क्या ऐसे ही आत्मज्ञानी को किसी मानसिक दुख का अनुभव भी होता है?
तिब्बत का महासंत मिलारेपा मरण— शय्या पर पडा था। शरीर में बडी पीड़ा थी। और किसी जिज्ञासु ने पूछा : 'महाप्रभु! क्या आपको दुख हो रहा है, पीड़ा हो रही है?' मिलारेपा ने आंख खोली और कहा. 'नहीं, लेकिन दुख है।’समझे? मिलारेपा ने कहा कि नहीं, दुख नहीं हो रहा है,लेकिन दुख है। दुख नहीं है, ऐसा भी नहीं। दुख हो रहा है, ऐसा भी नहीं। दुख खड़ा है, चारों तरफ घेर कर खड़ा है और हो नहीं रहा है। भीतर कोई अछूता, पार, दूर जाग कर देख रहा है।
ज्ञानी को दुख छेदता नहीं। होता तो है। दुख की मौजूदगी होती है तो होती है। पैर में काटा गड़ेगा तो बुद्ध को भी पता चलता है। बुद्ध कोई बेहोश थोड़े ही हैं। तुमसे ज्यादा पता चलता है, क्योंकि बुद्ध तो बिलकुल सजग हैं। वहां तो ऐसा सन्नाटा है कि सुई भी गिरेगी तो सुनाई पड़ जायेगी। तुम्हारे बाजार में शायद सुई गिरे तो पता भी न चले। तुम भागे जा रहे हो दूकान की तरफ, काटा गड़ जाये, पता न चले—यह हो सकता है। बुद्ध तो कहीं भागे नहीं जा रहे हैं। कोई दूकान नहीं है। काटा गड़ेगा तो तुमसे ज्यादा स्पष्ट पता चलेगा। कोरे कागज पर खींची गई लकीर! तुम्हारा कागज तो बहुत गुदा, गंदगी से भरा है; उसमें लकीर खींच दो, पता न चलेगी; हजार लकीरें तो पहले से ही खिंची हैं। शुभ्र
सफेद कपड़े पर जरा—सा दाग भी दिखाई पड़ता है, काले कपड़े पर तो नहीं दिखाई पड़ता है। दाग तो काले पर भी पड़ता है, लेकिन दिखाई नहीं पड़ता।
तुम्हारे जीवन में तो इतना दुख ही दुख है कि तुम काले हो गये हो दुख से। छोटे—मोटे दुख तो तुम्हें पता ही नहीं चलते। तुमने एक बात अनुभव की? अगर छोटे दुख से मुक्त होना हो तो बड़ा दुख पैदा कर लो, छोटा पता नहीं चलता। जैसे तुम्हारे सिर में दर्द हो रहा है और कोई कह दे कि 'क्या बैठे, सिरदर्द लिए बैठे हो? अरे, दूकान में आग लग गई।’ भागे, भूल गये दर्द—वर्द। सिर का दर्द गया! एको की जरूरत न पड़ी। दूकान में आग लग गई, यह कोई वक्त है सिरदर्द करने का! भूल ही जाओगे।
बर्नार्ड शा ने लिखा है कि उसको हार्ट अटैक का हृदय पर दौरा पड़ा, ऐसा खयाल हुआ तो घबरा गया। डाक्टर को तत्क्षण फोन किया और लेट गया बिस्तर पर। डाक्टर आया, सीढिया चढ़ कर हाफता और आ कर कुर्सी पर बैठ कर उसने एकदम अपना हृदय पकड़ लिया। डाक्टर! डाक्टर ने और कहा कि मरे, मरे, गये! घबड़ा कर बर्नार्ड शा उठ आया बिस्तर से। वह भूल ही गया वह जो खुद का हृदय का दौरा इत्यादि पड़ रहा था। भागा, पानी लाया, पंखा किया, पसीना पोंछा। वह भूल ही गया। पांच—सात मिनट के बाद जब डाक्टर स्वस्थ हुआ तो डाक्टर ने कहा,मेरी फीस। तो बर्नार्ड शा ने कहा, फीस मैं आपसे मांग कि आप मुझसे! डाक्टर ने कहा, यह तुम्हारा इलाज था। मैंने एक उलझन तुम्हारे लिए खड़ी कर दी, तुम भूल गये तुम्हारा दिल का दौरा इत्यादि। यह कुछ मामला न था; यह नाटक था, यह मजाक की थी डाक्टर ने और ठीक की।
बर्नार्ड शा बहुत लोगों से जिंदगी में मजाक करता रहा। इस डाक्टर ने ठीक मजाक की। बर्नार्ड शा बैठ कर हंसने लगा। उसने कहा : यह भी खूब रही। सच बात है कि मैं भूल गया। ये पाच—सात मिनट मुझे याद ही न रही। वह कल्पना ही रही होगी।
बड़ा दुख पैदा हो जाये तो छोटा भूल जाता है। ऐसी घटनायें हैं, उल्लेख, रिकार्ड पर, वैज्ञानिक परीक्षणों के आधार पर, कि कोई आदमी दस साल से लकवे से ग्रस्त पड़ा था और घर में आग लग गई, भाग कर बाहर निकल आया। और दस साल से उठा भी न था बिस्तर से। जब बाहर आ गया निकल कर और लोगों ने देखा तो लोगों ने कहा कि 'अरे, यह क्या! यह हो नहीं सकता! तुम दस साल से लकवे से परेशान हो।’यह सुनते ही वह आदमी फिर नीचे गिर पड़ा। लेकिन चल कर तो आ गया था। तो लकवा भूल गया।
तुम्हारी अधिक बीमारियां तो सिर्फ इसीलिए बीमारियां हैं कि तुम्हें व्यस्त करने को और कुछ नहीं। छोटी—मोटी बीमारियां तो तुम्हारे खयाल में नहीं आती; बड़ी बीमारी व्यस्त कर लेती है। घर में आग लगी है तो लकवा भूल जाता है। कुछ और बड़ी बीमारी आ जाये तो घर में लगी आग भी भूल जाये। बुद्धपुरुष को तो कोई उलझन नहीं है, कोई व्यस्तता नहीं है—कोरा चैतन्य है। जरा—सी भी सुई गिरेगी तो ऐसी आवाज होगी जैसे बैंड—बाजे बजे। संवेदना इतनी प्रखर है, उस संवेदना के अनुपात में ही बोध होगा! लेकिन फिर भी बुद्धपुरुष दुखी नहीं होता। दुख होता है, लेकिन दुखी नहीं होता। दुखी तो हम तब होते हैं जब दुख के साथ तादात्म्य कर लेते हैं। सिरदर्द हो रहा है, यह तो बुद्ध को भी पता चलता है, लेकिन मेरे सिर में दर्द हो रहा है, यह तुमको पता चलता है। सिर में दर्द हो रहा
है, यह तो बुद्ध को भी पता चलता है; क्योंकि सिर सिर है, तुम्हारा हो कि बुद्ध का हो। और सिर में पीड़ा होगी तो तुम्हें हो या बुद्ध को हो, दोनों को पता चलती है। लेकिन तुम तत्क्षण तादात्म्य कर लेते हो। तुम कहते हो, मेरा सिर! बुद्ध का 'मेरा' जैसा कुछ भी नहीं है। यह देह मैं हूं ऐसा नहीं है। तो देह में पीड़ा होती है तो पता चलता है।
पूछा है कि जैसे शरीर की पीड़ा का बुद्धपुरुषों को, ज्ञानियों को, समाधिस्थ पुरुषों को तादात्म्य मिट जाता है, मन के संबंध में क्या है रे क्या कोई मानसिक पीड़ा उन्हें होती है?
यह थोड़ा समझने का है।
शरीर सत्य है और आत्मा सत्य है; मन तो भ्रांति है। शरीर की पीड़ा का बुद्ध को पता चलता है, क्योंकि शरीर सत्य है। और आत्मा की तो कोई पीड़ा होती ही नहीं; आत्मा तो शाश्वत सुख में है, सच्चिदानंद है। मन तो धोखा है। मन किस बात से पैदा होता है? मन तादात्म्य से पैदा होता है। तुमने कहा, यह मेरा शरीर, तो मन पैदा हुआ। तुमने कहा, यह मेरा मकान, तो मन पैदा हुआ। तुमने' कहा, यह मेरी पत्नी, तो मन पैदा हुआ। तुमने कहा, यह मेरा धन, तो मन पैदा हुआ। मन तो मेरे से पैदा होता है। मन तो मेरे का संग्रह है। इसलिए तो महावीर, बुद्ध,कृष्ण, क्राइस्ट, सभी के उपदेशों में एक बात अनिवार्य है : परिग्रह से' मुक्त हो जाओ।’मेरे' से मुक्त हो जाओ। क्योंकि जब तक तुम 'मेरे' से नहीं मुक्त हुए तब तक मन से मुक्त न हो सकोगे।’मेरे' को हटा लो तो बुनियाद गिर गई, भवन मन का गिर जायेगा।
तुमने देखा, जितना 'मेरा' उतना बड़ा मन।’मेरा' क्षीण हो जाता है, मन क्षीण हो जाता है। तुम जब राजसिंहासन पर बैठ जाते हो तो तुम्हारे पास बड़ा भारी मन होता है। राजसिंहासन से उतर जाते हो, मन सिकुड़ जाता है, छोटा हो जाता है। इसलिए तो इतना बुरा लगता है—पद खो जाये, धन खो जाये—क्योंकि सिकुड़ना पड़ता है। सिकुड़ना किसको अच्छा लगता है! छोटे होना पडता है; छोटे होने में अपमान मालूम होता है,निंदा मालूम होती है, दीनता—दरिद्रता मालूम होती है। तुम्हारी जेब में जब धन होता है तो तुम फैले होते हो।
मुल्ला नसरुद्दीन और उसका साथी एक जंगल से गुजर रहे थे। साथी ने छलांग लगाई, एक नाले को पार करना था, वह बीच में ही गिर गया। मुल्ला छलांग लगा गया और उस पार पहुंच गया। साथी चकित हुआ। मुल्ला की उम्र भी ज्यादा, का हो रहा—कैसी छलांग लगाई! उसने पूछा कि तुम्हारा राज क्या है? क्या तुम ओलंपिक इत्यादि में छलांग लगाते रहे हो 2: कोई अभ्यास किया है? यह बिना अभ्यास के नहीं हो सकता।
मुल्ला ने अपना खीसा बजाया! उसमें कलदार थे, रुपये थे, खनाखन हुए। उसने कहा. 'मैं समझा नहीं मतलब।’ मुल्ला ने कहा कि अगर छलांग जोर से लगानी हो तो खीसे में गर्मी चाहिए। फोकट नहीं लगती छलांग। तुम्हारा खीसा बताओ। खीसा खाली है, गर्मी ही नहीं है, तो छलांग क्या खाक लगाओगे!
छलांग के लिए गर्मी चाहिए। और धन बड़ा गर्मी देता है।
तुमने खयाल किया, खीसे में रुपये हों तो सर्दी में भी कोट की जरूरत नहीं पड़ती। एक गर्मी रहती है! फिर टटोल कर खीसे में हाथ डाल कर देख लेते हो, जानते हो कि है, कोई फिक्र नहीं; चाहो
तो अभी कोट खरीद लो। लेकिन अगर खीसे में रुपये न हों तो जरूरत भी न हो अभी कोट की तो भी खलता है—लगता दीनता, दस्यिता,छोटापन, सामर्थ्य की हीनता; मन टूटा—टूटा मालूम होता है। तुम जरा गौर से देखना. मन, तुम्हारी जितनी ज्यादा परिग्रह की सीमा होती है,उतना ही बड़ा होता है।’मेरे' को त्याग दो, मन गया। मन कोई वस्तु नहीं है। मन तो शरीर और आत्मा के एक—दूसरे से मिल जाने से जो भ्रांति पैदा होती है उसका नाम है। मन तो प्रतिबिंब है।
ऐसा समझो कि तुम दर्पण के सामने खड़े हुए। दर्पण सच है, तुम भी सच हो, लेकिन दर्पण में जो प्रतिबिंब बन रहा है वह सच नहीं है। आत्मा और शरीर का साक्षात्कार हो रहा है। शरीर का जो प्रतिबिंब बन रहा है आत्मा में, उसको अगर तुमने सच मान लिया तो मन; अगर तुमने जाना कि केवल शरीर का प्रतिबिंब है, न तो मैं शरीर हूं तो शरीर का प्रतिबिंब तो मैं कैसे हो सकता हूं तो फिर कोई मन नहीं।
बुद्धपुरुष के पास कोई मन नहीं होता। अ—मन की स्थिति का नाम ही तो बुद्धत्व है। इसलिए कबीर कहते हैं, अ—मनी दशा; स्टेट आफ नो माइंड। अ—मनी दशा! उन्मनी दशा! बे—मनी दशा! जहां मन न रह जाये!
मन केवल भ्रांति है, धारणा है, ऐसी ही झूठ है जैसे यह मकान और तुम कहो 'मेरा'! मकान सच है, तुम सच हो; मगर यह 'मेरा'बिलकुल झूठ है; क्योंकि तुम नहीं थे तब भी मकान था और तुम कल नहीं हो जाओगे तब भी मकान रहेगा। और ध्यान रखना, जब तुम मरोगे तब मकान रोयेगा नहीं कि मालिक मर गया। मकान को पता ही नहीं है कि बीच में आप नाहक ही मालिक होने का शोरगुल मचा दिए थे। मकान ने सुना ही नहीं है। तुम नहीं थे, धन यहीं था। तुम नहीं रहोगे, धन यहीं रह जायेगा। सब ठाठ पड़ा रह जायेगा जब लाद चलेगा बनजारा! तो जो पड़ा जायेगा, उस पर तुम्हारा दावा झूठ है। इसलिए तो हिंदू कहते हैं : सबै भूमि गोपाल की! वह जो सब है, परमात्मा का है; मेरा कुछ भी नहीं। जिसने ऐसा जाना कि सब परमात्मा का है, मेरा कुछ भी नहीं, उसका मन चला गया। मन बीमारी है। मन अस्तित्वगत नहीं है। मन केवल भ्रांति है। तुमने राह पर पड़ी रस्सी देखी और समझ लिया सांप और भागने लगे; कोई दीया ले आया और रस्सी रस्सी दिखाई पड़ गई और तुम हंसने लगे—बस मन ऐसा है। दीये से देख लो जरा—मन नहीं है। जैसे रस्सी में सांप दिख जाये, ऐसी मन की भ्रांति है। मन मान्यता है।
तो बुद्धपुरुषो को मन तो होता नहीं, इसलिए मानसिक दुख का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। मानसिक दुख तो उन्हीं को होता है जिनके पास जितना बड़ा मन होता है।
तुम देखो इसे, समझो। गरीब देशों में मानसिक बीमारी नहीं होती। गरीब देश में मनोवैज्ञानिक का कोई अस्तित्व ही नहीं है। जितना अमीर देश हो उतनी ही ज्यादा मनोवैज्ञानिकों की जरूरत है, मनोचिकित्सकों की जरूरत है। अमरीका में तो शरीर का डाक्टर धीरे— धीरे कम पड़ता जा रहा है और मन का डाक्टर बढ़ता जा रहा है। स्वाभाविक! क्योंकि मन बड़ा हो गया है। धन फैल गया।’मेरे' का भाव फैल गया। आज अमरीका में जैसी समृद्धि है वैसी कभी जमीन पर किसी देश में नहीं थी। उस समृद्धि के कारण मन बड़ा हो गया है। मन बड़ा हो गया है तो मन की बीमारी बड़ी हो गई है। तो आज तो हालत ऐसी है कि करीब चार में से तीन आदमी मानसिक रूप से किसी न किसी प्रकार से रुग्ण हैं। चौथा भी संदिग्ध है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि तीन का तो पक्का है कि चार में से तीन थोड़े अस्तव्यस्त हैं; चौथा भी संदिग्ध है, पक्का नहीं। सच तो यह है कि मनोवैज्ञानिक का भी कोई पक्का नहीं है कि वह खुद भी.। मैं जानता हूं अनुभव से, क्योंकि मेरे पास जितने मनोवैज्ञानिक संन्यासी हुए हैं उतना कोई दूसरा नहीं हुआ है। मेरे पास जिस व्यवसाय से अधिकतम लोग आये हैं संन्यास लेने, वह मनोवैज्ञानिकों का है—थिरैपिस्ट का, मनोविद, मनोचिकित्सकों का। और उनको मैं जानता हूं। उनकी तकलीफ है, भारी तकलीफ है। वे दूसरे की सहायता करने की कोशिश कर रहे हैं। डूबता डूबते को बचाने की कोशिश कर रहा है। वह शायद अपने — आप बच भी जाता, इन सज्जन के सत्संग में और डूबेगा। ऐसा कभी—कभी हो जाता है। कभी—कभी करुणा भी बड़ी महंगी पड़ जाती है।
मैं एक नदी के किनारे बैठा था। सांझ का वक्त था और एक आदमी वहा कुछ चने खा रहा था मछलियों को। हम दोनों ही थे और एक लड़का किनारे पर ही तैर रहा था। वह जरा दूर निकल गया और चिल्लाया कि मरा, डूबने लगा! तो वह जो आदमी चने खा रहा था, एकदम छलांग लगा कर कूद गया। इसके पहले कि मैं कूदू वह कूद गया। मैंने कहा, जब वह कूद गया तब ठीक है। मगर कूद कर ही वह चिल्लाने लगा कि बचाओ —बचाओ! तो मैं बड़ा हैरान हुआ। मैंने कहा, मामला क्या है? उसने कहा कि मुझे तैरना आता ही नहीं। और एक झंझट खड़ी हो गई—उन दो को बचाना पड़ा। अब यह सज्जन अगर उस बच्चे को बचाने. जब मैं निकाल कर उनको किसी तरह बाहर ले आया तो मैंने पूछा कि कुछ होश से चलते हो, जब तुम्हें तैरना ही नहीं आता..! तो उन्होंने कहा, याद ही न रही। जब वह बच्चा डूबने लगा तो यह मैं भूल ही गया कि मुझे तैरना नहीं आता। यह मामला इतनी जल्दी हो गया। डूबते देख कर कूद पड़ा बस।
पर कूदने के पहले यह तो सोच लेना चाहिए कि तुम्हें तैरना आता है!
पश्चिम में मन विक्षिप्त हुआ जा रहा है। जरूरत! बहुत—से लोग डूब रहे हैं, मन की बीमारी में डूब रहे हैं। बहुत—से लोग उन्हें बचाने की कोशिश कर रहे हैं। मैं बड़े से बड़े मनोवैज्ञानिकों का जीवन बहुत गौर से देखता रहा हूं, मैं बहुत हैरान हुआ हूं! खुद सिग्मंड फ्रायड मानसिक रूप से रुग्ण मालूम होता है, स्वस्थ नहीं मालूम होता। जन्मदाता मनोविज्ञान का! कुछ चीजों से तो वह इतना घबडाता था कि अगर कोई किसी की मौत की बात कर दे तो वह कैंपने लगता था। यह कोई बात हुई! अगर कोई कह दे कि कोई मर गया.. उसने कई दफा चेष्टा करके अपने को सम्हालने की कोशिश की, मगर नहीं, दो दफे तो वह बेहोश हो गया। यह बात ही कि कोई मर गया कि वह घबड़ा जाये! मौत इतना डराये तो मन बड़ा रुग्ण है।
सच तो यह है कि यह कहना कि मन रुग्ण है, ठीक नहीं; मन ही रोग है। फिर जितना मन फैलता है। आज अमरीका में मन का खूब फैलाव है। धन के साथ मन फैलता है। इसलिए तो मन धन चाहता है। धन फैलाव का ढंग है। धन मन की माग है कि मुझे फैलाओ, मुझे बड़ा करो, गुब्बारा बनाओ मेरा, भरे जाओ हवा, बड़े से बड़ा करो! फिर बड़ा करने से जैसे गुब्बारा एक सीमा पर जा कर टूटता है, वैसा मन भी टूटता है। वही विक्षिप्तता है। तुम बड़ा किए चले जाते हो, बड़ा किए चले जाते हो, एक घड़ी आती है कि गुब्बारा टूटता है।
इसलिए मैं कहता हूं कि बहुत धनिक समाज ही धार्मिक हो सकते हैं। जब गुब्बारा टूटने लगता
है, तब आदमी सोचता है कि कहीं कुछ और सत्य होगा, जिसे हमने सत्य माना था वह तो फूट गया, कि वह तो पानी का बुलबुला सिद्ध हुआ।
बुद्धपुरुष के पास तो कोई मन नहीं है, क्योंकि बुद्धपुरुष के पास 'मेरा' नहीं, 'तेरा' नहीं, 'मैं' नहीं, 'तू नहीं। रस ही बचा। द्वंद्व तो गया। द्वंद्व के साथ ही भीतर बटाव—कटाव भी चला गया।
मनोवैज्ञानिक सीजोफ्रेनिया की बात करते हैं—मनुष्य के भीतर दो खंड हो जाते हैं; जैसे दो व्यक्ति हो गये एक ही आदमी के भीतर। तुमने भी अनुभव किया होगा। अधिक लोग सीजोफ्रेनिक हैं दुनिया में। तुमने कई दफे अनुभव किया होगा। तुम्हारी पत्नी बिलकुल ठीक से बात कर रही थी, सब मामला ठीक था, जरा तुमने कुछ कह दिया—कुछ ऐसा जो उसे न जंचा—बस बात बदल गई। अभी क्षण भर पहले तक बिलकुल लक्ष्मी थी, अब एकदम दुर्गा का रूप ले लिया, महाकाली हो गई! अब वह चाहती है कि तुम्हारी छाती पर नाचे; जैसे कि शिव की छाती पर महाकाली नाच रही है! तुम चौंकते हो कि जरा—सी बात थी, इतनी जल्दी कैसे रूपांतरण हुआ! यह महाकाली भी छिपी है। यह दूसरा हिस्सा है।
मित्र से सब ठीक चल रहा है, जरा—सी कोई बात हो जाये कि सब मैत्री दो कौड़ी में गई। जन्म—जन्म की मेहनत व्यर्थ गई। जरा—सी बात और दुश्मनी हो गई। जो तुम्हारे लिए मरने को राजी था, वह तुम्हें मारने को राजी हो जाता है। यह सीजोफ्रेनिया है। आदमी का कोई भरोसा नहीं, क्योंकि आदमी एक आदमी नहीं है; भीतर कई आदमी भरे पड़े हैं, भीड़ है।
मन तो एक भीड़ है। तुम बहुत आदमी हो। इस भीड़ का कोई भरोसा नहीं। सुबह तुम कहते हो, आपसे मुझे बड़ा प्रेम है। भरोसा मत करना। शाम को ये ही सज्जन जूता मारने आ जायें! भरोसा मत करना। और ऐसा नहीं कि अभी जो ये कह रहे हैं तो धोखा दे रहे हैं, अभी भी पूरे मन से कह रहे हैं और सांझ भी जूता मारेंगे तो पूरे मन से मारेंगे।
तुम जिसको प्रेम करते हो उसी को घृणा करते हो। और तुमने कभी खयाल नहीं किया कि यह मामला क्या है! जिस पत्नी के बिना तुम जी नहीं सकते, उसके साथ जी रहे हो! उसके बिना भी नहीं जी सकते हो, मायके चली जाती है तो बड़े सपने आने लगते हैं! एकदम सुंदर पत्र लिखने लगते हो। पति ऐसे पत्र लिखते हैं मायके गई पत्नी को कि उसको भी धोखा आ जाता है; सोचने लगती है कि यही आदमी है जिसके साथ मैं रहती हूं! लौट कर धोखा टूटेगा। लौट कर आयेगी तो बस पता चलेगा कि ये तो वही के वही सज्जन हैं जिनको छोड़ कर गई थी। ये एकदम कवि हो गये थे, रूमानी हो गये थे, आकाश में उडे जा रहे थे! और ऐसा नहीं कि ये कोई झूठ लिख रहे थे, पत्र जब लिख रहे थे तो सच ही लिख रहे थे। वह भी मन का एक हिस्सा था। पत्नी के आते ही से वह हिस्सा विदा हो जायेगा, दूसरे हिस्से प्रगट हो जायेंगे।
जिससे प्रेम है उसी से घृणा भी चल रही है। जिससे मित्रता है उसी से शत्रुता भी बनी है। ऐसा द्वंद्व है। इस द्वंद्व में आदमी दुखी है। और इन द्वंद्वों को समेट कर चलने में बड़ी मुसीबत है। इसीलिए तो तुम इतने परेशान हो। ऐसा कचरा—कूड़ा सब सम्हाल कर चलना पड़ रहा है। एक घोड़ा इस तरफ जा रहा है, एक घोड़ा उस तरफ जा रहा है। कोई पीछे खींच रहा है, कोई आगे खींच रहा है। कोई टांग खींच रहा है, कोई हाथ खींच रहा है। बड़ी फजीहत है। इस बीच तुम कैसे अपने को सम्हाले चले जा रहे हो, यही आश्चर्य है!
सिग्मंड फ्रायड ने लिखा है कि आदमी, सभी आदमी, पागल क्यों नहीं हैं—यह आश्चर्य है! होने चाहिए सभी पागल। अगर देखें आदमी के मन की हालत तो होने चाहिए सभी पागल। कुछ लोग कैसे अपने को सम्हाले हैं और पागल नहीं हैं; यह चमत्कार है।
बुद्धपुरुषों के पास कोई मन नहीं है, इसलिए मानसिक पीड़ा का कोई कारण नहीं।
तीसरा प्रश्न :