। जो बहुत वैज्ञानिक बुद्धि के लोग हैं, वे पांचवें के आगे बात नहीं करते, क्योंकि उसके बाद कास्मिक शुरू होता है, जिसके विस्तार का कोई अंत
नहीं है ।पर जो मिस्टिक किस्म के लोग हैं—जो रहस्यवादी हैं, सूफी हैं, इस तरह के लोग हैं—वे उसकी भी बात करते हैं। हालांकि उसकी बात करने में उन्हें बड़ी कठिनाई होती है, और उन्हें अपने को ही हर बार कंट्राडिक्ट करना पड़ता है, खुद को ही विरोध करना पड़ता है।
2-अगर एक सूफी फकीर की या एक मिस्टिक की पूरी बातें सुनो, तो तुम कहोगे कि यह आदमी पागल है! क्योंकि कभी यह ऐसा कहता है, कभी यह वैसा कहता है! यह कहता है : ईश्वर है भी; और यह कहता है ईश्वर नहीं भी है।यह कहता है कि मैंने उसे देखा। और दूसरे ही वाक्य में कहता है कि उसे तुम देख कैसे सकते हो.. क्योंकि वह कोई आंखों का विषय है? यह ऐसे सवाल उठाता है कि तुम्हें हैरानी होगी कि किसी दूसरे से सवाल उठा रहा है या कि अपने से उठा रहा है ।
3-इसलिए जिस धर्म में मिस्टिसिज्म नहीं है, समझना वह पांचवें पर रुक गया। लेकिन मिस्टिसिज्म /रहस्य भी आखिरी बात नहीं है। आखिरी बात शून्य है, शून्यवाद है (''Nihilism''- the rejection of all religious and moral principles, in the belief that life is meaningless).. आखिरी बात।तो जो धर्म रहस्य पर रुक गया,समझना पड़ेगा कि
...वह छठवें पर रुक गया। आखिरी बात तो आखिरी ही है। और उस शून्य के अतिरिक्त कोई आखिरी बात नहीं हो सकती।
4-तो पांचवें शरीर से अद्वैत की खोज शुरू होती है, चौथे शरीर तक द्वैत की खोज खत्म हो जाती है। और सब बाधाएं तुम्हारे भीतर हैं। और बाधाएं बड़ी अच्छी बात है कि तुम्हें उपलब्ध हैं। और प्रत्येक बाधा का रूपांतरण होकर वही तुम्हारा साधन बन जाती है। रास्ते पर एक पत्थर पड़ा है, वह, जब तक तुमने उसे समझा नहीं है , तब तक तुम्हें रोक रहा है। जिस दिन तुमने समझा उसी दिन तुम्हारी सीढ़ी बन जाता है। पत्थर वहीं पड़ा रहता है।
5-जब तक तुम नहीं समझे थे, तुम चिल्ला रहे थे कि यह पत्थर मुझे रोक रहा है, मैं आगे कैसे जाऊं! जब तुमने इस पत्थर को समझ लिया , तुम इस पर चढ़ गए और आगे चले गए। और अब तुम उस पत्थर को धन्यवाद दे रहे हो कि ''तेरी बड़ी कृपा है, क्योंकि जिस तल पर मैं चल रहा था, तुझ पर चढ़कर मेरा तल बदल गया, अब मैं दूसरे तल पर चल रहा हूं। तू साधन था, लेकिन मैं समझ रहा था बाधा है, मैं सोचता था'' रास्ता रुक गया, यह पत्थर बीच में आ गया,अब क्या होगा''..क्रोध बीच में आ गया।अगर क्रोध पर चढ़ गए तो क्षमा को उपलब्ध हो
जाएंगे, जो कि बहुत दूसरा तल है।
6-प्रत्येक राह का पत्थर बाधा बन सकता है और साधन बन सकता है। वह तुम पर निर्भर है कि उस पत्थर के साथ क्या करते हो।परन्तु, भूलकर भी पत्थर से लड़ना मत, नहीं तो सिर फूट सकता है और वह साधन नहीं बनेगा। और अगर कोई पत्थर से लड़ने लगा तो वह पत्थर रोक लेगा; क्योंकि जहां हम लड़ते हैं वहीं हम रुक जाते हैं। क्योंकि जिससे लड़ना है उसके पास रुकना पड़ता है। जिससे हम लड़ते हैं उससे कभी भी दूर नहीं जा सकते ..।
7-इसलिए अगर कोई 'काम 'से लड़ने लगा, तो वह 'काम ' के आसपास ही घूमता रहेगा। उतना ही जितना 'काम ' में डूबनेवाला घूमता है। बल्कि कई बार उससे भी ज्यादा घूमेगा क्योंकि डूबनेवाला ऊब भी जाता है, बाहर भी होता है, यह ऊब भी नहीं पाता, यह आसपास ही घूमता रहता है।
8-अगर तुम क्रोध से लड़े तो तुम क्रोध ही हो जाओगे, तुम्हारा सारा व्यक्तित्व क्रोध से भर जाएगा; और तुम्हारे रग -रग, रेशे -रेशे से क्रोध की ध्वनियां निकलने लगेंगी; और तुम्हारे चारों तरफ क्रोध की तरंगें प्रवाहित होने लगेंगी। इसलिए ऋषि -मुनियों की जो हम कहानियां पढ़ते हैं ..''महाक्रोधी'', उसका कारण है; उसका कारण है वे क्रोध से लड़नेवाले लोग हैं।उनको सिवाय अभिशाप के कुछ सूझता ही नहीं है। उनका सारा व्यक्तित्व आग हो गया है। वे पत्थर से लड़ गए हैं, वे मुश्किल में पड़ गए हैं; वे जिससे लड़े हैं, वही हो गए हैं।
9-हमने ऐसे ऋषि -मुनियों की कहानियां पढ़ी है जिन्हें कि स्वर्ग से कोई अप्सरा आकर तत्काल भ्रष्ट कर देती है। आश्चर्य की बात है यह तभी संभव है जब वे 'काम' से लड़े हों, नहीं तो संभव नहीं है। वे इतना लड़े हैं, इतना लड़े हैं कि लड़ -लड़कर खुद ही कमजोर हो गए हैं। और 'काम' अपनी जगह खड़ा है; अब वह प्रतीक्षा कर रहा है; वह किसी भी द्वार से फूट पड़ेगा।
10-तो साधक के लिए लड़ने भर से सावधान रहना है, और समझने की कोशिश करनी है। और समझने की कोशिश का मतलब ही यह है कि तुम्हें प्रकृति से जो मिला है उसको समझना। तो तुम्हें जो नहीं मिला है, उसी मिले हुए के मार्ग से तुम्हें वह भी मिल जाएगा जो नहीं मिला है;क्योंकि वह पहला छोर है। अगर तुम उसी से भाग गए तो तुम दूसरे छोर पर कभी न पहुंच पाओगे।
11-अगर 'काम' से ही घबराकर भाग गए तो ब्रह्मचर्य तक कैसे पहुंचोगे? जो प्रकृति से मिला द्वार था था। ब्रह्मचर्य उसी द्वार से खोज थी जो अंत में तुम खोद पाओगे।तो अगर ऐसा
देखोगे तो मांगने जाने की कोई जरूरत नहीं।परन्तु समझने जाने की बहुत जरूरत है; और पूरी जिंदगी समझने के लिए है -किसी से भी समझो, सब तरफ से समझो और अंततः अपने भीतर समझो।
शक्तिपात का क्या अर्थ है?
13 FACTS;-
1-जिस तरह किसी व्यक्ति की भौतिक सम्पन्नता या विपन्नता का आंकलन उसकी भौतिक सम्पति और धन से किया जाता है, ठीक उसी तरह किसी व्यक्ति की आध्यात्मिक सम्पन्नता या विपन्नता का आंकलन उसकी आध्यात्मिक शक्ति (प्राण उर्जा) से किया जाता है । जिस व्यक्ति में जितनी अधिक आध्यात्मिक उर्जा होगी, वह उतना ही अधिक आध्यात्मिक रूप से संपन्न या यूँ कह लीजिये कि सिद्ध कहा जायेगा ।लेकिन प्रश्न ये उठता है कि “ कोई आध्यात्मिक रूप से शक्ति संपन्न व्यक्ति अपनी उर्जा को किसी आध्यात्मिक रूप से विपन्न व्यक्ति में स्थानान्तरण कर सकता है ?” जी हाँ कर सकता है और इसी को शक्तिपात कहते है । किन्तु इतना जानना ही काफी नहीं है । 2-योग और अध्यात्मार्ग में ऐसे अगणित उदाहरण मौजूद हैं जिनमें समर्थ गुरुओं के अनुग्रह से सत्पात्र शिष्यों ने बहुत कुछ पाया हैं शिष्यों द्वारा सेवा के अनेकों कष्टसाध्य उदाहरण धर्म पुराणों में भरे पड़े हैं।योग शास्त्रों में शक्तिपात की चर्चा बहुत हैं समर्थ गुरु शक्तिपात के द्वारा अपने शिष्यों को स्वल्प काल में आशाजनक सामर्थ्य प्रदान कर देते हैं। सिद्ध योगी तोतापुरी जी महाराज ने श्रीराम कृष्ण परमहंस को शक्तिपात करके थोड़े ही समय में समाधि अवस्था तक पहुँचा दिया था। श्रीपरमहंसजी ने अपने शिष्य विवेकानन्द को शक्तिपात द्वारा ही आत्मसाक्षात्कार कराया या और वे क्षण भर में नास्तिक से आस्तिक बन गये थे। योगी मछीन्द्रनाथ ने गुरु गोरखनाथ को अपनी व्यक्ति गत शक्ति देकर ही स्वल्प काल में उच्चकोटि योगी बना दिया था।
3-इस प्रक्रिया के पीछे एक बहुत बड़ा रहस्य छिपा पड़ा हैं। शिष्य की श्रद्धा, कर्तव्य बुद्धि, कष्ट सहिष्णुता, उदारता एवं धैर्य की परीक्षा इससे हो जाती है और पात्र-कुपात्र का पता चल जाता हैं। दोनों ही पक्ष स्वस्थ हों तो प्रगति पथ की एक बड़ी समस्या हल हो जाती हैं। अच्छी जमीनमें भी पौधे तब उगते और बढ़ते हैं जब बीच, खाद और पानी की बाहर से व्यवस्था की जाती हैं। गुरु का कर्तव्य बीज, खाद और पानी की समुचित व्यवस्था करके शिष्य की मनोभूमि को हरी भरी बनाना होता हैं। इसी प्राण उर्जा के स्थानान्तरण के द्वारा लोगों की शारीरिक और मानसिक चिकित्सा की जाती है । शारीरिक चिकित्सा में प्राण उर्जा का प्रयोग शरीर के विभिन्न मर्म स्थलों पर हो रही रूकावटो को हटाने में किया जाता है तथा मानसिक चिकित्सा में गलत मान्यताओं और विचार प्रणाली को हटाकर सही किया जाता है ।
4-क्षण भर में अपनी सारी शक्ति शिष्य को प्रदान कर देने वाले सब मेघ यज्ञ जैसे शक्तिपात कहीं-कहीं ही और कभी-कभी ही होते हैं। यह कठिन हैं पर क्रमिक शक्तिपात उतना कठिन नहीं हैं । अधिक जल वाले तालाब का पानी पास के कम पानी वाले तालाब में एक छोटी नाली खोदकर कर पहुँचाया जा सकता हैं। सद्गुरु भी अपनी आत्मा के प्रकाश से शिष्य का अन्तःकरण प्रकाशित कर सकते हैं।यह आवश्यक नहीं कि प्राण-संचार पास-पास रहने पर ही हो, दूरस्थ व्यक्ति भी परस्पर एक दूसरे में प्राण प्रवाह संचारित कर सकते हैं। मादा कछुआ अपने अंडे बालू में देती हैं और अपनी संकल्प शक्ति प्रेरित करके उन्हें पकाती रहती हैं। यही किसी कारणवश वह मादा कछुआ मर जाय तो फिर अंडे भी सड़ जाते हैं उनमें से बच्चे नहीं निकल सकते। कछुए की भाँति प्राण शक्ति सम्पन्न गुरु भी अपने दूरस्थ शिष्यों में शक्ति संचार कर सकता हैं।प्राण संचालन विद्या के आधार पर दूरस्थ रोगियों की चिकित्सा कैसे की जा सकती हैं और किन्हीं के कुविचारों को हटाकर उनके स्थान पर सद्भावनाओं की स्थापना कैसे की जा सकती हैं।
5-प्राण-संचालन के माध्यम से रेडियो ब्राडकास्ट की तरह एक आत्मा की शक्ति दूसरी आत्मा तक पहुँच सकती हैं। मूलबन्ध, प्राणायाम और शाँभवी मुद्रा की घर्षण क्रिया से उदान प्राण को क्षुभित किया जाता हैं और जब वह उत्तेजित होकर लोम विलोम गति से संचरण करने लगे तो इसे सूर्य-चक्र में आबद्ध कर लिया जाता हैं। यहाँ से उस प्राण को किन्हीं व्यक्तियों के लिए रेडियो ब्राडकास्ट की तरह ईथर तत्त्व के माध्यम से प्रेषित किया जा सकता हैं। जिसके लिए यह प्राण प्रेषण किया जाय वह नियत निर्धारित समय ध्यान मग्न होकर बैठता है और उस प्रेषित शक्ति का आवाहन एवं अवधारण करता रहता हैं । इस प्रकार प्राण संचार की व्यक्ति भी किसी प्राणवान मार्ग दर्शक का ओजस् अपने लिए प्राप्त कर सकते हैं।
6-इस प्रकार संचार का अनुभव शिष्य को प्रत्यक्ष जैसा ही होता हैं। अपने चारों ओर से उसे पीत आभा वाला, शुभ्र वर्ण, भाप के बादलों जैसा प्राण प्रवाह उड़ता दिखाई पड़ता हैं। धुनी हुई रुई या हलकी बरफ जैसी कोई वस्तु उसे अपने चारों ओर उफनते हुए दूध के झागों की तरह चलती फिरती दीखती हैं। अवधारण करने में वह प्रवाह साधक के इन्द्रिय-छिद्रों तथा रोम कूपों द्वारा प्रवेश करता हैं । इस प्राण संचार के साथ ही उसे अपने में अनेकों उच्च कोटि की अध्यात्म भावनाएँ भी प्रविष्ट एवं प्रतिष्ठित होती दीखती हैं।जब गुरु सामने बैठकर शक्तिपात करते हैं तो ऐसा लगता है की उनकी और देखना कठिन हो रहा है। उनके मुखमंडल व शरीर के चारों तरफ दिव्य तेज/प्रकाश दिखाई देने लगता है और नींद सी आने लगती है और शरीर एकदम हल्का महसूस होता है व परमानन्द का अनुभव होता है।
7-कोई संपन्न गुरु अपनी शक्ति को शिष्य के शरीर में प्रविष्ट कराके उसके चक्रों का वेधन करता हुआ उसकी कुण्डलिनी पर आघात करता है । इस आघात से सोयी हुई कुण्डलिनी तिलमिला उठती है किन्तु वास्तव में यह कुण्डलिनी जागरण नहीं होता । बल्कि एक स्फुरण मात्र होता है, जिससे शिष्य को कुछ समय के लिए सहायता भर मिलती है।वो स्थाई नहीं होता । इस बात को थोड़ा गहराई से समझने की जरूरत है ।उदाहरण के लिए एक बीमार व्यक्ति को स्वस्थ व्यक्ति का खून चढ़ा दिया जाये तो कुछ समय के लिए उसके शरीर में भी वैसी ही स्वस्थता, क्रियाशीलता और स्फूर्ति आ जाएगी । किन्तु वह स्थाई नहीं है । यदि वह स्थाई रूप से वैसी ही स्वस्थता, क्रियाशीलता और स्फूर्ति चाहता है तो उसे स्वयं खून बनाना ही पड़ेगा ।ठीक यही बात शक्तिपात के सम्बन्ध में भी है । गुरु द्वारा दी हुई उर्जा के माध्यम से उसे स्वयं उर्जा निर्माण करना सीखना होता है । किन्तु यदि उपेक्षा पूर्वक उसे ऐसे ही बर्बाद करे तो थोड़े ही समय में वह संचित उर्जा चुक जाती है । 8-इसलिए योग्य गुरु अपने उन्हीं शिष्यों में शक्तिपात के माध्यम से उर्जा का स्थानान्तरण करते है, जो उसका सदुपयोग कर सके । प्राण उर्जा या चेतना से संचालित सैकड़ो प्राणी आपके आस -पास मौजूद है । लेकिन प्रत्येक का गुण ,कर्म ,स्वभाव अलग – अलग है । कहने का तात्पर्य केवल इतना है कि जिस तरह एक बिजली विभिन्न प्रकार के उपकरणों में विभिन्न प्रकार के कार्य करती है । ठीक उसी तरह एक प्राण उर्जा भी विभिन्न प्रकार के मनुष्यों में विभिन्न प्रकार के कार्य करेगी । अर्थात जिस गुण – कर्म स्वभाव का मनुष्य होगा । उसमें भेजी गई प्राण उर्जा भी वैसा ही कार्य करेगी । इसलिए उर्जा जब गलत हाथों में पड़ जाती है तो वह उसका दुरुपयोग करता है और जब अच्छे हाथों में पड़ती है तो वह उसका सदुपयोग करता है । 9-यह सब जिस सिद्धांत के तहत होता है, वह है विज्ञान का एक रोचक तत्थ्य, उर्जा प्रवाह का सिद्धांत – “उर्जा का प्रवाह हमेशा उच्च उर्जा स्तर से निम्न उर्जा स्तर की ओर होता है ।” यही बात प्राण उर्जा के सम्बन्ध में भी लागू होती है । इसी नियम के आधार पर शक्तिपात होता है । जाने – अनजाने इसी सिद्धांत के तहत हम अपनी उर्जा भी गँवाते रहते है ।जब कभी
कोई निम्न उर्जा का व्यक्ति हमारे संपर्क में रहता है तो स्वतः हमारी उर्जा उसमें स्थानातरित होना शुरू हो जाती है । इसीलिए जो व्यक्ति अथवा साधू – संत इस तत्थ्य को जानते है वह हर किसी को अपने चरण स्पर्श नहीं करने देते । अपनी वस्तुओं यथा कपड़े, बिस्तर, आसन, बर्तन आदि का उपयोग नहीं करने देते अथवा सबसे अलग रखते है । 10--लेकिन कुछ समर्थ लोग/ पिशाच विद्या करने वाले लोग इस सिद्धांत का अतिक्रमण कर जाते है ।जो व्यक्ति मर जाते है, उसके शरीर में प्राण उर्जा का कुछ अंश विद्यमान रहता है । जो जलाने के पश्चात् शमशान में बिखर जाती है । इसी प्राण उर्जा को इकट्ठा करने के लिए पिशाच विद्या करने वाले लोग शमशान में जाकर साधनाएँ करते है ।कभी कभी यह भी सुनने में आता है कि किसी तांत्रिक ने किसी मृत व्यक्ति को जीवित कर दिया । तो वह उसमें संचित जीवनी शक्ति अथवा अपनी जीवनी शक्ति का एक भाग उस मृत में प्रविष्ट करा देता है जिससे वह उतने ही समय के लिए जीवित हो जाता है ।किन्तु इस तरह प्राप्त हुई उर्जा से कोई भी आध्यात्मिक उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता । यह केवल लौकिक उद्देश्यों के को पूरा करने में सहायक हो सकती है । 11-एक और बात ध्यान देने योग्य है और वह यह है कि “ उर्जा का स्थानान्तरण तो संभव है किन्तु उसके साधन और परिणाम का स्थानान्तरण संभव नहीं ।” हम यहाँ जो बात कर रहे है, वह तंत्र या सूक्ष्म भौतिक जगत तक ही सीमित है । कारण जगत में स्थानान्तरण जैसा कुछ नहीं होता । वहाँ स्वयं को ही मेहनत करनी होती है । कहावत भी है “ खुद मरे बिना स्वर्ग नही दीखता ।” “अगर मुक्ति चाहिए तो भक्ति खुद को ही करनी होगी ।”कहने का तात्पर्य है कि आत्मिक उन्नति के लिए किये जाने वाले प्रयासों का स्थानान्तरण संभव नहीं है जैसे भक्ति, ध्यान, उपासना, साधना, स्वाध्याय, सदाचार, सत्य, इत्यादि । न ही उनके परिणामों का स्थानान्तरण संभव है जैसे मुक्ति, आनंद, शांति, संतोष, पुण्य इत्यादि । अतः जो कोई भी मुक्ति, आनंद, शांति और संतोष की आकांक्षा रखता है वो शक्तिपात और तांत्रिक प्राण प्रत्यावर्तन के झमेले में ना ही पड़े तो अच्छा है। क्योंकि इनका प्रभाव स्थाई नहीं होता है।
12-ध्यान/समाधी की उच्च अवस्था में पहुँच जाने पर ईष्ट देव या ईश्वर द्वारा शक्तिपात का अनुभव होता हैlआत्मिक उन्नति के लिए प्रयास करने पर,हमारे ईष्ट देव हम पर समयानुसार शक्तिपात भी करते रहते हैं। उस समय हमें ऐसा लगता है जैसे मूर्छा (बेहोशी) सी आ रही है या अचानक आँखें बंद होकर गहन ध्यान या समाधि की सी स्थिति हो जाती है, साथ ही एक दिव्य तेज का अनुभव होता है और परमानंद का अनुभव बहुत देर तक होता रहता है। ऐसा भी लगता है जैसे कोई दिव्या धारा इस तेज पुंज से निकलकर अपनी और बह रही हो व अपने अपने भीतर प्रवेश कर रही हो। वह आनंद वर्णनातीत होता है। इसे शक्तिपात कहते है।
13- कभी- कभी साधक को एक घूमता हुआ सफ़ेद चक्र या एक तेज पुंज आकाश में या कमरे की छत पर दीख पड़ता है और उसके होने मात्र से ही परमानन्द का अनुभव ह्रदय में होने लगता हैl उस समय शरीर जड़ सा हो जाता है व उस चक्र या पुंज से सफ़ेद किरणों का प्रवाह निकलता हुआ अपने शरीर के भीतर प्रवेश करता हुआ प्रतीत होता हैl उस अवस्था में बिजली के हलके झटके लगने जैसा अनुभव भी होता है और उस झटके के प्रभाव से शरीर के अंग भी
फड़कते हुए देखे जाते हैंl यदि ऐसे अनुभव होते हों तो समझ लेना चाहिए कि आप पर ईष्ट की पूर्ण कृपा हो गई है,उन्होंने आपका हाथ पकड़ लिया है और वे शीघ्र ही आपको इस माया से बाहर खींच लेंगेl
क्या मात्र शक्तिपात होने से ही साधक को अभीष्ट प्राप्त हो जाता है?-
04 FACTS;-
1-आज हम श्री मद भागवद गीता को कर्म की और प्रेरित करने वाला ग्रन्थ मानते हैं, परन्तु उसे पूरा सुनने के बाद भी क्या अर्जुन उसका भावार्थ समझ पाया ? क्या वो युद्ध के लिए तत्पर हो पाया? नहीं ..क्योंकि उसे तब ये ज्ञान नहीं था की जो सामने रथ पर खड़े हैं वो सामान्य सारथि या मित्र ही नहीं हैं अपितु ऐसे जगद्गुरु हैं जिनकी वंदना सम्पूर्ण ब्रम्हांड करता हैl उसे गीता के उन दिव्य वाक्यों में छुपे अर्थ समझ ही नहीं आ रहे थे l वस्तुतः जितने भी शास्त्र या तंत्र ग्रन्थ रचे गए हैं वे तीन ही प्रकार के श्लोकों में रचे जाते हैंl
1-1-अभिधा;-
सांकेतिक अर्थ को बतलाने वाली शब्द की प्रथम शक्ति को‘अभिधा’ कहते है। 1-2-लक्षणा;-
“लाक्षणिक अर्थ को व्यक्तकरने वाली शक्ति का नामलक्षणा है”। 1-3-व्यंजना;-
अंजना लगाने से नेत्रों कीज्योति बढ़ जाती है। इसीप्रकार काव्य में व्यंजनाप्रयुक्त करने से उसकी शोभाबढ़ जाती है। 2-सामान्य साधक या शिष्य के लिए इन श्लोकों के मर्म को समझना अत्यधिक दुष्कर है l तब अर्जुन भी इस मर्म को नहीं समझ पा रहे थे और तब कोई और चारा न देख कर कृष्ण जी को शक्तिपात की क्रिया करनी ही पड़ी और जो बाते लगातार समझाने के बाद ह्रदय में नहीं उतर पा रही थी वो शक्तिपात से सहज ही संपन्न हो गयीl उसके बाद जो हुआ वो हम सभी जानते ही हैं l 3-पर क्या मात्र शक्तिपात होने से ही साधक का अभीष्ट प्राप्त हो जाता है , नहीं वस्तुतः शक्तिपात की प्राप्ति के बाद भी साधक का जीवन पवित्रता युक्त नहीं होता है और वो नित्य प्रति की जिंदगी में मिथ्याचार, अशुद्ध भोजन और मलिन भाव से युक्त होता ही है और तब ऐसे में सद्गुरु ने जो शक्तिपात आपको प्रदान किया है वो आपके कर्मों के कारण क्षीण होते जाता है ,जैसे मिटटी के मटके में असंख्य महीन छिद्र होते हैं और जब हम उसे जल से पूरित कर देते हैं तो थोड़े समय बाद वो मटका धीरे धीरे रिक्त होते जाता है l अर्थात उसमे जल लगातार नहीं पड़ेगा तो एक समय बाद वो पूरी तरह सूख ही जायेगा l
4-साधक को भी शक्तिपात की प्राप्ति के बाद संयमित जीवन और साधना का नित्य प्रति सहारा लेना पड़ता है यदि वो ऐसा नहीं करता है तो ऐसे में उसे प्राप्त शक्तिपात भी धीरे धीरे सुप्त हो जाता है l और ये भी सत्य है की हम पर शक्तिपात की प्रक्रिया ब्रम्हांडीय शक्तियों द्वारा सृष्टि के आरंभ से ही हो रही है और आज भी होती है परन्तु ये इतनी मंद और सूक्ष्म होती है की हमें इसका अनुभव किंचित मात्र भी नहीं हो पाता हैl
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पांच तन्मात्रा के द्वारा शक्तिपात करने की विधियां;-
04 FACTS;-
1- हमारा शरीर पञ्च तत्वों से बना हुआ है यथा पृथ्वी , अग्नि , वायु , जल और आकाश |आकाश से वायु , वायु से अग्नि , अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पति हुई है |इसी उत्पति क्रम में पांच तन्मात्राएँ हैं...रूप , रस , गंध , स्पर्श और शब्द |
2-‘शब्द’ है यह कान द्वारा हमें अनुभव होता है। कान भी आकाश तत्व की प्रधानता वाली इन्द्रिय है। अग्नि तत्व की तन्मात्रा ‘रूप’ है। यह अग्नि प्रधान इन्द्रिय नेत्र द्वारा अनुभव किया जाता है। रूप को आंखें ही देखती हैं। जल तत्व की तन्मात्रा ‘रस’ है। रस का जल प्रधान इन्द्रिय जिव्हा द्वारा अनुभव होता है, षट् रसों का, खट्टे, मीठे, खारी, तीखे, कडुए, कसैले का स्वाद जीभ पहचानती है।
3-पृथ्वी तत्व की तन्मात्रा ‘गंध’ है गंध को, पृथ्वी गुण प्रधान नासिका इन्द्रिय मालूम करती है। इसी प्रकार वायु की तन्मात्रा स्पर्श का ज्ञान त्वचा को होता है। त्वचा में फैले हुए ज्ञान तंतु दूसरी वस्तुओं का ताप, भार, घनत्व एवं उनके स्पर्श की प्रतिक्रिया का अनुभव कराते हैं।
4-शक्तिपात एक गुप्तमन्त्र के साथ पांच तन्मात्राएँ द्वारा ही किया जा सकता है ।
05 POINTS;-
(1) शब्द (वाचिकी) दीक्षा (2)स्पर्श दीक्षा (3)दृष्टि (चाक्षुसी) दीक्षा (4) मानसी (ध्यान) दीक्षा (5) आणवी दीक्षा।
(1) शब्द दीक्षा;–
श्री गुरु द्वारा अपने शिष्य को सामने बिठाकर जीवात्मा-परमात्मा, ब्रह्म-माया, प्रकृति पुरूष एवं जीव-जगत सम्बन्धी विशद् ज्ञानोपदेश दिया जाता है। उसे सुनकर तथा सम्मुख उपस्थित सद्गुरु रूपी तपोपुंज से जो दिव्य-आध्यात्मिक तरंगें उत्पन्न होती हैं उनका स्पर्श पाकर सुयोग्य शिष्य को अलौकिक अनुभव होने लगते हैं।गुरुदेव की ऐसी दिव्य-वाणी को सुनकर ही शिष्य को अपने वास्तविक स्वरूप का बोध हो जाता है तथा शुद्ध ज्ञान की प्राप्ति हो जाने से उसका साधनामार्ग प्रकाशमय हो जाता है।
(2) स्पर्श दीक्षा; –
भगवान शंकर मां-पार्वती को बताते हैं कि हे पार्वती! स्पर्श दीक्षा उसी प्रकार की है जिस प्रकार एक पक्षिणी अपने पंखों के स्पर्श से अपने अण्डों के ऊपर बैठकर अपने बच्चों का लालन-पालन करती है। जब तक बच्चे अण्डों से बाहर नहीं निकलते तब तक वह अण्डों के ऊपर बैठी रहती है। अण्डों से बाहर निकल आने के बाद भी जब तक बच्चे छोटे रहते हैं उन्हें अपने पंखों से ढंककर रखती है।स्पर्श दीक्षा की विधि से शक्तिपात
करके शिष्य का उद्धार करने के अनेकों दिव्य उदाहरण शास्त्रों-पुराणों में उपलब्ध हैं।
(3)दृष्टि दीक्षा; –
दीक्षा की इस विधि में गुरु द्वारा शिष्य को अपने सामने बिठाकर अत्यन्त करूणाभाव से उसके ऊपर अपनी अमृतपूर्ण दिव्य दृष्टि डालते हुए परमात्मा से उसके आत्मोद्धार हेतु प्रार्थना की जाती है।
(4) मानसी संकल्प दीक्षा :-
भगवान शंकर मां पार्वती को बताते हैं कि ''हे पार्वती! जिस प्रकार मछली अपने बच्चों का पालन-पोषण ध्यान मात्र से ही करती है उसी प्रकार ध्यान दीक्षा भी मन के संकल्प से ही होती है''।
(5) आणवी दीक्षा ;–
इस विधि से दीक्षा प्राप्ति के अन्तर्गत सद्गुरु द्वारा शिष्य को उपास्य देवी का मंत्र, उसके पूजन-अर्चन की विधि, आसन, मुद्रा, देवी का ध्यान तथा जप के माध्यम से उपासना करने का निर्देश दिया जाता है। सुयोग्य शिष्य गुरु वाक्य तथा वेद वाक्यों का श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन करते हुए आत्म साक्षात्कार कर लेता है।
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क्या सातवें शरीर को उपलब्ध व्यक्ति शक्तिपात का शुद्धतम माध्यम है?
18 FACTS;-
1-पांचवां शरीर जिसको मिल गया है, किसी को भी शक्तिपात उसके द्वारा हो सकता है। लेकिन पांचवें शरीरवाले का जो शक्तिपात है वह उतना शुद्ध नहीं होगा, जितना छठवेंवाले का होगा, क्योंकि उसकी अस्मिता कायम है। अहंकार तो मिट गया, अस्मिता कायम है; ‘मैं’ तो मिट गया, ‘ हूं ‘ कायम है। वह ‘ हूं? थोड़ा सा रस लेगा।
2-छठवें शरीरवाले से भी शक्तिपात हो जाएगा। वहां ‘ हूं भी नहीं है अब, वहां ब्रह्म ही है। वह और शुद्ध हो जाएगा। लेकिन अभी भी ब्रह्म है। अभी ‘ नहीं है’ की स्थिति नहीं आ गई है, ‘ है’ की स्थिति है। यह ‘ है’ भी बहुत बारीक पर्दा है बहुत नाजुक, पारदर्शी /ट्रांसपैरंट लेकिन यह पर्दा है।तो छठवें शरीरवाले से भी शक्तिपात हो जाएगा। पांचवें से तो श्रेष्ठ होगा। प्रसाद के बिलकुल करीब पहुंच जाएगा। लेकिन कितने ही करीब हो, जरा सी भी दूरी दूरी है। और जितनी कीमती चीजें हों, उतनी ही छोटी सी दूरी बड़ी हो जाती है।
3-सातवें शरीर को उपलब्ध व्यक्ति से शक्तिपात शुद्धतम हो जाएगा।शक्तिपात की शुद्धतम स्थिति सातवें शरीर पर पहुंच जाएगी।शक्तिपात जहां तक पहुंच सकता है, वहां तक पहुंच जाएगी। लेकिन सातवें शरीर को उपलब्ध व्यक्ति की तरफ से कोई पर्दा नहीं है, क्योकि वह तो शून्य के साथ एक हो गया, लेकिन तुम्हारी तरफ से पर्दा है। तुम तो उसको व्यक्ति ही मानकर जीओगे। अब तुम्हारा पर्दा आखिरी बाधा डालेगा।
4- यह आखिरी पर्दा तो तुम्हारा तभी गिरेगा जब निर्व्यक्ति से तुम पर घटना घटे। यानी तुम कहीं खोजकर पकड़ ही न पाओ कि किससे घटी, कैसे घटी! कोई सोर्स न मिले तुम्हें, तभी तुम्हारा यह खयाल गिर पाएगा; सोर्सलेस हो। अगर सूरज की किरण आ रही है तो तुम सूरज को पकड़ लोगे कि वह व्यक्ति है। लेकिन ऐसी किरण आए जो कहीं से नहीं आ रही और आ गई, और ऐसी वर्षा हो जो किसी बादल से नहीं हुई और हो गई, तभी तुम्हारे मन से वह आखिरी पर्दा.. जो दूसरे के व्यक्ति होने से पैदा होता है.. गिरेगा।
5-तो बारीक से बारीक फासले होते चले जाएंगे।प्रसाद की अंतिम घटना तो तभी घटेगी.. जब कोई भी बीच में नहीं है।जब सोर्सलेस प्रसाद घटित होगा, ग्रेस उतरेगी.. जिसका कहीं कोई उदगम नहीं है, उस दिन वह शुद्धतम होगी। उस उदगम -शून्य की वजह से तुम्हारा व्यक्ति उसमें बह जाएगा, बच नहीं सकेगा। अगर दूसरा व्यक्ति मौजूद है तो वह तुम्हारे व्यक्ति को बचाने का काम करता है।तो जब हम माध्यम से लेंगे तब कुछ न कुछ अशुद्धि तो आने
ही वाली है।वह माध्यम की होगी। और इसीलिए जब कोई माध्यम नहीं होता तो शुद्धतम प्रसाद/ ग्रेस सीधी ही मिलती है।
6-फिर एक दिन तो हमें भी वह चाहिए.. जो इमीजिएट मिलता हो, मीडियम के बिना मिलता हो, सीधा मिलता हो; परमात्मा और हमारे बीच , शक्ति और हमारे बीच कोई भी न हो। ध्यान में वही रहे, नजर में वही रहे, खोज उसकी हीं रहे। बीच के मार्ग पर बहुत सी घटनाएं घट सकती हैं, लेकिन उन किसी पर रुकना नहीं है, इतना ही काफी है।असल में अगर
तुम समुद्र के किनारे या जंगल में चले जाते हो,तो ज्यादा शांति मिलती है, क्योंकि सामने दूसरा व्यक्ति /दि अदर मौजूद नहीं है। इसलिए तुम्हारा खुद का जो 'मैं' है, वह क्षीण हो जाता है। जब तक दूसरा मौजूद है, तुम्हारा मैं भी मजबूत होता है।
7-उदाहरण के लिए,एक कमरे में दो आदमी बैठे हैं, तो उस कमरे में तनाव की धाराएं बहती रहती हैं। कुछ नहीं कर रहे ..लड़ नहीं रहे, झगड़ नहीं रहे, चुपचाप बैठे हैं ..मगर उस कमरे में तनाव की धाराएं बहती रहती हैं। क्योंकि दो ''मैं'' मौजूद हैं और पूरे वक्त कार्य चल रहा है। चुप भी चलता है,सुरक्षा भी चल रही है, आक्रमण भी चल रहा है। कोई ऐसा नहीं है कि झगड़ने की सीधी जरूरत है, या कुछ कहने की जरूरत है -बस दो की मौजूदगी है, और कमरा टेंस है। अगर तुम्हें, सारी तरंगें ..जो हमारे व्यक्तित्व से निकलती हैं, उनका बोध हो जाए, तो उस कमरे में तुम बराबर देख सकते हो कि वह कमरा दो हिस्सों में विभाजित हो गया, और प्रत्येक व्यक्ति एक सेंटर बन गया, और दोनों की विद्युतधाराए और तरंगें आपस में दुश्मन की तरह खड़ी हुई हैं।
8-दूसरे की मौजूदगी तुम्हारे मैं को मजबूत करती है। दूसरा चला जाए तो कमरा बदल जाता है,और तुम रिलैक्स हो जाते हो; तुम्हारा मैं जो तैयार था कि कब क्या हो जाए, वह ढीला हो जाता है; वह तकिए से टिककर आराम करने लगता है; वह श्वास लेता है कि अभी दूसरा
मौजूद नहीं है।इसीलिए एकांत का उपयोग है कि वहां तुम्हारा मैं शिथिल हो सके ।एक वृक्ष के पास तुम ज्यादा आसानी से खड़े हो पाते हो बजाय एक आदमी के..। इसलिए जिन मुल्कों में आदमी ..आदमी के बीच तनाव बहुत गहरे हो जाते हैं, वहां आदमी कुत्ते और बिल्लियों को भी पालकर उनके साथ जीने लगता है। उनके साथ ज्यादा आसानी है, क्योकि उनके पास कोई 'मैं 'नहीं है। एक कुत्ते के गले में पट्टा बांधे... हम मजे से चले जा रहे हैं। ऐसे हम किसी आदमी के साथ नहीं चल सकते।
9-धीरे - धीरे व्यक्तियों से संबंध तोड़कर आदमी वस्तुओं से संबंध बनाने लगता है, क्योंकि वस्तुओं के साथ सरलता है। तो घरों में वस्तुओं के ढेर बढ़ते जाते हैं ;आदमी कम होते चले जाते हैं। आदमी घबड़ाहट लाते हैं, वस्तुएं झंझट नहीं देती हैं। कुर्सी जहां रखी है, वहां रखी है, ..कोई गड़बड़ नहीं करती।वृक्ष है, नदी है, पहाड़ है, इनसे कोई झंझट नहीं आती, इसलिए
हमको इनके पास जाकर बड़ी शांति मिलती है। कारण कुल इतना है कि दूसरी तरफ 'मैं' मजबूती से खड़ा नहीं है, इसलिए हम भी रिलैक्स हो पाते हैं। हम कहते हैं ..'' यहां कोई तू नहीं है तो मेरे होने की क्या जरूरत है .. मैं भी नहीं हूं''। लेकिन दूसरे आदमी का जरा सा भी इशारा मिल जाए कि वह है, कि हमारा मैं तत्काल तत्पर हो जाता है, वह सिक्योरिटी की फिकर करने लगता है कि पता नहीं क्या हो जाए, इसलिए तैयार होना जरूरी है।
10-यह तैयारी आखिरी क्षण तक बनी रहती है। सातवें शरीरवाला व्यक्ति भी तुम्हें मिल जाए तो भी तुम्हारी तैयारी रहेगी। बल्कि कई बार ऐसे व्यक्ति से तुम्हारी तैयारी ज्यादा हो जाएगी। साधारण आदमी से तुम इतने भयभीत नहीं होते, क्योंकि वह अगर तुम्हें चोट भी पहुंचा सकता है तो बहुत गहरी नहीं पहुंचा सकता। लेकिन ऐसा व्यक्ति जो पांचवें शरीर के पार चला गया है, तुम्हें चोट भी गहरी पहुंचा सकता है ..बल्कि उसी शरीर तक पहुंचा सकता है, जहां तक वह पहुंच गया है। उससे भय भी तुम्हारा बढ़ जाता है; उससे तुम्हारा डर भी बढ़ जाता है कि पता नहीं क्या हो जाए! उसके भीतर से तुम्हें बहुत ही अज्ञात और अनजान शक्ति झांकती मालूम पड़ने लगती है। इसलिए तुम बहुत सम्हलकर खड़े हो जाते हो। उसके आसपास तुम्हें खाई /एबिस दिखाई पड़ने लगती है; अनुभव होने लगता है कि कोई है इसके भीतर, अगर गए तो किसी गड्डे में न गिर जाएं।
11-इसलिए दुनिया में जीसस, कृष्ण या सुकरात जैसे आदमी जब भी पैदा होते हैं, तो हम उनकी हत्या कर देते हैं। उनकी वजह से हम में बहुत गड़बड़ पैदा हो जाती है। उनके पास जाना, खतरे के पास जाना है। फिर मर जाते हैं, तब हम उनकी पूजा करते हैं। अब हमारे लिए कोई डर नहीं रहा। अब हम उनकी सोने की मूर्ति बनाकर और हाथ -पैर जोड़कर खड़े हो जाते हैं;.. हम कहते हैं. तुम भगवान हो। लेकिन जब ये लोग होते हैं तब हम इनके साथ ऐसा व्यवहार नहीं करते, तब हम इनसे बहुत डरे रहते हैं। और डर अनजान रहता है, क्योंकि हमें पक्का पता नहीं रहता कि.. बात क्या है।
12-लेकिन एक आदमी जितना गहरा होता जाता है, उतना ही हमारे लिए एबिस /खाई बन जाता है। और जैसे खाई के नीचे झांकने से डर लगता है और सिर घूमता है, ऐसा ही ऐसे व्यक्ति की आंखों में झांकने से डर लगने लगेगा और सिर घूमने लगेगा।मूसा के
संबंध में बड़ी अदभुत कथा है कि हजरत मूसा को जब परमात्मा का दर्शन हुआ, तो इसके बाद उन्होंने फिर कभी अपना मुंह नहीं उघाड़ा। वे फिर घूंघट डालकर ही जीए, क्योंकि उनके चेहरे में झांकना खतरनाक हो गया। जो आदमी झांके वह भाग खड़ा हो । उसमें से एबिस दिखाई पड़ने लगी। उनकी आंखों में अनंत खड्ड हो गया। तो मूसा लोगों के बीच जाते तो चेहरे पर वह घूंघट डालकर ही बात कर सकते । क्योंकि लोग उनसे घबराने लगे और डरने लगे। ऐसा लगे कि कोई चीज चुंबक की तरह खींचती है किसी गडु में! और पता नहीं कहां ले जाएगी, क्या होगा! कुछ पता नहीं!
13-तो यह जो आखिरी, सातवीं स्थिति में पहुंचा हुआ आदमी है, वह भी है..तुम्हारे लिए। इसलिए तुम उससे अपनी सुरक्षा करोगे और एक पर्दा बना रह जाएगा; इसलिए ग्रेस शुद्ध नहीं हो सकती। ऐसे आदमी के पास शुद्ध हो सकती है ,अगर तुम्हें यह खयाल मिट जाए कि वह है। लेकिन यह खयाल तुम्हें तभी मिट सकता है, जब कि तुम्हें यह खयाल मिट जाए कि 'मैं' हूं। अगर तुम इस हालत में पहुंच जाओ कि तुम्हें खयाल न रहे कि मैं हूं तो फिर कोई मतलब ही न रहा उससे मिलने, न मिलने का; वह सोर्सलेस हो गई; वह प्रसाद ही हो गया।
14-जितनी बड़ी भीड़ में हम हैं, उतना ज्यादा हमारा ''मैं ''सख्त, सघन और कंडेस्ट हो जाता है। इसलिए भीड़ के बाहर, दूसरे से हटकर अपने 'मैं 'को गिराने की सदा कोशिश की गई है। लेकिन कहीं भी जाओ, अगर बहुत देर तुम एक वृक्ष के पास रहोगे, तुम उस वृक्ष से बातें करने लगोगे और वृक्ष को 'तू' बना लोगे। अगर तुम बहुत देर सागर के पास रह जाओगे, दस -पांच वर्ष, तो तुम सागर से बोलने लगोगे और सागर को 'तू' बना लोगे। वह हमारा 'मैं' जो है, आखिरी उपाय करेगा, वह 'तू' पैदा कर लेगा। अगर तुम कहीं बाहर भी भाग गए तो, वह उनसे भी राग का संबंध बना लेगा, और उनको भी आकार में देखने लगेगा।
15-अगर कोई बिलकुल ही आखिरी स्थिति में भी पहुंच जाता है, तो फिर वह ईश्वर को तू बनाकर खड़ा कर लेता है, ताकि अपने' मैं' को बचा सके। और भक्त निरंतर कहता रहता है कि हम परमात्मा के साथ एक कैसे हो सकते हैं? वह वह है, हम हम हैं! कहां हम उसके चरणों में और कहां वह भगवान! वह कुछ और नहीं कह रहा, केवल यह कह रहा है कि अगर उससे एक होना है तो 'मैं' खोना पड़ेगा। तो उसे वह दुरी बनाकर रखता है कि वह 'तू' है। और बातें वह रेशनलाइज करता है.. वह कहता है कि हम उसके साथ एक कैसे हो सकते हैं! वह महान है, वह परम है; हम क्षुद्र हैं, हम पतित हैं; हम कहां एक हो सकते हैं! लेकिन वह उसके 'तू' को बचाता है ताकि उसका 'मैं 'बच जाए।इसलिए भक्त पांचवें शरीर तक की जो श्रेष्ठतम
संभावना है, वह खोज लेता है। भक्त के जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं होने लगती हैं जो मिरेकुलस हैं; लेकिन छठवें और सातवें तक की यात्रा केवल उसका इष्ट ही करवा सकता है।
16-आत्मसाधक, हठयोगी, और बहुत तरह के योग की प्रक्रियाओं में लगनेवाला आदमी ज्यादा से ज्यादा पांचवें शरीर तक पहुंच पाता है; क्योंकि बहुत गहरे में वह यह कह रहा है कि मुझे आनंद चाहिए ,मुझे मुक्ति चाहिए, मुझे दुख -निरोध चाहिए -लेकिन सब चाहिए के पीछे ..'मैं 'मौजूद है। मुझे मुक्ति चाहिए! 'मैं' से मुक्ति नहीं, 'मैं' की मुक्ति! मुझे मुक्त होना है, मुझे मोक्ष चाहिए। वहां उसका 'मैं 'सघन खड़ा रह जाता है। वह पांचवें शरीर तक ही पहुंच पाता है।
17-राजयोगी छठवें तक पहुंच जाता है। वह कहता है - 'मैं' का क्या रखा है! 'मैं' कुछ भी नहीं, वही है!ब्रह्म ही सब कुछ है।वह 'मैं' को खोने की तैयारी दिखलाता है, लेकिन अस्मिता को खोने की तैयारी नहीं दिखलाता। वह कहता है -रहूंगा मैं, ब्रह्म के ही साथ.. एक उसका अंश होकर।मैं ब्रह्म ही हूं; मैं तो छोड़ दूंगा, लेकिन जो असली है मेरे भीतर.. वह उसके साथ एक होकर रहेगा। वह छठवें तक पहुंच पाता है।
18-सातवें तक बुद्ध जैसा साधक पहुंच पाता है, क्योंकि वह खोने को तैयार है - ब्रह्म को भी खोने को तैयार है; अपने को भी खोने को तैयार है; वह सब खोने को तैयार है। वह यह कहता है कि जो है, वही रह जाए; मेरी कोई अपेक्षा ही नहीं है कि ..यह बचे । सब खोने को तैयार है। और जो सब खोने को तैयार है, वह सब पाने का हकदार हो जाता है। तो निर्वाण शरीर तो ऐसी हालत में ही मिल सकता है ..जब शून्य हो जाने की, मृत्यु को भी जानने की हमारी तैयारी है। जीवन को जानने की तैयारियां तो बहुत हैं। इसलिए जीवन को जाननेवाला छठवें शरीर पर रुक जाएगा। मृत्यु को भी जानने की जिसकी तैयारी है, वह सातवें को जान पाएगा।
....SHIVOHAM...