क्या है तीसरी आँख का जागरण ?तिलक लगाने का क्या प्रयोजन है ?क्या है तीसरी आँख को विकसित करने के कुछ
क्या है तीसरी आँख का जागरण ?-
11 FACTS;-
1-तीसरी आँख तो अपनी जगह है—गौरी शंकर की भांति अडिग, अचल, अजेय।तीसरी आँख खुलती ही तब है... जब समूचा द्वंद्व विलीन हो जाता है, मन को खड़खड़ करनेवाले सारे न्यूरोसिस विदा होते है। अवचेतन में दबी पड़ी भावों की ज़हरीली नागिनें निष्प्रभ निर्विष हो जाती है। तब उस स्वच्छ निर्मल मनोभूमि में, ऊर्जा केंद्रित होने लग जाती है। ठीक ऐसे ही जैसे अग्नि की ज्वाला ऊपर की और बहने लगती है।
2-योगी समाज का कहना है कि यदि वह केंद्र पूरी तरह से खुल जाये तो पदार्थ लीन हो जायेगा और अखंड विराट सत्ता प्रकट हो जाएगी ... आकार खो जायेगा, निराकार प्रकट हो जायेगा | रूप मिट जायेगा, अरूप आ जायेगा | हमारा सम्बन्ध सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड से स्थापित हो जायेगा | 3- साधना के तीन मुख्य मार्ग हैं – विहंगम मार्ग, पिपीलका मार्ग और कपिल मार्ग मार्ग |
पिपिल यानि पिपिलिका (चींटी )को कहते है।पिपिल मार्ग वह मार्ग है जिसकेे द्वारा योग साधन प्रकृति से निर्मित अवयवो के आधार पर किया जाता है, आत्मा की चेतन सता के द्वारा नही।इस तरह कपिल का अर्थ बन्दर होता है। कपिल जिस तरह एक आधार से दूसरे आधार पर गमन करते रहते है उसी तरह कपिल मार्ग का साधन भी प्रकृति के आधार पर ही रहता है ।तीसरा मार्ग विहंगम मार्ग है।
4-विहंगम का अर्थ पक्षी से है। यानि जिस तरह पक्षी पृथ्वी के आधार को छोड़कर निराधार गमन करता है, उसी तरह इस मार्ग का साधक प्रकृति को छोड़कर आत्मा की चेतन सत्ता के साधन भेद द्वारा परमात्मा के आधार पर स्थित हो निराधार गमन करता रहता है। मार्ग कोई भी हो, एक बात निश्चित है-हम जितना अधिक उर्जा का संग्रह करेंगे उतना ही शीघ्र जागरण होगा |उर्जा का विकिरण सबसे अधिक सर के बालों से होता है | सर पर कपडा रखने, टोपी पहनने, पगड़ी बांधने का क्या तात्पर्य है ... यही कि उर्जा विकीर्ण न होकर पूरे शरीर में अपना वर्तुल बना ले|
5-साधकों की परम्परा में एक कहावत बड़े प्यार से दुहराई जाती है। और वह कहावत है कि दो आँखें तो सभी की होती हैं, साधक तो वह है जिसकी तीसरी आँख हो। जिसके तीसरी आँख है, वही दृष्टिवान् है, अन्यथा वह अन्धा है। और यह तीसरी आँख है .. जाग्रत् मन। इसे ही अतीन्द्रिय संवेदना कहते हैं।
6-यह अतीन्द्रिय संवेदना कोई बहुत ज्यादा बड़ी चीज नहीं है। जो भी योग साधना करते हैं, उन सभी को पहले ही कदम पर अतीन्द्रिय संवेदना का अनुदान मिलता है। इन्द्रियों के झरोखे से मन पदार्थ जगत् को देखता है; लेकिन अतीन्द्रिय संवेदनाओं के वातायन से चेतना जगत् की झाँकी मिलती है। ‘आध्यात्मिक अनुभवों की प्रकाश धाराएँ’ अवतरित होती हैं।'' जब ध्यान के अभ्यास से दिव्य विषयों का साक्षात् कराने वाली अतीन्द्रिय संवेदना उत्पन्न होती है, तो मन आत्मविश्वास पाता है और इसके कारण साधना में निरन्तरता बनी रहती है।''
7-अध्यात्म विज्ञान के अनुसार हर पदार्थों के तीन स्तर होते हैं-स्थूल, सूक्ष्म व कारण। स्थूल के अंतर्गत पदार्थ के आकार-प्रकार और बनावट आते हैं। सूक्ष्म वह स्तर है, जिसमें उसकी संरचना संबंधी बारीक अध्ययन-विश्लेषण और रसायनों की जाँच पड़ताल की जाती है। कारण सत्ता वह है, जिसमें उसके गुण और शक्तियों सम्मिलित है। भौतिक विज्ञान ने अपने प्रकार से इन तीनों भूमिका और में पहुँचने का प्रयास तो किया; पर है वह पदार्थ स्तर का ही; जबकि अध्यात्म, चेतना का विज्ञान है; वह चेतना स्तर की सूक्ष्म शक्ति का प्रतिपादन करता है। उसके तृतीय नेत्र/दिव्य चक्षु/दिव्य दृष्टि.. इसी परिधि में आते हैं, अतएव पीनियल की चेतनात्मक शक्ति को जगाये बिना, उसका दिव्य उन्मीलन संभव नहीं।
8-तृतीय नेत्र/आज्ञा चक्र दोनों भौंहों के बीच स्थित होता है। इस चक्र का सम्बंध जीवन को नियंत्रित करने से है।इस चक्र में 2 पंखुड़ियों वाले कमल का अनुभव होता है, इसका रंग सुनहरा होता है। इस चक्र में 2 नाड़ियां मिलकर 2 पंखुड़ियों वाले कमल की आकृति बनाती है। यहां 2 ध्वनियां निकलती रहती है। वैज्ञानिकों के अनुसार इस स्थान पर पिनियल और पिट्यूटरी 2 ग्रंथियां मिलती है।
9-योगशास्त्र में इस स्थान का विशेष महत्व है। इस चक्र पर ध्यान करने से सम्प्रज्ञात समाधि की योग्यता आती है। मूलाधार से ´इड़ा´, ´पिंगला´ और सुषुम्ना अलग-अलग प्रवाहित होती हुई इसी स्थान पर मिलती हैं। इसलिए योग में इस चक्र को त्रिवेणी भी कहा गया है।´इड़ा´ नाड़ी को गंगा
और ´पिंगला´ नाड़ी को यमुना और इन दोनों नाड़ियों के बीच बहने वाली सुषुम्ना नाड़ी को सरस्वती कहते हैं। इन तीनों नाड़ियों का जहां मिलन होता है, उसे त्रिवेणी कहते हैं।
10-मस्तिष्क के अग्रभाग में जहाँ दो हड्डियाँ मिलकर आट्टिक कैजमा बनाती हैं उसके ठीक सामने दोनों भौंहों के मध्य एक विशेष प्रकार का द्विदल चक्र होता है इसके जाग जाने पर योगी संसार के किसी भी भूभाग की हलचल को ऐसे ही देख, सुन सकता है जैसे वह किसी सिनेमा के पर्दे पर चित्र देख रहा हो।
11-तृतीय नेत्र/आज्ञा चक्र मन और बुद्धि का मिलन स्थान है ...जीवात्मा का स्थान है, क्योंकि यही ऊर्ध्व शीर्ष बिन्दु दिव्य दृष्टि का स्थान है। इस शक्ति को दिव्यदृष्टि तथा शिव की तीसरी आंख भी कहते हैं।सुषुम्ना मार्ग से आती हुई कुण्डलिनी शक्ति का अनुभव योगी को यहीं आज्ञा चक्र में होता है। योगाभ्यास से साधक कुण्डलिनी शक्ति को आज्ञा चक्र में प्रवेश कराता है और फिर कुण्डलिनी शक्ति को सहस्त्रार चक्र में विलीन कराकर दिव्य ज्ञान व परमात्मा तत्व को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त करता है।
तिलक लगाने का क्या प्रयोजन है ?-
12 FACTS;-
1-आपकी दोनों आंखों के बीच में एक बिन्दु है जहां से यह संसार नीचे छूट जाता है और दूसरा संसार शुरू होता है ..वह बिन्दु द्वार है। उसके इस पार वह जगत है जिस जगत से हम परिचित हैं, उसके उस पार एक अपरिचित और अलौकिक जगत है। उस अलौकिक जगत के प्रतीक की तरह सबसे पहले तिलक खोजा गया, और तिलक हर कहीं लगा देने की बात नहीं है। जो व्यक्ति हाथ रखकर आपका वह बिन्दु खोज सकता है वही आपको बता सकता है कि तिलक कहां लगाना हैं। 2-हर कहीं तिलक लगाने का कोई प्रयोजन नहीं है। फिर प्रत्येक व्यक्ति का बिन्दु भी एक ही जगह नहीं होता। यह जो दोनों आंखों के बीच तीसरी आंख है, यह प्रत्येक व्यक्ति की बिलकुल एक जगह नहीं होती। अन्दाजन दोनों आंखों के बीच में,ऊपर होती है, पर फर्क होते हैं। अगर किसी व्यक्ति ने पिछले जन्मों में बहुत साधना की है और समाधि के छोटे—मोटे अनुभव पाए हैं तो उसी हिसाब से वह बिन्दु नीचे आता जाता है। अगर इस तरह की कोई साधना नहीं होती है तो वह बिन्दु काफी ऊपर होता है। उस बिन्दु की अनुभूति से यह भी जाना जाता है कि आपके पिछले जन्मों की साधना क्या कुछ है... समाधि की दिशा में। 3-आपने कभी तीसरी आंख से दुनिया को देखा है या कभी आपके किसी जन्म में ऐसी कोई घटना घटी है ; आपका बिन्दु, वह स्थान बताएगा कि ऐसी घटना घटी है या नहीं घटी है। अगर ऐसी घटना बहुत घटी है तो वह बिन्दु बहुत नीचे आ जाएगा। वह करीब—करीब दोनों आंखों के समतल भी आ जाता है,उससे नीचे नहीं आ सकता। अगर बिलकुल समतल बिन्दु हो, दोनों आंखों के बिलकुल बीच में आ गया हो,तो जरा से इशारे से आप समाधि में प्रवेश कर सकते हैं। इतने छोटे इशारे से कि जिसको हम कह सकते हैं,इशारा बिलकुल असंगत है।
4-पुराने दिनों में जब भी दीक्षा दी जाती थी,और दीक्षा वही दे सकता है जो आपकी समस्त जन्मों की सार संपदा क्या है, उसे समझ पाता हो, अन्यथा नहीं दे सकता। अन्यथा देने का कोई मतलब नहीं है। क्योंकि जहां तक आप पहुंच गए हैं उसके आगे यात्रा करनी है। तो तिलक अगर ठीक—ठीक लगाया जाए,तो वह कई अर्थों का सूचक था। वे सारे अर्थ समझने पड़ेंगे। 5-पहला तो, वह इस बात का सूचक था कि जब एक बार गुरु ने बता दिया कि तिलक यहां लगाना है.. ठीक जगह, तो आपको भी उस ठीक जगह का अनुभव होने लगे, तिलक लगाने का पहला प्रयोजन यही है। आपने कभी खयाल नहीं किया होगा कि आप आंख बन्द करके बैठ जाएं और कोई व्यक्ति आपकी दोनों आंखों के बीच में सिर के पास उंगली ले जाए तो बन्द आंख में भी आपके भीतर एहसास होना शुरू हो जाएगा कि कोई आंख की तरफ उंगली किए हुए है—वह तीसरी आंख की प्रतीति है। 6-अगर ठीक तीसरी आंख पर तिलक लगा दिया जाये, उसी मात्रा, उतने ही अनुपात का तिलक लगा दिया जाए, ठीक जितनी बड़ी तीसरी आंख की स्थिति है, तो आपको पूरा शरीर छोड्कर उसी का स्मरण चौबीस घण्टे रहने लगेगा। वह स्मरण यह काम करेगा कि आपका शरीर—बोध कम होता जाएगा, और तिलक—बोध बढ़ता जाएगा। एक क्षण ऐसा आ जाता है जब कि पूरे शरीर में सिर्फ तिलक ही स्मरण रह जाता है, बाकी सारा शरीर भूल जाता है। और जिस दिन ऐसा हो जाए, उसी दिन आप तीसरी आंख को खोलने में समर्थ हो सकते है। 7-तिलक से जुडी जितनी भी साधनाएं है उन सबका एकमात्र लक्ष्य है कि पूरे शरीर को भूल जाओ |यदि आप आँख बंद करके बैठ जाये और कोई व्यक्ति आपके भ्रूमध्य की तरफ अंगुली ले जाये तो बंद आँख से भी आपको भीतर अनुभव होना शुरू हो जायेगा कि कोई आँख की तरफ अंगुली किये हुए है |यही तीसरी आँख की प्रतीति है |चेतना पत्थर में सोती है,वनस्पति में जागती है, पशु में चलती है और मनुष्य में चिंतन करती है |अतः चिंतन करना मनुष्य की पहचान है|
8-'सिर्फ तिलक मात्र की जगह याद रह जाए 'का अर्थ यह हुआ कि सारी चेतना सिकुड़कर फोकस्ड हो जाए ...तीसरी आंख पर और तीसरी आंख के खोलने की जो कुंजी है वह फोकस्ड कांशसनेस है। उस पर चेतना पूरी की पूरी इकट्ठी हो जाए और सारे शरीर से सिकुड़कर उस छोटे से स्थान पर लग जाए। बस, उसकी मौजूदगी से काम हो जाएगा। 9-जैसे हम सूरज की किरणों को एक छोटे से लेंस के द्वारा एक कागज पर गिरा लें, तो इकट्ठी हो गयी किरणें आग पैदा कर देंगी। वे ही किरणें सिर्फ धूप पैदा कर रही थीं उनसे आग पैदा नहीं होती थी। वे ही किरणें संग्रहीत होने पर,आग पैदा कर सकती हैं,। चेतना शरीर पर जब बंटी रहती है तो सिर्फ जीवन का काम चलाऊ उपयोग उससे होता है। चेतना अगर तीसरे नेत्र के पास पूरी इकट्ठी हो जाए, तो जो तीसरे नेत्र की बाधा, जो द्वार, जो बन्दपन है वह टूट जाता है, जल जाता है,राख हो जाता है, और हम उस आकाश को देखने में समर्थ हो जाते हैं जो हमारे ऊपर फैला है। 10-तिलक का पहला उपयोग यह था कि आपको शरीर में ठीक—ठीक जगह बता दी जाए कि चौबीस घण्टे इस जगह का स्मरण रखना है। सब तरफ से चेतना को सिकोड़कर इस जगह ले आना है। दूसरा यह कि रोज आपके माथे पर हाथ रखने की भी जरूरत न पड़े;क्योंकि जैसे -जैसे बिन्दु नीचे सरकेगा वैसे—वैसे आपको एहसास होगा, और आपका तिलक भी नीचा होता जाएगा। आपको रोज तिलक लगाते वक्त ठीक वहीं तिलक लगाना है जहां उस बिन्दु का आपको एहसास होता हो। 11-एक गुरु देख लेता है कि तिलक कहां है... तिलक नीचे सरक रहा है कि नहीं सरक रहा है! तिलक उसी जगह है कि तिलक में कोई अन्तर पड रहा है! वह कोड है। दिन में दो -चार दफा शिष्य आएगा और गुरु देख लेगा कि तिलक गतिमान है कि नहीं? वह आगे गति कर रहा है, रुका हुआ है या ठहरा हुआ है? किसी दिन स्वयं शिष्य के माथे पर रखकर पुन: देख पाएगा। अगर शिष्य को तिलक के हटने का पता नहीं चल रहा है , तो उसका मतलब है कि चेतना पूरी कि पूरी इकट्ठी नहीं की जा रही है। अगर वह तिलक गलत जगह लगाए हुए है और बिन्दु दूसरी जगह है तो इसका मतलब है कि उसकी कांशसनेस, उसकी रिमेंबरिग, उसकी स्मृति ठीक बिन्दु को नहीं पकड़ पा रही है, वह भी गुरु को पता चल जाएगा। 12-जैसे -जैसे यह तिलक नीचे आता जाएगा वैसे - वैसे साधना के प्रयोग बदलने पड़ेंगे । यह तिलक करीब -करीब वैसा ही काम करेगा जैसे एक अस्पताल में एक मरीज के पास लटका हुआ चार्ट काम करता है। नर्स चार्ट पर लिख जाती है, कितना है ताप,कितना है ब्लडप्रेशर, क्या है, क्या नहीं? डाक्टर को आकर देखने की जरूरत नहीं होती है, वह चार्ट पर एक क्षण नजर डाल लेता है,और बात पूरी हो जाती है। पर इससे भी अदभुत था यह प्रयोग कि माथे पर पूरा का पूरा इंगित लगा था, जो सब तरह की खबर देता है। अगर ठीक -ठीक इसका प्रयोग किया जाता तो गुरु को पूछने की कभी जरूरत न पड़ती कि क्या हो रहा है,क्या नहीं हो रहा है।तो साधना की दृष्टि से तिलक का ऐसा मूल्य था।
13-'योग ने उस चक्र को जगाने के बहुत प्रयोग किए हैं। उसमें तिलक भी एक प्रयोग है। स्मरणपूर्वक, अगर कोई चौबीस घण्टे उस चक्र पर बार -बार ध्यान को ले जाता रहे तो बड़े परिणाम आते है।तिलक के लगते ही वह स्थान पृथक हो जाता है, वह बहुत सेंसिटिव स्थान है।उसकी संवेदनशीलता का स्पर्श करना, और वह भी खास चीजों से स्पर्श करने की विधि है ।सैंकड़ों और हजारों प्रयोगों के बाद तय किया था कि चन्दन का प्रयोग क्यों करना है? एक तरह की रैजोनेंस है चन्दन में, और उस स्थान की संवेदनशीलता में। चन्दन का तिलक उस बिन्दु की संवेदनशीलता को और गहन करता है, और घना कर जाता है।
14-कुछ चीजों के तिलक तो उसकी संवेदनशीलता को मार देंगे ..जैसे आज महिलाएं टीका लगा रही है। बहुत से बाजारू टीके हैं ...उनकी कोई वैज्ञानिकता नहीं है, योग से कोई लेना -देना नहीं है। वे नुकसान करेंगे।प्रत्येक चीज के अलग -अलग परिणाम हैं, इस जगत में छोटे से फर्क से सारा फर्क पड़ता है। इसको ध्यान में रखते हुए कुछ विशेष चीजें खोजी गयी थीं, जिनका ही उपयोग किया जाए। यदि आज्ञा चक्र/तीसरी आंख संवेदनशील हो सके, सक्रिय हो सके.. तो आपके व्यक्तित्व में एक गरिमा और इन्टीग्रिटी आनी शुरू होगा, एक समग्रता पैदा होगी। आप एक जुट होने लगते हैं, कोई चीज आपके भीतर इकट्ठी हो जाती है, खण्ड खण्ड नहीं अखण्ड हो जाती है।
क्या है तीसरी आँख को विकसित करने के कुछ महत्वपूर्ण ध्यान (भगवान शिव के विज्ञानं भैरव तंत्र के 112 सूत्र से )?
(1)सूत्र;-
‘सहस्रार तक रूप को प्राण से भरने दो।’
04 FACTS;-
1-तीसरी आंख पर केंद्रित होकर तुम श्वास के सार तत्व को, श्वास को नहीं, श्वास के सार तत्व प्राण को देख सकते हो। और अगर तुम प्राण को देख सके, तो तुम उस बिंदु पर पहुंच गए जहां से छलांग लग सकती है, क्रांति घटित हो सकती है।एक बार तुम जान जाओ कि श्वास के बिना भी कैसे तुम प्राण को सीधे ग्रहण कर सकते हो, तो तुम सदियों तक के लिए भी समाधि में जा सकते हो।सूत्र कहता है. ‘सहस्रार तक रूप को प्राण से भरने दो।’
2-जब तुमको प्राण का एहसास हो, तब कल्पना करो कि तुम्हारा सिर प्राण से भर गया है। सिर्फ कल्पना करो, किसी प्रयत्न की जरूरत नहीं है।जब तुम त्रिनेत्र -बिंदु पर स्थिर हो जाओ तब कल्पना करो, और चीजें आप ही और तुरंत घटित होने लगती हैं।अभी तुम कल्पना
किए जाते हो और कुछ भी नहीं होता। लेकिन कभी -कभी अनजाने साधारण जिंदगी में भी चीजें घटित होती हैं। तुम अपने मित्र की सोच रहे हो और अचानक दरवाजे पर दस्तक होती है। तुम कहते हो कि सांयोगिक था कि मित्र आ गया। कभी तुम्हारी कल्पना संयोग की तरह भी काम करती है।
3-लेकिन जब भी ऐसा हो, तो याद रखने की चेष्टा करो और पूरी चीज का विश्लेषण करो। जब भी लगे कि तुम्हारी कल्पना सच हुई है, तुम भीतर जाओ और देखो। कहीं न कहीं तुम्हारा अवधान तीसरे नेत्र के पास रहा होगा। दरअसल यह संयोग नहीं है। यह वैसा दिखता है, क्योंकि गुह्य विज्ञान का तुमको पता नहीं है। अनजाने ही तुम्हारा मन त्रिनेत्र -केंद्र के पास चला गया होगा। और अवधान यदि तीसरी आंख पर है तो किसी घटना के सृजन के लिए उसकी कल्पना काफी है।
4-यह सूत्र कहता है कि जब तुम भृकुटियों के बीच स्थिर हो और प्राण को अनुभव करते हो, तब रूप को भरने दो। अब कल्पना करो कि प्राण तुम्हारे पूरे मस्तिष्क को भर रहा है -विशेषकर सहस्रार को जो सर्वोच्च मनस केंद्र है। उस क्षण तुम कल्पना करो और वह भर जाएगा। कल्पना करो कि वह प्राण तुम्हारे सहस्रार से प्रकाश की तरह बरसेगा, और वह बरसने लगेगा। और उस प्रकाश की वर्षा में तुम ताजा हो जाओगे, तुम्हारा पुनर्जन्म हो जाएगा, तुम बिलकुल नए हो जाओगे। आंतरिक जन्म का यही अर्थ है।
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(2)सूत्र;-
''होश को दोनों भौहों के मध्य में लाओ और मन को विचार के समक्ष आने दो।''
12 FACTS;-
1-देह को पैर से सिर तक प्राण तत्व से भर जाने दो, ओर वहां वह प्रकाश की भांति बरस जाए।यह विधि बहुत गहन पद्धतियों में से है। “होश को दोनों भौहों के मध्य में लाओ।”आधुनिक मनोविज्ञान और वैज्ञानिक शोध कहती है कि दोनों भौंहों के मध्य में एक ग्रंथि है जो शरीर का सबसे रहस्यमय अंग है। यह ग्रंथि, जिसे पाइनियल ग्रंथि कहते है। यही तिब्बतियों का तृतीय नेत्र है /शिवनेत्र /शिव का, तंत्र का नेत्र। दोनों आंखों के बीच एक तीसरी आँख का अस्तित्व है, लेकिन साधारणत: वह निष्कृय रहती है। उसे खोलने के लिए तुम्हें कुछ करना पड़ता है।
2-वह आँख अंधी नहीं है। वह बस बंद है। यह विधि तीसरी आँख को खोलने के लिए ही है।“होश को दोनों भौंहों के मध्य में लाऔ।” अपनी आंखें बंद कर लो, और अपनी आंखों को दोनों भौंहों के ठीक बीच में केंद्रित करो। आंखे बंद करके ठीक मध्य में होश को केंद्रित करो, जैसे कि तुम अपनी दोनों आँखो से देख रहे हो। उस पर पूरा ध्यान दो।वह विधि सचेत होने के सरलतम उपायों में से है।
3-तुम शरीर के किसी अन्य अंग के प्रति इतनी सरलता से सचेत नहीं हो सकते। यह ग्रंथि होश को पूरी तरह आत्मसात कर लेती है। यदि तुम उस पर होश को भ्रूमध्य पर केंद्रित करो तो तुम्हारी दोनों आंखें तृतीय नेत्र से सम्मोहित हो जाती है। वे जड़ हो जाती है, हिल भी नहीं सकती। यदि तुम शरीर के किसी अन्य अंग के प्रति सचेत होने का प्रयास कर रहे हो तो यह कठिन है। यह तीसरी आँख होश को पकड़ लेती है। होश को खींचती है। वह होश के लिए चुम्बकीय है।
4-संसार भर की सभी पद्धतियों ने इसका उपयोग किया है। होश को साधने का यह सरलतम उपाय है। क्योंकि तुम ही होश को केंद्रित करने का प्रयास नहीं कर रहे हो; स्वयं वह ग्रंथि भी तुम्हारी मदद करती है; वह चुम्बकीय है। तुम्हारा होश बलपूर्वक उनकी और खींच लिया जाता है। वह आत्मसात हो जाता है।
5-तंत्र के प्राचीन ग्रंथों में कहा गया है कि होश तीसरी आँख का भोजन है। वह आँख भूखी है; जन्मों-जन्मों से भूखी है। यदि तुम उस पर होश को लाओगे तो वह जीवंत हो जाती है। उसे भोजन मिल जाता है। एक बार बस तुम इस कला को जान जाओं। तुम्हारा होश स्वयं ग्रंथि द्वारा ही चुम्बकीय ढंग से खिंचता है। आकर्षित होता है। तो फिर होश को साधना कोई कठिन बात नहीं है।
6-व्यक्ति को बस ठीक बिंदु जान लेना होता है। तो बस अपनी आंखें बंद करों, दोनों आँखो को भ्रूमध्य की और चले जाने दो, और उस बिंदु को अनुभव करो। जब तुम उस बिंदु के समीप आओगे तो अचानक तुम्हारी आँख जड़ हो जाएंगी। जब उन्हें हिलाना कठिन हो जाए तो जानना कि तुमने ठीक बिंदु को पकड़ लिया है।
7-‘’होश को दोनों भौंहों के मध्य में लाओ और मन को विचार के समक्ष आने दो।‘’…यदि यह होश लग जाए तो पहली बार तुम्हें एक अद्भुत अनुभव होगा। पहली बार तुम विचारों को अपने सामने दौड़ता हुआ अनुभव करोगे। तुम साक्षी हो जाओगे। यह बिलकुल फिल्म के परदे जैसा होता है। विचार दौड़ रहे है और तुम एक साक्षी हो।सामान्यतया तुम साक्षी नहीं होते... तुम विचारों के साथ एकात्म हो।
8-यदि क्रोध आता है तो तुम क्रोध ही हो जाते हो। कोई विचार उठता है तो तुम उसके साक्षी नहीं हो सकते। तुम विचार के साथ एक हो जाते हो। एकात्म हो जाते हो, और इसके साथ ही चलने लगते हो। तुम एक विचार ही बन जाते हो।उदाहरण के लिए, जब क्रोध उठता है तो तुम क्रोध ही बन जाते हो। और उनसे तुम्हारा तादात्म्य हो जाता है। विचार और तुम्हारे बीच में कोई अंतराल नहीं होता।
9-लेकिन तृतीय नेत्र पर केंद्रित होकर तुम अचानक एक साक्षी हो जाते हो। तृतीय नेत्र के द्वारा तुम विचारों को ऐसे ही देख सकते हो जैसे की आकाश में बादल दौड़ रहे हों, अथवा सड़क पर लोग चल रहे है।जो भी हो रहा हो, साक्षी होने का प्रयास करो। तुम बीमार हो, तुम्हारा शरीर दुःख रहा है और पीड़ित है, तुम दुःखी और पीड़ित हो , जो भी हो रहा है, स्वयं का उससे तादात्म्य मत करो। साक्षी बने रहो। द्रष्टा बने रहो। फिर यदि साक्षित्व संभव हो जाए तो तुम तृतीय नेत्र मे केंद्रित हो जाओगे।
10-दूसरा, इससे उल्टा भी हो सकता है। यदि तुम तृतीय नेत्र में केंद्रित हो तो तुम साक्षी बन जाओगे। ये दोनों चीजें एक ही प्रक्रिया के हिस्से है। पहली बात.. तृतीय नेत्र में केंद्रित होने से साक्षी का प्रादुर्भाव होगा। अब तुम अपने विचारों से साक्षात्कार कर सकते हो। यह पहली बात होगी।
11-दूसरी बात यह होगी कि अब तुम श्वास के सूक्ष्म और कोमल स्पंदन को अनुभव कर सकोगे। अब तुम श्वास के प्रारूप को श्वास के सार तत्व को अनुभव कर सकेत हो।पहले यह समझने का प्रयास करो कि ‘’प्रारूप’’ का, श्वास के सार तत्व का क्या अर्थ है। श्वास लेते समय तुम केवल हवा मात्र भीतर नहीं ले रहे हो। विज्ञान कहता है कि तुम केवल वायु भीतर लेते हो ..बस ऑक्सीजन, हाइड्रोजन व अन्या गैसों का मिश्रण।
11-लेकिन तंत्र कहता है कि वायु बस एक वाहन है, वास्तविक चीज नहीं है। तुम प्राण को, जीवन शक्ति को भीतर ले रहे हो। वायु केवल माध्यम है; प्राण उसकी अंतर्वस्तु है। तुम केवल वायु नहीं, प्राण भीतर ले रहे हो।तृतीय नेत्र में केंद्रित होने से अचानक तुम श्वास के सार तत्व को देख सकते हो ...श्वास को नहीं बल्कि श्वास के सार तत्व को, प्राण को। और यदि तुम श्वास के सार तत्व को, प्राण को देख सको तो तुम उसे बिंदु पर पहुंच गए जहां से छलांग लगती है, अंतस क्रांति घटित होती है।
12-यह विधि पाइथागोरस को दी गई थी। पाइथागोरस वह विधि लेकर ग्रीस गया। और वास्तव में यह पश्चिम में सारे रहस्यवाद का उद्गम / स्त्रोत बन गया। वह पश्चिम में पूरे रहस्यवाद का जनक है।
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(3)सूत्र;-
'' आँख की पुतलियों को पंख की भांति छूने से उसके बीच का हलका पन ह्रदय में खुलता है।''
12 FACTS;-
1-अपनी दोनों हथेलियों का उपयोग करो, उन्हें अपनी बंद आँखो पर रखो, और हथेलियों को पुतलियों पर छू जाने दो—लेकिन पंख के जैसे, बिना कोई दबाव डाले। यदि दबाव डाला तो तुम चूक गए, तुम पूरी विधि से ही चूक गए। दबाव मत डालों; बस पंख की भांति छुओ। तुम्हें थोड़ा समायोजन करना होगा क्योंकि शुरू में तो तुम दबाब डालोगे।
2-दबाव का कम से कम करते जाओ जब तक कि दबाब बिलकुल समाप्त न हो जाए ...बस तुम्हारी हथैलियां पुतलियों को छुएँ। बस एक स्पर्श, बाना दबाव का एक मिलन क्योंकि यदि दबाव रहा तो यह विधि कार्य नहीं करेगी। तो बस एक पंख की भांति क्यों...क्योंकि जहां सुई का काम हो वहां तलवार कुछ भी नहीं कर सकती। यदि तुमने दबाव डाला, तो उसका गुणधर्म बदल गया ..तुम आक्रामक हो गए। और जो ऊर्जा आंखों से बह रहा है वह बहुत सूक्ष्म है: थोड़ा सा दबाव, और वह संघर्ष करने लगती है जिससे एक प्रतिरोध पैदा हो जाता है।
3-यदि तुम दबाव डालोगे तो जो ऊर्जा आंखों से बह रही है वह एक प्रतिरोध, एक लड़ाई शुरू कर देगी। एक संघर्ष छिड़ जाएगा। इसलिए दबाव मत डालों.. आंखों की ऊर्जा को थोड़े से दबाव का भी पता चल जाता है।वह ऊर्जा बहुत सूक्ष्म है, बहुत कोमल है। बस पंख की भांति, तुम्हारी हथैलियां ही छुएँ, जैसे कि स्पर्श हो ही न रहा हो। स्पर्श ऐसे करो जैसे कि वह स्पर्श न , एक हलका-सा एहसास हो कि हथेली पुतली को छू रही है, बस। जब तुम बिना दबाव डाले हलके से छूते हो तो ऊर्जा भीतर की और जाने लगती है। यदि तुम दबाव डालों तो वह हाथ के साथ, हथेली के साथ लड़ने लगती है और बाहर निकल जाती है।
4-हल्का-सा स्पर्श, और ऊर्जा भीतर जाने लगती है। द्वार बंद हो जाता है। बस द्वार बंद होता है और ऊर्जा वापस लौट पड़ती है। जिस क्षण ऊर्जा वापस लौटती है, तुम अपने चेहरे और सिर पर एक हलकापन व्याप्त होता अनुभव करोगे। यह वापस लौटती ऊर्जा तुम्हें हल्का कर देती है।और इन दोनों आंखों के बीच में तीसरी आंख, प्रज्ञा-चक्षु है। ठीक दोनों आंखों के मध्य में तीसरी आँख है।
5-आँखो से वापस लौटती ऊर्जा तीसरी आँख से टकराती है। यहीं कारण है कि व्यक्ति हल्का और जमीन से उठता हुआ अनुभव करता है। जैसे कि कोई गुरुत्वाकर्षण न रहा हो। और तीसरी आँख से ऊर्जा ह्रदय पर बरस जाती है; यह एक शारीरिक प्रक्रिया है: बूंद-बूंद करके ऊर्जा टपकती है। और तुम अत्यंत हल्कापन अपने ह्रदय में प्रवेश करता अनुभव करोगे। ह्रदय गति कम हो जाएगी। श्वास धीमी हो जाएगी। तुम्हारा पूरा शरीर विश्रांत अनुभव करेगा।
6-यदि तुम गहन ध्यान में प्रवेश नहीं भी कर रहे हो, तो भी यह प्रयोग तुम्हें शारीरिक रूप से उपयोगी होगा। दिन में किसी भी समय, आराम से कुर्सी पर बैठ जाओ या तुम्हारे पास यदि कुर्सी न हो, जब तुम रेलगाड़ी में सफर कर रहे हों ..तो अपनी आंखें बंद कर लो। पूरे शरीर में एक विश्रांति अनुभव करो। और फिर दोनों हथेलियों को अपनी आंखों पर रख लो। लेकिन दबाव मत डालों ..यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। बस पंख की भांति छुओ।जब तुम स्पर्श करो और दबाव न डालों, तो तुम्हारे विचार तत्क्षण रूक जाएंगे।
7-विश्रांत मन में विचार नहीं चल सकते.. वे जम जाते है। विचारों को उन्माद और बुखार की जरूरत होती है। उनके चलने के लिए तनाव की जरूरत होती है। वे तनाव के सहारे ही जीते है। जब आंखें शांत व शिथिल हों और ऊर्जा पीछे लौटने लगे तो विचार रूक जायेंगे। तुम्हें एक मस्ती का अनुभव होगा। जो रोज-रोज गहराता जाएगा।तो इस प्रयोग को दिन में कई बार करो।
8-एक क्षण के लिए छूना भी अच्छा रहेगा। जब भी तुम्हारी आंखे थकी हुई ऊर्जा विहीन और चुकी हुई महसूस करें -पढ़कर, फिल्म देखकर, या टेलिविजन देखकर। जब भी तुम्हें ऐसा लगे, अपनी आंखे बंद कर लो। और स्पर्श करो मोर पंखी। तत्क्षण प्रभाव होगा। लेकिन यदि तुम इसे एक ध्यान बनाना चाहते हो तो इसे कम से कम चालीस मिनट के लिए करो। और पूरी बात यही है कि दबाव नहीं डालना।
9-एक क्षण के लिए तो पंख जैसा स्पर्श सरल है; चालीस मिनट के लिए कठिन है। कई बार तुम भूल जाओगे और दबाव डालने लगोगे।दबाव मत डालों। चालीस मिनट के लिए वह बोध बनाए रहो कि तुम्हारे हाथों में कोई बोझ नहीं है। वे बस स्पर्श कर रहे है।यह एक गहन बोध बन जाएगा। बिलकुल ऐसे जैसे श्वास-प्रश्वास..पूरे जाग कर श्वास लो।।
10- ऐसा ही स्पर्श के साथ भी होगा। तुम्हें सतत स्मरण रखना होगा कि तुम दबाव नहीं डाल रहे। तुम्हारा हाथ बस एक पंख, एक भारहीन वस्तु बन जाना चाहिए। जो बस छुए। तुम्हारा चित समग्ररतः: सचेत होकर वहां आंखों के पास लगा रहेगा। और ऊर्जा सतत बहती रहेगी। शुरू में तो वह बूंद-बूंद करके ही टपकेगी। कुछ ही महीनों में तुम्हें लगेगा वह सरिता सी हो गई है, और एक साल बीतते-बीतते तुम्हें लगेगा कि वह एक बाढ़ की तरह हो गई है।
11-और जब ऐसा होता है—‘’आँख की पुतलियाँ को पंख की भांति छूने से उनके बीच का हलकापन…।‘’ जब तुम स्पर्श करोगे तो तुम्हें हलकापन महसूस कर सकते हो। जैसे की तुम स्पर्श करते हो, तत्क्षण एक हलकापन आ जाता है। और वह ‘’उनके बीच का हलकापन ह्रदय में खुलता है।‘’…वह हलकापन ह्रदय में प्रवेश कर जाता है, खुल जाता है। ह्रदय में केवल हलकापन ही प्रवेश कर सकता है। कोई भी बोझिल चीज प्रवेश नहीं कर सकती है।
12-ह्रदय के साथ बहुत हल्की फुलकी घटनाएं ही घट सकती है।दोनों आंखों के बीच का यह हलकापन ह्रदय में टपकने लगेगा। और ह्रदय उसको ग्रहण करने के लिए खुल जाएगा—‘’और वहां ब्रह्मांड व्याप जाता है।‘’ और जैसे-जैसे यह बहती ऊर्जा पहले एक धारा, फिर एक सरिता और फिर एक बाढ़ बनती है तुम पूरी तरह बह जाओगे, दूर बह जाओगे। तुम्हें लगेगा ही नहीं कि तुम हो। तुम्हें लगेगा कि बस ब्रह्मांड ही है। श्वास लेते हुए, श्वास छोड़ते हुए तुम्हें ऐसा ही लगेगा कि तुम ब्रह्मांड बन गए हो। ब्रह्मांड भीतर आता है और ब्रह्मांड बाहर जाता है। वह इकाई जो तुम सदा बने रहे और ..वह अहंकार नहीं बचता।
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(4) नासाग्र को देखना (ध्यान) ;-
''व्यक्ति नासाग्र की और देखे क्योंकि इससे मदद मिलती है, यह प्रयोग तुम्हें तृतीय नेत्र की रेखा पर ले आता है''।
11 FACTS;-
1-जब तुम्हारी दोनों आंखें नासाग्र पर केंद्रित होती है तो उससे कई बातें होती है। मूल बात यह है कि तुम्हारा तृतीय नेत्र नासाग्र की रेखा पर है ...कुछ इंच ऊपर, लेकिन उसी रेखा में। और एक बार तुम तृतीय नेत्र की रेखा में आ जाओ तो तृतीय नेत्र का आकर्षण उसका खिंचाव, उसका चुम्बकत्व रतना शक्तिशाली है कि तुम उसकी रेखा में पड़ जाओं तो तुम उसकी और खींचे चले आओगे।तुम्हे बस ठीक उसकी रेखा में आ जाना है, ताकि तृतीय नेत्र का आकर्षण, गुरुत्वाकर्षण सक्रिय हो जाए।
2-एक बार तुम ठीक उसकी रेखा में आ जाओं तो किसी प्रयास की जरूरत नहीं है।अचानक तुम पाओगे कि प्रारूप' / गेस्टाल्ट बदल गया, क्योंकि दो आंखें संसार और विचार का द्वैत पैदा करती है। और इन दोनों आंखों के बीच की एक आँख अंतराल निर्मित करती है। यह गेस्टाल्ट को बदलने की एक सरल विधि है।मन इसे विकृत कर सकता है ..मन कह सकता है, “ठीक अब, नासाग्र को देखो। नासाग्र का विचार करो, उस चित को एकाग्र करो।”
3-यदि तुम नासाग्र पर बहुत एकाग्रता साधो तो बात को चूक जाओगे, क्योंकि होना तो तुम्हें नासाग्र पर है, लेकिन बहुत शिथिल ताकि तृतीय नेत्र तुम्हें खींच सके। यदि तुम नासाग्र पर बहुत ही एकाग्रचित्त, मूल बद्ध, केंद्रित और स्थिर हो जाओ तो तुम्हारा तृतीय नेत्र तुम्हें भीतर नहीं खींच सकेगा क्योंकि वह पहले कभी भी सक्रिय नहीं हुआ। प्रारंभ में उसका खिंचाव बहुत ज्यादा नहीं हो सकता। धीरे-धीरे वह बढ़ता जाता है। एक बार वह सक्रिय हो जाए और उपयोग में आने लगे, तो उसके चारों और जमी हुई धूल झड़ जाए, और यंत्र ठीक से चलने लगे।
4-तुम नासाग्र पर केंद्रित भी हो जाओ तो भी भीतर खींच लिए जाओगे। लेकिन शुरू-शुरू में नहीं। तुम्हें बहुत ही हल्का होना होगा, बोझ नहीं ..बिना किसी खींच-तान के। तुम्हें एक समर्पण की दशा में बस वहीं मौजूद रहना होगा। “यदि व्यक्ति नाक का अनुसरण नहीं करता तो यह तो वह आंखें खोलकर दूर देखता है जिससे कि नाक दिखाई न पड़े अथवा वह पलकों को इतना जोर से बंद कर लेता है कि नाक फिर दिखाई नहीं पड़ती।”नासाग्र को बहुत सौम्यता से देखने का एक अन्य प्रयोजन यह भी है कि इससे तुम्हारी आंखें फैल कर नहीं खुल सकती।
5-यदि तुम अपनी आंखे फैल कर खोल लो तो पूरा संसार उपलब्ध हो जाता है। जहां हजारों व्यवधान है ... कम से कम मन में। तुम्हारा कुछ लेना देना नहीं है, लेकिन तुम सोचने लगते हो कि “क्या होने वाला है?” या कोई रो रहा है और तुम जिज्ञासा से भर जाते हो। हजारों चीजें सतत तुम्हारे चारों और चल रही है। यदि आंखे फैल कर खुली हुई है तो तुम पुरूष ऊर्जा ..''याँग ''बन जाते हो।यदि आंखे बिलकुल बंद हो तो तुम एक प्रकार सी तंद्रा में आ जाते हो, स्वप्न लेने लगते हो। तुम स्त्रैण ऊर्जा ..''यिन ''बन जाते हो।
6-दोनों से बचने के लिए नासाग्र पर देखो—सरल सी विधि है, लेकिन परिणाम लगभग जादुई है।ध्यानी साधक सदियों से किसी न किसी तरह इस निष्कर्ष पर पहुंचते रहे है कि आंखे यदि आधी ही बंद हों तो अत्यंत चमत्कारिक ढंग से तुम दोनों गड्ढों से बच जाते हो। पहली विधि में साधक बह्म जगत से विचलित हो रहा है। और दूसरी विधि में भीतर के स्वप्न जगत से विचलित हो रहा है। तुम ठीक भीतर और बाहर की सीमा पर बने रहते हो और यही सूत्र है।
7-भीतर और बाहर की सीमा पर होने का अर्थ है उस क्षण में तुम न पुरूष हो न स्त्री हो तुम्हारी दृष्टि द्वैत से मुक्त है; तुम्हारी दृष्टि तुम्हारे भीतर के विभाजन का अतिक्रमण कर गई। जब तुम अपने भीतर के विभाजन से पार हो जाते हो, तभी तुम तृतीय नेत्र के चुम्बकीय क्षेत्र की रेखा में आते हो।“मुख्य बात है पलकों को ठीक ढंग से झुकाना और तब प्रकाश को स्वयं ही भीतर बहने देना।”इसे स्मरण रखना बहुत महत्वपूर्ण है।
8- तुम्हें प्रकाश को बलपूर्वक भीतर नहीं लाना है। यदि खिड़की खुली हो तो प्रकाश स्वयं ही भीतर आ जाता है और यदि द्वार खुला हो तो भीतर प्रकाश की बाढ़ जा जाती है।तुम्हें उसे भीतर लाने की /धकेलने की जरूरत नहीं है।और तुम प्रकाश को भीतर घसीट या धकेल भी नहीं सकते हो । इतना ही चाहिए कि तुम उसके प्रति खुले और संवेदनशील रहो।
9-स्मरण रखो, तुम्हें दोनों आँखो से नासाग्र को देखना है ताकि नासाग्र पर दोनों आंखे अपने द्वैत को खो दें। तो जो प्रकाश तुम्हारी आंखों से बाहर बह रहा है वह नासाग्र पर एक हो जाता है। वह एक केंद्र पर आ जाता है। जहां तुम्हारी दोनों आंखें मिलती है, ये वहीं स्थान है जहां खिड़की खुलती है और फिर सब शुभ है। फिर इस घटना को होने दो, प्रफुल्लित होओ। फिर कुछ भी नहीं करना है।“दोनों आंखों से नासाग्र को देखना है, सीधा होकर बैठना है। क्योकि जब तुम्हारी रीढ़ सीधी होती है तो तुम्हारे काम-केंद्र की ऊर्जा भी तृतीय नेत्र को उपलब्ध हो जाती है।
10-सीधी-सादी विधि है,इनमें कोई जटिलता नहीं है, बस इतना ही है कि जब दोनों आंखें नासाग्र पर मिलती है, तो तुम तृतीय नेत्र के लिए उपलब्ध कर दो। फिर प्रभाव दुगुना / शक्तिशाली हो जाएगा, क्योंकि तुम्हारी सारी ऊर्जा काम केंद्र में ही है। जब रीढ़ सीधी खड़ी होती है तो काम केंद्र की ऊर्जा भी तृतीय नेत्र को उपलब्ध हो जाती है। यह बेहतर है कि दोनों आयामों से तृतीय नेत्र पर चोट की जाए; दोनों दिशाओं से तृतीय नेत्र में प्रवेश करने की चेष्टा की जाए।
11-और जब तुम तृतीय नेत्र के केंद्र पर पहुंच कर वहां केंद्रित हो जाते हो और प्रकाश बाढ़ की भांति भीतर आने लगता है, तो तुम उस बिंदु पर पहुंच गए, जहां से पूरी सृष्टि उदित हुई है। “केंद्र सर्वव्यापी है; सब कुछ उसमें समाहित है; वह सृष्टि की समस्त प्रक्रिया के निस्तार से जुड़ा हुआ है।” तुम निराकार और अप्रकट पर पहुच गए। चाहो तो उसे परमात्मा कह लो। यही वह बिंदु है, यह वह आकाश है, जहां से सब जन्मा है। यही समस्त अस्तित्व का बीज है। यह सर्वशक्तिमान है, सर्वव्यापी है, शाश्वत है…।
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NOTE;-
1-साँसारिक यातनाओं से थके व्यक्ति को भगवान् की याद आती है और तब वह अपने आपको एक नये आध्यात्मिक वातावरण में अनुभव करता है, इससे उसकी सूक्ष्म एवं अदृश्य
अतिमानसिक शक्तियों का विकास होता है।शक्ति संस्थान के जागरण के इन कारणों में अत्यधिक यातना से पीड़ित होना भी शामिल है सम्भवतः अध्यात्मवादी इसी कारण केवल दुःख की कामना करते हैं क्योंकि उससे आत्मा को ब्रह्म से जोड़ने वाली शक्ति रेखा का आचरण सम्भव हो जाता है।
2-शक्ति-साधनाओं के लिये जहाँ साधक का मनोबल आवश्यक होता है वहाँ उसकी शारीरिक क्षमताओं का भी प्रौढ़ एवं परिपुष्ट होना भी आवश्यक है आग के पास ठण्डे जल के अन्दर, तेज हवा के प्रवाह में अथवा जमीन के अन्दर गढ़कर शरीर एक निश्चित बर्दास्त की सीमा तक ही स्थिर रह सकता है फिर यदि शक्तियाँ शरीर के अन्दर जागृत हो रही हों-और उन्हें सीखने के लिये शरीर के सूक्ष्म कोश तैयार न हों तो वह महत्वपूर्ण शक्तियाँ अपने लिये ही घातक बन जाती हैं इसीलिये रोगी शरीर के लिये योग साधनायें निषिद्ध हैं।
3-तिब्बत योग साधनाओं, सिद्धि चमत्कारों का गढ़ माना जाता है। तिब्बत के ज्योतिषी और योगी विश्व विख्यात हैं।श्री लोबसाँग रम्पा ने अपनी इन दिव्य शक्तियों का वैज्ञानिक विश्लेषण अपनी प्रसिद्ध पुस्तक- “तीसरी आँख” (ञ्जद्धद्बह्स्रस्त्र श्वब्द्ग) और “अमर आत्मा” (ब्शह्व स्नशह्द्गक्द्गह्) में विस्तार से किया है। दोनों पुस्तकें कोर्गी बुक्स, ट्राँस-वर्ल्ड पब्लिशर्स लिमिटेड, बैशले रोड, लन्दन एन डब्ल्यू 90 - ने प्रकाशित की हैं-कोर्गी बुक्स ने इनकी कुल मिलाकर 10 पुस्तकें छापी है जिनकी कई लाख प्रतियाँ सारे संसार में प्रसारित हो चुकी हैं।
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7 संकेत जो बताते हैं आपकी तीसरी आंख खुल रही है;-
तीसरी आंख , हमें सीधा आध्यात्मिक केंद्र से जोड़ता है और यह आकाशीय अभिलेखों तक पहुंचने की भी क्षमता रखता है। तीसरी आंख के खुलने से हमें अपने आसपास हो रही चीज़ों के बारे में जानकारी मिलती है। यह ज्ञान, अंतर्ज्ञान, मानसिक स्थिति, उच्च चेतना और टेलिपैथी नियंत्रित करती है। पूरी तरह से खुली तीसरी आंख आपको अपने और प्रकृति के बीच गहरे संबंध का अनुभव करती है। ये कुछ लक्षण है जो बताते हैं कि आपकी तीसरी आंख खुल रही है।
1- आइब्रो के बीच में दबाव;-
जब आपकी तीसरी आंख खुल रही होती है, तो आपके माथे के बीच में यानी दोनों आइब्रों से बस थोड़ा ऊपर वाले एरिया में आपको दबाव महसूस होता है। यह संकेत है कि आपकी पिनियल ग्रंथी ऊर्जावन रूप से बढ़ रही है।
2- सचेत होकर खाना;-
जब आपकी तीसरी आंख खुल जाती है, तब आप समझते हैं कि सब कुछ ऊर्जा है। आपको समझ आता है कि फूड यानी खाना वाइब्रेशनल इन्फॉर्मेशन है। आप कुछ ऐसा खाना शुरू कर देंगे जो पहले नहीं खाते थे और पिछले कुछ समय से जो चीज़ आप खाते आ रहे हैं, उसे छोड़ देंगे। क्योंकि अब आप पता चल गया है कि क्या आसानी से आपको हज़म हो जाता है और अपने शरीर के लिए ज़रूरी ऊर्जा को लेकर सतर्क हो चुके हैं।
3- दृष्टिकोण बदलना;-
आपकी तीसरी आंख खुल रही है, इसका एक संकेत ये भी है कि आप अपने आसपास की चीज़ों को बिल्कुल अलग और नए दृष्टिकोण से देखने लगते हैं। यह चक्र आपको सभी चीज़ों में समानता देखने की क्षमता देता है। आप उच्च चेतना के स्तर पर पहुंच जाते हैं, जहां और अपने और दूसरों में कोई अंतर नहीं करते। आप अपने आपको और सूक्ष्म चेतना के साथ पहचान पाएंगे और आप अपने आपको को हर चीज़ के रूप में अनुभव करेंगे ।
4- सोचने और विचार करने का तरीका बदल जाता है;-
जब आपकी तीसरी आंख खुलती है तो आप और अधिक अच्छी तरह ध्यान केंद्रित कर पाते हैं। आपके मस्तिष्क का भी विकास होता है। जब आप नई दुनिया से मिलते हैं, तब आपको जल्दी ही यह एहसास हो जाता है कि पहले आप जिस तरह सोचते थे वह अब सही नहीं है। आप अलग तरीके से सोचने लगते हैं.। आप गंभीर चीज़ों को भी आसानी से समझ लेते हैं। आप शांत रहते हैं, क्योंकि आपको पता है कि पूरी दुनिया आपके लिए ही है। आप अपने आसपास की चीज़ों पर अंधविश्वास नहीं करते और उसके बारे में सवाल करना शुरू कर देते हैं।
5- आप संवेदनशील हो जाते हैं;-
तीसरी आंख खुलने का ये भी एक संकेत है कि आप आवाज़ और प्रकाश के प्रति बहुत संवेदनशील हो जाते हैं। आप खास तरह की आवाज़ और टोन को लेकर बहुत संवेदनशील हो जाते हैं।
6- सिर में दर्द;-
जब आपकी तीसरी आंख खुल रही होती है तो आपको अपने सिर में दवाब महसूस होता है, इसमें चिंता की कोई बात नहीं हैं, क्योंकि हो सकता है कि आपकी कुंडलिनी ऊर्जा तीसरी आंख को बस खोलने ही वाली है।
7-स्पष्ट सपने देखना;-
ये भी एक संकेत है तीसरी आंख के खुलने का कि आपको बहुत स्पष्ट सपने दिखने लगते हैं। इन सपनों को आप कभी भुला नहीं पाते। तीसरी आंख के खुलने से मेडिटेशनमेलाटेशन लेवल बढ़ जाता है, जिस वजह से स्पष्ट सपने आते हैं।
....SHIVOHAM...