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'भागो मत, जागो! साक्षी बनो!'


फ्रायड की सीमा थी वह पूरब से परिचित न था। वही सीमा मार्क्स की भी थी, वह भी पूरब से परिचित न था। दोनों ने धर्म—विरोधी वक्तव्य दिए। उनके धर्म—विरोधी वक्तव्यों का बहुत मूल्य नहीं है, क्योंकि वे अपरिचित लोगों के वक्तव्य हैं, वे परिचित लोगों के वक्तव्य नहीं हैं। उन्होंने कुछ जान कर नहीं कहा है; ऊपर—ऊपर से, जो सतही परिचय हो जाता है, उसके आधार पर कुछ कह दिया है। उन्होंने गहरी डुबकी न ली। वे पूरब की गहराई में उतर कर मोती न लाए। बुद्ध से उनका मिलन नहीं हुआ। लाओत्सु से साक्षात्कार नहीं हुआ। कृष्ण की बांसुरी उन्होंने नहीं सुनी। ये सीमाएं थीं, अन्यथा शायद फ्रायड उस सिंथीसिस को, उस परम समन्वय को भी उपलब्ध हो जाता, जो वीतरागता का है। पर जो बात उसने मृत्यु—एषणा के संबंध में कही, वह सच है। हम तो उसे जानते रहे हैं। हमने उसे मृत्यु—एषणा कभी नहीं कहा था, यह बात भी सच है। हमने उसे कहा था वैराग्य— भाव। मगर क्या अर्थ होता है वैराग्य—भाव का? अगर राग का अर्थ होता है : और जीने की इच्छा, तो वैराग्य का अर्थ होता है : अब और न जीने की इच्छा—बहुत हुआ, पर्याप्त हो गया, हम भर गए, अब हम विदा होना चाहते हैं। नहीं, आधुनिक मन की कोई विकृति नहीं है; आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति के द्वारा पुराने वैराग्य को नया नाम दिया गया है। शुभ है! मेरे लेखे, फ्रायड की मृत्यु—एषणा का गहन अध्ययन होना चाहिए! वह उपेक्षित है, उसका बहुत अध्ययन नहीं किया गया। जैसे हम मृत्यु की उपेक्षा करते हैं, वैसे ही हमने मृत्यु—एषणा के सिद्धात की भी उपेक्षा की है। तो फ्रायड के लिबिडो, कामवासना का तो खूब अध्ययन हुआ है, बड़ी किताबें लिखी जाती हैं; लेकिन मृत्यु—एषणा का बहुत कम अध्ययन हुआ है। बड़ी मूल्यवान खोज है वह, और जीवन के अंतिम परिपक्व दिनों में उसने दी है—इसलिए मूल्य और भी गहन हो जाता है। इतना ही स्मरण रखो कि जीवन में सब चीजें द्वंद्व हैं। द्वंद्व से चलता है जीवन। जिस दिन तुम द्वंद्व से जाग गए, जीवन रुक जाता है। जिस दिन तुम द्वंद्व से जागे, निर्द्वंद्व हुए, तब तुम भी कहोगे जनक जैसे : आश्चर्य कि मैं इतनी बार जन्मा और कभी नहीं जन्मा, और इतनी बार मरा और कभी नहीं मरा! आश्चर्य! मुझको मेरा नमस्कार! इतने जन्म, इतनी मृत्युएं आईं और गईं और कोई रेखा भी मुझ पर नहीं छोड़ गईं! इतने पुण्य इतने पाप, इतने व्यवसाय इतने व्यापार, आए और गए और सपनों की तरह चले गए, पीछे पदचिह्न भी नहीं छोड़ गए! आश्चर्य मेरी इस आत्यंतिक शुद्धता का! आश्चर्य मेरे इस क्वांरेपन का। धन्यभाग! मेरा मुझको नमस्कार! ऐसा किसी दिन तुम्हारे भीतर भी, तुम्हारे अंतरतम में भी उठेगी सुगंध! लेकिन ध्यान रखना, आना है निर्द्वंद्व पर। जहां तुम्हें द्वंद्व दिखाई पड़े, वहीं साक्षी साधना। द्वंद्व को तुम सूचना मान लेना कि साक्षी साधने की घड़ी आ गई, जहा द्वंद्व दिखाई पड़े—प्रेम और घृणा—तो तुम चुनना मत, दोनों के साक्षी हो जाना। क्रोध और दया—तो तुम चुनना मत, दोनों के साक्षी हो जाना। स्त्री और पुरुष—तो तुम चुनना मत, दोनों के साक्षी हो जाना। सम्मान—अपमान— चुनना मत, दोनों के साक्षी हो जाना। सुख—दुख—साक्षी हो जाना। जहां तुम्हें द्वंद्व दिखाई पड़े, वहीं साक्षी हो जाना।

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'भागो मत, जागो! साक्षी बनो!' लेकिन नौकरी के बीच रिश्वत से और रिश्तेदारों के बीच मांस—मदिरा से भागने का मन होता है। साक्षी बने बिना कोयले की खान में रहने से कालिख तो लगेगी ही। हमें समझाने की मेहरबानी करें!

जब मैं तुमसे कहता हूं? साक्षी बनो, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं तुमसे कहता हूं कि तुम जैसे हो वैसे ही बने रहोगे। साक्षी में रूपांतरण है। मैं तुमसे यह नहीं कह रहा हूं कि साक्षी बनोगे तो तुम बदलोगे नहीं। साक्षी तो बदलने का सूत्र है। तुम साक्षी बनोगे तो बदलाहट तो होने ही वाली है। लेकिन वह बदलाहट भगोड़े की न होगी, जागरूक व्यक्ति की होगी।

समझो। तुम डर कर रिश्वत छोड़ दो, क्योंकि धर्मशास्त्र कहते हैं : 'नरक में सडोगे अगर रिश्वत ली। स्वर्ग के मजे न मिलेंगे अगर रिश्वत ली। चूकोगे अगर रिश्वत ली।’ इस भय और लोभ के कारण तुम रिश्वत छोड़ देते हो—यह भगोड़ापन है। और जिस कारण से तुम रिश्वत छोड़ रहे हो, वह कुछ रिश्वत से बड़ा नहीं है। वह भी रिश्वत है। वह तुम स्वर्ग में जाने की रिश्वत दे रहे हो कि चलो, यहां छोड़े देते हैं, वहां प्रवेश दिलवा देना। तुम परमात्मा से कह रहे हो कि देखो तुम्हारे लिए यहां हमने इतना किया, तुम हमारा खयाल रखना। रिश्वत का और क्या मतलब है?... कि हम तुम्हारी प्रार्थना करते हैं।

तुमने देखा, भक्त जाता है मंदिर में, स्तुति करता स्तुति यानी रिश्वत।’स्तुति' शब्द भी बड़ा महत्वपूर्ण है। इसका मतलब होता है. खुशामद। स्तुति करता है कि तुम महान हो और हम तो दीन—हीन, और तुम पतितपावन और हम तो पापी! अपने को छोटा करके दिखाता है,उनको बड़ा करके दिखाता है। यह तुम किसको धोखा दे रहे हो? यही तो ढंग है खुशामद का। इसी तरह तो तुम राजनेता के पास जाते हो और उसको फुलाते हो कि 'तुम महान हो, कि आपके बाद देश का क्या होगा! अंधकार ही अंधकार है!' पहले उसे फुलाते हो और अपने को कहते हो, 'हम तो चरण—रज हैं, आपके सेवक हैं।’ जब वह खूब फूल जाता है, तब तुम अपना निवेदन प्रस्तुत करते हो। फिर वह इनकार नहीं कर सकता,क्योंकि इतने महान व्यक्ति से इनकार निकले, यह बात जंचती नहीं। मजबूरी में उसे स्वीकार करना पड़ता है। तुम सीधे जा कर मांग खड़ी कर देते, निकलवा देता दरवाजे के बाहर। खुशामद राजी कर लेती है। तुम परमात्मा के साथ भी वही कर रहे हो।

नहीं, यह कुछ रिश्वत से बेहतर नहीं है। यह रिश्वत ही है। यह एक बड़े पैमाने पर रिश्वत है।

यह तो मेरा आदेश नहीं। मैं तुमसे कहता हूं जागो! मैं तुमसे यह नहीं कहता कि रिश्वत लेने से नरक में पड़ोगे, क्योंकि कुछ पक्का नहीं है। अगर रिश्वत चलती है तो वहा भी चलती होगी। अगर ठीक से रिश्वत दे पाये तो वहां भी बच जाओगे। अगर शैतान की जेब गरम कर दी तो तुम पर जरा नजर रखेगा; जरा कम जलते कढाए में डालेगा। या तुम्हें कुछ ऐसे काम में लगा देगा कि तुम. .कढाए में डालने के लिए भी तो लोगों की जरूरत पड़ती होगी.. तुम्हें स्वयं सेवक बना देगा कि तुम चलो, यह काम करो। और पक्का नहीं है कुछ, स्वर्ग के दरवाजे पर भी कोई नहीं जानता कि रिश्वत चलती हो। क्योंकि जो यहां है सो वहा है। जैसा यहां है वैसा वहां है।

इजिप्त का पुराना सूत्र है. 'एज अबव सो बिलो।’ जैसा ऊपर वैसा नीचे। मैं कहता हूं. जैसा नीचे वैसा ऊपर। क्योंकि एक ही तो अस्तित्व है। यह एक ही अस्तित्व का फैलाव है। तो मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम रिश्वत इसीलिए छोड़ दो कि नरक में न जाओ। अगर नरक में न ही जाना हो तो मैं मानता हूं कि तुम रिश्वत का अभ्यास जारी रखो, काम पड़ेगा। अगर स्वर्ग में जाने का पक्का ही कर लिया हो तो खूब पुण्य के सिक्के इकट्ठे कर लो, वे काम पड़ेंगे।

और तुम्हारे देवी—देवता कुछ बहुत अच्छी हालत में मालूम नहीं होते। तुम अपने पुराण पढ़ कर देख लो, तो इनसे कुछ ऐसी तुम आशा करते हो कि ये कोई साधु—महात्मा हैं, ऐसा मालूम नहीं पड़ता। तुम देखते हो, जरा कोई महात्मा महात्मापन में बढ़ने लगता है, इंद्र का सिंहासन कैपने लगता है! यह भी बड़े मजे की बात है। यह इंद्र को इतनी घबड़ाहट होने लगती है। यहां भी प्रतिस्पर्धा है। यहां भी डर है कि दूसरा प्रतियोगी आ रहा है, कि ये चले आ रहे हैं जयप्रकाश नारायण, घबड़ाहट है! उपद्रव है! जैसा यहां है वैसा वहां मालूम पड़ता है। तपस्वी ध्यान कर रहे हैं, इंद्र घबड़ा रहे हैं। और देवताओं के बीच बड़े उपद्रव हैं। कोई किसी की पत्नी ले कर भाग जाता है, कोई किसी को धोखा दे देता है। यहां तक कि देवता आ कर जमीन पर दूसरों की पत्नियों के साथ संभोग कर जाते हैं; ऋषि—मुनियों की पत्नियों को दगा दे जाते हैं। वे बेचारे ध्यान इत्यादि कर रहे हैं, अपनी माला जप रहे हैं। इन पर तो दया करो! इनका तो कुछ खयाल करो। मगर नहीं, कोई इसकी चिंता नहीं है।

तुम अपने पुराण पढ़ो तो तुम पाओगे तुमसे भिन्न तुम्हारे देवता नहीं हैं। तुम्हारा ही विस्तार हैं। तुम्हीं को जैसे और बड़े रूप में पैदा किया गया हो। तुम्हारी जितनी वृत्तियां हैं, सब मौजूद हैं। कोई वृत्ति कम नहीं हो गई है। धन के लिए लोलुप हैं, पद के लिए लोलुप हैं,वासनाओं से भरे है—अब और क्या चाहिए! और क्या फर्क होने वाला है!

तो अगर तुम डर कर ही भाग रहे हो तो मैं कहता हूं तुम बड़ी मुश्किल में पड़ोगे। तुम यहां भी चूकोगे, वहा भी चूकोगे। डर कर भागने को मैं नहीं कहता। मैं तो तुमसे कहता हूं : रिश्वत में दुख है। फर्क समझ लेना। नरक मिलेगा, ऐसा नहीं—नरक मिलता है अभी, यहीं। चोरी में दुख है। मैं यह नहीं कहता कि चोरी के फल में दुख मिलेगा। चोरी में दुख है। वह चोर हो जाने में ही पीड़ा है, आत्मग्लानि है, कष्ट है, अग्नि है। कहीं कढ़ाए कोई जल रहे हैं, जिनमें तुम्हें फेंका जायेगा—ऐसा नहीं। चोरी करने में ही तुम अपना कढ़ाहा खुद जला लेते हो। अपनी ही चोरी की आग में खुद जलते हो। झूठ बोलते हो, तुम्हीं पीड़ा पाते हो।

तुमने खयाल नहीं किया कि जब सत्य बोलते हो तो फूल जैसे खिल जाते हो! जब झूठ बोलते हो तो कैसी कालकोठरी में बंद हो जाते हो! एक झूठ बोलो तो दस बोलने पड़ते हैं। फिर एक को बचाने के लिए दूसरा, दूसरे को बचाने के लिए तीसरा—एक सिलसिला है, जिसका फिर कोई अंत नहीं होता।

सच के साथ एक मजा है। सत्य बांझ है, उसकी संतति नहीं होती। सत्य पहले से ही बर्थकंट्रोल कर रहा है। एक दफा बोल दिया, मामला खत्म। उनकी कोई पैदाइश नहीं है कि फिर उनके बच्चे और उनके बच्चे! झूठ बिलकुल हिंदुस्तानी है, लाइन लगा देता है बच्चों की! और बाप पैदा कर रहा है और उनके बेटे भी पैदा करने लगते हैं और उनके बेटे भी पैदा करने लगते हैं—और एक संयुक्त परिवार है झूठ का, उसमें काफी लोग रहते हैं। और एक झूठ दूसरे झूठ को ले आता है। तुम जब झूठ से घिरते हो तो निकलना मुश्किल हो जाता है।

तुम खयाल करना, देखना, एक झूठ दूसरे में ले जाता है। और पहला झूठ छोटा होता है, दूसरा और बड़ा चाहिए; क्योंकि बचाने के लिए बड़ा झूठ चाहिए। फिर झूठ बड़ा होता जाता है। तुम दबते जाते हो झूठ के पहाड़ के नीचे। तुम सड़ने लगते हो।

तुम क्रोध करके देखो। जब तुम प्रेम करते हो तब तुम्हारे भीतर एक सुवास उठती है, एक संगीत! कोई पायल बज उठती है! क्षण भर को तुम स्वर्ग में होते हो। जब तुम क्रोध करते हो, तुम नर्क में गिर जाते हो।

मैं तुमसे कहता हूं कि स्वर्ग और नर्क कहीं भौगोलिक अवस्थाएं नहीं हैं। स्वर्ग और नर्क तुम्हारे चित्त की दशायें हैं। प्रतिक्षण तुम स्वर्ग और नर्क के बीच डोलते हो, जैसे घड़ी का पेंडुलम डोलता है। मैं कहता हूं साक्षी बनो, भगोड़े नहीं। भगोड़े में तो लोभ, मोह, भय। भगोड़ा यानी भय से जो भागा। साक्षी का मतलब है : जो बोध में जागा। तुम जाग कर देखो। फिर जो जाग कर देखने में सुंदर, सत्य, शिवम, जो प्रीतिकर,आह्लादकारी, रसपूर्ण लगे—स्वभावत: तुम उसे भोगोगे। और जो काटा चुभाये, दुख लाये, नर्क लाये, स्वभावत: तुम्हारे हाथ से गिरने लगेगा।

तुम पूछते हो कि 'आप कहते हैं भागो मत, जागो। साक्षी बनो। लेकिन नौकरी के बीच रिश्वत से और रिश्तेदारों के बीच मांस—मदिरा से भागने का मन होता है।’

भागने से क्या होगा? रिश्तेदार तुम्हारे हैं। तुम दूसरी जगह जा कर रिश्तेदार खोज लोगे। जाओगे कहां? तुम सोचते हो, तुम्हारे गांव में ही शराबी हैं! जिस गांव में जाओगे वहां शराबी हैं। एक नौकरी छोड़ोगे, दूसरी नौकरी पर जाओगे, वहां रिश्वत चल रही है। तुम भागोगे कहां? भागने से कुछ भी न होगा। जागो! कौन तुम्हें जबर्दस्ती शराब पिला रहा है? तुम जाग जाओ, तुम पीयोगे नहीं। तुम कभी नहीं कहते कि फलां आदमी नहीं माना, इसलिए जहर पी लिया। कि नहीं, वह बहुत आग्रह कर रहा था, इसलिए पी लिया। तुम जहर को जानते हो तो पीते नहीं। कोई कितने ही आग्रह करे, कोई कितनी ही खुशामद करे, तुम कहोगे : 'बंद करो बकवास! यह भी कोई बात हुई! जहर!' शराब अगर तुम्हें जागरण में जहर दिखाई पड़ गई तो कौन पीता है, कौन पिलाता है? शायद तुम्हारी मौजूदगी दूसरों के पीने में भी बाधा बन जाये। कोई तुम्हें पिला नहीं सकता। कोई उपाय नहीं है।

इस जगत में तुम जो हो, दूसरों पर जिम्मेदारी मत डालो। वह तरकीब है बचने की. 'क्या करें, रिश्तेदार मांस—मदिरा खाते हैं।’ नहीं, तुम खाना चाहते हो, रिश्तेदारों पर टाल रहे हो। तुम जागना नहीं चाहते; तुम कहते हो, मजबूरी है, करना पड़ता है!

लेकिन मैं तुमसे कहता हूं. इस दुनिया में कोई चीज तुम मजबूरी से नहीं कर रहे हो। तुम करना चाहते हो, इसलिए कर रहे हो। मजबूरी तो तरकीब है। वह तो तुम्हारा रैशनालाइजेशन है। वह तो तुम कहते हो : 'ऐसी स्थिति है, नहीं करेंगे तो कैसे चलेगा!' न चले, क्या करेंगे रिश्तेदार? तुम्हें निमंत्रण पर नहीं बुलायेंगे। अच्छा है। तुम सौभाग्यशाली! धन्यवाद दे देना कि बड़ी कृपा आपकी कि अब नहीं बुलाते।

रिश्वत न लोगे— थोड़ी गरीबी होगी, थोड़ी मुश्किल होगी—ठीक है। मैं तुमसे कह भी नहीं रहा कि तुम ईमानदार रहोगे तो छप्पर खोल कर परमात्मा तुम्हारे घर में धन बरसा देगा। और जो तुमसे ऐसा कहते हैं वे झूठे हैं। और वे तुम्हें धोखा देते हैं। और उनके कारण दुनिया में बड़ी बेईमानी है। मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं. 'हम ईमानदार हैं, लेकिन बेईमान मजा कर रहे हैं!' मैंने कहा : तुमसे कहा किसने कि ईमानदार मजा करेंगे? जिन्होंने कहा, उन्होंने तुम्हें धोखा दे दिया। वह मजे की बात ही तो बेईमान बनने का सूत्र है। बेईमान मजे कर रहे हैं! और तुम ईमानदार हो, तुम मजा नहीं कर रहे! मजा क्या है?

वे कहते हैं 'बेईमानों ने बड़ा मकान बना लिया।’ तो अगर बड़ा मकान बनाना है तो तुम बड़ा उपाय कर रहे हो। तुम बेईमानी की तकलीफ भी नहीं भोगना चाहते और बड़ा मकान भी बनाना चाहते हो —ईमानदार रह कर! ईमानदार हो तो मकान छोटा ही रहेगा।

लेकिन छोटे मकान के भी सुख हैं! बड़े मकान में ही सुख होते, यह तुमसे कहा किसने? तुमने बड़े मकान में रहते आदमी को सुखी देखा है? मुश्किल से देखोगे। बहुत धन में सुख होता है, ऐसा तुमसे कहा किसने? बड़े से बड़े सम्राट को सुख की नींद आती है? बड़े से बड़े धनी को शाति है? चैन है? नहीं, लेकिन तुम बाहर का रख—रखाव देखते हो। तुम्हारा दिल भी तो इन्हीं चीजों पर है कि 'मकान तो हमारे पास भी बड़ा हो, कार हमारे पास भी बड़ी हो, धन का अंबार लगे—और लग जाये ईमानदारी से और रिश्वत लेना न पड़े! और हम अपनी माला जपते, ध्यान भी करते रहें और ये सब चीजें भी साथ आ जायें!' तुम असंभव की मांग कर रहे हो। तो फिर बेईमान के साथ अन्याय हो जायेगा। बेचारा बेईमानी भी करे, बेईमानी की तकलीफ भी भोगे, बेईमानी का नरक भी झेले और बड़ा मकान भी न बना पाये! तुम ईमानदारी का भी मजा लो और बड़े मकान का भी—दोनों हाथ लट्टू! एक हाथ उसको भी लेने दो। वह काफी तकलीफ झेल रहा है। और जितनी तकलीफ झेल रहा है उतना उसको मिल नहीं रहा है, इतना मैं तुमसे कहे देता हूं। जो मिल रहा है वह कूड़ा—कर्कट है; तकलीफ वह बहुत बड़ी झेल रहा है; आत्मा बेच रहा है और कचरा इकट्ठा कर रहा है।

लेकिन तुम्हारी नजर भी कचरे पर लगी है। तुम कहते हो, 'देखो, उसके पास कचरे का कितना ढेर लग गया है! हमारे पास बिलकुल नहीं है। यहां कोई कचरा डालता ही नहीं है! हम बैठे रहते हैं सड़क के किनारे, यहां कोई कचरा डालता नहीं। बेईमानों के पास लोग कचरा डाल रहे हैं।’

नहीं, तुम्हारी नजर खराब है। तुम बेईमान हो। और कायर हो! तुम बेईमानी की हिम्मत भी नहीं करना चाहते और तुम, बेईमान को जो मिलता है बेईमानी से, वह भी पाना चाहते हो। तुम बिना दौड़े प्रतियोगिता में प्रथम आना चाहते हो। तुम कहते हो. 'देखो, हम तो बैठे हैं, फिर भी प्रथम नहीं आ रहे! और ये लोग दौड़ रहे हैं और प्रथम आ रहे हैं!' तो जो दौड़ेंगे, वे प्रथम आयेंगे, लेकिन दौड़ने की तकलीफ, दौड़ने की परेशानी, दौड़ने का पसीना, जद्दोजहद—वे झेलते हैं। तुम बैठे—बैठे प्रथम आना चाहते हो। तुम चाहते हो कि परमात्मा कोई चमत्कार करे। क्यों?क्योंकि तुमने रिश्वत नहीं ली है। रिश्वत लेना पाप हो, न लेना कोई पुण्य नहीं है। चोरी करना पाप हो, न करना कोई पुण्य नहीं है। इसको खयाल में रखो। इतने से कुछ नहीं होगा कि तुमने चोरी नहीं की। चोरी नहीं की तो ठीक है, तुम चोरी करने की तकलीफ से बच गये। और चोरी करने की तकलीफ से जो थोड़े —बहुत सुख का प्रलोभन मिलता है, आशा बंधती है, उससे भी तुम बच गये। तुम झंझट के बाहर रहे। बस इतना क्या कम है पु इतना फल क्या थोड़ा है?

मैं जब तुमसे कहता हूं जागो, तो मेरा मतलब यह है कि तुम जीवन की सारी स्थिति को आंख भर कर देखो। फिर उस देखने से ही क्रांति घटनी शुरू होती है। तुम देखते हो कि जो व्यर्थ है वह दुख देता है। अभी देता है, यहीं देता है, तत्‍क्षण देता है। धीरे— धीरे उस दुख से तुम्हारा छुटकारा होने लगता है। और जब तुम्हारे जीवन के सारे दुख खो जाते हैं तो सुख का सितार बजता है। सुख का सितार तो तुम्हारे भीतर बज ही रहा है। ये जो दुख के नगाड़े तुम बजा रहे हो, इनकी वजह से सितार सुनाई नहीं पड़ता; उसकी आवाज धीमी, बारीक है। सूक्ष्म रस तो बह ही रहा है, लेकिन तुम्हारे आसपास दुख के इत्ने परनाले बह रहे हैं, ऐसी बाढ़ आई है दुख की, कि वह जो रस की क्षीण धार है उसका पता नहीं चलता। वह जो एक किरण है परमात्मा की तुम्हारे भीतर, तुम्हारे कृत्य के अंधकार में खो गई है; तुम्हारे अहंकार की अंधेरी रात में दब गई है।

तुम जरा जागो तो तुम्हारे जीवन में क्रांति अपने— आप आ जायेगी। रिश्तेदार न छोड़ने पडेंगे और न नौकरी से भागना पड़ेगा। यह तो मैं पहली बात कहता हूं। लेकिन मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम्हारे जीवन में रूपांतरण न होगा। हो सकता है, साक्षी— भाव में जागने पर ऐसी स्थिति आ जाये कि तुम्हारा सारा प्राणपण से जंगल जाने का भाव उठे। वह भगोड़ापन नहीं है फिर।

मैं कहता हूं : सब भगोड़े जंगल पहुंच जाते हैं, लेकिन सब जंगल पहुंचने वाले भगोड़े नहीं हैं। कभी—कभी तो कोई सहज स्वभाव से जंगल जाता है। एक सहज आकांक्षा, कोई भगोड़ापन नहीं है।

जिंदगी से ऊब कर नहीं, डर कर नहीं, किसी पुण्य पुरस्कार के लिए नहीं—जंगल का आवाहन! वह जंगल की हरियाली किसी को बुलाती है! जंगल का रस किसी को खींचता है।

'कृष्ण मोहम्मद' यहां पीछे बैठे हैं। वे मिलानो में थे, बड़ी नौकरी पर थे, छोड़ कर आ गये। भगोड़े नहीं हैं, जीवन से भागे नहीं हैं। तो जब यहां आये तो जंगल जा रहे थे, इरादा था कि कहीं पंचगनी में दूर जा कर कुटी बना कर बैठ जायेंगे। इधर बीच में उन्हें मैं मिल गया तो मैंने कहा. 'कहां जाते हो?' तो वे राजी हो गये। भगोड़े होते तो राजी न होते। उन्होंने कहा. 'ठीक है, आप आज्ञा देते हैं तो यहीं रह जाऊंगा।’ भगोड़े में तो जिद्द होती है। शांति की तलाश थी। मैंने कहा. 'पंचगनी पर क्या होगा? मैं यहां मौजूद हूं इससे बड़ा पहाड़ तुम्हें मिलना मुश्किल है! तुम यहीं रुक जाओ! तुम्हारी कुटिया यहीं बना लो।’ एक बार भी 'ना' न कहा।’ही' भर दी कि ठीक, यहीं रुक जाते हैं। भागे नहीं हैं, लेकिन शांति की तरफ एक बुलावा आ गया है, एक निमंत्रण आ गया है—शात होना है!

तो मैं यह नहीं कहता कि तुम अगर शात हो जाओ, साक्षी बन जाओ, आनंद से भर जाओ तो जरूरी नहीं कह रहा हूं कि तुम रहोगे ही घर में। हो सकता है तुम चले जाओ; लेकिन उस जाने का गुणधर्म अलग होगा। तब तुम कहीं भाग नहीं रहे हो, कहीं जा रहे हो। फर्क समझ लो। भगोड़ा कहीं से भागता है। उसकी नजर, कहां जा रहा है, इस पर नहीं होती; कहां से जा रहा है, इस पर होती है। घर, परिवार, पत्नी, बच्चे—यह भगोड़ा है। लेकिन अगर तुम साक्षी हो तो कभी हिमालय की पुकार आती है। तब तुम हिमालय की तरफ जा रहे हो। तब एक अदम्य पुकार है, जिसे रोकना असंभव है। तब कोई खींचे लिए जा रहा है, तुम भाग नहीं रहे, कोई खींचे लिए जा रहा है। कोई सेतु जुड़ गया है। पुकार आ गई। स्वभाव से अगर तुम जाओ तो सौभाग्यशाली हो। भाग कर गये तो दुख पाओगे।

मैं तुमसे कहता हूं : अगर तुम कभी भाग जाओ और जंगल में बैठ जाओ झाडू के नीचे, तुम रास्ता देखोगे कि कोई आता ही नहीं। रिश्वत का रास्ता नहीं देखोगे; अब रास्ता देखोगे कि कोई भक्त आ जाये, पैर पर कुछ चढ़ा जाये। वह मतलब वही है। चढ़ौतरी कहो कि रिश्वत कहो। राह देखोगे कि कोई भक्त आ जाये, कोई मित्र आ जाये, कोई शिष्य बन जाये तो छप्पर डाल दे। अब वर्षा करीब आ रही है, अब यहां झाडू के नीचे कैसे बैठेंगे। तुम यही सब चिंता—फिक्र में रहोगे। और देर न लगेगी, कोई न कोई बोतल लिए आ जायेगा। क्योंकि जो मांगो इस जगत में, मिल जाता है। यही तो मुश्किल है। एक दिन तुम देखोगे चले आ रहे हैं कोई बोतल लिए, क्योंकि शराब—बंदी हुई जा रही है तो जिनको भी बोतलें भरनी हैं वे भी जंगल की तरफ जा रहे हैं। वहीं जंगल में बनेगी अब शराब। अब तुम कहोगे, यह भी बड़ी मुसीबत हो गई,अब ये आ गये एक सज्जन ले कर बोतल, अब न पीयो तो भी नहीं बनता, शिष्टाचारवश पीनी पड़ती है! साधु—संन्यासी आ जायेंगे गांजा— भांग लिए, तुम वह पीने लगोगे। अब साधु कहे तो इनकार भी तो करते नहीं बनता। और कोई हो तो इनकार भी कर दो; अब साधु ने चिलम ही भर कर रख दी, अब वह कहता है ' अब एक कश तो लगा ही लो! और बड़ा आनंद आता है। यह तो ब्रह्मानंद है! और भगवान ने ये चीजें बनाईं क्यों? और फिर शिव जी से ले कर अब तक सभी भक्त इनका उपयोग करते रहे हैं। तुम क्या शिव जी से भी अपने को बड़ा समझ रहे हो?' तो मन हो जाता है।

तुम भाग कर न भाग सकोगे—जागोगे तो ही..। जाग कर अगर न गये तो भी गये, गये तो

भी ठीक, न गये तो भी ठीक। मगर तब जीवन में एक सहज स्फुरणा होती है।

और मैं तुमसे कहता हूं : अगर तुम जागे रहो तो कालिख से भरी कोठरी से भी निकल जाओगे और कालिख तुम्हें न लगेगी। क्योंकि कालिख शरीर को ही लग सकती है और शरीर तुम नहीं हो, वस्त्रों को लग सकती है, वस्त्र तुम नहीं हो। तुम तो कुछ ऐसे हो जिस पर कालिख लग ही नहीं सकती। तुम्हारा तो स्वभाव ही निर्दोष है। तुम तो सदा से शुद्ध—बुद्ध चिन्मय—मात्र, चैतन्यरूप निराकार हो!

कूटस्थ रहने से कुछ नहीं बनेगा, न तटस्थ रहने से

समष्टि को जीने से, सहने से, जीता है आदमी

अकेला तो सूरज भी नहीं है

उससे ज्यादा अकेलापन तुम चाहोगे?

मृत्यु तक तटस्थता निभाओगे?

सिमट कर बहते हुए जीवन में उतरो

घाट से हाट तक,

हाट से घाट तक

आओ —जाओ

तूफान के बीच गाओ

मत बैठो ऐसे चुपचाप तट पर

तटस्थ हो या कूटस्थ हो, इससे फर्क नहीं पड़ता।

सिमट कर बहते हुए जीवन में उतरो

घाट से हाट तक,

हाट से घाट तक

आओ—जाओ

तूफान के बीच गाओ

मत बैठो ऐसे चुपचाप तट पर!

परमात्मा इतने गीत गा रहा है, तुम भी सम्मिलित होओ। यह परमात्मा का उत्सव जो चल रहा जगत में, यह जो सृष्टि का महायान चल रहा है, यह महोत्सव जो चल रहा है—इसमें तुम दूर—दूर मत खड़े रहो, नाचो, गुनगुनाओ, भागीदार बनो! और भागीदार बन कर भी द्रष्टा बने रहो, यही मेरी शिक्षा है। क्योंकि द्रष्टा में कुछ भेद नहीं पड़ता है। तुम किनारे पर बैठ कर ही द्रष्टा बनोगे तो यह द्रष्टा बड़ा कमजोर हुआ। नदी की धार में और तूफान से खेलते हुए द्रष्टा बनने में क्या अड़चन है? द्रष्टा ही बनना है न—पहाडू पर बनोगे, बाजार में नहीं बन सकते? जब द्रष्टा ही बनना है तो बाजार का भय कैसा? देखना ही है और इतना ही जानना है कि मैं देखने वाला हूं तो तुम पहाड़ देखो कि वृक्ष देखो कि नदी—झरने देखो कि लोग देखो, दूकानें देखो—क्या फर्क पड़ता है? द्रष्टा तो द्रष्टा है, कुछ भी देखे। और जो भी तुम देखो, अगर जानते रहो सपना है—तो फिर क्या अड़चन है?

ऐसा हुआ, रमण महर्षि को अरुणाचल की पहाड़ी से बड़ा लगाव था। वे दिन में कई दफा उठ—उठ कर चले जाते थे पहाड़ी पर। कई दफा! नाश्ता किया और गये! भोजन किया और गये! सो कर उठे

और गये। बीच में सत्संग चल रहा और वे कहेंगे, बस! गये पहाड़ी पर! दिन में कई दफा चले जाते थे। फिर भी पहाड़ी तो बड़ी थी, तो पूरी पहाड़ी पर कई हिस्से थे जहां तक नहीं पहुंच पाते थे।

तो एक दिन अपने भक्तों को कहा कि 'कल तो मैं उपवास करूंगा ताकि लौटना न पड़े। कैल तो दिन भर भूखा रहूंगा और सांझ तक खोज करूंगा, कई जगह खाली रह गई हैं जहां मैं नहीं पहुंचा इस पहाड़ी पर। दूर से कहीं कोई झरना दिखाई पड़ता है, उसके पास नहीं जा पाया। तो कल तो मैं भोजन नहीं करूंगा।’

तो भक्तों ने कहा. 'यह बड़ी झंझट की बात है।’ तो रात को खूब उनको भोजन करवा दिया, खूब करवा दिया! उन्होंने बहुत रोका कि भई,बस अब रुको; कल मुझे पहाड़ पर जाना है और तुम इतना करवाये दे रहे हो कि चलना मुश्किल हो जायेगा। लेकिन भक्त न माने, तो उन्होंने कर लिया। साक्षी— भाव वाले आदमी की ऐसी दशा है। ठीक, पहले इनकार करते हैं, फिर कोई नहीं मानता तो वे कहते हैं, चलो ठीक। सुबह उठ कर गये तो एक भक्त को मन में भाव रहा कि ये जा तो रहे हैं, लेकिन दिन भर भूखे रहेंगे, तो वह कुछ नाश्ता बना कर दूर जरा रास्ते के बैठ गया था। सुबह जब ब्रह्ममुहूर्त में वे वहा से जाने लगे तो उसने पैर पकड़ लिए। उसने कहा कि नाश्ता ले आया हूं। उन्होंने कहा. 'हद हो गई! अरे, मुझे घूमने जाना है, अब तुम देर करवा दोगे!' तो उसने कहा कि जल्दी से कर लें आप! वे नाश्ता करके चले कि थोड़ी दूर पहुंचे थे कि पांच—सात स्त्रियां चली आ रही हैं। वे कहें कि ये रहे हमारे स्वामी। उन्होंने कहा. 'क्या मामला?' उन्होंने कहा. 'हम भोजन बना कर ले आये।’ उन्होंने कहा : 'यह तो हद हो गई! अब इनको दुखी करना भी ठीक नहीं, ये न मालूम कितनी रात से आ कर यहां बैठी हैं!' भोजन कर लिया। स्त्रियों ने कहा : 'आप घबराना मत। हम दोपहर में फिर आयेंगे, दोपहर का भोजन ले कर।’ उन्होंने कहा. 'तुम आना मत, क्योंकि मैं दूर निकल जाऊंगा। तुम खोज न पाओगे।’ उन्होंने कहा. ' आप फिक्र न करो। एक स्त्री आपके पीछे लगी रहेगी।’ वह एक स्त्री पीछे लगी रही। उन्होंने कहा. 'यह भी मुसीबत हुई!' और दोपहर को वे आ गईं खोज—खाज कर, उनको फिर भोजन करवा दिया। अब तो उनकी ऐसी हालत हो गई कि लौटें कैसे!

लौट कर किसी तरह आये। वहां तक भी न पहुंच पाये जहां रोज पहुंच जाते थे। किसी तरह लौट कर आये तो भक्तों ने खूब भोजन तैयार कर रखा था कि लौट कर प्रभु आयेंगे। तो उन्होंने कहा : 'कसम खाई अब कभी उपवास न करूंगा। यह तो बड़ा.. उपवास तो बड़ा महंगा पड़ गया!' फिर कहते हैं, रमण ने कभी उपवास नहीं किया। उन्होंने कहा : 'कसम खा ली, यह उपवास बड़ा महंगा है। इससे तो हम जो रोज भोजन करते रहते थे, वही ठीक था।’

एक साक्षी की दशा है. जो होता है होता है। उपवास किया तो भी जिद्द नहीं है। तुमने अगर उपवास किया होता तो तुम कहते : 'क्या समझा है तुमने? मेरा उपवास तोड्ने आये! ये मालूम होती हैं, स्त्रियां नहीं हैं, इंद्र की भेजी अप्सरायें हैं। तुम अकड़ कर खड़े हो गये होते,शीर्षासन लगा लिया होता, आंख बंद कर ली होती कि छूना मत मुझे, दूर रहना, उपवास किया है! यह भ्रष्ट करने का उपाय है! लेकिन रमण ने कहा. बेचारी स्त्रियां हैं, इतनी रात आई हैं, अब चलो ठीक है।

एक साक्षी की दशा है, जो देखता चला जाता है। रमण के हाथ में कैंसर हो गया। जो आश्रम का डाक्टर था, कुछ बहुत समझदार नहीं था। आश्रम के ही डाक्टर! उसने उनको बाथरूम में ले जा कर आपरेशन ही कर दिया। उन्होंने कहा भी कि भई तू कुछ खोज—खबर तो कर ले,कि मामला क्या है! उसने कहा. 'कुछ नहीं, जरा—सी गांठ है।’ उसने भी सोचा नहीं कि कैंसर होगा कि कुछ होगा। गांठ ऊपर—ऊपर थी, उसने निकाल दी, लेकिन फिर और बड़ी गांठ पैदा हो गई। सैप्टिक हुआ अलग, बड़ी गांठ हो गई अलग। फिर गांव के—और वह गांव भी छोटा—मोटा—गांव के डाक्टर ने आ कर आपरेशन कर दिया। फिर मद्रास के डाक्टर आये, ऐसे धीरे— धीरे... कलकत्ते के डाक्टर आये। आपरेशन साल भर चले। कोई चार—पांच दफा आपरेशन हुए। और वे बार—बार कहते कि तुम प्रकृति को अपनी प्रक्रिया पूरी करने दो, तुम क्यों पीछे पड़े हो? मगर उनकी कौन सुनता! उनसे लोग कहते : 'तुम चुप रही! भगवान, तुम चुप रहो! तुम बीच में न बोलो। ये डाक्टर जानते हैं।’ वे कहते, ठीक है। साल भर में उनको करीब—करीब मार डाला। साल भर के बाद जब डाक्टर थक गये और उन्होंने कहा, हमारे किए कुछ न होगा। तो रमण हंसने लगे। उन्होंने कहा. मैं तुमसे पहले कहता था, तुम नाहक परेशान हो रहे हो। जो होना है होने दो। अब साल भर के बाद इतने आपरेशन करके मेरे मुझे बिस्तर पर भी लगा दिया, सब तरफ से काटपीट भी कर दी—अब तुम कहते हो, हमारे किए कुछ भी न होगा! मैं तुमसे तभी कहता था,आदमी के किए कहीं कुछ होता है! जो होता है होता है। होने दो!

मरने के क्षण भर पहले किसी ने पूछा कि आप फिर लौटेंगे? तो रमण ने कहा. 'जाऊंगा कहां? आया कब? तो जाऊंगा कैसे? और फिर आने की बात उठा रहे हो! और जिंदगी भर मैंने तुम्हें यही समझाया कि न आत्मा आती और न आत्मा जाती।’

साक्षी— भाव में किसी कृत्य का कोई मूल्य नहीं है। ऐसा भी हो सकता है कि साक्षी— भाव में कोई शराब भी पी ले तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम पीना, मैं तुमसे यह कह रहा हूं कि आत्यंतिक अर्थों में शराब भी कोई पी ले साक्षी— भाव में तो भी कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन साक्षी— भाव पर ध्यान रखना। नहीं तो तुम सोचो, चलो ठीक, हम तो साक्षी हो गये, पी लें शराब! पीने की जब तक कामना रहे तब तक तुम साक्षी नहीं हुए। साक्षी का इतना ही अर्थ होता है : जो होता है, उसे हम होने देते हैं और देखते हैं। हम देखने वाले हैं,कर्ता नहीं हैं। भगोडा कर्ता हो जाता है।

चांदनी फैली गगन में, चाह मन में

दिवस में सबके लिए बस एक जग है

रात में हरेक की दुनिया अलग है

कल्पना करने लगी अब राह मन में

चांदनी फैली गगन में, चाह मन में

मैं बताऊं शक्ति है कितनी पगों में

मैं बताऊं नाप क्या सकता डगों में

पंथ में कुछ ध्येय मेरे तुम धरो तो!

आज आंखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो!

चीर वन घन भेद मरु जलहीन आऊं

सात सागर सामने हों, तैर जाऊं

तुम तनिक संकेत नयनों से करो तो!

आज आंखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो!

राह अपनी मैं स्वयं पहच्चान लूंगा

लालिमा उठती किधर से, ज्यान लूंगा

कालिमा मेरे दृगों की तुम हरी तो!

आज आंखों में प्रतीक्षा फिर भरी तो!

थोड़ी—सी आंख की कालिख हट जाये तो तुम साक्षी दो गये।

तुम तनिक संकेत नयनों से करो तो!

आज आंखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो!

प्रभु की जरा प्रतीक्षा शुरू हो जाये तो तुम साक्षी हो गये।

जब तक तुम वासना कर रहे हो वस्तुओं की, तब तक कर्ता रहोगे। जब तुम प्रभु की प्रतीक्षा करने लगोगे, वस्तुओं की कामना नहीं, तब तुम साक्षी होने लगोगे। आंख में जरा प्रतीक्षा आ जाये तो तुम शांत होने लगोगे।

कालिमा मेरे दृगों की तुम हरो तो!

आज आंखों में प्रतीक्षा फिर भरो तो!

जरा—सी आंख की कालिख अलग करनी है! कर्ता से मत उलझो। दृष्टि को सुधार लो, साफ कर लो।

ऐसा ही समझो कि तुम्हारे आंख में एक किरकिरी पड गई है, जरा—सा तिनका पड़ गया है। और उसके कारण कुछ दिखाई नहीं पड़ता। किरकिरी अलग हो जाये आंख से, दृष्टि फिर साफ हो जाती है, सब दिखाई पड़ने लगता है। हिमालय जैसी बड़ी चीज भी आंख में जरा—सा रेत का कण पड़ जाये तो हिमालय भी छिप जाता है। रेत का कण हिमालय को छिपा लेता है। रेत का कण हट जाये, हिमालय फिर प्रगट हो गया।

विराट को छिपा लिया है जरा—सी बात ने कि तुम साक्षी नहीं रह गये। इसे तुम जगाना शुरू करो। जैसे—जैसे तुम जागोगे, तुम्हारे भीतर सब मौजूद है, सब प्ले कर ही आये हो, उसका स्वाद फैलने लगेगा। तुम्हें कुछ पाना नहीं है।

अष्टावक्र का परम सूत्र यही है कि तुम जैसे हो ऐसे ही परिपूर्ण हो। जैसे तुम यहां बैठे हो इस क्षण, परमात्मा तुम्हारे भीतर विराजमान है, अपनी परिपूर्ण लीलाओं में मौजूद है।

श्री रमण को किसी ने पूछा कि क्या आप दावा करते हैं कि अवतार हैं? तो श्री रमण ने कहा. 'अवतार तो आशिक होता है, ज्ञानी पूर्ण होता है। अवतार का तो मतलब थोड़ा —सा परमात्मा उतरा! ज्ञानी तो पूरा परमात्मा होता है। क्योंकि ज्ञानी जानता है परमात्मा के अतिरिक्त कोई भी नहीं है।’

पूछने वाला तो शायद यही पूछने आया था कि शायद रमण दावा करें कि मैं अवतार हूं। वह तो विवाद करने आया था, पंडित था! और रमण ने कहा : 'अवतार! छोटी—मोटी बात क्या उठानी! अवतार नहीं हूं? पूर्ण ही हूं!'

मैं तुमसे कहता हूं. तुम भी पूर्ण हो। प्रत्येक पूर्ण है। पूर्ण से पूर्ण ही पैदा होता है। हम परमात्मा

से पैदा हुए हैं, अपूर्ण हो भी कैसे सकते हैं!

उपनिषद कहते हैं : पूर्ण से पूर्ण को निकाल लो, फिर भी पीछे पूर्ण शेष रह जाता है। पूर्ण को पूर्ण में डाल दो, फिर भी पूर्ण उतना का ही उतना है।

हम सब पूर्ण हैं और पूर्ण से ही निकले हैं—और निकल कर भी पूर्ण हैं। इस बोध के अनुभव का नाम ब्रह्मज्ञान, बुद्धत्व, कैवल्य या जो तुम चाहो।

पर ध्यान रखना, लड़ने—झगड़ने में मत उलझ जाना। यह छोड़ना, यह त्यागना, इससे भागना, इससे बचना.. तुम मरोगे, फांसी लग जायेगी! फिर तो जीवन में बहुत झंझटें हैं। फिर झंझटें बहुत विराट हो जायेंगी। इधर से छूटोगे, उधर फंसा पाओगे। उधर से छूटोगे, इधर फंसा पाओगे। तुम तो जहां खड़े हो, एक ही बात कर लो, शाति से देखने लगो जो हो रहा है। बच्चे, पत्नी, मित्र, प्रियजन, कामधाम, दूकान, बाजार,सबके बीच तुम शात होने लगो और देखते रहो। जो होता है होने दो। जैसा होता है वैसा ही होने दो। अन्यथा की मांग न करो। प्रभु जो दिखाये देखो। प्रभु जो कराये करो।

अष्टावक्र कहते हैं. धन्यभागी है वह, जो इस भांति सब छोड़ कर समर्पित हो जाता है। छोटी—छोटी चीजों से शुरू करो। बड़ी—बड़ी चीजों को शुरू मत करना। मन बड़ा उपद्रवी है। मन कहता है. बड़ी चीज पर प्रयोग करो। मैं कहता हूं. साक्षी बनो। तुम कहते हो. अच्छा चलो, साक्षी बनेंगे—कामवासना के साक्षी बनेंगे। अब तू_मने एक बड़ी झंझट उठा ली शुरू से। यह तो ऐसा हुआ कि जैसे पहाड़ चढ़ने गये तो सीधे एवरेस्ट पर चढ़ने पहुंच गये। थोड़ा पहाड़ चढ़ने का अभ्यास पूना की पहाड़ियों पर करो। फिर धीरे— धीरे जाना। एवरेस्ट भी चढ़ा जाता है, आदमी चढ़ा तो तुम भी चढ़ सकोगे। जहां आदमी पहुंचा वहा तुम भी पहुंच सकोगे। एक पहुंच गया तो सारी मनुष्यता पहुंच गई। इसलिए तुमने देखा, जब एडमंड हिलेरी पहुंच गया एवरेस्ट पर तो सारी दुनिया प्रसन्न हुई। प्रसन्नता का कारण? तुम तो नहीं पहुंचे। तुम तो जहां थे वहीं के वहीं थे। लेकिन जब एक मनुष्य पहुंच गया तो भीतर सारी मनुष्यता पहुंच गई। इसलिए तो जब कोई बुद्ध हो जाता है तो जिनके पास भी आंखें हैं वे आह्लादित हो जाते हैं—नहीं कि वे पहुंच गये, मगर एक पहुंच गया तो हम भी पहुंच सकते हैं, इसका भरोसा हो गया। अब बात कल्पना की न रही, सपना न रही—सत्य हो गई।

छोटी—छोटी चीजों से शुरू करना। राह पर चलते हो, साक्षी बन जाओ चलने के। इसमें कुछ बड़ा दाव नहीं है। कोई झंझट भी नहीं है। घूमने गए हो सुबह, साक्षी— भाव से घूमो। शरीर चलता है, ऐसा देखो। तुम देखते हो, ऐसा देखो। भोजन कर रहे हो, साक्षी बन जाओ। बिस्तर पर पड़े हो, अब इसमें तो कुछ अड़चन नहीं है, कोई झंझट नहीं है। आंख बंद करके तकिये पर पड़े हो, नींद नहीं आ रही, साक्षी बन जाओ। पड़े रहो, देखते रहो जो हो रहा है। बाहर राह पर आवाज होती है, कार गुजरती है, हवाई जहाज निकलता है, बच्चा रोता है—कुछ हो रहा है, होने दो;तुम सिर्फ साक्षी बने रहो। ऐसी छोटी—छोटी पहाड़ियां चढ़ो। फिर धीरे — धीरे बड़ी पहाड़ियों पर प्रयोग करना। जैसे—जैसे हाथ में बल आता जायेगा,तुम पाओगे, फिर क्रोध, लोभ, मोह, माया, काम, सब पर प्रयोग हो जायेगा। लेकिन मैं देखता हूं लोग क्या करते हैं। उल्टा ही करते हैं। साक्षी की बात मैंने कही। वे जा कर एकदम बड़े पहाड़ से जूझ जाते हैं। हारते हैं! हारते हैं तो फिर साक्षी का भाव उठा कर रख देते हैं। कहते हैं, यह अपने बस का नहीं! यह तुम्हारे मन ने तुम्हें धोखा दे दिया। मन तुमसे हमेशा कहता है:

'लड़ जाओ जा कर दारासिह से।’ कुछ थोड़ा अभ्यास करो। नाहक हाथ—पैर तुड़वाने में कुछ सार नहीं। और सीधे दारासिह से लड़ गये जा कर तो फिर लड़ने की बात ही छोड़ दोगे जिंदगी भर के लिए। फिर कहोगे, यह बड़ा झंझट का है, इसमें हाथ—पैर टूट जाते हैं और मुसीबत होती है। हड्डी—पसली टूट गई, फ्रैक्चर हो गया—अब यह करना ही नहीं। मन तुमसे कहता है. एकदम कर लो बड़ा! मन बड़ा लोभी है। वह कहता है : अच्छा साक्षी में आनंद है, तो फिर चलो कामवासना से छुटकारा कर लें। वह तुमसे न होगा अभी। अभी तुम इतनी बड़ी छलांग मत भरो। अभी कोई छोटी—सी बात चुनो, बड़ी छोटी—सी बात चुनो। इतना बड़ा नहीं।

सिगरेट पीते हो, वह चुन लो। धुंआ बाहर— भीतर करते हो, साक्षी— भाव से करो। बैठे, सिगरेट निकाली—साक्षी— भाव से निकालो। आमतौर से सिगरेट पीने वाला बिलकुल बेहोशी में निकालता है। तुम देखो सिगरेट निकालने वाले को, निकालेगा, डब्बी पर बजायेगा, माचिस निकालेगा, जलायेगा। जरा देखते रहो, वह सब आटोमेटिक है, वह सब यंत्रवत हो रहा है। उसे कुछ होश नहीं है। ऐसा सदा उसने किया है,इसलिए कर रहा है। इस सबको तुम होशपूर्वक करो। मैं नहीं कहता, एकदम से सिगरेट पीना छोड़ दो। होशपूर्वक करो। डब्बी को आहिस्ता से निकालो। जितनी जल्दी से निकाल लेते थे, उतनी जल्दी नहीं; थोड़ा समय लो। और तुम चकित होओगे : जितने तुम धीरे से निकालोगे उतने ही तुम पाओगे, धूम्रपान करने की इच्छा क्षीण हो गई। एक दफा ठोंकते हो सिगरेट को, सात दफा ठोंको। धीरे— धीरे ठोंको, ताकि ठीक से देख लो। क्या कर रहे हो! तुम्हें खुद ही मूढ़ता मालूम पड़ेगी कि यह भी क्या कर रहा हूं! आहिस्ता से जलाओ माचिस को। धीरे— धीरे धुंआ भीतर ले जाओ, धीरे— धीरे बाहर लाओ। इस पूरी प्रक्रिया को गौर से देखो कि यह तुम क्या कर रहे हो। धुंआ भीतर ले गये, खांसे, फिर धुआ बाहर लाये,फिर खीसे—इसमें पैसा भी खर्च किया। डाक्टर कहते हैं, कैंसर का भी खतरा है, तकलीफ भी होती है, फेफड़े भी खराब हो रहे हैं! जरा गौर से देखो, सुख कहां मिल रहा है। फिर धुएं को भीतर ले जाओ, फिर धुएं को बाहर लाओ। और गौर से देखो कि सुख कहां है! है कहीं?

मैं तुमसे नहीं कह रहा हूं कि नहीं है। यही मुझमें और तुम्हारे दूसरे साधु—संतों में फर्क है। वे कहते हैं, नहीं है। और बड़ा मजा यह है कि उन्होंने खुद भी पी कर नहीं देखा है। उनसे पूछो कि 'महाराज, आपने सिगरेट पी? तुम्हें कैसा पता चला कि नहीं है?' मैं तुमसे यह कह ही नहीं रहा कि नहीं है। मैं तो कहता हूं. हो सकता है हो, और तुम्हें पता चल जाये तो मुझे बता देना। मगर तुम गौर से देखो पहले—है या नहीं? पहले से निर्णय मत करो। गौर से देखोगे तो तुम हैरान हो जाओगे कि तुम कैसा मूढ़तापूर्ण कृत्य कर रहे हो! यह तुम कर क्या रहे हो? हाथ रुक जायेगा। ठिठक जाओगे। इसी ठिठकाव में क्रांति है। इसी अंतराल में से क्रांति की किरण उतरती है।

ऐसा छोटे—छोटे कृत्यों को करो। जाग कर करो। जल्दी रोकने की मत करना, पहले तो जाग कर करने की करना। फिर रुकना अपने से होता है। रुकना परिणाम है। तुम्हारे करने की बात नहीं; जैसे—जैसे बोध सघन होता है, चीजें बदलती हैं।

जहां से खुद को जुदा देखते हैं

खुदी को मिटा कर खुदा देखते हैं

फटी चिदिया पहने भूखे भिखारी

फकत जानते हैं तेरी इतजारी

बिलखते हुए भी अलख जग रहा है

चिदानंद का ध्यान—सा लग रहा है

तेरी बाट देखूं चने तो का जा

हैं फैले हुए पर, उन्हें कर लगा जा

मैं तेरा ही हूं इसकी साखी दिला जा

जरा चुहचुहाहट तो सुनने को आ जा

जो यूं तू इछुडूने —बिछुड़ने लगेगा

तो पिंजरे का पंछी भी उड़ने लगेगा

जरा—जरा.......! अभी पिंजरे के एकदम बाहर होने की जरूरत भी नहीं है। जरा पिंजरे में ही तडुफड़ाने लगो।

जो यूं तू इछुड़ने—बिछुड़ने लगेगा

तो पिंजरे का पंछी भी उड़ने लगेगा

हैं फैले हुए पर, उन्हें कर लगा जा

मैं तेरा ही हूं इसकी साखी दिला जा

धीरे — धीरे साक्षी— भाव से तुम्हें परमात्मा की यह आवाज सुनाई पड़ने लगेगी कि तुम मेरे हो, कि मैं ही तुममें समाया हूं कि तुम मेरे ही फैलाव, मेरे ही विस्तार, कि मैं सागर और तुम मेरी लहर! साक्षी— भाव से परमात्मा तुम्हारा गवाह होने लगेगा। और वहीं है जीवन—रूपांतरण का सूत्र, वहीं है अमृत की धार—जहां से मृत्यु विदा हो जाती है, जहां से देह से संबंध छूट जाते हैं; जहां सपना विसर्जित हो जाता है और उस परम चैतन्य में अलख जग जाती है; उस परम चैतन्य के साथ सदा के लिए संबंध जुड़ जाता है!


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