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SHORT QUES. OF SADHANA


भजन की प्रक्रिया के चार तल हैं। चार गहराइयाँ हैं।

एक, जब तुम ओंठ से भगवान का नाम लेते हो। जब तुम ओंठ से पुकारते हो—राम, राम।

दूसरा तल, जब तुम ओंठ से नहीं पूउकारते, सिर्फ कंठ में ही गुनगुनाते हो—राम, राम। ओंठ बंद हैं, कंठ में ही आवाज चल रही है।

तीसरा तल, जब तुम कंठ पर भी नहीं लाते? सिर्फ चित्त में ही विचार चलता है—राम, राम। कंठ भी कँपता नहीं।

और चौथा, जब चित्त भी नहीं कँपता। सिर्फ भाव में ही राम की दशा होती है।

न राम शब्द होता है, न वाणी होती है, न स्वर होता है, सिर्फ भाव होता है।

एक गहन .'1।।। उस चौथी दशा में तुम कुएँ की आखिरी गहराई में पहुँच गये—जैसे छाया कूप न)।

वहाँ जब राम उतर जाता है, फिर तुमसे उसे कोई छीन नहीं सकता।

जब तक वहा नहीं उतर गया है, तब तक तो मन का ही संबंध रहेगा।

वहाँ उतरते ही मन तो बाहर का संबंध हो जाता है, मनातीत संबंध हो जाता है।

उस जाप को ही अजपा कहा है।

जाप तो गया, लेकिन स्मरण है।

अब बोल नहीं उठते, लेकिन भाव है।

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और सम्मोहन में क्या फर्क है?

बस यही फर्क है। प्रक्रिया बिलकुल एक! यही प्रक्रिया सम्मोहन की है, यही प्रक्रिया ध्यान की है। दोनों की प्रक्रिया एक है। फर्क बहुत गहरा है।

प्रक्रिया का नहीं है, फर्क अंतरात्मा का है। वह फर्क यह है कि सम्मोहन में निद्रा आ जाएगी, सुषुप्ति आ जाएगी, बेहोशी आ जाएगी; और ध्यान में होश और जागरूकता पूरी बनी रहेगी, अवेयरनेस पूरी बनी रहेगी। अगर आप बेहोश हो जाते हों, तो समझना कि आप सम्मोहन में चले गए। अगर भीतर होश बना रहता हो और प्रत्येक चीज का होश बना रहता हो, तो आप समझना कि आप ध्यान में हैं।

जो लोग नहीं जानते, वे बेचारे इसको सम्मोहन कह देंगे देख कर। वे कह देंगे, यह सम्मोहन हो गया। सम्मोहन की और ध्यान की प्रक्रिया बिलकुल एक है। सम्मोहन सुषुप्ति में जाने की विधि है, ध्यान समाधि में जाने की विधि है। ऐसे ही जैसे एक घर में सीढ़ियां लगी हों। उन सीढ़ियों से हम चाहें तो नीचे तलघरे में चले जाएं, वे ही सीढ़ियां हैं। और उन्हीं सीढ़ियों से हम चाहें तो घर की छत पर, छप्पर पर चले जाएं, वे ही सीढ़ियां हैं। सीढ?ियों को देख कर कोई कह देगा कि कहां तलघरे में जा रहे हो? जिसने तलघरा ही जाना है, वह ऊपर चढ़ते हुए आदमी को भी देख कर कहेगा कि सीढ़ियों पर जा रहे हो? तलघरे में जा रहे हो? वह आदमी कहेगा कि सीढ़ियां तो वही हैं, लेकिन रुख अलग है, पीठ अलग है। जब तलघरे में जाते हैं तब तलघरे की तरफ मुंह होता है और जब छत की तरफ जाते हैं तब तलघरे की तरफ पीठ होती है, बस इतना ही फर्क है, सीढ़ियां तो वही हैं। सम्मोहन की और ध्यान की सीढ़ियां एक ही हैं।

सम्मोहन नीचे उतारता है--अनकांशस में, अचेतन में, सुषुप्ति में, मूर्च्छा में। और ध्यान?

ध्यान ऊपर ले जाता है--सुपरकांशस में, अतिचेतन में, जागृति में, होश में।

अगर कोई व्यक्ति पूरे रूप से सम्मोहित हो जाए तो प्रकृति का हिस्सा हो जाता है।

और पूरे रूप से ध्यानस्थ हो जाए तो परमात्मा का हिस्सा हो जाता है।

लेकिन प्रक्रिया और सीढ़ियां बिलकुल एक हैं।

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आत्मक्रांति का प्रथम सूत्र: अवैर

'उसने मुझे डांटा, उसने मुझे मारा, मुझे जीत लिया, मेरा लूट लिया-जो ऐसी गांठें मन में नहीं बनाए रखते हैं, उनका वैर शात हो जाता है।’

और वैर नर्क है। कहीं और कोई नर्क नहीं; शत्रुता में जीना नर्क है। तुम जितनी शत्रुता अपने चारों तरफ बनाते हो, उतना तुम्हारा नर्क बड़ा हो जाता है। तुम जितनी मित्रता अपने चारों तरफ बनाते हो, उतना स्वर्ग खड़ा हो जाता है। स्वर्ग मित्रों के बीच जीने का नाम है। नर्क शत्रुओं के बीच जीने का नाम है। और सब तुम पर निर्भर है। नर्क कोई भौगोलिक जगह नहीं है, और न स्वर्ग कोई भौगोलिक जगह है। नक्शो

में मत पड़ना। मनोदशाएं हैं। स्टेट्स आफ माइंड।

जब तुम सारे जगत को मित्र की तरह देखते हो-ऐसा नहीं कि सारा जगत मित्र हो जाएगा, इस भूल में मत पड़ना--लेकिन तुम जब सारे जगत को मित्र की भांति देखते हो, तुम्हारे लिए जगत मित्र हो गया, तुम्हारे शत्रु समाप्त हो गए। और अगर कोई तुम्हारी शत्रुता करेगा, तो वह शत्रुता उसके मन में होगी, वह उसकी पीड़ा पाएगा। लेकिन तुम्हें कोई पीड़ा नहीं दे सकता।

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'मन सभी प्रवृत्तियों का पुरोगामी है, मन उनका प्रधान है; वे मनोमय हैं। यदि कोई दोषयुक्त मन से बोलता है या कर्म करता है, तो दुख उसका अनुसरण वैसे ही करता है जैसे गाड़ी का चक्का खींचने वाले बैलों के पैर का।’

बुद्ध ने एक सूत्र पाया : जीवन में दुख. है। हम भी जीवन में दुखी हैं। और जब हमें दुख पकड़ता है तो हम पूछते हैं, किसने दुख पैदा किया? कौन मेरा दुख पैदा कर रहा है-पत्नी, पति, बेटा, बाप, मित्र, समाज? कौन मेरा दुख पैदा कर रहा है-आर्थिक-व्यवस्था, सामाजिक-ढांचा? कौन मेरा दुख पैदा कर रहा है?

मार्क्स से पूछो तो वह कहता है, दुख पैदा हो रहा है क्योंकि समाज का आर्थिक ढांचा गलत है। गरीबी है, अमीरी है, इसलिए दुख पैदा हो रहा है।

फ्रायड से पूछो तो वह कहता है, दुख इसलिए पैदा हो रहा है कि मनुष्य को अगर उसकी वृत्तियों के प्रति पूरा खुला छोड़ दिया जाए, तो वह जंगली जानवर जैसा हो जाता है। दुख पैदा होगा उससे। सभ्यता नष्ट हो जाएगी। अगर उसे समझाया- बुझाया जाए, तैयार किया जाए, परिष्कृत किया जाए, तो दमन हो जाता है। दमन होने से दुख पैदा होता है।

इसलिए फ्रायड ने कहा, दुख कभी भी न मिटेगा। अगर आदमी को बिलकुल खुला छोड़ दो, तो मार-काट हो जाएगी; क्योंकि आदमी के भीतर हजार तरह की जानवरी वृत्तियां हैं। अगर दबाओं, ढंग का बनाओ, सज्जन बनाओ, तो दमन हो जाता है। दमन होता है, तो दुख होता रहता है, वृत्तियां पूरी नहीं हो पातीं। पूरी करो तो मुसीबत, न पूरी करो तो मुसीबत।

तो फ्रायड ने तो अंत में कहा कि आदमी जैसा है, कभी सुखी हो ही नहीं सकता। सुख असंभव है।

फ्रायड और मार्क्स, इनका विश्लेषण ही अगर अकेला विश्लेषण होता तो पक्का है कि आदमी कभी सुखी नहीं हो सकता। क्योंकि रूस में गरीब-अमीर मिट गए लेकिन दुख नहीं मिटा। गरीब-अमीर मिट गए, तो दूसरे वर्ग खड़े हो गए। कोई पद पर है, कोई पद पर नहीं है। कोई कम्युनिस्ट पार्टी में है, कोई कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं है। जो पद पर है, वह इतना शक्तिशाली हो गया है जितना धनी पुराने दिनों में कभी भी न था। और जो पद पर नहीं है, वह इतना निर्बल हो गया है जितना भूखा, भिखमंगा, गरीब कभी नहीं था। धनी के हाथ में इतनी ताकत कभी नहीं थी जितनी रूस में पदाधिकारी के हाथ में है। संघर्ष वहीं का वहीं खड़ा है। भेद वहीं का वहीं खड़ा है। वर्ग नए बन गए, पुराने मिटे तो। कुछ ऐसा लगता है, आदमी बीमारी बदलता जाता है। क्रांतियों के नाम से केवल बीमारी बदलती है, कुछ भी बदलता नहीं। ऊपर के ढंग बदलते हैं, भीतर का रोग जारी रहता है।

सब क्रांतियां व्यर्थ हो गयी हैं; सिर्फ बुद्ध की एक क्रांति अभी भी सार्थकता रखती है। बुद्ध कहते हैं, तुम्हारे मन में ही कारण है। बाहर खोजने गए, पहला कदम ही गलत पड़ गया। अब तुम ठीक कभी न हो पाओगे। तुम्हारे मन में ही दुख का कारण है। जब भी तुम किसी को दुख देना चाहते हो, तुम दुख पाओगे। जब भी तुम दुख देने की आकांक्षा से भरे किसी विचार के पीछे जाते हो, तम दुख के बीज बो रहे हो। दूसरे को दुख मिलेगा या नहीं मिलेगा, तुम्हें दुख जरूर मिलेगा। तुम अगर आज दुख पा रहे हो, तो बुद्ध कहते हैं, कल बोए बीजों का फल है। और अगर कल तुम चाहते हो दुख न पाओ, तो आज कृपा करना, आज बीज मत बोना।

'यदि कोई दोषयुक्त मन से बोलता है, सोचता है, व्यवहार करता है, या वैसे कर्म करता है, तो दुख उसका अनुसरण वैसे ही करता है जैसे गाड़ी जाती है तो बैलों के पीछे चाक चले आते हैं।'

तुम्हारे मन में अगर किसी को भी दुख देने का जरा सा भी भाव है, तो तुम अपने लिए बीज बो रहे हो। क्योंकि तुम्हारे मन में जो दुख देने का बीज है, वह तुम्हारे ही मन की भूमि में गिरेगा, किसी दूसरे के मन की भूमि मैं नहीं गिर सकता। बीज तो तुम्हारे भीतर है, वृक्ष भी तुम्हारे भीतर ही होगा। फल भी तुम्हीं भोगोगे।

अगर बहुत गौर से देखा जाए, तो जब तुम दूसरे को दुख देना चाहते हो, तब तुमने अपने को दुख देना शुरू कर ही दिया। तुम दुखी होने शुरू हो ही गए। तुम क्रोधित हो, किसी पर क्रोध करके उसे नष्ट करना चाहते हो; उसे तुम करोगे या नहीं, यह दूसरी बात है, लेकिन तुमने अपने को नष्ट करना शुरू करे दिया।

बुद्ध कहते थे, क्रोध से बड़ी कोई मूढ़ता नहीं है। दूसरे के कसूर के लिए तुम अपने को दंड देते हो। एक आदमी ने तुम्हें गाली दी, कसूर उसका होगा, अब क्रोधित तुम हो रहे हों-दंड तुम अपने को दे रहे हो, कसूर उसका था। इससे ज्यादा मूढ़ता और क्या हो सकती है? उसने गाली दी, उसकी समस्या है; तुम क्यों बीच में आते हो? तुम गाली मत लो। लेने पर निर्भर है। लेना आवश्यक नहीं है। आप मुझे गाली दे सकते हैं, लेकिन लेने पर थोड़े ही मजबूर कर सकते हैं। देना आपके बस में है, लेना मेरे बस में है। उस मालकियत को मुझसे कोई कभी नहीं छीन सकता। मैं कह सकता हूं कि नहीं लेता, फिर तुम क्या करोगे? तुम्हारी गाली तुम्हीं पर लौट जाएगी। तुमने गाली देने के लिए जो तैयारी में दुख भोगा, वह भोगा, अब गाली लौटेगी तब तुम जो दुख भोगोगे, वह भोगोगे।

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कौन-सी पांच मूल बातें हैं?

1. ध्यान में जियो यानी बंद आंख में जो निराकार दिखता है, उसके प्रति जागो।

2. समाधि में जियो यानी अंतर-आकाश के प्रति जागो। अंतर-आकाश का अर्थ है, गहराई के साथ निराकार को देखना।

3. साक्षी में जियो यानी आत्मस्मरण में जियो और कर्म करो।

4. सुमिरन में जियो यानी परमात्मा को जानो और उसके प्रेम में जियो, भक्त बनकर जियो।

5. अभी और यहीं में जियो यानी आती सांस परमात्मा की याद में और जाती सांस आत्मा की याद में चले।

सनातन परंपरा में अध्यात्म के दो मार्ग हैं- एक है निवृत्ति मार्ग यानी ज्ञानमार्ग, ऑल एक्सक्लूजिव। यह बड़ा शुष्क मार्ग है। दूसरा है- प्रवृत्ति मार्ग यानी भक्ति मार्ग, ऑल इन्क्लूजिव। तीसरे मार्ग यानी संवृत्ति मार्ग में इन दोनों का समावेश है।

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कामनाएं मूलतः तीन ही हैं--संभोग, संपत्ति और शक्ति की कामनाएं। शेष सब इनकी ही संतान हैं। इनमें भी फ्रायड संभोग को बुनियादी बताते हैं; माक्र्स संपत्ति को; और एडलर शक्ति को। और हालांकि तीनों अपने-अपने ढंग से सही मालूम पड़ते हैं, तो भी उलझन नहीं मिटती।

माक्र्स, फ्रायड और एडलर तीनों सही भी हैं और तीनों गलत भी। सही इसलिए कि प्रत्येक ने आंशिक सत्य को कहा है। गलत इसलिए कि प्रत्येक ने आंशिक सत्य को ही संपूर्ण सत्य है--ऐसा सिद्ध करने की चेष्टा की है।

वासनाएं तीन हो सकती हैं, तेरह हो सकती हैं, लेकिन उनका मूल उत्स एक है। यूं समझो कि जैसे अस्तित्व के तीन आयाम होते हैं लेकिन अस्तित्व एक है। वैसे ही वासना एक है, उसके ये तीन आयाम हैं, उसके ये तीन पहलू हैं। ये त्रिकोण हैं। और तीनों कोने अपने आप में सही हैं। पर जैसे ही कोई अपने कोने को ही पूरा महल घोषित करता है, झूठ शुरू हो जाता है।

केंद्र क्या है वासना का? मूल उत्स क्या है? मूल उत्स एक ही है और वह है--मनुष्य का स्वयं को न जानना, आत्म-अज्ञान, आत्म-मूर्च्छा। चूंकि मनुष्य स्वयं को नहीं जानता; इसलिए सब तरह की चेष्टाएं करता है इस अज्ञान को किस तरह ढांक ले; इस अज्ञान को किस तरह विस्मृत कर दे; इस अज्ञान को किस भांति स्वयं भी भूल जाए और दूसरों को भी पता न पड़ने दे। इस भुलावे की चेष्टा से ही, इस आत्म-वंचना की चेष्टा से ही ये तीन आयाम पैदा होते हैं।

निश्चित ही अगर तुम्हारे पास संपत्ति हो, तो तुम भुलावा पैदा कर सकते हो; बहुत भुलावा पैदा कर सकते हो। संपत्ति हो तो लोग गधों को भी साष्टांग दंडवत करते हैं। संपत्ति हो तो सम्मान मिलता है। संपत्ति हो, समादर मिलता है, पूजा मिलती है।

हमारा शब्द है ईश्वर, वह बना है ऐश्वर्य से। जिसके पास ऐश्वर्य है, वह अपने को ईश्वर समझने की भ्रांति में पड़ सकता है। ऐश्वर्य ऐसा भ्रमजाल खड़ा कर दे सकता है कि फिर स्वयं को जानने की जरूरत न मालूम पड़े।

हम दूसरों की आंखों में अपनी तस्वीर देखकर जीते हैं। हमारी अपनी तो कोई पहचान नहीं। स्वयं की तो कोई प्रत्यभिज्ञा नहीं। दूसरे क्या कहते हैं, वही हमारी जानकारी है, अपने संबंध में।

अगर लोग कहते हैं--सुंदर हो, तो हम मान लेते हैं कि सुंदर हैं। और लोग कहते हैं कि सुंदर नहीं हो; तो पीड़ा होती है, तो कांटा चुभता है। लोग कहते हैं बुद्धिमान हो, तो फूल बरस जाते हैं। और लोग कहते हैं बुद्धू हो, तो हम गङ्ढे में गिर जाते हैं।

जिसके पास संपत्ति है, वह कुछ भी कहला लेगा। संपत्ति क्या नहीं खरीद सकती है! सम्मान खरीद सकती है। स्तुति खरीद सकती है। प्रशंसा खरीद सकती है।

सम्राटों के दरबारों में भाट हुआ करते थे, जो उस समय महाकवि समझे जाते थे। और उनका कुल काम इतना था कि वे सम्राटों की प्रशंसा और स्तुति में गीत लिखते रहें। ऐसे झूठे गीत; ऐसी व्यर्थ की कल्पनाएं, असंभव कल्पनाएं! लेकिन आदमी का मन उनको भी मान लेता है।

जब तुम्हारी कोई प्रशंसा करता है, तुम्हें अगर समझ में भी आता हो कि यह बात झूठ है, तो भी तुम इनकार नहीं कर पाते। रस मिलता है। गुदगुदी होती है। भीतर हृदय गदगद होता है। किसी मूर्खाधिराज को भी कहो कि आप महापंडित हो, तो वह भी इनकार नहीं करता। क्योंकि चाहा तो उसने यही था सदा कि लोग महापंडित कहें। लेकिन कोई कहने वाला न मिला था।

अरबी कहावत है कि परमात्मा जब लोगों को बनाकर दुनिया में भेजता है, तो सभी के साथ एक मजाक कर देता है। बनाया आदमी को, और इसके पहले कि फेंके दुनिया में, कान में फुसफुसा देता है कि तुझ जैसा सुंदर, तुझ जैसा बुद्धिमान, तुझ जैसा अद्वितीय, प्रतिभाशाली, मेधावी मैंने न कभी बनाया और न कभी मैं फिर बनाऊंगा। तू बेजोड़ है। तू लाखों में एक है। और कंकड़-पत्थर--तू हीरा है। तू कोहिनूर है।

और यही बात हर आदमी अपने मन के भीतर दबाए बैठा है। कहना तो चाहता है, लेकिन कहने के लिए अवसर चाहिए। संपत्ति अवसर दे देती है। न फिर खुद कहना पड़ता है, दूसरे कहने लगते हैं। इसलिए तो तुम नेताओं के पास चमचों को इकट्ठे देखते हो। ये चमचे क्या हैं? ये कुछ नए नहीं हैं। ये बड़े पुराने हैं। ये उतने ही प्राचीन हैं, जितना प्राचीन आदमी है।

और इन्हीं चमचों की भाषा तुम्हारे महात्मा बोलते रहे हैं। वे भी परमात्मा की खुशामद यूं करते हैं, जैसे लखनऊ के किसी नवाब की खुशामद कर रहे हों। को मो सम खल कुटिल कामी, मैं तो नमक हरामी! अपने को ऐसा दीन दिखा रहे हैं! और परमात्मा को बड़ा करके बता रहे हैं। दोनों एक ही चीज के पहलू हैं। अपने को छोटा करके दिखाना; परमात्मा को बड़ा करके दिखाना। कि मैं तो कुछ नहीं; धूल हूं। पापी हूं। और तुम--तुम पावन हो! तुम तीर्थ हो! तुम उद्धारक हो! तुम्हीं पापियों के एकमात्र सहारे हो! और मुझ जैसा कौन महापापी! यूं अपनी लकीर को जितना छोटा किया जा सके, कर रहे हैं; और परमात्मा की लकीर को जितना बड़ा कर सकें, कर रहे हैं।

यह भाषा दरबारियों की भाषा है। सोचते रहे लोग कि जब राजा-महाराजा, धनी-मानी आनंदित होते हैं स्तुति से, खुशामद से, तो परमात्मा भी होगा ही। वही भाषा परमात्मा के लिए बोली जा रही है। और जब कोई महात्मा यह भाषा बोलता है, तो तुम सोचते हो: कितना विनम्र! कितना निरअहंकारी! को मो सम कुटिल खल कामी! अहा, तुम भी गदगद होते हो कि महात्मा भी गजब है! लेकिन अगर गौर से देखो, तो इसमें भी अहंकार है। वह यह कह रहा है कि मुझ जैसा कुटिल खल कामी कोई और नहीं! बस, मैं अद्वितीय हूं! मुझसे नीचे और कोई भी नहीं! तुम सबसे ऊपर--मैं सबसे नीचे। तुम भी अद्वितीय--मैं भी अद्वितीय! और हम दोनों का मिलन हो जाए, तो गजब हो जाए, तो चमत्कार हो जाए!

यह कुछ निर-अहंकार नहीं है। निर-अहंकार ऐसी भाषा बोल ही नहीं सकता। यह तो अहंकार की ही भाषा है। हां, मगर अहंकार शीर्षासन कर रहा है; सिर के बल खड़ा है।

धन खरीद सकता है स्तुति, खुशामद, गीत, काव्य, महाकाव्य। तुम्हारे सारे महाकाव्य स्तुतियां हैं धनपतियों की, साम्राज्यवादियों की। छोटे-मोटे कवियों की तो छोड़ दो, तुम्हारे बड़े-बड़े कवि भी दरबारी ही हैं, भाट ही हैं। धन के लिए गीत लिखे हैं। पद और प्रतिष्ठा के लिए स्तुति की है।

धन खरीद सकता है; लोगों की आंखें खरीद सकता है। लोग तुम्हारी ऐसी तस्वीर दिखाने लगें, जैसी तुम देखना चाहते हो। है वैसी या नहीं--यह और बात।

और वही काम शक्ति से भी होता है। राष्ट्रपति है कोई, सम्राट है कोई, सिकंदर है कोई, प्रधानमंत्री है कोई, तो बस स्तुतियां शुरू हो जाती हैं। जब तक पद पर है, तब तक चारों तरफ से गुणगान होता है।

पद पर बैठे लोगों को बड़ी भ्रांति पैदा हो जाती है कि जब इतने लोग कह रहे हैं तो ठीक ही कहते होंगे। आखिर क्यों इतने लोग झूठ कहेंगे! पद से उतरते ही पता चलता है कि अब कोई पूछता भी नहीं।

मनोवैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि जैसे ही कोई व्यक्ति पद से नीचे उतरता है, उसकी उम्र दस साल कम हो जाती है। वह दस साल पहले मर जाता है। अगर पद पर रह जाता तो दस साल और जी जाता।

गर्मी पैदा होती है लोगों की प्रशंसा से; बल आता है। बूढ़े भी जवान मालूम होते हैं। मुर्दा भी जिंदा मालूम होते हैं।

पद की आकांक्षा, शक्ति की आकांक्षा--लेकिन कारण वही है, कि कोई बता दे कि मैं कौन हूं। कोई कह दे, कोई प्रमाण दे दे कि मैं कौन हूं। कोई मुझे बढ़ा-चढ़ाकर गौरीशंकर का शिखर बता दे। मुझे तो पता नहीं कि मैं कौन हूं, औरों पर ही निर्भर रहना होगा।

तुम जरा सोचना कि तुम्हारी अपने संबंध में जो जानकारी है, वह क्या है! वह कतरन है लोगों के विचारों की। चिंदियां इकट्ठी कर रहे हो लोगों के मंतव्यों की। और उन्हीं का ढेर संजोए बैठे हो, और सोचते हो यही मैं हूं। और इसी बीच तुम्हारी विडंबना पैदा होती है। क्योंकि कोई तुम्हें अच्छा कह देता है, कोई तुम्हें बुरा कह देता है। कोई प्यारा कह देता है, कोई दुष्ट कह देता है। कोई महात्मा कह देता है, कोई पापी कह देता है। तुम बड़ी बिबूचन में पड़ जाते हो कि फिर मैं कौन हूं!

तुम्हारे संबंध में मंतव्य लोगों के अलग-अलग हैं। हर दर्पण तुम्हारी अलग तस्वीर बताता है। तुम कभी ऐसे दर्पणगृह में गए हो, जहां बहुत दर्पण लगे हों। कोई दर्पण तुम्हारा लंबा रूप बताता हो। कोई दर्पण तुम्हें बिलकुल ठिगना बनाकर बताता हो। कोई दर्पण मोटा करके बताता हो। कोई बिलकुल सींकिया पहलवान कर देता हो। कोई सुंदर--कोई असुंदर।

इस दर्पणगृह में तुम बड़ी मुश्किल में पड़ जाओगे कि आखिर मैं कौन हूं! दूसरों पर जो निर्भर रहेगा, वह मुश्किल में तो पड़ेगा ही। क्योंकि नौकर तो कहेगा कि मालिक आप जैसा सुंदर कोई भी नहीं। लेकिन तुम्हारा जो मालिक है, वह यह नहीं कहेगा। वह क्यूं कहेगा? वह तो तुमसे कहलवाएगा कि सुंदर मैं हूं। और तुमसे यह भी कहलवाएगा कि तुम कुरूप हो। क्योंकि ये सारी बातें सापेक्ष्य हैं और तुलनात्मक हैं। इसलिए तुम्हारा मन द्वंद्वग्रस्त होता है।

धन कितनी ही स्तुति खरीद ले, लेकिन निर्द्वंद्वता नहीं खरीद सकता, अद्वैत नहीं खरीद सकता। पद कितना ही लोगों का समादर पा ले, लेकिन कहीं न कहीं से कांटे भी उभरते ही रहेंगे। फूलों के बीच कहीं न कहीं कांटे भी उगते रहेंगे। इसलिए पद पर बैठा व्यक्ति कभी निश्चिंत नहीं हो पाता। पद निश्चिंतता नहीं खरीद सकता है।

जो लोग धन और पद की दौड़ में नहीं दौड़ पाते, क्योंकि वह दौड़ बड़ी संघर्ष से भरी हुई है। पद की दौड़ का मतलब होता है: पूरा जीवन जूझते बिताना। यह सबकी कूबत की बात नहीं है। न ही सब इतने मूढ़ होते हैं कि पूरी जिंदगी यूं गंवा दें।

इमरसन का एक बहुत प्रसिद्ध वचन है, कि अमरीकी राष्ट्रपति बनने के लिए व्यक्ति को कम से कम तीस साल मेहनत करनी पड़ती है। और उसने कहा है कि जो व्यक्ति सिर्फ राष्ट्रपति बनने के लिए तीस साल मेहनत करता है, वह तो राष्ट्रपति होने के लिए बिलकुल भी योग्य नहीं। राष्ट्रपति होने के लिए ही जो आदमी तीस साल गंवाने को राजी है--जिंदगी का आधा गंवाने को राजी है--यह तो मूढ़ है ही। यह तो सबूत दे रहा है कि राष्ट्रपति होने के योग्य नहीं है।

पद की इतनी आकांक्षा बताती है कि भीतर हीनता होगी--गहन हीनता होगी। धन के लिए लोग जिंदगीभर दौड़ते हैं। मरते समय कहीं धन इकट्ठा कर पाएंगे। जब धन का कुछ उपयोग कर सकते थे, तब धन के लिए दौड़ते रहे। और जब उपयोग न कर सकेंगे, तब धन हाथ लगेगा। यह विडंबना देखते हो! जब जवानी थी और धन का कुछ उपयोग हो सकता था, तब तो सिर फोड़ते रहे कि किसी तरह धन इकट्ठा हो जाए और जब बुढ़ापा द्वार पर आ गया और किसी तरह थोड़ा-बहुत धन इकट्ठा हुआ, तब इसका करोगे क्या?

अक्सर यह हो जाता है कि जब आदमी धनी हो पाता है, तब तक न तो ठीक से भोजन कर सकता है, न ठीक से सो सकता है। नींद खो जाती है। भोजन करके पचाने की क्षमता खो जाती है। न कुछ भोग सकता है। आशा यही रखी थी जिंदगीभर कि जब धन मिलेगा, तो फिर सब कर लूंगा। मगर करने वाला ही धन कमाने में खोता गया, खोता गया। धन तो मिल जाता है, मगर धनी नहीं बचता। धन का ढेर लग जाता है, उसी के नीचे दब कर मर गया वह, जो धन की तलाश में निकला था।

तो सभी लोग न तो धन की खोज में निकलते हैं और न पद की खोज में निकलते हैं। उन सबके लिए भी प्रकृति ने व्यवस्था की है। जैविकशास्त्र ने व्यवस्था की है कि कम से कम संभोग; कम से कम कोई एक स्त्री तो कह दे कि तुम अद्वितीय हो। कोई पुरुष तो कह दे कि तुझ जैसी सुंदरी कभी भी नहीं हुई; क्लियोपेत्रा भी कुछ न थी! कि एक व्यक्ति भी कह दे, इतना ही बहुत। एक दर्पण भी बता दे कि मेरी तस्वीर क्या है?

और संभोग इस लिहाज से सरलतम है, क्योंकि जितने पुरुष हैं इस पृथ्वी पर उतनी ही स्त्रियां हैं। अनुपात में पैदा होते हैं। लेकिन इस संबंध में भी पुराने जमानों में बड़ी दौड़ चलती थी।भीतर रिक्तता है। भीतर खालीपन है और अंधेरा है। इस अंधेरे को हम बाहर की रोशनी से भुला देना चाहते हैं, दबा देना चाहते हैं। इस भीतर की रिक्तता को हम बाहर के धन से, पद से, भोग से भर लेना चाहते हैं। मगर यह रिक्तता ऐसे भरती नहीं। सौभाग्य है कि नहीं भरती। अगर भर जाती होती, तो धर्म की कोई संभावना ही न थी।

अगर फ्रायड सही होता या माक्र्स सही होते या एडलर सही होता, तो धर्म की कोई संभावना नहीं थी। एडलर कहता है, शक्ति मिल गई, बस यही अभीप्सा है। तो फिर सिकंदर महान को वही तृप्ति मिलनी चाहिए थी, जो हमने बुद्ध की आंखों में देखी--वही शांति, वही आनंद; वह तो नहीं मिला।

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संभोग से कोई कभी तृप्त हुआ है! न संपत्ति से तृप्त हुआ है, न शक्ति से कोई तृप्त हुआ है। हां, भ्रांति, आशा, सपना...। मिलते हैं, बहुत मिलते हैं, लेकिन पूरा तो कोई सपना नहीं होता, सब आशाएं निराशाएं हो जाती हैं और आज नहीं कल सब भ्रम भंग हो जाते हैं।

ये तीनों बात से चूक गए हैं। अगर ये तीनों में से कोई भी सही हो, तो धर्म का कोई स्थान नहीं रह जाता। अगर तीनों पूरे-पूरे सही हों, तो धर्म का कोई स्थान नहीं रह जाता। धर्म का इसीलिए स्थान है, कि इन तीनों में कुछ बुनियादी भूल है। लक्षण को इन्होंने मूल समझ लिया है। जैसे किसी को बुखार चढ़ा हो, और उसका शरीर गरम हो रहा हो। एक सौ पांच डिग्री, एक सौ छह डिग्री गर्मी बढ़ रही हो। और तुम समझो कि इस आदमी को गर्म होने की बीमारी हो गई। और तुम बर्फ का ठंडा पानी उसके ऊपर ढालो। कि डुबकी लगवाओ उसको जाकर ठंडे पानी में। कि किसी तरह इसकी गर्मी कम करो। यह लक्षण का इलाज होगा! इस इलाज में बुखार तो शायद ही जाए, बीमार जरूर मर जाएगा।

लक्षण दिखाई पड़ते हैं ऊपर से। ये सिर्फ लक्षण हैं--संपत्ति, शक्ति, संभोग। ये बीमारियां नहीं हैं। बीमारी तो एक है कि आदमी भीतर खाली है, रिक्त है; अंधेरे से भरा है। और इलाज भी एक है कि भीतर रोशनी चाहिए। इलाज भी एक है कि भीतर आनंद का भराव चाहिए।

अगर तुम मुझसे पूछो, जैसा तुमने पूछा है, तो यह मेरा पंच-फैसला है कि बीमारी है--ध्यान का अभाव। रोग है--ध्यान का अभाव। और औषधि है ध्यान। अमृत है ध्यान।

जो व्यक्ति अपने भीतर शांत और मौन, थिर हो जाता है; जो अपने को पहचान लेता है; खुद सीधा-सीधा अपनी आंख से ही अपने को देख लेता है; अपनी भीतर की आंख से अपने को गुन लेता है; और अपने भीतर के शून्य को आलोकित कर लेता है; अपने भीतर के दीए को जला लेता है--वह व्यक्ति तृप्त हो जाता है; परम तृप्त हो जाता है; मुक्त हो जाता है।

उसी की तलाश है। वही एक असली सवाल है। ये तीन कोने आदमी की चेष्टाएं हैं--उस असली सवाल से बचने की। मगर कोई कभी बच नहीं पाया। और कोई कभी बचेगा भी नहीं।

ध्यान का अभाव; अपने को न जानना; आत्म मूर्च्छा है। एक गङ्ढा है हमारे भीतर और वह तब तक रहेगा, जब तक हम भीतर बैठ न जाएं; हम बैठ गए कि गङ्ढा भरा। हम ठहरे कि गङ्ढा भरा। और ये तीनों हमें दौड़ाते रहते हैं। धन है, पद है, काम हैं--ये दौड़ाते रहते हैं, दौड़ाते रहते हैं। ये रुकने ही नहीं देते। ये इलाज नहीं हैं, ये बीमारी को बढ़ाने वाले कारण हैं। बीमारी को कई गुना बढ़ा देते हैं; गुणनफलन कर देते हैं। बीमारी तो अपनी जगह रहती है, और हम बीमारी से बहुत दूर निकल जाते हैं। फिर अपने तक लौटना मुश्किल होता जाता है।

जो जितना पद की यात्रा में निकल गया है, राजनीति में, उसको फिर अपने पर लौटना उतना ही मुश्किल हो जाता है। और अपने पर लौटने में ही समाधान है। इसीलिए तो हमने स्वयं को जानने के लिए नाम दिया--समाधि। समाधि बनता है समाधान से। जहां सब आधियां-व्याधियां समाप्त हो गईं। जहां कोई बीमारी न रही।

ऐसे ही हमारा प्यारा शब्द है--स्वास्थ्य। जो स्वयं में स्थित हो गया वह स्वस्थ। और जो स्वयं में स्थित हो गया, वही समाधिस्थ;;;;;;;;;;;;;;;


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