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प्रत्‍येक मनुष्य समस्‍याओं से भरा हुआ और अप्रसन्‍न क्‍यों है?


पहली बात, क्योंकि मनुष्य आत्यंतिक रूप से प्रसन्न हो सकता है, इसकी संभावना है, इसीलिए उसकी अप्रसन्नता है। और अन्य कोई भी—कोई पशु, कोई पक्षी, कोई वृक्ष, कोई चट्टान, इतनी प्रसन्न नहीं हो सकती जितना प्रसन्न मनुष्य हो सकता है। यह संभावना, यह आत्यंतिक संभावना कि तुम प्रसन्न, शाश्वत रूप से प्रसन्न हो सकते हो, कि तुम आनंद के पर्वत के शिखर पर हो सकते हो, अप्रसन्नता निर्मित करती है। और जब तुम अपने चारों ओर देखते हो कि तुम बस एक घाटी में हो, एक अंधेरी घाटी और तुम शिखर के ऊपर हो सकते हो : यह तुलना, यह संभावना, और तुम्हारी वर्तमान की वास्तविकता, अप्रसन्नता का कारण है।

यदि तुम बुद्ध होने के लिए नहीं जन्मे होते, तो जरा सी भी अप्रसन्नता नहीं होती। इसीलिए जो व्यक्ति जितना ग्रहणशील होता है वह उतना ही अप्रसन्न है। व्यक्ति जितना संवेदनशील है उतना ही अप्रसन्न होता है। व्यक्ति जितना अधिक सजग है उतनी अधिक उदासी उसको अनुभव होती है, उतना ही वह इस संभावना को और इस विरोधाभास को कि कुछ हो नहीं रहा है और वह अटक गया है, अधिक अनुभव करता है।

मनुष्य अप्रसन्न है, क्योंकि मनुष्य आत्यंतिक रूप से प्रसन्न हो सकता है। और अप्रसन्नता बुरी बात नहीं है। यही वह प्रेरक तत्व है जो तुमको शिखर पर लेकर जाएगा। यदि तुम अप्रसन्न नहीं हो, तो तुम चलोगे ही नहीं। यदि तुम अपनी अंधेरी घाटी में अप्रसन्न नहीं हो, तो तुम ऊपर पर्वत पर आरोहण का कोई प्रयास क्यों करोगे? जब तक कि शिखर पर चमकता हुआ सूर्य एक चुनौती न बन जाए, जब तक कि शिखर का होना ही वहां पहुंचने की दीवानगी भरी अभीप्सा ही न बन जाए, जब तक. कि वह चरम संभावना तुमको खोज लेने और पा लेने के लिए न उकसा दें—जटिल होने जा रहा है यह मामला। वे लोग जो बहुत सजग, संवेदनशील नहीं हैं, बहुत अप्रसन्न नहीं हैं। क्या तुमने कभी किसी मूढ़ को अप्रसन्न देखा है? असंभव। एक मूढ़ अप्रसन्न नहीं हो सकता, क्योंकि वह उस संभावना के प्रति, जिसको वह अपने भीतर लिए हुए है, सजग नहीं है।

तुम इस बात के प्रति सजग हो कि तुम एक बीज हो और वृक्ष हो सकते हो। बस यहीं पर है यह। लक्ष्य बहुत दूर नहीं है, यही तुमको अप्रसन्न कर देता है। शुभ है यह संकेत। गहनता से अप्रसन्नता को अनुभव करना पहला कदम है। निश्चित है कि बुद्ध इस बात को तुमसे अधिक अनुभव करते हैं। इसीलिए उन्होंने घाटी का त्याग कर दिया और उन्होंने ऊपर की ओर चढूना आरंभ कर दिया। छोटी—छोटी बातें जो प्रतिदिन तुम्हारे सामने आ जाती हैं, उनके लिए बड़ी प्रेरणा बन गईं। एक व्यक्ति को रुग्ण देखना, एक वृद्ध व्यक्ति को उसकी लाठी टेक कर चलता हुआ देखना, एक शव को देख लेना उनके लिए पर्याप्त था, उसी रात उन्होंने अपना राजमहल त्याग दिया। वे उस अवस्था के प्रति सजग हो गए जहां वे थे ‘यही मेरे साथ होने जा रहा है। आज नहीं तो कल मैं भी रुग्ण, वृद्ध और मृत हो जाऊंगा, अत: यहां रहने में क्या सार है? इससे पूर्व कि यह अवसर मुझसे छीन लिया जाए मुझे कुछ ऐसा उपलब्ध कर लेना चाहिए जो शाश्वत है।’ उनके भीतर शिखर पर पहुंचने की तीव्र अभिलाषा जाग्रत हो गई। उस शिखर को हम परमात्मा कहते हैं, उस शिखर को हम कैवल्य कहते हैं, उस शिखर’ को हम मोक्ष, निर्वाण कहते हैं; किंतु वह शिखर तुम्हारे भीतर एक बीज की भांति है। उसको प्रस्फुटित होना पड़ेगा। इसलिए अधिक संवेदनशील आत्मा वाले व्यक्तियों को अधिक दुख होता है। मुढ़ को कोई दुख नहीं होता, मूर्खों को कोई पीड़ा नहीं होती। थोड़ा धन कमा कर, एक छोटा सा मकान बना कर वे अपने सामान्य जीवन में पहले से ही प्रसन्न हैं— पर्याप्त हैं उनकी उपलब्धियां। केवल वही उनकी कुल संभावना है।

यदि तुम सजग हो तो लक्ष्य यह नहीं हो सकता, यह नियति नहीं हो सकता, तब तुम्हारे अस्तित्व में तीक्ष्ण तलवार की भांति एक तीव्र संताप का प्रवेश हो जाएगा। यह तुम्हारे अस्तित्व को परम गहराई तक भेद डालेगा। तुम्हारे हृदय से एक दारुण आर्तनाद उठेगा और यह एक नये जीवन का, जीवन की एक नई शैली का) जीवन के एक नये आधार का प्रारंभ होगा।

इसलिए जो पहली बात मैं कहना चाहता हूं वह यह है, अप्रसन्न अनुभव करना आनंदपूर्ण है; अप्रसन्न अनुभव करना एक वरदान है। ऐसा अनुभव न करना मंदमति होना है।

दूसरी बात, मनुष्य पीड़ा में रहते हैं; क्योंकि वे अपने लिए पीड़ा निर्मित किए चले जाते हैं।

इसलिए पहली बात : इसे समझ लो। अप्रसन्न होना शुभ है, किंतुमैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुमको अपनी अप्रसन्नता को और—और निर्मित करते चले जाना चाहिए। मैं कह रहा हूं यह शुभ है, क्योंकि यह तुमको इसके पार जाने के लिए उकसाती है। लेकिन इसके पार चले जाओ, वरना यह शुभ नहीं है।

लोग अपनी पीड़ा की रूप—रेखा निर्मित किए चले जाते हैं। इसका एक कारण है, मन परिवर्तन का विरोध करता है। मन बहुत रूढ़िवादी है। यह पुराने रास्ते पर चलते रहना चाहता है, क्योंकि पुराना पथ जाना—पहचाना है। यदि तुम हिंदू जन्मे हो, तुम हिंदू ही मरोगे। यदि तुम ईसाई जन्मे हो, तुम ईसाई ही मरोगे। बदलते नहीं हैं लोग। एक विशिष्ट विचारधारा तुम्हारे भीतर इस भांति अंकित .है कि तुम इसके परिवर्तित करने से भयभीत हो जाते हो। तुम इसकी पकड़ का अनुभव करते हो, क्योंकि इसके साथ तुम्हारी जान—पहचान है। कौन जाने नया शायद उतना अच्छा न हो जितना पुराना है। और पुराना जाना हुआ है; तुम इससे भलीभांति परिचित हो। हो सकता है कि यह पीड़ापूर्ण हो, लेकिन कम से कम उससे परिचय तो है। प्रत्येक कदम पर, जीवन के प्रत्येक क्षण में तुम कुछ न कुछ निर्णय लेते रहते हो, भले ही तुम इसे जान पाओ या नहीं। निर्णय से तुम्हारा हर क्षण आमना—सामना होता रहता है—पुराने रास्ते का, जिस पर तुम अभी तक चलते रहे हो, अनुगमन करना है, या नये का चुनाव करना है। प्रत्येक कदम पर सड़क दो भागों में बंट जाती है। और लोग दो प्रकार के होते हैं। वे जो भलीभांति चला हुआ रास्ता चुन लेते हैं, निःसंदेह वे एक वर्तुल में घूमते रहते हैं। वे जाने हुए को चुन लेते हैं, और जाना हुआ एक वर्तुल है। वे इसको पहले से ही जान चुके हैं। वे अपना भविष्य ठीक वैसा चुन लेते हैं जैसा उनका अतीत रहा था। वे एक वर्तुल में चलते हैं। वे अपने अतीत को अपना भविष्य बनाए चले जाते हैं। कोई विकास नहीं होता है। वे बस पुनरुक्ति कर रहे हैं, वे रोबोट जैसे, स्वचालित यंत्र हैं।

फिर दूसरे प्रकार का व्यक्ति है, सजग प्रकार का, जो कि सदैव नये को चुनने के प्रति सतर्क रहता है। हो सकता है कि नया और पीड़ा पैदा कर दे, हो सकता है कि नया भटका दे, लेकिन कम से कम यह नया तो है। यह अतीत की एक पुनरुक्ति मात्र नहीं होगी। नये में सीखने की, विकास की, तुम्हारी संभावना को साकार हो पाने की, संभावना होती है।

इसलिए स्मरण रखो, जब कभी भी चुनाव करना हो, अनजाने पथ को चुन लो। लेकिन तुमको ठीक इसका उलटा सिखाया गया है। तुमको सदैव जाने हुए का चुनाव करना सिखाया गया है। तुम्हें बहुत चालाक और होशियार होना सिखाया गया है। निःसंदेह जाने हुए के साथ सुविधाएं हैं। पहली सुविधा यह है कि जाने हुए के साथ तुम अचेतन बने रह सकते हो। वहां पर चेतन होने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि तुम उसी रास्ते पर चल रहे हो, तब तुम करीब—करीब सोए हुए, निद्रागामी की भांति चल सकते हो। यदि तुम अपने स्वयं के घर वापस आ रहे हो और प्रतिदिन तुम उसी रास्ते से आया करते हो, तब तुमको सजग होने की आवश्यकता नहीं है; तुम मात्र अचेतन होकर आ सकते हो। जब दाएं मुड़ने का समय आता है तुम मुड़ जाते हो; किसी प्रकार की सजगता रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसीलिए लोग पुराने रास्तों का अनुगमन करना पसंद करते हैं,’ सजग होने की कोई आवश्यकता नहीं है। और सजगता उपलब्ध किए जाने वाली कठिनतम चीजों में से एक है। जब भी तुम एक नई दिशा में जा रहे हो, तो तुम को प्रत्येक कदम पर सजग होना पड़ेगा।

नये का चुनाव करो। यह तुमको सजगता प्रदान करेगा, सुविधापूर्ण नहीं होने जा रहा है यह। विकास कभी सुविधापूर्ण नहीं होता, विकास कष्टप्रद होता है। पीड़ा के माध्यम से विकास होता है। तुम अग्नि से होकर गुजरते हो, किंतु केवल तभी तुम खरा सोना बनते हो। फिर वह सभी कुछ जो स्वर्ण नहीं है जल जाता है, भस्मीभूत हो जाता है। केवल शुद्धतम तुम्हारे भीतर बचा रहता है। तुमको पुराने का अनुगमन करना सिखाया गया है, क्योंकि पुराने रास्ते पर तुम कम गलतियां कर रहे होगे। लेकिन तुम आधारभूत गलती कर लोगे, और आधारभूत गलती यह होगी कि विकास केवल तभी होता है जब तुम नये के लिए, नई गलतियां करने की संभावना के साथ, उपलब्ध रहते हो। निःसंदेह पुरानी गलतियों को बार—बार दोहराने की काई आवश्कता नहीं है, बल्कि नई गलतियों को करने का साहस और क्षमता जुटाओ—क्योंकि प्रत्येक नई गलती एक सीख बन जाती है, सीखने की एक परिस्थिति बन जाती है। प्रत्येक बार जब तुम भटकते हो तुमको वापस घर लौटने का रास्ता खोजना पड़ता है। और यह जाना और आना, यह लगातार भूल जाना और याद करना, तुम्हारे अस्तित्व के भीतर एक समग्रता निर्मित कर देता है।

सदैव नये का चुनाव करो, भले ही यह पुराने से बुरा प्रतीत होता हो। मैं कहता हूं सदैव नये का चुनाव करो। यह असुविधाजनक लगता है—नये का चुनाव करो। यह असहज है, असुरक्षित है—नये का चुनाव करो। यह कोई नये का प्रश्न नहीं है, यह तुमको अधिक सजग होने को अवसर दैने के लिए है। तुमको लक्ष्य के रूप में दक्षता सिखाई गई है। यह लक्ष्य नहीं है। सजगता है लक्ष्य। दक्षता तुमसे बार—बार पुराने रास्ते का अनुगमन करवाती है, क्योंकि पुराने रास्ते पर तुम अधिक दक्ष होगे। तुम सभी मोड़ और घुमाव जान लोगे। तुमने इस पर इतने वर्षों से या शायद इतने जन्मों से यात्रा की हुई है कि तुम और—और दक्ष हो जाओगे। लेकिन दक्षता नहीं है लक्ष्य। दक्षता यांत्रिकता के लिए लक्ष्य है। यत्र को दक्ष होना चाहिए, लेकिन मनुष्य को? —मनुष्य कोई यंत्र नहीं है। मनुष्य को अधिक सजग होना चाहिए, और यदि इस सजगता से दक्षता आ जाती है, शुभ है, सुंदर है यह। यदि यह दक्षता सजगता की कीमत पर आती है, तो तुम जीवन के विरोध में बड़ा पाप कर रहे हो, और तब तुम अप्रसन्न बने रहोगे। और यह अप्रसन्नता जीवन की एक शैली बन जाएगी। तुम बस एक दुष्‍चक्र में घूमते रहोगे। एक अप्रसन्नता तुमको दूसरी अप्रसन्नता में ले जाएगी और इसी भांति यह सिलसिला चलता चला जाएगा।

सजगता की विषयवस्तु के रूप में अप्रसन्नता एक वरदान है, लेकिन जीवन की एक शैली के रूप में अप्रसन्नता अभिसाप है। इसको अपने जीवन का रंग—ढंग मत बना लो। मैं देखता हूं कि अनेक लोगों ने इसे अपने जीवन का ढंग बना रखा है। वे जीवन का कोई दूसरा ढंग जानते ही नहीं हैं। यदि तुम उनसे कहो तो भी वे नहीं सुनेंगे। वे पूछते चले जाएंगे कि वे अप्रसन्न क्यों हैं, लेकिन वे यह नहीं सुनेंगे कि वे स्वयं ही प्रतिक्षण अपनी अप्रसन्नता निर्मित कर रहे हैं। कर्म के सिद्धात का यही अर्थ है।

कर्म का सिद्धांत कहता है कि तुम्हारे साथ जो कुछ भी घटित हो रहा है वह तुम्हारा किया— धरा है। कहीं किसी अचेतन तल पर तुम इसको निर्मित कर रहे हो—क्योंकि तुम्हारे साथ बाहर से कुछ भी नहीं घटता। प्रत्येक चीज भीतर से उभर कर आती है। यदि तुम उदास हो, तो अपने अंतर्तम अस्तित्व में कहीं न कहीं तुम ही इसको निर्मित कर रहे होगे। वहीं से आती है यह। अपनी आत्मा के भीतर कहीं न कहीं तुम ‘ ही इसको निर्मित कर रहे होगे। यदि तुम पीड़ा में हो, तो निरीक्षण करो, अपनी पीड़ा पर ध्यान दो, तुम इसे किस भांति निर्मित कर लेते हो, ध्यान लगाओ। तुम सदैव पूछा करते हो, ‘पीड़ा के लिए कौन उत्तरदायी है?’ तुम्हारे अतिरिक्त और कोई उत्तरदायी नहीं है। यदि तुम पति हो तो तुम्हारा मन कहे चला जाता है कि तुम्हारी पत्नी तुम्हारी पीड़ा निर्मित कर रही है। यदि तुम पत्नी हो तो तुम्हारा पति तुम्हारी पीड़ा निर्मित कर रहा है। यदि तुम निर्धन हो तो धनवान तुम्हारी पीड़ा निर्मित कर रहा है। यह मन सदा किसी और पर उत्तरदायित्व थोपे चला जाता है।

इसे बहुत आधारभूत समझ बन जाना चाहिए कि? तुम्हारे अतिरिक्त कोई अन्य उत्तरदायी नहीं है। एक बार तुम इसको समझ लो, चीजें बदलना आरंभ हो जाती हैं। यदि तुम अपनी पीड़ा निर्मित कर रहे हो और तुम इसको प्रेम करते हो तब इसे निर्मित करते रहो। फिर इससे कोई समस्या मत खड़ी करो। तुम्हारे मामले में हस्तक्षेप करना किसी का काम नहीं है। यदि तुम उदास होना चाहते हो, तुमको उदास होने से प्रेम है, तो पूरी तरह से उदास हो जाओ। लेकिन यदि तुम उदास होना नहीं चाहते हो, तब कोई आवश्यकता नहीं है—इसको निर्मित मत करो। निरीक्षण करो कि तुम किस भांति अपनी पीड़ा निर्मित करते हो, उसका ढांचा किस तरह का है? —तुमने अपने भीतर किस प्रकार से इसे तैयार कर लिया है? लोग लगातार अपनी भाव—दशाएं निर्मित कर रहे हैं। तुम दूसरों पर उत्तरदायित्व थोपते चले जाते हो, फिर तुम कभी नहीं बदलोगे। फिर तुम पीड़ा में बने रहोगे, क्योंकि तुम कर ही क्या सकते हो? यदि दूसरे पीड़ा निर्मित कर रहे हैं, तो तुम क्या कर सकते हो? जब तक कि दूसरे न बदल जाएं तुम्हारे हाथ में कुछ नहीं है। दूसरों पर उत्तरदायित्व थोप कर तुम एक गुलाम बन जाते हो। उत्तरदायित्व को अपने स्वयं के हाथों में ले लो।

कुछ दिन पूर्व एक संन्यासिनी ने मुझको बताया कि उसका पति सदैव उसके लिए समस्याएं उत्पन्न करता रहा है। और जब उसने अपनी कहानी सुनाई, तो ऊपर से ऐसा ही प्रतीत होता कि निःसंदेह उसका पति उत्तरदायी है। अपने पति से उसके आठ बच्चे हैं, और फिर एक अन्य स्त्री से उसके पति के तीन और बच्चे हैं, और अपनी सचिव से एक बच्चा है। अपने संपर्क में आने वाली हर स्त्री से वह सदैव चाहत का खेल खेला करता था। निःसंदेह इस बेचारी स्त्री से हर किसी को सहानुभूति हो जाएगी, उसने कितनी अधिक पीड़ा भोगी है, और यह सब चल रहा है। पति कोई बहुत अधिक कमा भी नहीं रहा है। यह स्त्री उसकी पैली कमाती है और उसको इन बच्चों का भी, जिनको उसने अन्य महिला द्वारा जन्माया है, व्यय वहन करना पड़ता है। निःसंदेह वह बहुत पीड़ा में है, लेकिन कौन उत्तरदायी है? मैंने उससे कहा : यदि तुम वास्तव में पीड़ा में हो तो तुम्हें इस आदमी के साथ रहना क्यों जारी रखना चाहिए? छोड़ दो। तुम्हें बहुत पहले ही छोड़ देना चाहिए था। संबंध जारी रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। और वह समझ गई, जो एक दुर्लभ घटना है—बहुत बाद में, बहुत देर से समझी, लेकिन फिर भी अधिक देर नहीं हुई। अब भी उसका जीवन शेष है। अब यदि वह जोर देती है कि वह इस आदमी के साथ रहना पसंद करेगी तो वह अपनी स्वयं की पीड़ा पर जोर दे रही है। तब वह पीड़ा में जाने का मजा ले रही है। तब वह पति की निंदा करने का मजा ले रही है, तब वह हर किसी से सहानुभूति प्राप्त करने का मजा ले रही है। और निःसंदेह वह जिस किसी के भी संपर्क में आएगी वे उस बेचारी महिला के प्रति सहानुभूति व्यक्त करेंगे।

कभी सहानुभूति मत मांगो। समझ की मांग करो, लेकिन सहानुभूति कभी मत मांगो। वरना सहानुभूति इतनी अच्छी लग सकती है कि तुम पीड़ा में बने रहना पसंद करोगे। तब पीड़ा में तुम्हारा निवेश हो जाता है। यदि तुम पीडा में नहीं रहे तो लोग तुमसे सहानुभूति नहीं रखेंगे। क्या तुमने कभी निरीक्षण किया है? — प्रसन्न व्यक्ति के साथ कोई सहानुभूति नहीं रखता। यह कुछ नितांत असंगत बात है। लोगों को प्रसन्न व्यक्ति के साथ सहानुभूति रखना चाहिए, लेकिन उससे कोई सहानुभूति नहीं रखता। वास्तव में तो लोग प्रसन्न व्यक्ति के प्रति शत्रुता अनुभव करते हैं। वस्तुत: प्रसन्न हो जाना बहुत खतरनाक है। प्रसन्न होकर और अपनी प्रसन्नता को अभिव्यक्त करके तुम अपने आपको एक बहुत बड़े खतरे में डाल रहे हों—प्रत्येक व्यक्ति तुम्हारा शत्रु हो जाएगा, क्योंकि प्रत्येक को अनुभव होगा, ‘तुम प्रसन्न कैसे हो गए मैं अप्रसन्न क्यों हो गया? असंभव, इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है। बस बहुत हो चुका।’

ऐसे समाज में जो अप्रसन्न और पीड़ित व्यक्तियों से मिल कर बना है, प्रसन्न व्यक्ति एक अजनबी है। इसीलिए हमने सुकरात को विष दे दिया, हमने जीसस को मार डाला, हमने मंसूर को सूली दे दी। हम कभी भी प्रसन्न व्यक्तियों के साथ सहजता से नहीं रह पाए। किसी भांति उन्होंने हमारे अहंकारों को अत्यधिक ठेस लगा दी। लोगों ने जीसस को सूली पर चढ़ा दिया, जब वे जीवित थे, तब उन्होंने उनको मार डाला। वे बहुत कम उम्र के थे, केवल तैंतीस वर्ष की आयु थी। अभी तक उन्होंने पूरा जीवन देखा भी नहीं था। वे अपना जीवन बस आरंभ ही कर रहे थे, बस एक कली खिल ही रही थी और लोगों ने उनको मार डाला, क्योंकि वे असहनीय हो गए थे। इतने प्रसन्न ?—प्रत्येक व्यक्ति आहत था। उन्होंने इस आदमी की हत्या कर दी। और फिर उन्होंने उनकी पूजा करना आरंभ कर दिया। जरा देखो—अब वे दो हजार वर्षों से उनकी पूजा करते आ रहे हैं, सूली पर चढ़ा कर जीसस की पूजा हो रही है। लेकिन सूली पर चढ़े हुए जीसस के साथ तुम सहानुभुति कर सकते हो, प्रसन्न जीसस के साथ तुम शत्रुता अनुभव करते हो।

वही यहां पर हो रहा है। मैं एक प्रसन्न व्यक्ति हूं। यदि तुम चाहते हो कि मैं पूजा जाऊं, तो तुमको मुझे सूली पर चढ़ाने की व्यवस्था करनी पड़ेगी। दूसरा कोई उपाय है ही नहीं। फिर वे लोग जो मेरे विरोध में हैं, मेरे अनुयायी बन जाएंगे। लेकिन पहले उन्हें मुझको सूली पर चढ़ा हुआ देखना पड़ेगा, इसके पहले वे अनुयायी नहीं बन सकेंगे। किसी प्रसन्न व्यक्ति की कभी किसी ने पूजा नहीं की है। पहले प्रसन्न व्यक्ति को नष्ट करना पड़ता है। निःसंदेह तब उसकी व्यवस्था की जा सकती है। अब तुम जीसस के साथ सहानुभूति कर सकते हो। जब कभी भी तुम जीसस की ओर देखते हो तुम्हारी आंखों से आंसू निकलना आरंभ हो जाते हैं, बेचारे जीसस, उन्होंने कितने दुख उठाए। नृत्य करते हुए क्राइस्ट उपद्रव उत्पन्न करते हैं।

स्वीडन में एक व्यक्ति जीसस पर एक फिल्म ‘जीसस दि मैन’ बनाने का प्रयास कर रहा है। दस वर्षो से वह कोशिश कर रहा है। लेकिन हजारों बाधाएं हैं। सरकार अनुमति नहीं देगी। जीसस दि मैन? नहीं। क्योंकि जीसस दि मैन का अर्थ होगा कि यह व्यक्ति मेरी मेग्दलीन के साथ प्रेम में पड़ गया होगा, और यह आदमी फिल्म के माध्यम से इस बात को सार्वजनिक प्रदर्शन कर देगा। जीसस ने स्त्रियों से प्रेम किया था। स्वाभाविक है यह, कुछ भी गलत नहीं है इसमें। वे एक प्रसन्न व्यक्ति थे, कभी—कभी वे शराब से प्रेम करते थे। वे उस प्रकार के व्यक्ति थे जो उत्सव मना सकता है। अब जीसस एक व्यक्ति की भांति खतरनाक हैं। और यह आदमी जीसस दि मैन, परमेश्वर का बेटा नहीं, बल्कि आदमी का बेटा, पर एक फिल्म बनाना चाहता है। यह उपद्रव पैदा करने वाला कार्य बन जाएगा। और यदि वह किसी कहानी पर काम करना आरंभ कर देता है तो उसको मेरी के किसी अनैतिक प्रेम संबंध को भी प्रस्तुत करना पड़ेगा, क्योंकि कोई कुंआरी स्त्री जन्म नहीं दे सकती। जीसस जोसफ के पुत्र नहीं थे, यह बात तो निश्चित है। लेकिन उनको किसी का पुत्र तो होना पड़ेगा। सरकार विरोध में है, चर्च विरोध में है। तुम यह सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हो कि जीसस अवैध संतान हैं! असंभव! फिल्म की अनुमति नहीं दी जा सकती है। और जीसस एक वेश्या मेरी मेग्दलीन के साथ प्रेम करते हुए? —और निश्चित है कि वे प्रेम करते थे। वे एक प्रसन्न व्यक्ति थे। प्रसन्न व्यक्ति के चारों ओर बस प्रेम घटित हो जाता है। उन्होंने जीवन का मजा लिया। यह जीवन परमात्मा का दिया हुआ प्रसाद है, व्यक्ति को इसका मजा लेना चाहिए। प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति उत्सव मनाने वाला व्यक्ति होता है।

फिर उन्होंने इस व्यक्ति जीसस को मार डाला, उनको सूली पर चढ़ा दिया, और उसके बाद से वे उनकी पूजा करते चले आ रहे हैं। अब उनको व्यवस्थित किया जा सकता है; वे तुम्हारे भीतर काफी कुछ सहानुभूति उत्पन्न करते हैं। सूली पर लटके हुए जीसस बोधिवृक्ष के नीचे बैठे बुद्ध से कहीं अधिक आकर्षक हैं। सूली पर चढ़े हुए जीसस अपनी बांसुरी बजाते हुए कृष्ण से अधिक आकर्षक हैं। जीसस विश्वव्यापी धर्म बन गए। कृष्ण? —उनकी चिंता कौन करता है? हिंदू तक उनके चारों ओर नृत्य करती हुई सोलह हजार नारियों के बारे में अपराध—बोध अनुभव करते हैं—असंभव, यह बस एक पौराणिक आख्यान है। हिंदू कहते हैं, यह एक सुंदर काव्य है; और वे इसकी व्याख्याएं किए चले जाते हैं। वे कहते हैं, ये सोलह हजार नारियां वास्तविक स्त्रियां नहीं थीं, ये सोलह हजार नाडिया, तंत्रिकाओं का जाल, मनुष्य के शरीर क भीतर की सोलह हजार तंत्रिकाएं हैं। यह मानव शरीर की प्रतीकात्मक व्याख्या है। कृष्ण आत्मा हैं और सोलह हजार तंत्रिकाएं आत्मा के चारों ओर नाचती हुई गोपियां हैं। फिर सभी कुछ ठीक है। लेकिन यदि वे असली स्त्रियां हैं, तब कठिन है यह मामला, इसे स्वीकार करना बहुत कठिन है।

भारत के एक और धर्म जैनियों ने कृष्ण को इन सोलह हजार स्त्रियों के कारण नरक में डाल रखा है। जैन—पुराणों में वे कहते हैं, कृष्ण सातवें अंतिम नरक में हैं… और वे शीघ्र बाहर भी नहीं आने वाले हैं। वे उस समय तक वहां रहेंगे जब तक कि यह सारी सृष्टि नष्ट नहीं हो जाती है। वे उसी समय बाहर आएंगे जब अगली सृष्टि का आरंभ हो जाएगा; अभी लाखों वर्ष प्रतीक्षा करना होगी। उन्होंने बहुत बड़ा पाप किया है, और बहुत बड़ा पाप हैं—क्योंकि वे उत्सव मना रहे थे। पाप बड़ा है—क्योंकि वे नृत्य कर रहे थे।

महावीर अधिक स्वीकार योग्य हैं; बुद्ध अभी भी अधिक स्वीकार योग्य हैं। कृष्ण अपने धर्म को छोड़ देने वाले एक ऐसे व्यक्ति प्रतीत होते हैं जिन्होंने गंभीर लोगों का भरोसा तोड़ दिया है। वे गैर—गंभीर, प्रसन्न थे—न उदास, न लंबा चेहरा—हंसते हुए, नृत्य करते हुए। और सच्चा रास्ता यही है। मैं तुमसे कहना चाहूंगा, परमात्मा की ओर जाते हुए अपने रास्ते पर नृत्य करते हुए जाओ, परमात्मा की ओर जाने वाले अपने रास्ते पर हंसते हुए जाओ। गंभीर चेहरों के साथ मत जाओ। उस ‘प्रकार के लोगों से परमात्मा पहले से ही काफी ऊब चुका है।

सहानुभूति एक बड़ा निवेश है और उसको केवल तभी जारी रखा जा सकता है जब कि तुम सहानुभूति प्राप्त करते चले जाओ, केवल तभी जब तुम परेशानी में बने रहो। इसलिए यदि एक परेशानी समाप्त हो जाती है तो तुम दूसरी बना लेते हो, यदि एक बीमारी तुमको छोड़ देती है तुम दूसरी निर्मित कर लेते हो। निरीक्षण करो इसका—तुम अपने साथ बहुत खतरनाक खेल खेल रहे हो। यही कारण है कि लोग परेशानी में हैं और अप्रसन्न हैं। वरना कोई आवश्यकता नहीं है।

अपनी सारी ऊर्जा को प्रसन्न होने में अर्पित कर दो, और दूसरों के बारे में चिंता मत करो। तुम्हारी प्रसन्नता तुम्हारी नियति है; इसमें हस्तक्षेप करने का हक किसी को नहीं है। लेकिन समाज हस्तक्षेप किए चला जाता है : यह एक दुष्‍चक्र है। तुम्हारा जन्म हुआ, और निःसंदेह तुम्हारा जन्म एक ऐसे समाज में हुआ जो पहले से ही वहां था, यह विक्षिप्त लोगों का, ऐसे लोगों का समाज है जो सभी परेशान और अप्रसन्न हैं। तुम्हारे माता—पिता, तुम्हारा परिवार, तुम्हारा समाज, तुम्हारा देश सभी तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं। एक छोटे बच्चे का जन्म हुआ है, सारा समाज उस पुर कूद पड़ता है, उसको सभ्य बनाने लगता है, सुसंस्कृत बनाने लगता है। यह इस प्रकार से है जैसे कि किसी बच्चे का जन्म पागलखाने में हुआ हो और सारे पागल उसे सिखाने लगें। निःसंदेह उनको सहायता करनी पड़ती है—बच्चा इतना छोटा है और संसार के बारे में कुछ भी नहीं जानता है। जो कुछ भी वे जानते हैं वे सिखा देंगे। उनके माता—पिता ने और दूसरे विक्षिप्त लोगों ने उन पर जो कुछ थोप दिया था, वे उसी को बच्चे पर थोप देंगे। क्या तुमने देखा है कि जब कभी कोई बच्चा खिलखिलाने और हंसने लगता है तो तुम्हारे भीतर कुछ असहज हो जाता है? तुरंत ही तुम उसको बता देना चाहते हो, इस हंसी इत्यादि को बंद करो और अपना लालीपॉप चूसो! अचानक तुम्हारे भीतर से कोई कहता है, बंद करो! जब कोई बच्चा खिलखिलाना आरंभ करता है, तो तुम्हें ईष्या का अनुभव होता है या किसी और भाव का? तुम एक बच्चे को, बस उसके भर पूर मजे के लिए यहां और वहां दौड़ लगाने और उछल—कूद की अनुमति नहीं दे सकते।

मैंने दो अमरीकन स्त्रियों, दो ईसाई साध्वियों के बारे में सुना है। वे एक पुराने चर्च को देखने के लिए इटली गई थीं। अमरीकन यात्री! चर्च में उन्होंने एक इतालवी महिला को प्रार्थना करते हुए और उसके चार या पांच बच्चों को चर्च के भीतर दौड़ते हुए और खूब शोरगुल करते हुए और पूरी तरह भूल कर कि यह चर्च है, प्रसन्न होते हुए देखा। उन दोनों अमरीकी महिलाओं को यह सहन नहीं हो सका बस बहुत हो चुका। यह चर्च की पवित्रता को भंग करना है। वे उस स्त्री, उनकी मां, के पास चली गईं और उससे कहा, ये बच्चें तुम्हारे हैं? यह चर्च है और यहां पर कुछ अनुशासन बना कर रखना पड़ता है! इनको नियंत्रण में रखा जाना चाहिए। उस महिला ने प्रार्थनापूर्ण आंखों से अत्यधिक प्रसन्नतापूर्वक आनंद के आंसू बहाते हुए उनको देखा और बोली, यह उनके पिता का घर है, क्या वे यहां खेल नहीं सकते? किंतु ऐसा दृष्टिकोण दुर्लभ है, बहुत दुर्लभ है।

मनुष्य—जाति पर विक्षिप्त लोगों का वर्चस्व रहा है—राजनेता, पुरोहित, वे विक्षिप्त हैं, क्योंकि महत्वाकांक्षा एक तरह का पागलपन है—और वे अपना ढंग थोपते चले जाते हैं। जब किसी बच्चे का जन्म. होता है तो वह ऊर्जा का एक उद्वेलन—आनंद, प्रसन्नता, हर्ष, प्रमुदिता का अंतहीन स्रोत—और कुछ नहीं बल्कि उल्लास और प्रफुल्लता से भरा हुआ होता है। तुम उस पर नियंत्रण करना आरंभ कर देते हो, तुम उसके पर कतरना आरंभ कर देते हो, तुम उसकी काट—छांट करने लगते हो। तुम कहते हो, ‘हंसने के कुछ उचित समय हुआ करते हैं।’ हंसने के लिए उचित समय? —इसका अभिप्राय हुआ: जीवित रहने के लिए उचित समय? तुम इसी बात को कह रहे हो, जीवित रहने के लिए उचित समय—तुमको चौबीसों घंटे जीवित नहीं रहना चाहिए। रोने के लिए भी उचित समय हुआ करते हैं। किंतु जब किसी बच्चे को हंसने जैसा लगता हो तो उसको क्या करना चाहिए? उसको नियंत्रण करना पड़ेगा, और जब तुम अपनी हंसी पर काबू पा लेते हो तो यह तुम्हारे भीतर कसैली और खट्टी हो जाती है। वह ऊर्जा जो बाहर जा रही थी भीतर रोक ली जाती है। ऊर्जा को वापस रोक कर तुम अपने भीतर कहीं अवरुद्ध हो जाते हो। बच्चा बाहर जाना, चारों और दौड़ लगाना, उछलना—कूदना और नृत्य करना चाहता है लेकिन अब उसको रोक दिया गया है। उसकी ऊर्जा अतिरेक में प्रवाहित होने के लिए तैयार है, लेकिन धीरे— धीरे वह केवल एक बात सीख लेता है—अपनी ऊर्जा के प्रवाह को रोक देना। इसी कारण से संसार में इतने अधिक अवरुद्ध व्यक्तित्व वाले, इतने तनावग्रस्त, सतत नियंत्रण करने वाले लोग हैं। वे रो नहीं सकते, पुरुष पर आंसू अच्छे नहीं लगते। वे हंस नहीं सकते, हंसी बहुत असभ्यतापूर्ण प्रतीत होती है। जीवन का इनकार कर दिया गया है, मृत्यु की पूजा की जाती है। तुम चाहोगे कि बच्चा के आदमी की भांति व्यवहार करे, और बूढ़े लोग अपने मुर्दा दृष्टिकोणों को नई पीढ़ी पर थोपना आरंभ कर देते हैं।

मैंने नब्बे वर्ष की एक की महिला, एक जागीरदारिन, के बारे में सुना है, जिसके पास कई एकड़ के बगीचे के बीच में बना बहुत बड़ा मकान था। एक दिन वह अपनी संपत्ति की देखभाल हेतु बाहर निकली, बहुत विशाल क्षेत्रफल में विस्तृत थी यह। तालाब के ठीक उस ओर, जंगल के पीछे उसने एक युवा जोड़े को प्रेमालाप में संलग्न देखा। उसने ड्राइवर से पूछा, ये लोग यहां पर क्या कर रहे हैं?—नब्बे वर्ष की उम्र थी उसकी, शायद वह भूल गई हो…ये लोग यहां पर क्या कर रहे हैं? ड्राइवर को सच बताना पड़ गया। बहुत नम्रतापूर्वक उसने कहा, वे युवा लोग हैं। वे सहवास कर रहे हैं। वह की स्त्री अत्यधिक क्रोधित हो उठी और उसने कहा, इस तरह का काम क्या संसार में अभी भी चल रहा है?

जब तुम बूढ़े हो जाते हो, तो क्या तुम सोचते हो कि सारा संसार बूढ़ा हो गया है? जब तुम मर रहे हो, क्या तुम सोचते हो कि सारा संसार मर रहा है? संसार अपने आप को फिर से नया, अपने आप को पुन: नवीनीकृत करता चला जाता है। इसीलिए यह बूढ़े लोगों को दूर ले जाता है और छोटे बच्चे संसार को वापस कर देता है। यह बूढ़े लोगों को छोटे बच्चों में बदल देता है।

अस्तित्व पृथ्वी की जनसंख्या में नये लोगों को सम्मिलित किए चला जाता है—जब कभी यह देखता है कि एक व्यक्ति पूरी तरह से अवरुद्ध हो चुका है—अब वहां न कोई प्रवाह है, न कोई रस है, और यह व्यक्ति बस सिकुड़ रहा है और अनावश्यक रूप से पृथ्वी पर एक बोझ हुआ जा रहा है—तब जीवन उससे वापस ले लिया जाता है। वह व्यक्ति नष्ट हो जाता है, अस्तित्व में वापस चला जाता है। मिट्टी मिट्टी में मिल जाती है, आकाश आकाश में समा जाता है, वायु वायु से मिल जाती है, अग्नि अग्नि में, जल जल में मिल जाता है। फिर उस मिट्टी में से, उस जल और अग्नि में से एक नये बच्चे का जन्म हो जाता है—प्रवाहमान, युवा, ताजगी भरा, पुन: जीने और नृत्य करने को तैयार। ठीक उसी भांति जैसे वृक्ष पर पुष्प आते हैं, ठीक उसी प्रकार से जैसे कि वृक्ष पुष्पित होता है, यह पृथ्वी बच्चे निर्मित करती है, नये बच्चों का सृजन करती चली जाती है।

यदि तुम वास्तव में प्रसन्न रहना चाहते हो तो तुमको युवा, जीवंत, रोने, हंसने, सभी आयामों के लिए उपलब्ध, प्रत्येक दिशा में प्रवाहित, प्रवाहमान रहना पड़ेगा। तभी तुम प्रसन्न बने रहोगे। लेकिन याद रखो, तुमको कोई सहानुभुति नहीं मिलेगी। लोग तुमको पत्थर मार सकते हैं, लेकिन यह मूल्य है। लोग सोच सकते हैं कि तुम अधार्मिक हो, वे तुम्हारी निंदा कर सकते हैं, वे तुमको गालियां दे सकते हैं, किंतु इसके बारे में चिंता मत करो। इसका जरा भी महत्व नहीं है। वह एक मात्र चीज जिसका महत्व है—वह है तुम्हारी प्रसन्नता।

और तुमको अनेक चीजों को अनकिया भी करना पड़ेगा, केवल तभी तुम प्रसन्न हो सकते हो। समाज के द्वारा जो कुछ भी किया जा चुका है उसको अनकिया करना पड़ता है। जहां कहीं पर तुम अटके हो—तुम हंसने जा रहे हो और तुम्हारे पिता ने तुमको क्रोध से देखा और कहा, रुक जाओ—तुमको पुन: वहीं से आरंभ करना पड़ेगा। अपने पिता से कह दो, कृपया शांत रहिए, अब मैं पुन: हंसने जा रहा हूं। तुम्हारे सिर के भीतर कहीं पर अब भी तुम्हारे पिता तुमको पकड़े हुए हैं. रुक जाओ! क्या तुमने कभी देखा है? यदि तुम गहराई से ध्यान करते हो तो तुम अपने भीतर अपने माता—पिता की आवाज सुन लोगे। तुम रोने वाले थे और मां ने तुमको रोक दिया, और निःसंदेह तुम असहाय थे और जीवित रह पाने के लिए तुमको समझौते करने पड़ते थे। और कोई दूसरा उपाय था भी नहीं। तुमको इन लोगों पर निर्भर रहना पड़ता था, और उनकी अपनी शर्तें थीं, वरना तुमको उन्होंने दूध नहीं दिया होता, उन्होंने तुमको भोजन नहीं दिया होता, उन्होंने तुमको कोई सहारा नहीं दिया होता। और एक छोटा बच्चा बिना किसी सहारे के कैसे जी सकता है? उसको समझौता करना पड़ता है। वह कहता है, ठीक है। बस जीवित रहने के लिए जो कुछ भी आप कहते हैं मैं वही करूंगा। इसलिए धीरे— धीरे वह नकली बन जाता है। धीरे— धीरे वह अपने स्वयं के विरोध में चला जाता है। वह हंसना चाहता था लेकिन पिता अनुमति नहीं दे रहे थे, इसलिए उसने मुह बंद रखा। धीरे— धीरे वह ढोंगी, पाखंडी हो जाता है।

और पाखंडी कभी प्रसन्न नहीं हो सकता, अपनी जीवन—ऊर्जा के प्रति सच्चा होना प्रसन्नता है। सच्चे होने के कृत्य का परिणाम है—प्रसन्नता। प्रसन्नता कहीं और नहीं है कि तुम जाओ और इसको खरीद लो। प्रसन्नता कहीं और तुम्हारी प्रतीक्षा नहीं कर रही है कि तुमको रास्ता खोजना पड़ेगा और उस तक पहुंचना पड़ेगा। नहीं, प्रसन्नता सच्चे, प्रमाणिक होने के कृत्य का फल है। तब कभी तुम सच्चे हो, तुम प्रसन्न हो। जब कभी तुम सच्चे नहीं हो, तुम अप्रसन्न हो।

और मैं तुमसे नहीं कहूंगा कि यदि तुम सच्‍चे नहीं हो तुम अपने आगामी जीवन में अप्रसन्न होओगे। नहीं, यह सब बकवास है। यदि तुम सच्चे नहीं हो, तो ठीक इसी समय तुम अप्रसन्न हो। निरीक्षण करो—जब कभी भी तुम सच्चे नहीं होते हो, तुमको असहजता, अप्रसन्नता अनुभव होती है, क्योंकि ऊर्जा प्रवाहित नहीं हो रही है। ऊर्जा नदी जैसी नहीं है; यह अवरुद्ध, मृत, जमी हुई है। और तुम प्रवाहित होना पसंद करोगे। जीवन एक प्रवाह है; मृत्यु है जमी हुई अवस्था। अप्रसन्नता आती है क्योंकि तुम्हारे अनेक भाग जमे हुए हैं। उनको कभी कार्यरत नहीं होने दिया गया है और धीरे— धीरे तुमने उनको नियंत्रित करने की तरकीब सीख ली है। अब तुम यह भी भूल चुके हो कि तुम किसी चीज को नियंत्रित कर रहे हो। तुम शरीर में अपनी जड़ों को खो चुके हो। अपने शरीर के सत्य में स्थित अपनी जड़ों को खो चुके हो।

लोग भूतों की भांति जी रहे हैं, यही कारण है कि वे पीड़ा में हैं। जब मैं तुम्हारे भीतर झांकता हूं तो मुश्किल से ही मेरा किसी जीवित व्यक्ति से मिलना हो पाता है। लोग भूतों की, प्रेतात्माओं की भांति हो गए हैं। तुम अपने शरीर में नहीं हो; तुम अपने सिर के चारों ओर एक भूत की तरह मंडरा रहे हो, जैसे सिर के चारों ओर कोई गुब्बारा बंधा हुआ हो। एक छोटा सा धागा तुमको शरीर से जोड़े हुए है। यह धागा तुमको जीवित रखता है, कुल इतना है मामला, लेकिन यह जीवन आनंदपूर्ण नहीं है। तुमको चेतन होना पड़ेगा, तुमको ध्यान करना पड़ेगा, और तुमको सभी नियंत्रण छोड़ देने पड़ेंगे, तुम्हें सीखे को अनसीखा, किए हुए को अनकिया करना पड़ेगा और फिर पहली बार तुम पुन: प्रवाहमान हो जाओगे।

निःसंदेह, अनुशासन की आवश्यकता है, लेकिन नियंत्रण की भांति नहीं, बल्कि सजगता की भांति। नियंत्रित अनुशासन मुर्दा करने वाली घटना है। जब तुम सजग, बोधपूर्ण होते हो, तो उस सजगता से एक अनुशासन सरलता से आ जाता है—ऐसा नहीं है कि तुमने उसको थोप दिया है, ऐसा नहीं है कि तुमने इसकी योजना बनाई है। नहीं, पल—पल तुम्हारी सजगता यह निर्णय करती है कि किस भांति प्रतिसंवेदन किया जाए। और एक सजग व्यक्ति इस प्रकार से प्रतिसंवेदन करता है कि वह प्रसन्न बना रहता है, और वह दूसरों के लिए अप्रसन्नता निर्मित नहीं करता है।

यही सब कुछ तो धर्म है प्रसन्न बने रहो, और किसी व्यक्ति के लिए अप्रसन्न हो जाने के लिए कोई परिस्थिति मत निर्मित करो। यदि तुम सहामत निर्मित करो। यदि तुम सहायता कर सकी, तो दूसरों को प्रसन्न करो। यदि तुम ऐसा नहीं कर सकते, तो कम से कम अपने आप को प्रसन्न कर लो।


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