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SHORT QUES. OF SADHANA-03


शांडिल्य कहते है—प्रीति, भक्ति अद्वैत है। तो अद्वैत के नाम पर जो कहा जाता रहा है, वह क्या है?

अधिकतर शब्द ही हैं वे। क्योंकि जिस ने प्रीति नहीं जानी, वह अद्वैत नहीं जानेगा। अद्वैत प्रीति की परम दशा है। जिस ने प्रीति नहीं जानी, उस का अद्वैत तार्किक निष्पत्ति है। गणित उसने हल किया है! उस के अद्वैत में प्राण नहीं है। उस का अद्वैत रूखा—सूखा, निष्प्राण है। उस के अद्वैत मे फूल नहीं लगेंगे। और उस के अद्वैत में कोई स्वर पैदा नहीं होगा। उस का अद्वैत मरघट का अद्वैत है। जिस ने प्रीति जानी, उस ने ही असली अद्वैत जाना। असली अद्वैत का क्या अर्थ? असली अद्वैत का अर्थ होता है, दो मे से एक को छोड़ नहीं देना है, फिर तो अद्वैत हुआ ही नहीं। तुम्हारा अद्वैतवादी कहता है—संसार माया है, झूठ है, है ही नहीं। यह क्या अद्वैत हुआ! एक को काट दिया। फिर तो मार्क्सवादी भी अद्वैतवादी है। वह कहता है कोई परमात्मा नहीं, कोई आत्मा नहीं, बस जड़ है, पदार्थ है, कोई चेतना नहीं। यह भी अद्वैत है। आस्तिक, नास्तिक दोनों अद्वैतवादी है। और मैं मानता हूं कि दोनों केवल तर्क से चल रहे हैं, अनुभव नहीं है। भक्त को अनुभव है। भक्त कहता है—अद्वैत है और ऐसा अद्वैत है कि दोनों उस में समाये है, और दोनों उस मे जी सकते हैं। यह अनुभूति प्रेम में ही होती है। प्रेम बड़ी विचित्र अनुभूति है। प्रेमी और प्रेमिका दो होते है और फिर भी अनुभव करते हैं कि एक है। उनका अनुभव बड़ा समृद्ध अनुभव है। अगर प्रेमी अपनी हत्या कर ले और कहे कि बस प्रेयसी है मैं नहीं हूं;तो प्रेम समाप्त हो जाएगा। या प्रेयसी की हत्या कर दे और कहे कि मैं ही हूं;प्रेयसी कहा है, तो भी प्रेम समाप्त हो जाएगा। दो के बीच एक जीए, तो ही श्वास लेता है, नहीं तो श्वास नहीं ले सकेगा। और यही प्रेमी करते हैं जीवनभर। तुम्हारे तथाकथित प्रेमी इसी कोशिश में लगे रहते हैं। पति कोशिश में रहता है—पत्नी मिट जाए;पत्नी की कोई आवाज न हो, उस का कोई स्वर न हो, वह मेरी अनुगामिनी हो, मेरी छाया हो, मैं जंहा जाऊं वहा छाया की तरह मेरे पीछे जाए। पति चाहता है पत्नी की कोई स्वतंत्रता न हो, पत्नी दासी हो; मैं स्वामी, पत्नी दासी। यह प्रेम की हत्या शुरू हो गयी। प्रेम तो दोनो के जीते जी ही हो सकता है—दोनों परिपूर्ण स्वतंत्रता में हों और फिर भी दोनों के हृदय अनुभव करते हों कि हम एक है। एकता अनुभव हो। पत्नी भी यही कोशिश करती है कि पति को मिटा डाले। दोनो की कोशिश अलग—अलग ढंग की होती हैं, क्योंकि दोनों के मनोविज्ञान अलग होते हैं। पति के ढंग जरा स्थूल होते है —मारपीट कर देगा। पत्नी के ढंग जरा सूक्ष्म होते है—जरूरत पड़ेगी तो अपने को ही मारपीट लेगी। मगर चेष्टा दोनों की एक ही है। पत्नी जरा परोक्ष ढंग से पति को अपने कब्जे में लेना चाहती है। अक्सर यह होता है कि तुमने विवाह किया कि पत्नी तो नहीं मिलती है एक गुरु मिल गया, जो तुम्हें सुधारने में लग जाते है कि अब सिगरेट न पीओ, अब पान न खाओ, अब दस बजे के बाद जगो मत, अब ब्रह्ममुहूर्त में उठो, और अब ऐसा करो और अब वैसा करो। पत्नियां अक्सर अपना जीवन इसी मे नष्ट करती हैं कि पति को कैसे सुधार लें। लेकिन सुधारने के पीछे जो आकांक्षा है, वह मालकियत की है। सुधारना तो बहाना है। सुधारने का तो केवल मतलब इतना है कि शुभ के मार्ग से मैं मालकियत सिद्ध करती हूं। और मजा यह है कि न पति सुधरता, न पत्नी सुधार पाती। क्योंकि पत्नी जब सुधारने की कोशिश करती है—और यह उसका ढंग होता है मालकियत का—तो पति भी पूरी चेष्टा करता है अपनी स्वतंत्रता बचाने की, चाहे गलत ढंग से ही सही। अब सिगरेट पीना कोई बड़ी स्वतंत्रता नहीं है, मूढतापूर्ण है बात, मगर अगर पत्नी पीछे पड़ी है कि सिगरेट मत पीओ, तो पति फिर सिगरेट नहीं छोड़ सकेगा। उसे पीना ही पड़ेगा। पीते ही रहना पड़ेगा। क्यों? क्योंकि अब यही उसका एकमात्र मार्ग है घोषणा करने का कि मेरी भी आत्मा है, मैं स्वतंत्र हूं;मैं गुलाम नहीं हूं। पति—पत्नी एक—दूसरे को मिटाने में लग जाते हैं। इसलिए पति—पत्नी का जीवन एक दुखद जीवन हो गया है। दोनों अद्वैतवादी है। दोनों की चेष्टा यह है—एक बचे। दूसरे को नकार कर दो; छाया कर दो, माया कर दो। दूसरे का होना न—होने के बराबर कर दो। दूसरे का मूल्य शून्य कर दो। यही ज्ञानी कर रहा है, वह कहता है—ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या। यही तुम्हारा अनीश्वरवादी कर रहा है, वह कहता है। जगत सत्य, ब्रह्म मिथ्या। एक को बचाएंगे, दूसरे को नष्ट कर देंगे। भक्त की कीमिया बड़ी अदभुत है। भक्त यह कहता है —दोनों को मिटाने की जरूरत ही नहीं है। दोनों जुड़ जाएं, आलिंगन मे बंध जाएं, दोनों के हृदय एक साथ धड़क सकते है, मालकियत का सवाल क्या है? दोनों की धड़कन इतनी एकसाथ हो सकती है कि एक का अनुभव होने लगे, दो के बीच में एक का अनुभव होने लगे। दोनों की स्वतंत्रता अछूती रहे और फिर भी दोनों एक में जुड़ जाएं, एक सेतु से जुड़ जाएं। नदी के दो किनारे एक सेतु से जैसे जुड़ जाते हैं, ऐसे ही असली प्रेमी दो रहते हैं, फिर भी जुड़ जाते है; अलग— अलग रहते हैं, और फिर भी एक हो जाते है। इसलिए भक्ति में वैविध्य है और भक्ति में समृद्धि है। एक को मारकर जो एकता बचती है, वह एकता कुछ बड़ी एकता नहीं क्योंकि वह दूसरे से डरी हुई एकता है। दूसरे की मौजूदगी में नहीं हो सकती थी। भक्त कहता है—संसार भी सत्य है, परमात्मा भी सत्य है; स्रष्टा भी सत्य, उसकी सृष्टि भी सत्य, दोनों सत्य है। यही शांडिल्य ने कहा—मिथ्या मत कहो संसार को। उस परम सत्य से मिथ्या का आविर्भाव कैसे होगा? उस सत्य से जो जन्मा है, वह भी सत्य ही होगा। सागर से जो लहर जन्मती है, वह उतनी ही सत्य है जितना सागर। सागर की ही लहर है, असत्य कैसे होगी? भक्त की छाती बड़ी है। भक्त कहता है —दोनो को सम्हालेगे; दोनो में से किसी को मिटाने की जरूरत नहीं, मिटाते ही जीवन एकरस हो जाएगा। इसलिए तुम तथाकथित अद्वैतवादी और ज्ञानी के चेहरे पर आनंद का भाव नहीं देखोगे। भक्त के चेहरे पर एक कौमल्य, एक प्रसाद एक आनंद, एक अनुग्रह का भाव मिलेगा। भक्त नाचता मिलेगा। ज्ञानी सिकुड़ा हुआ, भक्त फैला हुआ मिलेगा। भक्त को कोई अड़चन ही नहीं है। भक्त को सर्व स्वीकार है। भक्त ज्ञान की बातचीत में नहीं पड़ता, अनुभव मे उतरता है। इस भेद को ठीक से समझ लेना। तुम बैठकर विचार करो, तर्क करो, कुछ निष्पत्तिया ले लो, दर्शनशास्त्र निर्मित कर लो, यह एक बात। और तुम जीवन में उतरो, छलांग लगाओ, डुबकी मारो और वहा जानो—कबीर ने कहा है, ढाई आंखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय—यह अलग ही पाठशाला है। यह जीवन की, अस्तित्व की असली पाठशाला है। डूबा हुआ हूं सर से कदम तक बहार में न छेड़ उनके तसव्वुर में ऐं बहार मुझे कि बू—ए—गुल भी इस वक्त नागवार मुझे जो डुब जाता हैं उसके आनंद में उसके चारों तरफ बहार ही बहार हो जाती है, बसंत ही बसंत हो जाता है, पतझड़ में भी उसे बसंत दिखायी पड़ता है। डूबा हुआ हूं सर से कदम तक बहार मे न छेड़ उनके तसव्वुर में ऐं बहार मुझे बहार की भी चिंता नहीं है अब—बहार आए कि न आए, बहार बाहर न भी आए तो चलेगा, बहार भीतर आ गयी है, अब तो भक्त जंहा रहता है वहा बहार है। तुमने सुना होगा कि भक्त स्वर्ग जाता है। गलत सुना। भक्त जंहा जाता है, वहा स्वर्ग होता है। नर्क मे फेंक दो भक्त को, तुम उसे नर्क नहीं पहुंचा पाओगे —तुम भेजोगे नर्क, वह पहुंच जाएगा स्वर्ग। नर्क में भी स्वर्ग बसा लेगा। ज्ञानी को तुम स्वर्ग भी भेज दो तो शायद ही स्वर्ग पहुंचे। सुना नहीं कभी कि कोई पंडित, कई तानी स्वर्ग मे पहुंचा हो! वह जंहा जाएगा, वहीं अपना तर्कजाल ले जाएगा। वह जंहा जाएगा वहीं अपने शब्दों से दबा हुआ पहुंचेगा। वह जंहा जाएगा, अपनी पोथियां ले जाएगा। उस के पास वही शब्दों की मुर्दा दुनिया बसी रहेगी। पापी भी पहुंच जाते हैं, पंडित नहीं पहुंचते। पापी विनम्र होते हैं, पंडित अहंकारी होते है। अगर पंडित और पापी में चुनना हो, तो पापी हो जाना बेहतर है; पंडित तो भूलकर मत होना। क्योंकि पंडित का मतलब है, जिस ने नहीं जाना और जो सोचता है—मैंने जान लिया। जानता तो प्रेमी है; पंडित कैसे जानेगा? प्रेमी होना; तो ही अनुभव करोगे अद्वैत क्या है। धन्य हो जाओगे अनुभव से। विचार से कोई धन्य नहीं होता। तुम जानते हो जीवन के सामान्य क्रम में, कितना ही सोचो मिष्ठान्न, सुस्वादु भोजन, उस से पेट नहीं भरता। प्यास लगी हो और तुम्हें जल का पूरा शास्त्र आता हो, तुम्हें जल का पूरा विज्ञान आता हो, तुम्हें मालूम हो कि जल यानी एच. टू. ओं. कि ऑक्सीजन और उदजन से मिलकर बनता है कि उदजन के दो हिस्से और आक्सीजन का एक हिस्सा और जल बनता है, लिखते रहो किताबों पर... मैं एक घर में मेहमान था। पूरा घर पोथियों से भरा था। मैंने पूछा—बड़ी लाइब्रेरी है, क्या—क्या इस लाइब्रेरी में है? घर के मालिक ने कहा—यह लाइब्रेरी नहीं है, इस में कापियों पर राम—राम, राम—राम लिखता हूं। जिंदगीभर हो गयी लिखते, मेरे पिता भी यह करते थे, बड़े धार्मिक पुरुष थे, तो घर में सारी किताबें इकट्ठी हो गयी हैं, बस काम ही यही है, राम—राम लिखते रहते। मैंने कहा यह ऐसे ही फिजूल है जैसे किसी को प्यास लगी हो, वह किताब पर लिखे—एच. टू. ओं., एच. टू. ओ., जल का सूत्र लिखता रहे, लिखता रहे, लिखता रहे, इस से प्यास नहीं बुझेगी—न तुम्हारे पिता धार्मिक थे, न तुम धार्मिक हो। धर्म का किताब में राम—राम लिखने से क्या संबंध होगा? हृदय में अनुगूंज होनी चाहिए। प्राणों के प्राण में उसकी आभा प्रकट होनी चाहिए। मैंने उन से पूछा—तुम्हें राम का अनुभव हुआ? उन्होंने कहा—अनुभव ही हो जाता तो मैं ये पोथियां क्यों लिखता? अनुभव करने के लिए लिख रहा हूं। इस के लिखने से कैसे अनुभव होगा? इतना समय गंवाया, अब और न गवाओ, इन पोथियों को आग लगाओ। इतना लिख चुके, इस से नहीं हुआ, इतना ही और लिख डालोगे तब भी नहीं होगा। लिखने से क्या संबंध हो सकता है? जीवन में अनुभव होते हैं अनुभव से। भक्त धन्य हो जाता है। वह घड़ी जल्दी आ जाती है भक्त के जीवन में जब वह कहता है, गुंजार करता है— धन्योऽहं। मैं धन्य हूं। बहार ही बहार उसे घेर लेती है। परसों राधा मुझे मिलने आयी। उस से मैंने पूछा—कैसी है राधा? वह कहती है —बहार ही बहार है! अच्छा लगा मुझे उसका वचन। प्रेम जगे तो बहार ही बहार है।

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क्या अस्मिता के रहते हुए भी कोई परम सत्य में प्रतिष्ठित हो सकता है? और क्या अस्मिता के रहते भी कोई व्यक्ति संत व ज्ञानी कहा जा सकता है? अस्मिता की स्थिति मानसिक ही है या मन के पार आध्यात्मिक है? फिर आपने कहा कि अस्मिता के पूर्ण विसर्जन पर संत परमात्मा हो जाता है। तो क्या संत अस्मिता के रहने पर परमात्मा से वियुक्त रहता है?

तीन बातें हैं। दो शब्दों को ठीक से समझ लेना चाहिए। एक है अहंकार और दूसरा है अस्मिता। अहंकार का अर्थ है: मैं शरीर से एक हूं। जब शरीर से चेतना जुड़ जाती है, जुड़ा हुआ अनुभव करती है, तादात्म्य कर लेती है, एकता बना लेती है, तो अहंकार निर्मित होता है। जब चेतना शरीर से अपने को अलग जान लेती है, भिन्न पहचान लेती है, तादात्म्य टूट जाता है, तो अहंकार टूट जाता है। लेकिन शरीर से मैं अलग हूं, यह जान लेना जरूरी नहीं है, काफी नहीं है यह जानने के लिए कि मैं परमात्मा से एक हूं। मैं शरीर से अलग हूं, इस भाव में अगर कोई ठहर जाए और परमात्मा के साथ एकता को अनुभव न कर पाए, तो इस स्थिति का नाम अस्मिता है। मैं शरीर के साथ एक हूं, इस स्थिति का नाम अहंकार। मैं शरीर से अलग हूं, इस स्थिति का नाम अस्मिता। और मैं परमात्मा के साथ एक हूं, यह अस्मिता के भी पार। लाओत्से कहता है कि संत के लिए एक बात तो अनिवार्य है कि उसका अहंकार टूट जाए; वह जान ले कि मैं शरीर नहीं हूं, मन नहीं हूं। इतना पहचान ले, यह तो संत का लक्षण है। लेकिन संत यहां भी रुक सकता है। बहुत संत यहीं रुक जाते हैं। जिन संतों ने यह कहा है कि परमात्मा नहीं है, बस आत्मा ही है, वे संत इसी वर्ग के हैं। उन्होंने एक कड़ी तो तोड़ दी बंधन की, उन्होंने गलत से तो नाता तोड़ लिया--और यह बड़ी घटना है। उन्होंने क्षुद्र से तो संबंध अलग कर लिया--और यह बहुत बड़ी क्रांति है। लेकिन आधी है क्रांति। अभी एक काम और करना है: विराट से संबंध जोड़ना है। जब विराट से भी संबंध जुड़ता है, तो अस्मिता भी खो जाती है। मैंने आपसे कहा, मैं हूं; इसमें दो शब्द हैं। मैं अहंकार है और हूं अस्मिता है। संत का मैं तो गिर जाता है, सिर्फ हूं रह जाता है--एमनेस, हूं। लाओत्से कहता है, यह संत की परिभाषा है कि उसकी अस्मिता अभी है, अहंकार खो गया। यह अस्मिता अगर सघन होती रहे, मजबूत होती रहे, तो अहंकार वापस लौट सकता है। अगर अस्मिता और जम जाए, गहरी हो जाए, तो अहंकार वापस लौट सकता है। यह अस्मिता पिघलती रहे--इसलिए यह बात भी लाओत्से ने जोड़ी कि संत की अस्मिता बर्फ की तरह पिघलती रहेगी; जैसे धूप में पड़ी बर्फ हो, पिघलती रहेगी--पिघलती रहे, तो एक दिन अस्मिता भी खो जाएगी। मैं तो खो गया; हूं भी एक दिन खो जाएगा। उस दिन शुद्ध अस्तित्व बचेगा। उस दिन, लाओत्से कहता है कि फिर संत भी कहने का कोई अर्थ न रहा। उस दिन वह व्यक्ति, वह लहर सागर के साथ एक हो गई। संत होना भी तो दूरी है। असंत बहुत दूर होगा; संत निकट होगा। लेकिन निकटता भी एक दूरी है। निकटता भी एकता नहीं है। संत भी दूर है। पास है, बहुत पास है, असंत से बहुत ज्यादा पास है। लेकिन कितने ही पास हो, फासला अभी कायम है। लाओत्से का अंतिम जो लक्ष्य है, वह है जब इतना फासला भी न रह जाए, पास होना भी मिट जाए। दूर होना तो मिट ही गया, पास होना भी मिट जाए। दूरी तो खो गई, निकटता भी खो जाए। तभी, तभी एकता उपलब्ध होगी। साधारणतः हमें दिखाई पड़ता है: दूरी खो गई, तो एकता हो गई। दूरी खोने से एकता नहीं होती, बल्कि सच तो यह है कि जितने निकट आते हैं, उतनी दूरी मालूम पड़ती है। असंत को कभी भी नहीं अखरती ईश्वर की दूरी। ईश्वर की दूरी असंत को अखरती ही नहीं। दूरी इतनी बड़ी है कि उसे पता भी नहीं चलता। वह पूछता है, कहां है ईश्वर? दूरी इतनी बड़ी है कि उसे ईश्वर कहीं दिखाई भी नहीं पड़ता। संत की पीड़ा बढ़ जाती है। निकट इतने होता है कि हाथ बढ़ाए और ईश्वर है, श्वास ले और ईश्वर है, हिले और ईश्वर से धक्का लगता है। इतनी निकटता है! और तभी, जिसको संतों ने विरह कहा है...। असंत को विरह पैदा नहीं होता। वह इतने दूर है कि विरह का कोई सवाल नहीं है। संत को विरह पैदा होता है। इतने निकट है, फिर भी एक नहीं हो पाता। वह निकटता भी कष्ट देने लगती है। बहुत झीना सा पर्दा रह जाता है। लेकिन दीवार हो बीच में, तो हमें दिखाई भी नहीं पड़ता उस पार। आकांक्षा भी नहीं होती; आशा भी नहीं उमड़ती; प्यास भी नहीं जगती। अहंकार पत्थर की दीवार है। अस्मिता बहुत ट्रांसपैरेंट, पारदर्शी कांच की दीवार है। उस पार सब दिखाई पड़ता है, जैसे बीच में कोई दीवार ही न हो। लेकिन जब भी संत बढ़ने की कोशिश करता है, तभी वह दीवार टकराती है। तब पीड़ा भारी हो जाती है और विरह सघन हो जाता है। संतों ने ही ईश्वर का विरह जाना है। संत भी वियुक्त है, अभी संयुक्त नहीं है। एक पारदर्शी दीवार संत को भी दूर करती है। जिस दिन यह पारदर्शी दीवार भी पिघल जाती है, उस दिन न दूरी रहती है, न निकटता रहती है। उस दिन एकता सधती है। उस दिन संत खो जाता है और परमात्मा ही शेष रह जाता है। यह जो अस्मिता है, यह आध्यात्मिक स्थिति है या मन की? यह भी पूछा है। यह मन की अंतिम स्थिति है और अहंकार मन की प्रथम स्थिति है। अहंकार मन की स्थूलतम स्थिति है, अस्मिता मन की सूक्ष्मतम। हम ऐसा समझें कि मन है बीच में। एक तरफ जगत है और एक तरफ परमात्मा है, और मन है बीच में। जहां मन जगत से जुड़ता है, वहां अहंकार पैदा होता है। और जहां मन परमात्मा से जुड़ता है, वहां अस्मिता खड़ी है। ये दो जोड़ हैं। जहां मन जगत से जुड़ता है, उस जोड़ का नाम है अहंकार। और जहां मनुष्य का मन परमात्मा से जुड़ता है या टूटता है--क्योंकि सब जोड़ तोड़ भी होते हैं; जहां चीजें जुड़ती हैं, वहीं टूटती भी हैं--वह है अस्मिता। संत लाओत्से कहता है उसे, जिसका पहला जोड़ टूट गया, जगत से संबंध विच्छिन्न हुआ; लेकिन जिसका अभी दूसरा तोड़ कायम है, अभी परमात्मा से एकता नहीं सधी। तो अस्मिता कायम है। अस्मिता मन का सूक्ष्मतम रूप है और अहंकार मन का स्थूलतम। लेकिन दोनों ही मन की घटनाएं हैं। ध्यान रहे, असंत भी मन है और संत भी। मन के बाहर जाकर तो दोनों नहीं रह जाते। श्रेष्ठतम भी मन के भीतर है और निकृष्टतम भी। क्योंकि मन के पार जाकर तो न श्रेष्ठ रहता है और न निकृष्ट। अशुभ भी मन का है, शुभ भी। बुरा भी मन का है, भला भी। मन के पार जाकर न तो बुरा रह जाता है और न भला। द्वंद्व खो जाते हैं। जब तक द्वंद्व है, तब तक जानना कि मन है। जहां द्वंद्व नहीं, वहां मन नहीं। संत भी द्वंद्व का हिस्सा है। असंत और संत दो छोर हैं द्वंद्व के। अगर यह खयाल में आ जाए, तो अंतिम छलांग! पहली छलांग अहंकार से और अंतिम छलांग अस्मिता से। पहली छलांग "मैं' से और अंतिम छलांग "होने' से। इसलिए बुद्ध अनात्मा की बात कहते हैं। बुद्ध ने अस्मिता की जगह आत्मा शब्द का उपयोग किया है। बुद्ध कहते हैं, अहंकार छूटे और फिर आत्मा भी छूटे; तभी परम सत्य में प्रवेश है। इस सारी बात में जो कठिनाई हमारे मन में होती है, वह यह कि फिर क्या ऐसे व्यक्ति को हम संत कहेंगे जो अभी मन में ही हो? क्या हम कहेंगे कि उसने परम सत्य को पा लिया? भाषा में सभी बातें सापेक्ष हैं, रिलेटिव हैं। जब हम कहते हैं, संत ने परम सत्य पा लिया, तो उसका इतना ही मतलब होता है कि जहां हम खड़े हैं, वहां से संत परम सत्य के बहुत निकट पहुंच गया। हमारे और सत्य के बीच पत्थर की दीवार है; उसके और सत्य के बीच कांच की दीवार है, जो दिखाई भी नहीं पड़ती। अब सत्य उसे इतना ही साफ है, जैसे कि दीवार न हो। लेकिन दीवार अभी है। वह दीवार हमें दिखाई नहीं पड़ेगी, एक बात समझ लें। जो स्वयं संत नहीं हो गए हैं, उन्हें वह दीवार बिलकुल दिखाई नहीं पड़ेगी। वे तो कहेंगे कि संत के लिए अब कोई दीवार न रही। लेकिन जो उस दीवार के पास पहुंच गया है, स्वयं संत, उसे वह दीवार पता चलेगी। क्योंकि दीवार पारदर्शी है; दिखाई नहीं पड़ती, लेकिन स्पर्श होता है। पार होना चाहो, तो सिर टकराता है। उस पार का सब कुछ दिखाई पड़ता है; लेकिन दिखाई ही पड़ता है, अगर उसमें प्रवेश करना चाहो, तो दीवार बीच में खड़ी हो जाती है। अस्मिता इतनी सूक्ष्म दीवार है कि सिर्फ संत को दिखाई पड़ती है। संत के भक्तों को भी दिखाई नहीं पड़ सकती। संत के भक्तों को तो लगता है कि संत परमात्मा हो गया। स्वाभाविक! संत के भक्तों ने कांच की कोई दीवार नहीं देखी, पत्थर की दीवारें देखी हैं। लेकिन संत को स्वयं प्रतिपल अनुभव होता है कि एक सूक्ष्म दीवार अभी भी उसे घेरे हुए है। अभी वह मिट नहीं गया है। अभी भी वह है। लाओत्से संत के अनुभव से कह रहा है कि अस्मिता भी पिघल जाए, पिघल जाए, खो जाए, तभी; उसके पहले नहीं। लेकिन हमारे अनुभव से हम कह सकते हैं कि संत ईश्वर हो गया। सापेक्ष है। हम भी जब संत होंगे, तब हम पाएंगे कि नहीं, अभी एक दीवार और रह गई है। अभी होना भी बाधा है। वह भी खो जाना चाहिए; वह भी मिट जाना चाहिए। जब तक संत की जगह शून्य न आ जाए, तब तक वह दीवार भी नहीं गिरती।

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जिस दिन तुम इस सत्य को समझ लेते हो कि इतना विराट जगत बिना कर्ता के चल रहा है, उस दिन अपनी इस छोटी सी जिंदगी मे क्यो यह कर्ता को बनाना, यह भी चलने दो, यह भी होने दो! इन दो बातों को समझकर कि इस संसार का न कोई प्रारंभ है, न अंत; और इस संसार को न कोई चलाने वाला है, न कोई नियोजन करने वाला है, यह विराट अपनी ही ऊर्जा से बहा जाता है, यह स्वयंभू है, भक्त भी मुक्त हो जाता है। ‘जन्म कर्म विदच अजन्म शब्दात्। इन दो शब्दों का अर्थ समझ में आ जाए, जन्म और कर्म, कि सब समझ में आ गया। तत् च दिव्यं स्व शक्ति मात्र उदभवात्। उनका जन्म कर्म आदि सभी दिव्य और असाधारण हैं;उनकी ही शक्ति से वे नाना रूप दिखाई पड़ते है। लेकिन हमें उस परमात्मा का तो कुछ पता नहीं है, वह परमात्मा तो बहुत दूर है, शायद हमारे पास उसे पकड़ने की आंख भी नहीं है, हाथ भी नहीं है, समझने की बुद्धि और प्रतिभा भी नहीं है, इसलिए शांडिल्य कहते है— भगवान के अवतारों को समझने की कोशिश करो। भगवान तो पकड़ में नहीं आता, लेकिन राम पकड़ मे आ जाते है, कृष्ण पकड़ में आ जाते हैं, बुद्ध पकड़ में आ जाते हैं, मोहम्मद पकड़ में आ जाते हैं, इनको पकड़ो, इनको समझो। बुद्ध के होने का क्या प्रयोजन है? बुद्ध को कौन चला रहा है? बुद्ध के भीतर ऐसा कोई भाव उठता है कि मैं अब ऐसा करूं, या जो होता है, होता है? इसमें बीच—बीच में बुद्ध कुछ बाधा डालते हैं, या निर्बाध इस जीवन की धारा को बहने देते हैं? परमात्मा दूर है, उसका अवतार निकट है। जिन्होंने परमात्मा को जान लिया है, उनका जीवन समझो, तो वहां भी तुम यही पाओगे कि समर्पण है, परम समर्पण है। जैसे वृक्ष में पत्ते लगते हैं और वृक्ष में फूल आते हैं, ऐसा कवि गीत को गाता है, बस ऐसे ही;ऐसे कृष्ण चलते हैं, उठते हैं, बैठते हैं;ऐसे ही बुद्ध बोलते हैं, समझाते हैं; हेएसे। ही बुद्ध जीते हैं और विदा हो जाते हैं;इसमें कहीं भी कोई अहंकार बैठकर आयोजन—नियोजन नहीं कर रहा है। उनका जन्म—कर्म आदि सभी दिव्य और असाधारण है। अवतारों को देखो तो बड़ी असाधारणता पाओगे। क्या असाधारणता है? क्या दिव्यता है? करने वाला कोई नहीं और विराट घटता है। करने वाला कोई भी नहीं। वही तो कृष्ण अर्जुन को बार—बार गीता में समझा रहे हैं कि तू करने वाला मत बन, तू होने दे, जो हो रहा है होने दे, तू उपकरण रह, निमित्त मात्र;तेरी कोई जिम्मेवारी नहीं है, तू अपने को बीच में मत ला, तू शुभ—अशुभ का निर्णय मत कर, तू कौन; तू अपने को विदा कर दे और फिर जो हो, जो परिस्थिति करवाए, कर, वही शुभ है। फल की भी आकांक्षा मत कर, क्योंकि फल की आकांक्षा में कर्ता आ जाता है —कर्ता जीता ही फल की आकांक्षा से है। मैं ऐसा करूं तो ऐसा होगा, मैं ऐसा करूं तो ऐसा मुझे मिलेगा, ऐसा करूं तो यह फल हाथ मे आएगा। फल की आकांक्षा छोड़ दे। फल की आकांक्षा छोड़ते ही कर्ता का भाव चला जाता है। फिर प्रयोजन क्‍या है, जब फल की ही कोई आकांक्षा नहीं है तो जो भी होगा ठीक ही है। होगा तो ठीक है, नहीं होगा तो ठीक है। इधर मैं तुम्हें रोज समझाता हूं। तुम समझे तो ठीक है, तुम नहीं समझे तो ठीक है। तुम सोचते हो मैं इसका हिसाब रखता हूं कि तुमने समझा कि नहीं समझा। इससे कोई प्रयोजन नहीं है। जैसे वृक्ष में फूल लग जाते हैं, ऐसे ये शब्द मुझ में लग जाते हैं। अगर तुम भी इस तरह जीओ तो तुम्हारे जीवन में असाधारण दिव्यता आ जाए। थोड़ा इस तत्व का रस लेना शुरू करो। उठो, बैठो, मगर न कोई उठने वाला हो, न कोई बैठने वाला हो। काम भी करो, दुकान पर भी जाओ, बाजार में भी, दफ्तर मे भी, मगर न कोई करने वाला हो, न कोई जाने वाला हो। घर की देख—रेख भी करो, जो भी दायित्व है सिर पर पूरा भी करो, लेकिन कोई करने वाला न हो। दुनिया में दो उपाय हैं बोझ से मुक्त होने के—एक तो यह है कि दायित्व छोड़ दो, भगोड़ा संन्यासी वही करता है। वह दायित्व ही छोड़ देता है; वह कहता है कि न रहेगा बांस, न बजेगी बासुरी;बात खतम; पत्नी—बच्चों को छोड़कर भाग गए जंगल! वह दायित्व छोड़ देता है। यह कोई असली संन्यास न हुआ। असली संन्यास है दायित्व तो होने दो, कर्ता छोड़ दो। तो भी बोझ चला जाता है। वही असली क्रांति है। यह कोई असली क्रांति न हुई, तुम अगर घर—बच्चे छोड़कर भाग गए, ज्यादा देर न लगेगी, पहाड़ की गुफा में भी बच्चे और पत्नी आ जाएंगे। किसी पहाड़ी स्त्री से लगाव बन जाएगा। तुम अपने से कहा जाओगे? शिष्य इकट्ठे हो जाएंगे, उन्हीं से तुम्हारा भाव हो जाएगा, वही जो तुम्हारा अपने बच्चों से था। उन्हीं से मोह लग जाएगा। कल तुम्हारा शिष्य मर जाएगा तो तुम उसी तरह रोओगे जिस तरह तुम्हारे बेटे के मरने से रोते। तो फर्क क्या हुआ? मकान छोड़कर चले गए, गुफा में बैठ गए, कल गुफा में भूकंप आ जाए और गुफा टूट जाए, तो तुम उसी तरफ दुखी होओगे जैसे मकान के आग लग जाने से हो जाते। भेद क्या पड़ा? तुमने स्थिति बदल ली, मनस्थिति तो वही की वही है। सब छोड़कर चले गए, एक भिक्षापात्र ले गए और रात किसी ने गुफा से चुरा लिया, तो तुम्हारे सुबह मन में वही होगा, वही भाव उठेंगे जो किसी ने तुम्हारी तिजोड़ी खोलकर सारा धन निकाल लिया होता तब उठते। कुछ भेद नहीं पड़ेगा। असली संन्यास कर्ता का त्याग है, दायित्व का नहीं। वही गीता का अपूर्व संदेश है। गीता ने जगत को ठीक संन्यास की पहली परिभाषा दी। गलत संन्यास बहुत पुराना था, गीता ने एक अनूठे संन्यास की परिभाषा दी। गीता ने कहा—रहो यहीं, जीओ यहीं, और फिर भी भीतर से सब शून्य हो जाए। अर्जुन से वे कह रहे है—तू लड़ और भीतर से शून्य भाव से लड़। तू परमात्मा के हाथ मे अपने को सौप दे—परमात्मा यानी समग्र के हाथ में अपने को सौप दे, फिर उसे जो करवाना हो, करवा ले। जीत होगी कि हार, यह भी विचारणीय नहीं है। तू है ही नहीं करने वाला, तो फिर फल विचारणीय नहीं हो सकता। अगर परमात्मा का जन्म और कर्म बहुत दूर की बात मालूम पड़े, बहुत एब्सटैरक्ट, हवाई बात मालूम पड़े, तो इस पृथ्वी पर जो कभी—कभी परमात्मा की थोड़ी सी झलक मिलती है, उनमें पहचानने को कोशिश करना। उनमे भी तुम वही पाओगे। वही शून्य भाव। भीतर कोई भी नहीं। कर्म का विराट जाल और कर्ता का अभाव। ‘मुख्य तस्य हि कारुण्यम्। उनकी करुणा ही उनके जन्म आदि का प्रधान कारण है। बुद्ध क्यों बोले? इसलिए नहीं कि बोलने से प्रसिद्ध होना है, इसलिए नहीं कि बोलने से शिष्यों की भीड़ इकट्ठी करनी है, इसलिए नहीं कि बोलने से कुछ लाभ है, इसलिए बोले कि बोलने से किसी को शायद लाभ हो जाए। इसलिए बोले कि जो मुझे मिल गया है, वह बंटे, शायद किसी के भीतर पड़ा हुआ बीज मेरे शब्दों की चोट से उमग आए;शायद किसी के भीतर पड़ा हुआ तार जिसे कभी छेड़ा नहीं गया, जग जाए—करुणा! जीवन के दो सूत्र है—एक वासना और एक करुणा। अज्ञानी वासना से जीता है, ज्ञानी करुणा से। और पृथ्वी और आसमान का फर्क हो जाता है दोनो में। वासना का अर्थ होता है, मैं यह कर रहा हूं ताकि मुझे वह मिले। करुणा का अर्थ होता है, यह मैं कर रहा हूं ताकि यह मैं दे सकूं। करुणा यानी दान। वासना भिखारी बनाती है, करुणा सम्राट। मुख्य तस्य हि कारुण्यम्। उनकी करुणा ही उनकी जीवन क्रिया—कलाप का आधार है। प्राणित्वात् न विभूतिषु। विभूतियों के प्रति की हुई भक्ति पराभक्ति नहीं है, क्योंकि वे प्राणधारी जीव हैं। शांडिल्य कहते हैं—लेकिन एक बात खयाल रखना किसी भी विभूति संपन्न व्यक्ति को तुम कितना ही आदर दो, भक्ति दो, वह श्रद्धा तक जाएगी, पराभक्ति नहीं हो पाएगी। मैंने तुम्हें शुरुआत में कहा—प्रीति—तत्व के चार रूप है। स्नेह;अपने से छोटे के प्रति, बच्चे के प्रति, शिष्य के प्रति। प्रेम;अपने से समान के प्रति, पति के प्रति, पत्नी के प्रति, मित्र के प्रति, भाई—बंधु के प्रति, पड़ोसी के प्रति। श्रद्धा;अपने से श्रेष्ठ के प्रति, मा के प्रति, पिता के प्रति, गुरु के प्रति। और भक्ति;परमात्मा के प्रति, समग्र के प्रति। विभूतियों के प्रति जो तुम्हारा भाव है, वह श्रद्धा है। शांडिल्य इस बात को इसलिए कह देना चाहते हैं कि अक्सर यह हो जाता है कि अवतारों से तुम इतने अभिभूत हो जाते हो कि तुम भूल ही जाते हो कि अभी एक कदम और लेना है। गुरु से तुम इतने आक्रात हो जाते हो कि तुम भूल ही जाते हो कि अभी एक कदम और लेना है। गुरु पर रुकना नहीं है, गुरु पर शुरुआत है। गुरु संसार और परमात्मा की बीच की कड़ी है। गुरु सेतु है, मगर सेतु पर घर नहीं बनाना होता, सेतु से आगे जाना है। सेतु का यही प्रयोजन है। इसलिए सदगुरु तुम्हें रुकने भी नहीं देगा। सदगुरु तुम्हें धक्के देगा। बुद्ध ने कहा है—अगर मैं रास्ते में मिल जाऊं, तो तलवार उठाकर मेरे दो टुकड़े कर देना। अगर मैं भी बाधा आऊं परमात्मा और तुम्हारे मिलने में, बीच में खड़ा हो जाऊं, तो मुझे हटा देना।

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श्री, स्थितप्रज्ञ और भक्त में क्या समानता है और क्या भिन्नता है, यह भी प्रश्न के पिछले अंश में था।'

स्थितप्रज्ञ और भक्त में क्या भेद या समानता है? स्थितप्रज्ञ का अर्थ है, जो अब भक्त नहीं रहा, भगवान हो गया। भक्त का अर्थ है, जो भगवान होने की यात्रा पर है। भक्त रास्ते में है, स्थितप्रज्ञ पहुंच गया है। रास्ता वही है, पहुंचना वहीं है। लेकिन यह मुकाम पर पहुंचे हुए आदमी का नाम है, स्थितप्रज्ञ। और भक्त यात्री का नाम है जो चल रहा है। समानता होगी ही, क्योंकि रास्ता और मंजिल जुड़े होते हैं--अन्यथा रास्ता मंजिल तक कैसे पहुंचेगा। समानता होगी ही, क्योंकि मंजिल सिर्फ रास्ते की पूर्णता है। जहां रास्ता पूरा हो जाता है, वहां मंजिल आ जाती है। समानता होगी ही, क्योंकि जो रास्ते पर है वह एक अर्थ में मंजिल पर ही है, थोड़ा फासला है, बस। "डिस्टेंस' का फासला है। अंतर जो है, वह पहुंचने का और पहुंचते होने का है। भक्त चल रहा है, स्थितप्रज्ञ बैठ गया, पहुंच गया। इसलिए भक्त के लिए वे सारी अपेक्षाएं हैं, जो स्थितप्रज्ञ की उपलब्धि बनेंगी। क्योंकि तभी वह वहां तक पहुंच सकेगा। भक्त की आखिरी मंजिल उसका भक्त होना मिट जाने की है। जब तक वह भगवान न हो जाए, तब तक तृप्ति नहीं हो सकती। भक्त कितना ही चिल्लाए और रोए परमात्मा के मिलन को और मिलन हो भी जाए और दोनों आलिंगनबद्ध खड़े भी हो जाएं, तो भी भक्त का चिल्लाना बंद नहीं होगा। क्योंकि आलिंगन कितने ही निकट हो फिर भी दूर है। और हम किसी को कितने ही छाती से लगा लें, फिर भी दोनों के बीच फासला है। अंतर तो पूर्ण तभी मिट सकता है जब एक ही हो जाएं। इंच भर का अंतर भी उतना ही है जितना लाख मील का अंतर है। अंतर में कोई फर्क नहीं पड़ता। इंच के हजारवें हिस्से का अंतर भी उतना ही अंतर है जितना कि लाख मील का अंतर है। तो भक्त की तृप्ति तब भी नहीं हो सकती जब भगवान की छाती से लगकर वह बैठ जाए, तब भी नहीं हो सकती। तब भी फासला है। यह तकलीफ तो प्रेमी की है। प्रेमी का कष्ट यही है कि वह कितने ही पास आ जाए, तो भी दुखी रहेगा। प्रेमी को कितना ही पा ले तो भी दुखी रहेगा। अगर यह बात समझ में आ जाए तो उसका दुख असल में यह है कि जब तक वह प्रेमी ही न हो जाए तब तक दुखी रहेगा, और यह होना बड़ा मुश्किल है। प्रेम के तल पर तो होना मुश्किल है। बहुत मुश्किल है। कैसे यह होगा! कितने ही पास आते हैं, इसलिए प्रेमी जितने पास जाएंगे उतना ही कष्ट शुरू होने लगेगा। क्योंकि जितने पास आएंगे उतना "डिसइलूज़नमेंट' होगा। दूर थे तो यह खयाल था कि पास आने से सुख मिल जाएगा। फिर जब पास ही आ गए, अब कैसे सुख मिलेगा! अब और पास आने का कोई उपाय ही न रहा। और तब प्रेमी एक-दूसरे पर क्रोधित होना शुरू हो जाते हैं। शायद सोचते हैं कि दूसरा कुछ बाधा डाल रहा है; दूसरा कोई नुकसान पहुंचा रहा है, दूसरा शायद ठीक से प्रेम नहीं कर रहा है; दूसरा शायद धोखा दे गया, दूसरा शायद किसी और के प्रेम में पड़ गया है, यह प्रेमी की चिंता शुरू हो जाती है पास आने पर। असली कारण यह है कि प्रेमी तब तक तृप्त नहीं हो सकता जब तक कि वह इतने निकट न आ जाए कि दूरी ही न बचे। यह तो तभी हो सकता है जब वह एक हो जाए। इसलिए जो भी प्रेमी हैं, वे आज नहीं कल भक्त बनने शुरू हो जाएंगे, क्योंकि तब फिर शरीरधारी व्यक्ति के इतने निकट आना असंभव है। तब अशरीरी परमात्मा के निकट ही इतना आया जा सकता है, जहां कि कोई फासला ही न बचे। तो सब प्रेमी आज नहीं कल भक्त बनेंगे और सब प्रेम-निवेदन आज नहीं कल प्रार्थना बन जाते हैं। अंततः बनने ही चाहिए। अन्यथा दुख देते रहेंगे। जो प्रेमी भक्त नहीं बन पाता, वह सदा दुखी रहेगा। क्योंकि आकांक्षा उसकी भक्त की है और मांग वह प्रेम से पूरी करना चाह रहा है। चाहता कुछ और है, कर कुछ और रहा है। चाहता वह यह है कि बिलकुल एक हो जाऊं, इतना फासला भी न रहे कि मैं और तू का फासला भी बचे, चाहता वह यह है। लेकिन जिससे वह यह करना चाह रहा है उससे यह नहीं हो सकता है। उससे मैं और तू का फासला बना ही रहेगा। दो व्यक्ति कभी इतने निकट नहीं आ सकते जहां कि मैं और तू का फासला गिर जाए, सिर्फ दो अव्यक्ति इतने निकट आ सकते हैं जहां मैं और तू का फासला मिट जाए। परमात्मा अव्यक्ति है। जिस दिन भक्त भी अव्यक्ति हो जाएगा, उस दिन उपलब्धि हो जाएगी। जब तक भक्त बचा है--परमात्मा तो है ही नहीं इस अर्थ में, जिस अर्थ में भक्त है। परमात्मा का तो होना न-होने जैसा है। उसकी उपस्थिति अनुपस्थिति जैसी है। यह बड़े मजे की बात है। यह थोड़ा खयाल में लेना जरूरी है। अगर हम निरंतर पूछते हैं--दुनिया में सारे भक्तों ने पूछा है--कि परमात्मा प्रगट क्यों नहीं होता? क्योंकि अगर परमात्मा प्रगट हो जाए तो उससे मिलन असंभव है। सिर्फ अप्रगट से ही पूर्ण मिलन हो सकता है। भक्तों ने निरंतर पूछा है कि तुम छिपे क्यों हो? सामने क्यों नहीं आते हो? अगर वह सामने आ जाए तो इतना बड़ा पर्दा गिर जाएगा कि फिर मिलन हो ही नहीं सकता है। वह छिपा है, इसलिए मिलने की संभावना है। वह अदृश्य है, इसलिए उसमें डूबा जा सकता है। वह दृश्य बन जाए तो दीवाल बन जाएगी और मिलन असंभव है। एक बहुत अदभुत फकीर इकहार्ट ने कहा है, परमात्मा को धन्यवाद दिया है कि तेरी अनुकंपा अपार है कि तू दिखाई नहीं पड़ता। तेरी अनुकंपा अपार है कि तू पकड़ में नहीं आता। तेरी अनुकंपा अपार है कि तू खोजे से कहीं भी नहीं मिलता, कहीं भी नहीं पाते हैं तुझे। क्यों है तेरी अनुकंपा अपार? क्योंकि इस भांति तू हमें भी यह निरंतर सिखाए जाता है कि जब तक तुम भी ऐसे न हो जाओ कि खोजे से न मिलो, कि जब तक तुम भी ऐसे न हो जाओ कि दिखाई न पड़ो, जब तक तुम भी ऐसे न हो जाओ कि न-होने जैसे हो जाओ, तब तक मिलन असंभव है। भगवान तो अरूप है, जिस दिन भक्त भी अरूप हो जाता है उस दिन मिलन हो जाता है। इसलिए बाधा सिर्फ भक्त की तरफ से है, भगवान की तरफ से कोई बाधा नहीं है। स्थितप्रज्ञ का अर्थ है, भक्त जो अरूप हो गया। अब वह भगवान को भी नहीं चिल्लाता, क्योंकि कौन चिल्लाए? अब वह प्रार्थना भी नहीं करता, क्योंकि कौन करे? किसकी करे? या अब हम ऐसा कह सकते हैं कि वह जो भी करता है वही प्रार्थना है। या अब वह जो भी चिल्लाता है या नहीं चिल्लाता है, वही भगवान के लिए निवेदन है। अब हम दोनों तरह से कह सकते हैं। स्थितप्रज्ञ का अर्थ है कि मनुष्य भी वैसा हो गया जैसा परमात्मा है। भक्त का अर्थ है कि उसने यात्रा तो शुरू की परमात्मा की तरफ, लेकिन अभी वह मनुष्य है। और उसकी सब आकांक्षाएं, अपेक्षाएं मनुष्य की हैं। मीरा कितनी चिल्ला रही है। उसके गीत बड़े अदभुत हैं। इस अर्थ में अदभुत हैं कि वे बड़े मानवीय हैं। उसकी सारी चिल्लाहट एक प्रेमी की चिल्लाहट है। एक भक्त की। वह कहती है कि सेज सजा दी और तुम आ जाओ। अब मैं तुम्हारे लिए द्वार खोल कर प्रतीक्षा कर रही हूं। ये सब मानवीय प्रतीक्षाएं हैं। भक्त का मतलब है, मनुष्य जो परमात्मा की तरफ चल पड़ा, लेकिन अभी मनुष्य है। स्थितप्रज्ञ का अर्थ है, मनुष्य अब मनुष्य नहीं रहा, अब वह किसी की तरफ नहीं जा रहा है, अब जाने का कोई सवाल नहीं रहा, अब वह जहां है वहीं है और वहीं परमात्मा तो सदा था, सिर्फ हम अरूप हो जाते, हम अदृश्य हो जाते, हम न हो जाते। जीसस का वचन है, जो अपने को बचाएगा, वह खो देगा। और जो अपने को खो देता है, वह पा लेता है। स्थितप्रज्ञ ने अपने को खो दिया, इसलिए पा लेता है। भक्त अभी पाने चला है, और खुद है। अनुभव उसे धीरे-धीरे मिटाएगा। कबीर का वचन है कि खोजते-खोजते फिर मैं ही खो गया। और कोई उपाय न था। खोजने निकले थे किसी को। आखिर में पाया कि खोज ने खुद को ही छीन लिया। "हेरत हेरत हे सखी, गया कबीर हेराय'। खोजने निकले थे सखी, लेकिन आखिर ऐसा हुआ कि वह तो मिला नहीं, खुद ही खो गए। लेकिन जिस दिन खो गए, उस दिन खोज पूरी हो जाती है। उस दिन वह मिला ही हुआ है। लाओत्से का बहुत अदभुत वचन है। लाओत्से कहता है, "सीक एंड यू विल नाट फाइंड' खोजो और तुम न पा सकोगे। "डू नाट सीक एंड फाइंड'। मत खोजो और पाओ। "बिकाज़ ही इज़ हियर एंड नाव'। वह अभी और यहीं है। खोज की वजह से तुम दूर निकल जाते हो। क्योंकि कोई भी यहीं और अभी नहीं खोजेगा। खोज का मतलब ही कहीं और है। तो खोजने कोई मक्का जाएगा, कोई मदीना जाएगा, कोई काशी जाएगा, कोई मानसरोवर जाएगा, कैलास जाएगा। खोजने कहीं जाएगा, ...हां-हां, कोई मनाली जाएगा।...और वह वहीं है, यहीं है, अभी है। इसलिए खोजने वाला उसे जब तक खोजता है तब तक खोता चला जाता है। जिस दिन खोजने वाला खोज-खोज कर थक जाता है और मिट जाता है और गिर जाता है, तब वह मनाली में गिरे, कि मक्का में, कि मदीना में, काशी में, कि कैलाश पर, वह कहीं भी गिर जाए, कहीं भी, वह जहां भी गिर जाए वहीं पाता है कि वह मौजूद है। वह सदा मौजूद है, हमारी मौजूदगी बाधा है। हम गैर-मौजूद हो जाएं। भक्त अभी मौजूद है, स्थितप्रज्ञ गैर-मौजूद हो गया। भक्त की अभी "प्रेजेंस' है, स्थितप्रज्ञ की कोई "प्रेजेंस' नहीं है। वह "एब्सेंट' हो गया। वह अब है नहीं। यह भी समझ लेना जरूरी है कि जब तक भक्त "प्रेजेंट' है तब तक ईश्वर "एब्सेंट' रहेगा। जब तक भक्त मौजूद है, तब तक ईश्वर गैर-मौजूद है। और इसलिए भक्त ईश्वर को "प्रॉक्सी' की तरकीब से मौजूद करता रहता है। कभी मूर्ति बनाकर रख लेता है, कभी मंदिर बना लेता है, यह "प्रॉक्सी' है। इससे कोई हल नहीं है। यह भक्त का ही बनाया हुआ खेल है। यह भी थोड़े दिन में ऊब जाएगा। अपने ही बनाए हुए भगवान से बहुत तृप्ति नहीं मिल सकती। कैसे मिलेगी, कब तक मिलेगी? "प्रॉक्सी' पकड़ में आ ही जाएगी। तब वह फेंक देगा मूर्तियों-वूर्तियों को। वह कहेगा मैं उसी को चाहता हूं, जो है। लेकिन वह तभी मिलता है जब मैं नहीं हूं, एक ही शर्त है उसकी। मेरा होना ही दीवाल है, मेरा न-होना द्वार बन जाता है। बस भक्त और स्थितप्रज्ञ में उतना ही फर्क है। स्थितप्रज्ञ द्वार है, भक्त अभी दीवाल है। दीवाल हम भी हैं, लेकिन भक्त ऐसी दीवाल है जिसके भीतर चीख-पुकार शुरू हो गई, भक्त ऐसी दीवाल है जिसने दरवाजे होने की तरफ श्रम शुरू कर दिया। हम ऐसी दीवाल हैं जो आराम से विश्राम कर रहे हैं। जिनकी कोई यात्रा शुरू नहीं हुई है।

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एक मार्ग भगवान महावीर का है–संघर्ष का, संकल्प का; दूसरा मार्ग शरणागति का, समर्पण का। और दोनों मुक्ति के लिए हैं।

भक्ति करने से आदमी को अपने बुरे कर्मों का फल भोगना पड़ेगा अथवा नहीं?

कर्म की भाषा भक्त की भाषा नहीं है। यह तो ऐसे ही है, जैसे तुम पूछो कि बगीचे से गुजरने पर मरुस्थल बीच में पड़ेगा या नहीं; या मरुस्थल से गुजरने पर फूल कमल के खिले हुए मिलेंगे या नहीं। तुम अलग-अलग धाराओं की बात कर रहे हो।

कर्म की भाषा समर्पण के मार्ग की भाषा नहीं है; संकल्प के मार्ग की भाषा है। संकल्प कहता है: तुमने जो किया है वही तुम पाओगे। इसलिए महावीर का तो पूरा शास्त्र कर्म के सिद्धांत पर खड़ा है। भगवान तो हटा ही दिया है महावीर ने; कर्म ही भगवान हो गया है–तुम जो करते हो वही; कार्य-कारण; सीधा विज्ञान है।

भक्त को कर्म की भाषा ही नहीं आती। भक्त कहता है, हमने कभी कुछ किया ही नहीं, वही करवा रहा है। भक्त कहता है, हम कर्ता ही नहीं हैं, कर्ता वही है; और उसने जो करवाया हमने किया; गुनहगार हो तो वही हो। भक्त के सामने भगवान को मुश्किल पड़ेगी; क्योंकि भक्त कहेगा, “तूने करवाया, हमने किया, हमको फंसाता है?’

इसलिए भक्त कर्म की भाषा नहीं बोलता। भक्त कहता है, सब तुझ पर छोड़ा, कर्म भी छोड़े। अपने को ही छोड़ा तो अब कर्म का खाता कहां अलग रखें? जब सब छोड़ा तो बैंक-बैलेंस भी तुझे ही दिया। ऐसा थोड़े ही है कि अपना बैंक-बैलेंस बचा लिया और कहा कि बाकी सब दिया।

तुम्हें तो जुहद-ओ-रिया पर बहुत है अपने गरूर

खुदा है शेख जी! हमसे भी गुनहगारों का।

भक्त कहता है, “शेख जी! तुम्हें तो बड़ा गरूर है अपने कर्मों का, शुभ कर्मों का, उपासना, पूजा, प्रार्थना का, साधना, तपश्चर्या का!’

तुम्हें तो जुहद-ओ-रिया पर बहुत है अपने गरूर!

लेकिन भक्त यह भी कहता है कि यह सब जो तुमने किया है, थोथा है; क्योंकि करने का भाव तो भीतर मौजूद ही है। इसलिए यह सब वंचना है। और हम तुम से कहते हैं: खुदा है शेख जी! हमसे भी गुनहगारों का। वह हमारी भी खबर लेगा। वह सिर्फ धार्मिकों का ही नहीं है, गुनहगारों का भी है।

फरिश्ते हश्र में पूछेंगे पाकबाजों से

गुनाह क्यों न किए, क्या खुदा गफूर न था?

वे जो पुण्यात्मा हैं, भक्त कहता है, उनसे जरूर फरिश्ते पूछेंगे स्वर्ग में।

फरिश्ते हश्र में पूछेंगे पाकबाजों से।

–पवित्र लोगों से, धर्मात्माओं से, पुण्यात्माओं से।

गुनाह क्यों न किए, क्या खुदा गफूर न था?

क्या तुम्हें भरोसा न था कि उसकी करुणा अपरंपार है? तुम्हें कुछ संदेह था? कर लेते गुनाह! ऐसे क्या डरे-डरे जीये?

नहीं, भक्त की भाषा अलग है।

ध्यान रखो, अगर कर्मों का हिसाब रखना हो तो भक्ति का रास्ता तुम्हारे लिए नहीं है। गणित और काव्य की भाषा अलग-अलग है। गणित में दो और दो चार ही होते हैं, काव्य में कभी-कभी दो और दो पांच भी हो जाते हैं, कभी तीन भी रह जाते हैं। काव्य तो रहस्य है।

तो अगर तुम्हें गणित की भाषा समझ में आती हो तो तुम भक्ति की भाषा ही छोड़ो, तो फिर कर्मों का हिसाब रखो। जो-जो बुरा किया है, उसके ठीक-ठीक तुलना में गणित की तरह भला करो। एक-एक काटो। कठिन होगा मार्ग, लेकिन किसी की करुणा पर तुम्हें निर्भर न रहना पड़ेगा। जटिल होगा, बड़ा दुर्धर्ष संघर्ष होगा। क्योंकि अनंत-अनंत जन्मों के पाप हैं, उन्हें काटना आसान नहीं है। इसलिए तो महावीर जन्मों-जन्मों यात्रा करते हैं। काटते-काटते, काटते-काटते, पच्चीस सौ वर्ष पहले वह घड़ी आई, जब वह काट पाये। इसलिए महावीर और बुद्ध दोनों ने, श्रमण संस्कृति के दोनों आधार हैं, अपने पिछले जन्मों की कथा कही है।

किसी भक्त ने फिक्र नहीं की: क्या करना, हिसाब क्या रखना उसका! महावीर और बुद्ध ने कही है। दोनों ने जाति-स्मरण, पिछले जन्मों के स्मरण को एक खास विधि माना, खास विधि बनाया कि पीछे जन्मों में जाओ; क्योंकि हिसाब पूरा देखना पड़ेगा, कहां-कहां भूल-चूक की है, वहां-वहां सुधार करना है; जहां-जहां गलत किया, उसके मुकाबले ठीक करना है; जहां-जहां पाप हुआ वहां-वहां पुण्य रखना है। धीरे-धीरे-धीरे तराजू को बराबर करना है, दोनों पलड़े जब बराबर हो जायेंगे और कांटा जब बीच में सम्यकत्व पर खड़ा हो जायेगा तब तुम मुक्त हो सकोगे। बड़ा हिसाबी-किताबी मामला है। मगर कुछ हैं जिनको इस में रस है। जरूर वे वैसा करें।

लेकिन भक्तों ने कभी पिछले जन्मों का हिसाब नहीं किया। उन्होंने कहा, “हिसाब कौन रखे! तू ही रख! तू ही सम्हाल! तूने भेजा, हम आये। तूने चलाया, हम चले! तूने जैसा रखा, हम राजी रहे!’

भक्त की तो पूरी बात ही इतनी है कि मैं नहीं हूं, तू ही है! इसलिए भक्त को कोई सवाल नहीं है।

दोनों मार्ग पहुंचा देते हैं। भक्त छलांग से पहुंचता है, ज्ञानी इंच-इंच काटकर पहुंचता है। भक्त एकबारगी पहुंच जाता है। एक साथ छोड़ देता है अपने “मैं’ को। वह पूरा का पूरा उसके चरणों में अपने सिर को रख देता है–एक साथ! ज्ञानी काटता है, पाप को छोड़ता है, पुण्य को पकड़ता है–फिर एक ऐसी घड़ी आती है, तब पुण्य को भी छोड़ता है। नहीं तो पुण्य ही अहंकार बन जाता है।

इसलिए महावीर के मार्ग पर जो चलते हैं, पहले पाप को काटो पुण्य से, फिर एक घड़ी आयेगी तब पुण्य को भी काटो, क्योंकि वह सोने की जंजीरें हैं। पहले पाप को मिटाओ पुण्य से, एक कांटे को दूसरे से निकालो; फिर दोनों कांटों को फेंक दो, फिर पाप भी पुण्य भी दोनों चले जायें। जब सारे कर्म शून्य हो जायेंगे तो कर्ता मिट जाता है। जब कर्म ही न बचे तो कर्ता कौन! यह महावीर का मार्ग है।

भक्त का मार्ग यह है, वह कहता है: हम कर्ता को ही रखे आते हैं उसके चरणों में। कर्म से शुरू नहीं करता भक्त। भक्त कर्ता का समर्पण करता है।

वह कहता है, “यह रहे! बुरे-भले जैसे भी हैं, तू स्वीकार कर! पत्र-पुष्पम्। यह जो कुछ हमारे पास है; पत्ते, फूल, फूल की पंखुड़ी सही, यह तू सम्हाल! ज्यादा कुछ है नहीं!’

वह अपने अहंकार को सीधा रखता है।

ज्ञानी के मार्ग पर, संकल्प के मार्ग पर कर्म को काट-काटकर कर्ता मिटाया जाता है। भक्ति के मार्ग पर कर्ता को छोड़कर ही सारे कर्म मिट जाते हैं।

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शास्त्रीय परंपरा से संन्यासी माया और काम-भोग से विमुख होकर प्रभु-प्राप्ति के लिए उन्मुख होता है; योग और भोग परस्पर विरोधी जाने जाते हैं। लेकिन आपके संन्यास में भोग से विरक्ति पर जोर नहीं है। अतः कृपा कर अपने संन्यास की धारणा को स्पष्ट करें!

धर्म का परंपरा से कोई संबंध नहीं है।

परंपरा यानी वह जो मर चुका। परंपरा यानी पिटी-पिटाई लकीर। परंपरा यानी अतीत के चरण-चिह्न। अतीत जा चुका, चरण-चिह्न रह गये हैं, राहों पर बने।

धर्म परंपरा नहीं है। धर्म तो नित-नूतन है–यद्यपि चिर पुरातन भी। मगर धर्म पुराना नहीं है, परंपरा नहीं है। इसलिए तो धर्म का शिक्षण नहीं हो सकता; परंपरा होती तो शिक्षण हो सकता था। गणित की परंपरा है। विज्ञान की परंपरा है। इसलिए विज्ञान का शिक्षण हो सकता है।

आइंस्टीन ने एक खोज कर ली, सापेक्षता के सिद्धांत की, तो अब कोई हर आदमी को खोजने की जरूरत नहीं है; अब परंपरा बन गई। अब तो सिद्धांत एक दफा खोज लिया गया। अब ऐसा थोड़े है कि हर विद्यार्थी जो पढ़ने जायेगा विश्वविद्यालय में उसको आइंस्टीन के सिद्धांत को फिर-फिर खोजना होगा। बात खतम हो गयी। खोज पूरी हो गयी। एक आदमी ने खोज दिया, फिर परंपरा बन गयी। अब दूसरा तो सिर्फ पढ़ लेगा। आइंस्टीन को जो खोजने में वर्षों लगे होंगे, वह अब किसी विद्यार्थी को पढ़ने में घंटे भी न लगेंगे।

तो विज्ञान की परंपरा बनती है, ट्रेडीशन होती है। धर्म की कोई परंपरा नहीं होती। महावीर को ज्ञान उपलब्ध हुआ, इससे तुम सोचते हो, तुम्हें खोजना न पड़ेगा? बुद्ध को ज्ञान उपलब्ध हुआ, इससे क्या तुम सोचते हो बात खतम हो गई, अब तुम पढ़ लोगे धम्मपद? जैसे आइंस्टीन की किताब को पढ़कर कोई सापेक्षता का सिद्धांत समझ लेगा, क्या वैसे ही तुम कृष्ण की गीता पढ़कर कृष्ण के सिद्धांत को समझ लोगे, या महावीर के वचन पढ़कर महावीर को समझ लोगे? नहीं, तुम्हें फिर-फिर खोजना होगा।

इसे जरा समझना। फिर-फिर खोजना होगा। जो चीज परंपरा बन जाती है उसको दुबारा नहीं खोजना होता; खोज ली गई, बात खतम हो गई।

धर्म परंपरा बनता ही नहीं। उसका प्रत्येक व्यक्ति को पुनः पुनः आविष्कार करना होता है। जो बुद्ध ने खोजा वह बुद्ध का अनुभव है। इतनी ही हमें मिल सकती है उनसे खबर कि खोजनेवाले खोज लेते हैं–बस इतना आश्वासन। सत्य नहीं मिलता, सत्य का आश्वासन मिलता है। सत्य नहीं मिलता, सत्य भी संभव है, इसकी संभावना पर भरोसा मिलता है। महावीर ने खोजा, कृष्ण ने खोजा, क्राइस्ट ने खोजा, इससे हमें केवल इतनी खबर मिलती है कि हम यूं ही व्यर्थ खोज में नहीं लगे हैं, मिल सकता है। बस, इतनी श्रद्धा मिलती है। सत्य नहीं मिलता, इतना आत्म-भरोसा मिलता है कि हम यूं ही अंधेरे में व्यर्थ नहीं टटोल रहे हैं, द्वार है; क्योंकि कुछ लोग निकल गये। कुछ जो भीतर थे बाहर हो गये हैं, तो हम भी हो सकेंगे। लेकिन इससे यह मत सोचना कि उनकी किताब पढ़ ली और चल पड़े द्वार खोजकर और निकल पड़े बाहर। द्वार तुम्हें अपना पुनः खोजना पड़ेगा।

इसलिए धर्म की कोई परंपरा नहीं बनती। और धर्म का कोई शिक्षण नहीं हो सकता। धर्म क्रांति है, परंपरा नहीं–रिवोल्यूशन! और जिस पर घटती है, बस उस पर ही घटती है।

जैसे समझो, तुम्हें अगर प्रेम नहीं हुआ किसी से, तो तुम क्या खाक जानोगे कि प्रेम क्या है! प्रेम-शास्त्र लिखे पड़े हैं, पुस्तकालय अटे पड़े हैं। तुम जाकर पढ़ लो, मजनू को क्या-क्या हुआ, लैला को क्या-क्या हुआ, शीरी-फरिहाद और हीर-रांझा–लेकिन इससे कुछ होगा न!

पढ़ी-लिखी बात कहीं भी जायेगी न, हृदय में छिदेगी न, तीर लगेगा न। तुम वैसे के वैसे खाली लौट आओगे, पांडित्य से भरकर। हां, प्रेम पर अगर कोई कहेगा, तो तुम प्रवचन दे सकोगे। हां, प्रेम पर कोई कहेगा, तुम पी एच. डी. कर सकोगे। लेकिन प्रेम तुम्हारे जीवन में कहीं भी न होगा। प्रेम तो तुम करोगे तो होगा। प्रेम की कोई परंपरा नहीं होती। प्रेम तो हर व्यक्ति को अपना ही खोजना होता है–निजी, वैयक्तिक।

और अच्छा है कि प्रेम की परंपरा नहीं होती; नहीं तो सोचो, कैसा दुर्भाग्य होता, कैसे दुर्दिन आते! लोग प्रेम की किताब पढ़ लेते और समाप्त हो जाते!

सोचो थोड़ा, परमात्मा ऐसे उधार मिलता होता, किसी को मिल गया था पच्चीस सौ साल पहले, महावीर को, बस खतम! उन्होंने तुम्हारा सारा अभियान छीन लिया। तब तो महावीर ने तुम्हारे जीवन का सारा रस छीन लिया। तब तो वे मित्र न हुए, दुश्मन हो गये। तब तो तुम्हें उन्होंने मौका ही न छोड़ा कुछ खोजने का, तुम्हें यात्रा पर जाने की जगह ही न छोड़ी।

नहीं, परमात्मा कुछ ऐसा है, सत्य कुछ ऐसा है, प्रेम कुछ ऐसा है कि जो खोजता है बस उसी को दर्शन होते हैं। हां, अपने दर्शन की बात दूसरे से कह सकता है। लेकिन उस बात से किसी को दर्शन नहीं होता। उस बात से किसी की सोयी प्यास जग सकती है। उस बात से किसी के भीतर उन्मेष हो सकता है कि चलूं, मैं भी खोजूं; किसी के भीतर चुनौती आ सकती है कि चलूं, मैं क्या कर रहा हूं बैठा-बैठा, उठूं! यह कहां गंवा रहा हूं जीवन बाजार में और दुकान में, उठूं, उसे खोजूं!

इसलिए पहली बात: धर्म परंपरा नहीं है। धर्म चिर-पुरातन, नित-नूतन है। यह विरोधाभास है। सदा से है, लेकिन फिर भी हर बार नया-नया खोजना पड़ता है। जब धर्म का सूर्योदय होता है तो वह निजी है, वैयक्तिक है, वह सामूहिक नहीं है। वह समाज की संपत्ति और थाती नहीं बनता। अगर तुम भरोसा न करो बुद्ध पर तो बुद्ध के पास कोई उपाय नहीं है तुम्हें भरोसा दिलाने का। कभी तुमने इस पर सोचा? अगर तुम कहो कि हमें शक है कि तुम झूठ बोल रहे हो, कि तुम्हें हुआ है परमात्मा का अनुभव, हम कैसे मानें? तो बुद्ध भी कंधे बिचकाकर रह जायेंगे; वे कहेंगे, अब क्या उपाय है! जो हुआ है वह निजी और वैयक्तिक है। उसे तुम्हारे सामने टेबल पर फैलाकर रख देने की कोई सुविधा नहीं है। जो हुआ है वह आंतरिक है; उसे बाहर लाकर प्रगट करने का कोई उपाय नहीं है। जो हुआ है वह इतने गहन में हुआ है कि उसकी प्रदर्शनी नहीं सजाई जा सकती, कि जो भी आयें देख लें।

इसीलिए तो दुनिया में इतने परम बुद्धपुरुष हुए, लेकिन फिर भी नास्तिकता नहीं मिटती। मिट नहीं सकती, क्योंकि नास्तिक यह कह रहा है कि हमें दिखला दो। नास्तिक यह कह रहा है, धर्म को परंपरा बना दो। अब यह बड़े मजे की बात है: जिनको तुम धार्मिक कहते हो वे कहते हैं, धर्म परंपरा है। मैं उनको नास्तिक कहता हूं। नास्तिक भी तो यही कह रहा है कि धर्म को परंपरा बना दो, जैसे विज्ञान परंपरा है; हम जायें प्रयोगशाला में और देख लें; टेस्ट-ट्यूब में पकड़ दो परमात्मा को; बिछा दो टेबल पर सर्जन की तुम्हारी समाधि को; ताकि ठीक-ठीक विश्लेषण हो सके और हम काट-पीट करके जान लें कि मामला क्या है; ले आओ तुम्हारा अनुभव प्रकाश का, सत्य का, बाजार में, जहां हम सब देख लें; क्योंकि जो निज में घटा है, क्या पता सपना हो। क्योंकि साधारण अनुभव में सपने ही निजी होते हैं, बाकी सब चीज तो निजी नहीं है। सिर्फ सपने निजी होते हैं, बाकी तुम जो सपना रात देखते हो, तुम अपनी पत्नी को भी तो उसमें नहीं बुला सकते कि आओ, आज निमंत्रण है। तुम अपनी पत्नी को भी तो नहीं कह सकते कि आज, चलो दोनों साथ-साथ एक ही सपना देखें।

दो आदमी एक मनोवैज्ञानिक के पास इलाज करवा रहे थे। दोनों ने एक दिन सोचा, दफ्तर से बाहर निकलते हुए, एक मजाक करने की बात सोची। एक अप्रैल आ रही थी, तो सोचा कि अप्रैल के दिन एक मजाक करें…मैं भी आऊंगा और एक सपना कहूंगा। और दोनों ने सपना तय कर लिया मनोवैज्ञानिक को सुनाने के लिए। फिर शाम को तुम आना और तुम भी वही सपना कहना। देखें, इस पर क्या गुजरती है! क्योंकि दो आदमी एक ही सपना तो देख ही नहीं सकते। तो उन्होंने सपना तय कर लिया विस्तार से; एक-एक बात कि क्या-क्या हुआ सपने में, लिख लिया, कंठस्थ कर लिया। सुबह एक आया और उसने कहा कि रात एक सपना देखा, इसका अर्थ करें। मनोवैज्ञानिक ने उसका सपना सुना। दोपहर दूसरा आया। उसने भी वही सपना दोहराया। उसने कहा कि रात एक सपना देखा–और विस्तार में इंच-इंच वही! और वह देखता रहा बार-बार कि मनोवैज्ञानिक पर क्या असर हो रहा है। लेकिन वह बड़ा हैरान हुआ कि कुछ खास असर नहीं हो रहा है। पूरा सपना सुनाने के बाद उसने पूछा, “आप क्या सोचते हैं इस सपने के बाबत?’ मनोवैज्ञानिक ने कहा कि मैं बड़ा परेशान हूं, क्योंकि तीन आदमी तो यह सपना मुझे दिन में सुना ही चुके हैं। तीन आदमी! वे दोनों बड़े हैरान हुए कि यह तीसरा कौन है! क्योंकि तीसरे को तो उन्होंने बताया नहीं था। सोचते थे, मजाक मनोवैज्ञानिक से कर रहे हैं, लेकिन मनोवैज्ञानिक ने मजाक उनके साथ कर दी। वे बड़ी मुश्किल में पड़ गये कि अब यह तीसरे का कैसे पता चले! और हद्द हो गई, यह तो सपना हम दोनों ने भी देखा नहीं, सिर्फ तय किया था, तीसरा कौन है! दोनों दूसरे दिन आये। उन्होंने कहा, “माफ करें! हम मजाक कर रहे थे। लेकिन तीसरा कौन है?’ उन्होंने कहा, “रातभर हम सो नहीं सके।’

मनोवैज्ञानिक ने कहा, “तीसरा कोई नहीं, वह मैं मजाक कर रहा था, क्योंकि दो आदमी तो देख ही नहीं सकते। वह तो मैं जान ही गया कि जब दो ने एक सपना देखा तो दोनों तय करके आये हैं एक अप्रैल की वजह से। इसलिए मैंने कहा कि तीन तो कह ही चुके। हद्द हो गई!

दो आदमी एक सपना देख ही नहीं सकते। सपना निजी है। इसीलिए तो नास्तिक कहता है, भगवान सपना है। क्योंकि तुम कहते हो, हमने देखा, लेकिन दिखाओ। सपने में और तुम्हारे भगवान के अनुभव में फर्क क्या हुआ? सिर्फ सपना ही ऐसी चीज है जो दूसरे को नहीं दिखाया जा सकता। इसलिए भगवान तुम्हारा सपना है। यह कुंडलिनी-जागरण और प्रकाश के अनुभव–ये सब तुम्हारे सपने हैं। नास्तिक कहता है, इसमें और सपने में फर्क कहां? फर्क तो एक ही होता है सपने में और सचाई में कि सचाई सबकी होती है, सामूहिक होती है, सार्वजनिक होती है। और सपना निजी होता है। इसलिए इतने बुद्धपुरुष हुए और एक नास्तिक को सारे बुद्धपुरुष मिलकर भी राजी नहीं कर सकते, क्योंकि जब तक तुम संदेह किये चले जाओ, कोई उपाय नहीं है, कोई प्रमाण नहीं है।

परमात्मा अनुभव है और उसका कोई प्रमाण नहीं छूटता। जिसको होता है, बस उसको होता है। और जिसको होता है, वह अकेला पड़ जाता है। और जिनको नहीं हुआ है, वे अरबों-खरबों हैं। इसलिए तो बुद्ध हों, महावीर हों, कृष्ण हों, क्राइस्ट हों–वे सभी कहते हैं, श्रद्धा से सुनोगे तो शायद कुछ हो सके; संदेह से सुनोगे तो द्वार तो पहले ही बंद हो गया। श्रद्धा पर इतना जोर क्यों है? इसीलिए कि धर्म की परंपरा नहीं बन सकती। जिसको हुआ है, अगर तुम्हारे मन में उसके प्रति थोड़ी सहानुभूति हो, लगाव हो, थोड़ी चाहत का रंग हो, तुम दोनों में कुछ तालमेल हो, तुम उस आदमी को इतना प्रेम करते हो कि तुम जानते हो कि झूठ वह बोल न सकेगा–तभी। अगर तुम्हारे मन में जरा-सा भी संदेह है कि हो सकता है, यह आदमी झूठ बोल रहा हो; या यह भी हो सकता है कि झूठ न बोल रहा हो, खुद ही धोखा खा गया हो; चाहकर झूठ न बोल रहा हो, लेकिन खुद ही ने सपना इतना गहरा देख लिया हो कि इसे भरोसा आ गया हो; या तो यह धोखा दे रहा है या खुद धोखा खा रहा है–इतना-सा संदेह काफी है, कि सत्य तुम्हारे लिए बंद हो गया।

बुद्धपुरुष तुम्हारे भीतर केवल प्यास को जगा सकते हैं; वह भी तुम्हारी श्रद्धा का सहारा हो तो।

तो पहली तो बात, धर्म कोई परंपरा नहीं है। संन्यास भी कोई परंपरा नहीं है। संन्यास एक-एक व्यक्ति का निजी उदघोषण है; एक-एक व्यक्ति की परमात्मा के द्वारा स्वीकार की गई चुनौती है–अलग-अलग है। इसलिए हर व्यक्ति में जब संन्यास घटित होगा तो भिन्न घटित होगा। संन्यास बड़ी निजी बात है। बड़ी संभावना है।

क्राइस्ट हैं, संन्यस्त पुरुष हैं; पर इनका संन्यास महावीर जैसा नहीं है। क्राइस्ट को कोई अड़चन न थी, कोई मित्र बुलाये और शराब पीने को दे दे तो पी लेते थे। महावीर तो पानी भी न पीयेंगे ऐसा, शराब तो दूर की बात। महावीर तो कहते हैं, किसी के बुलाये वे जायेंगे ही नहीं; क्योंकि किसी के बुलाये गये तो संबंध निर्मित होता है। शराब की तो छोड़ो, पानी पीने भी तुमने महावीर को कहा कि आज मेरे घर आ जाना, भरी दुपहरी है, धूप है, तेज है, थोड़ा छाया में बैठ जाना, पानी पी लेना–तो वे न आयेंगे। क्योंकि वे कहते हैं कि जिसका निमंत्रण तुमने स्वीकार किया उससे संबंध बना लिया।

तो महावीर भीख भी मांगते हैं तो बड़े अनूठे ढंग से मांगते थे। उनकी भीख मांगने का ढंग भी अनूठा है; ऐसा दुनिया में कभी किसी ने भीख नहीं मांगी है। इसलिए कहता हूं, संन्यास बड़ा अनूठा है और प्रत्येक के लिए अलग-अलग घटता है।

महावीर सुबह उठकर ध्यान में निर्णय करते कि आज अगर किसी घर के सामने ऐसी घटना घटी हुई मिलेगी तो वहां मैं हाथ पसार दूंगा। घटना–कि घर के सामने गाय खड़ी हो और उसके सींग में गुड़ लगा हो। कोई ऐसा रोज नहीं घटता ऐसा। एक दफा यह बात उन्होंने तय कर ली, क्योंकि वे कहते थे, अगर अस्तित्व को मुझे भोजन देना है तो वह मेरी शर्त पूरी करेगा, नहीं तो नहीं देगा। इसका मतलब है कि मुझे भूखा रखना चाहता है तो मैं भूखा रहूंगा। अगर मेरे बचने की कोई भी जरूरत है अस्तित्व को, तो मेरी शर्त पूरी करेगा; नहीं तो मैं समझ लूंगा कि ठीक है, बात खतम हो गई, अस्तित्व नहीं चाहता कि मैं बचूं। तो मैं अपनी कोई चेष्टा न करूंगा। अगर अस्तित्व ही चेष्टा करेगा तो ठीक है।

तो एक बार ऐसा हुआ कि तीन महीने तक उन्होंने यह ले लिया व्रत और वे यह किसी को कहते नहीं थे। अब तो जैन मुनि, दिगंबर, जो इसको अब भी मानते हैं, वे कहकर चलते हैं। उन्होंने सब बता रखा है। और उनके सब बंधे हुए प्रतीक हैं, वे सबको मालूम हैं–उनके भक्तों को, कि घर के सामने दो केले लटके हों, तो जितने घरों में दिगंबर जैन मुनि जाता है, वह सब केले लटकाये रखता है। अब उनके बंधे हुए प्रतीक हैं–दो केले लटके हों…इस तरह के कुछ। चार-छह चीजें एक मुनि रखता है, वे उन्हीं-उन्हीं को…। तो वह सब कर देते हैं इंतजाम। एक ही घर में सभी चीजें लटका देते हैं। तो स्वीकार हो गया, यह बेईमानी है।

महावीर ने कहा कि गाय खड़ी हो, गुड़ सींग पर लगा हो। तीन महीने तक भोजन न मिला। पर एक दिन मिला। बैलगाड़ी जाती थी गुड़ से भरी और पीछे से एक गाय ने आकर गुड़ खाने की चेष्टा की और उसके सींग में गुड़ लग गया। बस जिस घर के सामने वह गाय खड़ी थी, वहां महावीर ने अपने हाथ फैला दिये भोजन के लिए। तीन महीने बाद अस्तित्व ने चाहा तो ठीक।

तो महावीर तो निमंत्रण भी स्वीकार न करेंगे। और जीसस हैं, कि न केवल निमंत्रण स्वीकार कर लेते हैं, अगर कोई शराब भी पिलाये तो वह भी पी लेते हैं। वे कहते हैं, क्या अस्वीकार? किस बात का अस्वीकार? क्योंकि सब अस्वीकार अहंकार केंद्रित है। चलो, मित्रों ने चाहा है, पी लो तो पी लेते हैं। अस्वीकार में उन्हें हिंसा मालूम होती है। वे कहते हैं, “नहीं’ कहना किसी को दुख पहुंचाना है।

अब बड़ी मुश्किल की बात है।

महावीर नग्न खड़े हैं, कृष्ण सुंदर वस्त्रों से सजे हैं। क्योंकि कृष्ण कहते हैं, जब परमात्मा अवतरित होता है तो उसकी विभूति अवतरित होती है, उसका सौंदर्य अवतरित होता है, उसके हजार-हजार रंग और रूप अवतरित होते हैं। परमात्मा एक इंद्रधनुष है। उसका बड़ा ऐश्वर्य है। उसकी बड़ी महिमा है। इसीलिए तो हम उसे ईश्वर कहते हैं। ईश्वर यानी जिसका ऐश्वर्य है। तो जब कृष्ण में परमात्मा उतरा है, तो वे उसका स्वागत करते हैं, सब तरह से; जैसे तुम्हारे घर कोई मेहमान आ जाये तो तुम घर को सजाते हो। तो कृष्ण कहते हैं, जब परमात्मा उतरा हो तो देह को सजाना होगा। यह घर है। इसमें वह उतरा। उसने अनुकंपा की। तो वे बांसुरी बजाते हैं। वे मोर-मुकुट लगाते हैं। महावीर नग्न खड़े हैं। सजाने की तो बात दूर, बाल बढ़ जाते हैं तो हाथ से उखाड़ते हैं। नाई के पास नहीं जाते, क्योंकि यह तो नाई के पास जाना समाज में प्रवेश होगा। इसका अर्थ हुआ कि तुम्हें नाई की जरूरत है। समाज का क्या अर्थ होता है? मुझे दूसरे की जरूरत है–यानी समाज। मैं अकेला नहीं रह सकता, नाई की जरूरत पड़ती है–तो भी इतना तो समाज हो ही गया मेरा। कभी नाई की जरूरत पड़ती है, कभी चमार की जरूरत पड़ती है, कभी दर्जी की जरूरत पड़ती है। तो यही तो समाज है। समाज का अर्थ क्या है?

इसलिए मैं कहता हूं, जैनियों का अब तक कोई समाज नहीं है। क्योंकि कोई जैन न तो चमार है, न कोई जैन दर्जी है, न कोई जैन भंगी है। तो जैनियों का कोई समाज नहीं है। जैनी तो हिंदुओं की छाती पर जीते हैं, उनका कोई समाज नहीं है। क्योंकि कोई जैन चमार होने को राजी नहीं है। तो समाज तुम्हारा कैसा? जैनियों से मैं कहता हूं तुम एक बस्ती तो बसाकर बता दो, सिर्फ जैनियों की। तब हम कहेंगे कि तुम्हारा कोई समाज है। कोई जैनी राजी न होगा भंगी बनने को। तो तुम समाज कैसे? तो तुम्हें हिंदुओं की जरूरत है, मुसलमानों की जरूरत है, ईसाइयों की जरूरत है। तो तुम परोपजीवी हो, तुम्हारा अपना कोई समाज नहीं है।

जैन अब तक केवल संस्कृति है, समाज नहीं। वह केवल वायवीय बातें हैं।

इसलिए मैंने पीछे कहा भी कि ये पच्चीस सौ वर्ष महावीर के पूरे हुए, तुम कुछ भी न करो, एक जैनियों की बस्ती तो बना दो–सिर्फ जैनियों की, जो पूरी तरह जैन हो, उससे कम से कम एक नमूना तो मिलेगा कि जैनियों का समाज कैसा होगा। वहां बड़ी कलह मच जायेगी, क्योंकि भंगी कौन बने, जूता कौन सिये, खेती कौन करे! क्योंकि जैन को खेती करनी नहीं चाहिए, हिंसा होती है। सर्जन कौन हो, चीरा-फाड़ी कौन करे! बड़ी कठिनाई खड़ी हो जायेगी। बड़ी मुश्किल हो जायेगी।

समाज का अर्थ होता है: संबंध, जरूरत। महावीर अकेले जीये–इतने अकेले जीये कि अपने पीछे समाज का कोई सूत्र नहीं छोड़ गये। उन्होंने तो अकेले जी लिया, लेकिन जो उनके पीछे चले, वे बड़ी मुश्किल में पड़े। क्योंकि यह बिलकुल निजी, एकांत, अकेले होने का आग्रह है महावीर का। उन्होंने कोई समाज बनाया नहीं; लेकिन जो पीछे चलेंगे अनुयायी, वे तो समाज के बिना नहीं जी सकते। उनको तो कपड़े भी चाहिए होंगे, तो कपड़ा कोई बुनेगा, कपास कोई उगायेगा। उन्हें तो भोजन भी चाहिए होगा, तो खेती कोई करेगा, वृक्षों को कोई काटेगा। उन्हें तो दवा भी चाहिए होगी, ऐलोपेथी की दवा भी चाहिए होगी, जो पशुओं को मारकर बनाई जायेगी, किसी के खून से बनेगी, किसी की हड्डी से बनेगी–वह भी कोई करेगा। उन्हें जूते भी पहनने होंगे, तो चमार भी होगा, मरे हुए जानवरों की चमड़ी भी उधेड़ी जायेगी; मरे हुए काफी न होंगे तो जिंदा मारे भी जायेंगे। यह सब चलेगा।

तो इसमें तो महावीर खड़े हो जाते बाहर, क्योंकि न उनको जूते की जरूरत, न उनको कपड़े की जरूरत।

जरा सोचो तो, उनको समाज की जरूरत नहीं। वे यह कह रहे हैं कि यह हम खड़े हैं हमको कोई समाज की जरूरत नहीं। वे नाई के पास भी नहीं जाते। वे एक साथ में उस्तरा तो रख सकते थे। उस्तरा भी नहीं रखते। वे कहते हैं, उस्तरा रखा तो लोहार…। वे हाथ से उखाड़ते हैं बाल।

इससे ज्यादा स्वतंत्र व्यक्ति पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ! समाज मुक्त! समाज-शून्य! निपट समाज-शून्य!

तुम कहोगे कि भीख तो मांगते हैं। मगर महावीर की शर्त देखी! महावीर वहां भी धन्यवाद नहीं देते, अगर तुम उनको भीख देते हो। वे कहते हैं कि अस्तित्व ने चाहा। अगर तुम न भी होओगे तो महावीर कहेंगे कि वृक्ष के नीचे खड़ा हो जाऊंगा, अगर फल टपक जाये अपने से तो ठीक, पांच मिनट राह देख लूंगा, हट जाऊंगा। वे महीनों भूखे रहे।

बारह वर्ष की तपश्चर्या के काल में, कहते हैं केवल तीन सौ साठ दिन उन्होंने भोजन लिया। बारह वर्ष के लंबे काल में, केवल एक वर्ष भोजन लिया, ग्यारह वर्ष भूखे रहे। कभी महीना भर भूखे, फिर एक दिन भोजन; कभी पंद्रह दिन भूखे, फिर एक दिन भोजन; कभी आठ दिन भूखे, फिर एक दिन भोजन; ऐसा मिला-जुलाकर बारह साल में एक साल भोजन और ग्यारह साल भूखे। औसत ग्यारह दिन के बाद उन्होंने भोजन लिया, बारहवें दिन। मगर यह भोजन के लिए वे धन्यवाद नहीं देते किसी को। वे कहते हैं, तुम्हारा कोई धन्यवाद नहीं है, तुम्हारा कोई अनुग्रह नहीं। मैंने तुम्हारा निमंत्रण स्वीकार नहीं किया। मैं तो अपने हिसाब से चल रहा हूं। अस्तित्व देना चाहता है, ले लेता हूं; अस्तित्व नहीं देता तो मांग भी नहीं करता हूं। वे द्वार पर आकर खड़े हो जाते हैं, वे मांग भी नहीं करते। वे यह भी नहीं कहते कि दो; क्योंकि देने का मतलब तो होगा, कर्म की शुरुआत हो गई, लेना-देना शुरू हो गया।

इधर कृष्ण हैं। परमात्मा के लिए जगह बनाते हैं तो शरीर सजाते हैं।

उस बात में भी अर्थ मालूम पड़ता है कि जब प्रभु घर आये हों तो ऐसा क्या रूखा-सूखा स्वागत करना! बंदनवार बनाओ! स्वागत द्वार बनाओ! जो भी हो फूल-पत्ती, लटकाओ! लेकिन कुछ तो करो। साज-संगीत बजाओ। सुगंध फैलाओ। धूप-दीप जलाओ। कुछ तो करो। प्रभु द्वार पर आये हैं!

कृष्ण को बिलकुल न जंचेगा कि नंगे खड़े हो जाओ, प्रभु द्वार पर आये हैं। महावीर को जंचा; क्योंकि महावीर कहते हैं कि प्रभु को किसी ऐश्वर्य की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि वह स्वयं ऐश्वर्यवान है। और हम जो भी करेंगे वह छोटा ही होगा, वह काफी न होगा।

दोनों के तर्क सही हैं। मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि अगर तुमने एक का तर्क पकड़ लिया तो तुम अंधे हो जाओगे, दूसरे का तर्क न देख पाओगे। और इस जगत में जितने लोग संन्यास को उपलब्ध हुए, उन सब का अपने संन्यस्त होने का ढंग है।

इसलिए संन्यास की कोई परंपरा नहीं है। संन्यास व्यक्तिगत क्रांति है। अब “संन्यासी माया और काम-भोग से विमुख होकर प्रभु-प्राप्ति के लिए उन्मुख होता है’, यह बात भी सच नहीं है। जिसने पूछा है, उनको ठीक-ठीक पता नहीं है; उन्हें भक्ति मार्ग का पता नहीं है। क्योंकि भक्ति मार्ग का संन्यासी भोग से विमुख नहीं होता, परमात्मा का ही भोग शुरू करता है। जिन मित्र ने पूछा है, उन्हें हिंदू, शंकराचार्य, जैन, महावीर, गौतम सिद्धार्थ, बुद्ध–इनकी परंपरा के संन्यासियों का बोध है। और ऐसा हुआ है कि इनकी परंपरा इतनी प्रभावी हो गयी कि धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा कि दूसरी कोई परंपरा नहीं है। रामानुज का भी संन्यासी है। निम्बार्क का भी संन्यासी है। चैतन्य महाप्रभु का भी संन्यासी है। मगर वे ओझल हो गये। बुद्ध, महावीर, और शंकराचार्य इतने प्रभावी हो गये–और प्रभावी हो जाने का कारण है, क्योंकि तुम सब भोगी हो। इसे तुम्हें जरा अड़चन होगी समझने में। चूंकि तुम सब भोगी हो, त्यागी की भाषा तुम्हें समझ में आती है। क्योंकि त्यागी की भाषा तुमसे विपरीत है। जो तुम्हारे पास नहीं है, उसमें आकर्षण पैदा होता है। गरीब अमीर होना चाहता है। तुम भोगी हो, तुम त्यागी होना चाहते हो। तुम कहते हो, भोग में तो दुख ही दुख पाया; इसलिए महावीर, शंकर और बुद्ध ठीक ही कहते होंगे कि त्याग में सुख है, क्योंकि एक तो हमें अनुभव हो गया कि भोग में दुख है।

रामानुज, निम्बार्क, वल्लभ, चैतन्य–इनकी भाषा तुमने नहीं समझी; क्योंकि वे कहते हैं कि तुम्हारे भोग में दुख नहीं है, तुम्हारा भोग गलत चीजों का हो रहा है, इसलिए दुख है। भोग भगवान का करो! तुमने अभी स्त्री को भोगा है; लेकिन कभी स्त्री में भगवान को देखकर भोगो, फिर दुख समाप्त हुआ! तुमने अभी भोजन को भोगा है, दुख है; लेकिन भोजन में भगवान को देखकर भोगो, दुख समाप्त हुआ।

उनकी बात में भी सार है। अब इधर मैं हूं। मैं कहता हूं कि दोनों का संगीत पैदा हो जाये तो संन्यास है। मैं कहता हूं, तुम्हारा त्याग ऐसा हो कि भोगी के भोग से ज्यादा गहरा और तुम्हारा भोग ऐसा हो कि त्यागी के त्याग से ज्यादा गहरा। तो मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि एक परम समन्वय हो। तुम भोगो–त्यागते हुए, तुम त्यागो–भोगते हुए।

उपनिषद कहते हैं, तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। उन्होंने ही भोगा, जिन्होंने त्यागा। या उसका ऐसा भी अर्थ कर सकते हैं कि उन्होंने ही त्यागा जिन्होंने भोगा। वह वचन बड़ा अपूर्व है। ऐसा भोगो, ऐसा गहरा भोगो कि भोग में ही त्याग घटित हो जाये।

अब इसे थोड़ा समझो। जब तुम अधूरा-अधूरा भोगते हो तो भोग सरकता है। जो भी जीवन में अधूरा अनुभव है, वह पीछा करता है। जब भी अनुभव पूरा हो जाता है, छुटकारा हो जाता है। अगर तुमने स्त्री को ठीक से न भोगा, तो तुम्हारे मन में स्त्री की कामना छाया डालती रहेगी। अगर तुमने ठीक से भोग लिया, एक स्त्री को भी एक संभोग में भी ठीक से अनुभव कर लिया और जान लिया, क्या है, तुम मुक्त हो गये! उसी क्षण तुम भोग के बाहर हो गये।

गहरा भोग त्याग ले आता है। और गहरे त्यागी के भोग की चर्चा करनी मुश्किल है, क्योंकि वही भोगना जानता है।

तुम जरा सोचो! जब कृष्ण भोजन करते होंगे या महावीर भी जब भोजन करते होंगे, तो तुमने ऐसा भोजन कभी भी नहीं किया जैसा महावीर करते होंगे। चाहे उन्हें रूखी-सूखी रोटी ही मिली हो, उस रूखी-सूखी में से भी ब्रह्म को निचोड़ लेते होंगे। उस रूखी-सूखी रोटी में से सिर्फ खून और मांस-मज्जा ही नहीं आती थी उनको, ब्रह्म भी आता था। इसलिए तो उपनिषद कहते हैं: अन्नं ब्रह्म! अन्न ब्रह्म है। जिन्होंने लिखा है, उन्होंने खूब भोगकर लिखा होगा, खूब अन्न को परखकर लिखा होगा।

एक संन्यासी बीमार था। थोड़ा-थोड़ा भोजन लेता था। चिकित्सकों ने उससे कहा कि इतने थोड़े भोजन से काम न चलेगा, थोड़ा और भोजन लो। तो उस संन्यासी ने कहा, इतना काफी है, क्योंकि इसमें से मैं वही नहीं ले रहा हूं जो दिखाई पड़ता है, वह भी ले रहा हूं जो दिखाई नहीं पड़ता। और जब मैं श्वास लेता हूं, तब भी मैं भोजन कर रहा हूं–क्योंकि प्राण…। और जब मैं आकाश को देखता हूं, तब भी भोजन कर रहा हूं–क्योंकि आकाश…। जब सूरज की किरणें मुझ पर पड़ती हैं, तब भी भोजन कर रहा हूं–क्योंकि किरणें प्रवेश करती हैं। भोजन तो चौबीस घंटे चल रहा है। ब्रह्म चौबीस घंटे हजार-हजार मार्गों से तुम में उतर रहा है और नाच रहा है।

जिसने ठीक से भोगा, वह हर भोग में ब्रह्म को खोज लेगा। और जिसने ठीक से त्यागा, उसकी आंख इतनी शुद्ध और निर्मल हो जाती है कि उसे सिवाय ब्रह्म के फिर कुछ दिखाई पड़ता नहीं।

अब तक ब्राह्मण और श्रमण संस्कृतियां विपरीत खड़ी रही हैं। श्रमण-संस्कृति त्याग की संस्कृति है। ब्राह्मण-संस्कृति भोग की संस्कृति है। ब्राह्मण-संस्कृति परमात्मा के ऐश्वर्य की संस्कृति है, परमात्मा के विस्तार की। श्रमण-संस्कृति त्याग की संस्कृति है, वीतराग की, परमात्मा के संकोच की, वापसी यात्रा है। इसीलिए रामानुज, वल्लभ और निम्बार्क; शंकर को हिंदू नहीं मानते। वे कहते हैं, प्रच्छन्न बौद्ध, छिपा हुआ बौद्ध है यह आदमी। निम्बार्क, शंकर के बीच; वल्लभ, शंकर के बीच; रामानुज, शंकर के बीच बड़ा विवाद है। और मैं भी मानता हूं, शंकर हिंदू नहीं हैं–हो नहीं सकते। शंकर ने बड़े छिपे रास्ते से श्रमण-संस्कृति को ब्राह्मण-संस्कृति की छाती पर हावी कर दिया। इसलिए शंकर के संन्यासी को तुम जानते हो, वही संन्यासी हो गया खास। वह संन्यासी बिलकुल हिंदू है ही नहीं।

तुमने उपनिषद के ऋषि-मुनियों को देखा है, सुनी है उनकी बात, उनकी खबर, उनकी कहानी सुनी? उपनिषद के ऋषि-मुनि गृहस्थ थे। पत्नी थी उनकी, बच्चे थे उनके, घर-द्वार था उनका, बाग-उपवन थे उनके, गऊएं थीं उनकी, धन-धान्य था; त्यागी नहीं थे। बुद्ध और जैन अर्थों में त्यागी नहीं थे। भोगकर ही भगवान को उन्होंने जाना था। शंकर ने श्रमण-संस्कृति की बात का प्रभाव देखकर…क्योंकि जब श्रमण साधु खड़े हुए तो स्वभावतः हिंदू ब्राह्मण, ऋषि-मुनि फीके पड़ने लगे। क्योंकि ये तेजस्वी मालूम पड़े। सब छोड़ दिया! ये चमत्कारी मालूम पड़े, क्योंकि बड़े उलटे मालूम पड़े। स्वभावतः रास्ते पर सब लोग चलते हैं, कोई जरा शीर्षासन लगाकर खड़ा हो जाये, तो भीड़ इकट्ठी हो जायेगी। वही आदमी पैर के बल खड़ा रहे, कोई न आयेगा; सिर के बल खड़ा हो जाये, सब आ जायेंगे। वे कहेंगे, क्या मामला हो गया! कोई फूल चढ़ाने लगेगा, कोई हाथ जोड़ने लगेगा कि कोई चमत्कार कर रहा है, यह आदमी बड़ा त्यागी है! उलटा आकर्षित करता है।

तो जैन और बौद्ध संन्यासियों ने बड़ा आकर्षण पैदा किया। शंकर ने बड़े छिपे द्वार से उनकी ही बात को हिंदू-छाती पर सवार करवा दिया। अगर कोई गौर से देखे तो हिंदू संस्कृति को बचानेवाले शंकर नहीं हैं, नष्ट करनेवाले हैं। हालांकि लोग सोचते हैं, शंकर ने बचा लिया–बचाया नहीं! यह बचाना क्या बचाना हुआ? यह तो नाम का ही फर्क हुआ।

हिंदू संस्कृति भोग का परम स्वीकार है। और भोग में ही परमात्मा का आविष्कार है। श्रमण-संस्कृति त्याग का, संन्यास का, छोड़ने का, विरक्ति का, वैराग्य का मार्ग है। और उसी से परमात्मा को पाना है।

मेरे देखे, त्याग और भोग दो पंखों की तरह हैं।

श्रमण-संस्कृति भी अधूरी है, ब्राह्मण-संस्कृति भी अधूरी है। मैं उसी आदमी को पूरा कहता हूं, उसी को मैं परमहंस कहता हूं, जिसके दोनों पंख सुदृढ़ हैं; जो न भोग की तरफ झुका है न त्याग की तरफ झुका है; जिसका कोई चुनाव ही नहीं है; जो सहज शांत जो भी घट रहा है, उसे स्वीकार किया है; घर में है तो घर में स्वीकार है, मंदिर में है तो मंदिर में; पत्नी है तो ठीक, पत्नी मर गई तो ठीक; पत्नी होनी ही चाहिए, ऐसा भी नहीं है; पत्नी नहीं ही होनी चाहिए, ऐसा भी नहीं है–जिसका कोई आग्रह नहीं है, निराग्रही!

संन्यास का मैं अर्थ करता हूं: सम्यक न्यास। जिसने अपने जीवन को संतुलित कर लिया है; जिसने अपने जीवन को ऐसी बुनियाद दी है जो अपंग नहीं है, जो अधूरी नहीं है, जो परिपूर्ण है। भोग और त्याग दोनों जिसमें समाविष्ट हैं, वही मेरे लिए संन्यासी है।

और मजा ही क्या, छोड़कर भाग गये तब छूटा तो मजा क्या! यहां रहे और छोड़ा, बाजार में खड़े रहे और भीतर हिमालय प्रगट हुआ…!

यह हमीं हैं कि तेरा दर्द छुपाकर दिल में

काम दुनिया के बदस्तूर किए जाते हैं।

छोड़ देना आसान है, पकड़ रखना भी आसान है; पकड़े हुए छोड़ देना अति कठिन है। बड़ी कुशलता चाहिए। कृष्ण ने जिसको कहा है: योगः कर्मसु कौशलम्। बड़ी कुशलता चाहिए! योग की कुशलता चाहिए! जैसे कि कोई नट सधी हुई रस्सी पर चलता है, दो खाइयों के बीच खिंची हुई रस्सी पर चलता है। तो देखा, कैसा सम्हालता है, संतुलित करता है; कभी बायें झुकता कभी दायें झुकता; जब दिखता है, बायें झुकना ज्यादा हो गया, अब गिरूंगा, तो दायें झुकता है, ताकि बायें की तरफ जो असंतुलन हो गया था, वह संतुलित हो जाये। फिर देखता है, अब दायें तरफ ज्यादा झुकने लगा, तो बायें तरफ झुकता है। बायें को दायें से सम्हालता है, दायें को बायें से सम्हालता है। ऐसे बीच में तनी रस्सी पर चलता है।

और धर्र्म तो खड्ग की धार है। वह तो बड़ा बारीक रास्ता है, संकीर्ण रास्ता है–ठीक खिंची हुई रस्सी की तरह दो खाइयों के बीच में। इधर संसार है, उधर परमात्मा है, बीच में खिंची हुई रस्सी है–उस पर चलनेवाले को बड़ा कुशल होना चाहिए।

तो अगर तुम्हारे जीवन में प्रेम बुझ जाये और फिर वैराग्य हो, तो कुछ खास न हुआ।

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अष्टावक्र के साक्षी, लाओत्सु के ताओ और आपकी तथाता में समता क्या है और भेद क्या है?

समता बहुत है, भेद बहुत थोड़ा।

लाओत्सु ने जिसे ताओ कहा है वह ठीक वही है जिसे वेदों में ऋत कहा है—ऋतंभरा, या जिसे बुद्ध ने धम्म, धर्म कहा; जो जीवन को चलाने वाला परम सिद्धात है, जो सब सिद्धातो का सिद्धात है, जो इस विराट विश्व के अंतरतम में छिपा हुआ सूत्र है। जैसे माला के मनके हैं और उनमें धागा पिरोया हुआ है; एक ही धागा सारे मनकों को संभाले हुए है। हजार—हजार नियम हैं जगत में, इन सब नियमों को संभालने वाला एक परम नियम भी होना चाहिए; अन्यथा सब बिखर जायेगा, माला टूट जायेगी। मनके दिखाई पड़ते हैं; भीतर छिपा धागा दिखाई नहीं पड़ता। दिखाई पड़ना भी नहीं चाहिए; नहीं तो माला ठीक से बनायी नहीं गयी।

जो दिखाई पड़ता है, उसकी खोज विज्ञान करता है। तो ग्रेविटेशन का सिद्धात, जमीन की कशिश, गुरुत्वाकर्षण, प्रकाश का नियम, मैगनेटिक, चुंबकीय क्षेत्रों का नियम, और हजार—हजार नियम विज्ञान खोजता है। लेकिन इन सारे नियमों के मनकों के भीतर कोई एक महानियम भी होना चाहिए। नहीं तो इन सभी नियमों को कौन संभाले रखेगा 2: उस महानियम को लाओत्सु कहता है ताओ; वेद कहते हैं ऋत्, ऋतंभरा; बुद्ध कहते हैं धर्म। भक्त भगवान कहता, परमात्मा कहता, ब्रह्म कहता है। यह तो नाम की बात है।

तो लाओत्सु का ताओ है परम नियम। और अष्टावक्र का साक्षी है उस परम नियम को जानने की विधि। जब तुम जागोगे, ऐसे जागोगे कि तुम्हारे भीतर जाग ही जाग की आग रह जाएगी; तुम्हारे भीतर एक विचार भी न रह जाएगा, जो उस आग को ढांक ले, छिपा ले, राख जरा भी न रह जाएगी, तुम धधकते अंगारे हो जाओगे; क्योंकि राख तो ढांक लेती है, जब तुम्हारे भीतर कोई ढांकने वाली चीज न रहेगी, तुम बिलकुल अनढंके हो जाओगे, खुले, जागे, होशपूर्वक, तो तुम जान पाओगे उस परम नियम को, ताओ को, ऋत् को।

लाओत्सु का ताओ है परम नियम जीवन का; साक्षी है उसे जानने की प्रक्रिया, साधन, विधि, मार्ग। और जिसे मैं तथाता कहता हूं वह है जिसने पा लिया उसे, जो ताओ के साथ एक हो गया, जो उस परम नियम के साथ निमज्जित हो गया। जिसमें और उस परम नियम में अब कोई भेद न रहा; जिसने जाना कि वह जो परम नियम है, उसका ही मैं अंग हूं र उससे भिन्न नहीं।

तो तथाता है मंजिल।

ऐसा समझो। लाओत्सु का ताओ है सिद्धात, साक्षी है साधन, तथाता है सिद्धि। तीनों जुड़े हैं। तीनों साथ—साथ हैं। इसे कहो त्रिवेणी। इसे कहो संगम। इसे कहो ईसाइयों का ट्रिनिटी का सिद्धात, कि तीन हैं। या कहो हिंदुओं की त्रिमूर्ति, कि प्रभु के तीन रूप हैं। यह महानतम त्रिकोण है जो अस्तित्व के भीतर छिपा है। तथाता उपलब्धि है, पहुंच गये। साक्षी मार्ग पर है। और जहां पहुंचना है, वह है ताओ। तो तीनों में भेद तो थोड़ा— थोड़ा है; अभेद बहुत है। क्योंकि तीनों एक ही चीज से जुड़े हैं। और तीनों को समझो, यह अच्छा है; किसी एक में मत उलझ जाना। क्योंकि जो ताओ की तरफ आंख न रखेगा, वह कभी तथाता को उपलब्ध न हो सकेगा। खोज तो ताओ की करनी है; जो मिलेगा वह तथाता है। क्योंकि जब मिलते हो तुम, उस परम स्थिति में जब नदी गिरती है सागर में, तो ऐसा थोड़े ही रह जाता है कि सागर अलग और नदी अलग। जब सागर से मिलन होता है नदी का तो नदी सागर हो जाती है। खोजती थी सागर को; खो देती है स्वयं को। जिस दिन खोज पूरी होती है उस दिन नदी खो जाती है और सागर ही बचता है।

ताओ की खोज है। सत्य की खोज कहो, सत्य की खोज है। ऋत् की खोज है। धर्म की खोज है। लेकिन जिस दिन तुम जान लोगे उस दिन तुम धर्ममय हो जाओगे। उस दिन तुम सत्यमय हो जाओगे। कैसे तुम जानोगे गुर

जानने की प्रक्रिया साक्षी है। जागोगे तो जानोगे। सोये रहे तो न जान पाओगे। इसलिए तीनों जुड़े हैं, और तीनों में थोडा— थोड़ा भेद है। भिन्नता कहनी चाहिए भेद नहीं।


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