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मौन गहन हो है, प्रेम अंकुरित हो , अहोभाव की भी कुछ बूंदा—बांदी हो परंतु बुद्धि और अहंकार की धार भी


जीवन के प्रत्येक आयाम में विपरीत साथ—साथ ही बढ़ते हैं। जन्म के साथ चलती है मृत्यु। हर जन्मदिन, मृत्यु का भी नया चरण है। श्रम के साथ—साथ चलती है थकान, विश्राम की आकांक्षा। प्रेम के साथ—साथ छाया की तरह लगी रहती है घृणा।

विपरीत जुड़े हैं। जितना ऊंचा होगा पर्वत—शिखर, उतनी ही गहरी होगी खाई। पर्वत—शिखर और ऊंचा होने लगेगा, खाई और गहरी होने लगेगी। पर्वत—शिखर की ऊंचाई और खाई की गहराई, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

जितने—जितने तुम समझदार होने लगोगे, उतनी—उतनी तुम्हें अपने भीतर नासमझी दिखाई पड़ने लगेगी। ज्ञान के साथ—साथ अज्ञान का बोध होता है।

जैसे—जैसे तुम शांत होओगे, वैसे—वैसे तुम्हारे अशांत होने की क्षमता में भी बढ़ती होगी। क्योंकि जितने तुम शांत होओगे, उतने संवेदनशील हो जाओगे, उतने सेंसिटिव हो जाओगे। उस संवेदना में छोटी—सी घटना भी बडा गहरा तहलका मचा देगी।

जितने तुम स्वस्थ होओगे, उतनी तुम्हारी बीमार होने की क्षमता भी बढ़ेगी। मरा हुआ आदमी तो बीमार नहीं हो सकता। जीवित आदमी बीमार होता है। और तुमने एक अनूठी घटना देखी होगी कि अक्सर ऐसा होता है कि बहुत स्वस्थ आदमी एक ही बीमारी में मर जाता है। अस्वस्थ आदमी कई तरह की बीमारियां आती रहें, तो भी सह जाता है। जो कभी बीमार नहीं पड़ा, वह पहली ही बीमारी में विदा हो जाता है। जो सदा खाट से बंधा रहा, उन्हें कोई बीमारी ले जाती नहीं।

जितना स्वस्थ आदमी हो, उतने ही उसके अस्वस्थ होने की क्षमता भी होती है। जितने ऊंचे चढ़ोगे, उतने गिरने का डर भी लगेगा। चढोगे ही नहीं ऊंचे, तो गिरने के भय का कोई सवाल नहीं है।

योग— भ्रष्ट शब्द है हमारे पास, तुमने कभी भोग— भ्रष्ट सुना? भोग में भ्रष्ट होने का उपाय ही नहीं है। सिर्फ योगी भ्रष्ट हो सकता है।

जो ऊंचा जाता है, वह गिर सकता है। जो जमीन पर ही रेंगता है, वह गिरेगा भी तो गिरेगा कहां? इसलिए ये दोनों बातें साथ—साथ चलेंगी। और साधक को रोज—रोज ज्यादा सावधानी चाहिए पड़ेगी।

तुम ऐसा मत सोचना कि साधना तुम्हारी आगे बढ़ेगी, तो सावधानी की जरूरत न रहेगी। सावधानी की जरूरत बढेगी। सिद्ध तो प्रतिपल सावधान है।

लाओत्से कहता है, जिस पुरुष को ताओ उपलब्ध हो गया, वह ऐसे चलता है, सावधान, जैसे प्रतिपल शत्रुओं से घिरा है। वह एक—एक कदम ऐसे रखता है, सोचकर, विचारकर, जैसे कोई सर्दी के दिनों में बर्फीली नदी में उतरता हो।

सिद्ध की सावधानी परम, आखिरी हो जाती है। सावधानी के लिए उसे प्रयास नहीं करना पड़ता। लेकिन सावधानी तो गहन होती ही है।

तो तुम जितने ऊंचे उठोगे, उतने ही गिरने का डर है। और खाई बड़ी होने लगेगी, और भी ज्यादा सावधानी की जरूरत होगी।

इसमें कुछ आश्चर्य का कारण नहीं है, यह बिलकुल स्वाभाविक है। प्रेम अंकुरित होगा, तो घृणा भी साथ—साथ खड़ी है। अब थोड़े सावधान रहना। पहले तो जब प्रेम अंकुरित न हुआ था, तब तो तुम घृणा को ही प्रेम समझकर जीए थे। अब जब प्रेम अंकुरित हुआ है, तभी तुम्हें पहली दफे बोध भी आया है कि घृणा क्या है। और अब तुम गिरोगे, तो बहुत पीड़ा होगी।

अहोभाव की थोड़ी बूंदा—बांदी होगी, तो शिकायत भी बढ़ने लगेगी। क्योंकि जब परमात्मा से मिलने लगेगा, तो तुम और भी मांगने की आकांक्षा से भर जाओगे। आज मिलेगा, तो अहोभाव। कल नहीं मिलेगा, तो शिकायत शुरू हो जाएगी। अहोभाव के साथ—साथ शिकायत की खाई भी जुड़ी है। सावधान रहना। अहोभाव को बढ़ने देना और शिकायत से सावधान रहना। शिकायत तो बढ़ेगी, लेकिन तुम उस खाई में गिरना मत।

खाई के होने का मतलब यह नहीं है कि गिरना जरूरी है। शिखर ऊंचा होता जाता है, खाई गहरी होती जाती है, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम्हें खाई में गिरना ही पड़ेगा। सिर्फ सावधानी बढ़ानी पड़ेगी। भिखमंगा निश्चित सोता है। सम्राट नहीं सो सकता। भिखमंगे के पास कुछ चोरी जाने को नहीं है। सम्राट के पास बहुत कुछ है। सम्राट को सावधान होकर सोना पड़ेगा। थोड़ी सावधानी बरतनी पड़ेगी। तो ही बचा पाएगा जो संपदा है, अन्यथा खो जाएगी।

जैसे—जैसे तुम गहरे उतरोगे, वैसे—वैसे तुम्हारी संपदा बढ़ती है। उसके खोने का डर भी बढ़ता है; खोने की संभावना बढ़ती है।

उसके चोरी जाने का, लुट जाने का अवसर आएगा। जरूरी नहीं है कि तुम उसे लुट जाने दो। तुम उसे बचाना, तुम सावधान रहना। अड़चन इसलिए आती है कि तुम तो सोचते हो कि एक दफा ध्यान उपलब्ध हो गया, समाधि उपलब्ध हो गई, तो यह सावधानी, जागरूकता, ये सब झंझटें मिटी। फिर निश्चित चादर ओढ़कर सोएंगे।

इस भूल में मत पड़ना। निश्चित तो हो जाओगे, लेकिन असावधान होने की सुविधा कभी भी नहीं है। सावधान तो रहना ही पड़ेगा। सावधानी को स्वभाव बना लेना है। वह इतनी तुम्हारी जीवन—दशा हो जाए कि तुम्हें करना भी न पड़े, वह होती रहे। सावधान होना तुम्हारा स्वभाव—सहज प्रक्रिया हो जाए।

नहीं तो यह अड़चन आएगी। मुझे सुनोगे, समझ बढ़ेगी, समझ के साथ—साथ अहंकार भी बढेगा कि हम समझने लगे। उससे बचना। उस फंदे में मत पड़ना। पड़े, समझ कम हो जाएगी।

बड़ा सूक्ष्म खेल है, बारीक जगत है, नाजुक यात्रा है। स्वभावत:, जब समझ आती है, तो मन कहता है, समझ गए। तुमने कहा, समझ गए, कि गई समझ, गिरे खाई में। क्योंकि समझ गए, यह तो। अहंकार हो गया। अहंकार नासमझी का हिस्सा है। जान लिया, अकड़ आ गई; अकड़ तो अज्ञान का हिस्सा है। अगर अकड़ आ गई, तो जानना उसी वक्त खो गया। बस, तुम्हें खयाल रह गया जानने का। जानना खो गया।

ज्ञान तो निरअहंकार है। जहां अहंकार है, वहां शान खो जाता है। इसलिए प्रतिपल होश रखना पड़ेगा। जैसे कोई दो खाइयों के बीच खिंची हुई रस्सी पर चलता है कोई नट, ऐसे ही चलना है। प्रतिपल सम्हालना है। कदम—कदम सम्हालना है। एक दिन ऐसी घड़ी आएगी कि सम्हालना स्वभाव हो जाएगा। सम्हालना न पड़ेगा और सम्हले रहोगे। लेकिन अभी वह घड़ी नहीं है।

न तो आश्चर्य करने की जरूरत है, क्योंकि यह स्वाभाविक है, विपरीत साथ—साथ बढते हैं। और न चिंता में पड़ने की जरूरत है, क्योंकि यह स्वाभाविक है, विपरीत साथ—साथ चलते हैं। इस सत्य को समझकर, शिखर को तो बढने दो, अपने पैरों को सम्हालते जाओ; खाई में मत गिरो।

खाई का निमंत्रण भी बड़ा महत्वपूर्ण होता जाएगा। खाई का बुलावा भी बड़ा आकर्षक होने लगेगा। खाई खाई जैसी न लगेगी, स्वर्ग मालूम होने लगेगी। जितने ऊंचे जाओगे, उतनी ही खाई पुकारेगी कि आ जाओ, यहां विश्राम है। उससे सावधान रहना।

अगर गिर भी पड़ो, तो जितनी जल्दी हो सके, उठ आना और अपनी यात्रा पर निकल जाना।

गिरना भी होगा। जैसे छोटा बच्चा चलता है, उठता है, गिरता है, फिर उठता है, फिर गिरता है, फिर धीरे— धीरे गिरना बंद हो जाता है। अब तुम नहीं गिरते। कभी तुम भी छोटे बच्चे थे और गिरते थे। सिद्ध का अर्थ इतना ही है कि अब वह चलने में कुशल हो गया; अब गिरता नहीं। पर कभी वह भी गिरता था। अभी तुम भी गिर रहे हो, कभी वह घड़ी तुम्हारे जीवन में आ जाएगी, जब न गिरोगे। लेकिन अहंकार को बनने मत देना। चिंता को सघन मत होने देना। सावधानी को सदा ही बरकरार रखना। सावधानी को कभी छोड़ना है, यह बात ही विचार में मत लाना। वह जब छूटने को होगी, छूटेगी। वह तभी छूटेगी, जब स्वभाव बन जाएगी। उसके पहले सावधानी नहीं छूटती है।

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जो उसकी मर्जी, हम निमित्त—मात्र हो जाएं; जो भी जीवन में अभिनय मिला है, उसे हम पूरा करें। परंतु जो होता है, उसे होने देने से अर्थात शरीर, मन और अहंकार के साथ बहने से दुख उपजता है। तो क्या हम शरीर, मन और अहंकार के संबंध में भी निमित्त का सूत्र मानते रहें और दुख पाते रहें? निमित्त के सूत्र और दुख के सतत यथार्थ की पहेली को हम कैसे सुलझाएं?

तब तुम समझे ही नहीं निमित्त का अर्थ। निमित्त—मात्र हूं इस भाव—दशा की तुम्हें पकड़ न आई। तुम अपनी होशियारी लगा रहे हो। तुम सोच रहे हो, निमित्त हमें होना है, जहां—जहां सुख होगा, निमित्त हो जाएंगे, और जहां—जहां दुख होगा, वहां कर्ता हो जाएंगे। क्योंकि दुख तुम चाहते नहीं। निमित्त होने का अर्थ है, दुख देता है, तो तू देता है, तेरा दुख हमारा सौभाग्य है। कुछ तो दिया! सुख देता है, तो तू देता है। हमारा कोई चुनाव नहीं। हम दुख भी भोगेंगे, हम सुख भी भोगेंगे। तू जो देगा हमारे भिक्षा—पात्र में, हम अहोभाव से स्वीकार करेंगे। सुख में तो कोई भी निमित्त होना चाहता है, उसके लिए कोई सिद्ध होने की जरूरत पड़ेगी! सुख में तो सभी मानते हैं कि हम निमित्त हैं। जहां मजा ही मजा है, वहां कर्ता को लाने का सवाल ही क्या है! कर्ता तो वहां आना शुरू होता है, जहां दुख शुरू होता है। क्यों? क्योंकि दुख को तुम्हें हटाना है। दुख तुम्हें स्वीकार नहीं है। हटाना है, तो हटाने वाले को लाना पड़ेगा। सुख तो स्वीकार है, उसे हटाना नहीं है। तो कर्ता को लाने की कोई जरूरत नहीं है। जिस दिन तुम सुख और दुख को एक—सा ही स्वीकार कर लोगे, उसी दिन कर्ता विलीन हो जाएगा। न तो सुख को चाहो, न तो सुख की आसक्ति करो और न दुख का द्वेष। न दुख को छोड़ना चाहो, न सुख को पकड़ना चाहो, तो तुम्हारा कर्ता खो जाएगा। फिर जो हो। फिर तुम बीच में हो नहीं सोचने को।

प्रश्न से तो लगता है कि तुम बीच में खड़े हो, छांट रहे हो। क्या फिर हम दुख भोगते रहें?

तुम हो कौन, अगर निमित्त— भाव को समझ गए? यह कौन है जो कहता है, फिर हम दुख भोगते रहें?

यह कर्ता है, जो कह रहा है, दुख तो हम भोगना नहीं चाहते। असल में तुम निमित्त— भाव को भी इसीलिए स्वीकार कर रहे हो कि शायद इससे बहुत सुख मिले। तुम गलती में हो। निमित्त— भाव को स्वीकार करने से दुख भी मिलेंगे, सुख भी मिलेंगे, लेकिन धीरे— धीरे न तो दुख दुख रह जाएंगे, न सुख सुख रह जाएंगे। क्योंकि जो दुख को स्वीकार कर लेता है, उसके लिए दुख दुख कैसे रह जाएगा। दुख का अनिवार्य लक्षण है, उसके प्रति अस्वीकार का भाव। वह त्याज्य है। मन उसे गले नहीं लगाना चाहता। जिस दिन तुम गले लगा लोगे दुख को, दुख का तुमने स्वभाव बदल दिया। वह सुख जैसा हो गया।

सुख का स्वभाव है कि उसे तुम गले लगाना चाहते हो। लेकिन जब तुमने सुख को भी ऐसा ही स्वीकार किया, जैसा दुख को, कोई विशेष आदर न दिया, तो उसका गुणधर्म भी बदल गया।

ज्ञानी का सुख न तो सुख होता है, न दुख दुख होता है। धीरे— धीरे सुख—दुख का भेद ही खो जाता है। एक ऐसी घड़ी आती है कि सुख दुख का रूप मालूम होता है, दुख सुख का रूप मालूम होता है और तुम दोनों के पार होने लगते हो। वह दोनों के पार जो दशा है, वही साक्षी की है।

कर्ता से मुक्त होओगे, तो साक्षी बनोगे।

कृष्ण का सारा संदेश साक्षी का है। अर्जुन की सारी दुविधा यह है कि वह कर्ता होने से छूट नहीं पाता। वह कहता है, ऐसा हो जाएगा, तो वह ठीक न होगा। वह यह कह रहा है कि मैं अपने निर्णय को कायम रखूंगा; मैं निर्णायक रहूंगा। निमित्त— भाव का अर्थ है, परमात्मा निर्णायक है, मैं कौन हूं! मैं किसलिए बीच में आऊं! तो यह तो तुम पूछो ही मत कि क्या हम दुख पाते रहें? दुख से बचने की तुमने जन्मों—जन्मों कोशिश की है; दुख उससे मिटा? अब तक तो मिटा नहीं है, पाते ही रहे हो। सुख को पाने की भी तुमने जन्मों—जन्मों से कोशिश की है; सुख मिला? अब तक तो मिला नहीं है। सिर्फ आशा में कहीं इंद्रधनुष की भांति दिखाई पड़ता है।

अब बदलो जीवन की व्यवस्था को। अब तक कर्ता होकर देख लिया, न तो दुख मिटा, न सुख मिला। अब अकर्ता होकर भी देख लो। क्योंकि जो जानते हैं, वे कहते हैं कि अकर्ता होकर दुख भी मिट गया, सुख भी मिट गया। और फिर जिसका उदय होता है, उसे ही हमने सच्चिदानंद कहा है, उसे ही हमने परम आनंद कहा है।

वह परम आनंद सुख—दुख दोनों के पार है। वह न तो रात जैसा है, न दिन जैसा है। वह तो संध्याकाल है। सूरज जा चुका, रात अभी आई नहीं; रोशनी कायम है—बड़ी धीमी, मधुर, अनाक्रामक—वह संध्याकाल है। सुबह हुई, अभी सूरज आया नहीं, रात जा चुकी, ऐसा संध्याकाल है। उस संध्याकाल में जो ठहर गया, उसी को हम प्रार्थना करना कहते हैं। इसलिए हिंदू अपनी प्रार्थना को संध्या कहते हैं।

संध्या का अर्थ है, द्वंद्व के बीच में जो ठहर गया; दो के बीच में जिसने संधि खोज ली। सुख—दुख, प्रेम—घृणा, जीत—हार, रात—दिन, जीवन—मृत्यु, सब दो के बीच में जिसने संधि खोज ली, और जो संधि में खड़ा हो गया। उस संधिकाल को खोजो।

कृष्ण कहते हैं, सरल है खोज लेना। अगर तुम कर्ता न रह जाओ, तत्‍क्षण मिल जाएगा। तुम्हारे कर्ता होने से ही तुम चूकते चले जाते हो।

तो यह तो पूछो ही मत कि दुख उपजेगा, तो फिर हम क्या करेंगे। तुम तो रहे नहीं। जो होगा, होगा। क्या करोगे? तुम मर गए। तुम्हारी लाश पडी है। सुबह होगी, लाश क्या करेगी? दिन होगा, लाश क्या करेगी? रात आएगी, लाश क्या करेगी? घर खाली है, कोई है नहीं। सन्नाटा होगा, तो ठीक। गीत बजेगा, शोरगुल होगा, तो ठीक। घर खाली है, कोई है नहीं।

तुम खाली घर हो रहो। इसको बुद्ध ने शून्य होना कहा है, जिसको कृष्ण निमित्त मात्र होना कहते हैं, उसको ही बुद्ध ने शून्य होना कहा है। अगर ईश्वर पर तुम्हारी श्रद्धा हो, तो निमित्त मात्र हो जाओ; अगर ईश्वर पर श्रद्धा न हो, तो शून्य मात्र हो जाओ। बात दोनों एक ही हैं।

क्योंकि निमित्त मात्र होने के लिए तो ईश्वर की धारणा चाहिए। निमित्त मात्र का यह अर्थ है, करने वाला तू है। मैं सिर्फ उपकरण हूं। मगर अगर तुम्हारी श्रद्धा ईश्वर पर न हो, तो कुछ घबडाने की जरूरत नहीं है। तुम शून्य मात्र हो जाओ। तुम कहो, मैं हूं ही नहीं। बस, वही घट जाएगा।

जो भक्त को भगवान के माध्यम से घटता है, वही ध्यानी को शून्य के माध्यम से घटता है। ध्यानी के लिए शून्य भगवान है, भक्त के लिए भगवान ही शून्यता है। पर शून्य या निमित्त मात्र, एक ही अर्थ रखते हैं। कुल प्रयोजन इतना है कि मैं बीच में नहीं हूं।


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