क्या अर्थ है गुणातीत का?
और जो निरंतर आत्म— भाव में स्थित हुआ, दुख— सुख को समान सोचने वाला है तथा मिट्टी पत्थर और सुवर्ण में समान भाव वाला और धैर्यवान है; तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है और अपनी निंदा— स्तुति में भी समान भाव वाला है।
तथा जो मान और अपमान में सम है एवं मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है, वह संपूर्ण आरंभों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है।
इस संबंध में कुछ बहुत मूलभूत बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
पहली, साधारणत: हम ऐसा मानते रहे हैं, सुनते रहे हैं कि जो व्यक्ति वीतरागता को, ज्ञान की पूर्णता को उपलब्ध हो जाएगा, उसकी समस्त वृत्तियां क्षीण हो जाएंगी। यह ठीक भी है और गलत भी। ठीक तब है, जब उस व्यक्ति का शरीर गिर जाए। और यह अंतिम शरीर होगा। वीतरागता को उपलब्ध व्यक्ति का यह शरीर अंतिम होगा। इसके बाद नए शरीर को ग्रहण करने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि वासनाओं के बीज, मूल बीज भस्म हो गए। तो नया जन्म तो नहीं होगा।
इसलिए यह बात ठीक है कि वीतराग पुरुष की समस्त प्रवृत्तियां शून्य हो जाती हैं। लेकिन यह बात किसी और अर्थ में गलत भी है। क्योंकि वीतरागता के बाद भी इस देह में कुछ दिन रहना होगा। बुद्ध चालीस वर्षों तक इस देह में थे। ज्ञान की उपलब्धि के बाद भी शरीर को भूख लगेगी, प्यास भी लगेगी। शरीर विश्राम भी होगा। शरीर विश्राम भी चाहेगा। शरीर को आक्सीजन की भी जरूरत होगी। जब तक शरीर है, तब तक शरीर की सारी अपनी प्रकृति के अनुकूल जरूरतें होंगी।
और ये जो तीन गुण हैं, सत्व, रज, तम, ये तीन भी शरीर के गुण हैं। जैसे भूख—प्यास शरीर को लगेगी, वैसे ही सत्य, रज, तम की प्रक्रियाएं भी जारी रहेंगी। फर्क जो हो जाएगा, वह यह कि भूख लगते समय भी बुद्ध जानते हैं कि यह भूख मुझे नहीं लगी है, यह भूख शरीर को लगी है। प्यास लगते समय भी जानते हैं कि इस प्यास का मैं साक्षी हूं भोक्ता नहीं हूं कर्ता नहीं हूं।
लेकिन शरीर को तो प्यास लगेगी ही। शरीर को तो भूख लगेगी ही। शरीर के जो भी गुणधर्म हैं, वे जारी रहेंगे। शुद्धतम रूप में जारी रहेंगे। उनमें चेतना के जुड़ जाने से जो विक्षिप्तता पैदा होती है, वह खो जाएगी। इसलिए प्रवृत्ति जारी रहेगी।
बुद्ध भी चलते हैं, उठते हैं, समझाते हैं, बोलते हैं, सोते हैं, भोजन करते हैं, जागते हैं। सारी क्रियाएं जारी हैं। लेकिन इन क्रियाओं के कारण वे बंधते नहीं हैं, वह चीज टूट गई है। इन क्रियाओं से उनका कोई तादात्म्य नहीं है। ये क्रियाएं उनके आस—पास हो रही हैं; बीच का केंद्र इनसे मुक्त हो गया है। चेतना इनसे अस्पर्शित और अछूती रह जाती है।
इसलिए जो जन्मों —जन्मों में व्यक्तित्व के आधार बने होंगे, वे आधार काम करेंगे। इस शरीर के गिर जाने तक शरीर सक्रिय होगा। लेकिन यह सक्रियता वैसी ही हो जाएगी, जैसे आप साइकिल चला रहे हों और पैडल चलाना बंद कर दिया हो, फिर सिर्फ पुरानी गति और मोमेंटम के कारण साइकिल थोड़ी दूर चलती चली जाए। बाहर से देखने वाले को तो ऐसा लगेगा कि अगर आपने साइकिल चलानी बंद कर दी है, तो साइकिल रुक क्यों नहीं जाती है!
आप पैडल चलाने बंद कर दिए हैं, लेकिन आप मीलों से साइकिल चला रहे हैं, तो एक गति चकों ने ले ली है, वह गति अपनी निर्जरा करेगी। अब आप बिना पैडल मारे भी बैठे हैं साइकिल पर, साइकिल चलती चली जाएगी। यह जो चलना होगा, इसको आप नहीं चला रहे हैं। अब यह साइकिल ही चल रही है। इसमें आप कर्ता नहीं हैं। आप सिर्फ साक्षी हैं। आप साइकिल पर
बैठे हैं और साइकिल चल रही है। और एक अनूठा अनुभव होगा कि मैं नहीं चला रहा हूं साइकिल चल रही है। और साइकिल इसलिए चल रही है कि पीछे मैंने उसे चलाया था।
तो जन्मों—जन्मों में आपने शरीर को चलाया है। और जन्मों—जन्मों में आपने अपने गुणों को गति दी है। सब गुणों का मोमेंटम हो गया है, सब गुणों ने अपनी गति पकड़ ली है। अब वे चलते जाएंगे। जब तक गति क्षीण न हो जाए, तब तक आपका शरीर चलता रहेगा। लेकिन यह चलना वैसा ही है, जैसे बिना पैडल चलाए साइकिल चल रही हो।
पर बाहर से देखने वाले को तो यही लगेगा, साइकिल चल रही है, इसलिए आप चला रहे होंगे। उसका लगना भी ठीक है। लेकिन आप जानते हैं कि अब आप चलाना छोड़ दिए हैं। अब आप सिर्फ प्रतीक्षा कर रहे हैं कि साइकिल रुक जाए।
यह जो भीतर की भाव—दशा है, इसे हमें पहचानने में कठिनाई होती है, क्योंकि हम हमेशा गति दे रहे हैं। और हमें खयाल में भी नहीं आता कि बिना गति दिए जीवन कैसे चलेगा।
लेकिन जीवन चलता है। थोड़े दिन चल सकता है। उन थोड़े दिन का मजा ही और है। आपने पतवार उठाकर रख ली है, और नाव अपनी गति से बही चली जाती है। न आपकी अब आकांक्षा है कि नाव चले…….।
और ध्यान रहे, आप यह भी कह सकते हैं कि अगर चलाना बंद कर दिया है, तो आप ब्रेक भी लगाकर साइकिल से उतर सकते हैं! आप छलांग लगाकर कूद सकते हैं! जब चलाना ही बंद कर दिया है, तो अब साइकिल पर बैठे रहने का क्या प्रयोजन है?
इसे थोडा समझ लेना जरूरी है। क्योंकि जब तक किसी चीज को रोकने की आकांक्षा बनी रहे, उसका अर्थ है कि चलाने की आकांक्षा का विपरीत रूप मौजूद है। जब आकांक्षा पूरी ही जाती है, तो न चलाने का मन रह जाता है, न रुकने का मन रह जाता है। क्योंकि ब्रेक लगाने का तो एक ही अर्थ होगा कि बुद्ध और महावीर को आत्महत्या कर लेनी चाहिए। और कोई अर्थ नहीं हो सकता। अब कोई प्रयोजन तो रहा नहीं शरीर का, इससे छलांग लगा जानी चाहिए। लेकिन जीवन में ब्रेक लगाने का तो एक ही अर्थ है कि आप आत्महत्या कर लें, आत्मघात कर लें।
ध्यान रहे, आत्मघात करने वाला व्यक्ति जीवन से मुक्त नहीं हुआ है। जीवन से बंधे होने के कारण लोग आत्मघात करते हैं। यह उलटा दिखाई पड़ेगा। लेकिन जो लोग आत्मघात करते हैं, उनका निरीक्षण करें। उनके आत्मघात का कारण यह नहीं है कि वे जीवन से मुक्त हो गए हैं। उनके आत्मघात का सदा ही यही कारण है कि जीवन से उन्होंने जो चाहा था, वह जीवन उन्हें नहीं दे पाया। वे जीवन से मुक्त नहीं हुए हैं, जीवन से निराश हो गए हैं। और निराश उसी मात्रा में होते हैं हम, जिस मात्रा में हमने आशा बांधी हो। किसी ने सोचा हो कि जीवन में स्वर्ग मिलने वाला है और वह न मिले, तो दुख होता है। और वैसा व्यक्ति आत्मघात कर लेता है।
ज्ञानी को न तो आकांक्षा है कि जीवन चले, न रुकने का कोई सवाल है। क्योंकि न चलने से कुछ मिलने की आशा है, न रुकने से कुछ मिलने की आशा है। न तो वह सोचता है कि जीवन में चलता रहूं तो मुझे कोई स्वर्ग मिलने वाला है। न वह सोचता है कि रुक जाने से कोई स्वर्ग मिलने वाला है। वह जानता है कि स्वर्ग तो मैं हूं। चलने और रुकने से उसका कोई भी संबंध नहीं है।
तो अगर वह कोशिश करके ब्रेक भी लगाए, तो समझना कि अभी पैडल मार रहा है। क्योंकि ब्रेक लगाना भी पैडल मारने का ही हिस्सा है। वह कुछ कर रहा है। अभी कर्तापन उसका नहीं गया है। साक्षी नहीं हुआ। अभी ब्रेक लगा रहा है। कल पैडल लगा रहा था, अब वह ब्रेक लगा रहा है। लेकिन अभी साइकिल से उसका कर्तापन जुड़ा हुआ है।
और साक्षीपन का अर्थ हुआ कि अब वह कुछ भी नहीं कर रहा है। अब जो हो रहा होगा, वह जानता है कि प्रकृति से हो रहा है। वही कृष्ण कह रहे हैं।
कृष्ण कह रहे हैं कि जिस दिन कोई जान लेता है कि गुण ही गुण में बर्त रहे हैं, मैं पृथक हूं, मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूं? मैं करने वाला ही नहीं हूं, जिस दिन ऐसा द्रष्टा— भाव गहन हो जाता है, उसी दिन व्यक्ति गुणातीत अवस्था को उपलब्ध हो जाता है। उसी दिन वह सच्चिदानंदघन हो जाता है, उसी क्षण।
रुकने की वासना भी चलने की वासना का हिस्सा है। रुकना भी चलने का एक ढंग है, क्योंकि रुकना भी एक क्रिया है। तो ऐसा व्यक्ति जिसकी प्रवृत्ति खो गई है।
ध्यान रहे, हम तो हमेशा विपरीत में सोचते हैं, इसलिए कठिनाई होती है। हम सोचते हैं, जिसकी प्रवृत्ति खो गई है, वह निवृत्ति को साधेगा। निवृत्ति भी प्रवृत्ति का एक रूप है। कुछ करना भी कर्ता— भाव है; और कुछ न करने का आग्रह करना भी कर्ता— भाव है। अगर मैं कहता हूं कि यह मैं न करूंगा, तो इसका अर्थ यह हुआ कि मैं मानता हूं कि यह मैं कर सकता था। यह भी मैं मानता हूं कि यह मेरा कर्तृत्व है; चाहूं तो करूं, और चाहूं तो न करूं।
लेकिन साक्षी का अर्थ है कि न तो मैं कर सकता हूं, और न न कर सकता हूं। न तो प्रवृत्ति मेरी है, न निवृत्ति मेरी है। प्रवृत्ति भी गुणों की है और निवृत्ति भी गुणों की है। गुण ही बर्त रहे हैं। वे ही चल रहे हैं; वे ही रुक जाएंगे। तो जब तक चल रहे हैं, मैं उन्हें चलता हुआ देखूंगा। और जब रुक जाएंगे, तब मैं उन्हें रुका हुआ देखूंगा। जब तक जीवन है, तब तक मैं जीवन का साक्षी; और जब मृत्यु होगी, तब मैं मृत्यु का साक्षी रहूंगा। कर्ता मैं न बनूंगा।
इसलिए निवृत्ति को आप मत सोचना कि वह वास्तविक निवृत्ति है। अगर उसमें कर्ता का भाव है, तो वह प्रवृत्ति का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। वह उसका ही उलटा रूप है। कोई दौड़ रहा था कर्ता— भाव से, कोई खड़ा है कर्ता — भाव से; लेकिन कर्ता— भाव मौजूद है।
बुद्ध ने कहीं कहा है कि न तो मैं प्रवृत्त हूं अब और न निवृत्त; न तो मैं गृहस्थ हूं अब और न संन्यस्त, न तो मैं कुछ पकड़े हूं और न मैं कुछ छोड़ता हूं।
इसे ठीक से खयाल में ले लें, क्योंकि जीवन के बहुत पहलुओं पर यही अड़चन है।
हम सोचते हैं कि कुछ कर रहे हैं, इसको न करें। हमारा ध्यान क्रिया पर लगा है, हमारा ध्यान कर्ता पर नहीं है। क्योंकि करने में भी मैं कर्ता हूं न करने में भी मैं कर्ता हूं।
सारी चेष्टा द्रष्टा पुरुषों की यह है कि कर्ता का भाव मिट जाए। मैं होने दूं र करूं न। जो हो रहा है, उसे होने दूं; उसमें कुछ छेड़छाड़ भी न करूं। जहां कर्म जा रहे हों, जहां गुण जा रहे हों, उन्हें जाने दूं। मैं उन पर सारी पकड़ छोड़ दूं।
इसीलिए संतत्व अति कठिन हो जाता है। साधुता कठिन नहीं है। क्योंकि साधुता निवृत्ति साधती है। वह प्रवृत्ति के विपरीत है। वह गृहस्थ के विपरीत है। वहां कुछ करने को शेष है, विपरीत करने को शेष है। कोई हिंसा कर रहा है, आप अहिंसा कर रहे हैं। कोई धन इकट्ठा कर रहा है, आप त्याग कर रहे हैं। कोई महल बना रहा है, आप झोपड़े की तरफ जा रहे हैं। कोई शहर की तरफ आ रहा है, आप जंगल की तरफ जा रहे हैं। वहां कुछ काम शेष है।
मन को काम चाहिए। अगर धन इकट्ठा करना बंद कर दें, तो मन कहेगा, बांटना शुरू करो। लेकिन कुछ करो। करते रहो, तो मन जिंदा रहेगा। इसलिए मन तत्काल ही विपरीत क्रियाएं पकड़ा देता है।
स्त्रियों के पीछे भागो। अगर इससे रुकना है, तो मन कहता है, स्त्रियों से भागो। मगर भागते रहो। क्योंकि मन का संबंध स्त्री से नहीं है, भागने से है। या तो स्त्री की तरफ भागो, या स्त्री की तरफ पीठ करके भागो, लेकिन भागों। अगर भागते रहे, तो कर्तापन बना रहेगा। अगर भागना रुका, तो कर्तापन रुक जाएगा।
तो मन ऐसे समय तक भी दौड़ाता रहता है, जब कि दौड़ने में कोई अर्थ भी नहीं रह जाता है।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन अपने चिकित्सक के पास गया। तब वह बहुत का हो गया था। नब्बे वर्ष उसकी उम्र थी। जीर्ण—शीर्ण उसका शरीर हो गया था। आंखों से ठीक दिखाई भी नहीं पड़ता था। हाथ से लकड़ी टेक—टेक बामुश्किल चल पाता था।
अपने चिकित्सक से उसने कहा कि मैं बड़ी दुविधा में और बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं। कुछ करें। चिकित्सक ने पूछा कि तकलीफ क्या है? नसरुद्दीन ने कहा कि संकोच होता है कहते, लेकिन अपने चिकित्सक को तो बात कहनी ही पड़ेगी। मैं अभी भी स्त्रियों का पीछा करता हूं। इतना का हो गया हूं अब यह कब रुकेगा? मैं अभी भी स्त्रियों का पीछा कर रहा हूं। आंखों से दिखाई नहीं पड़ता, पैरों से चल नहीं सकता, लेकिन स्त्रियों का पीछा करता हूं!
उसके चिकित्सक ने कहा, नसरुद्दीन, चिंता मत करो। यह कोई बीमारी नहीं है। यह तुम्हारे स्वस्थ होने का प्रतीक है कि अभी भी तुम जिंदा हो नब्बे साल में! इससे तुम्हें दुखी नहीं होना चाहिए। नसरुद्दीन ने कहा कि वह मेरा दुख भी नहीं है। तुम फिर गलत समझे। तकलीफ यह है कि मैं स्त्रियों का पीछा तो करता हूं लेकिन यह भूल गया हूं कि पीछा क्यों कर रहा हूं। आई चेज वीमेन, बट आई काट रिमेंबर व्हाय। तकलीफ मेरी यह है कि मुझे अब याद नहीं पड़ता कि मैं किसलिए पीछा कर रहा हूं। और अगर स्त्री को पकड़ भी लिया, तो करूंगा क्या! यह मुझे याद नहीं रहा है।
जिंदगी में आपकी बहुत—सी क्रियाएं एक न एक दिन इसी जगह पहुंच जाती हैं, जब आप करते रहते हैं, और अर्थ भी खो जाता है, स्मृति भी खो जाती है कि क्यों कर रहे हैं। लेकिन पुराना मोमेंटम है, गति है। पहले दौड़ता रहा है, दौड़ता रहा है। अब दौड़ने का अर्थ खो गया; मंजिल भी खो गई; अब प्रयोजन भी न रहा। लेकिन पुरानी आदत है, दौड़े चला जा रहा है।
शरीर के साथ, शरीर के गुणों के साथ यही घटना घटती है। रस्सी जल भी जाती है, तो उसकी अकड़ शेष रह जाती है। जली हुई, राख पड़ी हुई लकड़ी में भी उसकी पुरानी अकड़ का ढंग तो बना ही रहता है।
अब आप जाग भी जाते हैं, होश से भी भर जाते हैं, तो भी गुणों की पुरानी रेखाएं चारों तरफ बनी रहती हैं। और उनमें पुरानी गति का वेग है, वे चलती रहती हैं। फर्क यह पड़ जाता है कि अब आप उनको नया वेग नहीं देते। यह क्रांतिकारी मामला है। यह छोटी घटना नहीं है।
आप उनको नया वेग नहीं देते। आप उनमें नया रस नहीं लेते। अब वे चलती भी हैं, तो अपने अतीत के कारण। और अतीत की शक्ति की सीमा है। अगर आप रोज वेग न दें, तो आज नहीं कल पुरानी शक्ति चुक जाएगी। अगर आप रोज शक्ति न दें……,।
आप पेट्रोल भरकर गाड़ी को चला रहे हैं। जितना पेट्रोल भरा है, उतना चुक जाएगा और गाड़ी रुक जाएगी। रोज पेट्रोल डालते चले जाते हैं, तो फिर चुकने का कोई अंत नहीं आता। आपने तय भी कर लिया कि अब पेट्रोल नहीं डालेंगे, तो पुराना पेट्रोल थोड़ी दूर काम देगा; सौ—पचास मील आप चल सकते हैं।
बुद्ध को चालीस वर्ष में ज्ञान हो गया, लेकिन जन्मों —जन्मों में जो ईंधन इकट्ठा किया है, वह चालीस वर्ष तक शरीर को और चला गया। उस चालीस वर्ष में शरीर अपने गुणों में बतेंगा, बुद्ध सिर्फ देखने वाले हैं
द्रष्टा और भोक्ता, द्रष्टा और कर्ता, इसके भेद को खयाल में ले लें, तो अड़चन नहीं रह जाएगी। अगर आप कर्ता हो जाते हैं, भोक्ता हो जाते हैं, तो आप नया वेग दे रहे हैं। आपने ईंधन डालना शुरू कर दिया। अगर आप सिर्फ द्रष्टा रहते हैं, तो नया वेग नहीं दे रहे हैं। पुराने वेग की सीमा है, वह कट जाएगी। और जिस दिन पुराना वेग चुक जाएगा, शरीर गिर जाएगा; गुण वापस प्रकृति में मिल जाएंगे, और आप सच्चिदानंदघनरूप परमात्मा में
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और जो निरंतर आत्म— भाव में स्थित हुआ, दुख—सुख को समान समझने वाला है; तथा मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला और धैर्यवान है; तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है और अपनी निंदा—स्तुति में भी समान भाव वाला है, तथा जो मान और अपमान में सम है एवं जो मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है, वह संपूर्ण आरंभों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है।
एक—एक शब्द को समझें।
जो निरंतर आत्म— भाव में स्थित हुआ……..।
जो निरंतर एक ही बात स्मरण रखता है कि मैं हूं अपने भीतर। जो अपनी छवियों के साथ तादात्म्य नहीं जोड़ता; जो दर्पणों में दिखाई पड़ने वाले प्रतिबिंबों से अपने को नहीं जोड़ता; बल्कि जो सदा खयाल रखता है उस होश का, जो भीतर है। और जो सदा याद रखता है कि यह होश ही मैं हूं; मैं हूं यह चैतन्य, और इस चैतन्य को किसी और चीज से नहीं जोड़ता, ऐसी भाव—दशा का नाम आत्म— भाव है।
मैं सिर्फ चेतना हूं। और यह चेतना किसी भी चीज को कितना ही प्रतिफलित करे, उससे मैं संबंध न जोडू—गा। यह चेतना कितनी ही किसी चीज में दिखाई पड़े……।
रात चांद निकलता है; झील में भी दिखाई पड़ता है। आप झील में देखकर अगर उसको चांद समझ लें, तो मुश्किल में पड़ेंगे। अगर डुबकी लगाने लगें पानी में चांद की तलाश में, तो भटक ही जाएंगे। और दुख तो निश्चित होने वाला है; क्योंकि थोड़ी ही हवा की लहर आएगी और चांद टुकडे—टुकड़े हो जाएगा।
तो जहां भी हम जिंदगी को देखते हैं, वहा हर चीज टूट—फूट जाती है। क्योंकि हम प्रतिबिंब में देख रहे हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक रात एक कुएं के पास से गुजर रहा है। रमजान के दिन हैं। और उसने नीचे कुएं में झांककर देखा। वहां चांद का प्रतिबिंब दिखाई पड़ा। गहरा कुआ है। हवा की कोई लहर भी वहा नहीं है, तो चांद बिलकुल साफ दिखाई पड़ रहा है।
अकेला था। मरुस्थल का रास्ता था। आस—पास कोई दिखाई भी नहीं पड़ता था। नसरुद्दीन ने कहा, यह तो बड़ी मुसीबत हो गई। यह चांद यहां कुएं में उलझा है। और जब तक यह आकाश में दिखाई न पड़े, लोग मर जाएंगे भूखे रह—रहकर। रमजान का महीना है। इसे बाहर निकालना एकदम जरूरी है। यहां कोई दिखाई भी नहीं पड़ता जो सहायता करे।
तो बेचारे ने ढूंढ—ढांढ्कर रस्सी कहीं से लाया। रस्सी का फंदा बनाकर नीचे डाला। कुएं में चांद को फंसाने की रस्सी में कोशिश की। चांद तो नहीं फंसा, कुएं के किनारे पर कोई चट्टान का टुकड़ा होगा, वह फंस गया। उसने बड़ी ताकत लगाई। खींच रहा है। बड़ी मुश्किल में पड़ा है। और अकेला है। कहता है, कोई और है भी नहीं कि कोई साथ भी दे दे। और चांद वजनी मालूम पड़ता है। और चाद भी हइ कर रहा है कि बिलकुल रस्सी को पकड़े हुए है और उठ भी नहीं रहा है।
बड़ी ताकत लगाने से रस्सी टूट गई। मुल्ला भड़ाम से कुएं के नीचे गिरा। सिर में चोट भी आई। एक क्षण को आंख भी बंद हो गई। फिर आंख खुली, तो देखा, चांद आकाश में है। मुल्ला ने कहा, चलो भला हुआ। निकल तो आए। अब लोग नाहक रमजान में भूखे तो न रहेंगे। सिर में थोड़ी चोट लग गई; कोई हर्ज नहीं। रस्सी भी टूट गई; कोई हर्ज नहीं। लेकिन चांद को कुएं से मुक्त कर लिया।
जिस दिन आप आत्म— भाव में स्थित होंगे, उस दिन आपको भी ऐसा ही लगेगा कि जहां से हम अब तक अपने को खोज रहे थे, वहां तो हम थे भी नहीं। जहां से हम रस्सियां बांधकर, योजनाएं करके, साधनाएं साधकर और आत्मा को पाने की कोशिश कर रहे थे, वहां तो हम थे भी नहीं। चांद तो सदा आकाश में है। वह किसी कुएं में उलझा नहीं है। लेकिन कुओं में दिखाई पड़ता है।
आत्म— भाव का अर्थ है कि हम चांद को आकाश में ही देखें, कुओं में नहीं। आत्म— भाव का अर्थ है कि मेरी चेतना मेरे भीतर है। और किसी और वस्तु से बंधी नहीं है, कहीं भी छिपी नहीं है। मैं कहीं और नहीं हूं मुझमें ही हूं। इसलिए सब तलाश कहीं और की व्यर्थ है। और सब तलाश दुख में ले जाएगी; विफलता परिणाम होगा। क्योंकि वहां वह मिलने वाली नहीं है।
या इसको अगर आप सफलता कहते हों कि रस्सियां बांधकर, चांद को खींचकर और जब सिर फूटे और ऊपर आपको आकाश में दिखाई पड़ जाए अगर आप समझते हों कि आपने चांद को मुक्त कर लिया, तो ऐसी ही स्थिति बुद्ध को हुई होगी।
बुद्ध से कोई पूछता है, जब उनको ज्ञान हो गया, कि आपको क्या मिला? तो बुद्ध कहते हैं, मिला कुछ भी नहीं। इतना ही पता चला कि कभी खोया ही नहीं था।
नसरुद्दीन कहता है, चांद को निकाल लिया; मुक्त कर दिया आकाश में। बुद्ध कहते हैं, कुछ भी मिला नहीं, क्योंकि कभी खोया नहीं था। और जो मैंने जाना है, वह सदा से मेरे भीतर था। सिर्फ मेरी नजरें बाहर भटक रही थीं, इसलिए उसे मैं पहचान नहीं पा रहा था। अगर तुम पूछते ही हो, तो मैंने कुछ खोया जरूर है, अज्ञान खोया है। लेकिन पाया कुछ भी नहीं है। क्योंकि ज्ञान तो सदा से ही था। वह मेरा स्वभाव है।
आत्म— भाव में स्थित हुआ, दुख—सुख को समान समझने वाला……।
जो भी आत्म— भाव में स्थित होगा, उसे दुख—सुख समान हो जाएंगे, समता उसकी छाया हो जाएगी।
हमें दुख और सुख अलग—अलग क्यों मालूम पड़ते हैं? इसलिए अलग—अलग मालूम पड़ते हैं कि जो हम पाना चाहते हैं, वह हमें सुख मालूम पड़ता है। और जिससे हम बचना चाहते हैं, वह दुख मालूम पड़ता है। हालांकि हमारे सुख दुख हो जाते हैं और दुख सुख हो जाते हैं, फिर भी हमें बोध नहीं आता। जिस चीज को आप आज पाना चाहते हैं, सुख मालूम पड़ती है। और कल पा लेने के बाद छूटना चाहते हैं और दुख मालूम पड़ती है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक चर्च के पास से गुजर रहा है। उसकी पत्नी भी साथ है। उस चर्च में बड़ी तैयारियां हो रही हैं। बड़े फूल लगाए गए हैं। और बड़े दीए जलाए गए हैं। और द्वार पर लाल दरी बिछाई गई है। कोई स्वागत—समारंभ का इंतजाम हो रहा है। तो पत्नी पूछती है कि नसरुद्दीन, इस चर्च में? क्या होने वाला है?
उस चर्च में एक विवाह की तैयारी हो रही है। नसरुद्दीन कहता है, इस चर्च में? एक तलाक की तैयारी हो रही है। एक तलाक का प्रारंभ!
विवाह तलाक का ही प्रारंभ है। सब सुख दुख के प्रारंभ हैं। लेकिन दुख थोड़ी देर में पता चलेगा, पहले सब सुख मालूम होगा। जिसको हम पकड़ना चाहेंगे, उसमें सुख दिखाई पड़ेगा। और जिसको हम छोड़ना चाहेंगे, उसमें दुख दिखाई पड़ेगा।
आत्म— भाव में स्थित व्यक्ति को न तो कुछ पकड़ने की आकांक्षा रह जाती है, न कुछ छोड़ने की, इसलिए सुख—दुख समान हो जाते हैं। इसलिए सुख—दुख के बीच जो भेद है, वह कम हो जाता है, गिर जाता है। सुख और दुख में उसका कोई चुनाव नहीं रह जाता।
समान का अर्थ है, कोई चुनाव नहीं रह जाता। दुख आता है, तो स्वीकार कर लेता है। सुख आता है, तो स्वीकार कर लेता है। दुख आता है, तो पागल नहीं होता। सुख आता है, तो भी पागल नहीं होता। न उसे सुख उद्विग्न करता है, न दुख उद्विग्न करता है। जैसे सुबह आती है, सांझ आती है; ऐसे सुख आते—जाते रहते हैं, दुख आते—जाते रहते हैं। वह दूर खड़ा, अछूता, अस्पर्शित बना रहता है। आत्म— भाव में स्थित हुआ, दुख—सुख को समान समझने वाला है। मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला है। धैर्यवान है। तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है। निंदा—स्तुति में समान भाव वाला है।
सभी द्वंद्व जिसके लिए समान हो गए हैं। चाहे प्रेम के, अप्रेम के; चाहे स्वर्ण के, मिट्टी के; चाहे मित्र के, शत्रु के; स्तुति के, निंदा के; जिसके लिए सभी भाव समान हो गए हैं। जो विपरीत को विपरीत की तरह नहीं देखता। जो पहचान लिया है कि .सुख दुख का ही छोर है, और जो समझ लिया है कि स्तुति में निंदा छिपी है। आज स्तुति है, कल निंदा होगी। आज निंदा है, कल स्तुति हो जाएगी। मित्रता और शत्रुता के बीच जिसको फासला नहीं दिखाई पड़ता; जिसे दोनों एक ही चीज की डिग्रीज मालूम पड़ती हैं।
यह उसी को होगा, जो आत्म— भाव में स्थित हुआ है। उसे यह द्वंद्व साफ दिखाई पड़ने लगेगा, द्वंद्व नहीं है। यह मेरे ही चुनाव के कारण द्वंद्व पैदा हुआ है।
बुद्ध ने कहा है, मैं कोई मित्र नहीं बनाता हूं क्योंकि मैं शत्रु नहीं बनाना चाहता हूं।
मित्र बनाएंगे, तो शत्रु बनना निश्चित है। आधा नहीं चुना जा सकता। और हम आधे को ही चुनने की कोशिश करते हैं। इससे हम कष्ट में पड़े हैं। अगर मित्र को चुनते हैं, तो शत्रु को स्वीकार कर लें। सुख को चुनते हैं, तो दुख को भी स्वीकार कर लें।
पर यह स्वीकृति, यह तथाता उसी को संभव है, जो अपने में स्थित हुआ हो, जो भीतर खड़े होकर देख सके—दुख को, सुख को, दोनों कों—निष्पक्ष भाव से। भीतर खड़ा हुआ व्यक्ति देख पाता है निष्पक्ष भाव से। भीतर खड़ा हुआ व्यक्ति तराजू की भांति हो जाता है, जिसके दोनों पलड़े एक सम स्थिति में आ गए; जिसका कांटा आत्म— भाव में थिर हो गया।
तथा जो मान—अपमान में सम है। मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है। संपूर्ण आरंभों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है।
कुंजी है, आत्म— भाव में स्थित होना। जो आत्म— भाव में स्थित है, द्वंद्व में सम हो जाएगा। जो आत्म— भाव में स्थित है, वह कर्तापन से मुक्त हो जाएगा। उसे ऐसा नहीं लगेगा कि मैं कुछ कर रहा हूं। भूख लगेगी, पर वह भूखा नहीं होगा।
बड़ी मीठी कथा है कृष्ण के जीवन में। जैन शास्त्रों में उस कथा का उल्लेख है।
कृष्ण की पत्नी ने, रुक्मिणी ने कृष्ण से पूछा कि एक परम वैरागी नदी के उस पार ठहरा है। वर्षा के दिन हैं, नदी में पूर है। और कोई भोजन नहीं पहुंचा पा रहा है। आप कुछ करें। तो कृष्ण ने कहा, तू ऐसा कर कि जा और नदी के किनारे नदी से यह प्रार्थना करना—कथा बड़ी मीठी है—नदी से यह प्रार्थना करना कि अगर वह वैरागी, जो उस पार ठहरा है, वह संन्यस्त वीतराग पुरुष सदा का उपवास। हो, तो नदी मार्ग दे दे।
रुक्मिणी को भरोसा तो न आया, लेकिन कृष्ण कहते हैं, तो कर लेने जैसी बात लगी। और हर्ज क्या है; देख लें। और शायद यह हो भी जाए, तो एक बड़ा चमत्कार हो।
तो वह सखियों को लेकर बहुत—से मिष्ठान्न और भोजन लेकर नदी के पास गई। उसने नदी से प्रार्थना की। भरोसा तो नहीं था। लेकिन चमत्कार हुआ कि नदी ने रास्ता दे दिया। कहा इतना ही कि उस पार जो ठहरा संन्यस्त व्यक्ति है, अगर वह जीवनभर का उपवासा है, तो मार्ग दे दो।
नदी कट गई। अविश्वास से भरी रुक्मिणी, आंखों पर भरोसा नहीं, अपनी सहेलियों को लेकर उस पार पहुंच गई। उस वीतराग पुरुष के लिए भोजन वह इतना लाई थी कि पचास लोग कर लेते। वह अकेला संन्यासी ही उतना भोजन कर गया।
भोजन के बाद यह खयाल आया कि हम कृष्ण से यह तो पूछना भूल ही गए कि लौटते वक्त क्या करेंगे। क्योंकि नदी अब फिर बह रही थी। और अब पुरानी कुंजी तो काम नहीं आएगी। क्योंकि यह आदमी आंख के सामने भोजन कर चुका। और थोड़ा—बहुत भोजन नहीं कर चुका। निश्चित ही, जीवनभर का उपवासा रहा होगा। पचास आदमियों का भोजन उसने कर लिया! लेकिन अब पुरानी कुंजी तो काम नहीं आएगी। और अब कृष्ण से पूछने का कोई उपाय नहीं। तो एक ही उपाय है, इस वीतराग पुरुष से ही पूछ लो कि कोई कुंजी है वापस जाने की!
तो उसने कहा कि तुम किस कुंजी से यहां तक आई हो? तो उन्होंने कहा कि कृष्ण ने ऐसा कहा था, लेकिन वह तो अब बात बेकार हो गई। उस संन्यासी ने कहा कि वह बात बेकार होने वाली नहीं है। कुंजी काम करेगी। तुम नदी से कहो कि अगर यह संन्यासी जीवनभर का उपवासा हो, तो मार्ग दे दे।
पहले ही भरोसा नहीं आया था। अब तो भरोसे का कोई कारण भी नहीं था। अब तो स्पष्ट अविश्वास था। लेकिन कोई दूसरा उपाय भी नहीं था। इसलिए नदी से प्रार्थना करनी पड़ी। और नदी ने मार्ग दिया।
करीब—करीब होश खोई हुई हालत में रुक्मिणी कृष्ण के पास पहुंची। और उसने कहा, यह हद हो गई। यह बिलकुल भरोसे की बात नहीं है। क्योंकि हमने अपनी आंख से देखा है संन्यासी को भोजन करते हुए। उसके जीवनभर के उपवासे होने का कोई सवाल नहीं रहा।
कृष्ण ने कहा कि वही तुम नहीं समझ पा रही हो। भूख शरीर को लगती है, ऐसा जो जान लेता है, फिर भोजन भी शरीर में ही जाता है। ऐसा जो जान लेता है, उसका उपवास कभी भी खंडित नहीं होता। जिसको भूख ही न लगी हो, उसको भोजन करने का सवाल नहीं है। हम भोजन करते हैं, करते मालूम पड़ते हैं। कर्तापन आता है, क्योंकि भूख हमें लगती है, हमारी है।
इस प्रयोग को थोड़ा करके देखें। कल से स्मरण रखें कि भूख लगे, तो वह शरीर की है। प्यास लगे, तो शरीर की है। पानी पीए, तो शरीर में जा रहा है। प्यास बुझ रही, तो शरीर की बुझ रही है।
भूख मिट रही, तो शरीर की मिट रही है। भोजन करते समय, भूख के समय, प्यास के समय, पानी पीते समय, स्मरण रखें।
अगर इस स्मरण को आप थोड़े दिन भी रख पाएं, तो आपको एक अनूठा अनुभव होगा। और वह अनुभव यह होगा कि आपको साफ दिखाई पड़ने लगेगा कि मैं सदा का उपवासा हूं। वहा कभी कोई भूख नहीं लगी। कोई भूख पहुंच नहीं सकती वहा। चेतना में भूख का कोई उपाय नहीं है।
अमेरिका में एक व्यक्ति बड़ी अनूठी खोज में लगा हुआ है। उसकी खोज भरोसे योग्य नहीं है, लेकिन खोज के परिणाम बड़े साफ हैं। और उस व्यक्ति का कहना यह है कि एक समय था मनुष्य जाति के इतिहास में जब कोई भोजन नहीं करता था।
जैन शास्त्रों में ऐसे समय का उल्लेख है। जैनों के जो पहले तीर्थंकर हैं आदिनाथ, उन्होंने ही भोजन और कृषि और अन्न की खोज की। उसके पहले कोई भोजन नहीं करता था। लोग भूखे नहीं होते थे।
यह बात कहानी की मालूम पड़ती है। लेकिन जो आदमी अमेरिका में खोज कर रहा है, उसके बड़े वैज्ञानिक आधार हैं। और वह कहता है कि भोजन सिर्फ एक लंबी आदत है। और वह यह कहता है कि भोजन से शरीर को शक्ति नहीं मिलती। भोजन से ज्यादा से ज्यादा शरीर में जो शक्ति पड़ी है, उसको गति मिलती है। ऐसे ही जैसे कि पनचक्की चलती थीं। तो पानी चक्की के पंखे पर से गिरता था, पंखा घूमता था। पंखा तो मौजूद है, सिर्फ गिरता हुआ पानी पंखे को घुमा देता था।
इस वैज्ञानिक का कहना है कि शरीर में शक्ति मौजूद है। सिर्फ यह भोजन का शरीर में जाना और शरीर के बाहर मल होकर निकलना, यह सिर्फ शरीर के भीतर जो पंखे बिना चले पड़े हैं, उनको चलाता है। इससे कोई शक्ति मिलती नहीं। और आदमी बिना भोजन के रह सकता है।
और ऐसी घटनाएं हैं, जहां कुछ लोग बिना भोजन के रहे हैं चालीस—पचास साल तक भी। उनका वजन भी नहीं गिरा। उनके शरीर में कोई रोग भी नहीं आया। बल्कि वे बहुत स्वस्थ लोग रहे हैं।
अभी बवेरिया में एक स्त्री है, थेरेसा न्यूमेन। उसने तीस साल से भोजन नहीं किया है। रत्तीभर वजन नीचे नहीं गिरा है। और तीस साल से वह कभी बीमार नहीं पड़ी। न कोई मल—मूत्र का सवाल है। उसकी सारी अंतड़ियां सिकुड़ गई हैं। पेट ने सारा काम बंद कर दिया है। लेकिन उसका शरीर परिपूर्ण स्वस्थ है। और जितनी उसकी उम्र है, उससे कम उम्र मालूम होती है। क्या कारण होगा? इस बात की संभावना है कि हो सकता है भोजन मनुष्य जाति की सिर्फ एक गलत आदत हो। और किसी दिन आदमी भोजन से मुक्त किया जा सके।
एक बात निश्चित है कि शरीर को भला जरूरत हो या आदत हो, लेकिन भीतर जो चेतना है, उसको न तो जरूरत है और न आदत है। वह भीतर की चेतना परम ऊर्जा से भरी है। उसकी ऊर्जा का स्रोत शाश्वत है। उसको ऊर्जा रोज—रोज ग्रहण नहीं करनी पड़ती।
इसलिए हम उसे सच्चिदानंदघन परमात्मा कह रहे हैं। उसकी ऊर्जा मूल स्रोत से जुड़ी है। वह स्रोत शाश्वत है। वह कभी समाप्त नहीं होता। इसलिए उसमें रोज ईंधन डालने की जरूरत भी नहीं है। चेतना के लिए भोजन की कोई भी जरूरत नहीं है। शरीर के लिए हो या न हो, यह बात विवाद की हो सकती है। समय, भविष्य तय करेगा। लेकिन चेतना के लिए तो कोई भी जरूरत नहीं है। वह चेतना उपवासी है।
ऐसा भाव अगर बनने लगे, निर्मित होने लगे, तो आप में से कर्तापन धीरे— धीरे अपने आप गिर जाएगा। और जब भी आप किसी चीज का आरंभ करेंगे, किसी भी चीज की पहल करेंगे, तो आप जानेंगे यह शरीर के गुण इसकी पहल कर रहे हैं, मैं इसकी पहल नहीं कर रहा हूं।
शरीर को जितनी जरूरत होगी, आप दे देंगे। ज्यादा भी नहीं देंगे, कम भी नहीं देंगे। अभी हम दो ही काम करते हैं, या तो कम देते हैं या ज्यादा देते हैं। क्योंकि ठीक कितना देना, इसका हमें पता ही नहीं चल पाता। हम इतने जुड़े हैं, हमारा संबंध इतना जुड़ गया है शरीर से कि हम निष्पक्ष नहीं हो ?पाते। हम से ज्यादा निष्पक्ष तो जानवर हैं।
अगर कुत्ते को पेट में खराबी हो, तो वह भोजन नहीं करेगा, आप लाख उपाय करें। लेकिन आपको कितनी ही बीमारी हो, कितनी ही खराबी हो, आप भोजन करेंगे। शायद बीमारी में और ज्यादा कर लें, कि जरा ताकत की जरूरत है। कोई जानवर यह भूल नहीं करेगा। क्योंकि जानवर जानता है कि बीमारी में भोजन करने का मतलब है कि शरीर को और काम देना। शरीर पर बीमारी का काम है। उतना ही काम काफी है। उसको नया काम देना खतरनाक है।
शरीर को भोजन न दिया जाए, तो बीमारी जल्दी समाप्त हो जाती है। क्योंकि शरीर खुद बीमारी को निकालने में लग जाता है। शरीर की पूरी ताकत एक तरफ बहने लगती है, बीमारी खतम करने में। आप भोजन देकर ताकत पचाने में लगा देते हैं। तो भोजन बीमारी को बढ़ाएगा, कम नहीं कर सकता।
कोई जानवर राजी नहीं होगा। साधारण—सा कुत्ता, जिसको हम बहुत समझदार नहीं कहते, वह भी भोजन नहीं करेगा। भोजन तो करेगा ही नहीं, घास—पात खाकर वमन कर देगा। जो पेट में पड़ा है, उसको भी निकाल देगा। ताकि खाली हो जाए; ताकि शरीर की पूरी ऊर्जा पचाने में नष्ट न हो, बीमारी से लड़ने में लग जाए।
और शरीर के पास नैसर्गिक व्यवस्था है बीमारियों से लड़ने की। वह सब बीमारियों के पार उठ सकता है। और अगर आधुनिक आदमी नहीं उठ पाता, तो उसका कारण यह है कि वह शरीर की ऊर्जा को तो भोजन में ही लगाए रखता है।
हम निष्पक्ष नहीं हो पाते, बीमारी में ज्यादा खा लेते हैं। हमें कभी पता भी नहीं चलता, ठीक हमारा, जिसको पता चलने का बोध कहना चाहिए, वह भी क्षीण हो गया है। हमें पता ही नहीं चलता कि कितना खाना, कब खाना, कब नहीं खाना, उसका हमें कोई बोध नहीं रहा है। कोई नैसर्गिक हमारी प्रतीति नहीं रही है कि कितना खाना, कितना नहीं खाना; कब कुछ करना और कब नहीं करना, कहा रुक जाना।
उस सबका कारण इतना है कि हम इतने ज्यादा जुड़ गए हैं शरीर के साथ कि दूर खड़े होने से, दूर से देखने पर जो निष्पक्षता होती है, वह नष्ट हो गई है। साक्षी— भाव उस निष्पक्षता को ले आएगा। आत्म— भाव उस निष्पक्षता को ले आएगा। आप दूर खड़े होकर देख सकेंगे।
और ध्यान रहे, बहुत—सी समस्याएं सिर्फ इसलिए नहीं हल हो पातीं कि आप दूर नहीं हो पाते।
आपके पास कोई दूसरा आदमी आए और अपनी कोई समस्या कहे, तो आप जो सुझाव देते हैं, वह हमेशा सही होता है। वह दूसरे की समस्या है। आप दूर से खड़े होकर देखते हैं। वही समस्या आप पर आ जाए, फिर आपकी बुद्धि काम नहीं करती। जो दूसरे को सलाह देने में काम कर रही है, वह खुद को सलाह देने में काम नहीं कर पाती। वैसे ही जैसे एक सर्जन अपनी पत्नी का आपरेशन कर रहा हो। सर्जन अपनी पत्नी का आपरेशन करने को राजी नहीं होगा। जब तक कि मार डालने की इच्छा न रखता हो। क्योंकि वह जानता है, पत्नी से इतनी निकटता है, हाथ कंपेगा। वह निष्पक्ष नहीं हो पाएगा। तो सर्जन अपने मित्र को कहेगा कि तू आपरेशन कर। निष्पक्षता न हो, तो सब चीजें कंप जाती हैं। निष्पक्षता हो, तो हम अडिग बने रहते हैं; बोध साफ होता है; चीजें स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं; धुआं नहीं होता।
जितना आत्म— भाव बढ़ेगा, जितना आप अपने को शरीर से अलग और चेतना के साथ एक मानेंगे, देखेंगे, समझेंगे, ठहरेंगे, उतना ही आप पाएंगे कि चीजें उतनी ही होती हैं, जितनी जरूरी हैं।
जरूरत पर रुक जाना, जरूरत से आगे इंचभर न जाना। तो फिर आपके लिए कोई बंधन नहीं है। क्योंकि तब शरीर के चलने योग्य शरीर को देते रहेंगे आप। शरीर अपनी गतिविधि पूरी कर लेगा और समाप्त हो जाएगा। जिस दिन शरीर की गतिविधि पूरी हो जाएगी, जैसे दीए का तेल चुक गया, वैसे ही दीया बुझ जाएगा। और इस शरीर के दीए के बुझते ही आपके जीवन में महासूर्य का उदय होगा। इस दीए पर आंखें बंधी हैं, इसलिए सूरज को देखना मुश्किल है।
कृष्ण कहते हैं, आत्म— भाव में स्थित हुआ, संपूर्ण आरंभों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है।
ऐसा जो व्यक्ति है, ऐसी जो चेतना है, वह गुणों के अतीत है। और गुणातीत हो जाना परम सिद्धि है।