कौन से दो मार्ग हैं परमात्मा तक जाने के?
दो मार्ग हैं परमात्मा तक जाने के। एक मार्ग है, ध्यान। ध्यान का अर्थ है, जागो। जो जागेगा वह प्रेम करने लगेगा। जागा हुआ आदमी घृणा नहीं कर सकता क्योंकि जागे हुए आदमी को दिखाई पड़ता है, सब एक है। मैं ही हूं। यहां किसी को चोट पहुंचाना अपने ही गाल पर चांटा मारना है। यहां किसी को दुःख देना अपने को ही दुःख देना है। जागे हुए पुरुष को दिखाई पड़ता है, एक का ही विस्तार है, एक ही परमात्मा सबमें छाया है।तब प्रेम अपने आप पैदा होता है।
दूसरा रास्ता है प्रेम का। प्रेम करो और तुम जाग जाओगे क्योंकि प्रेमी सो नहीं सकता। उसकी प्रतीक्षा में पलक लगे कैसे? उसकी राह देखनी पड़ती है, कब आ जाए, किस क्षण आ जाए, किस द्वार से आ जाए, किस दिशा से आ जाए। प्रेम हिम्मत की बात है, दुस्साहस की बात है।
तुम पूछते हो, "प्रेम की इतनी महिमा है तो फिर मैं प्रेम करने से डरता क्यों हूं?' इसीलिए डरते हो। महिमा का तुम्हें थोड़ा—थोड़ा बोध होने लगा है। आकर्षण पैदा हो रहा है, कशिश पैदा हो रही है। प्रेम पुकार दे रहा है। और अब भय पकड़ रहा है। अच्छे लक्षण हैं, भय की मानकर रुकना मत। भय के बावजूद प्रेम की पुकार सुनना और प्रेम के स्वर को पकड़कर चल पड़ना।
प्रेम परमात्मा का आयाम है। निकटतम कोई मार्ग अगर परमात्मा के पास ले जानेवाला है तो प्रेम है।
ध्यान का मार्ग लंबा है और रूखा—सूखा है; मरुस्थल जैसा है। प्रेम का मार्ग बहुत हरा—भरा है। प्रेम के मार्ग पर गंगा बहती है, मरुस्थल नहीं है। छोड़ो अपनी नौका गंगा में। भय तो पकड़ता है। जब भी कोई नई यात्रा को निकलता है, नए अभियान को, अज्ञात अनजान की खोज में, भय स्वाभाविक है। लेकिन स्वाभाविक भय का अर्थ यह नहीं है कि उसके कारण रुको।
प्रेम की इतनी महिमा है तो फिर हम प्रेम करने से क्यों डरते है?-
10 FACTS;-
इसीलिए, क्योंकि इतनी महिमा है। और तुम्हारे संस्कार तुम्हें इतनी महिमा तक जाने से रोकते हैं। प्रेम विराट है और तुम्हारे संस्कारों ने तुम्हें क्षुद्र बनाया है, छोटा बनाया है, ओछा बनाया है। प्रेम भोग है और तुम्हारे संस्कारों ने तुम्हें त्याग सिखाया है। प्रेम आनंद है और तुम्हारे संस्कार कहते हैं, उदासीन हो जाओ। प्रेम रस है और तुम्हारे संस्कार रस—विपरीत हैं इसलिए तुम भयभीत होते हो।
और फिर तुम इसलिए भी भयभीत होते हो कि प्रेम के रास्ते पर अहंकार की आहुति देनी होती है। अपने सिर को काटकर चढ़ाना होता है। अपने को खाना होता है। जैसे बूंद सागर में गिरे, ऐसे प्रेम के सागर में गिरना होता है।
फिर भय लगता है कि प्रेम इतना विराट है, इतना बड़ा आकाश! और तुम पिंजरे में रहने के आदी हो गए हो। तुमने देखा कभी? पिंजरे में बंद पक्षी को अगर तुम दरवाजा भी खोल दो तो बाहर नहीं निकलता।
मैंने तो सुना है, एक सराय में एक आदमी एक रात मेहमान हुआ। कवि था। और दिन भर सुबह से उसने सुना, तोता एक, बड़ा प्यारा तोता बंद है; सराय के दरवाजे पर लटका है। और दिनभर चिल्लाता है, "स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!' कवि को बड़ी बात जंची। कवि था, उसके हृदय में भी स्वतंत्रता का मूल्य था। उसने सोचा, हद हो गई! मैंने तोते बहुत देखे; कोई कहता, राम—राम, कोई कुछ जपता, कोई कुछ, मगर स्वतंत्रता की याद करनेवाला तोता पहली दफा देखा।
इतना भावाभिभूत हो गया कि रात जब सब सो गए दूसरे दिन तो वह उठा और उसने पिंजरा खोल दिया उसका और कहा, "प्यारे, उड़ जा। अब रुक मत।' मगर तोता उड़ा नहीं। पिंजरे के सींखचों को पकड़कर रुक गया। कवि के हृदय में बड़ी दया आ गई थी। स्वतंत्रता का ऐसा प्रेमी! उसने हाथ डालकर तोते को बाहर निकालना चाहा तो तोते ने चोंचें मारीं उसके हाथ में, लहूलुहान कर दिया। वह निकलना नहीं चाहता।
मगर कवि तो कवि होते हैं। पागल तो पागल हैं! उसने तो निकाल ही दिया तोते को, चाहे चोट मारता रहा तोता, चिल्लाता रहा। और मजा यह था, चोटें मार रहा था, बाहर निकलता नहीं था, सींखचे पकड़े था और चिल्ला रहा था, "स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!' मगर कवि ने भी निकालकर..... उसकी एक न सुनी "स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता।' निकालकर उसको स्वतंत्र कर ही दिया। निश्चिंत आकर सो गया कवि अपने कमरे में। हृदय का भार हलका हो गया। लेकिन सुबह जब उसकी आंख खुली, तोता पिंजरे में बैठा था। वह दरवाजा बंद करना पिंजरे का रात भूल गया। तोता फिर वापिस आ गया था और सुबह से फिर रट लगा रहा था। और पिंजरे का द्वार खुला था। रट लगा रहा था, "स्वतंत्रता! स्वतंत्रता! स्वतंत्रता!'
ऐसी तुम्हारी दशा है। तुम प्रेम की मांग भी करते हो मगर पिंजरे में तुम्हारी रहने की आदत भी हो गई है। तुम प्रार्थना की मांग भी करते हो मगर बस तोतों की तरह रट रहे हो। यह वास्तविक तुम्हारे प्राणों की प्यास हो तो अभी घटना घट जाए।
प्रेम खतरनाक मार्ग है। अपने को गंवाना पड़ता है तब कोई प्रेम को पाता है। इतनी कीमत चुकानी पड़ती है। सस्ता सौदा नहीं है, महंगा सौदा है। अपने को खोने की तैयारी चाहिए। जब इतनी तैयारी हो——
जब इतनी तैयारी हो तो प्रेम और उसकी महिमा का स्वाद मिलना शुरू होता है।
फिर प्रेम रुलाता भी बहुत है। क्योंकि आज तुम प्रेम करोगे तो आज थोड़े ही प्रेमी मिल जाएगा! लंबी विरह की रात्रि आएगी तब मिलन की सुबह होती है। विरह की रात्रि का भी डर होता है। इसलिए लोग प्रेम करने से घबड़ाते हैं कि कौन विरह को सहेगा! समझदार आदमी इस तरह की बातों में पड़ते ही नहीं। क्योंकि उसमें पीड़ा है।
न मालूम कितनी रातों यहीं रोना पड़ेगा——कि उसी के हो गए हम जो न हो सका हमारा। तुमने चाहा और प्रेम उसी वक्त थोड़े ही घट जाता है! प्रेम परीक्षाएं मांगता है, कसौटियां मांगता है। प्रेम की विरह की अग्नि से गुजरना पड़ता है तभी तुम योग्य के लिए पात्र हो पाते हो;तभी तुम प्रेम को पाने के अधिकारी हो जाते हो।
यह पागलपन नहीं तो और क्या है? पागलपन मालूम होता है प्रेम।
समझदार बच जाते हैं, इस पागलपन की तरफ नहीं जाते। समझदार धन कमाते हैं, प्रेम नहीं। समझदार दिल्ली की यात्रा करते हैं, प्रेम की नहीं। समझदार और सब करते हैं, प्रेम से बचते हैं क्योंकि प्रेम पागलपन है। और पागलपन है ही। बुद्धि की सब सीमाओं को तोड़कर, बुद्धि की सारी व्यवस्थाओं को तोड़कर प्रेम उमगता है। इसलिए तुम डरते होओगे। विचारशील आदमी होओगे।
प्रेमी को न जाने कितनी बार मरना पड़ता है ? बार—बार मरना पड़ता है, हर बार मरना पड़ता है। हर बार विरह जब घेरती है, मौत घटती है। इंच—इंच मरना पड़ता है।
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता——एक बार मर जाता तो भी कोई बात थी। मरते हैं, मरते हैं। जी भी नहीं पाते, मर भी नहीं पाते। प्रेमी की बड़ी फांसी लग जाती है। प्रेम फांसी है; मगर फांसी के बाद ही सिंहासन है। याद करो जीसस की कहानी। सूली लगी, और सूली के बाद ही पुनरुज्जीवन। प्रेम सूली है।
और जिसने प्रेम नहीं जाना उसे भक्ति से तो मिलना कैसे हो पाएगा? प्रेम भक्ति का बीज है। भक्ति प्रेम का फूल है। प्रेम ही प्रगाढ़ होते—होते एक दिन भक्ति बनता है। जो प्रेम से वंचित रह गया, वह भक्ति से वंचित रह जाएगा। और अगर भक्ति करेगा तो उसकी भक्ति थोथी होगी, औपचारिक होगी, क्रियाकांड होगी, पाखंड होगी, दिखावा होगी, धोखा होगी।
बहुत बार ऐसा लगेगा कि कहां बैठा हूं, किसकी राह देख रहा हूं? न कोई आता, न कोई जाता। कहीं ऐसा तो नहीं है एक ऐसी राह पर बैठा हूं जहां से परमात्मा का निकलना होने ही वाला नहीं है ! जहां से प्रेमी गुजरेगा ही नहीं!
कभी तुझे गुजरते भी नहीं देखा। कभी तेरे पैरों की चाप भी नहीं सुनी। मैं कहीं ऐसा व्यर्थ बैठे—बैठे व्यर्थ ही तो नहीं हो जाऊंगा?
प्रेम बड़ी प्रतीक्षा मांगता है, बड़ा धीरज मांगता है। और जिनके पास धीरज की कमी है वे प्रेम के रास्ते पर नहीं जा सकते। और यहां तो सारे लोग जल्दी में हैं। अभी हो जाए कुछ, इसी वक्त हो जाए कुछ, मुफ्त में हो जाए कुछ, उधार हो जाए कुछ। न तो कोई कीमत चुकाने को राजी है, न कोई प्रतीक्षा करने को राजी है, न कोई विरह के आंसू गिराने को राजी है।
प्रेमी को तो कहना पड़ता है, अगर तेरा उपेक्षाभाव तेरी आदत है तो रहे तेरी आदत, सम्हाल तू अपनी आदत। हम भी धैर्य की आदत डालेंगे।
तू रख अपनी आदत बेपरवाही की। मतकर चिंता हमारी, मत ले खोज—खबर, मत देख हमारी तरफ। तू कर उपेक्षा जितनी कर सकता हो। हम अपने धीरज से तेरी उपेक्षा को हराएंगे।
लंबी यात्रा है विरह की, आंसुओं की। मगर जो हिम्मत कर लेता है, पूरी हो जाती है। और जिसे एक बार थोड़ा—सा भी स्वाद लग जाता है प्रेम का, फिर लौट नहीं पाता। फिर सिर गंवाना हो तो सिर गंवाता है। फिर जो गंवाना हो, गंवाने को राजी होता है।
एक बार उसकी दीवाल की छाया भी तुम पर पड़ जाए तो फिर चाहे जान रहे कि जाए, तुम उसके दीवाल के साए को छोड़कर जा न सकोगे।
तुम तो मंदिर भी हो आते हो, लौट आते हो। तुम्हारा मंदिर झूठा है। उसके मंदिर जाकर कोई कभी लौटा है? जो गया सो गया। जो गया सो उसके मंदिर का हिस्सा हो गया।
इतनी हिम्मत नहीं है इसलिए प्रेम की महिमा सुन लेते हो, बुद्धि से समझ भी लेते हो, फिर भी भीतर—भीतर डरे रहते हो।
कितनी बार जाना पड़ता है देखने द्वार पर कि कहीं प्रेमी आ तो नहीं गया? विरह की रात्रि में पत्ता भी खड़कता है तो गलता है, उसी का आगमन हो रहा है। हवा का झोंका आता है तो लगता है, उसी का आगमन हो रहा हैं। राह से कोई अजनबी गुजर जाता है तो लगता है, वही आ गया।
;;;;;;;;;
कैसे होती है प्रेम की वर्षा?-
प्रेम का तो पता चलना शुरू हो जाता है। प्रेम तो प्रकट होने लगता है। प्रेमी की चाल बदल जाती है, चलन बदल जाता है, उठना—बैठना बदल जाता है, भाव—भंगिमा बदल जाती है। प्रेम घटता है तो पता चलने ही लगता है। प्रेम को छुपाने का उपाय नहीं है।
परमात्मा को धन्यवाद दो। उसके अनुग्रह में झुको। और जितने अनुग्रह में झुको उतनी ही और प्रेम की वर्षा होगी।
जितने झुकोगे उतने जल्दी घड़ी आ जाएगी। जो बिल्कुल झुक गया उसकी घड़ी आ गई। जरा भी झुकोगे तो बूंदाबांदी शुरू हो जाएगी। अगर बिल्कुल झुक गए तो वह भी तुम पर झुक आता है। झुकि आयी बदरिया सावन की!
और जैसे—जैसे यह मस्ती छाएगी, वैसी—वैसी एक हैरानी की बात समझ में आएगी—— सर के लिए गफलत है। सर तो बेहोश होने लगेगा। दिल के लिए बेदारी——और दिल होश से भरने लगेगा। मस्तिष्क तो सोने लगेगा, खोने लगेगा, हृदय जागने लगेगा।
साधारणतः खोपड़ी जगी हुई है, हृदय सोया हुआ है। विचार, तर्क जगे हुए हैं, प्रेम सोया हुआ है। जैसे—जैसे कोई परमात्मा के अनुग्रह में डूबता है वैसे—वैसे बुद्धि तो सोने लगती है, हृदय जागने लगता है। हृदय के जागने को ही मैं श्रद्धा कहता हूं। बुद्धि तुम्हें विश्वास दे सकती है,श्रद्धा नहीं। श्रद्धा स्वाद है हृदय का।
जिससे सिर तो सो जाएगा और जिससे हृदय सदा के लिए जाग जाएगा। हृदय का जागरण जगत् में परमात्मा का अनुभव है।
उस क्षण के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। या कुछ ऐसी बातें कही जा सकती हैं -
स्वप्निल संगीत है ...इतना सूक्ष्म है कि स्वप्न जैसा मालूम होता है, सत्य नहीं मालूम होता। अनाहत का नाद ऐसा ही है।
खामोश कयामत है -सारा अस्तित्व ऐसा चुप है जैसे कयामत हो गई; जैसे सृष्टि का अंत हो गया; जैसे प्रलय आ चुकी, महाप्रलय घट गई।
और फिर भी जीवन में एक आनंद है, एक नृत्य है; जैसे गंगा नाचती हुई
सागर की तरफ चली हो।
वास्तव में , उस क्षण के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तालाब के पानी में बहता हो कंवल जैसे। मगर यह भी कुछ नहीं कहना है। हमारे सब प्रतीक छोटे ..ओछे पड़ जाते हैं।भाषा लंगड़ी हो जाती है। व्याकरण का दिवाला निकल जाता है। उस क्षण को तो जो जानता है, वही जानता है। लेकिन वह क्षण जिसके जीवन में आना शुरू हो जाता है उसके जीवन में परमात्मा ने प्रवेश शुरू किया। एक -एक किरण धीरे -धीरे घने सूरज बन जाते हैं। एक -एक बूंद सागर बन जाते हैं।
और उसकी अटरिया पर तो हम चढ़ ही रहे हैं।यह तो खयाल ही तब आता है जब सीढ़ियों पर पैर पड़ने लगते हैं। तब दो -दो सीढ़ियां एक साथ छलांग लगा जाने का मन होता है। उमंग में, उत्साह में, आनंद में। कोई होश नहीं रह जाता है चढ़ने का.. छलांगें लगती हैं, क्रम टूट जाते
हैं, छलांगें घटती हैं।नाचता हुआ, गीत गाता हुआ, परम आनंद में लीन।