गीता में उल्लेख है कि उत्तरायण का सूर्य हो तब जिसका अंत हो तो मोक्ष होता है। यदि दक्षिणायण का सूर्य
स्थितप्रज्ञ मनुष्य सुख में अनुद्विग्न रहेगा और दुख में भी अनुद्विग्न रहेगा, तो ऐसी मुसीबत खड़ी होने की शक्यता नहीं कि सुख-दुख दोनों में उसकी संवेदनशीलता, "सेंसिटिविटी' "ब्लंट' हो जाए? अगर सुख को सुख की भांति और कष्ट को कष्ट की भांति न ले, तो उसकी संवेदना को "हयूमन' कैसे कहेंगे हम?'
यह सूत्र बहुत बहुमूल्य है। कृष्ण का यह कहना कि सुख और दुख में अनुद्विग्न रहे, वही स्थितप्रज्ञ है। यह प्रश्न बहुत अच्छा है,अर्थपूर्ण है कि यदि सुख में कोई सुखी न हो और दुख में कोई दुखी न हो, तो क्या उसकी संवेदनशीलता, उसकी "सेंसिटिविटी' मर नहीं जाएगी?
दो उपाय हैं सुख और दुख में अनुद्विग्न होने के। एक उपाय यही है जो प्रश्न में उठाया गया है। एक उपाय यही है कि अगर संवेदनशीलता मार डाली जाए, तो सुख सुख जैसा मालूम न होगा, दुख दुख जैसा मालूम न होगा। जैसे कि जीभ जला दी जाए तो न प्रीतिकर स्वाद का पता चलेगा, न अप्रीतिकर स्वाद का पता चलेगा। जैसे आंखें फोड़ डाली जाएं तो न अंधेरे का पता चलेगा, न उजाले का पता चलेगा। जैसे कि कान नष्ट कर दिए जाएं, तो न संगीत का पता चलेगा, न विसंगीत का पता चलेगा। सीधा रास्ता यही मालूम पड़ता है कि संवेदशीलतानष्ट कर दी जाए, "सेंसिटिविटी' मार डाली जाए, तो व्यक्ति दुख-सुख में अनुद्विग्न हो जाएगा। और साधारणतः कृष्ण को न समझने वाले लोगों ने ऐसा ही समझा है। और ऐसा ही करने की कोशिश की है। जिसको हम संन्यासी कहते हैं, त्यागी कहते हैं, विरक्त कहते हैं, वह यही करता रहा है, वह संवेदनशीलता को मारता रहा है। संवेदनशीलता मर जाए, तो स्वभावतः सुख-दुख का पता नहीं चलता।
लेकिन, कृष्ण का सूत्र बहुत और है। कृष्ण कहते हैं, सुख-दुख में अनुद्विग्न। वह यह नहीं कहते हैं कि सुख-दुख में असंवेदनशील, वह कहते हैं सुख-दुख में अनुद्विग्न। सुख-दुख के पार, उनके विगत, उनके आगे, उनके ऊपर। साफ है यह बात कि सुख-दुख अगर पता ही न चलें,तो सुख-दुख में अनुद्विग्नता का क्या अर्थ होगा? कोई अर्थ नहीं होगा। मरा हुआ आदमी सुख-दुख के बाहर होता है, अनुद्विग्न नहीं होता।
नहीं, इसलिए मैं दूसरा ही अर्थ करता हूं।
एक और मार्ग है जो कृष्ण का मार्ग है। अगर कोई व्यक्ति सुख को पूरा अनुभव करे--पूरा--इतना पूरा अनुभव करे कि बाहर रह ही न जाए, सुख में पूरा हो जाए, सुख के प्रति पूरा संवेदनशील हो, तो अनुद्विग्न हो जाएगा; क्योंकि उद्विग्न होने को बाहर कोई बचेगा नहीं। अगर कोई व्यक्ति दुख में डूब जाए, "टोटल' दुख में डूब जाए, तो दुख के बाहर दुखी होने को कौन बचेगा? कृष्ण जो कह रहे हैं वह संवेदनशीलता का अंत नहीं है, संवेदनशीलता की पूर्णता की बात है। अगर हम पूरे संवेदनशील हो जाएं--समझें कि मुझ पर दुख आया। यह मुझे पता चलता है कि दुख आया, क्योंकि दुख से अलग खड़ा होकर मैं सोचता हूं। मैं ऐसा कहता हूं कि मुझ पर दुख आया, मैं ऐसा नहीं कहता हूं कि मैं दुखी हो गया हूं। और जब हम यह भी कहते हैं कि मैं दुखी हो गया हूं, तब भी फासला बनाए रखते हैं। हम ऐसा नहीं कहते कि मैं दुखी हूं।
इसे थोड़ा समझना उपयोगी होगा।
हम जिंदगी में सब चीजों को तोड़कर रख देते हैं, जब कि वे सत्य नहीं हैं। जब मैं किसी से कहता हूं कि मुझे तुमसे प्रेम है, तब भाषागत ठीक बात कही जाने पर भी अस्तित्वगत रूप से गलत है। जब मुझे किसी से प्रेम होता है तो ऐसा नहीं होता है कि मुझे किसी से प्रेम है, बल्कि ऐसा होता है कि मैं किसी के प्रति प्रेम हूं। मैं पूरा ही प्रेम होता हूं। मेरे पार कुछ बच ही नहीं रहता जो कि प्रेम न हो। और अगर मेरे पार इतना भी कोई बच रहता है जो कहने को भी हो कि मुझे उससे प्रेम हो गया है, तो मैं पूरा प्रेम में नहीं चला गया हूं। और जो पूरा प्रेम में नहीं चला गया है, वह प्रेम में गया ही नहीं है, वह जा ही नहीं सकता। जब हम पर सुख आते हैं, दुख आते हैं, तब हम पूरे उनमें नहीं हो जाते हैं। अगर हम पूरे हो जाएं और उसके बाहर हमारे भीतर कुछ भी न बचे, तो कौन कहेगा, कौन उद्विग्न होगा, कौन पीड़ित होगा? मैं दुख ही हो जाऊं। तो संवेदनशीलता तो पूर्ण होगी, अपनी पूरी त्वरा में, अपनी पूरी चरमता में होगी। क्योंकि मेरी पुलक-पुलक दुख से भर जाएगी, मेरा रोआं-रोआं दुख से भर जाएगा; मेरी आंख, मेरी श्वास, मेरा अस्तित्व दुख हो जाएगा। लेकिन तब उद्विग्न होने को कोई नहीं बचेगा। मैं दुखी हूं,उद्विग्न कौन होगा?
ऐसे ही जब सुख आए तो मैं पूरा सुख हो जाऊं, तो उद्विग्न कौन होगा? मैं सुखी हो जाऊंगा। और अगर सुख और दुख में मैं इस तरह पूरा होता चला जाऊं, तो कभी भी सुख और दुख की "कंपेरीज़न', तुलना करने का मौका कैसे आएगा, कौन तौलेगा? कि जब मैं दुखी था तो बहुत बुरा था, अब जब मैं सुखी हूं तो बहुत अच्छा हूं। और अब आगे भी सुख ही होना चाहिए, दुख नहीं होना चाहिए। प्रतिपल हमारे पूरे अस्तित्व को घेर ले, तो संवेदनशीलता समग्र होती है, पूर्ण होती है, लेकिन उद्विग्नता खो जाती है। उद्विग्नता का कोई कारण नहीं हो जाता। कोई कारण नहीं रह जाता।
एक मित्र मेरे पास आए, अभी दो दिन पहले, और उन्होंने कहा कि मैं सिगरेट पीता हूं और इससे बड़ा परेशान हूं। मैंने कहा कि मालूम होता है तुमने अपने को दो हिस्सों में तोड़ा होगा--एक सिगरेट पीने वाला, एक परेशान होने वाला। नहीं तो यह कैसे संभव है? या सिगरेट पिओ,या परेशान होओ। ये दो बातें एकसाथ तभी संभव हैं, जब तुमने अपने को दो हिस्सों में तोड़ लिया, तुमने अपने दो "सेल्फ' बनाए, दो आत्माएं कर लीं--एक सिगरेट पिए चली जाती है और एक जो पश्चाताप किए चली जाती है। अब वह जो पश्चाताप करती है वह पश्चाताप करती रहेगी जिंदगी भर, और जो सिगरेट पीती है वह जिंदगी भर सिगरेट पीती रहेगी। जो पश्चाताप करती है वह कभी-कभी नियम-व्रत भी लेगी और जो पश्चाताप नहीं करती है, सिगरेट पीती है, वह नियम-व्रत तोड़ेगी। मैंने उनसे कहा, या तो तुम सिगरेट ही पिओ, या पश्चाताप ही करो। दो-दो काम एक-साथ करोगे तो कष्ट पैदा होता है। सिगरेट पिओ तो सिगरेट पीने वाले हो जाओ। फिर पीछे बचाओ मत अपने को। वह जो दूर खड़ा होकर कहे कि बुरा कर रहे हो, भला कर रहे हो, उसे पार मत बचाओ। और मैंने उनसे कहा, अगर किसी दिन सिगरेट पिओ और पूरे हो जाओ,तो पूरा आदमी सिगरेट छोड़ भी सकता है। क्योंकि तब वह पूरी तरह कर सकता है, छोड़ना भी। जब पीना पूरा कर सकता है, तो छोड़ना भी पूरा कर सकता है। और तब इस तरह की दुविधा में नहीं जीता है। या तो वह पूरी तरह पीता है, तब भी आनंदित होता है। या पूरी तरह छोड़ देता है और तब भी आनंदित होता है।
यह जो अधूरा-अधूरा बंटा हुआ आदमी है यह पीते वक्त कष्ट पाता है--पश्चाताप वाले हिस्से से कि बुरा कर रहे हो। नहीं पीते वक्त कष्ट पाता है--पीने वाले हिस्से से कि मौका चूक रहे हो। इसके कष्ट का कोई अंत नहीं, यह कष्ट झेले ही चला जाता है। यह हर हालत में उद्विग्न होगा। उद्विग्नता इसका भाग्य बन जाएगी, नियति बन जाएगी। यह अनुद्विग्न हो ही नहीं सकता। अनुद्विग्न वही हो सकता है जो "टोटल' है,जो पूरा है। क्योंकि तब उद्विग्न होने को कोई बचता नहीं। जो पूरा है, जो समग्र है किसी स्थिति में, जो भी स्थिति आती है उसके साथ समग्र रूप से एक होता है, कुछ बचता नहीं पीछे, ऐसा व्यक्ति साक्षी के पर जा चुका। साक्षी सिर्फ साधन है, सिद्धि नहीं है। कृष्ण साक्षी नहीं हैं, अर्जुन को कह रहे हैं कि तू साक्षी हो जा। कृष्ण सिद्ध हैं। सिद्ध का मतलब यह है कि अब इतना भी फासला नहीं तोड़ा जाता कि कौन देख रहा है और कौन देखनेवाला है। अब तो सिर्फ देखने की क्रिया रह गई है, जिसके दो छोर हैं। एक छोर पर लोग कहते हैं दिखाई पड़नेवाला है, एक छोर पर लोग कहते हैं देखने वाला है। अब देखना पूरा हो गया, वह इकट्ठा है।
साक्षी जगत को दो में तोड़ता है--"आब्जेक्ट' और "सब्जेक्ट' में; देखने वाले में, दिखाई पड़ने वाले में। साक्षी कभी भी अद्वैत नहीं है। साक्षी द्वैत की अंतिम सीमारेखा है। वह जगह है जहां तख्ती लगी है कि अब अद्वैत शुरू होता है। लेकिन साक्षी हुए बिना कोई अद्वैत में मुश्किल से जा पाता है। साक्षी होने का मतलब है, हमने बहुत में तोड़ना बंद किया, दो में तोड़ना शुरू किया। अनेक में तोड़ना बंद किया, द्वैत में तोड़ा। दो में तोड़ने के बाद बहुत कठिन नहीं है, क्योंकि जो आदमी साक्षी होगा उसे साक्षी होने में भी कभी-कभी वे क्षण बीच-बीच में आएंगे जब वह पाएगा कि न साक्षी रह गया था, न जिसका साक्षी था वह रह गया था, सिर्फ साक्षी होना रह गया था। ये जो क्षण उसे दिखाई पड़ने शुरू होंगे--जैसे कि मैं किसी को प्रेम करता हूं; तो प्रेम करने वाला है, प्रेम किया जा रहा है, वह है; लेकिन प्रेम में ऐसे क्षण आते हैं जब करने वाला भी नहीं बचता, जिसे किया जा रहा है वह भी नहीं बचता, सिर्फ प्रेम की एक लहर बचती है जो दोनों को छूती है। एक लहर रह जाती है जिसके एक छोर पर करने वाला होता है, एक छोर पर किया जाने वाला होता है। एक प्रेम की लहर रह जाती है। और प्रेम के जो गहरे क्षण हैं,उसमें प्रेमी और प्रेमिका, प्रेमी और प्रेमपात्र नहीं बचते, प्रेम ही बचता है। वे अद्वैत के क्षण हैं। साक्षी में भी ऐसे क्षण आते हैं जब अद्वैत के क्षण होते हैं। "सब्जेक्ट'--"आब्जेक्ट' मिट जाते हैं, सिर्फ "कांशसनेस' रह जाती है, जिसके दो छोर रह जाते हैं--एक दूर वाला छोर, एक पास वाला छोर। पास वाला छोर, जिसे हम "मैं' कहते रहे हैं, दूर वाला छोर, जिसे हम "तू' कहते रहे हैं। लेकिन अब ये एक ही लहर के दो छोर हो जाते हैं। जिस दिन स्थिति पूर्णता को उपलब्ध हो जाती है और कभी नहीं खोती, उस दिन साक्षी मिट जाता है। उस दिन सिद्ध रह जाता है।
कृष्ण साक्षी नहीं हैं। हां, कृष्ण अर्जुन से साक्षी होने की बात कह रहे हैं। लेकिन कृष्ण पूरे समय साक्षी होने की बात भी कह रहे हैं और उस क्षण की भी चर्चा चलाए जा रहे हैं जबकि साक्षी भी मिट जाएगा। वे साधन की भी बात कर रहे हैं, वे साध्य की भी बात कर रहे हैं। वे रास्ते की भी बात कर रहे हैं, वे मंजिल की भी बात कर रहे हैं। जब वे कह रहे हैं कि सुख-दुख में अनुद्विग्न, तब वे साक्षी की बात नहीं कर रहे हैं। हालांकि गीता समझने वाले बहुत लोगों ने ऐसा ही समझा कि वे साक्षी की बात कर रहे हैं। यही समझा है कि सुख के तुम साक्षी हो जाओ, देखते रहो, भागो मत, तो अनुद्विग्न हो जाओगे। दुख को देखते रहो, भागो मत, तो अनुद्विग्न हो जाओगे। लेकिन अगर दुख और सुख को कोई देखे ही, तो देखना भी एक तनाव और उद्विग्नता होगी। और पूरे वक्त "डिफेंस' की हालत होगी। और पूरे वक्त अपने को बचाता रहेगा आदमी। और अगर यह पता ही न चलता हो कि कौन सुख है, कौन दुख है, क्योंकि अनुद्विग्न होने में पता नहीं चलना चाहिए फिर। अगर पता चलता है कि यह सुख रहा, यह दुख रहा, तो उद्विग्नता हो रही है किसी तरह की, और दोनों में भेद हो रहा है। अगर यह पता चल रहा है साक्षी को कि यह सुख है और यह दुख है, तो उद्विग्नता है; लेकिन सूक्ष्म है, दिखाई नहीं पड़ रही है। उद्विग्नता जारी है। सुख और दुख का फर्क जारी है। और जब तक फर्क है, तब तक उद्विग्नता है।
मैं जो कह रहा हूं, बहुत और बात कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि "टोटल इनवॉल्वमेंट', साक्षी की तरह दूर खड़े होना नहीं, अभिनेता की तरह पूरी तरह कूद जाना। पूरी तरह कूद जाना! एक ही हो जाना! नदी आपको डुबाती है, क्योंकि आप अलग हैं। आप नदी ही हो गए, ऐसी बात कह रहा हूं। अब कैसे डुबायेगी! किसको डुबायेगी, कौन डूबेगा, कौन चिल्लायेगा--बचाओ? जो स्थिति है जिस पल में, उस पल में पूरी तरह एक हो जाना। और जब वह पल बीत गया, दूसरा पल आएगा, आपको पल के साथ पूरे एक होने की कला आ गई, तो आप पल के साथ एक होते चले जाएंगे। और तब बड़े मजे की बात है, दुख भी आएगा और आपको निखार जाएगा। सुख भी आएगा और आपको निखार जाएगा। दुख भी आपको कुछ दे जाएगा और सुख भी आपको कुछ दे जाएगा। तब दुख भी मित्र मालूम होगा और सुख भी मित्र मालूम होगा। तब अंत के,जीवन के अंतिम क्षण में विदा होते वक्त आप अपने सुखों को भी धन्यवाद दे सकेंगे, अपने दुखों को भी धन्यवाद दे सकेंगे, क्योंकि दोनों ने मिलकर आपको बनाया। यह दिन ही नहीं है जो आपको बनाता है, इसमें रात भी सम्मिलित है। यह उजाला ही नहीं है जो आपकी जिंदगी में,अंधेरा भी आपकी जिंदगी है। और यह जन्म ही नहीं है जो खुशी का अवसर है, मृत्यु भी उत्सव का क्षण है।
लेकिन, यह तभी होगा जब हम प्रतिपल को पूरा जी लें। तब हम यह न कह पाएंगे कि दुख विपरीत था और सुख साथी था, दुख शत्रु था। नहीं, तब हम ऐसा ही कह पाएंगे कि दुख दायां हाथ था, सुख बायां हाथ था। दोनों के साथ हम चल पाए। दुख बायां पैर था, सुख दायां पैर था, दोनों हमारे पैर थे। लेकिन जो पूरा हुआ है। अब यह बड़े मजे की बात है, जब आप अपना बायां पैर उठाते हैं तब आप आधे नहीं उठाते,आप पूरे ही अपने बाएं पैर के साथ होते हैं। जब आप दायां पैर उठाते हैं, तब पूरे ही आप अपने दाएं पैर के साथ होते हैं। जब आप चुप होते हैं तब भी आपको अपनी चुप्पी में पूरा होना चाहिए, जब आप बोलते हैं तब अपने बोलने में पूरा हो जाना चाहिए।
विकल्प जब हम चुनते हैं तभी उद्विग्नता शुरू होती है। और जब तक चुनने वाला अलग खड़ा है, तब तक चुनाव जारी रहता है। इसलिए साक्षी बहुत ऊंची अवस्था नहीं है, मध्य अवस्था है। कर्ता के बजाय अच्छी है, इसी अर्थ में कि कर्ता सीधा छलांग नहीं लगा सकता अद्वैत में। साक्षी "जंपिंग बोर्ड' के करीब पहुंच जाता है, जहां से छलांग हो सकती है। लेकिन साक्षी भी तट पर खड़ा है और कर्ता भी तट पर खड़ा है। कर्ता जरा तट से दूर खड़ा है, जहां से सीधी छलांग नहीं हो सकती। साक्षी तट के बिलकुल किनारे खड़ा है, जहां से छलांग हो सकती है। लेकिन दोनों ने जब तक छलांग नहीं ली, तब तक दोनों एक ही भूमि के टुकड़े पर खड़े हैं। छलांग के बाद अद्वैत बच रहता है।
तो यहां जो अनुद्विग्नता की बात कृष्ण कहते हैं, वह अद्वैत की बात है। उद्विग्न होने वाला ही न बचे, वह पूरा ही डूब जाए। इसलिए मैं मानता हूं कि कृष्ण की यह जो दृष्टि है, यह "एंटी सेंसिटिविटी' की नहीं है, यह संवेदनशीलता के विपरीत नहीं है, बल्कि पूर्ण संवेदनशीलता की उपलब्धि की है।
असल में दक्षिणायण और उत्तरायण की जो बात कृष्ण ने गीता में कही है, वह हमारे सूर्य और हमारे दक्षिणायण और उत्तरायण की नहीं है। इस पृथ्वी पर जो सूर्य उत्तर और दक्षिणायण होता रहता है, उसकी कोई बात नहीं है। कि दक्षिणायण के सूर्य के समय मुक्ति हो जाएगी, मोक्ष हो जाएगा। उत्तरायण के सूर्य के समय मुक्ति नहीं होगी, मोक्ष नहीं होगा। यह हमारे सूर्य, हमारी पृथ्वी की बात नहीं है। यह बहुत "सिंबॉलिक' है।
यह हमारे भीतर चित्त के प्रकाश-सूर्य की बात है। और जैसे हमने इस पृथ्वी को दो हिस्सों में बांटा हुआ है, ऐसा ठीक हमने मनुष्य के व्यक्तित्व को दो हिस्सों में बांटा हुआ है। उस मनुष्य के व्यक्तित्व के भीतर सूर्य की, प्रकाश की, या सत्य की--जो भी हम नाम देना पसंद करें--एक गति है। और मनुष्य के भीतर चक्रों की एक व्यवस्था है। अगर उस व्यवस्था में एक विशेष जगह तक प्रकाश का अनुभव शुरू नहीं हुआ है,तो व्यक्ति मुक्त नहीं होता है। एक विशेष जगह तक भीतरी अंतर्जीवन में सूर्य का प्रवेश हुआ है, तो व्यक्ति मुक्त होता है। वह लंबी चर्चा होगी,उसे फिर कभी उठाना ठीक होगा, अभी इतना ही समझ लेना उचित है कि बाहर के उत्तरायण और दक्षिणायण की बात वह नहीं है। भीतर भी हमारे सूर्य की गति की व्यवस्था है। भीतर भी हमारा एक अस्तित्व है, जहां प्रकाश की गतियां हैं। उन प्रकाश की गतियों की वह चर्चा है। और उसमें यह कहा है कि उत्तरायण के चक्रों पर जब प्रकाश होगा, ऐसी स्थिति में जीवन से छूटा हुआ व्यक्ति जन्म-मरणरूपी बंधन से मुक्त हो जाता है। वह फिर अपने को सदा मुक्त पाता है। ऐसे ही जैसे हम कहते हैं कि सौ डिग्री पर पानी गर्म होता है तो भाप बन जाता है। सौ डिग्री के नीचे होता है तो भाप नहीं बनता। ऐसी एक विशेष भीतरी सूर्य की व्यवस्था की बात की है। वह जब हम चक्रों की और अंतर्शरीरों की पूरी बात समझें तभी खयाल में आ सकती है, इसलिए उसे फिलहाल न उठाएं, अभी इतना भर समझ लेना उचित है।
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स्थितप्रज्ञ और भक्त में क्या समानता है और क्या भिन्नता है?-
स्थितप्रज्ञ और भक्त में क्या भेद या समानता है? स्थितप्रज्ञ का अर्थ है, जो अब भक्त नहीं रहा, भगवान हो गया। भक्त का अर्थ है, जो भगवान होने की यात्रा पर है। भक्त रास्ते में है, स्थितप्रज्ञ पहुंच गया है। रास्ता वही है, पहुंचना वहीं है। लेकिन यह मुकाम पर पहुंचे हुए आदमी का नाम है, स्थितप्रज्ञ। और भक्त यात्री का नाम है जो चल रहा है।
समानता होगी ही, क्योंकि रास्ता और मंजिल जुड़े होते हैं--अन्यथा रास्ता मंजिल तक कैसे पहुंचेगा। समानता होगी ही, क्योंकि मंजिल सिर्फ रास्ते की पूर्णता है। जहां रास्ता पूरा हो जाता है, वहां मंजिल आ जाती है। समानता होगी ही, क्योंकि जो रास्ते पर है वह एक अर्थ में मंजिल पर ही है, थोड़ा फासला है, बस। "डिस्टेंस' का फासला है। अंतर जो है, वह पहुंचने का और पहुंचते होने का है। भक्त चल रहा है,स्थितप्रज्ञ बैठ गया, पहुंच गया। इसलिए भक्त के लिए वे सारी अपेक्षाएं हैं, जो स्थितप्रज्ञ की उपलब्धि बनेंगी। क्योंकि तभी वह वहां तक पहुंच सकेगा।
भक्त की आखिरी मंजिल उसका भक्त होना मिट जाने की है। जब तक वह भगवान न हो जाए, तब तक तृप्ति नहीं हो सकती। भक्त कितना ही चिल्लाए और रोए परमात्मा के मिलन को और मिलन हो भी जाए और दोनों आलिंगनबद्ध खड़े भी हो जाएं, तो भी भक्त का चिल्लाना बंद नहीं होगा। क्योंकि आलिंगन कितने ही निकट हो फिर भी दूर है। और हम किसी को कितने ही छाती से लगा लें, फिर भी दोनों के बीच फासला है। अंतर तो पूर्ण तभी मिट सकता है जब एक ही हो जाएं। इंच भर का अंतर भी उतना ही है जितना लाख मील का अंतर है। अंतर में कोई फर्क नहीं पड़ता। इंच के हजारवें हिस्से का अंतर भी उतना ही अंतर है जितना कि लाख मील का अंतर है। तो भक्त की तृप्ति तब भी नहीं हो सकती जब भगवान की छाती से लगकर वह बैठ जाए, तब भी नहीं हो सकती। तब भी फासला है।
यह तकलीफ तो प्रेमी की है। प्रेमी का कष्ट यही है कि वह कितने ही पास आ जाए, तो भी दुखी रहेगा। प्रेमी को कितना ही पा ले तो भी दुखी रहेगा। अगर यह बात समझ में आ जाए तो उसका दुख असल में यह है कि जब तक वह प्रेमी ही न हो जाए तब तक दुखी रहेगा, और यह होना बड़ा मुश्किल है। प्रेम के तल पर तो होना मुश्किल है। बहुत मुश्किल है। कैसे यह होगा! कितने ही पास आते हैं, इसलिए प्रेमी जितने पास जाएंगे उतना ही कष्ट शुरू होने लगेगा। क्योंकि जितने पास आएंगे उतना "डिसइलूज़नमेंट' होगा। दूर थे तो यह खयाल था कि पास आने से सुख मिल जाएगा। फिर जब पास ही आ गए, अब कैसे सुख मिलेगा! अब और पास आने का कोई उपाय ही न रहा। और तब प्रेमी एक-दूसरे पर क्रोधित होना शुरू हो जाते हैं। शायद सोचते हैं कि दूसरा कुछ बाधा डाल रहा है; दूसरा कोई नुकसान पहुंचा रहा है, दूसरा शायद ठीक से प्रेम नहीं कर रहा है; दूसरा शायद धोखा दे गया, दूसरा शायद किसी और के प्रेम में पड़ गया है, यह प्रेमी की चिंता शुरू हो जाती है पास आने पर। असली कारण यह है कि प्रेमी तब तक तृप्त नहीं हो सकता जब तक कि वह इतने निकट न आ जाए कि दूरी ही न बचे। यह तो तभी हो सकता है जब वह एक हो जाए।
इसलिए जो भी प्रेमी हैं, वे आज नहीं कल भक्त बनने शुरू हो जाएंगे, क्योंकि तब फिर शरीरधारी व्यक्ति के इतने निकट आना असंभव है। तब अशरीरी परमात्मा के निकट ही इतना आया जा सकता है, जहां कि कोई फासला ही न बचे। तो सब प्रेमी आज नहीं कल भक्त बनेंगे और सब प्रेम-निवेदन आज नहीं कल प्रार्थना बन जाते हैं। अंततः बनने ही चाहिए। अन्यथा दुख देते रहेंगे। जो प्रेमी भक्त नहीं बन पाता, वह सदा दुखी रहेगा। क्योंकि आकांक्षा उसकी भक्त की है और मांग वह प्रेम से पूरी करना चाह रहा है। चाहता कुछ और है, कर कुछ और रहा है। चाहता वह यह है कि बिलकुल एक हो जाऊं, इतना फासला भी न रहे कि मैं और तू का फासला भी बचे, चाहता वह यह है। लेकिन जिससे वह यह करना चाह रहा है उससे यह नहीं हो सकता है। उससे मैं और तू का फासला बना ही रहेगा। दो व्यक्ति कभी इतने निकट नहीं आ सकते जहां कि मैं और तू का फासला गिर जाए, सिर्फ दो अव्यक्ति इतने निकट आ सकते हैं जहां मैं और तू का फासला मिट जाए। परमात्मा अव्यक्ति है। जिस दिन भक्त भी अव्यक्ति हो जाएगा, उस दिन उपलब्धि हो जाएगी। जब तक भक्त बचा है--परमात्मा तो है ही नहीं इस अर्थ में, जिस अर्थ में भक्त है। परमात्मा का तो होना न-होने जैसा है। उसकी उपस्थिति अनुपस्थिति जैसी है।
यह बड़े मजे की बात है। यह थोड़ा खयाल में लेना जरूरी है।
अगर हम निरंतर पूछते हैं--दुनिया में सारे भक्तों ने पूछा है--कि परमात्मा प्रगट क्यों नहीं होता? क्योंकि अगर परमात्मा प्रगट हो जाए तो उससे मिलन असंभव है। सिर्फ अप्रगट से ही पूर्ण मिलन हो सकता है। भक्तों ने निरंतर पूछा है कि तुम छिपे क्यों हो? सामने क्यों नहीं आते हो? अगर वह सामने आ जाए तो इतना बड़ा पर्दा गिर जाएगा कि फिर मिलन हो ही नहीं सकता है। वह छिपा है, इसलिए मिलने की संभावना है। वह अदृश्य है, इसलिए उसमें डूबा जा सकता है। वह दृश्य बन जाए तो दीवाल बन जाएगी और मिलन असंभव है।
एक बहुत अदभुत फकीर इकहार्ट ने कहा है, परमात्मा को धन्यवाद दिया है कि तेरी अनुकंपा अपार है कि तू दिखाई नहीं पड़ता। तेरी अनुकंपा अपार है कि तू पकड़ में नहीं आता। तेरी अनुकंपा अपार है कि तू खोजे से कहीं भी नहीं मिलता, कहीं भी नहीं पाते हैं तुझे। क्यों है तेरी अनुकंपा अपार? क्योंकि इस भांति तू हमें भी यह निरंतर सिखाए जाता है कि जब तक तुम भी ऐसे न हो जाओ कि खोजे से न मिलो, कि जब तक तुम भी ऐसे न हो जाओ कि दिखाई न पड़ो, जब तक तुम भी ऐसे न हो जाओ कि न-होने जैसे हो जाओ, तब तक मिलन असंभव है। भगवान तो अरूप है, जिस दिन भक्त भी अरूप हो जाता है उस दिन मिलन हो जाता है। इसलिए बाधा सिर्फ भक्त की तरफ से है, भगवान की तरफ से कोई बाधा नहीं है।
स्थितप्रज्ञ का अर्थ है, भक्त जो अरूप हो गया। अब वह भगवान को भी नहीं चिल्लाता, क्योंकि कौन चिल्लाए? अब वह प्रार्थना भी नहीं करता, क्योंकि कौन करे? किसकी करे? या अब हम ऐसा कह सकते हैं कि वह जो भी करता है वही प्रार्थना है। या अब वह जो भी चिल्लाता है या नहीं चिल्लाता है, वही भगवान के लिए निवेदन है। अब हम दोनों तरह से कह सकते हैं। स्थितप्रज्ञ का अर्थ है कि मनुष्य भी वैसा हो गया जैसा परमात्मा है। भक्त का अर्थ है कि उसने यात्रा तो शुरू की परमात्मा की तरफ, लेकिन अभी वह मनुष्य है। और उसकी सब आकांक्षाएं,अपेक्षाएं मनुष्य की हैं। मीरा कितनी चिल्ला रही है। उसके गीत बड़े अदभुत हैं। इस अर्थ में अदभुत हैं कि वे बड़े मानवीय हैं। उसकी सारी चिल्लाहट एक प्रेमी की चिल्लाहट है। एक भक्त की। वह कहती है कि सेज सजा दी और तुम आ जाओ। अब मैं तुम्हारे लिए द्वार खोल कर प्रतीक्षा कर रही हूं। ये सब मानवीय प्रतीक्षाएं हैं।
भक्त का मतलब है, मनुष्य जो परमात्मा की तरफ चल पड़ा, लेकिन अभी मनुष्य है। स्थितप्रज्ञ का अर्थ है, मनुष्य अब मनुष्य नहीं रहा,अब वह किसी की तरफ नहीं जा रहा है, अब जाने का कोई सवाल नहीं रहा, अब वह जहां है वहीं है और वहीं परमात्मा तो सदा था, सिर्फ हम अरूप हो जाते, हम अदृश्य हो जाते, हम न हो जाते। जीसस का वचन है, जो अपने को बचाएगा, वह खो देगा। और जो अपने को खो देता है,वह पा लेता है। स्थितप्रज्ञ ने अपने को खो दिया, इसलिए पा लेता है। भक्त अभी पाने चला है, और खुद है। अनुभव उसे धीरे-धीरे मिटाएगा। कबीर का वचन है कि खोजते-खोजते फिर मैं ही खो गया। और कोई उपाय न था। खोजने निकले थे किसी को। आखिर में पाया कि खोज ने खुद को ही छीन लिया। "हेरत हेरत हे सखी, गया कबीर हेराय'। खोजने निकले थे सखी, लेकिन आखिर ऐसा हुआ कि वह तो मिला नहीं, खुद ही खो गए। लेकिन जिस दिन खो गए, उस दिन खोज पूरी हो जाती है। उस दिन वह मिला ही हुआ है।
लाओत्से का बहुत अदभुत वचन है। लाओत्से कहता है, "सीक एंड यू विल नाट फाइंड' खोजो और तुम न पा सकोगे। "डू नाट सीक एंड फाइंड'। मत खोजो और पाओ। "बिकाज़ ही इज़ हियर एंड नाव'। वह अभी और यहीं है। खोज की वजह से तुम दूर निकल जाते हो। क्योंकि कोई भी यहीं और अभी नहीं खोजेगा। खोज का मतलब ही कहीं और है। तो खोजने कोई मक्का जाएगा, कोई मदीना जाएगा, कोई काशी जाएगा, कोई मानसरोवर जाएगा, कैलास जाएगा। खोजने कहीं जाएगा, ...हां-हां, कोई मनाली जाएगा।...और वह वहीं है, यहीं है, अभी है। इसलिए खोजने वाला उसे जब तक खोजता है तब तक खोता चला जाता है। जिस दिन खोजने वाला खोज-खोज कर थक जाता है और मिट जाता है और गिर जाता है, तब वह मनाली में गिरे, कि मक्का में, कि मदीना में, काशी में, कि कैलाश पर, वह कहीं भी गिर जाए, कहीं भी, वह जहां भी गिर जाए वहीं पाता है कि वह मौजूद है। वह सदा मौजूद है, हमारी मौजूदगी बाधा है। हम गैर-मौजूद हो जाएं।
भक्त अभी मौजूद है, स्थितप्रज्ञ गैर-मौजूद हो गया। भक्त की अभी "प्रेजेंस' है, स्थितप्रज्ञ की कोई "प्रेजेंस' नहीं है। वह "एब्सेंट' हो गया। वह अब है नहीं। यह भी समझ लेना जरूरी है कि जब तक भक्त "प्रेजेंट' है तब तक ईश्वर "एब्सेंट' रहेगा। जब तक भक्त मौजूद है, तब तक ईश्वर गैर-मौजूद है। और इसलिए भक्त ईश्वर को "प्रॉक्सी' की तरकीब से मौजूद करता रहता है। कभी मूर्ति बनाकर रख लेता है, कभी मंदिर बना लेता है, यह "प्रॉक्सी' है। इससे कोई हल नहीं है। यह भक्त का ही बनाया हुआ खेल है। यह भी थोड़े दिन में ऊब जाएगा। अपने ही बनाए हुए भगवान से बहुत तृप्ति नहीं मिल सकती। कैसे मिलेगी, कब तक मिलेगी? "प्रॉक्सी' पकड़ में आ ही जाएगी। तब वह फेंक देगा मूर्तियों-वूर्तियोंको। वह कहेगा मैं उसी को चाहता हूं, जो है। लेकिन वह तभी मिलता है जब मैं नहीं हूं, एक ही शर्त है उसकी। मेरा होना ही दीवाल है, मेरा न-होना द्वार बन जाता है। बस भक्त और स्थितप्रज्ञ में उतना ही फर्क है।
स्थितप्रज्ञ द्वार है, भक्त अभी दीवाल है। दीवाल हम भी हैं, लेकिन भक्त ऐसी दीवाल है जिसके भीतर चीख-पुकार शुरू हो गई, भक्त ऐसी दीवाल है जिसने दरवाजे होने की तरफ श्रम शुरू कर दिया। हम ऐसी दीवाल हैं जो आराम से विश्राम कर रहे हैं। जिनकी कोई यात्रा शुरू नहीं हुई है।