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राग और विराग और वीतराग में क्या भेद है?


जो मैंने अभी बात कही, उसे अगर समझेंगे, तो राग का अर्थ है, किसी चीज में आसक्ति; विराग का अर्थ है, उस आसक्ति का विरोध। एक व्यक्ति धन इकट्ठा करता है, यह राग है। और एक आदमी धन को लात मारकर भाग जाता है, यह विराग है।

लेकिन दोनों की दृष्टि धन पर लगी है। जो इकट्ठा कर रहा है, वह भी धन का चिंतन करता है। जो छोड़कर जा रहा है, वह भी धन का चिंतन करता है। एक उसे इकट्ठा करके मजा ले रहा है कि मेरे पास इतना है। इतना है, इससे उसका दंभ परिपूरित हो रहा है। दूसरा इससे दंभ को परिपूरित कर रहा है कि मैंने इतने को छोड़ा है।

आप हैरान होंगे, जिनके पास धन है, वे भी आंकड़े रखते हैं कि कितना है। और जिन्होंने छोड़ा है, वे भी आंकड़े रखते हैं कि कितना छोड़ा है। साधुओं और संन्यासियों की फेहरिस्तें निकलती हैं कि उन्होंने कितने उपवास किए हैं! कितने-कितने प्रकार के उपवास किए हैं, सबका हिसाब-किताब रखते हैं। क्योंकि त्याग का भी हिसाब होता है, भोग का भी हिसाब होता है। राग भी हिसाब करता है, विराग भी हिसाब करता है। क्योंकि दोनों की नजर एक है, दोनों का बिंदु एक है, दोनों की पकड़ एक है।

वीतराग का अर्थ विराग नहीं है। वीतराग का अर्थ राग और विराग दोनों से मुक्त होना है। वीतराग का अर्थ है, चित्त की वह स्थिति कि न हम आसक्त हैं, न हम अनासक्त हैं। हमें कोई मतलब ही नहीं है। एक व्यक्ति के पास धन पड़ा हो, उसे कोई मतलब ही नहीं।

कबीर का एक लड़का था, कमाल। कबीर को अत्यंत विराग की आदत थी। कमाल की आदतें उन्हें पसंद नहीं थीं। कमाल को कोई भेंट कर जाता कुछ, तो कमाल रख लेता। कबीर ने उसे कई बार कहा कि 'किसी की भेंट स्वीकार मत करो। हमें धन की कोई जरूरत नहीं।' उसने कहा, 'अगर धन बेकार है, तो नहीं कहने की भी क्या जरूरत है? अगर धन बेकार है, तो हम उसको मांगने नहीं गए, क्योंकि बेकार है। फिर कोई यहां पटकने आ गया, तो हम उसे नहीं भी नहीं करते, क्योंकि बेकार है।'

कबीर को पसंद नहीं पड़ा। उन्होंने कहा कि 'तुम अलग रहो।' उनका विराग इससे खंडित होता था। कमाल अलग कर दिया गया। वह अलग झोपड़े में रहने लगा।

काशी के नरेश मिलने जाते थे। उन्होंने पूछा, 'कमाल दिखाई नहीं पड़ता!' कबीर ने कहा, 'उसके ढंग मुझे पसंद नहीं। आचरण शिथिल है। अलग किया है। अलग रहता है।' पूछा, 'क्या कारण है?' कहा, 'धन पर लोभ है। कोई कुछ देता है, तो ले लेता है।'

वह राजा गया। उसने एक बहुत बहुमूल्य हीरा जाकर उसके पैर में रखा और नमस्कार किया। कमाल ने कहा, 'लाए भी तो एक पत्थर लाए!' कमाल ने कहा, 'लाए भी तो एक पत्थर लाए!' राजा को हुआ कि कबीर तो कहते थे कि उसका मोह है। और वह तो कहता है कि लाए भी तो एक पत्थर लाए! तो वह उठाकर उसे रखने लगा। तो कमाल ने कहा, 'अगर पत्थर है, तो अब वापस ढोने का कष्ट मत करो।' कमाल ने कहा, 'अगर पत्थर है, तो वापस ढोने का कष्ट मत करो। नहीं तो अब भी तुम उसको हीरा समझ रहे हो।' राजा बोला, 'यह तो कुछ चालाकी की बात है।' फिर उसने कहा कि 'मैं इसे कहां रख दूं?' कमाल ने कहा, 'अगर पूछते हो कि कहां रख दूं, तो फिर पत्थर नहीं मानते। कहां रख दूं पूछते हो, तो फिर पत्थर नहीं मानते। डाल दो। रखने की क्या बात है!' फिर उसने झोपड़े में खोंस दिया सनोलियों में। वह चला गया। उसने सोचा कि यह तो बेईमानी की बात है। मैं मुड़ा और वह निकाल लिया जाएगा।

वह छः महीने बाद वापस पहुंचा। उसने जाकर कहा कि 'कुछ समय पहले मैं कुछ भेंट कर गया था।' कमाल ने कहा, 'बहुत लोग भेंट कर जाते हैं। और अगर उनकी भेंटों में मतलब होता, तो या तो हम उत्सुकता से उनको रखते या उत्सुकता से लौटाते।' उसने कहा, 'अगर उनकी भेंटों में कोई मतलब होता, तो या तो उत्सुकता से हम रखते या उत्सुकता से लौटाते। लेकिन भेंट बेमानी है, इसलिए कौन हिसाब रखता है! जरूर दे गए होगे। तुम कहते हो, तो जरूर दे गए होगे।' उसने कहा, 'वह भेंट ऐसी आसान नहीं थी; बहुत बहुमूल्य थी। कहां है वह पत्थर जो मैं दे गया था?' कमाल ने कहा, 'यह तो मुश्किल हो गयी। तुम कहां रख गए थे?'

उसने देखा झोपड़े में जाकर, जहां उसने खोंसा था, वह पत्थर वहीं रखा हुआ था। वह हैरान हुआ। उसकी आंख खुली।

यह आदमी अदभुत था। इसके लिए वह पत्थर ही था। इसको मैं वीतरागता कहूंगा। यह विराग नहीं है। यह विराग नहीं है, यह वीतरागता है।

राग है किसी को पकड़ने में रस। विराग है उसी को छोड़ने में रस। वीतरागता का मतलब है, उसका अर्थहीन हो जाना; उसका मीनिंगलेस हो जाना। वीतरागता ही लक्ष्य है। वीतरागता ही लक्ष्य है। जो उसे उपलब्ध होते हैं, वे परम आनंद को उपलब्ध होते हैं। क्योंकि बाहर से उनके सारे बंधन क्षीण हो जाते हैं।

एक और प्रश्न इस संबंध में है कि मैंने जो साधना की भूमिका कही है, शरीर-शुद्धि, विचार-शुद्धि और भाव-शुद्धि की, क्या उसके बिना ध्यान असंभव है?

नहीं, उसके बिना भी ध्यान संभव है, लेकिन बहुत कम लोगों को संभव है। उसके बिना भी ध्यान संभव है, लेकिन बहुत कम लोगों को संभव है। अगर ध्यान में परिपूर्ण संकल्प से प्रवेश हो, तो इनमें से किसी को भी शुद्ध किए बिना ध्यान में प्रवेश हो सकता है। और प्रवेश होते ही ये सब शुद्ध हो जाएंगे। लेकिन अगर यह संभव न हो, इतना संकल्प जुटाना आसान न हो--बहुत मुश्किल है इतना संकल्प जुटाना--तो फिर क्रमशः इनको शुद्ध करना पड़ेगा।

इनके शुद्ध होने से ध्यान नहीं मिलेगा, इनके शुद्ध होने से संकल्प की प्रगाढ़ता मिलेगी। इनके शुद्ध होने से इनकी अशुद्धि में जो शक्ति व्यय होती है, वह बचेगी और वह शक्ति संकल्प में परिणत होगी और ध्यान में प्रवेश होगा। ये सहयोगी हैं, अनिवार्य नहीं हैं।

तो जिनको भी संभव न मालूम पड़े कि ध्यान में सीधा प्रवेश हो सकता है, उनके लिए अनिवार्य हैं, अन्यथा उनका ध्यान में प्रवेश ही नहीं हो सकेगा। लेकिन अनिवार्य इसलिए नहीं हैं कि अगर किसी में बहुत प्रगाढ़ संकल्प हो, तो एक क्षण में भी बिना कुछ किए ध्यान में प्रवेश हो सकता है। एक क्षण में भी! अगर कोई अपने पूरे प्राणों को इकट्ठा पुकारे और कूद जाए, तो कोई वजह नहीं है कि उसे कोई रोकने को है। कोई रोकने को नहीं है, कोई अशुद्धि रोकने को नहीं है। लेकिन उतने पुरुषार्थ को पुकारना कम लोगों का सौभाग्य है। उतने साहस को जुटा लेना कम लोगों का सौभाग्य है। उतना साहस वे ही लोग जुटा सकते हैं, जैसे मैं एक कहानी कहूं।

एक आदमी था, उसने सोचा कि दुनिया का अंत जरूर कहीं होगा। तो वह खोजने निकला। वह दुनिया का अंत खोजने निकला। वह गया। वह चला। हजारों मील चलना पड़ा। और लोगों से पूछता रहा कि 'मुझे दुनिया का अंत खोजना है।'

आखिर में एक मंदिर आया और उस मंदिर के वहां लिखा था, 'हियर एंड्स दि वर्ल्ड।' वहां एक तख्ती लगी थी, उस पर लिखा था, 'यहां दुनिया समाप्त होती है।' वह बहुत घबरा गया। तख्ती आ गयी। थोड़ी ही दूर में दुनिया समाप्त होती है। नीचे तख्ती के लिखा था, 'आगे मत जाना।'

लेकिन उसे दुनिया का अंत देखना था, वह आगे गया। थोड़े ही फासले पर जाकर दुनिया समाप्त हो जाती थी। एक किनारा था और नीचे खड्ड था अनंत। उसने जरा ही आंख की, और उसके प्राण कंप गए। वह लौटकर भागा। वह पीछे लौटकर भी नहीं देख सकता। वहां अनंत खड्ड था। छोटे खड्ड घबरा देते हैं; अनंत! दुनिया का अंत था। खड्ड अंतिम था। और फिर उस खड्ड के नीचे कुछ भी नहीं था। उसने देखा और वह भागा।

वह घबराहट में मंदिर के अंदर चला गया और उसने पुजारी से कहा, 'यह अंत तो बड़ा खतरनाक है।' उस पुजारी ने कहा, 'अगर तुम कूद जाते, तो जहां दुनिया समाप्त होती है, वहीं परमात्मा मिल जाता है।' उसने कहा, 'अगर तुम कूद ही जाते उस खड्ड में, तो जहां दुनिया समाप्त होती है, वहीं परमात्मा मिल जाता है।'

लेकिन उतना साहस जुटाना कि अनंत खड्ड में कोई कूद जाए, जब तक न हो, तब तक ध्यान के लिए भूमिकाएं जरूरी हैं। और अनंत खड्ड में कूदने के लिए जो राजी है, उसके लिए कोई भूमिका नहीं है। कोई भूमिका होती है क्या? कोई भूमिका नहीं है। इसलिए इन भूमिकाओं को हम बहिरंग साधन कहे हैं। ये बाहर के साधन हैं, थोड़ी सहायता देंगे। साहस जिसमें हो, वह सीधा कूद जाए। न साहस हो, सीढ़ियों का उपयोग करे। यह स्मरण रखेंगे।

ये प्रश्न, इतने ही आज चर्चा हो सकेंगे। फिर कुछ शेष होंगे, उन पर कल हम विचार करेंगे।

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सामायिक आत्म-स्थिति है। लेकिन जिसे आप सामायिक या आत्म-स्थिति कह रहे हैं, क्या वह वीतरागता ही नहीं? और जब व्यक्ति आत्म-स्थिति में यानी चेतना-स्थिति में हो गया है, तो फिर वह जीवन-व्यवहार में आकर क्या आत्म-स्थिति को नहीं खो देगा?

नहीं; नहीं खो देगा। जैसे कि आप श्वास ले रहे हैं, तो चाहे जगें, चाहे सोएं, चाहे काम करें, चाहे न करें, श्वास चलती रहेगी, क्योंकि वह जीवन की स्थिति है। ऐसी ही चेतना की स्थिति है। और एक बार वह हमारे खयाल में आ जाए, तो फिर वह मिटती नहीं। यानी जीवन-व्यवहार में उसका ध्यान नहीं रखना पड़ता कि वह बनी रहे, वह बनी ही रहती है।

जैसे एक आदमी धनपति है और उसे पता है कि मेरे पास धन है, तो उसे चौबीस घंटे याद नहीं रखना पड़ता कि वह धनपति है। लेकिन वह धनपति होने की स्थिति उसकी बनी रहती है चौबीस घंटे। चाहे वह कुछ भी कर रहा हो—वह सड़क पर चल रहा है, काम कर रहा है, उठ रहा है, बैठ रहा है, इससे कोई मतलब नहीं। एक भिखारी है, वह कुछ भी कर रहा है। उसकी वह स्थिति भिखारी होने की बनी ही रहती है। हमारी स्थितियां हमारे साथ ही चलती हैं। होनी चाहिए बस यह है बड़ा सवाल।

तो एक पल के हजारवें हिस्से में भी अगर हमें अनुभव में आया है तो वह बना रहेगा, क्योंकि हमारे पास पल के हजारवें हिस्से से बड़ा कोई समय होता ही नहीं। उतना ही समय होता है हमेशा। जब भी होगा, उतना ही होगा। वह हमें दिखाई पड़ गया तो बना रहेगा। गीता में जिसे स्थितप्रज्ञ कह रहे हैं, वह वही बात है। उसमें कुछ फर्क नहीं। सामायिक और वीतराग में जो समानता दिखाई पड़ती है उसका मतलब कुल इतना है कि ‘सामायिक’ है मार्ग, ‘वीतरागता’ है उपलब्धि। इससे जाना है, वहां पहुंच जाना है। तो दोनों में मेल होगा ही।

पहली बात तो टंडन जी पूछते हैं, उसे थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। सामायिक के लिए मैंने जो कहा और वीतरागता के लिए जो कहा, वह बिलकुल समान प्रतीत होगा। क्योंकि सामायिक मार्ग है, वीतरागता मंजिल है। सामायिक द्वार है, वीतरागता उपलब्धि है। और साधन और साध्य अंततः अलग-अलग नहीं हैं, क्योंकि साधन ही विकसित होते-होते साध्य हो जाता है।

तो वीतरागता में परम अभिव्यक्ति होगी उसकी, जिसे सामायिक में धीरे-धीरे उपलब्ध किया जाता है। सामायिक में पूरी तरह थिर हो जाना वीतरागता में प्रवेश है।

वे यह भी पूछ रहे हैं कि स्थित-धी या स्थित-प्रज्ञ कृष्ण ने जिसे कहा है, क्या वह वही है, जो वीतराग है?

निश्चित ही, वह वही है। दोनों शब्द बड़े बहुमूल्य हैं। वीतराग का मतलब है, सब द्वंद्वों के पार जो चला गया, सब दो के पार जो चला गया, एक में ही जो पहुंच गया। अब ध्यान रहे, स्थित-धी या स्थित-प्रज्ञ का अर्थ है, जिसकी प्रज्ञा ठहर गई, जिसकी प्रज्ञा कंपती नहीं। प्रज्ञा उसकी कंपती है, जो द्वंद्व में जीता है। दो के बीच में जो जीता है, वह कंपता रहता है--कभी इधर, कभी उधर। जहां द्वंद्व है, वहां कंपन है। जैसे कि एक दीया जल रहा है, तो दीये की लौ कंपती है, क्योंकि हवा कभी पूरब झुका देती है, हवा कभी पश्चिम झुका देती है। तो दीया कंपता रहता है। दीये का कंपन तभी मिटेगा, जब हवा के झोंके न हों, यानी जब इस तरफ, उस तरफ जाने का उपाय न रह जाए, दीया वहीं रह जाए, जहां है।

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तो पीछे जिन्होंने शास्त्र लिखे, उन्होंने कहा, महावीर बड़े क्षमावान हैं, उन्होंने क्षमा कर दिया है, कोई मारता है तो उसको क्षमा कर देते हैं!

वे समझ नहीं पाए लोग। क्षमा सिर्फ वही करता है, जो क्रोधित हो जाता है। क्षमा जो है, वह क्रोध के बाद का हिस्सा है। महावीर को क्षमावान कहना महावीर को समझना ही नहीं है। महावीर को क्रोध ही नहीं उठ रहा है, क्षमा कौन करेगा? किसको करेगा? महावीर देख रहे हैं। वे ऐसा ही देख रहे हैं कि इस आदमी ने ऐसा-ऐसा किया, पहले मारा, फिर क्षमा मांगी। देख रहे हैं कि ऐसा-ऐसा हुआ। थिंग्स आर सच। और खड़े हैं चुपचाप। और सब देख रहे हैं, इसमें कोई चुनाव भी नहीं कर रहे हैं, वे च्वाइस भी नहीं कर रहे हैं कि ऐसा होना था और ऐसा नहीं होना था।

ऐसे निरंतर-निरंतर-निरंतर वे राग और विराग के बाहर हो गए हैं, चुनाव के बाहर हो गए हैं, अच्छे-बुरे के बाहर हो गए हैं, कौन क्या कहता है, इसके बाहर हो गए हैं।

यह वीतरागता परम उपलब्धि है, जो जीवन में संभव है। यानी जीवन की यात्रा में जो परम बिंदु है, वह वीतरागता का है। वह जीवन का अंतिम बिंदु है, क्योंकि उसके पार फिर मुक्ति की यात्रा शुरू हो गई। वीतराग हुए बिना कोई मुक्त नहीं है। रागी मुक्त नहीं हो सकता, विरागी मुक्त नहीं हो सकता। दोनों बंधे हैं।

लेकिन हम, जो समझते नहीं हैं, तो हम वीतराग का मतलब विरागी करते हैं कि जो राग से छूट गया।

नहीं, विराग राग ही है, सिर्फ उलटा राग है। जो राग मात्र से छूट गया।

राग शब्द बड़ा अच्छा है, समझने जैसा है। राग का मतलब होता है: कलर, रंग। कहते हैं न, राग-रंग! राग का मतलब होता है, रंग। विराग का मतलब होता है: उससे उलटा रंग। आंखें हमारी हमेशा रंगी हैं, कुछ रंग है आंख पर, कोई कलरिंगहै। उस रंग से ही हम देखते हैं। तो चीजें हमें वैसी दिखाई पड़ती हैं, जो हमारा रंग होता है। चीजें हमें वैसी दिखाई पड़ती हैं, जो हमारा रंग होता है आंख का। चीजें वैसी नहीं दिखाई पड़तीं, जैसी वे हैं। तो रंगी आंख कभी सत्य को नहीं देख सकती हैं।

अब एक रागी है, तो उसे राह से एक स्त्री जाती हुई दिखाई पड़ती है तो लगता है स्वर्ग है। स्त्री सिर्फ स्त्री है। रागी को लगता है स्वर्ग है। विरागी बैठा है वहीं एक दरख्त के नीचे, उसको लगता है नरक जा रहा, आंख बंद करो। स्त्री सिर्फ स्त्री है। विरागी को दिखता है नरक जा रहा है। इसलिए विरागी लिखता है अपनी किताबों में--स्त्री नरक का द्वार है। और रागी लिखता है कि स्त्री स्वर्ग है, वही मुक्ति है, वही आनंद है। स्त्रियां सोचेंगी, वे भी ऐसा ही लिखेंगी।

रागी स्त्री को स्वर्ग बना लेता है, एक रंग है उसकी आंख पर। विरागी स्त्री को नरक बना लेता है, एक रंग है उसकी आंख पर। वीतरागी खड़ा रह जाता है: स्त्री स्त्री है। वह अपने रास्ते जाती है, जाती है; मैं अपनी जगह खड़ा हूं, खड़ा हूं। न वह स्वर्ग है, न वह नरक है। वह उसके बाबत कोई निष्कर्ष नहीं लेता, क्योंकि उसकी आंख में कोई रंग नहीं है, रंग-मुक्त है। इसलिए जो जैसा है, वैसा उसे दिखाई पड़ता है। बात खत्म हो जाती है। वह कुछ भी प्रोजेक्ट नहीं करता। वह कुछ भी अपनी तरफ से नहीं ढालता। न वह कहता है सुंदर है किसी को, न वह कहता है असुंदर है। क्योंकि सुंदर और असुंदर हमारे रंग हैं, जो हम थोपते हैं। चीजें सिर्फ चीजें हैं। न तो कुछ सुंदर है, न कुछ असुंदर है। हमारा भाव है, जो हम उनमें ढाल देते हैं।

अब जैसे हम देखते हैं कि आज सुशिक्षित घर, सुरुचिपूर्ण घर में कैक्टस लगा हुआ है। कैक्टस!


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