क्या 'ध्यान'आत्मिक दशा है?क्या है ध्यान के पाँच अंग?
ध्यान का अर्थ;-
07 FACTS;-
1-ध्यान का मूल अर्थ है जागरूकता, अवेयरनेस, होश, साक्षी भाव और दृष्टा भाव।अंग्रेजी में इसे मेडिटेशन कहते हैं, लेकिन अवेयरनेस शब्द इसके ज्यादा नजदीक है। हिन्दी का बोध शब्द इसके करीब है। योग का आठवां अंग ध्यान अति महत्वपूर्ण हैं। एक मात्र ध्यान ही ऐसा तत्व है कि उसे साधने से सभी स्वत: ही सधने लगते हैं, लेकिन योग के अन्य अंगों पर यह नियम लागू नहीं होता। ध्यान दो दुनिया के बीच खड़े होने की स्थिति है।धारणा का अर्थ चित्त को एक जगह लाना या ठहराना है, लेकिन ध्यान का अर्थ है जहां भी चित्त ठहरा हुआ है उसमें वृत्ति का एकतार चलना , उसमें जाग्रत रहना ध्यान है। ध्यान का अर्थ एकाग्रता नहीं होता। एकाग्रता टॉर्च की स्पॉट लाइट की तरह होती है जो किसी एक जगह को ही फोकस करती है, लेकिन ध्यान उस बल्ब की तरह है जो चारों दिशाओं में प्रकाश फैलाता है।
2-आमतौर पर आम लोगों का ध्यान बहुत कम वॉट का हो सकता है, लेकिन योगियों का ध्यान सूरज के प्रकाश की तरह होता है जिसकी जद में ब्रह्मांड की हर चीज पकड़ में आ जाती है।बहुत से लोग क्रियाओं को ध्यान समझने की भूल करते हैं- क्रिया नहीं है ध्यान।क्रिया और ध्यान में फर्क है। क्रिया तो साधन है साध्य नहीं। क्रिया तो ओजार है।आंख बंद करके बैठ जाना भी ध्यान नहीं है। किसी मूर्ति का स्मरण करना भी ध्यान नहीं है। माला जपना भी ध्यान नहीं है। अक्सर यह कहा जाता है कि पांच मिनट के लिए ईश्वर का ध्यान करो- यह भी ध्यान नहीं, स्मरण है। ध्यान है क्रियाओं से मुक्ति ...विचारों से मुक्ति।
3-ध्यान अनावश्यक कल्पना व विचारों को मन से हटाकर शुद्ध और निर्मल मौन में चले जाना है।ध्यान जैसे-जैसे गहराता है व्यक्ति साक्षी भाव में स्थित होने लगता है। उस पर किसी भी भाव, कल्पना और विचारों का क्षण मात्र भी प्रभाव नहीं पड़ता। मन और मस्तिष्क का मौन हो जाना ही ध्यान का प्राथमिक स्वरूप है। विचार, कल्पना और अतीत के सुख-दुख में जीना ध्यान विरूद्ध है।ध्यान में इंद्रियां मन के साथ, मन बुद्धि के साथ और बुद्धि अपने स्वरूप आत्मा में लीन होने लगती है। जिन्हें साक्षी या दृष्टा भाव समझ में नहीं आता उन्हें शुरू में ध्यान का अभ्यास आंख बंद करने करना चाहिए। फिर अभ्यास बढ़ जाने पर आंखें बंद हों या खुली, साधक अपने स्वरूप के साथ ही जुड़ा रहता है और अंतत: वह साक्षी भाव में स्थिति होकर किसी काम को करते हुए भी ध्यान की अवस्था में रह सकता है।
4-जब आपका ध्यान किसी चीज पर नहीं है, तब भी ध्यान की शक्ति आपके भीतर होती है।ध्यान की शक्ति अलग बात है और किसी चीज पर ध्यान होना उसका प्रयोग है।जैसे दौड़ने की शक्ति अलग बात है, दौड़ना उसका प्रयोग है, अथार्त इंप्लिमेंटेशन है। जैसे ही कुछ करने की वृत्ति हो, रुक जाओ।तुम कहीं भी इसका प्रयोग कर सकते हो। तुम स्नान कर रहे हो; अचानक अपने को कहो: स्टॉप! अगर एक क्षण के लिए भी यह एकाएक रुकना घटित हो जाए तो तुम अपने भीतर कुछ भिन्न बात घटित होते पाओगे। तब तुम अपने केंद्र पर फेंक दिए जाओगे। और तब सब कुछ ठहर जाएगा। तुम्हारा शरीर तो पूरी तरह रुकेगा ही, तुम्हारा मन भी गति करना बंद कर देगा।
5-बीज को स्वयं की संभावनाओं का कोई भी पता नहीं होता है। ऐसा ही मनुष्य भी है। उसे भी पता नहीं है कि वह क्या है-क्या हो सकता है। लेकिन, बीज शायद स्वयं के भीतर झाँक भी नहीं सकता। पर मनुष्य तो झाँक सकता है। यह झाँकना ही ध्यान है। स्वयं के पूर्ण सत्य को अभी और यहीं (हियर एंड नाउ) जानना ही ध्यान है। ध्यान में गहरे और गहरे ..उतरे । गहराई के दर्पण में संभावनाओं का पूर्ण प्रतिफलन उपलब्ध हो जाता है और जो हो सकता है, वह होना शुरू हो जाता है। जो संभव है, उसकी प्रतीति ही उसे वास्तविक बनाने लगती है। बीज जैसे ही संभावनाओं के स्वप्नों से आंदोलित होता है, वैसे ही अंकुरित होने लगता है। शक्ति, समय और संकल्प सभी ध्यान को समर्पित कर दें। क्योंकि ध्यान ही वह द्वारहीन द्वार है, जो स्वयं को ही स्वयं से परिचित कराता है।
6- ध्यान का अर्थ है अपने एकांत में उतर जाना, अकेले हो जाना, मौन, शून्य, निर्विचार, निर्विकल्प। लेकिन उस निर्विचार में, उस निर्विकल्प में.. जहां आकाश बादलों से आच्छादित नहीं होता--अंतर आकाश।तब भीतर का सूरज प्रगट होता है और सब रोशन हो जाता है। फिर तुम्हारे भीतर प्रेम के फूल खिलते हैं, आनंद के झरने फूटते हैं, रस की धाराएं बहती हैं। फिर बांटना ही पड़ेगा और उस बांटने को परोपकार कहते है।और जिसकी जीवन में ध्यान नहीं है, वह तो दूसरे को सताएगा ही... क्योंकि जो खुद दुखी है वह दुख ही बांट सकता है। और गैर ध्यानी दुखी होगा ही, नहीं तो कोई ध्यान क्यों तलाशता? बिना ध्यान के जीवन में सुख होता नहीं .. सुख का बीज अंकुरण ही नहीं होता। तो फूल और फल कैसे आएंगे क्योंकि ध्यान तो सुख के बीजों को बोना है।ध्यान भीतर की बागवानी .खेती है और जब भीतर फूल होते हैं और फसल ऊगती है, तो तुम्हारे भीतर आनंद की तरंगे उठती है।तब इस आनंद को बांटना ही पड़ेगा क्योंकि जब बादल जल से भरे होते हैं तो बरसना पडता है और जब दीये में रोशनी होती है तो किरणें फैलती हैं।और आनंद ही सच्चा धन है क्योंकि इसे किसी से छीनना नहीं होता, यह अपना है। और जो अपना है, वही दो ...तो पुण्य है। जो अपना है ही नहीं, उसको दे कर पुण्य कैसे हो सकता है।
7-ध्यान का अर्थ है..ध्यान देना, हर उस बात पर जो हमारे जीवन से जुड़ी है। शरीर पर, मन पर और आस-पास जो भी घटित हो रहा है उस पर। विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर ध्यान देने के प्रयास से ही हम अमृत की ओर एक-एक कदम बढ़ सकते है।भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को दो उपाय मन को वश में करने के बताये है.. (1) अभ्यास (2) वैराग्य। अभ्यास का अर्थ है- वे योग साधनायें जो मन को रोकती हैं।वैराग्य का अर्थ है- व्यावहारिक जीवन को संयमशील और व्यवस्थित बनाना।विषय-विकार, आलस्य-प्रमाद दुर्व्यसन-दुराचार, लोलुपता, समय का दुरुपयोग, कार्यक्रम की अव्यवस्था आदि कारणों से सांसारिक अधोगति होती है और लोभ, क्रोध, तृष्णा आदि से मानसिक अधःपतन होता है।
क्या होता है ध्यान से?-
02 FACTS;-
1-यह पूछा जा सकता है कि क्या होता है ध्यान से? ध्यान क्यों करें? आप यदि सोना बंद कर दें तो क्या होगा? नींद आपको फिर से जिंदा करती है। उसी तरह ध्यान आपको इस विराट ब्रह्मांड के प्रति सजग करता है। वह आपके आसपास की उर्जा को बढ़ाता है ,आपकी रोशनी को बढ़ाकर आपको आपकी होने की स्थिति से अवगत कराता है। अन्यथा लोगों को मरते दम तक भी यह ध्यान नहीं रहता कि वे जिंदा भी थे।ध्यान से व्यक्ति को बेहतर समझने और देखने की शक्ति मिलती है। साक्षी भाव में रहकर ही आप स्ट्रांग बन सकते हो। यह आपके शरीर, मन और आपके (आत्मा) के बीच लयात्मक संबंध बनाता है। दूसरों की अपेक्षा आपके देखने और सोचने का दृष्टिकोण एकदम अलग होगा है। ज्यादातर लोग पशु स्तर पर ही सोचते, समझते और भाव करते हैं।बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी गुस्से से भरा, ईर्ष्या, लालच, झूठ और कामुकता से भरा हो सकता है। लेकिन ध्यानी व्यक्ति ही सही मायने में यम और नियम को साध लेता है।
2-इसके अलावा ध्यान ..योग का महत्वपूर्ण तत्व है जो तन, मन और आत्मा के बीच लयात्मक सम्बन्ध बनाता है। ध्यान के द्वारा हमारी ऊर्जा केन्द्रित होती है। ऊर्जा केन्द्रित होने से मन और शरीर में शक्ति का संचार होता है एवं आत्मिक बल बढ़ता है। ध्यान से वर्तमान को देखने और समझने में मदद मिलती है। वर्तमान में हमारे सामने जो लक्ष्य है उसे प्राप्त करने की प्रेरण और क्षमता भी ध्यान से प्राप्त होता है।आप मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे में वह नहीं पा सकते जो ध्यान आपको दे सकता है। ध्यान ही धर्म का सत्य है बाकी सभी तर्क और दर्शन की बाते हैं जो सत्य नहीं भी हो सकती है। सभी महान लोगों ने ध्यान से ही सब कुछ पाया है।ध्यान का नियमित अभ्यास करने से आत्मिक शक्ति बढ़ती है। आत्मिक शक्ति से मानसिक शांति की अनुभूति होती है। ध्यान से विजन पॉवर बढ़ता है तथा व्यक्ति में निर्णय लेने की क्षमता का विकास होता है। ध्यान से हमारा तन, मन और मस्तिष्क पूर्णत: शांति, स्वास्थ्य और प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।
ध्यान की शुरुआत;-
04 FACTS;-
1-ध्यान और विचार ..जब आंखें बंद करके बैठते हैं तो अक्सर यह शिकायत रहती है कि जमाने भर के विचार उसी वक्त आते हैं। अतीत की बातें या भविष्य की योजनाएं, कल्पनाएं आदि सभी विचार मक्खियों की तरह मस्तिष्क के आसपास भिनभिनाते रहते हैं। जब तक विचार है तब तक ध्यान घटित नहीं हो सकता। ध्यान विचारों की मृत्यु है। आप तो बस ध्यान करना शुरू कर दें। जहां पहले 24 घंटे में चिंता और चिंतन के 30-40 हजार विचार होते थे वहीं अब उनकी संख्या घटने लगेगी। जब पूरी घट जाए तो बहुत बड़ी घटना घट सकती है।ध्यान की शुरुआत के पूर्व की क्रिया- ‘मैं क्यों सोच रहा हूं’ इस पर ध्यान दें। विचार एक प्रकार का विकार है। वर्तमान में जीने से ही जागरूकता जन्मती है। भविष्य की कल्पनाओं और अतीत के सुख-दुख में जीना ध्यान विरूद्ध है।
2- 04 STEPS;-
स्टेप- 1 : ध्यान शुरू करने से पहले आपका रेचन हो जाना जरूरी है अर्थात आपकी चेतना (होश) पर छाई धूल हट जानी जरूरी है। इसके लिए चाहें तो कैथार्सिस या योग का भस्त्रिका, कपालभाति प्राणायाम कर लें। आप इसके अलावा अपने शरीर को थकाने के लिए और कुछ भी कर सकते हैं।
स्टेप 2 : शुरुआत में शरीर की सभी हलचलों पर ध्यान दें और उसका निरीक्षण करें। बाहर की आवाज सुनें। आपके आस-पास जो भी घटित हो रहा है उस पर गौर करें। उसे ध्यान से सुनें।
स्टेप 3 : फिर धीरे-धीरे मन को भीतर की ओर मोड़े। विचारों के क्रिया-कलापों पर और भावों पर चुपचाप गौर करें। इस गौर करने या ध्यान देने के जरा से प्रयास से ही चित्त स्थिर होकर शांत होने लगेगा। भीतर से मौन होना ध्यान की शुरुआत के लिए जरूरी है।
स्टेप 4 : अब आप सिर्फ देखने और महसूस करने के लिए तैयार हैं। जैसे-जैसे देखना और सुनना गहराएगा आप ध्यान में उतरते जाएंगे।
3-ध्यान की शुरुआती विधि : -
प्रारंभ में सिद्धासन में बैठकर आंखें बंद कर लें और दाएं हाथ को दाएं घुटने पर तथा बाएं हाथ को बाएं घुटने पर रखकर, रीढ़ सीधी रखते हुए गहरी श्वास लें और छोड़ें। सिर्फ पांच मिनट श्वासों के इस आवागमन पर ध्यान दें कि कैसे यह श्वास भीतर कहां तक जाती है और फिर कैसे यह श्वास बाहर कहां तक आती है।मौन जब घटित होता है तो व्यक्ति में साक्षी भाव का उदय होता है। सोचना शरीर की व्यर्थ क्रिया है और बोध करना मन का स्वभाव है।
ध्यान की अवधि : उपरोक्त ध्यान विधि को नियमित 30 दिनों तक करते रहें। 30 दिनों बाद इसकी समय अवधि 5 मिनट से बढ़ाकर अगले 30 दिनों के लिए 10 मिनट और फिर अगले 30 दिनों के लिए 20 मिनट कर दें। शक्ति को संरक्षित करने के लिए 90 दिन काफी है। इसे जारी रखें।
4-सावधानी :-
ध्यान किसी स्वच्छ और शांत वातावरण में करें। ध्यान करते वक्त सोना मना है। ध्यान करते वक्त सोचना बहुत होता है। लेकिन यह सोचने पर कि ‘मैं क्यों सोच रहा हूं’ कुछ देर के लिए सोच रुक जाती है। सिर्फ श्वास पर ही ध्यान दें और संकल्प कर लें कि 20 मिनट के लिए मैं अपने दिमाग को शून्य कर देना चाहता हूं।
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ध्यान के पाँच अंग;-
ध्यान-योग साधना में मन की एकाग्रता के साथ-साथ लक्ष्य को, इष्ट को भी प्राप्त करके योगस्थिति उत्पन्न करने का दुहरा लाभ प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है। इसलिए इष्टदेव का मन:क्षेत्र में उसी प्रकार ध्यान करने का विधान किया गया है। ध्यान के पाँच अंग हैं;-
1-स्थिति 2-संस्थिति 3-विगति 4-प्रगति 5-सस्मिति।
1- स्थिति/ Positioning;-
स्थिति का तात्पर्य हैं- साधक की उपासना करते समय की स्थिति। मन्दिर में, नदी तट पर एकान्त में, श्मशान में स्नान करके, बिना स्नान किए पद्मासन से, सिद्धासन से किस ओर मुँह करके, किस मुद्रा में, किस समय, किस प्रकार ध्यान किया जाय ? इस सम्बन्ध की व्यवस्था को स्थिति कहते है।
2-संस्थिति/Topology;-
संस्थिति का अर्थ- इष्टदेव की छवि का निर्धारण। उपास्य देव का मुख आकृति, आकार मुद्रा, वस्त्र, आभूषण, वाहन, स्थान, भाव को निश्चित करना संस्थिति कहलाती है।
3-विगति/Quality;-
विगति कहते हैं- गुणावली को। इष्टदेव में क्या विशेषताएँ, शक्तियाँ, सामर्थ्य, परम्पराएँ एवं गुणावलियाँ हैं ? उनको जानना विगति कहा जाता है।
4-प्रगति;-
प्रगति कहते हैं- उपासना काल में साधक के मन में रहने वाली भावना को। दास्य, सखा, गुरु, बन्धु मित्र, माता-पिता, पति, पुत्र, सेवक, शत्रु आदि जिस रिश्ते को उपास्य देव को मानना हो उस रिश्ते की स्थिरता तथा उस रिश्ते को प्रणाढ़ बनाने के लिए इष्टदेव को प्रमुख ध्यानावस्था में, अपनी आन्तरिक भावनाओं को विविध शब्दों तथा चेष्टाओं द्वारा उपस्थित करना प्रगति कहलाती है।
5-सस्मिति;-
'सस्मिति' वह व्यवस्था है जिसमें साधक और साध्य उपासक और उपास्य, एक हो जाते हैं। दोनों में कोई भेद नहीं रहता है। भृंग कीट की सी तन्मयता द्वैत के स्थान पर अद्वैत की झाँकी, उपास्य और उपासक का अभेद, मैं स्वयं इष्टदेव हो गया हूँ या इष्टदेव में पूर्णतया लीन हो गया हूँ ऐसी अनुभूति का होना। अग्नि में पड़कर जैसे लकड़ी भी अग्निमय लाल वर्ण हो जाती है, वैसी ही अपनी स्थिति जिन क्षणों में अनुभव होती है उसे 'संस्मिति' कहते हैं।
....SHIVOHAM.....