top of page

Recent Posts

Archive

Tags

SHORT QUES. OF SADHANA-04


चक्र और नींद

जो व्यक्ति मूलाधार चक्र पर केंद्रित है उसकी नींद गहरी न होगी। उसकी नींद उथली होगी क्योंकि यह दैहिक तल पर जीता है। भौतिक स्तर पर जीता है। मैं इन चक्रों कि व्याख्या इस प्रकार भी कर सकता हूं। प्रथम, भौतिक—मूलाधार। दूसरा, प्राणाधार—स्वाधिष्ठान। तीसरा, काम या विद्युत केंद्र—मणिपूर। चौथा, नैतिक अथवा सौंदयपरक—अनाहत। पांचवां, धार्मिक—विशुद्ध। छठा, आध्यात्मिक—आज्ञा। सातवां, दिव्य—सहस्त्रार।

जैसे-जैसे ऊपर जाओगे तुम्हारी नींद गहरी हो जाएगी। और इसका गुणवता बदल जायेगी। जो व्यक्ति भोजन ग्रसित है और केवल खाने के लिए जीता है। उसकी नींद बेचैन रहेगी। उसकी नींद शांत न होगी। उसमें संगीत न होगा। उसकी नींद एक दु:ख स्वप्न होगी। जिस व्यक्ति का रस भोजन में कम होगा और जो वस्तुओं की बजाएं व्यक्तियों में अधिक उत्सुक होगा, लोगों के साथ जुड़ना चाहता है। उसकी नींद गहरी होगी। लेकिन बहुत गहरी नहीं। निम्नतर क्षेत्र में कामुक व्यक्ति की नींद सर्वाधिक गहरी होगी। यही कारण है कि सेक्स का लगभग ट्रैक्युलाइजर, नशे की तरह उपयोग किया जाता है। यदि तुम सो नहीं पार रहे हो तो और तुम संभोग में उतरते हो तो शीध्र ही तुम्हें नींद आ जायेगी। संभोग तुम्हें तनाव मुक्त करता है। पश्चिम में चिकित्सक उन सबको सेक्स की सलाह देते है जिन्हें नींद नहीं आ रहा है। अब तो वे उन्हें भी सेक्स की सलाह देते है जिन्हें दिल का दौरा पड़ने का खतरा है। क्योंकि सेक्स तुम्हें विश्रांत करता है। तुम्हें गहरी नींद प्रदान करता है। निम्न तल पर सेक्स तुम्हें सर्वाधिक गहरी नींद देता है।

जब तुम और ऊपर की और जाते हो, चौथे अनाहत चक्र पर तो नींद अत्यंत निष्कंप, शांत, पावन व परिष्कृत हो जाती है। जब तुम किसी से प्रेम करते हो तो तुम अत्यंत अनूठी विश्रांति का अनुभव करते हो। मात्र विचार कि कोई तुम्हें प्रेम करता है। और तुम किसी से प्रेम करते हो। तुम्हें विश्रांत कर देता है। सब तनाव मिट जाते है। एक प्रेमी व्यक्ति गहरी निद्रा जानता है। घृणा करो तो तुम सो न पाओगे। क्रोध करो तो तुम सो न पाओगे। तुम नीचे गिर जाओगे। प्रेम करो, करूणा करो। और तुम गहरी नींद आएगी।

पांचवें चक्र के साथ नींद लगभग प्रार्थना पूर्ण बन जाती है। इसी लिए सब धर्म लगभग आग्रह करते है कि सोने से पहले तुम प्रार्थना करो। प्रार्थना को निद्रा के साथ जोड़ दो। प्रार्थना के बिना कभी मत सोओ। ताकि निद्रा में भी तुम्हें उसके संगीत का स्पंदन हो। प्रार्थना की प्रतिध्वनि तुम्हारी नींद को रूपांतरित कर देती है। पांचवां चक्र प्रार्थना है—और यदि तुम प्रार्थना कर सकते हो तो और अगली सुबह तुम चकित होओगे। तुम उठोगे ही प्रार्थना करते हुए। तुम्हारा जागना ही एक तरह की प्रार्थना होगी। पांचवें चक्र में नींद प्रार्थना बन जाती है। यह साधारण नींद नहीं रहती। तुम निद्रा में नहीं जा रहे। बल्कि एक सूक्ष्म रूप से परमात्मा में प्रवेश कर रहे हो। निद्रा एक द्वार है जहां तुम अपना अहंकार भूल जाते हो। और परमात्मा में खो जाना आसान होता है। जो कि जाग्रत अवस्था में नहीं हो पाता। क्योंकि जब तुम जागे हुए होते हो तो अहंकार बहुत शक्तिशाली होता है।

जब तुम गहरी निद्रावस्था में प्रवेश कर जाते हो तुम्हारी आरोग्यता प्रदान करने वाली शक्तियों की क्षमता सर्वाधिक होती है। इसीलिए चिकित्सक का कहना है कि यदि कोई व्यक्ति बीमार है और सो नहीं पाता तो उसके ठीक होने की संभावना कम हो जाती है। क्योंकि आरोग्यता भीतर से आती है। आरोग्यता तब आती है। जब अहंकार का आस्तित्व बिलकुल नहीं बचता। जो व्यक्ति पांचवें चक्र—प्रार्थना के चक्र तक पहुंच गया है। उसका जीवन एक प्रसाद बन जाता है। जब वह चलता है तो उसकी भाव भंगिमाओं में आप एक विश्रांति का गुण पाओगे। आज्ञा चक्र, अंतिम चक्र है जहां नींद श्रेष्ठतम हो जाती है। इसके पार नींद की आवश्यकता नहीं रहती, कार्य समाप्त हुआ। छटे चक्र तक निद्रा की आवश्यकता है। छठे चक्र में निद्रा ध्यान में रूपांतरित हो जाती है। प्रार्थना पूर्ण ही नहीं,ध्यानपूर्ण। क्योंकि प्रार्थना में द्वैत है। मैं और तुम, भक्त और भगवान। छठवें में द्वैत समाप्त हो जाता है। निद्रा गहन हो जाती है। इतनी जितनी की मृत्यु। वास्तव में मृत्यु और कुछ नहीं बल्कि एक गहरी नींद है और कुछ नहीं बल्कि एक छोटी-सी मृत्यु है। छठे चक्र के साथ नींद अंतस की गहराई तक प्रवेश हो जाती है। और कार्य समाप्त हो जाता है। जब तुम छठे से सातवें तक पहुंचते हो तो निद्रा की आवश्यकता नहीं रहती। तुम द्वैत के पार चले गए हो। तब तुम कभी थकते ही नहीं। इसलिए निद्रा की आवश्यकता नहीं रहती है। यह सातवीं अवस्था विशुद्ध जागरण की अवस्था है।

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

साक्षी का मतलब है: देखने वाला, गवाह।

मैं शरीर नहीं हूं, ऐसा किसको अनुभव होता है? मैं मन नहीं हूं, ऐसा किसको अनुभव होता है? ऐसा कौन इनकार करता चला जाता है कि मैं यह नहीं हूं, मैं यह नहीं हूं, मैं यह नहीं हूं?

एक तत्व है हमारे भीतर दर्शन का, दृष्टि का, द्रष्टा का, देखने का। हम देख रहे हैं; हम जांच रहे हैं। वह जो देख रहा है, वही है साक्षी; जो दिखाई पड़ रहा है, वही है जगत। जो देख रहा है, वही हूं मैं; और जो दिखाई पड़ रहा है, वही है जगत। अभ्यास का अर्थ है कि जो देख रहा है, वह भूल से यह समझ लेता है कि जो दिखाई पड़ रहा है वह मैं हूं। यह अभ्यास है। एक हीरा मेरे हाथ में रखा है। उसे मैं देख रहा हूं। अगर मैं यह कहने लगूं कि मैं हीरा हूं तो अभ्यास होगा। क्योंकि हीरा मेरे हाथ पर रखा है, दिखाई पड़ रहा है, आब्जेक्ट है, एक विषय है, और मैं देखना वाला हूं, अलग हूं। देखना वाला सदा ही अलग है उससे जो दिखाई पड़ता है। देखने वाला कभी भी दृश्य के साथ एक नहीं है। देखने वाला सदा ही दिखाई पड़ने वाले से भिन्न है। मैं आपको देख रहा हूं क्योंकि आपसे भिन्न हूं, आप मुझे देख रहे हैं क्योंकि मैं आपसे भिन्न हूं। जो भी दिखाई पड़ता है वह आपसे भिन्न है। उसको ही अपने से अभिन्न समझ लेना अध्यास है। जिसको आप देख रहे हैं उसके साथ इतने मोहित हो जाना कि लगने लगे यह मैं ही हूं, यही भ्रांति है। इस भ्रांति को तोड़ना है और अंततः उस शुद्ध तत्व को खोज लेना है जो सदा ही देखने वाला है और कभी दिखाई नहीं पड़ता।

यह थोड़ा कठिन है। जो देखने वाला है वह कभी दिखाई नहीं पड़ सकता। क्योंकि वह किसको दिखाई पड़ेगा? आप सारी चीजों को देख सकते हैं जगत की, सिर्फ अपने को छोड़ कर। आप अपने को कैसे देखिएगा? क्योंकि देखने में दो की तो जरूरत पड़ेगी ही – जो देखे और जो दिखाई पड़े। आप सब कुछ देख सकते हैं, अपने भर को आप नहीं देख सकते हैं। कैसे देखिएगा? किसी चिमटे से हम उसी चिमटे को पकड़ने की कोशिश करने लगें! सब पकड़ सकते हैं उस चिमटे से, सिर्फ उसी चिमटे को पकड़ने की कोशिश असफल जाएगी। और तब बड़ी मुश्किल होगी कि यह चिमटा भी कैसा पागल है! सब कुछ पकड़ लेता है तो अपने को क्यों नहीं पकड़ पाता?

हम सब कुछ देख लेते हैं, अपने को नहीं देख पाते। देख भी नहीं पाएंगे। और जिसको भी हम देख लेंगे, जान लेना कि वह हम नहीं हैं। तो जिस चीज को भी आप देखने में समर्थ हो जाएं, आप समझ लेना कि इतनी बात तय हो गई कि यह मैं नहीं हूं। कोई आदमी अगर ईश्वर का दर्शन कर ले, तो समझ लेना एक बात पक्की हो गई कि आप ईश्वर नहीं हैं। आपको भीतर प्रकाश का दर्शन हो जाए, तो समझ लेना एक बात पक्की हो गई कि आप प्रकाश नहीं हैं। आपको भीतर आनंद का अनुभव हो जाए, तो आप एक बात पक्की समझ लेना कि आप आनंद नहीं हैं। जिस चीज का भी अनुभव हो जाए वह आप नहीं हैं। आप तो वह हैं जिसको अनुभव होता है। तो जो भी चीज अनुभव बन जाती है, उसके आप पार हो जाते हैं। इसलिए एक कठिन बात समझ लेनी उपयोगी होगी, कि अध्यात्म कोई अनुभव नहीं है। दुनिया में सब चीजें अनुभव हैं, अध्यात्म कोई अनुभव नहीं है। अध्यात्म तो उसकी तरफ पहुंच जाना है जिसको सब अनुभव होता है और जो स्वयं कभी अनुभव नहीं बनता – अनुभोक्ता, साक्षी, द्रष्टा।

आपको मैं देखता हूं; उधर आप हैं, इधर मैं हूं। उधर आप हैं जो दिखाई पड़ रहा है; इधर मैं हूं जो देख रहा है। ये दो हैं। अपने को बांटने का कोई उपाय नहीं है कि मैं अपने को दो टुकड़े में कर लूं, और एक देखे और एक दिखाई पड़े। अगर टुकड़ा हो सके – दो टुकड़े हो सकें – तो जो टुकड़ा देखेगा, वही मैं हूं; और जो टुकड़ा दिखाई पड़ेगा, वह मैं नहीं रहा। वह बात समाप्त हो गई। वह मुझसे टूट गया। वह अलग हो गया।

उपनिषद की व्यवस्था, प्रक्रिया, विधि यही है: नेति – नेति। जो भी दिखाई पड़ जाए, कहो कि यह भी नहीं। जो भी अनुभव में आ जाए, कहो यह भी नहीं। और हटते जाओ पीछे, हटते जाओ पीछे, हटते जाओ पीछे। उस समय तक हटते जाओ, जब तक कि कोई भी चीज इनकार करने को बाकी रहे।

एक ऐसी घड़ी आती है, सब दृश्य खो जाते हैं। एक ऐसी घड़ी आती है, सब अनुभव गिर जाते हैं… सब। ध्यान रखना, सब। कामवासना का अनुभव तो गिरता ही है, ध्यान का अनुभव भी गिर जाता है। संसार के, राग-द्वेष के अनुभव तो गिर ही जाते हैं, आनंद, समाधि, इनके भी अनुभव गिर जाते हैं। बच रहता है खालिस देखने वाला। कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, शून्य हो जाता है चारों तरफ। रह जाता है केवल देखने वाला और चारों तरफ रह जाता है खाली आकाश। बीच में खड़ा रह जाता है द्रष्टा, उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि उसने सब इनकार कर दिया। जो भी दिखाई पड़ता था, हटा दिया मार्ग से। अब उसे कुछ भी अनुभव नहीं होता। हटा दिए सब अनुभव। अब बच रहा अकेला, जिसको अनुभव होता था।

जब कोई भी अनुभव नहीं होता, और कोई दर्शन नहीं होता, और कोई दिखाई नहीं पड़ता, और कोई विषय नहीं रह जाता, और जब साक्षी अकेला रह जाता है, तब कठिनाई है भाषा में कहने की कि क्या होता है। क्योंकि हमारे पास अनुभव के सिवाय कोई शब्द नहीं है। इसलिए इसे हम कहते हैं आत्म-अनुभव, लेकिन अनुभव शब्द ठीक नहीं है। हम कहते हैं चेतना का अनुभव या ब्रह्म-अनुभव। लेकिन यह शब्द, कोई भी शब्द ठीक नहीं है; क्योंकि अनुभव उसी दुनिया का शब्द है, जिसको हमने तोड़ डाला। अनुभव उस द्वैत की दुनिया में अर्थ रखता है जहां दूसरा भी था, यहां अब कोई अर्थ नहीं रखता। यहां सिर्फ अनुभोक्ता बचा, साक्षी बचा।

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

निर्विचार कैसे हुआ जाए?

जिसे निर्विचार होना हो, उसे व्यर्थ के विचारों को लेना बंद कर देना चाहिए । इसकी सजगता उसके भीतर होनी चाहिए कि वह व्यर्थ के विचारों का पोषण न करे, उन्हें अंगीकार न करे, उन्हें स्वीकार न करे और सचेत रहे कि मेरे भीतर विचार इकट्ठे न हो जाएं। इसे करने के लिए जरूरी होगा कि वह विचारों में जितना भी रस हो, उसको छोड़ दे।

हमें विचारों में बहुत रस है। अगर आप एक धर्म को मानते हैं, तो उस धर्म के विचारों में आपको बहुत रस है। जिसे निर्विचार होना है, उसे विचारों के प्रति विरस हो जाना चाहिए। उसे किसी विचार में कोई रस नहीं रह जाना चाहिए। उसे यह सोचना चाहिए कि विचार से कोई प्रयोजन नहीं, इसलिए उसमें कोई रस रखने का कारण नहीं। कैसे वह विरस होगा?

यह संभव होगा विचारों के प्रति जागरूकता से। अगर हम अपने विचारों के साक्षी बन सकें—और यह बन सकना कठिन नहीं है—अगर हम अपने विचारों की धारा को दूर खड़े होकर देखना शुरू करें, तो क्रमशः जिस मात्रा में आपका साक्षी होना विकसित होता है, उसी मात्रा में विचार शून्य होने लगते हैं।

विचार को शून्य करने का उपाय है विचार के प्रति पूर्ण सजग हो जाना। जो व्यक्ति जितना सजग हो जाएगा विचारों के प्रति, उतने ही विचार उसी भांति उसके मन में नहीं आते, जैसे घर में दीया जलता हो तो चोर न आएं। और घर में अंधकार हो तो चोर झांकें और अंदर आना चाहें।

भीतर जो होश को जगा लेता है, उतने ही विचार क्षीण होने लगते हैं। जितनी मूर्च्छा होती है भीतर, जितना सोयापन होता है भीतर, उतने ज्यादा विचारों का आगमन होता है। जितना जागरण होता है, उतने ही विचार क्षीण होने लगते हैं।

निर्विचार होने का उपाय है: विचारों के प्रति साक्षी-भाव को साधना। कोई एक क्षण में सध जाएगा, यह नहीं कहता। कोई एक दिन में सध जाएगा, यह भी नहीं कह रहा हूं। लेकिन अगर निरंतर प्रयास हो, तो थोड़े ही दिनों में आपको पता चलेगा कि जैसे-जैसे आप विचारों को देखने लगेंगे...कभी घंटे भर को किसी एकांत कोने में बैठ जाएं और कुछ भी न करें, सिर्फ विचारों को देखते रहें। कुछ भी न करें उनके साथ, कोई छेड़-छाड़ न करें, सिर्फ उन्हें देखते रहें। और देखते-देखते ही धीरे-धीरे आपको पता चलेगा,

वे कम होने लगे हैं। देखना जैसे-जैसे गहरा होगा, वैसे-वैसे वे विलीन होने लगेंगे। जिस दिन देखना पूरा हो जाएगा, जिस दिन आप अपने भीतर आर-पार देख सकेंगे, जिस दिन आपकी आंख बंद होगी और आपकी दृष्टि भीतर पूरी की पूरी देख रही होगी, उस दिन आप पाएंगे—कोई विचार का कोलाहल नहीं है, वे गए। और जब वे चले गए होंगे, उसी शांत क्षण में आपको अदभुत दृष्टि, अदभुत दर्शन, अदभुत आलोक का अनुभव होगा। वह अनुभव ही सत्य का दर्शन है। और वही अनुभव स्वयं का दर्शन है। स्वयं के माध्यम से ही सत्य जाना जाता है। और कोई द्वार नहीं है।

स्वयं के द्वार से ही सत्य को जाना जाता है। और सत्य को जान लेना आनंद में प्रतिष्ठित हो जाना है। असत्य में होना दुख में होना है। अज्ञान में होना दुख में होना है। और सत्य की उस ज्ञान-दशा में आनंद उपलब्ध होता है। आनंद और आत्मा अलग न समझें। आनंद और सत्य अलग न समझें। स्वयं और सत्य अलग न समझें। ऐसी जो प्रक्रिया का उपयोग क्रमशः अपने जीवन में करेगा, वह कभी निर्विचार को अनुभव कर लेता है। निर्विचार को जो अनुभव कर लेता है, उसकी पूरी विचार की शक्ति जाग्रत हो जाती है, उसे च्रु मिल जाते हैं।

जैसे किसी ने अंधेरे में प्रकाश कर दिया हो या जैसे किसी ने अंधे को आंख दे दी हों, ऐसा उसे अनुभव होता है। यह अगर क्रमिक साधना इसकी हो तो निश्चित ही उपलब्ध हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अधिकारी है और हकदार है। जो अपने अधिकार, को मांगेगा, उसे मिल जाता है। जो उसे छोड़े रखता है, वह खो देता है। जिन खोजा तिन पाइया

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

साक्षी की तलाश ही अध्यात्म है। ध्यान देना, ईश्वर की तलाश अध्यात्म नहीं है। पुराने योग—सूत्रों ने ईश्वर की चर्चा ही नहीं की, बात ही नहीं उठाई; कोई जरूरत न थी।

बाद में योग—सूत्रों ने ईश्वर की चर्चा भी की तो उसको भी एक अध्यात्म की खोज का साधन कहा, साध्य नहीं। उसे भी कहा कि यह साधना में सहयोगी होता है इसलिए ईश्वर को मान लेना अच्छा है। साधना में सहयोगी होता है, अध्यात्म की खोज में, इसलिए मान लेना अच्छा है। एक उपकरण है, ईश्वर भी एक विधि है, बस।

इसलिए बुद्ध ने इनकार कर दिया, महावीर ने ईश्वर को इनकार कर दिया। उन्होंने दूसरी विधिया खोज लीं। उन्होंने कहा, इस विधि की कोई भी जरूरत नहीं है। अगर विधि ही है ईश्वर, तो फिर दूसरी विधियों से भी काम चल सकता है।

लेकिन बुद्ध और महावीर भी साक्षी को इनकार नहीं कर सकते; ईश्वर को इनकार कर सकते हैं। सब कुछ इनकार किया जा सकता है, लेकिन अध्यात्म की जो आत्यंतिक आधारशिला है वह साक्षी है, उसे इनकार नहीं किया जा सकता।

इसलिए चाहे ईसाइयत, चाहे इस्लाम, चाहे हिंदू चाहे जैन, चाहे बौद्ध, एक बात आप खोज लेना — अगर किसी भी धर्म में साक्षी की कोई बात हो, तो समझना कि वह धर्म है; अगर साक्षी की बात ही न हो, तो समझना कि उसका धर्म से कोई भी संबंध नहीं है। और सब बातें गौण हैं; और सब बातें उपयोगी, गैर—उपयोगी हैं, और सब बातों में मतभेद हो सकता है, साक्षी के मामले में मतभेद नहीं हो सकता।

इसलिए अगर किसी दिन दुनिया में धर्म का विज्ञान निर्मित होगा तो उसमें ईश्वर, आत्मा, ब्रह्म, इन सबकी चर्चा नहीं होगी, क्योंकि ये सब स्थानीय बातें हैं, कोई धर्म मानता है, कोई नहीं मानता; लेकिन साक्षी की चर्चा जरूर होगी, क्योंकि साक्षी स्थानीय घटना नहीं है।

धर्म ही नहीं हो सकता बिना साक्षी के। तो साक्षी भर एक वैज्ञानिक आधारशिला है समस्त धर्म— अनुभव की, समस्त धर्म की खोज और यात्रा की। और इस साक्षी पर ही सारे उपनिषद घूमते हैं, इर्द —गिर्द।

सारे सिद्धात और सारे इशारे इस साक्षी को दिखाने के लिए हैं।

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

भगवान, भक्त की चरम अवस्था ;-

चरम अवस्था के संबंध में कभी कुछ कहा नहीं जा सकता। और भक्त की चरम अवस्था के संबंध में तो और भी कुछ नहीं कहा जा सकता।

एक तो चरम अवस्था का अर्थ ही होता है, शब्दों के जो पर गयी। फिर भक्त भी चरम अवस्था, भाव की चरम अवस्था, वह तो शब्दों से बहुत दूर चली गयी, बहुत दूर चली गयी! शब्दों की पृथ्वी बहुत पीछे छूट गयी।

भक्त तो मिट ही जाता है अपनी चरम अवस्था में, भगवान ही शेष रह जाता है।

तो या तो कुछ भक्तों ने कहा है: मैं नहीं हूं, तू है।

या कुछ भक्तों ने कहा: मैं ही हूं, तू नहीं है।

दोनों बातें कही जा सकती हैं। दोनों का एक ही अर्थ है।

एक ही बचा, अब उसे भक्त कहो, या भगवान कहो, यह तुम्हारी मौज।

अहं ब्रह्मास्मि। मैं ही बचा हूं, मैं ही ब्रह्म हूं; या ब्रह्म ही बचा है, अब मैं कहां?

उस चरम अवस्था में तो सब शून्य हो जाता है।

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

ईशावास्‍य उपनिषाद--

सूत्र :

ओम पूर्णमद: पूर्णमिद पूर्णात्पूर्णमुदव्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

ओम शांति: शांति: शांति:।

ओम वह पूर्ण है और यह भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही

उत्पत्ति होती है। तथा पूर्ण का पूर्णत्व लेकर पूर्ण ही बच रहता है।

ओम शांति, शांति, शांति।

यह महावाक्य कई अर्थों में अनूठा है। एक तो इस अर्थ में कि ईशावास्य उपनिषद इस महावाक्य पर शुरू भी होता है और पूरा भी। जो भी कहा जाने वाला है, जो भी कहा जा सकता है, वह इस सूत्र में पूरा आ गया है। जो समझ सकते हैं, उनके लिए ईशावास्य आगे पढ़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। जो नहीं समझ सकते हैं,शेष पुस्तक उनके लिए ही कही गई है।

इसीलिए साधारणत: ओम शांति: शांति: शांति: का पाठ, जो कि पुस्तक के अंत में होता है, इस पहले वचन के ही अंत में है। जो जानते हैं, उनके हिसाब से बात पूरी हो गई है। जो नहीं जानते हैं,उनके लिए सिर्फ शुरू होती है।

इसलिए भी यह महावाक्य बहुत अदभुत है कि पूरब और पश्चिम के सोचने के ढंग का भेद इस महावाक्य से स्पष्ट होता है।

दो तरह के तर्क, दो तरह की लाजिक सिस्टम्स विकसित हुई हैं दुनिया में—एक यूनान में, एक भारत में।

यूनान में जो तर्क की पद्धति विकसित हुई उससे पश्चिम के सारे विज्ञान का जन्म हुआ और भारत में जो विचार की पद्धति विकसित हुई उससे धर्म का जन्म हुआ। दोनों में कुछ बुनियादी भेद हैं।

और सबसे पहला भेद यह है कि पश्चिम में, यूनान ने जो तर्क की पद्धति विकसित की, उसकी समझ है कि निष्कर्ष, कनक्सन हमेशा अंत में मिलता है। साधारणत: ठीक मालूम होगी बात।

हम खोजेंगे सत्य को, खोज पहले होगी, विधि पहले होगी, प्रक्रिया पहले होगी, निष्कर्ष तो अंत में हाथ आएगा। इसलिए यूनानी चिंतन पहले सोचेगा, खोजेगा, अंत में निष्कर्ष देगा।

इस महावाक्य मे बड़ी अजीब बातें कही गई हैं, हायर मैथमेटिक्स की। कहा है कि पूर्ण से पूर्ण निकल आता है, फिर भी पीछे पूर्ण शेष रह जाता है। साधारण गणित के हिसाब से बिलकुल गलत बात है। अगर हम किसी भी चीज में से कुछ निकाल लेंगे, तो उतना ही शेष नहीं रह सकता जितना था। कुछ कम हो जाएगा। हो ही जाना चाहिए; अन्यथा हमारे निकाले हुए का क्या हुआ?

अगर मैं एक तिजोरी में से दस रुपए निकाल लूं उसमें अरबों रुपए भरे हों, तो भी कम हो गए। दस पैसे भी निकाल लूं तो भी कम हो गए। उतना ही शेष नहीं रह सकता जितना पहले था। कितनी ही बड़ी तिजोरा हो — कुबेर का खजाना हो कि सोलोमन का — अगर दस नार पैसे भी हमने उसमें से निकाले, तो अब तिजोरी उतनी ही नही है जितनी थी, कुछ कम हो गई। और कितना ही बड़ा खजाना हो,अगर हम दस कोड़ी भी उसमें डाल दें, तो अब उतनी ही नहीं रही जितनी थी। कुछ जुड़ गई और ज्यादा हो गई।

लेकिन यह सूत्र कहता हूँ कि पूर्ण सै पूर्ण निकल आता है,थोड़ा भी नहीं — दस पैसे नहीं निकालते, पूरी तिजोरी ही बाहर निकाल लेते हैं — पूर्ण से पूर्ण ही बाहर निकाल लेते हैं, फिर भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। या तो किसी पागल ने कहा है, जिसे गणित का कोई भी पता नहीं। पहली कक्षा का विद्यार्थी भी जानता है किं हम कुछ निकालेंगे, तो पीछे कमी हो जाएगी। और थोड़ा निकालेंगे, तो भी कमी हो जाएगी। अगर पूरा निकाल लेगे, तब तो पीछे कुछ भी नहीं बचना चाहिए। पर यह सूत्र कहता है कि कुछ नहीं, पूरा ही बच जाता है। तब निश्चित ही, तिजोरी को ही जो समझते हैं, वे इसे नहीं समझ पाएंगें। तब किसी और दिशा से समझना पड़ेगा।

जब आप किसी को प्रेम देते हैं, तो आपके पास प्रेम कम होता है? आप पूरा ही प्रेम दे डालते हैं, तब भी आपके पास कुछ कमी हो जाती है? नहीं। आदमी के पास इस सूत्र को समझने के लिए जो निकटतम शब्द है वह प्रेम है। उससे ही हमें पकड़ना पड़ेगा। सच तो यह है कि प्रेम आप कितना ही दे डालें, उतना ही बच रहता है जितना था। उसमें कोई भी कमी, नहीं आती। बल्‍कि कुछ तो कहते हैं कि वह और बढ़ जाता है। जितना आप देतें हैं, उतना बढ़ जाता है। जितना आप बांटते हैं, उतना गहन होता चला जाता है। जितना लुटाते हैं, उतना ही पाते हैं कि और—और उपलबध होता चला जा रहा है। जों अपने सारे प्रेम को फैंक दे बाहर, वह अनंत प्रेम का मालिक हो जाता है। पूर्ण से पूर्ण निकल आए और पीछे पूर्ण ही शेष रह जाए, तो इसका अर्थ हुआ कि यh गणित सै नहीं समझाया जा सकेगा, प्रेम से समझना पड़ेगा। इसलिए जो आइंस्टीन के पास समझने जाएंगे, वे नहीं समझ पाएंगे। मीरा के पास समझने जाएं, तो शायद समझ मैं आ जाए। चैतन्य के पास समझने जाएं तो शायद समझ में आ जाए। क्योंकि यह किसी और ही आयाम, किसी और ही डायमेंशन की बात है, जहां देने से घटता नहीं।

आपके पास सिवाय प्रेम के और कोई ऐसा अनुभव नहीं है जिससे समझने की पहली चोट हो सके। पता नहीं, प्रेम का अनुभव भी है या नहीं, क्योंकि सौ में से निन्यानबे को वह भी नहीं है। अगर आपको प्रेम दे देने से कुछ कमी मालूम पड़ती हो, तो आप समझ लेना कि आपको प्रेम का कोई अनुभव नहीं हैं। अगर आप प्रेम किसी को देते हों और भीतर लगता हो कि कुछ खाली हुआ, तो आप समझ लेना कि जो आपने दिया है वह कुछ और होगा, प्रेम नहीं हो सकता। वह फिर तिजोरी की ही दुनिया की कोई चीज होगी। वह पैसे लगते में तुलने वाली चीज होगी। आंकड़ों में आकी जा सके, तराजू में तोली जा सके, गजों से नापी जा सके, ऐसी कोई चीज — मेजरेबल..।

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

आदमी गौण है, चेतना का विकास महत्वपूर्ण है। लेकिन एक संतुलन होना चाहिए। अन्यथा पेंडुलम स्वाभाविक रूप से दूसरी अति पर जाता है।

मोहम्मद ने अपने धर्म को नाम दिया इस्लाम। इस्लाम यानी शांति। और दुनिया में इस्लाम ने जितना उपद्रव पैदा किया है, उतना किसी धर्म ने नहीं किया। निश्चित ही, मोहम्मद उसके लिए जिम्मेदार होंगे। उन्होंने अपनी तलवार पर लिख रखा था, शांति मेरा संदेश है—यह कोई तलवार पर लिखने की बात नहीं है। क्योंकि तलवार शांति का संदेश नहीं है। ज्यादा से ज्यादा वह सुरक्षा बन सकती है, लेकिन संदेश नहीं बन सकती। वे आदमी बड़े प्यारे थे। बहुत व्यावहारिक और प्रयोगात्मक थे। और अरब देशों में उन्होंने देखा कि वहां निरंतर युद्ध चलते थे और वे स्वयं सतत युद्ध में उलझे रहते थे, तो पुरुष मारे जाते थे, और पुरुषों और स्त्रियों का अनुपात बड़ा विचित्र हो गया था।

प्रकृति एक संतुलन बनाए रखती है। प्रकृति में स्त्रियों की और पुरुषों की संख्या करीब—करीब समान होती है। यह इस बात का निदर्शक है कि प्रकृति एक प्रतीक है। तुम बच्चों की जन्म दर की जांच करो तो तुम्हें आश्चर्य होगा। 110 लड़के पैदा होते हैं और 100 लड़कियां पैदा होती हैं। तुम कहोगे, यह बात जरा अजीब मालूम पड़ती है। शायद तुम सोचोगे कि पुरुष श्रेष्ठ है इसलिए 110 लड़के पैदा होते हैं और स्त्री कनिष्ठ है इसलिए 100 लड़कियां पैदा होती हैं।

लेकिन ऐसा नहीं है। तथ्य तो इससे बिलकुल उल्टा है। पुरुष कमजोर होते है और स्त्री ताकतवर होती है—मांसपेशियों की दृष्टि से नहीं कह रहा हूं। तो जब तक ये लड़के विवाह की उम्र के योग्य बनते हैं तब तक वे अतिरिक्त 10 लड़के मर चुके होते हैं। लेकिन 100 लड़कियां अभी भी जिंदा होती हैं। तो विवाह के समय ठीक 100 लड़के और 100 लड़कियां होती हैं।

प्रकृति की अपनी प्रज्ञा है। स्त्रियां पुरुषों से पांच साल अधिक जीती हैं। लेकिन पुरुष का अहंकार बड़ा विचित्र है। कोई पुरुष अपने से पांच साल बड़ी स्त्री से विवाह करने को राजी नहीं होता। हर देश में लोग चाहते हैं कि लड़कियां लड़कों से कुछ साल छोटी हों। अगर लड़का 25 साल का है तो लड़की 20 की होनी चाहिए। पर यह पूर्णतः प्रकृति के खिलाफ हैं। 5 साल लड़की ज्यादा जीने वाली है लड़के से। तो जब लड़का 75 साल का होगा तब वह मरेगा, और उसकी पत्नी सिर्फ 70 साल की होगी। और वह व्यर्थ ही बुढ़ापे के दस साल पीड़ा और एकाकीपन से भरे हुए बिताएगी।

अपने से चौदह साल बड़ी स्त्री से शादी करके मोहम्मद ने बहुत हिम्मत का काम किया। बात थोड़ी विचित्र लगती है लेकिन प्रकृति से अधिक मेल खाती है। और चूंकि स्त्रियां चार गुना ज्यादा थी, परिस्थिति बहुत खतरनाक थी। अगर प्रत्येक पुरुष एक ही स्त्री से शादी करता तो बाकी जो 3 स्त्रियां बचतीं, उनका क्या होता? वे वेश्या बनेंगी। क्योंकि तुमने उन्हें कोई और शिक्षा नहीं दी है। तुमने उन्हें कोई आर्थिक स्थिरता नहीं दी है। तो मोहम्मद ने यह तय किया कि हर पुरुष 4 या 5 स्त्रियों से शादी कर सकता है। यह बड़ी सुंदर व्यवस्था थी। उन्होंने खुद नौ स्त्रियों से शादी की। लेकिन उससे उनके अनुयायियों को जैसे अनुज्ञा मिल गई। हैदराबाद के निजाम की पांच सौ पत्नियां थी। क्योंकि चार या चार से ज्यादा...फिर उसकी कोई सीमा नहीं है।

मोहम्मद पढ़े लिखे नहीं थे। उनके पास यह समझ नहीं थी कि वे जो कर रहे हैं, उसकी गलत ढंग से व्याख्या की जा सकती है। उन्होंने सोचा भी नहीं होगा कि उनके अनुयायी पांच सौ औरतों से शादी करने लगेंगे। और अब जब अनुपात बराबर हैं, स्त्रियों और पुरुषों की संख्या समान है, इसलिए मोहम्मद के खयाल का निषेध होना चाहिए और उसे अस्वीकृत किया जाना चाहिए। वह उस समय, चौदह सौ साल पहले ठीक था, लेकिन आज नहीं।

ये सारे महापुरुष, जो इस पृथ्वी पर हुए, उनके प्रति मेरा दृष्टिकोण इतना ही है: उनमें हमारे लिए जो संगत है उसे चुनें और असंगत है उसे छोड़ दें।

इस्लाम धर्म उस देश में पैदा हुआ था जो ज्यादा सुसंस्कृत नहीं था। उसे सिर्फ एक ही तर्क मालूम था—तलवार का तर्क। और तलवार कोई तर्क नहीं है। और इस्लाम धर्म ठीक उसी बिंदु पर अटका रह गया है, जहां मोहम्मद छोड़ गए थे। क्योंकि कहा है, और मैं उसका निषेध करता हूं, कि मैं अल्लाह का आखिरी पैगंबर हूं; कि अल्लाह के पूर्ववर्ती संदेशों में कुरान अंतिम सुधार है। अब इसके बाद कोई और पैगंबर नहीं होगा और अन्य कोई परिवर्तन नहीं होंगे।

अब यह धर्मांधता है। और यह किसने कहा है कि इसको कोई सवाल नहीं है—बात ही गलत है। जीवन विकसित होता रहेगा और लोगों को नए संदेशों की जरूरत पड़ेगी और नए लोगों की जरूरत पड़ेगी जो नई समस्याओं का हल खोजेंगे। और कुरान कोई बहुत बड़ा धर्म ग्रंथ नहीं है। उसमें उपनिषद की वह उड़ान नहीं है। उसमें गौतम बुद्ध की विचार संपदा नहीं है। लेकिन यह स्वाभाविक भी था क्योंकि मोहम्मद अशिक्षित लोगों से बोल रहे थे। लेकिन वे अशिक्षित लोग अब भी वही ढोए चले जा रहे हैं। एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में कुरान। या तो कुरान को स्वीकार करो या तलवार को।

प्रत्येक व्यक्ति को अपना दर्शन अभिव्यक्त करने की छूट होनी चाहिए। और प्रत्येक व्यक्ति को उसे स्वीकार या अस्वीकार करने की छूट होनी चाहिए। उसका अस्वीकार करना उसका अपमान नहीं है। धर्म केवल स्वतंत्रता की आबोहवा में विकसित होता है। इस्लाम ने खुद मुस्लिमों को भी यह स्वतंत्रता नहीं दी है।

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

सत्य एक अनुभूति है, वस्तु नहीं! इसलिए कोई दूसरा उसे दे नहीं सकता, वस्तुएं दी जा सकती हैं! अनुभव नहीं दिए जा सकते। वस्तु पात्रता की चिंता नहीं करतीं, कोहिनूर किसके पास है! कोहिनूर को इसकी जरा भी चिंता नहीं, एक भिखमंगे के पास हो तो ठीक, महारानी विक्टोरिया के पास हो तो ठीक; कोहिनूर व्यक्तियों की चिंता नहीं करता, क्योंकि कोहिनूर एक जड़ पदार्थ है। सत्य कोई जड़ता नहीं है! सत्य तो तुम्हारी संवेदनशीलता पर निर्भर है। सत्य हर किसी के पास नहीं हो सकता! सत्य को एक हाथ से दूसरे हाथ में लिए जाने का कोई उपाय नहीं है। सत्य तो वहीं होगा जहां सत्य को झेलने की पात्रता होगी। इसलिए वास्तविक खोजी अपने को तैयार करता है। वह इसकी चिंता नहीं करता कि सत्य कहाँ है। वह इसकी चिंता करता है क्या मैं योग्य हूँ? वह इसकी बिलकुल चिंता नहीं करता कि कौन मुझे सत्य देगा! वह इसकी चिंता करता है कि सत्य मेरे द्वार आयेगा तो मेरा द्वार खुला होगा या नहीं! सत्य मेरे द्वार पर दस्तक देगा तो मेरे कान सुन सकेंगे या नहीं। सत्य पर आक्रमण नहीं किया जा सकता, सत्य को केवल ग्रहण किया जा सकता है। सत्य के लिए तुम्हारा पुरुष जैसा होना जरूरी नहीं; स्त्री जैसा होना भी जरूरी नहीं है। सत्य तुम में प्रवेश करेगा, लेकिन तुममें गर्भ की योग्यता चाहिए !!

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

बुद्धत्व का अर्थ है: जो आदमी जागा हुआ जी रहा है। ध्यान का अर्थ है: जहां मन न के बराबर रह जाए। समाधि का अर्थ है: जहां मन बिलकुल शून्य हो जाए, तुम ही तुम बचो। ध्यान का अर्थ है--अपने पर ध्यान, दूसरे पर नहीं। मन का अर्थ है--दूसरे पर ध्यान। और ध्यान का अर्थ है: निर्विचार चैतन्य। निर्वाण का अर्थ है--निर्वाण शब्द का अर्थ है: दीये का बुझ जाना। बुद्ध को वह शब्द प्रिय था। वे कहते, जैसे दीया बुझ जाता है, तो तुम पूछो कि उसकी ज्योति कहां गई? क्या कहोगे, कहां गई? अब तुम ज्योति को कहीं भी इशारा करके न बता सकोगे। होगी तो कहीं; क्योंकि इस अस्तित्व में कुछ भी जो है, नष्ट नहीं हो सकता। जो है, वह है; जो नहीं है, वह नहीं है। जो नहीं है, उसके होने का उपाय नहीं है; जो है, उसके मिटने का उपाय नहीं है। वह कहीं न कहीं तो ज्योति होगी। तुमने दीया फूंक कर बुझा दिया, ज्योति खो थोड़े ही जाएगी; जाएगी कहां खोकर? विराट में एक हो गई! अब तक उसका रूप था, अब अरूप हो गई! दीये से छुटकारा हो गया है। इसका यह मतलब नहीं है कि खो गई। ध्यान में गुरु यही कर रहा है: तुम्हें धक्का दे रहा है। और अगर तुम्हारी श्रद्धा हो, तो तुम्हारे भीतर बीज टूट जाएगा और वृक्ष का जन्म हो जाएगा। तर्क से तुम भरे रहे, तो तुम व्यर्थ ही भटकते रहोगे। श्रद्धा द्वार है। -

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

वासना बोध की अनुपस्थिति है

एक गुफा एक पहाड़ की कंदरा में छिपी थी सदियों से, सदियों सदियों से; अनंतकाल से। गुफाओं की आदत छिपा होना होता है। अंधेरे में ही रही थी। कुछ ऐसी आडू में छिपी थी पत्थरों और चट्टानों के, कि सूरज की एक किरण भी कभी भीतर प्रवेश न कर पाई थी। सूरज रोज द्वार पर दस्तक देता लेकिन गुफा सुनती न। सूरज को भी दया आने लगी कि बेचारी गुफा जन्मों जन्मों से बस अंधेरे में रही है। इसे रोशनी का कुछ पता ही नहीं। एक दिन सूरज ने जोर से आवाज दी। ऐसी सूरज की आदत नहीं कि जोर से आवाज दे। लेकिन बहुत दया आ गई होगी। जन्मों जन्मों से गुफा अंधेरे में पड़ी है। तो सूरज ने कहा, बाहर निकल पागल!

देख, बाहर कैसी रोशनी है। फूल खिले, पक्षी गीत गाते, किरणों का जाल फैला है। और मैं तेरे द्वार पर खड़ा हूं और बार बार दस्तक देता हूं। तू बहरी है? बाहर आ।

गुफा ने कहा, मुझे विश्वास नहीं आता। किस गुफा को कब विश्वास आया सूरज की आवाज पर? जब मैं तुम्हारे द्वार पर दस्तक देता हूं तुम भी कहते हो विश्वास नहीं आता। कौन जाने कोई धोखा देने आया हो, कोई लूटने आया हो। गुफा के पास कुछ है भी नहीं और लूटे जाने का डर है!

लेकिन सूरज रोज दस्तक देता रहा। आखिर एक दिन गुफा को आना ही पड़ा। सोचा,एक दिन चल कर जरा झांक कर देख लें। न तो फूलों का भरोसा था कि फूल हो सकते हैं; क्योंकि जो देखा न हो उसका भरोसा कैसे? न रोशनी का भरोसा था;क्योंकि रोशनी जानी ही न थी। तो रोशनी का अनुभव न हो, आभास भी न हुआ हो तो प्रत्यभिज्ञा कैसे हो? पहचान कैसे हो? आकांक्षा कैसे जगे? उसी को तो हम चाहते हैं जिसका थोड़ा स्वाद लिया हो। न भरोसा था कि पक्षियों के गीत होते हैं। पक्षियों का ही पता न था। गुफा तो बस अपने अंधेरे... अपने अंधेरे... अपने अंधेरे में डूबी रही थी। उस दिन बाहर आई डरती—डरती, सकुचाती।

तुम्हें जब मैं देखता हूं संन्यास में उतरते तो मुझे उस गुफा की याद आती है—डरते—डरते, सकुचाते। ऐसे आते हो कि अगर जरा लगे कि बात गड़बड़ है तो खिसक जाओ। सम्हाल—सम्हाल कर कदम रखते हो। लौटने का उपाय तोड़ते नहीं। लौटने की पूरी व्यवस्था रखते हो कि अगर कुछ धोखाधड़ी हो तो लौट जाएं।

ऐसी गुफा आई, आई तो चौंक गई। आई तो रोने लगी। आई तो आंख आंसुओ से भर गई। छाती पीटने लगी कि जनम जनम मैंने अंधेरे में गुजारा। तुमने दया पहले क्यों न की? तुमने पहले क्यों न पुकारा?

देखते हो? सूरज रोज दस्तक दे रहा था, अब गुफा सूरज को ही उत्तरदायी ठहराती हे कि पहले क्यों न पुकारा?

सूरज ने कहा, छोड़, जो गया सो गया। बीता सो बीता। अभी भी बहुत पड़ा है। अनंतकाल बाकी है, तू सुख से जी। अब बाहर आ। गुफा ने कहा, आऊंगी बाहर लेकिन तुम भी कभी मेरे भीतर आओ। जैसे मैंने प्रकाश नहीं जाना, हो सकता है,जिस अंधेरे को मैंने जाना, तुमने न जाना हो। सूरज ने उसका निमंत्रण माना, वह उसकी गुफा में गया। गुफा तो चौंक कर रह गई। वहां अंधेरा था नहीं।

गुफा कहने लगी, यह हुआ क्या? यह हुआ कैसे? क्योंकि अंधेरा सदा था। एक दिन,दो दिन की बात नहीं, जन्मों जन्मों से मैंने अंधेरा जाना। यह हुआ क्या? आज अंधेरा गया कहां? सूरज जब बाहर विदा हो गया तब फिर अंधेरा था। गुफा ने फिर उसे निमंत्रण दिया। सूरज ने कहा, पागल! तू मुझे अंधेरे से मुकाबला न करवा सकेगी,क्योंकि जहां मैं हूं वहां अंधेरा नहीं है। मैं आया कि अंधेरा गया। अंधेरा कुछ है थोड़े ही, मेरा अभाव है। तो मेरा भाव और मेरा अभाव साथ—साथ थोड़े ही हो सकते हैं। अंधेरा मेरी अनुपस्थिति है। तो मेरी उपस्थिति और मेरी अनुपस्थिति साथ साथ थोड़े ही हो सकती है। मैं जब भी आऊंगा, अंधेरा नहीं होगा।

वासना बोध की अनुपस्थिति है। बोध आया, वासना गई। जब तक बोध नहीं है तब तक वासना है। वासना से मत भागो। इसलिए कहता हूं भागो मत, जागो। जगाओ,भीतर जो सोया है उसे। मन से घबड़ाओ मत। मन की मौजूदगी कुछ भी खंडित नहीं कर सकती है। शरणार्थी मत बनो, विजेता बनो। जगाओ अपने को। लेकिन आदमी सोया ही चला जाता। मरते दम तक, मौत भी आ जाती है तो भी आदमी सोया ही रहता।

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

अभिमान ओर स्‍वाभिमान में कया भिन्‍नता है?

स्वाभिमान अभिमान नहीं। भिन्नता ही नहीं है, विरोध है। अभिमान दूसरे से अपने को श्रेष्ठ समझने का भाव है। अभिमान एक रोग है। किस-किस से अपने को श्रेष्ठ समझोगे? कोई सुंदर है ज्यादा, कोई स्वस्थ है ज्यादा, कोई प्रतिभाशाली है, कोई मेधावी है।

अभिमानी जीवन भर दुख झेलता है। जगह-जगह चोटें खाता है। उसका जीवन घाव और घाव से भरता चला जाता है। दूसरे से तुलना करने में अभिमान है। और मैं दूसरे से श्रेष्ठ हूं, ऐसी धारण में अभिमान है।

स्वाभिमान बात ही और है। स्वाभिमान अत्यंत विनम्र है। दूसरे से श्रेष्ठ होने का कोई सवाल नहीं है। सब अपनी-अपनी जगह अनूठे हैं। यह स्वाभिमान की स्वीकृति है कि कोई किसी से न ऊपर है, और कोई किसी से न नीचे है। एक छोटा-सा घास का फूल और आकाश का बड़े से बड़ा तारा, इस अस्तित्व में दोनों का समान मूल्य है। यह छोटा-सा घास का फूल भी न होगा तो अस्तित्व में कुछ कमी हो जाएगी, जो महातारा भी पूरी नहीं कर सकता।

स्वाभिमान इस बात की स्वीकृति है कि यहां प्रत्येक अनूठा है। और कोई दौड़ नहीं है, कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है, कोई महत्वाकांक्षा नहीं है। हां, यदि कोई दूसरा तुम पर आक्रामक हो...स्वाभिमान में कोई आक्रमण नहीं है, लेकिन अगर कोई दूसरा तुम पर आक्रामक हो तो स्वाभिमान में संघर्ष की क्षमता है--दूसरे को छोटा दिखाने के लिए नहीं, दूसरे का आक्रमण गलत है, हर आक्रमण गलत है यह सिद्ध करने को।

स्वाभिमान की कोई अकड़ नहीं। सीधा-सदा है। लेकिन बड़ी से बड़ी शक्ति दुनिया का स्वाभिमानी व्यक्ति को नीचा नहीं दिखा सकती। यह बड़ा अनूठा राज है। स्वाभिमानी व्यक्ति विनम्र है, इतना विनम्र है कि वह खुद ही सबसे पीछे खड़ा है। अब उसको और कहां पीछे पहुंचाओगे?

अब्राहम लिंकन के संबंध में एक उल्लेख है कि एक विशेष वैज्ञानिकों के सम्मेलन में उन्हें निमंत्रित किया गया। वे गए भी। लेकिन लोग उनकी राह देख रहे थे उस द्वार पर, जो मंच के निकट था। क्योंकि देश का राष्ट्रपति आए तो मंच पर, सबसे ऊंचे सिंहासन पर उनके बैठने की जगह थी।

लेकिन वे आए भी उस द्वार से, जहां से भीड़ आ रही थी आम लोगों की--जिनका न कोई नाम है, न कोई ठौर है, न कोई ठिकाना है। और बैठे रहे वही, जहां लोग जूते छोड़ जाते हैं।

देर होने लगी सभा के होने में। संयोजक घोषणाएं करने लगे की बड़ी मुश्किल है, हमने अब्राहम लिंकन को आमंत्रित किया है और वे अभी तक पहुंचे नहीं। और उनकी बिना मौजूदगी के सम्मेलन को हम शुरू करें, यह जरा अपमानजनक है। और देर होती जा रही है। अब्राहम लिंकन के पास में बैठे हुए आदमी ने उन्हें टिहुनी से धक्का दिया कि महाराज, खड़े होकर साफ-साफ कह क्यों नहीं देते कि तुम मौजूद हो, सम्मेलन शुरू हो? अब्राहम लिंकन ने कहा कि मैं चाहता था चुपचाप...क्योंकि यह वैज्ञानिकों का सम्मेलन है। इसमें मेरे प्रधान होने का कहां सवाल उठता है?

लेकिन तब तक दूसरे लोगों ने भी देख लिया। संयोजक भी भागे आए और उनसे कहा, यह आप क्या कर रहे हैं? यह हमारे सम्मेलन का सम्मान नहीं, अपमान हो रहा है कि आप वहां बैठे हैं, जहां लोग जूते छोड़ जाते हैं। अब्राहम लिंकन ने कहा, नहीं, मैं वहां बैठा हूं, जहां से और पीछे न हटाया जा सकूं।

यह बात कि मैं वहां बैठा हूं, जहां से और पीछे न हटाया जा सकूं--बड़े स्वाभिमानी व्यक्ति की बात है। स्वाभिमानी किसी को नीचे तो दिखाना नहीं चाहता, और न ही किसी को मौका देगा कि कोई उसे नीचे दिखा सके।

अभिमान बहुत सरल बात है। रोग आम है, स्वाभिमान का स्वास्थ्य बहुत मुश्किल है। और कभी जब किसी व्यक्ति में पैदा होता है, तो पहचानना भी मुश्किल होता है। क्योंकि उसका कोई दावा नहीं। लेकिन चमत्कार तो यही है कि स्वाभिमान का कोई दावा नहीं, यही उसका दावा है। स्वाभिमानी व्यक्ति किसी के ऊपर अपने को रखना नहीं चाहता, और किसी को कभी अपने ऊपर गुलामी लादने न देगा।

इसलिए बात थोड़ी जटिल हो जाती है और भूल-चूक हो जाती है।

भारत में इस भूल-चूक का बड़ा बुरा परिणाम हुआ है। दो हजार साल तक हम गुलाम रहे। हमारी गुलामी का कारण क्या था? भारत अकेला देश है सारी दुनिया के इतिहास में, जिसने किसी पर भी कोई हमला नहीं किया। क्योंकि सदियों से इस देश के ऋषियों ने, द्रष्टाओं ने, प्रबुद्ध पुरुषों ने एक बात सिखाई है--अनाक्रमण, अहिंसा, करुणा, प्रेम। लेकिन यह बात कुछ अधूरी रह गई। भारत यह तो सीख गया कि आक्रमण नहीं करना है, लेकिन यह न सीख पाया कि आक्रमण होने भी नहीं देना है। वह जो दूसरा हिस्सा छूट गया, उसकी वजह से हम दो हजार साल गुलाम रहे। यह तो भारत। सीख गया कि हिंसा नहीं करनी, लेकिन यह बात भूल ही गई कि हिंसा होने भी नहीं देनी है। इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं हिंसा करता हूं किसी और की, या किसी और को हिंसा करने देता हूं अपने ऊपर? दोनों हालत में मैं हिंसा करने दे रहा हूं।

अगर बात को ठीक से समझा गया होता, तो यह देश दो हजार साल तक गुलाम न रहता। और बात अभी भी समझी नहीं गई है। अभी भी हम उन्हीं पुरानी परंपराओं, पुराने खयालों में दबे हुए हैं।

जितनी ऊंची जीवन-अनुभूतियां हैं, वे सब ऐसी हैं जैसी तलवार की धार पर चलना। जरा-सी चूक...न बाएं-न दाएं, ठीक मध्य में। वैसा स्वाभिमान है। न तो किसी पर अपने अहंकार की छाप छोड़नी है, और न किसी को यह हक देना है कि वह अपने अहंकार की छाप पर तुम पर छोड़ सके।

इसलिए स्वाभिमानी होना एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। अभिमानी होना एक सांसारिक बीमारी है। स्वाभिमान में न तो स्व है और न अभिमान। यही भाषा की मुश्किल है, यहां जो कचरा है उसे प्रकट करने के लिए तो हमारे पास शब्द होते हैं लेकिन जो हीरे हैं, उनको प्रकट करने के लिए हमारे पास शब्द भी नहीं होते। तो हमें शब्द बनाने पड़ते हैं।

अभिमान ठीक-ठीक प्रकट करता है उस दशा को, जो अहंकारी की होती है। लेकिन स्वाभिमान खतरनाक शब्द हो गया है। क्योंकि इसमें अभिमान आधा है। डर है कि तुम कहीं स्वाभिमान की परिभाषा अभिमान से न कर लो। कहीं तुम अभिमान को ही स्वाभिमान न समझने लगो। और इसमें हमने ""स्व'' भी जोड़ दिया है। कहीं स्व का अर्थ अहंकार न हो जाए।

जोड़ा है स्व जिनने, बहुत सोचकर जोड़ा है। मगर जोड़ने वाले से क्या होता है? जिन्होंने इसमें स्व जोड़ा है, उनका अर्थ है कि स्वाभिमानी केवल वही हो सकता है, जो स्वयं को जानता हो, जिसने स्वयं को पहचाना हो। ऐसे व्यक्ति में अभिमान हो ही नहीं सकता। और ऐसा व्यक्ति किसी दूसरे को भी अपने ऊपर अभिमान थोपने का मौका नहीं दे सकता। न खुद गलती करेगा, न दूसरे को करने देगा।

लेकिन भाषा की कमजोरियां हैं। अभिमान भी गलत शब्द है और स्व के साथ भी खतरा है, कि उसका कहीं अर्थ तुम अहंकार न समझ लो। आमतौर से स्वाभिमान में और अभिमान में कोई फर्क नहीं है। आमतौर से मेरा मतलब है, तुम्हारे मनों में--दोनों में कोई फर्क नहीं है। इतना ही फर्क है कि तुम अपने अभिमान को स्वाभिमान कहते हो, और दूसरे आदमी के स्वाभिमान को अभिमान कहते हो। बस इतना ही फर्क है। लेकिन अगर मेरी बात समझ में आ गई हो तो बारीक जरूर है, मगर समझ में न आए इतनी असंभव नहीं है।

कोपलें फिर फूट आयी

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

मैं तुमसे भागने को नहीं कहता, मैं तुमसे कहता हूं यह संसार की सारी विपरीत परिस्थितियों का उपयोग कर लो।

निश्चित ही यहां लोग हैं जो क्रोध दिलवा देते हैं। लेकिन इसका मतलब साफ है, इतना ही कि तुम्हारे भीतर अभी क्रोध है, इसलिए क्रोध दिलवा देते हैं। यहां लोग हैं जो तुम्हें लोभ में पड़वा देते हैं। इसलिए कि तुम्हारे भीतर लोभ है। यहां लोग हैं कि जिन्हें देखकर तुम्हारे भीतर में कामवासना जगती है। लेकिन कामवासना भीतर है, उनका कोई कसूर नहीं।

ऐसा ही समझो कि जैसे कोई आदमी किसी कुएं में बाल्टी डालता है, फिर पानी से भरकर बाल्टी निकल आती है। कुआं अगर पानी से रिक्त हो, तो लाख बाल्टी डालो, पानी भरकर नहीं आएगा। कुआं पानी से भरा होना चाहिए, तो ही बाल्टी में भरेगा। बाल्टी पानी पैदा नहीं कर सकती। बाल्टी कुएं में पानी भरा हो तो बाहर ला सकती है।

जब कोई तुम्हें गाली देता है तो क्रोध थोड़े ही पैदा करता है। उसकी गाली तो बाल्टी का काम करती है, तुम्हारे भीतर भरे क्रोध को बाहर ले आती है। जब एक सुंदर स्त्री तुम्हारे पास से निकलती है तो वह तुम्हारे भीतर काम थोडे ही पैदा करती है!

उसकी मौजूदगी तो बाल्टी बन जाती है, तुम्हारे भीतर भरा हुआ काम भरकर बाहर आ जाता है। अब स्त्री से भाग जाओ तो पानी तो भीतर भरा ही रहेगा, बाल्टियों से भाग गए। संसार छोड़ दो, तो क्रोध की परिस्थिति न आएगी, लोभ की परिस्थिति न आएगी, लेकिन तुम बदले थोड़े ही!

बदलाहट इतनी सस्ती होती तो सभी पलायनवादी, सभी एस्केपिस्ट महात्मा हो गए होते। और तुम्हारे सौ महात्माओं में निन्यानबे पलायनवादी हैं।उनसे जरा सावधान रहना। वे खुद भी भाग गए हैं, वे तुमको भी भागने का ही उपदेश देंगे। मैं भागने के जरा भी पक्ष में नहीं हूं क्योंकि मुझे दिखायी पड़ता है, इस संसार में रहकर ही विकास होता है। इस संसार में पड़ती रोज की चोट ही तुम्हें जगा दे तो जग जाओ, और कोई उपाय नहीं।

निश्चित ही कष्टपूर्ण है यह बात, लेकिन बस यही एक उपाय है, और कोई उपाय ही नहीं। यही एक मार्ग है, और कोई शार्टकट नहीं है। कठिन है, दुस्तर है, पीड़ा होती है,बहुत बार बहुत कठिनाइयां खड़ी होती हैं, मगर वे सभी कठिनाइयां, अगर समझ हो, सहयोगी हो जाती हैं। वे सभी कठिनाइयां सीढ़ियां बन जाती हैं।

;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;

"साक्षी का जन्म और अनाहत यानी चौथे शरीर में प्रवेश"

बिना साक्षी को जन्माए दोनों कानों को बंद कर नाद या ओंकार की ध्वनि सुनना नामुमकिन ही नहीं, असंभव भी!!

नाद है चौथे अनाहत चक्र में, इसलिए उसे अनाहत कहा गया है। बिना आहत के, बिना चोट के जो ध्वनि हो रही है सतत, नाद की ध्वनि, ओंकार की ध्वनि। जब तक साक्षी का जन्म नहीं होता, तब तक नाद या जिसे ओंकार कहा गया है, नहीं सुन सकते! क्योंकि नाद गूंजता है चौथे अनाहत चक्र पर और साक्षी घटता है पहले मूलाधार चक्र पर। तो यात्रा भी पहले मूलाधार चक्र से ही शुरू होगी, जहां से साक्षी की शुरुआत होती है या कि साक्षी का जन्म होता है। सीधे अनाहत चक्र पर हम साक्षी नहीं हो सकते, या साक्षी की शुरुआत नहीं कर सकते!

यदि हम दोनों कानों को बंद कर ओंकार की ध्वनि को सुनने का प्रयास करते हैं तो विचारों और भावों के कोलाहल के अतिरिक्त कुछ सुनाई नहीं देता। शुरू-शुरू में तो अंधकार और घबराहट ही होगी और यदि हम हठयोगी की तरह लगे ही रहे, तो यात्रा तो नहीं होगी, कोल्हू के बैल की भांति वहीं - वहीं घूमते रहेंगे। हमारा शरीर भी थोड़ी देर के बाद विरोध करना शुरू कर देगा, क्योंकि ओंकार सुनने के लिए शरीर का उस तल पर होना जरूरी है जिस तल पर ओंकार सुना जाता है या कि सुनाई पड़ता है। जिसे कहते हैं विश्रामपूर्ण अवस्था। और उस अवस्था पर पहुंचने के लिए पहले स्थूल शरीर यानी मूलाधार से यात्रा शुरू करनी होगी न कि अनाहत से!

हमारा पहला तल स्थूल शरीर, जो कि मूलाधार चक्र से संबंधित है, इतना अंकड़ा हुआ रहता है कि वह थोड़ी देर को भी विश्राम में नहीं जा पाता। विश्रामपूर्ण स्थिति पाने के लिए वह बार - बार कामवासना में उतरता है जबकि वह चौथे तल अनाहत का स्वभाव है। अक्सर तो वह नींद में भी पूरी तरह से विश्राम में नहीं जा पाता, दमित आवेगों को नींद में प्रकट करता रहता है। दूसरे भाव शरीर में दबे क्रोध के भाव को दांतों को पीसते हुए निकालता है। दबी हुई कामवासना को स्वप्न में स्खलित करता है, जैसा स्वप्न होता है उसी भांति व्यवहार करता है। तो जब पहले तल स्थूल शरीर पर ही हमारा साक्षी सोया हुआ है तो चौथे तल पर कैसे जाग सकता है?

हम हैं मूलाधार पर और ओंकार है चौथे अनाहत पर, ओंकार और हमारे बीच स्वाधिष्ठान तथा मणिपुर दो चक्रों का फासला है। यदि हम कोशिश भी करते हैं तो ज्यादा देर टिक नहीं पाते। या तो हम तंद्रा में चले जाते हैं जहां विचार थोड़े कम होते हैं या फिर नींद और स्वप्न में जैसा कि हमारे पहले तल स्थूल शरीर का स्वभाव है, या फिर दूसरे चक्र पर भाव और तीसरे चक्र पर चल रहे विचार हमें अपने साथ बहा ले जाते हैं।

विचार उर्जा का ही एक रूप हैं। विचार शब्दों के साथ ही चित्रों के रूप में प्रकट होते हैं। चौथे अनाहत में उठी उर्जा की एक तरंग, तीसरे मणिपुर में आकर 'विचार' बनती है तथा मणिपुर से दूसरे स्वाधिष्ठान में आकर 'भाव' बनती है और स्वाधिष्ठान से पहले मूलाधार में आकर 'क्रिया' में परिवर्तित हो जाती है। यदि प्रेमिका का विचार उठा, तो प्रेमिका का चेहरा लिए प्रकट होता है। फिर मन प्रेमिका से मिलने की योजना बनाना शुरू कर देता है। अब यह उर्जा जो अनाहत से मणिपुर में आकर प्रेमिका का विचार बन चुकी है, नीचे स्वाधिष्ठान में लौटती है, यहां आकर यह 'विचार' से 'भाव' में यानी 'प्रेम' में परिवर्तित होती है और फिर नीचे मूलाधार पर आकर प्रेम से 'काम' में यानी 'क्रिया' में परिवर्तित हो जाती है। शरीर गहरी श्वास लेकर सारी उर्जा कामकेंद्र पर इकत्रित करते हुए कामवासना में उतरने की तैयारी शुरू कर देता है, जबकि प्रेमिका यहां है ही नहीं! सिर्फ उसका विचार ही उठा था।

अनाहत से उठी उर्जा की एक तरंग मणिपुर में आकर विचार (प्रेमिका) बनीं, स्वाधिष्ठान में आकर भाव (प्रेम) बनीं और स्वाधिष्ठान से मूलाधार में आकर काम बनीं जिसे स्थूल शरीर ने क्रिया में परिवर्तित करना शुरू कर दिया।

ठीक इसी तरह शत्रु का विचार आते ही मणिपुर से स्वाधिष्ठान में आकर भाव यानी क्रोध बन जाता है और मूलाधार पर आकर क्रिया बनता है, जिसे स्थूल शरीर अंजाम देता है। शरीर गहरी श्वास लेकर उर्जा को उठाते हुए क्रोध से भर जाता है और क्रिया के फलस्वरूप दुश्मन को चोट पहुंचाने को तत्पर हो जाता है। यदि दुश्मन कमजोर हुआ तो हम उसे चोंट पहुंचा देंगे और हमसे बलशाली हुआ तो हम क्रोध को दबा लेंगे, दमन कर लेंगे, जो कभी भी हमसे कमजोर पर निकल जाएगा या हमारे स्वभाव में चिढ़चिढ़ापन बनकर प्रकट होता रहेगा।

उर्जा का स्वभाव है गति करना। उपर नहीं तो नीचे, उर्ध्वगमन नहीं तो अधोगमन। काम और क्रोध, उपरोक्त दोनों भावदशाओं में उर्जा का अधोगमन हुआ, पतन हुआ। परिणाम में चिंता और तनाव हाथ लगा।... तो कैसे हो उर्जा का उर्ध्वगमन? कैसे यह उर्जा नीचे के चक्रों की अपेक्षा अनाहत की ओर बहे और ओंकार का श्रवण करवाए? चिंता और तनाव से आनंद की ओर ले जाए?

इसके लिए हमें सीधे अनाहत पर ओंकार सुनने या तीसरे मणिपुर पर विचारों को देखने की असफल चेष्टा करने की अपेक्षा पहले तल स्थूल शरीर, जहां मूलाधार 'भाव' को क्रिया में परिवर्तित करता है। यहां 'क्रियाओं' को 'देखना' शुरू करना होगा। पहले तल शरीर की क्रियाओं को अपनी 'निगाह' में लेना होगा। हम जो भी करें, उसका हमें भान हो, कि यह काम मैं कर रहा हूँ, इस बात का सतत स्मरण बना रहे।

यहीं से साक्षी की शुरुआत यानी साक्षी का जन्मना शुरू होगा। साक्षी को सीधे विचारों के पार चौथे अनाहत पर नाद सुनने से नहीं जन्माया जा सकता! अर्थात बच्चे को नर्सरी से सीधे चौथी कक्षा में प्रवेश नहीं दिया जा सकता, उसे पहली कक्षा में ही प्रवेश दिया जा सकता है! इसी तरह साक्षी की शुरुआत भी पहले तल स्थूल शरीर यानी मूलाधार से ही होगी, चौथे तल अनाहत से नहीं! क्योंकि जब पहले तल की क्रिया पर हमारा वश नहीं, हम क्रिया करने के बाद पछताते हैं। दूसरे तल पर भाव हमारी पकड़ में नहीं आते, प्रेम और क्रोध हमें अपने साथ बहा ले जाते हैं तथा तीसरे तल पर चल रहे विचारों के आगे हम पूरी तरह से हार चुके हैं, तो चौथा तल नाद तो और भी सूक्ष्म है और हमसे दूर भी!!

नाद है चौथे तल यानी अनाहत चक्र में और हम खड़े हैं पहले स्थूल शरीर यानी मूलाधार चक्र पर। अतः हम जहाँ खड़े हैं, यात्रा भी वहीं से शुरू होगी। हम जो भी कार्य करें समझ पूर्वक करें, साक्षी होकर करें, कि मैं देखने वाला और करने वाला कोई और! यदि हम चलें तो हमारा सारा ध्यान 'चलने' पर हो, यदि हमारा ध्यान विचारों या दूसरी जगह नहीं होगा तो हम संभलकर चलेंगे और किसी से टकराने से बचेंगे, साथ ही हमारी चाल में एक लयबध्दता होगी, चाल प्रसादपूर्ण होगी।

वाहन चलाते समय हमारा ध्यान सामने होने के साथ ही स्वयं पर भी हो, कि 'मैं चला रहा हूँ', न कि विचारों या दूसरी जगह पर तो दुर्घटना से बचेंगे और हमारी साक्षी यात्रा भी जारी रहेगी। भोजन करें तो सारा ध्यान भोजन पर हो, चबाने पर हो, स्वाद पर हो न कि विचारों या बातचीत में! हम भोजन करते समय भी बातचीत करते हैं और विचारों में उलझे रहते हैं, इस कारण से स्वाद नहीं ले पाते और जब तक स्वाद का पता चलता है पेट भर चुका होता है। अतः हम स्वाद के लिए ज्यादा भोजन कर लेते हैं जिससे सुस्ती छा जाती है और साक्षी रहना मुश्किल हो जाता है।

व्यायाम करें, श्रम करें ताकि अनावश्यक तत्व जो ध्यान में बाधा देते हैं, पसीने के रूप में शरीर से बाहर निकल जाएं, जिससे शरीर हल्का रहे और उर्जा को गति करने के लिए जगह मिल सके ताकि साक्षी साधना और भी आसान हो सके।

यदि शरीर की क्रियाओं के प्रति हमारा ध्यान रहेगा या हम क्रियाओं के साक्षी रहेंगे, देखेंगे, तो जो उर्जा क्रोध बनकर क्रिया बन रही थी, वही उर्जा देखने वाले यानी 'साक्षी की ओर बहने लगेगी। अतः हमारा साक्षी और भी प्रगाढ़ होना शुरू हो जाएगा। दूसरे, यहां पर सतत चलने वाले विचार भी हम पर आक्रमण नहीं करेंगे, क्योंकि अब हम अपना ध्यान विचारों से हटाकर क्रिया पर ले आए हैं। यदि हम सतत शरीर की क्रियाओं के प्रति साक्षी रहते हैं तो क्रिया से पूर्व दूसरे तल स्वाधिष्ठान पर उठे भावों से हमारा सीधा सामना होगा, क्योंकि भाव ही क्रिया बना था! पहले तल पर क्रिया की उर्जा साक्षी को मिल गई, अब हम भाव के साक्षी होंगे। यहां पर एक घटना घटेगी, वह यह कि हमारी संवेदनशीलता बढ़ जाएगी और हम भावों में बहने की अपेक्षा भावों को पकड़ने में सक्षम होंगे। यहां आकर हम प्रेम की उर्जा को काम और क्रोध की उर्जा को क्रिया द्वारा बहने से रोक कर साक्षी में उपयोग करने में सफल होंगे।

यहां आकर हमें भावों का गहराई से बोध होगा और अब हमें भावों को दबाना नहीं है, जीना है। भाव को रास्ता देना है, प्रकट करना है, वह भी बोधपूर्वक साक्षी होकर। जैसे किसी और को यह भाव उठ रहा है और हम देख रहे हैं। हंसना आए, हंसे। रोना आए, रोयें। हमने भावों को दबाया है। बहन की विदाई में रोना आया, लेकिन लोग क्या कहेंगे कि "समझदार आदमी होकर रोता है", इस भय से रो नहीं पाए और वह रोना भीतर ही रह गया। हमने हंसना चाहा, लेकिन संस्कार, संकोच और बड़ों के भय से हम खुलकर हंस नहीं पाए। हंसना, रोना, प्रेम, क्रोध जो भी हमने दबाया है, वह दूसरे तल स्वाधिष्ठान चक्र में दबा पड़ा है और जब तक हम इन दमित आवेगों से स्वाधिष्ठान को रिक्त नहीं करते तब तक साक्षी साधना में हमारा गति करना मुश्किल है। सप्ताह में एक बार स्वयं को कमरे में अकेला छोड़ दें, जो होता है होने दें, शरीर जो करना चाहे करने दें, जो भी भाव उठे उसे प्रकट होने में सहयोग करें। हंसना, रोना, क्रोध करना, नाचना, गाना, जो होता है होने दें। किसी के प्रति मन में क्रोध हो तो तकिये को वह आदमी समझ धूंसे मारकर क्रोध को बाहर फेंक दें। यहां हम किसी के साथ हिंसा नहीं कर रहे हैं, अपनी साधना के लिए शरीर शुद्धि का उपाय कर रहे हैं।

इस तरह यदि हम दूसरे चक्र स्वाधिष्ठान से दबे हुए आवेगों को बाहर निकाल उसे रिक्त कर लेंगे तो आगे तीसरे चक्र मणिपुर के लिए रास्ता सुगम हो जाएगा। दूसरे, यहां आकर हम भावों में बहने की अपेक्षा भावों के साक्षी होने लगेंगे। उर्जा विचार से भाव बनेगी और हम देखेंगे तथा हमारे देखते ही भाव विलिन हो जाएगा और भाव की उर्जा, जो व्यर्थ बह रही थी, वह साक्षी की ओर बहने लगेगी। अतः हमारा साक्षी और भी गहरा होने लगेगा। तीसरे, भावों की उर्जा ज्यों ही साक्षी को मिलेगी, साक्षी भावों का उपयोग करने में समर्थ होगा। यानी अब साक्षी भावों को "उठाकर" उस उर्जा को अपनी ओर मोड़ने में सक्षम होगा। साथ ही यहां से आगे की यात्रा यानी तीसरे चक्र मणिपुर में चल रहे विचारों को देखने में भी समर्थ होगा।

तीसरे तल पर पहुंचकर हमारा साक्षी इतना सुद्रढ़ होगा कि यहां पर विचार हमें चलते हुए "दिखलाई" पड़ेंगे। यहां पर जो घटना घटेगी वह विचारों से साक्षी को पृथक करने वाली होगी, विचार अलग और देखने वाला साक्षी अलग, इसका स्पष्ट बोध होगा। यहां हमें पता चलेगा कि विचार "आते" हैं। इससे पहले हम इस भ्रम में रहते हैं कि हम विचार "करते" हैं, जबकि यहां विचारों से दूरी हमें स्पष्ट दिखलाई पड़ेगी। हम विचारों को दूर खड़े हुए देख पाएंगे और हमारे देखते ही वे ढीले पड़ने लगेंगे और सबसे बड़ी खूबी यहां यह होगी कि यह विचारों को "देखने" की प्रक्रिया अचानक घटेगी और साक्षी का गहरा बोध होगा। साक्षी पूरी तरह उघड़ जायेगा या जग जायेगा और साक्षी के जगते ही विचार लड़खड़ाने लगेंगे, विचारों की उर्जा साक्षी की ओर बहने लगेगी साथ ही दो विचारों के बीच अंतराल (गैप) साफ हो जाएगा... विचार गिरने लगेंगे... और बस... विचारों के पार... यही है द्वार.. चौथे अनाहत में प्रवेश का... नाद को, ओंकार को सुनने का। यहां हमें नाद "सुनना" नहीं पड़ेगा, नाद "सुनाई" पड़ने लगेगा। और अब है घड़ी कानों को बंद कर नाद को, ओंकार को सुनने की... यहां आकर ओंकार प्रकट होगा और साक्षी का पूरा बोध भी!


Single post: Blog_Single_Post_Widget
bottom of page