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क्या रहस्य है त्रिगुण और त्रिगुणातीत का ?क्या श्रीकृष्ण पूर्ण परमात्मा है?PART-02


क्या रहस्य है त्रिगुण और त्रिगुणातीत का ?

09 FACTS;-

1-तमस आधार है और सत्व शिखर ...इस भवन का जिसे हम जीवन कहें, तमस बुनियाद है, रजोगुण बीच का भवन है और सत्वगुण मंदिर का शिखर है।यह जीवन की व्यवस्था है।उदाहरण के लिए,बुद्ध, महावीर, मोहम्मद और जीसस जैसे महापुरुषों ने एक ही गुण को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। मोहम्मद और जीसस हैं.. तो रजोगुण उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम है। बुद्ध और महावीर हैं...तो सत्वगुण उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम है। लाओत्से और रमण हैं, तो तमस उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम है। परन्तु श्रीकृष्ण तीनों गुणों को एक सा ..अभिव्यक्ति के लिए प्रयोग कर रहे हैं।

2-इस संसार में केवल 6 प्रकार के मनुष्य होते हैं...परन्तु श्रीकृष्ण परब्रह्म परमात्मा हैं ...उन्होंने तीनों गुणों का एक साथ प्रयोग किया है। जैसे तीनों गुणों की तीनों भुजाएं समान लंबाई की हैं;उसी प्रकार त्रिभुज की तीनों रेखाएं समान लंबाई की हैं।केवल श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व तीनों का संयुक्त जोड़ है--33.3 WATER,33.3 FIRE,33.3 AIR और इसलिए श्रीकृष्ण को समझना उलझन की बात है।

3-एक गुण वाले व्यक्ति को समझना बहुत आसान है। जिसमें दो गुण दबे हों, उसके व्यक्तित्व में एक संगति होगी, कसिस्टेंसी होगी। लाओत्से के व्यक्तित्व में जैसी कसिस्टेंसी, संगति है, वैसी श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व में नहीं है।लाओत्से का जो स्वाद एक शब्द में है, वही सारे शब्दों में है। बुद्ध के वचनों में एक संगति है, गहन संगति है। बुद्ध ने कहा है, जैसे तुम सागर को कहीं से भी चखो, वह खारा है, वैसे ही तुम मुझे कहीं से भी चखो, मेरा स्वाद एक है। जीसस या मोहम्मद, इन सबके स्वाद एक हैं।

4-लेकिन आप अनेक स्वाद श्रीकृष्ण में ले सकते हैं, तीन तो निश्चित ही ले सकते हैं। और चूंकि तीनों का मिश्रण हैं, इसलिए बहुत नए स्वाद भी उस मिश्रण से पैदा हुए हैं। इसलिए श्रीकृष्ण का रूप बहुरंगी है। और कोई भी व्यक्ति श्रीकृष्ण को पूरा प्रेम नहीं कर सकता, उसमें चुनाव करेगा। जो पसंद होगा, वह बचाएगा; जो नापसंद है, उसे काट देगा।

इसलिए अब तक श्रीकृष्ण के ऊपर जितनी भी व्याख्याएं हुई हैं, सब चुनाव की व्याख्याएं हैं। 5-न तो आदि शंकराचार्य श्रीकृष्ण को पूरा स्वीकार करते हैं, न रामानुज, न निंबार्क, न वल्लभाचार्य, न तिलक, न गांधी, न अरविंद, कोई भी श्रीकृष्ण को पूरा स्वीकार नहीं करता। उतने हिस्से श्रीकृष्ण में से काट देने पड़ते हैं, जो असंगत मालूम पड़ते हैं, विरोधाभासी मालूम पड़ते हैं, जो एक-दूसरे का खंडन करते हुए प्रतीत मालूम पड़ते हैं।

6-उदाहरण के लिए गांधीजी अहिंसा को इतना मूल्य देते हैं तो श्रीकृष्ण अर्जुन को हिंसा के लिए उकसावा दे रहे हैं, यह उनके लिए अड़चन की बात हो जाएगी। गांधीजी सत्य को परम मूल्य देते हैं, श्रीकृष्ण झूठ भी बोल सकते हैं, यह गांधीजी की समझ के बाहर है। श्रीकृष्ण धोखा भी दे सकते हैं, यह गांधीजी का मन स्वीकार नहीं करेगा। और अगर श्रीकृष्ण ऐसा कर सकते हैं, तो गांधीजी के लिए श्रीकृष्ण पूज्य न रह जाएंगे।

7-तो एक ही उपाय है कि गांधी जी किसी तरह समझा लें कि श्रीकृष्ण ने ऐसा किया नहीं है। या तो यह कहानी है, प्रतीकात्मक /सिंबालिक है। गांधी जी के हिसाब से यह जो युद्ध है महाभारत का, यह वास्तविक युद्ध नहीं है । ये कौरव और पांडव असली मनुष्य नहीं हैं, जीवित मनुष्य नहीं हैं, ये सिर्फ प्रतीक हैं बुराई और भलाई के। और युद्ध धर्म और अधर्म के बीच है, मनुष्यों के बीच नहीं। पूरी कथा है, एक पैरेबल है, तब फिर गांधी जी को अड़चन नहीं है। बुराई को मारने में अड़चन नहीं है, बुरे आदमी को मारने में गांधी को अड़चन है। अगर सिर्फ बुराई को काटना हो, तो कोई हर्जा नहीं है।

8-लेकिन अगर बुराई को ही काटना होता, तो अर्जुन को भी कोई सवाल उठाने का कारण नहीं था। सवाल तो इसलिए उठ रहा था कि बुरे आदमी को काटना है। सवाल तो इसलिए उठ रहा था कि उस तरफ जो बुरे लोग हैं, वे अपने ही हैं, निजी संबंधी हैं। उनसे ममत्व है, उनसे राग है, और उनके बिना दुनिया अधूरी और बेमानी हो जाएगी।तीन गुण एक साथ हैं,तो असंगति

पैदा करेंगे।श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व असंगत ही महसूस होगा।तीनों गुण व्यक्ति में हैं।

और व्यक्तित्व की पूर्णता तभी होगी, जब तीनों गुण अभिव्यक्ति में उपयोग में ले लिए जाएं, उनमें से कोई भी दबाया न जाए। और जो भी व्यक्तित्व में है, उसका सृजनात्मक उपयोग हो जाना चाहिए।

9-श्रीकृष्ण दमन के पक्ष में नहीं हैं ;उन्होंने पूर्ण शिवत्व धारण किया है ,इसलिए उनका हर निर्णय सही है।परन्तु पूर्ण शिवत्व धारण न करने वाला उन्हें नहीं समझ सकता।

सामान्य मनुष्य के लिए एक और भी संभावना है ...तीनों गुणों का एक साथ नहीं, एक-एक गुण का अलग-अलग प्रयोग। इस प्रक्रिया में तीनों गुणों को एक साथ अभिव्यक्ति के लिए न चुनकर तीन अलग-अलग कालखंडों में एक-एक गुण को अभिव्यक्ति के लिए चुनना है!

क्या अर्थ है तीनों गुणों के अलग-अलग प्रयोग का?-

03 FACTS;-

1-WATER ELEMENT/EMOTION/BHAKTIYOG/तमस;-

16 FACTS;-

1-तमस आधारभूत है, बुनियाद में है।बच्चा पैदा होता है मां के गर्भ से, तो नौ

महीने मां के गर्भ में बच्चा तमस में होता है, गहन अंधकार में होता है। कोई क्रिया नहीं होती, परम आलस्य होता है। श्वास लेने तक की क्रिया बच्चा स्वयं नहीं करता, वह भी मां ही करती है। भोजन लेने की बच्चे में खून भी प्रवाहित होता है, तो वह भी मां का ही खून रूपांतरित होता रहता है। बच्चा अपनी तरफ से कुछ भी नहीं करता है।अक्रिया की ऐसी अवस्था

परिपूर्ण तमस की अवस्था है। बच्चा है, प्राण है, जीवन है, लेकिन जीवन किसी तरह का कर्म नहीं कर रहा है। गर्भ की अवस्था में अकर्म पूरा है।

2-मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मोक्ष की तलाश, स्वर्ग की आकांक्षा, निर्वाण की खोज, सिर्फ इसीलिए पैदा होती है कि हर व्यक्ति ने अपने गर्भ के क्षण में एक ऐसा अक्रिया से भरा हुआ क्षण जाना है, इतना शून्यता से भरा हुआ अनुभव किया है। वह स्मृति में टंगा हुआ है, वह आपके गहरे में छिपा है वह अनुभव जो नौ महीने गर्भ में हुआ। वह इतना सुखद था, क्योंकि जब कुछ भी न करना पड़ता हो, कोई दायित्व न हो, कोई जिम्मेवारी न हो, कोई बोझ न हो, कोई चिंता न हो, कोई काम न हो, सिर्फ आप थे, जस्ट बीइंग, सिर्फ होना मात्र था! जिसको हम मोक्ष कहते हैं, वैसी ही करीब -करीब अवस्था मां के गर्भ में थी। वही अनुभूति आपके भीतर छिपी है।

3-इसलिए जीवन में आपको कहीं भी सुख नहीं मिलता और हर जगह आपको कमी मालूम पड़ती है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि यह तभी हो सकता है, जब आपके अनुभव में कोई ऐसा बड़ा सुख रहा हो, जिससे आप तुलना कर सकें।हर आदमी कहता है, जीवन में दुख है।

सुख का आपको अनुभव न हो, तो दुख की आपको प्रतीति कैसे होगी? और हर आदमी कहता है कि कोई सुख की खोज करनी है। किस सुख की खोज कर रहे हैं? जिसका कभी स्वाद न लिया हो, उसकी खोज भी कैसे करिएगा? और जिससे हमारा कोई परिचय नहीं है, उसकी हम जिज्ञासा कैसे करेंगे?

4-हमारे अचेतन में जरूर कोई अनुभव की किरण है, कोई बीज है छिपा हुआ है, कोई आनंद हमने जाना है, कोई स्वर्ग हमने जीया है, कोई संगीत हमने सुना है। कितना ही विस्मृत हो गया हो, लेकिन हमारे रोएं-रोएं में वह प्यास छिपी है, और वह खबर छिपी है, हम उसकी ही

खोज कर रहे हैं।मोक्ष की खोज एक विराट गर्भ की खोज है। और जब तक यह सारा अस्तित्व हमारा गर्भ न बन जाएगा, तब तक यह खोज जारी रहेगी।

5-यह बात बड़ी कीमती है, बहुत अर्थपूर्ण है। लेकिन इस संबंध में पहली बात समझ लेनी जरूरी है कि बच्चा नौ महीने अपने मां के गर्भ में ठीक तमस में पड़ा है। वहां न तो राजसी होने का सवाल है, न सात्विक होने का सवाल है, गहन तम में पड़ा है. गहन आलस्य है। बस सोया है, चौबीस घंटे सो रहा है। नौ महीने की लंबी नींद है।फिर जैसे ही बच्चा पैदा होता है,

तो फिर बाईस घंटे सोएगा, फिर बीस घंटे, फिर अठारह घंटे, धीरे -धीरे जागेगा। वर्षों लग जाएंगे, तब वह आकर आठ घंटे की नींद पर ठहरेगा।

6-और जन्मों लग जाएंगे, जब नींद बिलकुल शून्य हो जाएगी, और वह परिपूर्ण जागरूक हो जाएगा कि निद्रा में भी जागता रहे। जिसको श्रीकृष्ण कहते हैं, जब सभी सोते हैं, तब भी योगी जागता है। इसके लिए जन्मों की यात्रा होगी।एक बड़े मजे की बात है कि अगर

आप जरूरत से ज्यादा सोए, तो सोने में जागरण निर्मित होने लगता है। अगर आप जरूरत से कम सोए, तो नींद एक मूर्च्छा होगी। अगर आप जरूरत से ज्यादा सोए, तो सो तो नहीं सकते। शरीर की जरूरत पूरी हो जाती है।

7-धीरे -धीरे शरीर की कोई जरूरत नहीं रह जाती और आप सोए हुए हैं, तो भीतर कोई

जागकर देखने लगता है।अगर आप छत्तीस घंटे पड़े हुए सोए रहें, तो आपको थोड़ी -सी झलक मिलेगी उस बात की, जिसको श्रीकृष्ण कह रहे हैं, 'तस्याम जागर्ति संयमी'। क्योंकि नींद की कोई शरीर को जरूरत न रह जाएगी। और शरीर को आप नींद की अवस्था में पड़ा रहने दें। तो भीतर से जागरण का स्वर शुरू हो जाएगा।

8-ध्यान रहे, जिस तत्व को भी आप साधना बना लें, थोड़े दिन में उसके पार आप चले ही जाएंगे। साधना का मतलब ही ट्रासेंडेंस है, अतिक्रमण है। और जिसको भी आप पूरी तरह भोग लें, आप उसके भीतर नहीं रह सकते। अगर आप आलस्य को भी पूरी तरह भोग लें, आप अचानक पाएंगे कि आलस्य विदा हो गया। जिससे मुक्त होना हो, उसे पूरा भोग लेना जरूरी है।

9-जिंदगी बहुत रहस्यपूर्ण है।अगर आप जगत से छीनने -झपटने जाएं, तो हर जगह प्रतिरोध है। और अगर आप कुछ न करने की हालत में हों, तो सब द्वार आपको देने को खुल जाते हैं।करने का भाव ही न हो, तो बहुत सी चीजें सहज स्वीकार हो जाती हैं और जिंदगी में असंतोष की मात्रा एकदम नीचे गिरने लगती है।क्योंकि जब आप कुछ कर ही न रहे हों, तो आपकी कोई मांग नहीं रह जाती और फल का भी कोई सवाल नहीं है... तो जो भी मिल जाए।

अगर आप अपने मकान की सीलिंग को ही देखते हुए दो घंटे पड़े रहें , तो आप पाएंगे, चित्त आकाश जैसा कोरा हो जाता है, शून्य हो जाता है।

10-अगर आलस्य को कोई साधना बना ले, तो शून्य की अनुभूति बड़ी सहज हो जाती है।

आलसी के लिए अनीश्वरवाद संगत है। क्योंकि अगर ईश्वर है, तो काम शुरू हो गया। फिर कुछ करना पड़ेगा। अगर आत्मा है, तो कुछ करना पड़ेगा।लेकिन कुछ न करते हुए,

बिना ईश्वर और आत्मा को मानते हुए, उस चुपचाप पड़े रहने में ही उस सब की झलक मिलनी शुरू हो जाती है , जिसको हम आत्मा कहें, ईश्वर कहें। और तब तक तमस को नहीं छोड़े, जब तक तमस हमे न छोड दे।

11-अगर आप तमस को ठीक से जी लें, तो उसके बाद रजोगुण अपने आप पैदा हो जाएगा। क्योंकि वह दूसरा गुण है, जो आपकी दूसरी मंजिल में छिपा हुआ है। पहली मंजिल पूरी हो गई; आप सीढ़ियां पार कर आए, रजोगुण शुरू हो जाएगा। आपमें सक्रियता का उदय होगा।

लेकिन यह सक्रियता बहुत अनूठी होगी। यह सक्रियता राजनीतिज्ञ की विक्षिप्तता नहीं होगी। अगर आलस्य को आपने साधना बनाया हो और आलस्य आपका शून्यता में जाने का द्वार बना हो, तो यह सक्रियता वासना की सक्रियता नहीं हो सकती, करुणा की ही हो सकती है। यह सक्रियता अब एक बांटने का काम होगी।

12-तो उस सक्रियता को भी पूरी तरह जी लिया। बीच में कुछ बाधा न डालना ..जो भी हो रहा हो, उसे होने देना और ऐसे अगर कोई होने दे, तो बहुत जल्दी गुणातीत हो जाएगा।

क्योंकि तब स्वयं करने वाला नहीं रह जाता, गुण ही करने वाले रह जाते हैं। वह आलस्य का गुण था, जिसने अपने को पूरा कर लिया।फिर रजोगुण था।लेकिन जब सारी मनुष्यता

एक विक्षिप्तता में पड़ा हो,, और अगर आपको भी दौड़ना हो उस मनुष्यता के बीच, तो खेल के लिए ही सही, आपको कुछ उपद्रव अपने आस -पास निर्मित कर लेने चाहिए, कुछ विवाद खड़े कर लेने चाहिए।

13-अगर कर्म की विक्षिप्तता से वे पैदा हो , तो उनसे दुख पैदा होता। लेकिन सिर्फ रजोगुण के निकास की भांति, अभिव्यक्ति की भांति वे है , तो उन सबमें एक खेल है और रस है। वे विवाद एक अभिनय से ज्यादा नहीं है ।पर रजोगुण को पूरा निकल जाने देना जरूरी है।

कर्म के प्रतिकर्म पैदा होते हैं, किया से प्रतिक्रिया जन्मती है।रजोगुण को जलाने का

एक ही उपाय है , कि वह भभक कर जले। वह पूरा का पूरा अंगारा बन जाए, तो जल्दी राख हो जाएगा। जितने धीरे -धीरे जलेगा, उतना समय लेगा। इकट्ठा जल जाए, पूर्णता से जले, तो जल्दी राख हो जाएगा।

14-और जैसे साझ को सूरज अपनी सारी किरणों को सिकोड़ ले..और जैसे सांझ को

मछुआ अपने जाल को निकाल ले, ऐसे हीं सब सिकुड़ जाएगा।क्योंकि तीसरा

तत्व शुरू होगा। तो जैसे -जैसे रजोगुण पूरा फिंक जाता है और सत्य की प्रक्रिया शुरू होती है, वैसे -वैसे सभी क्रियाएं फिर शून्य हो जाएंगी।तमोगुण में भी सारी क्रियाएं शून्य होती हैं।

लेकिन वह शून्यता निद्रा जैसी होती है। सत्वगुण में भी सारी क्रियाएं शून्य हो जाती हैं। लेकिन वह शून्यता जागरूकता जैसी होती है।

15-तमस और सत्य में एक समानता है कि दोनों शून्य होंगे। तमस का रूप निद्रा जैसा होगा; सत्य का रूप जागरण जैसा होगा।और ये जीवन की ठीक प्रक्रिया हैं कि जीवन का प्रथम

चरण तमस में गुजरे, द्वितीय चरण रज में गुजरे, तृतीय चरण सत्व में गुजरे। और तीनों चरण में आप अपने को अलग रखने की कोशिश में लगे रहें, तो आप साधना में हैं। और तीनों चरणों में आप जानते रहें कि यह मैं नहीं कर रहा हूं ये गुण कर रहे हैं। यह मुझसे नहीं हो रहा है; मैं सिर्फ देखने वाला हूं मैं सिर्फ साक्षी हूं। जब आलस्य हो तब भी, जब कर्म हो तब भी, जब सत्य हो तब भी। मैं सिर्फ देखने वाला हूं मैं मात्र द्रष्टा हूं। ऐसी प्रतीति बनी रहे, तो तीनों गुण चुक जाएंगे.. अपने से और आप गुणातीत में ठहर जाएंगे।

16-वास्तव में,पहुंचना है तीनों के पार....साढ़े तीन में --.5 में।त्रिगुण(.5 )हैं और दूसरा वह परब्रह्म (.5 ) हैं ;वह जहां कोई भी नहीं है, जहां तीनों नहीं हैं।श्रीकृष्ण ने तीनों को

इकट्ठा व्यक्त किया है ।जो तीनों को अलग-अलग एक-एक परिधि में बांटकर उपयोग करेगा ;उसकी बातों में असंगति मिलेगी। क्योंकि तीन अलग गुणों के माध्यम से वे बातें प्रकट हुई हैं। जो तमस के क्षणों में कहा है और जीया है, उसका रजस के क्षणों से कोई मेल नहीं बैठेगा। और जो रजस के क्षणों में कहा है, उसका सत्व के क्षणों में कही गई बातों से बहुत विरोध हो जाएगा।और तीनों के बीच संगति असंभव जैसी है क्योंकि

केवल श्रीकृष्ण ही ऐसा कर सकते है...वे परमात्मा हैं। ''प्रकृति के इन तीन गुणों को निकालकर निर्मल हो जाएगा, तब तू परमात्मा बन जाएगा!'' क्या कारण था कि हजारों-लाखों गोपियां श्रीकृष्ण के पीछे दीवानी थीं?-

31 FACTS;-

1-श्रीकृष्ण के प्रति आकर्षण लाखों स्त्रियों का ठीक ऐसा ही है जैसे पहाड़ से पानी भागता है नीचे की तरफ और झील में इकट्ठा हो जाता है।वास्तव में, पानी गङ्ढे में भर जाता है। गिरता है पर्वत के शिखर पर और भरता है झील में। पर्वत के शिखर पानी को नहीं रोक पाते हैं।पानी का स्वभाव है कि वह गङ्ढे को खोजे, क्योंकि वहीं वह निवास कर सकता है।

2-अगर हम इसको ठीक से समझें तो स्त्री का स्वभाव है कि वह पुरुष को खोजे। वह पुरुष में ही निवास कर सकती है। पुरुष का स्वभाव है कि वह स्त्री को खोजे, वह स्त्री में निवास कर सकता है।यह वैसे ही स्वभाव है जैसे और जीवन की सारी चीजों का स्वभाव है। जैसे आग का कुछ स्वभाव है, जैसे पानी का कुछ स्वभाव है, ऐसे ही पुरुष होने का स्वभाव है कि वह स्त्री में अपने को खोजे। अगर हम ठीक से समझें तो पुरुष का मतलब है, वह स्त्री में अपने को खोजता है।

3-स्त्री का मतलब है, वह जो पुरुष में अपने को खोजती है। स्त्रैण होने का मतलब ही यही है कि जो पुरुष के बिना अधूरी है। पुरुष होने का मतलब यही है, जो स्त्री के बिन अधूरा है। अधूरा होना स्त्री-पुरुष का होना है। इसलिए उनकी निरंतर खोज है। और जब यह खोज पूरी नहीं हो पाती तो “फ्रस्ट्रेशन’ है , दुख है, पीड़ा है, परेशानी है। जब यह खोज पूरी नहीं हो पाती तो स्वभाव के प्रतिकूल होने के कारण कष्ट है, संताप है, चिंता है।

4-श्रीकृष्ण के प्रति इतने आकर्षण का एक ही कारण है कि श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुष हैं। पुरुष की पूर्णता श्रीकृष्ण में पूरी तरह प्रगट हो सकी है।जितना पूर्ण पुरुष होगा उतना आकर्षक हो जाएगा.. स्त्रियों को। महावीर कम पुरुष नहीं हैं। ठीक श्रीकृष्ण जैसे ही पूरे पुरुष हैं। लेकिन महावीर की पूरी साधना, अपने पुरुष होने को छोड़ देने की साधना है ;वह जो स्त्री-पुरुष के नियम का जगत है, उसके पार हो जाने की साधना है। फिर भी इस सारी साधना के बावजूद भी महावीर की भिक्षुणियां चालीस हजार हैं और भिक्षु दस हजार हैं।

5-फिर भी स्त्रियां ही ज्यादा आकर्षित हुई हैं। जहां चार साधु महावीर के पीछे थे वहां तीन स्त्रियां हैं और एक पुरुष है। तो अगर महावीर के पास भी चालीस हजार संन्यासिनियां इकट्ठी हो जाती हैं, ऐसे व्यक्ति के पास जिसकी सारी साधना पुरुष और स्त्री होने के “ट्रांसेंडेंस’ की है, पार जाने की है, जो अपने पुरुष होने को इनकार करता है, किसी के स्त्री होने को इनकार करता है, जो कहता है कि यह संसार की बातें हैं, इनसे पार सब है। लेकिन वह भी स्त्रियों के लिए आकर्षक है।

6-महावीर को छू भी नहीं सकतीं वे स्त्रियां।वे आकर महावीर के निकट भी नहीं बैठ सकतीं। लेकिन फिर भी स्त्रियां महावीर के लिए कम दीवानी नहीं हैं। हालांकि इस बात को कभी इस तरह से नहीं देखा गया। और जो दस हजार पुरुष महावीर के पास आए हैं, इनकी भी अगर हम बहुत खोजबीन करें तो पता चलेगा कि इनके चित्त में कहीं-न-कहीं स्त्रैणता है.. होगी ही। जरूरी नहीं है कि एक आदमी शरीर से पुरुष हो तो मन से भी पुरुष हो। ऐसा भी जरूरी नहीं है कि एक स्त्री शरीर से स्त्री हो तो मन से भी स्त्री हो। मन जरूरी रूप से शरीर के साथ सदा तालमेल नहीं रखता। या बहुत कम तालमेल भी रखता है।कई बार ऐसा हो जाता है कि शरीर पुरुष का होता है, लेकिन चित्त स्त्री की तरफ झुका हुआ होता है।

7-श्रीकृष्ण के साथ तो और भी अदभुत स्थिति है। श्रीकृष्ण तो कुछ छोड़कर भागे हुए नहीं हैं। स्त्रियां उनके पास सिर्फ साध्वी होकर खड़ी रह सकती हैं, ऐसा नहीं है। सिर्फ उनको देख सकती हैं, ऐसा नहीं है। श्रीकृष्ण के साथ नाच भी सकती हैं। तो अगर श्रीकृष्ण के पास लाखों स्त्रियां इकट्ठी हो गईं हों, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। सहज है.. बिलकुल सरलता से है।

बुद्ध वैसे ही पूर्ण पुरुष हैं। इसलिए बहुत मजेदार घटना घटी है। बुद्ध ने स्त्रियों को दीक्षा देने से इनकार कर दिया क्योंकि बुद्ध के सामने खतरा बिलकुल साफ है। वह खतरा यह है कि स्त्रियां दौड़ पड़ेंगी और स्त्रियों की भारी भीड़ इकट्ठी हो जाएगी।

8-और जरूरी नहीं है कि ये स्त्रियां साधना के लिए ही आतुर होकर आई हों, बुद्ध का आकर्षण बहुत कीमती हो सकता है।जो गोपियां श्रीकृष्ण के पास पहुंच गईं हैं, वे कोई परमात्म-उपलब्धि के लिए ही पहुंच गईं, ऐसा नहीं है। श्रीकृष्ण परमात्मा हैं... इनके पास होना भी बड़ा सुखद है। तो श्रीकृष्ण को तो इसकी चिंता नहीं होती कि कौन किसलिए आया है, क्योंकि श्रीकृष्ण का कोई चुनाव नहीं है, लेकिन बुद्ध को चुनाव है। और बुद्ध सख्ती से इनकार करते हैं कि स्त्रियों को दीक्षा नहीं देंगे।

9-और बड़े दिनों तक स्त्रियों का बड़ा आंदोलन चलता है,संघर्ष चलता है। और स्त्रियां सख्ती से बुद्ध की इस बात की खिलाफत करती हैं कि हमारा क्या कसूर है कि हमें दीक्षा नहीं मिलेगी! और बड़ी मजबूरी में और बड़े दबाव में और बड़े आग्रह में बुद्ध राजी होते हैं।वास्तव में, बुद्ध को इसमें साफ एक बात दिखाई पड़ती है कि जो सौ स्त्रियां आती हैं उसमें निन्यानबे के आने की संभावना का कारण बुद्ध हैं, बुद्धत्व नहीं।यह इतना साफ दिखाई पड़ रहा है कि बुद्ध “रेज़िस्ट’ करते हैं।

10-लेकिन तब कृशा गौतमी नाम की एक स्त्री बुद्ध को कहती है कि क्या हम स्त्रियों को बुद्धत्व नहीं मिलेगा? फिर आप कब दुबारा आएंगे हमारे लिए? और अगर हम चूके तो जिम्मेदारी तुम्हारी होगी। हमारा कसूर क्या है? हमारा स्त्री होना कसूर है? यह सौवीं स्त्री है, निन्यानबे वाली स्त्री नहीं है। इस कृशा गौतमी के लिए बुद्ध को झुकना पड़ता है। यह बुद्ध के लिए नहीं आई है, बुद्धत्व के लिए आई है। वह कहती है हमें तुमसे प्रयोजन नहीं है, लेकिन तुम्हारे होने का लाभ पुरुष ही उठा पाएंगे? हम सिर्फ स्त्री होने से वंचित रह जाएंगे? स्त्री होने का ऐसा दंड हमें मिल रहा है! और आप भी इतने चुनाव करते हैं?

11-तो कृशा गौतमी को आज्ञा दी जाती है। फिर द्वार खुल जाता है। और फिर वही होता है जो महावीर के पास हुआ। पुरुष कम पड़ जाते हैं, स्त्रियां रोज ज्यादा होती चली जाती हैं।

आज भी मंदिरों में स्त्रियां ज्यादा हैं, पुरुष कम हैं। श्रीकृष्ण के पास तो बहुत ही सरल

बात है ,कोई बाधा ही नहीं है। श्रीकृष्ण तो जीवन की समग्रता को अंगीकार कर लेते हैं। और श्रीकृष्ण अपने पुरुष होने को स्वीकार करते हैं, किसी के स्त्री होने को स्वीकार करते हैं।सच तो यह है कि श्रीकृष्ण ने भूलकर भी.. जरा-सा भी अपमान किसी स्त्री का नहीं किया।

12-जीसस के वचनों में भी संभावना है, महावीर के वचनों में भी, बुद्ध के वचनों में भी–स्त्री के अपमान की संभावना है। और कारण सिर्फ इतना ही है कि वे अपने पुरुष होने को मिटाना चाह रहे हैं, और कोई कारण नहीं है। स्त्री से कोई वास्ता नहीं है। महावीर, या बुद्ध, या जीसस अपने “सेक्सुअल बीइंग’ को, अपने “बायोलाजिकल बीइंग’ को, अपने जैविक अस्तित्व को पोंछ डालना चाह रहे हैं। स्वभावतः, स्त्री उनको न पोंछने देगी। स्त्री पास पहुंचेगी तो उनका पुरुष होना प्रगट हो सकता है। उनके पुरुष होने को भोजन मिलता है। \

13-लेकिन जीसस जैसे उदास आदमी के पास भी, जिसके ओंठ पर बांसुरी नहीं है, उसके पास भी स्त्रियां इकट्ठी हो गईं। और जीसस की सूली पर से लाश जिन्होंने उतारी, वे पुरुष न थे, वे स्त्रियां थीं।उस युग की सर्वाधिक सुंदरी स्त्री मेरी मेग्दलीन, उसने उस लाश को उतारा। पुरुष तो भाग गए थे, स्त्रियां रुकी थीं।मान्यता अनुसार जब प्रभु यीशु पुन: जी उठे थे तब यही एकमात्र गवाह थी।और जीसस ने स्त्रियों के लिए सम्मान का कभी एक वचन नहीं कहा।

14-महावीर कहते हैं कि स्त्रियां स्त्री-पर्याय से मोक्ष न जा सकेंगी। उन्हें एक बार पुरुष का जन्म लेना होगा, फिर वे मोक्ष जा सकती हैं। बुद्ध तो उनको दीक्षा ही देने से इनकार करते हैं कि हम दीक्षा ही न देंगे। और जब दीक्षा भी दे दी तब भी उन्होंने जो वचन कहे, वह बहुत ही हैरानी के हैं। बुद्ध ने कहा कि मेरा जो धर्म हजारों साल चलता, अब वह पांच सौ साल से ज्यादा नहीं चल पाएगा; क्योंकि स्त्रियां दीक्षित हो गईं हैं।

15-सवाल यह नहीं है कि बुद्ध की तरफ से कथन में सच्चाई थी, क्योंकि बुद्ध का जो मार्ग है, उस मार्ग में, या महावीर का जो मार्ग है उस मार्ग में स्त्री के लिए बहुत उपाय नहीं है। लेकिन महावीर और बुद्ध बड़े आकर्षक हैं और स्त्री आ जाती है। सचाई उनके मार्ग के संदर्भ में है, सचाई “एब्सोलूट’ नहीं है। स्त्री के लिए कोई बाधा नहीं है मोक्ष जाने से । लेकिन मार्ग अन्यथा होगा। महावीर वाले मार्ग से नहीं हो सकता।

16-ऐसे ही जैसे कि दो रास्ते हों पहाड़ पर, एक सीधी चढ़ाई का गोल रास्ता हो और वहां एक तख्ती लगी हो कि स्त्रियां यहां से। बस इतना ही फर्क है। यह रास्ते के संदर्भ में सच है, महावीर के रास्ते के संदर्भ में यह बिलकुल सच है कि स्त्री नहीं जा सकती मोक्ष। अगर महावीर के मार्ग से ही जाने की किसी स्त्री की जिद्द हो तो उसे एक बार पुरुष के रूप में लौटना जरूरी है। क्योंकि सीधी चढ़ाई का रास्ता है। चढ़ाई के कई कारण हैं।

17-बड़ा कारण तो यह है कि न कोई परमात्मा है महावीर के रास्ते पर, न कोई संगी-साथी। न ही कोई है जिसके कंधे पर हाथ रखा जा सके। स्त्री का व्यक्तित्व अपने-आप में ऐसा है कि कोई झूठा कंधा भी मिल जाए तो भी ठीक है। उसको कंधे पर हाथ चाहिए। वह किसी के कंधे पर हाथ रखकर आश्वस्त हो जाती है। यह उसके व्यक्तित्व का ढंग है। इसमें और कोई कारण नहीं है। पुरुष किसी के कंधे पर हाथ रखे तो दीन अनुभव करता है अपने को। स्त्री किसी के कंधे पर हाथ रखे तो उसकी गरिमा बढ़ जाती है। स्त्री जब किसी के कंधे पर हाथ रख कर चलती है तब उसकी शान अलग है। जब वह अकेली चलती है तब दीन होती है। और पुरुष किसी के कंधे पर हाथ रखकर चलता है तो उसकी दीनता प्रगट होती है।

18-स्त्री को पुरुष नहीं बनाया जा सकता। उसके स्त्री होने का अपना ढंग है। और उसके ढंग की खूबी ही यह है कि न केवल स्त्री जब किसी के कंधे पर हाथ रखती है तो खुद गौरवान्वित होती है, उस पुरुष को भी गरिमा से भर देती है। ऐसा नहीं है, यह कुछ सिर्फ लेना ही नहीं है, उसमें देना भी है। यह सिर्फ कंधे का सहारा लेकर ऐसा नहीं है कि स्त्री को ही कुछ मिल जाता है, पुरुष को भी बहुत कुछ मिलता है। ऐसा पुरुष जिसके कंधे पर किसी स्त्री ने हाथ नहीं रखा, वह भी बहुत दीनता का अनुभव करता है।

19-यह जो महावीर, बुद्ध, जीसस, इन सारे लोगों के व्यक्ति में, जैविक व्यक्तित्व का निषेध इनकी साधना का हिस्सा है। श्रीकृष्ण के जीवन में समस्त की स्वीकृति साधना है। उसमें जैविक / जो काम-शरीर है,वो भी स्वीकार है ..निषेध कुछ भी नहीं है। श्रीकृष्ण के हिसाब से तो जो निषेध करता है, वह किसी-न-किसी अर्थ में थोड़ा-न बहुत नास्तिक है। असल में निषेध करना ही नास्तिकता है।

21-अब कितनी मात्रा में कोई करता है–कोई कहता है कि हम शरीर को स्वीकार नहीं करते हैं तो शरीर के प्रति नास्तिक हैं। कोई कहता है हम ईश्वर को स्वीकार नहीं करते, तो वह ईश्वर के प्रति नास्तिक है। लेकिन अस्वीकृति नास्तिकता का ढंग है.. स्वीकृति आस्तिकता है। इसलिए महावीर ,बुद्ध ,जीसस को इतना आस्तिक नहीं कह सकते ; जितना आस्तिक श्रीकृष्ण है .. समस्त स्वीकृति। निषेध है ही नहीं, निंदा है ही नहीं। जो भी है, उसकी अपनी जगह है अस्तित्व में।

22-इस वजह से श्रीकृष्ण के पास अगर लाखों स्त्रियां इकट्ठी हो सकीं, तो आकस्मिक नहीं है। और पास इकट्ठे होने का कारण न था। महावीर के पास इकट्ठे हों, तो भी एक “डिस्टेंस’, एक “फार्मल डिस्टेंस’ जरूरी है। महावीर के पास भी खड़े हों, तो एक शिष्टाचार का जितना फासला है उतना रखना पड़ेगा। महावीर के गले को स्त्री जाकर मिल जाए तो एकदम अशिष्टता हो जाएगी। न तो महावीर इसे बर्दाश्त करेंगे, न उस स्त्री को इससे कोई सुख और शांति मिलेगी, अपमान ही मिलेगा।महावीर एक शिलाखंड की तरह खड़े रह जाएंगे, कोई छुएगा भी तो पता चलेगा कि पत्थर है।

23- महावीर कोई स्त्री का अपमान करने जा रहे हैं, ऐसा नहीं है। यह उनका अपना होने का ढंग है। इसलिए स्त्रियां महावीर के आसपास, जिसको हम कहें एक औपचारिक फासला सदा कायम रखती हैं। उनके पास नहीं जाया जा सकता। उनके अस्तित्व का एक घेरा है जिसमें प्रवेश नहीं किया जा सकता।लेकिन श्रीकृष्ण के साथ स्थिति बिलकुल और है।श्रीकृष्ण के

साथ अगर कोई स्त्री फासला रखना चाहेगी तो मुश्किल में पड़ जाएगी।अगर श्रीकृष्ण के पास जाएगी तो पास आना ही पड़ेगा। जैसे कि श्रीकृष्ण पुकारते हुए हैं, एक निमंत्रण हैं।

उनका पूरा अस्तित्व निमंत्रण है, आमंत्रण है और हर शुद्ध आत्मा सहज हीं परमात्मा से आकर्षित होती है ।इस आमंत्रण को अगर हजारों स्त्रियों ने स्वीकार किया , तो आश्चर्य नहीं है। यह सहज हुआ।वास्तव में अधिकांश स्त्रियां हृदय से और अधिकांश पुरुष मस्तिष्क से संचालित होते है ।

24-आप इसे मानिए या मत मानिए, लेकिन सच यही है कि आपका जन्म भी कामुकता की वजह से ही हुआ है। आप इस दुनिया में इसी तरह से आए हैं। जो लोग जीवन के साथ लय में नहीं हैं, वे लोग इस तरह की बातें करते हैं कि किसी पवित्र इंसान का जन्म कामुकता की वजह से नहीं होता, क्योंकि उनका मानना है कि कामुकता गंदी चीज है। अब अगर किसी को

पवित्र बनना है, तो फिर उसे तो निश्चित रूप से कामुकता से पैदा नहीं होना चाहिए। इसी वजह से 'कुंवारी मेरी' जैसी बातें निकल कर आती हैं। लोग जीवन के सामान्य से जीवविज्ञान को जब स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं तो, आध्यात्मिकता की बात तो भूल ही जाइए। जब आप जीवविज्ञान को ही नहीं मान रहे हैं, तो जीवन के उच्चतर पहलुओं को मानने और करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

25-हम पूछते हैं कि क्या श्रीकृष्ण के लिए सहचर्य संभव है?वास्तव में, श्रीकृष्ण के लिए

कुछ भी असंभव नहीं है।प्रकृति के तल पर जो निकटतम .आखिरी नाता है, वह सहचर्य है। उसके आगे प्रकृति का उपाय नहीं। उसके आगे फिर परमात्मा का ही क्षेत्र शुरू होता है। लेकिन श्रीकृष्ण प्रकृति की निकटता को स्वीकार करते हैं; वह कहते हैं, प्रकृति भी परमात्मा की है।

श्रीकृष्ण के लिए सहचर्य विचारणीय नहीं है, प्रश्न नहीं है, समस्या नहीं है, जीवन का एक तथ्य है।हमने सहचर्य को एक समस्या बना दिया है, जीवन का तथ्य नहीं रखा।

26-श्रीकृष्ण के लिए सहचर्य विचारणीय नहीं है, फलित होना है तो हो जाता है, हो सकता है.. नहीं फलित होता है तो नहीं होना है, नहीं होता है। इसकी चिंतना से वह नहीं चलते हैं।श्रीकृष्ण के लिए निर्णय नहीं है अगर किसी का प्रेम-क्षण इतने निकट आ जाए ..तो श्रीकृष्ण “अवेलेबल’ हैं, श्रीकृष्ण उपलब्ध हैं। न घटित हो, तो श्रीकृष्ण आतुर नहीं हैं। न श्रीकृष्ण के मन में कोई विरोध है, न कोई प्रशंसा है। जो हो जाता है, उसमें सहज जीने की सिर्फ राजी, स्वीकृति, स्वीकार है।यही उनका व्यक्तित्व है, यही उनकी विशेषता है।

27-श्रीकृष्ण के स्वीकार का मतलब है सिर्फ, कि अस्वीकार नहीं। इसलिए श्रीकृष्ण को समझना हमें सबसे ज्यादा जटिल है। महावीर को , बुद्ध को, जीसस को समझना आसान है।लेकिन सारी पृथ्वी पर श्रीकृष्ण को समझना सर्वाधिक कठिन है। इसलिए सर्वाधिक अन्याय उनके साथ सहज ही हो जाता है। हमारी सारी धारणाएं महावीर, बुद्ध, जीसस और मुहम्मद ने निर्मित की हैं। हमारी सारी धारणाओं का जगत, हमारे विचार, हमारे सिद्धांत, हमारे शुभ-अशुभ की व्याख्या महावीर, बुद्ध, जीसस, मुहम्मद, कन्फ्यूसियस, इनने तय की है। इसलिए इनको समझना हमें सदा आसान है, क्योंकि हम इनसे निर्मित हुए हैं।

28-असल में श्रीकृष्ण किसी को निर्मित ही नहीं करते, वह कहते हैं, जो है वह ठीक है। निर्माण का सवाल क्या है! तो जो निर्मित करते हैं उनसे हम निर्मित हुए हैं, श्रीकृष्ण ने तो किसी को निर्मित किया नहीं, इसलिए श्रीकृष्ण को समझना बहुत मुश्किल हो जाता है।

जब भी हम श्रीकृष्ण को समझते हैं, तो या तो महावीर का , या बुद्ध का , या क्राइस्ट का चश्मा होगा, या कन्फ्यूसियस का होगा, उससे हम श्रीकृष्ण को देखेंगे। और श्रीकृष्ण कहते हैं, तुम्हें अगर मुझे देखना है तो चश्मा उतार दो। बहुत मुश्किल है.. वह चश्मा नहीं उतारोगे तो श्रीकृष्ण में कुछ-न-कुछ गड़बड़ दिखाई पड़ेगी। वह आपके चश्मे की वजह से दिखाई पड़ेगी। लेकिन आप चश्मा उतारो, तो श्रीकृष्ण अत्यंत सहज पुरुष हैं...अत्यंत सहज ।

29-पूछा जा सकता है कि इतनी सहज स्त्री क्यों पृथ्वी पर नहीं हो सकी? एकाध स्त्री तो होनी ही चाहिए थी न...क्या कारण है? इतना ही कारण नहीं है कि स्त्री दबाई गई ,पुरुष ने उसे स्वतंत्रता नहीं दी होने की ..क्योंकि यह बात फिजूल है।इसका कोई अर्थ नहीं है।जितनी

स्वतंत्रता जिसे चाहिए उतनी सदा मिल जाती है, अन्यथा वह जीने से इनकार कर देता है। वास्तव में,स्त्री का सारा व्यक्तित्व, सारा ढंग, उसके होने की प्राकृतिक व्यवस्था “मोनोगेमस’ है, वह एक पर निर्भर रहना चाहती है।इस एक पर निर्भर होने का कारण चित्त में तो है ही, बहुत ज्यादा “बायोलाजिकल/’जैविक कारण भी है स्त्री एक के साथ जन्म-जन्म तक जीने की कामना .. दुबारा भी जन्म मिले तो उसी के साथ मिले, वैसी कामना करती है।

30-महावीर के मार्ग से कभी कोई एकाध आदमी उपलब्ध हो सकता है। लेकिन महावीर के मार्ग पर सौ में से निन्यानबे आदमी चलते हैं। श्रीकृष्ण के मार्ग से निन्यानबे आदमी उपलब्ध हो सकते हैं, लेकिन श्रीकृष्ण के मार्ग से एकाध आदमी भी नहीं चलता है। महावीर का मार्ग पगडंडी का है, बुद्ध का भी और जीसस का भी। इनके मार्ग बहुत दुरूह हैं, क्योंकि व्यक्ति को अपने से ही लड़कर गुजरना है। कभी-कभी कोई सफलता उपलब्ध होती

है।

31-श्रीकृष्ण का मार्ग शिवत्व का मार्ग है और राजपथ की तरह है। उस पर बहुत लोग जा सकते हैं। लेकिन, उस पर बहुत कम लोग जाएंगे क्योंकि सहज होने की क्षमता ही आदमी खोता चला गया... असहज होना ही सहज हो गया है। रुग्ण होना ही हमारा स्वास्थ्य हो गया है और स्वस्थ होने की धारणा ही भूल गई है।

THE 10 KEY NOTES;-

1-मनुष्य जीवन को हम चार विभागों में बांटते हैं। बाल्यकाल, जवानी, प्रौढ़ता, और वृद्धावस्था। चारों अवस्थाओं का पूर्ण विकसित रूप जैसा श्रीकृष्ण के जीवन में पाया जाता है, वैसा और किसी अवतार के जीवन में नहीं।कृष्णावतार में परमात्मा की पूर्ण कला अभिव्यक्त हुई है।राम को मर्यादा पुरुषोत्तम,और कृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम अथवा पूर्णावतार कहते हैं। श्रीकृष्ण को छोड़ शेष सब अंशावतार हैं। इसका तात्पर्य यह है कि और अवतारों में मानव जीवन का उतना परिपूर्ण विकास नहीं देखा जाता, जितना कृष्णावतार में।

2-बचपन में कृष्ण स्वाभाविक बाल-लीला करते हैं। जवानी में युवकोचित गुण और शक्ति का परिचय देते हैं। प्रौढ़ावस्था में ज्ञान और विवेक का दर्शन होता है और वृद्धावस्था में संन्यासी का-सा जीवन दिखाई देता है। उनके जीवन की समस्त घटनाओं पर मानवी और अतिमानवी दोनों दृष्टियों से विचार किया जा सकता है।केवल मूर्ख लोग ही भगवान् कृष्ण को साधारण मनुष्य समझते हैं।

3-दसवे अध्याय में भगवान ने स्वयं कहा है की वो ही पूर्ण परमेश्वर है जैसे स्वर्णकार सुवर्ण के बिना आभूषण नहीं बना सकता तथा कुम्हार मिट्टी के बिना घड़ा बनाने में असमर्थ है, ठीक उसी प्रकार परमात्मा को यदि प्रकृति का सहयोग न मिले तो वे सृष्टि नहीं कर सकते। सृष्टि के अवसर पर परब्रह्म परमात्मा दो रूपों में प्रकट हुए–प्रकृति और पुरुष। उनका आधा दाहिना अंग ‘पुरुष’ और आधा बांया अंग ‘प्रकृति’ हुआ। 4-वही प्रकृति परमब्रह्म में लीन रहने वाली उनकी सनातनी माया हैं।परम पुरुष के दक्षिणभाग से जगत के कारण रूप तीन गुण प्रकट हुए। उन गुणों से महतत्त्व, अंहकार, पांच तन्मात्राएं, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द प्रकट हुए।परमात्मा की बुद्धि से मूल प्रकृति का प्रादुर्भाव हुआ।काल, स्वभाव, कार्य, कारण, मन, पंचमहाभूत, अहंकार, तीनों गुण, इन्द्रियां, ब्रह्माण्ड शरीर, स्थावर-जंगम जीव–सब-के-सब उन मूल प्रकृति के ही रूप हैं।प्रकृति भी परब्रह्म में लीन हो जाती है। 5-गीता में ऐसे बहुत-से श्लोक हैं, इनके अलावा महाभारत व श्रीमद्भागवत में ऐसे अनेक वाक्य हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण पूर्ण परात्पर सनातन ब्रह्म हैं।जिसे निराकार ब्रह्म कहा जाता है, उसका ध्यान भी तो ज्योति रूप में किया जाता है, अतः वह साकार ही है। ईश्वर के निराकार होने का अर्थ मात्र इतना ही है उसका कोई विशेष रूप नहीं है अपितु उसका कोई भी रूप हो सकता है।परमब्रह्म किसी कार्य (शरीर धारण) को करने में असमर्थ नहीं है, जैसा कि कृष्ण ने स्वयं गीता में कहा कि ''मैं अर्थात परमब्रह्म समय- समय पर भक्तों के कल्याण के लिए तथा दुष्ट पुरूषों के संहार के लिए प्रकट होते है।जब मैं मनुष्य रूप में अवतरित होता हूँ, तो मूर्ख मेरा उपहास करते हैं | वे मुझ परमेश्र्वर के दिव्य स्वभाव को नहीं जानते |'

'6-शिव के तीन मार्ग... सद्गुरु के अनुसार आदियोगी शिव ने तीन मूलभूत रूप से ...अलग तरीकों से आध्यात्मिक प्रक्रिया सिखाई।योग का ज्ञान देते समय शिव ने कई अलग-अलग तरीकों से योग संचारित किया, जिसने लोगों के दिमाग में बहुत से भ्रम पैदा किए हैं। उनकी पहली शिष्य थी, उनकी पत्नी पार्वती। जब उन्होंने पार्वती को ज्ञान देना चाहा, तो उन्होंने एक तरीके से योग सिखाया। पार्वती ने शिव से पूछा, ‘मुझे किस तरह ज्ञान हासिल करना है? उसका तरीका क्या है?’ वह सीखने के लिए उत्सुक थीं और उनके सामने एक शिष्य की तरह बैठीं। वह जटिल प्रक्रियाएं करना चाहती थीं। 6-1- शिव हंसकर बोले, ‘वह सब छोड़ो। तुम सिर्फ आकर मेरी गोद में बैठ जाओ।’ यह एक स्त्री को अपनी गोद में लाने की एक पुरुष की तरकीब लग सकती है, मगर उन्होंने सिर्फ पार्वती को अपनी गोद में ही नहीं लिया, बल्कि अपना हिस्सा बना लिया।अगर आप किसी को अपना हिस्सा बनाना चाहते हैं, तो आपको अपना एक हिस्सा त्यागना होगा, वरना ऐसा नहीं हो पाएगा। आप अखंड रहकर किसी को अपना हिस्सा नहीं बना सकते। तो शिव ने पार्वती को अपना हिस्सा बना लिया और पार्वती ने परमज्ञान प्राप्त कर लिया। 6-2-मगर जब उनके सात शिष्य आए, जिन्हें आज सप्तऋषियों के रूप में जाना जाता है, तो शिव ने इस तरह ज्ञान दिया मानो परम सत्य लाखों मील दूर हो। जटिल क्रियाओं और बहुत तरह की साधना से असाधारण माहौल प्रकट हुआ।जब शिव के करीबी मित्र -गण आए, तो उन्होंने न तो उन्हें अपनी गोद में बैठने को कहा, न ही साधना सिखाई। वह बस बोले, ‘बस मेरे साथ रहो, और मेरे नशे में डूबे रहो।’ वे शिव के नशे में इतने चूर हो गए कि वे बस साथ-साथ नाचते रहे और एक साथ रहने लगे, उनके लिए यही योग था। 6-3-योग सिखाते समय शिव ने अनेक भाषाएं बोलीं क्योंकि योग का मतलब कभी परम तत्व से नहीं होता। योग का संबंध सिर्फ उस व्यक्ति से होता है, जो अभी यहां बैठा है। क्योंकि समस्या आपको है और समाधान की जरूरत भी आपको है, परम सत्ता को नहीं।मन के तीन अंग हैं- ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक। इसीलिए इन तीनों अंगों के अनुरूप ज्ञानयोग, भक्तियोग, और कर्मयोग का समन्वय हुआ।शिव ने सप्तऋषियों को ज्ञानयोग के मार्ग,मित्र -गण को भक्तियोग और कर्मयोग के मार्ग ;परन्तु माता पार्वती को प्रेमयोग के मार्ग द्वारा ज्ञान दिया।

7-जब मनुष्य के इन्द्रियों के भोग्य पदार्थों पर का वह उत्कट प्रेम भगवान् में लग जाता है, तब उसका नाम ‘भक्ति’ हो जाता है। प्रेम योग का अर्थ भक्तियोग नहीं होता।जब तीन योग साम्यावस्था में पहुंचते हैं और जब भक्ति विश्वास में बदलती हैं ;तब प्रेम योग का उदय होता हैं।प्रेम योग अर्थात स्वयं से प्रेम करना, सभी से प्रेम करना, सभी को स्वयं समझना

और सभी को परमात्मा समझकरउससे प्रेम करना।योग की विशेषता तो शुद्ध और पवित्र प्रेम में ही है।प्रमुख रूप से शिव और श्रीकृष्ण प्रेम योगी हैं। इस प्रेम का वर्णन नहीं किया जा सकता ...यह अनुभूति की बात है।

8--हिन्दू दर्शन विश्व का एक मात्र दर्शन है, जिसमें ईश्वर के साथ भक्त ने, पिता, पुत्र, पति, मित्र जैसे प्रेम-संबंध स्थापित किये हैं! यह “प्रेमयोग” की परकाष्ठा ही है कि अनेेक भक्तों ने ईश्वर को इन्ही रूपों में भजा और उस महान सत्ता से साक्षात्कार किया।श्री कृष्ण और गोपियों का प्रेम महान था, इन्द्रियातीत था और आत्यात्मिक था। पाश्चात दार्शनिक प्लैटो के मत में भी ''प्रेम वही है, जिसमें काम का लेशमात्र भी न हो''।श्री कृष्ण ने अपने साहचर्य से गोपियों को इन्द्रियों के परे ले जाकर उस शाश्वत्‌ आनन्द की झलक दिखलाई।

9-जब श्री रामकृष्ण परमहंस जैसे आधुनिक योगी ने भी स्पर्श मात्र से स्वामी विवेकानन्द जैसे कट्टर नास्तिक की मनोवृत्ति को एक साथ ही पलट दिया, तब योगेश्वर श्री कृष्ण के लिए गोपियों को इन्द्रियों के परे ले जाकर अपने सच्चिदानन्दस्वरूप का साक्षात्कार करा देना तो बिलकुल सहज था। जो लोग इस प्रकार के संबंधों में भोग-वासना की शंका करते हैं, उनकी मनोवृत्ति इस बात की कल्पना ही नहीं कर सकती कि इंन्द्रियजन्य सुख से परे भी कोई सुख है और वह इसकी अपेक्षा कहीं अधिक ऊंचा एवं पवित्र है ।

10-“ऊधव जी” गोपियों की बात सुनकर गहरे ध्यान में चले़ गये, कहा जाता है कि वे कई दिनों तक गोकुल की मिट्टी में समाधिस्थ रहे, अन्ततः उन्होेंने “ज्ञान” पर “प्रेम” की अधीनता स्वीकार कर ली। इसका विस्तृत विवरण “सूरदास जी” ने “भ्रमर गीत” में किया है।

वास्तव में,श्रीकृष्ण कोई आत्मा नहीं परमात्मा हैं/शिवस्वरुप हैं।बहुत से गुरुओ ने श्रीकृष्ण का अनुसरण करना चाहा ;परन्तु परिणाम सभी को मालूम हैं |प्रकृति 25 तत्त्व में है, और स्त्री -पुरुष भी तो प्रकृति ही हैं ;परन्तु परम पुरुष केवल एक ही है और वो हैं केवल ''शिव ...श्रीकृष्ण'' ...

....SHIVOHAM....

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