सत्य के खोजने की आवश्यकता ही क्या है?
सत्य के खोजने की आवश्यकता ही क्या है? साधना की जरूरत क्या है? ध्यान को करने से क्या प्रयोजन? जो-जो हमारी वासनाएं हैं, इच्छाएं हैं, उनको पूरा करें, वही जीवन है, सत्य को खोजने इत्यादि की क्या आवश्यकता है?
बहुत महत्वपूर्ण है। पहले दिन मैंने यह कहा: सामान्यतया हमारा मन सुख चाहता है, लेकिन जो भी हम उपलब्ध करते हैं उससे सुख मिलता नहीं। सामान्यतया हमारा मन पद चाहता है, लेकिन जिस पद पर भी हम पहुंच जाएं, चाह का अंत नहीं आता, चाह आगे बढ़ जाती है। सामान्यतया हमारा मन जो भी चाहता है वह मिल जाए, तो भी चाह समाप्त नहीं होती, चाह आगे बढ़ जाती है।
सत्य को खोजने की कोई जरूरत नहीं है। यदि चाहें पूरी हो जातीं, तो सत्य को कोई भी नहीं खोजता। अगर संतुष्टि मिल जाती, सुख मिल जाता, सत्य को कोई भी नहीं खोजता। लेकिन जो हमारी सहज चाह है वह कितनी ही पूरी हो, तो भी जीवन को अर्थ और संतोष नहीं मिलता। इसी पीड़ा, इसी दर्द, इसी परेशानी से ऊब कर मनुष्य संतुष्टि से हटता है और सत्य की खोज में लगता है। किसी के कहने से कोई सत्य की खोज में नहीं लगता, उसके जीवन का अनुभव ही उसे उस तरफ ले जाता है। और हम विचार करेंगे तो हैरान होंगे, हमारा मन सहज रूप से इसमें सहयोगी है, सत्य की खोज में हमारा मन सहज रूप से सहयोगी है। सामान्यतया आपने सुना होगा, मन बड़ा चंचल है, और मन की चंचलता को बहुत गालियां भी दी जाती हैं, बहुत बुरा भी कहा जाता है। मैं नहीं कहता हूं, मैं मन की चंचलता को बहुत बुरा नहीं कहता। क्योंकि मन अगर चंचल न हो, तो सत्य की खोज संभव ही नहीं होगी। अगर मन चंचल न हो, तो जिस चीज में भी इच्छा लगेगी मन वहीं अटका रह जाएगा। लेकिन मन कहीं भी नहीं अटकता, सब चीजों को व्यर्थ कर देता है और फिर आगे मांगने लगता है कि और आगे ले चलो। मन कहीं टिकता नहीं; नहीं तो आपने न मालूम किस गंदगी के ढेर पर उसे लगाया दिया होता और मन वहीं टिक जाता अगर वह चंचल न होता। आपने धन में लगाया होता, मन धन में ही टिक जाता। फिर वह धन से कभी हटता ही नहीं। लेकिन आप कितने ही धन में लगाएं, मन और ज्यादा धन की मांग करने लगता है। उतना धन मिल जाए, तो और ज्यादा की मांग करने लगता है। मन की मांग और ज्यादा के लिए है। और और ज्यादा का कोई अंत नहीं आता। आप कितने ही पा जाएं, तो और ज्यादा चाहिए। मन कहीं रुकता नहीं आपको और आगे बढ़ाता है। एक सीमा आती है मन की इस दौड़ की कि आप घबड़ा कर सजग, जाग जाते हैं कि यह क्या है? यह और ज्यादा की दौड़ क्या है? यह कहां अंत होगी? यह कहीं अंत नहीं हो सकती। और तब आपको लगता है कि यह दौड़ तो कुछ अंधी है, इसका कोई अंत नहीं। जिस रास्ते पर हम चल रहे हैं यह कहीं भी नहीं पहुंचेगा। बच्चों की एक छोटी से किताब है: अलाइस एंड वंडरलैंड। छोटी सी किताब है, और बच्चों की किताब है, लेकिन बूढ़े भी उसे समझ ले, तो कठिन है। बात बहुत सरल सी है उसमें। कहानियां हैं छोटी-छोटी। उसमें एक छोटी सी कहानी है। अलाइस नाम की लड़की है, वह परियों के मुल्क में चली गई। तो जमीन से परियों के मुल्क तक की यात्रा बड़ी लंबी। बहुत थक गई, बहुत परेशान हो गई, क्लांत हो गई, भूख लग आई। जब वह परियों के देश में पहुंची, तो बड़ा सुंदर देश था, दूर तक हरियाली थी, पहाड़ी झरने थे, सुंदर रास्ते थे, उसमें एक झाड़ के नीचे परियों की रानी को खड़े देखा। उसके हाथ में बड़े थाल हैं, उनमें बड़ी मिठाइयां हैं, फल हैं, फूल हैं। उसे भूख लग रही। थोड़ी ही दूर पर झाड़ के नीचे एक छाया में रानी खड़ी है और वह रानी उसे बुला रही है कि आओ। अलाइस ने दौड़ना शुरू किया, सुबह थी, सूरज ऊग रहा था, अलाइस दौड़ने लगी। पास का ही झाड़ था, काफी दौड़ी, फिर उसने खड़े होकर देखा, झाड़ उतना ही दूर है जितना पहले था। उसने चिल्ला कर पूछा--ज्यादा दूर नहीं था, चिल्ला कर पूछ सकती थी, इतना ही फासला था--उसने चिल्ला कर पूछा, मामला क्या है? रानी ने कहा: मामला मत पूछो, दौड़ी आओ। उसने फिर दौड़ना शुरू कर दिया। दोपहर हो गई, सूरज ऊपर आ गया, पीसना चूने लगा, उसने खड़े होकर देखा, वह झाड़ उतने के उतने दूर है। वह रानी वहीं खड़ी है और कहती है, आ जाओ। उसने फिर पूछा, यह मामला क्या है? मैं दौड़ती हूं, पहुंचती नहीं। रानी ने कहा: यह मत फिकर करो, तुम तो दौड़ो। वह दौड़ने लगी, सांझ हो गई, सूरज ढलने लगा, अंधेरा होने लगा। उसने चिल्ला कर पूछा, अब तो यह बिलकुल पागलपन हो गया। मैं दौड़ी जा रही हूं और सूरज भी डूबने लगा, अंधेरा भी आने लगा, झाड़ उतने ही दूर है। उसने उस रानी से पूछा, क्या तुम्हारे मुल्क में रास्ते कहीं पहुंचाते नहीं? उस रानी ने कहा: किसी मुल्क में रास्ते कहीं नहीं पहुंचाते। तुम्हारी जमीन पर भी नहीं पहुंचाते। रास्ते कहीं नहीं पहुंचाते, इससे घबड़ा कर सत्य की खोज शुरू होती है। यह किसी के सीखने सिखाने की बात नहीं है। जब आपको यह दिखाई पड़ता है कि कोई रास्ता कहीं नहीं पहुंचाता, जब सब रास्ते व्यर्थ हो जाते हैं, तो फिर एक ही रास्ता और खुला रह जाता है जो भीतर जाता है। सब रास्तों से ऊबा और असंतुष्ट हो गया व्यक्ति एक रास्ते में और खोजता है जो भीतर जाता है, शायद वहां कुछ मिल जाए। भीतर की खोज सत्य की खोज है, बाहर की खोज संतुष्टि की खोज है। और यह जो चंचल मन है, यह सहयोगी है, यह कहीं रुकने नहीं देता, यह कहीं ठहरने नहीं देता। मैंने कहना शुरू किया है, मन की चंचलता तभी समाप्त होती है जब हम वहां पहुंच जाते हैं जहां पहुंचने में जीवन का अर्थ उपलब्ध होता है, उसके पहले मन की चंचलता नष्ट नहीं होती। उसके पहले जिसकी मन की चंचलता नष्ट हो गई, वह जड़ हो जाएगा, उसके जीवन में गति विलीन हो जाएगी। एक राजा हुआ मिश्र में। एक फकीर था। उसे आदर करता था, तो कभी-कभी फकीर के पास मिलने जाता था। एक दिन दोपहर में राजा फकीर से मिलने गया। फकीर का छोटा सा खेत था, बगिया थी, वहीं फकीर काम करता था, ऊब जाता था मेहनत से। जब राजा पहुंचा, तो फकीर तो नहीं था, एक और छोटा युवा शिष्य बैठा हुआ था। राजा ने कहा कि जाओ अपने गुरु को ढूंढ़ लाओ, बुला लाओ। तो उस शिष्य ने कहा कि आप बैठ जाएं, मैं बुला लाता हूं। खेत की मेंड़ थी, मिट्टी थी, इस पर बैठ जाएं झाड़ के नीचे मैं बुला लाता हूं। राजा ने कहा: तुम बुला लाओ, मैं यहीं टहलूंगा। वह उस मिट्टी पर टहलने लगा। युवा ने सोचा, शायद मिट्टी पर बैठना उसे पसंद नहीं, उसने राजा से कहा, आप झोपड़े के भीतर आ जाएं। झोपड़े के भीतर राजा चला गया। उसने एक चटाई डाल दी और कहा कि बैठ जाएं। राजा ने कहा कि तुम जाओ, बुला लाओ, मैं टहलूंगा। वह उस झोपड़ी की दहलान में घूमने लगा। वह युवा बहुत हैरान हुआ। या तो राजा का दिमाग गड़बड़ है। वहां बैठ जाओ, नहीं बैठा; झोपड़े में भीतर लाया, कहा, बैठ जाओ, उसने कहा कि तुम जाओ, मैं यहीं टहलता हूं। वह उस छोटी सी दहलान में टहलने लगा। युवा दौड़ा हुआ गया, पीछे खेत से, बगीचे से फकीर को बुला कर लाया। रास्ते में उसने कहा: यह राजा का दिमाग कुछ ठीक नहीं मालूम होता। मैंने कई दफे कहा, बैठ जाओ, वह कहता है, तुम जाओ, बुला लाओ और टहलने लगता है, बैठता नहीं है। वह फकीर हंसने लगा, उसने कहा: राजा का दिमाग खराब नहीं, हमारे झोपड़े में उसके बैठने लायक कोई स्थान ही नहीं है। सिंहासन चाहिए उसे। वह होता, तो वह बैठ जाता। मिट्टी पर, मेंड़ पर नहीं बैठता, झोपड़े में गंदी चटाई है उस पर नहीं बैठता, असल में उसके बैठने लायक कोई जगह नहीं है। और उस फकीर ने कहा: स्मरण रखो, ऐसा ही मन है। मन भी कहीं नहीं बैठता, सिवाय परमात्मा के। कहीं भी बिठाओ, वह नहीं बैठेगा। सत्य के सिवाय मन और कहीं नहीं बैठेगा, उसके पहले उसका चलना चलता ही रहेगा, वह चंचल बना रहेगा, यहां से वहां डोलेगा, वहां से यहां डोलेगा। मन वहीं बैठता है जहां परम तृप्ति का बिंदु आ जाता है। और उस परम तृप्ति के बिंदु को ही मैं सत्य कह रहा हूं। हां, मैं कहूं इसलिए कोई सत्य की खोज नहीं करता, न कोई और आपसे कहे तो सत्य की खोज होती है। सत्य की खोज की तरफ आप निरंतर अपनी ही वासनाओं के कारण पहुंचते हैं। आपकी ही इच्छाएं, वासनाएं, आपके ही फ्रस्ट्रेशंस, आपकी ही अतृप्तियां, असंतोष, आपकी ही असफलताएं, वासना के जगत में कोई रास्ता कहीं नहीं पहुंचाता यह अनुभव, आपको निर्वासना के जगत में ले जाना शुरू कर देता है। बाहर की सारी दौड़ व्यर्थ हो जाती है, तो अंतस में जाने का प्रश्न और विचार और जिज्ञासा खड़ी होती है। कोई दूसरा आपको यह नहीं सिखा सकता। कितना ही कोई शास्त्र पढ़ाए, कितना ही कोई समझाए, कितने ही उपदेश करे, नहीं समझा सकता। जीवन का अनुभव। इसलिए मैंने कहा: सत्य की खोज के लिए खुली हुई आंखें होनी चाहिए। खुली हुई आंखों से मतलब है: जीवन के अनुभव को देखने की क्षमता होनी चाहिए। चारों तरफ यदि हम देखेंगे, तो वह अनुभव अपने जीवन में देखेंगे, तो वह अनुभव, सारे अनुभव इकट्ठे होकर मनुष्य को सत्य की खोज में अग्रसर करते हैं। फिर आप पूछते हैं: हम सत्य को क्यों खोजें? मैं नहीं कहता कि आप खोजें। मैं नहीं कहता कि आप खोजें। लेकिन फिर आप क्या खोजेंगे? आप कहते हैं हम सत्य को क्यों खोजें? मैं नहीं कहता आप खोजें। लेकिन फिर आप क्या खोजेंगे? संतुष्टि खोजेंगे; संतुष्टि को खोज-खोज कर पाएंगे कि नहीं मिलती, फिर क्या करेंगे? फिर सत्य को खोजेंगे। संतुष्टि जहां असफल हो जाती है वहीं सत्य की खोज शुरू हो जाती है। सुख की खोज जहां असफल हो जाती है, पूर्णतया असफल हो जाती है, वहीं सत्य की खोज शुरू हो जाती है। इसमें कोई किसी के सिखाने की बात नहीं। मैं किसी से नहीं कहता कि सत्य खोजें। मैं तो यही कहता हूं कि जो आपको ठीक लगे, उसी को खोजें। लेकिन आंखें खुली रखें, अंधे होकर न खोजें। जो आपको ठीक लगे--वासना ठीक लगे, वासना खोजें; सुख ठीक लगे, सुख खोजें, लेकिन आंख खुली रखें। अगर आंख खुली रही, तो बहुत दिन तक सुख नहीं खोज सकते हैं। रामकृष्ण परमहंस के जीवन में एक अदभुत घटना है। केशवचंद्र, बंगाल के एक बड़े विचारक थे, तार्किक थे, बड़े बुद्धिमान आदमी थे। बंगाल में या इस भारत में कम ही ऐसे लोग पैदा किए जिनकी ऐसी प्रतिभा और विचार थे। बड़े तर्ककुशल थे, जिस बात में लग जाएं, जिस बात का समर्थक करें, उसका, उसका विरोध करने की सामर्थ्य किसी में बंगाल में नहीं थी। बड़ा अदभुत पैना तर्क था। लोगों ने केशवचंद्र को कहा कि कभी रामकृष्ण के पास चलें, वे बड़ी ईश्वर की, बड़ी आत्मा की बातें करते हैं, जरा उनका खंडन करें तो मजा आ जाए। केशव ने कहा: चलो। सारे कलकत्ते में खबर फैल गई। जो भी विचारशील उत्सुक लोग थे वे दक्षिणेश्वर में जाकर इकट्ठे हो गए, फजीहत देखने को। और रामकृष्ण बेपढ़े-लिखे, रामकृष्ण गांव के गंवार थे। केशव प्रतिभा का धनी था, तर्ककुशल था। लोगों ने कहा: बहुत आनंद आएगा; रामकृष्ण की क्या-क्या फजीहत होगी, देखेंगे। बहुत लोग इकट्ठे हो गए। रामकृष्ण को लोगों ने कहा कि बड़ी मुश्किल होने वाली है, केशव आते हैं विवाद करने को। और बहुत लोग देखने को आते हैं। रामकृष्ण खूब हंसने लगे, उन्होंने कहा: हम भी देखेंगे। फजीहत होगी तो मजा हमको भी आएगा। जब इतने लोगों को फजीहत में मजा आएगा, तो हमको क्यों नहीं आएगा, हमको भी बहुत मजा आएगा। उन लोगों ने कहा: ये तो हैं पागल, ये समझते नहीं कि मतलब क्या है। केशव आए, बड़ी भीड़ साथ आई। कलकत्ते के बड़े विचारशील, तार्किक, सारे लोग इकट्ठे थे। रामकृष्ण के भक्त बड़े घबड़ाए हुए। रामकृष्ण बड़े प्रसन्न थे कि जब इतने लोग आ रहे हैं, तो जरूर कोई मजे की बात होगी ही। फिर केशव ने विवाद शुरू किया। केशव ने कहा: ईश्वर-वगैरह कुछ भी नहीं है। और बड़े तर्क दिए। जब केशव तर्क देते थे, तर्क पूरा होता था, रामकृष्ण खड़े होकर केशव को गले लगा लेते थे कि कितना अदभुत, कितनी अदभुत बात कही। एक-दो दफे हुआ, केशव हतप्रभ हो गए कि यह तो बड़ा मुश्किल मामला है। यह आदमी विरोध करता नहीं, उलटा हमको गले लगाता है। और लोग जो देखने आए थे मजा, वे भी निराश हो गए कि इसमें तो कोई मतलब ही नहीं, यहां एक ही पार्टी है, दूसरी पार्टी तो मौजूद नहीं है। वह बड़ी उदासी फैल गई। प्रसन्न अकेले रामकृष्ण थे। जो सब प्रसन्न होने आए थे, सब दुखी हो गए। वे जो सब प्रसन्न होने आए थे, वे सब दुखी हो गए। प्रसन्न अकेला एक ही आदमी था, वह रामकृष्ण था। केशवचंद्र विरोध का तर्क देते, वे खड़े होकर गले लगाते और कहते, कैसा, कैसा अदभुत! जब सारी बातें पूरी हो गईं, केशव को कुछ कहने को भी न सूझा कि अब क्या करें क्या न करें? दूसरा आदमी विरोध करे, तो बात आगे बढ़े। बात आगे बढ़े कैसे? तो रामकृष्ण ने कहा: क्यों, क्या बात पूरी हो गई? केशव ने कहा: हां, जो मुझे कहना था, मैंने कह दिया। रामकृष्ण खड़े हुए, बोले, अब मैं कुछ कहूं: हाथ जोड़े भगवान के और कहा: कैसा अदभुत है परमात्मा! ऐसी बुद्धि भी तू पैदा करता है! और केशव को कहा: विश्वास मान केशव, तू ज्यादा दिन नास्तिक नहीं रह सकेगा। ऐसी बुद्धि जहां है, वहां नास्तिकता कितनी देर टिकेगी? तू ज्यादा दिन नास्तिक नहीं रह सकेगा। ऐसी बुद्धि जहां है, ऐसा विवेक जहां है, वहां तू ज्यादा देर तक नास्तिक नहीं रह सकेगा। अदभुत है, मैं तो खूब प्रसन्न हो गया। परमात्मा के गुण मैंने बहुत देखे--फूलों में देखे, वृक्षों में देखे, पहाड़ों में देखे, नदियों में देखे; आज मनुष्य में देखा है। ऐसी प्रतिभा, बिना परमात्मा के ऐसी प्रतिभा हो ही कैसे सकती है? रामकृष्ण ने कहा: ऐसी प्रतिभा हो तो बहुत दिन नास्तिक नहीं रह सकते। मैं भी आपसे कहता हूं, विवेक हो, तो बहुत दिन संतुष्टि की खोज नहीं कर सकते। सत्य की खोज अनिवार्य है। तो मैं नहीं कहता कि सत्य की खोज करें। मैं तो इतना ही कहता हूं, विवेक जाग्रत हो, होश जाग्रत हो। फिर जो आपको करना है करें। जहां जाना है जाएं। जो आपका मन हो करें। कोई अंतर नहीं पड़ता कि आप कहां जाते हैं। मैं आपसे नहीं कहता कि मंदिर जाएं, मैं नहीं कहता कि कोई सत्य की खोज मैं कोई विशेष काम करें। मैं इतना ही कहता हूं, होश जाग्रत रखें।
होश जाग्रत होगा, तो आज नहीं कल, आपकी जो संतोष की, सुख की, वासना की खोज है वह व्यर्थ हो जाएगी और उसकी जगह स्थापित हो जाएगी सत्य की खोज। वह आपके अनुभव से स्थापित होती है किसी की शिक्षा और उपदेश से नहीं।