अर्धनारीश्वर कैसे सिद्ध किया जा सकता है?क्या छठवें मार्ग को पार करना संभव है? PART-01
क्या है अन्नमयकोष की पारदर्शी दीवाल?-
06 FACTS;-
1-प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में इस जगत का पूरा इतिहास छिपा है।एक छोटे से बीज-कोष में इस अस्तित्व की सारी कथा छिपी है; वह आपका नहीं है, उसकी लंबी परंपरा है। वह बीज-कोष न मालूम कितने मनुष्यों से, न मालूम कितने पशुओं से, न मालूम कितने पौधों से, न मालूम कितने खनिजों से यात्रा करता हुआ आप तक आया है। वह आपकी पहली पर्त है; उस पर्त को ऋषि अन्नमयकोष कहते हैं। अन्नकोष इसलिए कहते हैं...कि उसके निर्माण की जो प्रक्रिया है वह भोजन से होती है।
2-प्रत्येक व्यक्ति का शरीर सात साल में बदल जाता है। सभी कुछ बदल जाता है--हड्डी, मांस, मज्जा; एक आदमी सत्तर साल जीता है तो दस बार उसके पूरे शरीर का रूपांतरण हो जाता है। रोज आप जो भोजन ले रहे हैं, वह आपके शरीर को बनाता है; और रोज आप अपने शरीर से मृत शरीर को बाहर फेंक रहे हैं। जब हम कहते हैं कि फलां व्यक्ति का देहावसान हो गया, तो हम अंतिम देहावसान को कहते हैं...जब उसकी आत्मा शरीर को छोड़ देती है।
3-वैसे व्यक्ति का देहावसान रोज हो रहा है, व्यक्ति का शरीर रोज मर रहा है; आपका शरीर मरे हुऐ हिस्से को रोज बाहर फेंक रहा है। नाखून आप काटते हैं, दर्द नहीं होता, क्योंकि नाखून आपके शरीर का मरा हुआ हिस्सा है। बाल आप काटते हैं, पीड़ा नहीं होती, क्योंकि बाल आपके शरीर के मरे हुए कोष हैं। अगर बाल आपके शरीर के जीवित हिस्से हैं तो काटने से पीड़ा होगी।
4-आपका शरीर रोज अपने से बाहर फेंक रहा है...एक मजे की बात है कि अक्सर कब्र में मुर्दे के बाल और नाखून बढ़ जाते हैं; क्योंकि नाखून और बाल का जिंदगी से कुछ लेना-देना नहीं, मुर्दे के भी बढ़ सकते हैं; वे मरे हुए हिस्से हैं...वे मरे हुए हिस्से हैं, वे अपनी प्रक्रिया जारी रख
सकते हैं।भोजन आपके शरीर को रोज नया शरीर दे रहा है, और आपके शरीर से मुर्दा शरीर रोज बाहर फेंका जा रहा है। यह सतत प्रक्रिया है। इसलिए शरीर को अन्नमयकोश कहा है, और इसलिए बहुत कुछ निर्भर करेगा कि आप कैसा भोजन ले रहे हैं।
5-आपका आहार सिर्फ जीवन चलाऊ नहीं है, वह आपके व्यक्तित्व की पहली पर्त निर्मित करता है। और उस पर्त के ऊपर बहुत कुछ निर्भर करेगा कि आप भीतर यात्रा कर सकते हैं या नहीं कर सकते हैं; क्योंकि सभी भोजन एक जैसा नहीं है।कुछ भोजन हैं जो आपको भीतर
प्रवेश करने ही न देंगे, जो आपको बाहर ही दौड़ाते रहेंगे; कुछ भोजन हैं जो आपके भीतर चैतन्य को जन्मने ही न देंगे, क्योंकि वे आपको बेहोश ही करते रहेंगे; कुछ भोजन हैं जो आपको कभी शांत न होने देंगे, क्योंकि उस भोजन की प्रक्रिया में ही आपके शरीर में एक रेस्टलेसनेस, एक बेचैनी पैदा हो जाती है। रुग्ण भोजन हैं, स्वस्थ भोजन हैं, शुद्ध भोजन हैं, अशुद्ध भोजन हैं।
6-शुद्ध भोजन उसे कहा गया है, जिससे आपका शरीर अंतर की यात्रा में बाधा न दे-बस; और कोई अर्थ नहीं है। शुद्ध भोजन से सिर्फ इतना ही अर्थ है कि आपका शरीर आपकी अंतर्यात्रा में
बाधा न बने।एक आदमी अपने घर की दीवालें ठोस पत्थर से बना सकता है और कोई कांच से भी बना सकता है; लेकिन कांच पारदर्शी है, बाहर खड़े होकर भी भीतर का दिखाई पड़ता है। ठोस पत्थर की भी दीवाल बन जाती है, तब बाहर खड़े होकर भीतर का दिखाई नहीं पड़ता है।
शरीर भी कांच जैसा पारदर्शी हो सकता है। उस भोजन का नाम शुद्ध भोजन है जो शरीर को पारदर्शी, ट्रान्सपैरेंट बना दे...कि आप बाहर भी चलते रहें तो भी भीतर की झलक आती रहे। शरीर को आप ऐसी दीवाल भी बना सकते हैं कि भीतर जाने का ख़याल ही भूल जाये, भीतर की झलक ही मिलनी बंद हो जाये।
क्या अर्धनारीश्वर पांचवां केंद्र है?-
27 FACTS;-
1-अर्धनारीश्वर की प्रतिमा में भोलेनाथ आधे स्त्री हैं और आधे पुरुष ।जब तक तुम्हारे भीतर भी आधे पुरुष और आधी स्त्री की अर्धनारीश्वर प्रतिमा निर्मित न हो जाए, जब तक तुम अपने भीतर ही पूरे न हो जाओ, तब तक तुम्हारी तलाश बाहर जारी रहेगी। तुम चाहोगे, पुरुष/स्त्री से मिल कर शायद पूर्णता हो जाए क्योकि कुछ खोया-खोया अपूर्ण लगता है।पुरुष/ स्त्री.. तुम्हारे भीतर ही.. तुम्हारे अचेतन में पड़े/ पड़ी है।
2-इसलिए समस्त योग, तंत्र, मौलिक रूप से तुम्हारे भीतर की शक्तियों को मिलाने की प्रक्रिया है। जब तुम भीतर जुड़ कर एक हो जाते हो, तब तुम्हारे भीतर- बाहर की आकांक्षा समाप्त हो जाती है। लेकिन बाहर की आकांक्षा समाप्त हो, तो ही तुम अपने भीतर मिल कर एक हो सकते हो। ये दोनों बातें एक-दूसरे पर निर्भर हैं, अन्योन्याश्रित हैं।
3-जब कोई सातवें मार्ग को पार कर लेता है, तब समस्त प्रकृति आनंद-पूर्ण आश्चर्य से भर जाती है और पराजित अनुभव करती है। समाधि का
पांचवां द्वार है.... वीर्य/रजकण।पांचवां केंद्र आज्ञाचक्र/तृतीय नेत्र है।
वीर्य के संबंध में पहली बात तो यह जान लेनी चाहिए कि वीर्य के दो अंग हैं। एक वीर्य की देह और एक वीर्य की आत्मा--ऊर्जा। समस्त योग की
प्रक्रियाओं में, तंत्र की साधनाओं में, पृथ्वी पर अनेक-अनेक रूपों में पैदा हुए धर्म की व्यवस्थाओं में, वीर्य का ऊर्ध्वगमन, वीर्य का ऊपर की तरफ उठना, काम-केंद्र से सहस्रार तक पहुंचना, इसे अनिवार्य कहा है।
4-इससे बड़ी उलझन पैदा होती है। वैज्ञानिक बुद्धि बहुत अड़चन में पड़ जाती है। जो शरीर-शास्त्र को समझते हैं, वे इस बात पर भरोसा नहीं कर
पाते हैं।क्योंकि यह बात असंभव है।काम-केंद्र पर जो वीर्य इकट्ठा है, उसके सहस्रार तक जाने का न तो कोई मार्ग है, न कोई उपाय है। देह में ऐसा कोई मार्ग नहीं है, जिससे वीर्य उठ सके ऊपर।देह-शास्त्र की दृष्टि से; वीर्य का तो पतन ही हो सकता है ... उत्थान नहीं हो सकता, क्योंकि नीचे जाने का ही मार्ग है, ऊपर जाने का कोई मार्ग नहीं है। शरीर-शास्त्र की दृष्टि से, आधुनिक सब खोजों की दृष्टि से, तंत्र, योग, धर्म की सब धारणाएं गलत हो जाती हैं।
5-जब मार्ग ही नहीं है, तो वीर्य का उत्थान नहीं हो सकता, ऊर्ध्वगमन नहीं हो सकता। और जो उस चेष्टा में लगे हैं, वे व्यर्थ के काम में लगे हैं। जो आधुनिक शरीर-शास्त्र को पढ़ लेते हैं, उनकी आस्था तंत्र और योग से तत्क्षण उठ जाती है। क्योंकि शरीर में कोई व्यवस्था ही नहीं है नाड़ियों की, कि वीर्य ऊपर जा सके।
6-जहां तक विज्ञान जानता है, वहां तक यह बात बिलकुल ही उचित है कि ऐसा नहीं हो सकता है। लेकिन कुछ और बात है, जो विज्ञान से चूक जाती है।विज्ञान शरीर तो को स्वीकार करता है, आपकी आत्मा को नहीं। और आपके भीतर जो जीवन है, वह शरीर से प्रकट तो होता है, लेकिन शरीर ही नहीं है। और जैसा यह शरीर के संबंध में सच है, ऐसा एक-एक वीर्य कोष्ठ के संबंध में भी सच है।
7-एक वीर्य-कण दो चीजों से बना है। तभी तो आपका पूरा शरीर भी दो चीजों से बन पाता है--एक तो वीर्य-कण की देह--दिखाई पड़ने वाली और एक वीर्य-कण की आत्मा है, ऊर्जा है--न दिखाई पड़ने वाली।एक समागम में लाखों वीर्य-कण छूटते हैं और उनमें से एक पहुंच पाता है। बीच में भयंकर संघर्ष है, बड़ी प्रतियोगिता है ..लाखों नष्ट हो जाते हैं।।वीर्य-कण
बहुत छोटे हैं, आंख से दिखाई पड़ने वाले नहीं हैं और दो घंटे का उनका जीवन है।
8-अगर दो घंटे तक वे स्त्री अंडे तक नहीं पहुंच जाते हैं, तो मृत हो जाते हैं। इसलिए बड़ी तेजी से भागते हैं।पर बहुत छोटे हैं, कितनी ही तेजी से भागें, यात्रा-पथ उनके लिए काफी लंबा है,और समय बहुत छोटा है। प्रतियोगिता वहीं से शुरू हो जाती है। वह जो प्रतियोगिता हम पूरे संसार में देखते हैं,
वह उसका ही फैलाव है।इसका मतलब यह हुआ कि वीर्य-कण जीवित भी होते हैं और मुर्दा भी होते हैं। तो जीवित वीर्य-कण में और मुर्दा वीर्य-कण में क्या फर्क है? कुछ फर्क होना चाहिए.. जो किसी कण को जीवित बनाए है, और फिर किसी क्षण में मुर्दा बना देता है। तंत्र की, योग की दृष्टि से वही फर्क है।
9-वीर्य के दो अंग हैं। जब तक वीर्य जीवित है, तब तक उसमें दो चीजें हैं--उसकी देह भी है, और उसकी ऊर्जा, आत्मा भी है। दो घंटे में ऊर्जा मुक्त हो जाएगी, वीर्य कण मुर्दा पड़ा रह जाएगा। अगर इस ऊर्जा-कण के रहते ही स्त्री-कण से मिलन हो गया, तो ही जीवन का जन्म होगा। अगर इस ऊर्जा के हट जाने पर मिलन हुआ, तो जीवन का जन्म नहीं होगा। इसलिए वीर्य-कण तो केवल देह है, वाहन है। वह जो ऊर्जा है, जो उसे जीवित बनाती है, वही असली वीर्य है।
10-वीर्य-कण की देह तो उत्थान को उपलब्ध नहीं हो सकती, उसका तो पतन ही होगा। क्योंकि वह पृथ्वी का हिस्सा है, पदार्थ है। पदार्थ का कोई उत्थान नहीं है। पदार्थ नीचे ही गिरेगा। वह जो देह है वीर्य-कण की, तो नीचे जमीन खींच ही रही है उसे, लेकिन उस छोटे से न दिखाई पड़ने वाले वीर्य-कण में जो जीवन की ऊर्जा है, वह ऊपर की तरफ भाग रही है। उसके लिए मार्ग की कोई जरूरत नहीं है। वह अदृश्य है।
11-अगर यही जीवन-ऊर्जा स्त्री-कण से मिल जाएगी, तो एक व्यक्ति का जन्म हो जाएगा। अगर यही ऊर्जा योग और तंत्र की प्रणाली से मुक्त कर ली जाए वीर्य-कण से, तो आपके सहस्रार तक पहुंच सकती है। और जब सहस्रार तक पहुंचती है यह वीर्य-ऊर्जा, तो आपके लिए नए लोक का जन्म होता है। आप भी नए हो जाते हैं। आप का पुनर्जन्म हो जाता है।
12-इस वीर्य-ऊर्जा के जाने के लिए कोई स्थूल, भौतिक मार्ग आवश्यक नहीं है। यह बिना भौतिक मार्ग के यात्रा कर लेती है। इसलिए जिन चक्रों की हम बात करते हैं, जिन सप्त चक्रों की, वे शरीर में नहीं हैं। वे सात चक्र दृश्य नहीं हैं। इसलिए किसी परीक्षण, किसी वैज्ञानिक विश्लेषण में उनको नहीं पाया जा सकेगा। वे चक्र अदृश्य मालूम पड़ते हैं। और उन चक्रों से ही यह ऊर्जा ऊपर की तरफ उठती है। इस ऊर्जा का नाम "वीर्य' है। आप जिसे सामान्यतः वीर्य कहते हैं, वह केवल पदार्थ है, वाहन है।
13-उदाहरण के लिए एक बीज है। एक बीज को आप तोड़ें तो उसके भीतर किसी पौधे का कोई अस्तित्व नहीं है। कितनी ही जांच-परख करें ,बीज को तोड़कर, उसके भीतर कोई वृक्ष छिपा है, इसके खोजने का कोई भी उपाय नहीं है। लेकिन वृक्ष जरूर छिपा है; क्योंकि बीज को जमीन में गाड़ दें--और अंकुरित हो जाता है, और वृक्ष निकलना शुरू हो जाता है। बीज में वृक्ष था, लेकिन अदृश्य था, दिखाई नहीं पड़ता था।जो बीज दिखाई पड़ता था,
वह देह थी। वृक्ष होने की जो क्षमता है, ऊर्जा है, शक्ति है, वह अदृश्य है।
शक्ति सदा अदृश्य है, केवल देह दिखाई पड़ती है।
14-फिर पौधा पैदा हुआ, तब भी जो आपको दिखाई पड़ता है, वह भी देह है। क्योंकि वे जो आपको दिखाई पड़ रहे हैं--हरे पत्ते, शाखाएं, वह पौधा नहीं है । हरे पत्तों और शाखाओं के भीतर से जो आकाश की तरफ उठ रहा है, वह प्राण है। जो जमीन से दूर हट रहा है, जो ऊपर की तरफ जा रहा है, वह आपको दिखाई नहीं पड़ रहा है। आपको दिखाई पड़ रहा है केवल वाहन। वह जो भीतर यात्रा कर रहा है प्राण, वह आपको दिखाई नहीं पड़ रहा है। आप वृक्ष को काट भी डालें, तो भी उसका पता नहीं चलेगा। लेकिन आप वृक्ष को बढ़ते हुए देख कर कहते हैं, जीवित है! एक वृक्ष सूख जाता है और बढ़ना बंद हो जाता है, आप कहते हैं, मुर्दा हो गया!
15-जीवन का लक्षण क्या है..जीवन का लक्षण है ग्रोथ, जीवन का लक्षण है बढ़ाव, जीवन का लक्षण है फैलाव। इसलिए हमने जीवन को ब्रह्म कहा है। ब्रह्म का अर्थ है, जो फैलता जाता है; बड़ा होता जाता है, बड़ा होता जाता है, अनंत तक बड़ा होता जाता है। जो दिखाई पड़ता है, वह उसकी देह है। जो नहीं दिखाई पड़ता है, वही सहारा है।
16-एक वृक्ष जब सूख गया हो, तो क्या सूख गया उसमें? शाखाएं वही हैं, सब कुछ वही है, जड़ें वही हैं, लेकिन कोई पक्षी प्राण का उड़ गया है। अब
बढ़ती नहीं होती। अब चीजें फैलती नहीं हैं।वृक्ष ही बढ़ता है ऐसा नहीं, पहाड़ भी बढ़ते हैं। हमारा हिमालय अभी भी बढ़ रहा है, अभी भी जवान है। कुछ पहाड़ बूढ़े हो गए हैं, जैसे सतपुड़ा है, विंध्या है, ये बूढ़े हो गए हैं। अब वे नहीं बढ़ रहे हैं। कुछ पहाड़ मर गए हैं, जिनकी सिर्फ देह रह गई है।
17-हिमालय अब भी ऊपर उठ रहा है, अब भी बढ़ रहा है, अभी जीवित है।
हिमालय के प्रति इस मुल्क का इतने आदर का भाव ..उसकी ऊंचाई के कारण नहीं है, उसके जीवन के कारण है। अगर हमने हिमालय को महादेव का, शिव का निवास बनाया है, तो सिर्फ इसलिए कि इस पृथ्वी पर वह जीवन की बढ़ती का / विराट का प्रतीक है ;और बढ़ता ही चला जाता है। लेकिन जो दिखाई पड़ते हैं, वे तो पत्थर हैं। लेकिन उन पत्थरों के भीतर जरूर कोई ऊर्जा छिपी है, जो उठ रही है, आकाश की ओर बढ़ रही है।
18-यह समस्त जीवन के संबंध में सच है। और जो बीज के संबंध में है.. वही वीर्य के संबंध में है। क्योंकि वीर्य बीज है, जैसे पौधों का बीज है, ऐसे आदमी का बीज है। उस बीज को तोड़कर भीतर की ऊर्जा का पता नहीं चलता। क्योंकि तोड़ते ही वह ऊर्जा आकाश में लीन हो जाती है। उस ऊर्जा का दो तरह से पता चल सकता है।
19-एक ढंग है कि वीर्य का कण, रज के कण से-- मिले, तो जीवन प्रगट हो जाएगा, एक बच्चा जन्म लेगा। क्योंकि पुरुष का कण और स्त्री का कण दोनों अधूरे हैं, आधे-आधे हैं। और एक से जीवन का जन्म नहीं हो सकता। जीवन के लिए पूर्णता चाहिए। जैसे ही स्त्री और पुरुष का कण मिलता है, एक पूर्ण बन गया, एक छोटी इकाई पैदा हो गई--जो अब आधी नहीं है,और बढ़ सकती है। एक उपाय तो है वीर्य-कण के भीतर छिपे जीवन को मुक्त करने का, कि उसे विपरीत रजकण से मिला दें।
20-एक और भी उपाय है, इस वीर्य-कण को प्रगट करने का। तब दो देहें--वीर्यकण की और रजकण की--दो देहें नहीं मिलतीं, बल्कि वीर्यकण की और रजकण की ऊर्जा मिल जाती है--सिर्फ ऊर्जा।आधुनिक मनोविज्ञान
अब स्वीकार करता है कि कोई पुरुष, न तो केवल पुरुष है, और न कोई स्त्री, केवल स्त्री है। दोनों के भीतर दोनों हैं। होना भी चाहिए, क्योंकि आपका जन्म होता है स्त्री, पुरुष से मिलकर। इसलिए न तो आप पूरे-पूरे पुरुष हो सकते हैं और न हीं पूरे-पूरे स्त्री । आप आधे-आधे ही होंगे। आपकी जो पहली इकाई निर्मित होती है, उसमें आधी स्त्री है और आधा पुरुष है।
फिर चाहे अब आप स्त्री हों और चाहे पुरुष, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। 21-आपकी जो मिलावट है, आपकी जो बुनियादी आधार-शिला है, उसमें आधा स्त्री का दान है, आधा पुरुष का। और यह दान कभी नष्ट नहीं हो सकता, आप कुछ भी बन जाएं, आपमें आधी स्त्री होगी और आधा पुरुष होगा। आपके भीतर दो ऊर्जाएं मिली हैं, दो शरीर मिले हैं। और इन दोनों शरीरों का जोड़ है, और दो ऊर्जाओं का जोड़ है, जिससे आप एक व्यक्ति बने।
22-आपका वीर्य-कण दो तरह की आकांक्षाएं रखता है। एक आकांक्षा तो रखता है बाहर की स्त्री से मिलकर, फिर एक नए जीवन की पूर्णता पैदा करने की। एक और गहन आकांक्षा है, जिसको हम अध्यात्म कहते हैं, वह आकांक्षा है, स्वयं के भीतर की छिपी स्त्री या स्वयं के भीतर छिपे पुरुष से मिलने की। अगर बाहर की स्त्री से मिलना होता है, तो समागम घटित होता है। वह भी सुखद है... परन्तु क्षण भर के लिए। अगर भीतर की स्त्री से मिलना होता है, तो समाधि घटित होती है। वह महासुख है, और सदा के लिए।
23-क्योंकि बाहर की स्त्री/पुरुष से कितनी देर मिलिएगा? वह मिलन छूट जाता है क्षण भर में। क्षण भर को भी मिलन हो जाए तो बहुत मुश्किल है। देह ही मिल पाती है, मन नहीं मिल पाते; मन भी मिल जाए, तो आत्मा नहीं मिल पाती। और सब भी मिल जाए तो मिलन क्षण भर ही हो सकता है। भीतर की स्त्री /पुरुष से मिलना शाश्वत हो सकता है। उस शाश्वत मिलन के कारण ही समाधि फलित होती है।
24-बाहर की स्त्री /पुरुष से मिलना है, तो रज-कण/वीर्य-कण की जो देह है, उसके सहारे ही मिलना पड़ेगा, क्योंकि देह का मिलन तो देह के सहारे ही हो सकता है। अगर भीतर की स्त्री /पुरुष से मिलना है तो देह की कोई जरूरत नहीं है।रज-कण/वीर्य-कण की देह तो अपने केंद्र में, (काम-केंद्र में) पड़ी रह जाती है; और रज-कण/ वीर्य-कण की ऊर्जा उससे मुक्त हो जाती है। वही ऊर्जा भीतर की स्त्री /पुरुष से मिल जाती है। इस मिलन की जो आत्यंतिक घटना है, वह सहस्रार में घटित होती है। क्योंकि सहस्रार ऊर्जा का श्रेष्ठतम केंद्र है, और काम-केंद्र देह का श्रेष्ठतम केंद्र है।
25-काम है निम्नतम केंद्र और सहस्रार है उच्चतम केंद्र। ऊर्जा शुद्ध हो जाती है सहस्रार में पहुंच कर; सिर्फ ऊर्जा रह जाती है, प्योर इनर्जी। और सहस्रार में आपकी स्त्री आपकी प्रतीक्षा कर रही है। और आप अगर स्त्री हैं, तो सहस्रार में आपका पुरुष आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।यह भीतरी मिलन है। इस मिलन को ही हमने अर्धनारीश्वर कहा है।
26-हमने भगवन शंकर की मूर्ति बनाई है--आधा पुरुष और आधी
स्त्री की। आधा अंग पुरुष का है और आधा अंग स्त्री का है। यह इस गहन मिलन की सूचना है। और जो अर्धनारीश्वर का मिलन है, यह होता है कैलाश में, गौरीशंकर पर। वह जो आपके भीतर श्रेष्ठतम शिखर है हिमालय का--सहस्रार, कैलाश, गौरीशंकर, जो भी नाम दें, वहां मिलन घटित होता है।
27-निम्नतम तल है काम-केंद्र का, वहां तो पशु भी मिल लेते हैं। श्रेष्ठतम केंद्र है मिलन का, समाधि का, वहां कभी कोई बुद्ध, कभी कोई महावीर अपने भीतर की स्त्री या अपने भीतर के पुरुष को खोज पाता है। और जिस दिन यह घटना घटती है, उसी दिन पूर्ण ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है; उसके पहले नहीं हो सकता है। जब भीतर की स्त्री मिल गई, तो फिर बाहर की स्त्री की कोई चिंता नहीं रह जाती है।जब भीतर का पुरुष मिल गया, तब फिर बाहर के पुरुष की खोज नहीं रह जाती है। और जब तक यह मिलन नहीं होता, तब तक यह खोज जारी ही रहेगी। वीर्य का द्वार इस प्रक्रिया का द्वार है।
कैसे हम छिपी हुई जीवन-ऊर्जा को मुक्त करें, और सहस्रार में छिपे हुए हमारे ही विपरीत केंद्र से इसका मिलन करा दें?-
11 FACTS;-
1-जब हम सक्रिय ध्यान करते हैं, तो कुछ समय के लिए काम-वासना बिलकुल तिरोहित हो जाती है और शक्ति बहुत मालूम पड़ती है। यही चाहिए कि शक्ति ज्यादा मालूम पड़े और काम-कृत्य में न उतरा जा सके। इसका अर्थ है, शक्ति ऊपर की तरफ दौड़ रही है; इसलिए काम-केंद्र को शक्ति उपलब्ध नहीं हो रही है। और इस प्रक्रिया का पूरा प्रयोजन यही है कि आपके वीर्य-कण नीचे पड़े रह जाएं, और वीर्य-कणों से वीर्य-ऊर्जा मुक्त हो जाए, इनर्जी मुक्त हो जाए, और ऊपर की तरफ दौड़ने लगे।
2-जब इनर्जी ऊपर की तरफ दौड़ती होगी, ऊर्जा ऊपर की तरफ जा रही होगी, तब आप काम-केंद्र का उपयोग नहीं कर सकते, पर यह सौभाग्य है। ब्रह्म को न हम पुल्लिंग में रख सकते हैं, न स्त्री लिंग में। या तो वह दोनों
है, या तो वह दोनों नहीं है।शक्ति आप के पास विराट हो, लेकिन काम-केंद्र से मुक्त हो गई हो, और ऊपर की यात्रा पर निकल गई हो ..वही ब्रह्मचर्य है कि आपमें ऊर्जा तो पूरी है लेकिन वासना ही नहीं उठती। ऊर्जा विराट है, लेकिन नीचे की तरफ बहने का भाव नहीं उठता। सक्रिय ध्यान से ऐसा हो सकता हैं।
3-"हू' की आवाज से काम-केंद्र पर चोट लगती हैं। श्वास तो नाभि तक ही जाती है, उसके नीचे नहीं जाती, तो फिर इस श्वास में "हू' की जो प्रतिध्वनि गूंजती है, वह नीचे तक कैसे जाती होगी?...
वास्तव में, आप सिर्फ श्वास नाक से ही नहीं लेते हैं, पूरे शरीर से लेते हैं। रोआं-रोआं श्वास ले रहा है। और अगर आपकी नाक खुली छोड़ दी जाए, और सारे शरीर को पेंट करके सब रोएं बंद कर दिए जाएं, तो आप कितनी ही श्वास लें, तीन घंटे से ज्यादा जिंदा नहीं रह सकते हैं। क्योंकि आप श्वास सब जगह से ले रहे हैं। और सब जगह से लेना जरूरी है। क्योंकि आपका रोआं-रोआं जीवित है, वह भी तो श्वास ले रहा है। आपके शरीर में एक ऐसा टुकड़ा भी नहीं है, जो बिना श्वास के हो।
4-तो जब "हू' कि हुंकार आप करते हैं, तो वह हुंकार सिर्फ आपके हृदय में और आपकी नाभि में, जहां तक आपकी श्वास जाती है, वहीं तक नहीं गूंजती, वह हुंकार धीरे-धीरे जहां श्वास आपके शरीर में प्रवेश करती है,
रोएं-रोएं तक गूंज जाती है।और जैसे श्वास रोएं-रोएं में छिपी है, वैसे ही काम-वासना भी रोएं-रोएं में छिपी है। काम-केंद्र पर तो कन्सनटरेटेड / एकाग्र है, लेकिन छिपी तो सब तरफ है। शरीर में सिर्फ काम-केंद्र ही नहीं है, और इरोटिक जोन्स भी हैं।
5-काम भी काम-केंद्र पर कन्सनटरेटेड है, वहां सर्वाधिक है, लेकिन फैला है ..पूरे शरीर में। जब आप चोट करते हैं हुंकार की, तो यह हुंकार की चोट जहां-जहां श्वास जाती है, वहां-वहां तक विस्तीर्ण हो जाती है। आपके भीतर जहां-जहां वायु है, वहां-वहां यह ध्वनि गूंज जाती है, विस्तीर्ण हो
जाती है।इसलिए 'ॐ हुंग' बहुत जोर से करें कि जरा भी, एक भी हिस्सा इस ध्वनि से वंचित न रह जाए, और आपके सारे शरीर की काम-ऊर्जा पर चोट पड़ जाए। और जगह-जगह से काम-ऊर्जा इस चोट से मुक्त होने लगे। 6-यह हैमरिंग है, हथौड़े की तरह हम बीज को तोड़ रहे हैं। भीतर तो बीज वहीं पड़ा रह जाए और बीज की ऊर्जा मुक्त हो जाए और ऊर्जा का नियम है कि मुक्त होते ही, ऊर्जा ऊपर की तरफ दौड़ती है। ऊर्जा दौड़ती ही ऊपर की तरफ है, जैसे लपट आग की ऊपर की तरफ दौड़ती है। सब ऊर्जाएं ऊपर की तरफ दौड़ती हैं। सब पदार्थ नीचे की तरफ गिरते हैं। क्योंकि पदार्थ पर ग्रेवीटेशन का, गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव पड़ता है। ऊर्जा पर गुरुत्वाकर्षण का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
7-और जब ऐसा होने लगे कि आपकी काम-वासना लगे कि नहीं उठती है, तो प्रभु को धन्यवाद देना। जल्दी ही भीतर समाधि घटित होगी। और तभी पता चलेगा कि जिस शक्ति से समाधि मिल सकती थी, उसको हम समागम में व्यर्थ खोते रहे। लेकिन जब वह मिलेगी, तभी तुलना हो
सकती है।तो अगर महान संत आप पर बहुत दया से भर जाते हैं, तो उस दया का बड़े से बड़ा कारण तो यह है कि आप हीरे खो रहे हैं, और प्रत्युत्तर में कुछ भी नहीं पा रहे हैं।इन्हीं हीरों से वह खरीदा जा सकता
है, जो फिर कभी नहीं खोएगा।यही है मनुष्य के जीवन की महत्तम यात्रा है।
8-आदि शंकराचार्य ''भजगोविन्दं, ''में कहते हैं: ‘नारी के रूप, स्तन और नाभिप्रदेश को देख
कर मोहाविष्ट मत होओ।’आदि शंकराचार्य पुरुषों से बोल रहे हैं, क्योंकि उन दिनों--विशेषकर इस देश में--धर्म मूलतः पुरुष का एकाधिपत्य था। लेकिन यही बात स्त्रियों के लिए भी कह देनी जरूरी है कि पुरुष के शरीर में भी कुछ नहीं है जिसमें मोहाविष्ट होने की जरूरत हो।आदि
शंकराचार्य के ये वचन या इस तरह के और संतों के वचन एक बड़ी भ्रांति का कारण बन गए हैं।इससे स्त्री की निंदा करने की एक परंपरा बन गई।
9-पुरुष सोचने लगे कि जैसे स्त्री ने उन्हें बंधन में डाला है। तो फिर स्त्री को किसने बंधन में डाला है? पुरुष सोचने लगे कि स्त्री ही मोक्ष में बाधा है। अगर स्त्री मोक्ष में बाधा है, तो स्त्री के लिए मोक्ष में कौन बाधा है? स्त्रियां तो फिर बिना ही बाधा के मोक्ष पहुंच जाएंगी। जब उनके जीवन में कोई बाधा ही नहीं है, मोक्ष में कोई अड़चन नहीं, तो वे तो ऐसे ही पहुंच जाएंगी...
स्त्री और पुरुष का सवाल ही नहीं है। विपरीत में जो आकर्षण है, वह व्यर्थ है।पुरुष सोचने लगते हैं कि स्त्री के शरीर में कुछ नहीं है, सब हड्डी-मांस-मज्जा है और उनके शरीर में सोना-हीरा-चांदी है। जब तक तुम अपने ही शरीर में हड्डी-मांस-मज्जा न देख पाओगे, तब तक तुम स्त्री के शरीर में भी न देख पाओगे।‘वे सब मांस के विकार मात्र हैं, ऐसा विचार मन में बार-बार करो।’
10-''और हे मूढ़, सदा गोविन्द को भजो।''...और आदि शंकराचार्य कह रहे हैं,गोविन्द के भजन को, निरंतर साधे रहो।गोविन्द के भजन का अर्थ है.. ''जो दिखाई पड़ रहा है, वह काफी नहीं है, पर्याप्त नहीं है, पूरा नहीं है; जो नहीं दिखाई पड़ रहा है, वह भी है--उसे याद रखो। कहीं ऐसा न हो कि दृश्य में अदृश्य खो जाए; तो अदृश्य को भी याद रखो।''
11- संस्कार जो पड़ चुका है, उसको तोड़ने के लिए बार-बार विचार की जरूरत है।जैसे कि जलधार -एक बड़े मजबूत पत्थर को तोड़ देती है। जब पहली दफा जलधार गिरती है, तो कौन सोचेगा कि जलधार पत्थर को तोड़ पाएगी..लेकिन एक वक्त आता है कि जलधार तो बनी रहती है,और पत्थर रेत के कण-कण होकर बह जाता है।संस्कार बड़ा कठोर है,
बड़ा गहरा है, लेकिन अगर विचार की जलधार बूंद-बूंद भी टपकती रही, तो एक दिन तुम अचानक पाओगे कि पत्थर टूट गया और बह गया। और जिस दिन तुम्हारे संस्कार बह जाते हैं, तुम मुक्त हो जाते हो।
.....SHIVOHAM....