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क्या अर्थ है सच्चिदानंदघन परमात्मा का ?क्या आत्म भाव में स्थित होना , गुणातीत हो जाना परम सिद्धि है?


क्या अर्थ है सच्चिदानंदघन परमात्मा का ?-

श्री कृष्ण ने भगवतगीता में कई जगह सच्चिदानंदघन परमात्मा शब्द को दोहराया है।वह जो भीतर छिपा है सारी इंद्रियों के बीच में, वह जो केंद्र है सारी इंद्रियों के बीच में; जो स्वयं कोई इंद्रिय नहीं है। वह जो भीतर चेतना का केंद्र है , जहां से सारा होश है, जिसके कारण इंद्रिया चारों तरफ देख रही हैं, पहचान रही हैं, उसकी तरफ इशारा कर रहे हैं ...श्रीकृष्ण।वह सच्चिदानंदघन परमात्मा चैतन्य है।यह शब्द समझना हैं कि आपके भीतर जो खाली जगह है,वह शून्य है ..जहां से आप सुनते हैं, देखते हैं ।

क्या अर्थ है सत का ?-

04 FACTS ;-

1-सच्चिदानंद, सत चित आनंद, तीन बड़े महत्वपूर्ण शब्दों से बना है।सत का अर्थ होता है,

जिसकी ही एकमात्र सत्ता है। वस्तुत: जो सत्य है, जिसका इग्ज़िस्टन्स है, वह सत है। बाकी आप जो चारों तरफ देख रहे हैं, वह कोई भी वास्तविक नहीं है। सब बहता हुआ प्रवाह है; स्वप्न की लंबी एक धारा है। कल्पना से ज्यादा उसका मूल्य नहीं है। और आप देख भी नहीं पाते कि वहां चीजें बदल जा रही हैं। वहां किसी चीज की सत्ता नहीं है। परिवर्तन ही वहां सब कुछ है। जिसकी वास्तविक सत्ता है, वह कभी रूपांतरित नहीं होगा।

2-भारतीय मनीषियों के अनुसार सत्य का एक लक्षण है, और वह यह कि 'जो कभी रूपांतरित न हो, जो सदा वही रहे, जो है'। जो कभी न बदले , जिसके स्वभाव में कोई परिवर्तन न हो, जिसके स्वभाव में अनंत स्थिरता हो, वही सत्य है। बाकी सब चीजें जो बदल जाती हैं, वे सत्य नहीं हैं। बदलने का मतलब ही यह है कि उनके भीतर कोई सब्‍स्‍टेंस, कोई सत्व नहीं है। ऊपर -ऊपर की चीजें हैं,और बदलती चली जाती हैं।

3-आपके भीतर एक ऐसा केंद्र है, जो सदा अपरिवर्तित खड़ा है। आप बच्चे थे, तब भी वह वैसा ही था। आप जवान हो गए, तब भी वह वैसा ही है। वह जवान नहीं हुआ, आपकी देह ही जवान हुई। यह जवानी गुणों का वर्तन है। कल आप 70 के हो जाएंगे, तब भी वह वैसा ही है । यह बुढ़ापा भी आपके शरीर के गुणों का वर्तन होगा।

4-एक दिन आप पैदा हुए, तब वह पैदा नहीं हुआ। और एक दिन आप मरेंगे, तब वह मरेगा नहीं। वह सदा वही है। वह जन्म के पहले भी ऐसा ही था, और मृत्यु के बाद भी ऐसा ही होगा। वह आधार है। उस पर सब चीजें आती और जाती हैं। लेकिन वह स्वयं निरंतर वैसा का वैसा बना है।उस मूल आधार को कहते हैं सत।

क्या अर्थ है चित का ?-

11 FACTS ;-

1-दूसरा शब्द है, चित। वह मूल आधार केवल है ही नहीं, बल्कि चेतन है, होश से भरा है। होश उसका लक्षण है। उसे कुछ भी उपाय करके बेहोश नहीं किया जा सकता। जब आप बेहोश हो जाते हैं, तब भी वह बेहोश नहीं होता। सिर्फ आपके गुण बेहोश हो जाते हैं।जब आपको मार्फिया दिया जा रहा है, या क्लोरोफार्म सुंघाया जा रहा है, तब भी, जो भी हो रहा है, वह शरीर में हो रहा है; शरीर के गुणधर्मों में हो रहा है;चित में नहीं। वह जो भीतर चित है, उसको बेहोश करने का कोई उपाय नहीं है।

2-तांत्रिकों में तो बड़ी पुरानी साधनाएं हैं, जिनमें जहर का, शराब का. सब तरह के नशे..का उपयोग किया जाता है। और उपयोग इसलिए किया जाता है, ताकि इस बात की परख आ जाए कि कैसे ही नशे का तत्व हो, कैसा ही मादक द्रव्य हो, वह केवल शरीर को छूता है, मुझे नहीं। और तब तक तांत्रिक नहीं मानता कि आप स्थितप्रज्ञ हुए, गुणातीत हुए, जब तक कि आपको सब तरह के जहर न दे दिए जाएं, और आप होश में न बने रहें। अगर आप होश खो दें, तो वह मानता है, अभी आप गुणातीत नहीं हुए। होश बना ही रहे... 'भीतर के होश की धारा न टूटे'।

3-आपके या किसी के भी भीतर ..होश की धारा नहीं टूटती।लेकिन आप भीतर की धारा से परिचित ही नहीं हैं। भीतर तो कोई जागा ही रहता है। वह उसका स्वभाव है। चितता,

कांशसनेस, उसका स्वभाव है।लेकिन आप अपने को 'शरीर' माने हुए हैं । इसलिए जब शरीर बेहोश होता है, तो आप समझते हैं,कि आप बेहोश हो गए। यह आपकी मान्यता है; इस मान्यता के कारण आप समझ लेते हैं कि बेहोश हो गए लेकिन आप बेहोश नहीं होते है।

उदाहरण के लिए , हिप्नोसिस का सारा खेल इतना ही है कि हिप्नोटाइजर जो आपसे कहे, आप उसको मान लें। अगर आप मान लें, तो वैसा ही होना शुरू हो जाएगा। मान्यता तथ्य बन जाती है।

4-अगर हिप्‍नोटिस्ट कहता है कि आपके हाथ में उसने एक अंगारा रख दिया है……। आप आंख बंद किए पड़े हैं और आपके हाथ में उठाकर एक रुपए का सिक्का रख देता है। कहता है, 'अंगारा रख दिया... जलता हुआ'। आप घबडाकर फेंक देंगे रुपया, क्योंकि आप मान लेते हैं कि अंगारा है। बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि आप न केवल फेंक देते हैं, बल्कि आपके हाथ में फफोला भी आ जाता है, जब कि वहा कोई अंगारा नहीं था। आपके हाथ ने बिलकुल वही व्यवहार किया, जो आपने मान लिया।

5-हिप्नोसिस पर बड़ा काम हो रहा है और उससे एक बात पता चलती है कि आदमी की चेतना मान लेने से ग्रसित हो जाती है। आपको सम्मोहित अवस्था में पानी पिलाया जाए और कहा जाए, शराब है तो आप बेहोश हो जाएंगे, नशा आ जाएगा।कुछ प्रयोग

ऐसे हुए हैं, जो कि बिलकुल अविश्वसनीय हैं। जिन पर कि आदमी के बस की बात ही समझ में नहीं आती।

6-इस चैतन्य की एक क्षमता है कि यह जो भी मान ले, वैसी घटना घटनी शुरू हो जाएगी। यह हमारी मान्यता है कि मैं शरीर हूं इसलिए हम शरीर हो गए हैं।मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि

जिन बच्चों को बचपन से कहा जाए, तुम मूढ़ हो, वे मूढ हो जाएंगे। न मालूम सैकड़ों बच्चों को हम अपने हाथ से मूढ़ बना देते हैं। लाखों बच्चे इसलिए मूढ़ रह जाते हैं कि घर में माता पिता उनको मूढ़ कह रहे हैं, स्कूल में शिक्षक उनको मूढ़ कह रहे हैं। उनको बार -बार यह सुझाव मिलता है, और उनको बात जंच जाती है। जब सभी कह रहे हैं, तो बात ठीक होगी ही। यह एक तरह का सम्मोहन है। फिर वे मूढ़ ही रह जाते हैं।

7-जिन बच्चों को बचपन से खयाल मिलता है कि वे बड़े प्रतिभाशाली हैं,टैलेंटेड हैं,

गुणवान हैं, उनमें वैसी वृत्ति पैदा होने लगती है। वे जो मानने लगते हैं, वैसे हो जाते हैं।

मान्यता आपका जीवन बन जाती है।आपको खयाल है कि रात आप सो जाते हैं, इसलिए आपको लगता है, आप सोए। सिर्फ शरीर सोता है, आप कभी नहीं सोते। यह सिर्फ आपकी धारणा है और बचपन से समझाया जा रहा है, इसलिए आप सो जाते हैं। आपको लगेगा कि सिर्फ धारणा ऐसे कैसे हो सकती है!

8-जितने सभ्य मुल्क हैं,सिर्फ वहां स्त्रियों को बच्चा पैदा करने में कष्ट होता है... असभ्य मुल्कों में नहीं होता। ठेठ आदिवासियों में तो बिलकुल नहीं होता।अमेजान में अभी तक आदिवासियों में जब भी स्त्री को बच्चा होगा, तो पति भी रोएगा; दोनों को प्रसव-पीड़ा होती है।हजारों साल से यह होता रहा और जब पहली दफा ईसाई मिशनरी अमेजान पहुंचे, तो

उनको विश्वास भी नहीं आया कि यह क्या पागलपन है। यह आदमी जरूर बन रहा होगा। क्योंकि हमें खयाल ही नहीं है कि जब स्त्री को बच्चा हो रहा है, इससे पति को प्रसव -पीड़ा का क्या संबंध है!

9-लेकिन जब जांच-पड़ताल की गई, तो वे बड़े चकित हुए कि वस्तुत: 'पति' को पीड़ा होती है। क्योंकि अमेजान में यह विश्वास है कि बच्चा पति और पत्नी दोनों का है।आधा -आधा दोनों का बच्चा है, इसलिए दोनों कष्ट पाएंगे ..जब प्रसव होगा। और जांच से पता चला है कि शरीर में वास्तविक पीड़ा होती है। जैसे स्त्री के शरीर में सारा खिंचाव और तनाव होता है, वैसे ही पुरुष के शरीर में खिंचाव -तनाव होता है।अब यह सिर्फ मान्यता की बात है क्योंकि

उनकी धारणा है, इसलिए होता है।

10-बर्मा में ऐसी जातियां हैं, जहाँ खेत में स्त्रियां काम करती रहेंगी और बच्चा हो जाएगा। कोई दूसरा भी नहीं है। दाई, और नर्स, और अस्पताल का तो कोई सवाल ही नहीं है। बच्चा हो जाएगा, उसको उठाकर वे टोकरी में रख देंगी और वापस काम पर लग जाएगी। सांझ को अपने बच्चे को लेकर घर आ जाएंगी। बर्मा के उन जंगलों में खयाल ही नहीं है कि स्त्री को पीड़ा होती है। इसलिए पीड़ा नहीं होती।

11-आप जो कुछ भोग रहे हैं, उसमें अधिक तो आपकी मान्यताएं हैं। यह जो भीतर छिपा हुआ परमात्मा है, इसका दूसरा लक्षण है चित। यह कभी बेहोश नहीं हुआ है, और कभी सोया नहीं है। वह उसका स्वभाव नहीं है। इसलिए अगर आप अपने को बेहोश मानते हैं, नींद में मानते हैं, सम्मोहित मानते हैं, तो वह आपकी मान्यता है। मान्यता के अनुसार काम जारी

रहेगा।धर्म की पूरी खोज इतनी ही है कि मान्यताएं सब टूट जाएं और जो सत्य है, वह प्रकट हो जाए। जैसा है वैसा प्रकट हो जाए, और जो हमने मान रखा है, वह हट जाए।

क्या अर्थ है ''आनंद'' का ?-

06 FACTS ;-

1-तीसरा तत्व है, आनंद...'' सत चित आनंद''। यह तीसरी बात भी ज्ञानियों की अनुभूत खोज है कि वह जो भीतर छिपा हुआ तत्व है, वह सत भी है, चित भी है, और वह परम आनंद भी है। सुख पाने की कोई जरूरत नहीं है उसको; वह स्वयं आनंद है। और अगर आप दुखी हो रहे हैं और सुख की तलाश कर रहे हैं, तो वह आपकी भाति है।मनुष्य का स्वभाव आनंद है।

इसलिए जिस दिन हम अपने स्वभाव से परिचित हो जाएंगे, सच्चिदानंद से मिलना हो जाएगा।

2-और इस सच्चिदानंद को ही परमात्मा कहा गया है। परमात्मा कहीं कोई बैठा हुआ व्यक्ति नहीं है, जो जगत को बना रहा है। परमात्मा आपके भीतर छिपा हुआ तत्व है, जो आपके भीतर खेल रहा है, आपके जीवन को फैला रहा है। और यह आपका ही' हाइड एंड सीक' है, लुका -छिपी है। जिस दिन आप सजग हो जाएंगे, जिस दिन आप बाहर की दौड़ से थक जाएंगे, ऊब जाएंगे,तब कहेंगे, बंद करो खेल।

3- उदाहरण के लिए,बच्चे नदी की रेत में घर बनाते हैं, लड़ते हैं, झगड़ते हैं। गौतम बुद्ध बहुत बार इस दृष्टात को लेते रहे हैं कि नदी के किनारे बच्चे घर बना रहे हैं। रेत के घर हैं, वे कभी भी गिर जाते हैं। कोई बच्चे की लात लग जाती है; कोई बच्चा जोर से खड़ा हो जाता है; वे मकान गिर जाते हैं... तो बड़ा झगड़ा हो जाता है। मार-पीट भी हो जाती है कि तूने मेरा मकान गिरा दिया.. मैंने इतनी मेहनत से बनाया था।4-फिर सांझ होने लगती है, सूरज ढलने लगता है। कोई नदी के किनारे से चिल्लाता है कि बच्चो, घर जाओ। तुम्हारी माताएं तुम्हें याद कर रही हैं। वे बच्चे, जिनके घर को जरा चोट लग गई थी, किनारा झड़ गया था, रेत बिखर गई थी, लड़ने को तैयार हो गए थे, वे अपने ही घरों पर कूदकर, घरों को मिटाकर असली घरों की तरफ भाग जाते हैं। सांझ होने लगी, सूरज ढलने लगा, माँ की आवाज आ गई। जिन घरों के लिए लड़े थे, मार -पीट की थी, उन घरों को खुद ही कूदकर मिटा देते हैं।बस, ऐसा ही है, बुद्ध कहते थे कि जो भी हम अपने चारों तरफ बना रहे हैं, रेत के घर हैं; हमारा खेल है।

5-आप रस ले रहे हैं, बना रहे हैं...कोई हर्ज भी नहीं है। आपकी तकलीफ यह है कि आप पूरा रस भी नहीं ले पाते। पूरा बना भी नहीं पाते। पूरा बना लें, तो मिटाने का भी मजा आ जाए। सांझ को जब मिटाएंगे, तो कुछ मिटाने को भी तो चाहिए। कुछ बना हुआ होगा, तो मिटा भी लेंगे। लेकिन कभी पूरा बना ही नहीं पाते और सांझ कभी आ नहीं पाती; दोपहर ही बनी रहती है। अधूरा ही अधूरा बना रहता है।संसार में पूरी तरह उतर जाएं;जो भी खेल खेलना है,

पूरी तरह खेल लें। खेल खेलते-खेलते ही यह होश आ जाएगा कि अब बहुत हो गया।

6-आपको भी कई दफा दिखाई पड़ता है कि अब बहुत हो गया ..यह मैं क्या कर रहा हूं! यह कब तक जारी रखूंगा! फिर आप अपने को भुला लेते हैं। खेल छोड़ने की बातें ठीक नहीं हैं। यह तो खेल मिटाने का मामला हो जाएगा। और जिंदगी एक व्यवस्था से चल रही है, उसे क्यों तोड़ना! फिर आप चलाने लगते हैं।ये जो झलकें आपको आती हैं, वे झलकें इसी बात की

हैं कि यह खेल वस्तुत: खेल है। और वास्तविक घर कहीं और छिपा है। जब यह बिलकुल ही व्यर्थ दिखाई पड़ने लगेगा, ऊब और दुख इसमें घने हो जाएंगे, तब आप अपने पीछे झांक

सकेंगे।वह जो पीछे छिपा है, श्रीकृष्ण बार-बार उसी को सच्चिदानंदघन परमात्मा कह रहे हैं। आपकी तरफ ही इशारा है। वह सबके भीतर छिपा है; सबका वही केंद्र है।

क्या आत्म भाव में स्थित होना , गुणातीत हो जाना परम सिद्धि है?-

27 FACTS ;-

1-श्री कृष्ण भगवतगीता में कहते है ''और जो निरंतर आत्म -भाव में स्थित हुआ, दुख -सुख को समान समझने वाला है; तथा मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला और धैर्यवान है; तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है और अपनी निंदा-स्तुति में भी समान भाव वाला है, तथा जो मान और अपमान में सम है एवं जो मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है, वह संपूर्ण आरंभों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है''

2-अब हम इस सूत्र एक-एक शब्द को समझें।जो निरंतर आत्म-भाव में स्थित हुआ……..।

जो निरंतर एक ही बात स्मरण रखता है कि 'मैं हूं अपने भीतर'। जो अपनी छवियों के साथ तादात्म्य नहीं जोड़ता; जो दर्पणों में दिखाई पड़ने वाले प्रतिबिंबों से अपने को नहीं जोड़ता; बल्कि जो सदा खयाल रखता है उस होश का, जो भीतर है। और जो सदा याद रखता है कि यह होश ही मैं हूं; मैं हूं यह चैतन्य, और इस चैतन्य को किसी और चीज से नहीं जोड़ता, ऐसी भाव-दशा का नाम आत्म-भाव है।

3-''मैं सिर्फ चेतना हूं। और यह चेतना किसी भी चीज को कितना ही प्रतिफलित करे, उससे मैं संबंध न जोडूगा। यह चेतना कितनी ही किसी चीज में दिखाई पड़े……।''

रात चांद निकलता है; झील में भी दिखाई पड़ता है। आप झील में देखकर अगर उसको चांद समझ लें, तो मुश्किल में पड़ेंगे। अगर चांद की तलाश में,पानी में डुबकी लगाने लगें तो भटक ही जाएंगे। और दुख तो निश्चित होने वाला है; क्योंकि थोड़ी ही हवा की लहर आएगी और चांद टुकडे-टुकड़े हो जाएगा।तो जहां भी हम जिंदगी को देखते हैं,वहा हर चीज टूट-फूट

जाती है। क्योंकि हम प्रतिबिंब में देख रहे हैं।

4-आत्म-भाव का अर्थ है कि हम चांद को आकाश में ही देखें, झील में ,कुओं में नहीं।जिस दिन आप आत्म-भाव में स्थित होंगे, उस दिन आपको भी ऐसा ही लगेगा कि जहां से हम अब तक अपने को खोज रहे थे, वहां तो हम थे भी नहीं। जहां से हम रस्सियां बांधकर, योजनाएं करके, साधनाएं साधकर और आत्मा को पाने की कोशिश कर रहे थे, वहां तो हम थे भी नहीं। चांद तो सदा आकाश में है। वह किसी झील में, कुएं में उलझा नहीं है। लेकिन झील में,कुओं में दिखाई पड़ता है।

5-आत्म-भाव का अर्थ है कि मेरी चेतना मेरे भीतर है। और किसी और वस्तु से बंधी नहीं है, कहीं भी छिपी नहीं है। मैं कहीं और नहीं हूं मुझमें ही हूं। इसलिए कहीं और की सब तलाश व्यर्थ है। और सब तलाश दुख में ले जाएगी; विफलता परिणाम होगा। क्योंकि वहां वह मिलने

वाली नहीं है।या अगर आप इसको सफलता कहते हों कि रस्सियां बांधकर, चांद को खींचकर आपने चांद को मुक्त कर लिया, तो ऐसी ही स्थिति बुद्ध को हुई होगी।जब उनको ज्ञान हो

गया, तो बुद्ध से कोई पूछता है,कि आपको क्या मिला?बुद्ध कहते हैं, मिला कुछ भी नहीं। इतना ही पता चला कि कभी खोया ही नहीं था। और जो मैंने जाना है, वह सदा से मेरे

भीतर था। सिर्फ मेरी नजरें बाहर भटक रही थीं, इसलिए उसे मैं पहचान नहीं पा रहा था। अगर तुम पूछते ही हो, तो मैंने जरूर कुछ खोया है, अज्ञान खोया है। लेकिन पाया कुछ भी नहीं है। क्योंकि ज्ञान तो सदा से ही था। वह मेरा स्वभाव है।

6-जो भी आत्म भाव में स्थित होगा, उसे दुख -सुख समान हो जाएंगे, समता उसकी छाया हो

जाएगी।हमें दुख और सुख इसलिए अलग-अलग मालूम पड़ते हैं कि जो हम पाना चाहते हैं, वह हमें सुख मालूम पड़ता है और जिससे हम बचना चाहते हैं, वह दुख मालूम पड़ता है। हालांकि हमारे सुख 'दुख' हो जाते हैं और दुख 'सुख' हो जाते हैं, फिर भी हमें बोध नहीं आता। जिस चीज को आप आज पाना चाहते हैं, सुख मालूम पड़ती है। और कल पा लेने के बाद छूटना चाहते हैं तो दुख मालूम पड़ती है।

7- सब सुख 'दुख' के प्रारंभ हैं। लेकिन दुख थोड़ी देर में पता चलेगा, पहले सब सुख मालूम होगा। जिसको हम पकड़ना चाहेंगे, उसमें सुख दिखाई पड़ेगा। और जिसको हम छोड़ना चाहेंगे, उसमें दुख दिखाई पड़ेगा।आत्म-भाव में स्थित व्यक्ति को न तो कुछ पकड़ने

की आकांक्षा रह जाती है, न कुछ छोड़ने की, इसलिए सुख-दुख समान हो जाते हैं। इसलिए सुख-दुख के बीच जो भेद है, वह कम हो जाता है, गिर जाता है। सुख और दुख में उसका कोई चुनाव नहीं रह जाता।

8-समान का अर्थ है, कोई चुनाव नहीं रह जाता। दुख आता है, तो स्वीकार कर लेता है। सुख आता है, तो स्वीकार कर लेता है। दुख आता है, तो पागल नहीं होता। सुख आता है, तो भी पागल नहीं होता। न उसे सुख उद्विग्न करता है, न दुख उद्विग्न करता है। जैसे सुबह आती है, सांझ आती है; ऐसे सुख आते-जाते रहते हैं, दुख आते-जाते रहते हैं। वह दूर खड़ा, अछूता, अस्पर्शित बना रहता है। आत्म भाव में स्थित हुआ, दुख-सुख को समान समझने वाला है। मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला है। धैर्यवान है, तथा जो प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है; और निंदा-स्तुति में भी समान भाव वाला है।

9-सभी द्वंद्व जिसके लिए समान हो गए हैं। चाहे प्रेम के, अप्रेम के; चाहे स्वर्ण के, मिट्टी के; चाहे मित्र के, शत्रु के; स्तुति के, निंदा के; जिसके लिए सभी भाव समान हो गए हैं। जो विपरीत को विपरीत की तरह नहीं देखता।जिसने पहचान लिया है कि सुख दुख का ही छोर है, और समझ लिया है कि स्तुति में ही निंदा छिपी है। आज स्तुति है, कल निंदा होगी। आज निंदा है, कल स्तुति हो जाएगी। मित्रता और शत्रुता के बीच जिसको फासला नहीं दिखाई पड़ता; जिसे दोनों एक ही चीज की डिग्रीज मालूम पड़ती हैं।यह उसी को होगा, जो आत्म

भाव में स्थित हुआ है। उसे यह द्वंद्व साफ दिखाई पड़ने लगेगा, द्वंद्व नहीं है। यह मेरे ही चुनाव के कारण द्वंद्व पैदा हुआ है।

10-गौतम बुद्ध ने कहा है, मैं कोई मित्र नहीं बनाता हूं क्योंकि मैं शत्रु नहीं बनाना चाहता हूं।

मित्र बनाएंगे, तो शत्रु बनना निश्चित है। आधा नहीं चुना जा सकता। और हम आधे को ही चुनने की कोशिश करते हैं। इससे हम कष्ट में पड़े हैं। अगर मित्र को चुनते हैं, तो शत्रु को स्वीकार कर लें। सुख को चुनते हैं, तो दुख को भी स्वीकार कर लें।पर यह स्वीकृति,

यह तथाता उसी को संभव है, जो अपने में स्थित हुआ हो, जो भीतर खड़े होकर देख सके ..दुख को, सुख को, दोनों कों ...निष्पक्ष भाव से। भीतर खड़ा हुआ व्यक्ति देख पाता है निष्पक्ष भाव से। भीतर खड़ा हुआ व्यक्ति तराजू की भांति हो जाता है, जिसके दोनों पलड़े एक सम स्थिति में आ गए; जिसका कांटा आत्म - भाव में स्थिर हो गया।

11-''तथा जो मान -अपमान में सम है। मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है। संपूर्ण आरंभों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है।''

वास्तव में, 'आत्म भाव' में स्थित होना कुंजी है। जो आत्म भाव में स्थित है, द्वंद्व में सम हो जाएगा। जो आत्म भाव में स्थित है, वह कर्तापन से मुक्त हो जाएगा। उसे ऐसा नहीं लगेगा कि मैं कुछ कर रहा हूं। भूख लगेगी, पर वह भूखा नहीं होगा।उदाहरण के लिए,बड़ी मीठी कथा है श्रीकृष्ण की।उनकी पत्नी ने,रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण से पूछा कि ''एक परम वैरागी

नदी के उस पार ठहरा है। वर्षा के दिन हैं, नदी उफान पर है और कोई भोजन नहीं पहुंचा पा रहा है। आप कुछ करें।'' तो श्रीकृष्ण ने कहा, ''तू ऐसा कर कि जा और नदी के किनारे नदी से यह प्रार्थना करना कि अगर वह वैरागी, जो उस पार ठहरा है, वह संन्यस्त वीतराग पुरुष सदा का उपवास हो, तो नदी मार्ग दे दे।''

12-रुक्मिणी को भरोसा तो न आया, लेकिन श्रीकृष्ण कहते हैं, तो कर लेने जैसी बात लगी। और शायद यह हो भी जाए, तो एक बड़ा चमत्कार हो।तो वह सखियों को लेकर बहुत से

मिष्ठान्न और भोजन लेकर नदी के पास गई। उसने नदी से प्रार्थना की। भरोसा तो नहीं था। लेकिन चमत्कार हुआ कि नदी ने रास्ता दे दिया। कहा इतना ही कि ''उस पार जो ठहरा संन्यस्त व्यक्ति है, अगर वह जीवनभर का उपवासा है, तो मार्ग दे दो।''नदी कट गई।

अविश्वास से भरी रुक्मिणी, आंखों पर भरोसा नहीं, अपनी सहेलियों को लेकर उस पार पहुंच गई। उस वीतराग पुरुष के लिए भोजन वह इतना लाई थी कि पचास लोग कर लेते। वह अकेला संन्यासी ही उतना भोजन कर गया।

13-भोजन के बाद यह खयाल आया कि हम श्रीकृष्ण से यह तो पूछना भूल ही गए कि लौटते वक्त क्या करेंगे। क्योंकि नदी अब फिर बह रही थी। और अब पुरानी कुंजी तो काम नहीं आएगी। क्योंकि यह आदमी आंख के सामने भोजन कर चुका और थोड़ा बहुत भोजन नहीं ..निश्चित ही, जीवनभर का उपवासा रहा होगा। पचास आदमियों का भोजन उसने कर लिया! और अब श्रीकृष्ण से पूछने का कोई उपाय नहीं। तो एक ही उपाय है, इस वीतराग पुरुष से ही पूछ लो कि कोई कुंजी है वापस जाने की!

14-तो उसने कहा कि तुम किस कुंजी से यहां तक आई हो? तो उन्होंने कहा कि श्रीकृष्ण ने ऐसा कहा था, लेकिन वह तो अब बात बेकार हो गई। उस संन्यासी ने कहा कि वह बात बेकार होने वाली नहीं है। कुंजी काम करेगी। तुम नदी से कहो कि अगर यह संन्यासी जीवनभर का उपवासा हो, तो मार्ग दे दे।पहले ही भरोसा नहीं आया था। अब तो भरोसे का कोई कारण

भी नहीं था। अब तो स्पष्ट अविश्वास था। लेकिन कोई दूसरा उपाय भी नहीं था। इसलिए नदी से प्रार्थना करनी पड़ी। और नदी ने मार्ग दिया।

15-करीब-करीब होश खोई हुई हालत में रुक्मिणी श्रीकृष्ण के पास पहुंची। और उसने कहा, यह हद हो गई। यह बिलकुल भरोसे की बात नहीं है। क्योंकि हमने अपनी आंख से देखा है.. संन्यासी को भोजन करते हुए। उसके जीवनभर के उपवासे होने का कोई सवाल नहीं रहा।

श्रीकृष्ण ने कहा कि वही तुम नहीं समझ पा रही हो। भूख शरीर को लगती है, ऐसा जो जान लेता है, फिर भोजन भी शरीर में ही जाता है। ऐसा जो जान लेता है, उसका उपवास कभी भी खंडित नहीं होता। जिसको भूख ही न लगी हो, उसको भोजन करने का सवाल नहीं है। हम भोजन करते हैं, करते मालूम पड़ते हैं। कर्तापन आता है, क्योंकि भूख हमें हमारी लगती है।

16-इस प्रयोग को थोड़ा करके देखें। कल से स्मरण रखें कि भूख लगे, तो वह शरीर की है। प्यास लगे, तो शरीर की है। पानी पीए, तो शरीर में जा रहा है। प्यास बुझ रही, तो शरीर की

बुझ रही है।भूख मिट रही, तो शरीर की मिट रही है। भोजन करते समय, भूख के समय, प्यास के समय, पानी पीते समय, स्मरण रखें।अगर इस स्मरण को आप थोड़े दिन भी

रख पाएं, तो आपको एक अनूठा अनुभव होगा। और वह अनुभव यह होगा कि आपको साफ दिखाई पड़ने लगेगा कि मैं सदा का उपवासा हूं। वहा कभी कोई भूख नहीं लगी। कोई भूख पहुंच नहीं सकती वहा। चेतना में भूख का कोई उपाय नहीं है।

17-अमेरिका में एक वैज्ञानिक बड़ी अनूठी खोज में लगा हुआ है और उस व्यक्ति का कहना यह है कि एक समय था मनुष्य जाति के इतिहास में जब कोई भोजन नहीं करता था।

जैन शास्त्रों में ऐसे समय का उल्लेख है। जैनों के जो पहले तीर्थंकर हैं आदिनाथ, उन्होंने ही भोजन और कृषि और अन्न की खोज की। उसके पहले कोई भोजन नहीं करता था। लोग भूखे

नहीं होते थे।यह बात कहानी की मालूम पड़ती है। लेकिन अमेरिका में खोज करने वाले के बड़े वैज्ञानिक आधार हैं और वह कहता है कि भोजन सिर्फ एक लंबी आदत है ,भोजन से शरीर को शक्ति नहीं मिलती।

18-भोजन से ज्यादा से ज्यादा शरीर में जो शक्ति पड़ी है, उसको गति मिलती है। ऐसे ही जैसे कि पनचक्की चलती थीं। तो पानी चक्की के पंखे पर से गिरता था, पंखा घूमता था। पंखा तो मौजूद है, सिर्फ गिरता हुआ पानी पंखे को घुमा देता था।इस वैज्ञानिक का

कहना है कि शरीर में शक्ति मौजूद है।भोजन का शरीर में जाना और शरीर के बाहर मल होकर निकलना, यह सिर्फ शरीर के भीतर जो पंखे बिना चले पड़े हैं, उनको चलाता है। इससे कोई शक्ति मिलती नहीं और आदमी बिना भोजन के रह सकता है।और ऐसी घटनाएं हैं,

जहां कुछ लोग बिना भोजन के रहे हैं ।चालीस -पचास साल तक भी उनका वजन नहीं गिरा। उनके शरीर में कोई रोग भी नहीं आया। बल्कि वे बहुत स्वस्थ लोग रहे हैं।

19-अभी बवेरिया में एक स्त्री है, थेरेसा न्यूमेन। उसने तीस साल से भोजन नहीं किया है। रत्तीभर वजन नीचे नहीं गिरा है। और तीस साल से वह कभी बीमार नहीं पड़ी।उसकी सारी अंतड़ियां सिकुड़ गई हैं। पेट ने सारा काम बंद कर दिया है। लेकिन उसका शरीर परिपूर्ण स्वस्थ है। और जितनी उसकी उम्र है, उससे कम उम्र मालूम होती है। क्या कारण होगा? इस बात की संभावना है कि हो सकता है भोजन मनुष्य जाति की सिर्फ एक गलत आदत हो और किसी दिन आदमी भोजन से मुक्त किया जा सके।

20-एक बात निश्चित है कि शरीर को भला जरूरत हो या आदत हो, लेकिन भीतर जो चेतना है, उसको न तो जरूरत है और न आदत है। वह भीतर की चेतना परम ऊर्जा से भरी है। उसकी ऊर्जा का स्रोत शाश्वत है। उसको ऊर्जा रोज -रोज ग्रहण नहीं करनी पड़ती।इसलिए हम

उसे सच्चिदानंदघन परमात्मा कह रहे हैं। उसकी ऊर्जा मूल स्रोत से जुड़ी है। वह स्रोत शाश्वत है। वह कभी समाप्त नहीं होता। इसलिए उसमें रोज ईंधन डालने की जरूरत भी नहीं है। चेतना के लिए भोजन की कोई भी जरूरत नहीं है। शरीर के लिए हो या न हो, यह बात विवाद की हो सकती है जो समय, भविष्य तय करेगा। लेकिन चेतना के लिए तो कोई भी जरूरत नहीं है। वह चेतना उपवासी है।

21-ऐसा भाव अगर बनने लगे, निर्मित होने लगे, तो आप में से कर्तापन धीरे -धीरे अपने आप गिर जाएगा। और जब भी आप किसी चीज का आरंभ करेंगे, किसी भी चीज की पहल करेंगे, तो आप जानेंगे यह शरीर के गुण इसकी पहल कर रहे हैं, मैं इसकी पहल नहीं कर रहा

हूं।शरीर को जितनी जरूरत होगी, आप दे देंगे। ज्यादा भी नहीं देंगे, कम भी नहीं देंगे। अभी हम दो ही काम करते हैं, या तो कम देते हैं या ज्यादा देते हैं। क्योंकि ठीक कितना देना, इसका हमें पता ही नहीं चल पाता। हम शरीर से इतने जुड़े हैं कि हम निष्पक्ष नहीं हो पाते।

22-हम से ज्यादा निष्पक्ष तो जानवर हैं।अगर कुत्ते को पेट में खराबी हो, तो वह भोजन नहीं करेगा, आप लाख उपाय करें। लेकिन आपको कितनी ही बीमारी हो, कितनी ही खराबी हो, आप भोजन करेंगे। शायद बीमारी में और ज्यादा कर लें, कि जरा ज्यादा ताकत की जरूरत है। कोई जानवर यह भूल नहीं करेगा। क्योंकि जानवर जानता है कि बीमारी में भोजन करने का मतलब है कि शरीर को और काम देना। शरीर पर बीमारी का काम है। उतना ही काम काफी है। उसको नया काम देना खतरनाक है।

23-शरीर को भोजन न दिया जाए, तो बीमारी जल्दी समाप्त हो जाती है। क्योंकि शरीर खुद बीमारी को निकालने में लग जाता है। शरीर की पूरी ताकत एक तरफ बहने लगती है, बीमारी खतम करने में। आप भोजन देकर ताकत पचाने में लगा देते हैं। तो भोजन बीमारी को

बढ़ाएगा, कम नहीं कर सकता।परन्तु कोई जानवर राजी नहीं होगा। साधारण सा कुत्ता, जिसको हम बहुत समझदार नहीं कहते, वह भी भोजन नहीं करेगा। भोजन तो करेगा ही नहीं, बल्कि घास -पात खाकर वमन कर देगा। जो पेट में पड़ा है, उसको भी निकाल देगा। ताकि खाली हो जाए; ताकि शरीर की पूरी ऊर्जा पचाने में नष्ट न हो, बीमारी से लड़ने में लग जाए।

24-शरीर के पास नैसर्गिक व्यवस्था है बीमारियों से लड़ने की। वह सब बीमारियों के पार उठ सकता है। और अगर आधुनिक आदमी नहीं उठ पाता, तो उसका कारण यह है कि वह शरीर की ऊर्जा को तो भोजन में ही लगाए रखता है।हम निष्पक्ष नहीं हो पाते, बीमारी में ज्यादा

खा लेते हैं।हमें कभी पता भी नहीं चलता कि कितना खाना है, कब खाना है, कब नहीं खाना है, उसका हमें कोई बोध नहीं रहा है।हमारी कोई नैसर्गिक प्रतीति नहीं रही है कि कितना खाना, कितना नहीं खाना; कब कुछ करना और कब नहीं करना, कहाँ रुक जाना...।

25-उस सबका सिर्फ इतना कारण है कि हम शरीर के साथ इतने ज्यादा जुड़ गए हैं कि दूर खड़े होने से, दूर से देखने पर जो निष्पक्षता होती है, वह नष्ट हो गई है।साक्षी भाव /

आत्म भाव उस निष्पक्षता को ले आएगा।आप दूर खड़े होकर देख सकेंगे।

और वास्तव में , बहुत सी समस्याएं सिर्फ इसलिए नहीं हल हो पातीं कि आप दूर नहीं हो

पाते।आपके पास कोई दूसरा आदमी आए और अपनी कोई समस्या कहे, तो आप जो सुझाव देते हैं, वह हमेशा सही होता है।क्योकि, वह दूसरे की समस्या है; आप दूर से खड़े होकर देखते हैं।जब वही समस्या आप पर आ जाए,तो फिर आपकी बुद्धि काम नहीं करती।

26-जो बुद्धि दूसरे को सलाह देने में काम कर रही है, वह खुद को सलाह देने में काम नहीं कर पाती। वैसे ही जैसे एक सर्जन अपनी पत्नी का आपरेशन करने को राजी नहीं होगा।क्योंकि वह जानता है, पत्नी से इतनी निकटता है,कि हाथ कंपेगा। वह निष्पक्ष नहीं हो पाएगा। तो सर्जन अपने मित्र को कहेगा कि तू आपरेशन कर। निष्पक्षता न हो, तो सब चीजें कंप जाती हैं। निष्पक्षता हो, तो हम अडिग बने रहते हैं; बोध साफ होता है; चीजें स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं; धुआं नहीं होता।

27-जितना आत्म भाव बढ़ेगा, जितना आप अपने को शरीर से अलग और चेतना के साथ एक मानेंगे, देखेंगे, समझेंगे, ठहरेंगे, उतना ही आप पाएंगे कि चीजें उतनी ही होती हैं, जितनी

जरूरी हैं।जरूरत पर रुक जाना, जरूरत से आगे इंच भर न जाना। तो फिर आपके लिए कोई बंधन नहीं है। क्योंकि तब शरीर के चलने योग्य शरीर को देते रहेंगे.. आप। शरीर अपनी गतिविधि पूरी कर लेगा और समाप्त हो जाएगा। जिस दिन शरीर की गतिविधि पूरी हो जाएगी, जैसे दीए का तेल चुक गया, वैसे ही दीया बुझ जाएगा। और इस शरीर के दीए के बुझते ही आपके जीवन में महासूर्य का उदय होगा। इस दीए पर आंखें बंधी हैं, इसलिए सूरज

को देखना मुश्किल है।श्रीकृष्ण कहते हैं, आत्म भाव में स्थित हुआ, संपूर्ण आरंभों में कर्तापन के अभिमान से रहित हुआ पुरुष गुणातीत कहा जाता है।ऐसा जो व्यक्ति है,ऐसी जो चेतना

है, वह गुणों के अतीत है और गुणातीत हो जाना परम सिद्धि है।

...SHIVOHAM....


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