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क्या है कैवल्य उपनिषद में वर्णित-अस्तित्व और अनस्तित्व से परे, निराकार, हृदय की गुहा ?


क्या है अस्तित्व और अनस्तित्व से परे, निराकार, हृदय की गुहा ?

18 FACTS;--

1-कैवल्य उपनिषद का अंतिम सूत्र है ''मेरे लिए भूमि, जल, अग्रि, वायु आकाश कुछ नहीं है। वही मनुष्य मेरे शुद्ध परमात्मस्वरूप का साक्षात्कार करता है, जो मायिक प्रपंचों से परे, सब के साक्षी,सत-असत अर्थात

अस्तित्व और अनस्तित्व से परे, निराकार, हृदय की गुहा में स्थित मुझ परमात्मा को जान जाता है।''

2-इस सूत्र में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात समझने की है..''हृदय की गुहा में स्थित मुझ परमात्मा को''।सबसे पहले या तो कोई व्यक्ति उस परम साक्षी को जानने में समर्थ हो जाए, तो हृदय की गुहा में प्रविष्ट हो जाता है।और या हृदय की गुहा में प्रविष्ट हो जाए, तो उस परम साक्षी को जानने में समर्थ हो जाता है।उस परम सत्ता को जाननेवाला हृदय की गुहा में प्रवेश पाता है, या फिर हृदय की गुहा में प्रवेश करने वाला उस परम सत्ता को जान लेता है। ये दो ही उपाय है।इसलिए मनुष्य की साधना की दो ही निष्ठाएं हैं।

3-जीवन के सत्य को जानने की दो निष्ठाएं मानी गयी हैं। एक का नाम है सांख्य और दूसरे का नाम है योग। सांख्य का अर्थ है, जो उस परम सत्ता को जान लेता है वह हृदय की गुहा में प्रविष्ट हो जाता है।और योग का अर्थ है, जो हृदय की गुहा में प्रविष्ट हो जाता है वह उस परम सत्ता को जान लेता

है।सांख्य शुद्ध ज्ञान है और योग साधना है। सांख्य कहता है ..करना कुछ भी नहीं है, सिर्फ जानना है।योग कहता है ..करना बहुत कुछ है और तभी जानना फलित होगा।यह दोनों ही सही हैं और यह दोनों ही गलत भी हो सकते हैं क्योंकि ये साधक पर निर्भर करेगा।

4-अगर कोई साधक ज्ञान की इतनी अग्रि जलाने में समर्थ हो कि उस अग्रि में उसका अहंकार जल जाए, सिर्फ ज्ञान की अग्रि ही रह जाए , ज्ञाता न रहे; भीतर कोई अहंकार का केंद्र न रह जाए, सिर्फ जानना मात्र रह जाए, बोध /अवेयरनेस रह जाए, चैतन्य रह जाए, तो कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। जानने की इस अग्रि से ही सब कुछ हो जाएगा।जानने की स्थिति को बढ़ा लेना, रोज-रोज अग्रसर होते जाना ही काफी है।होश बढ़ जाए, जागृति आ जाए, तो पर्याप्त है।

5-लेकिन यह घटना कभी करोड़ में एकाध आदमी को घटती है।और जिस आदमी को करोड़ में भी यह घटना घटती है, वह भी न मालूम कितने जन्मों की चेष्टाओं का फल होता है। लेकिन जब भी सांख्य की घटना किसी को घटती है तो वैसे व्यक्ति को प्रतीत होता है कि सिर्फ जानना काफी है। जानने से ही सब कुछ हो गया। लेकिन उसके भी अनंत जन्म पीछे और अनंत जन्मों में करने की अनंत धाराएं बही हैं।

6-सांख्य योग के विपरीत बातें करता रहा है क्योंकि जिसको भी सांख्य की अवस्था उत्‍पन्‍न होगी, उसे लगेगा कि कुछ और तो करना ही नहीं पड़ता है। सिर्फ होश से भर जाना काफी है। लेकिन जो बेहोश पड़ा है, उसे होश से भर जाना तो सबसे बड़ी उलझन की बात है। जिसकी नींद खुल गयी, वह कह सकता है कि मुझे कुछ और नहीं करना पड़ा, नींद खुल गयी और मैंने प्रकाश का दर्शन कर लिया। लेकिन जो सोया पड़ा है, और सोया ही नहीं नशे में या जहर खाकर बेहोश पड़ा है, मुर्च्‍छित है, उससे हम चिल्ला-चिल्लाकर कहते रहें कि जागो, सिर्फ जागना काफी है, नींद का टूट जाना काफी है, कुछ करने की जरूरत नहीं और सत्य उपलब्ध हो जाएगा ...तो ये बातें भी उसे सुनायी नहीं पड़ती।

7- जो अभी मूर्छित है, पहले तो उसकी मूर्छा तोड़नी पड़ेगी, ताकि वह सुन सके।आंख खोलने की बात भी तो उसके भीतर पहुंचनी चाहिए।

इसलिए सांख्य की मान्यता बिलकुल सही होकर भी काम नहीं पड़ती है। कभी-कभी सांख्य का कोई एकाध व्यक्तित्व होता है, वह सांख्य की बातें कहे चला जाता है कि कुछ भी करना जरूरी नहीं है ;सिर्फ होश से भर जाना काफी है। लेकिन निरंतर लोगों से कहने के बाद भी उन्हें सुनायी ही नहीं पड़ता है क्योंकि वे सोए हुए नहीं हैं, वे मुर्च्‍छित हैं।

8-और उनकी समझ में भी आ जाता है, तब वह समझ मात्र बौद्धिक होती है, ऊपर-ऊपर होती है। शब्द पकड़ लेते हैं, सिद्धांत पकड लेते हैं। फिर उन्हीं सब शब्दों और सिद्धांतों को दोहराने भी लगते हैं। लेकिन उनके जीवन में कहीं कोई रूपांतरण नहीं होता।वास्तव में, सांख्य फूल है;

और जब फूल खिलता है, तब हमें जड़ों का खयाल भी नहीं आता।जड़ें अंधेरे गर्त में, पृथ्वी में छिपी पड़ी होती हैं।

9-लेकिन फूल का खिल जाना एक लंबी शृंखला का हिस्सा है।वर्षों तक जड़ें निर्मित होती हैं, पौधा निर्मित होता है और तब कहीं फूल खिलता है। शायद फूल यह कह सके कि खिल जाना काफी है और क्या करना है! और हवाओं में सुगंध बिखरनी शुरू हो जाती है।जब फूल खिलता है तो सारी शृंखला भूल जाती है, छिप जाती है।जब अंतिम फल आता है तो उस फल के आच्छादन में सब कुछ विस्मृत हो जाता है, जो लंबी यात्रा है।

10-इसलिये फूल खिल गया हो, तब तो यह कहना ठीक है कि फूल खिल जाना काफी है। लेकिन फूल न खिला हो, तो किसी से यह कहना कि फूल खिलना काफी है, खतरनाक भी हो सकता है।क्योंकि वह व्यक्ति पौधे को बड़ा करने के लिए,जड़ों को संभालने के लिए जो कर सकता था वह भी नहीं करेगा।वह भी यह सोचेगा, कि खिल जाना काफी है, खिल जाएंगे और खिल भी नहीं पाएगा क्योंकि खिलना एक लंबी शृंखला का हिस्सा है।

11-जब कृष्णमूर्ति लोगों से कहते हैं ..'कुछ करने की जरूरत नहीं है'। तो लोग समझ भी लेते हैं। वैसी ही समझ जिससे नासमझी मिटती नहीं ;सिर्फ छिप जाती है।तब वह जो कर रहे थे ;वह भी छोड़ देते हैं और कृष्णमूर्ति जिस फूल के खिलने की बात कर रहे हैं वह फूल भी नहीं खिलता।तब वे बड़ी दुविधा में पड़ जाते हैं क्योंकि अभी वे वृक्ष की उस जगह नहीं पहुंचे थे जहां फूल अपने-आप खिलता है।

12-वे कहते हैं हम बडी मुसीबत में हैं कि करना कुछ भी नहीं है।अब हम कुछ करते हैं,तो फौरन खयाल आता है कि करना तो बेकार है, वह फूल तो बिना किये ही खिल जाता है।वह तो निष्‍प्रयास से खिलता है, अप्रयत्‍न से खिलता है, 'एफर्टलेस' है, उसमें कोई साधना की जरूरत नहीं है।हमारी समझ में बहुत गहराई से यह आ गया है, कि अब हम कुछ नहीं कर सकते और जो करते थे वह भी छूट गया है।लेकिन न करने से, जो कृष्णमूर्ति कहते हैं ;होगा उसकी कोई झलक भी नहीं मिलती...वह फूल कहीं खिलता हुआ दिखायी भी नहीं पड़ता।

13-शायद वे अभी जड़ें ही हैं सिर्फ, या शायद अंकुरित ही हुए थे या सिर्फ शाखाएं निकली थीं, पत्ते आने शुरू हुए थे। और अब वे पानी सींचने को एक घेरा भी लगाने को राजी नहीं हैं कि पौधे की रक्षा हो सके और प्राण बेचैन हैं,कि फूल नहीं खिलता। फूल तो खिलने के लिए आतुर होना चाहता है, लेकिन उन्हें कुछ करना ही नहीं है।तो एक तरफ सांख्य की यह दुविधा है कि सांख्य फूल की बात करता है और कठिनाई खड़ी होती है।

14-दूसरी तरफ योग है जो जड़ों की,भूमि की, पानी की, सूरज की गहन खोज करता है। लेकिन तब एक खतरा वहां भी घटित होता दिखायी पड़ता है।और वह खतरा यह कि आदमी क्रियाओं में ही लीन हो जाता है। जिस फूल के खिलने के लिए क्रियाएं शुरू की थीं वह फूल तो भूल ही जाता है। क्रियाएं पकड़ लेती हैं या इतनी संलग्‍न कर लेती हैं कि ऐसा लगता है इन क्रियाओं को करते जाना ही जीवन है।

15-महृषि पतंजलि ने योग के आठ अंग कहे हैं, जिनमें अंतिम तीन अंग धारणा, ध्यान, समाधि महत्वपूर्ण हैं। बाकी पांच उनकी तरफ ले जानेवाले प्राथमिक चरण हैं। समाधि फूल है। शेष सात उसका वृक्ष है। लेकिन अक्सर योगी आसन -प्राणायाम ही जीवन भर करते रहते हैं।समाधि का फूल तो भूल ही जाता है, ये क्रियाएं अपने -आप में महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। साधन साध्य बन जाते हैं। मार्ग ही मंजिल मालूम होने लगता है।

16-सांख्य की भ्रांति है कि ''मंजिल ही इतनी महत्वपूर्ण बन जाती है कि मार्ग की कोई जरूरत ही नहीं''। और योग की भ्रांति है कि 'मार्ग इतना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि अगर मार्ग के लिए मंजिल भी छोड़नी पड़े तो हम मार्ग को ही पकड़ेंगे, मंजिल को नहीं..। क्रियाओं से पस्त आदमी के सामने अगर परमात्‍मा भी खड़ा हो तो वह कहेगा थोड़ी देर रुको, मैं पहले पूजा -पाठ कर लूं।सांख्य की भ्रांति तो कभी -कभी पैदा होती है, क्योंकि सांख्य का व्यक्तित्व ही कभी -कभी पैदा होता है।

17-लेकिन योग की भ्रांति तो हजारों लोगों को भटकाती है -'क्रियाएं ही'।

योगी की भ्रांति ज्यादा व्यापक है क्योंकि पृथ्वी के अधिकतम लोग जब भी धर्म में उत्सुक होते हैं, तो तत्काल क्रिया में उत्सुक हो जाते हैं।और यह स्वाभाविक भी है क्योंकि बिना क्रिया के तो आदमी जिंदगी में कुछ भी नहीं पाता, तो धर्म को भी पाएगा तो क्रिया से ही पाएगा। जैसे धन प्रयास से,पाया जाता है ; वैसा ही धर्म भी पाया जाएगा। परमात्‍मा को भी पाना है तो कुछ करके ही तो पाना होगा।

18-यह तर्क सामान्यत: समझ में आता है। लेकिन इसका दूसरा अधूरा हिस्सा इसका खतरा है और वह यह कि ये सब क्रियाएं जोर से मन को ग्रसित कर लेती हैं।मन क्रियाओं में इतना रस लेता है कि फिर छोड़ना मुश्किल हो जाता है। मंजिल खो जाती है और मार्ग पकड़ जाता है।

इस हृदय की गुहा में पहुंचने के लिए क्या किया जाए?-

20 FACTS;--

1-वास्तव में सांख्य और योग को दो निष्ठाएं नहीं एक ही निष्ठा के दो अंग हैं। योग को प्राथमिक और सांख्य को अंतिम अंग समझें। योग को वृक्ष और सांख्य को फूल समझें। इसलिए आपको इन दोनों को इकट्ठा

जोडना है ...सांख्य-योग।हमें कुछ करना तो पड़ेगा क्योंकि हम जैसे हैं, वहां बिना किये नहीं हो सकता। लेकिन यह भी ध्यान रखना है कि अगर करना ही करना रह गया तो वह घटना भी नहीं घटेगी।

2-करना बहुत कुछ पड़ेगा और एक क्षण सब करना छोड़ना भी पड़ेगा। जैसे कोई सीढ़ी पर चढ़ता है तो चढ़ता भी है और फिर छोड़ भी देता है। जैसे कोई दवा लेता है तो बीमारी ठीक हो जाती है तो दवा छोड़ भी देता है। जैसे कोई मार्ग पर चलता है और मंजिल आ जाती है तो मार्ग छोड़ ही देता है। छोड़ क्या देता है, मार्ग का मतलब ही यह होता है कि जिसको हमें प्रतिपल छोड़ते चलना है।मंजिल की तरफ बढ़ने का मतलब है, मार्ग को छोड़ते चलना। रोज -रोज मार्ग को छोडते चलना है ताकि मंजिल करीब आती चली जाए।

3-मंजिल मार्ग पर चलकर करीब आती है। एक कदम मैं चला,अथार्त एक कदम मार्ग मैंने छोड़ दिया तो एक कदम मंजिल करीब आ गयी।इस मार्ग पर चलना पड़ता है, मार्ग को पकड़ना भी पड़ता है,और मार्ग को छोडना

भी पडता है, तो ही मंजिल आती है।लेकिन हमें दो में से एक बात आसान लगती है कि अगर मार्ग को छोड़ना ही है तो पकड़ना क्यों? यही सांख्य की भूल बन जाती है।या फिर हमारी समझ में आता है कि जिसको एक बार पकड़ लिया उसको क्या छोड़ना! जब पकड़ ही लिया, तो पकड़ ही लिया। फिर निष्ठापूर्वक उसको पकड़े ही रहेंगे, फिर छोड़ेंगे नहीं। इससे हीं योग की भूल पैदा होती है।

4-सांख्य और योग.. यदि दोनों निष्ठाएं साधक को ध्यान में रहें, तो हृदय की गुफा बहुत शीघ्रता से मिल जाती है।हमारा व्यक्तित्व का तीन चौथाई

हिस्सा सोया पड़ा है, और एक चौथाई ही मुश्किल से थोड़ा सा चेतन है। तो तीन चौथाई तो हमें श्रम करना पड़ेगा और एक चौथाई हमें विश्राम करना पड़ेगा।तीन चौथाई मार्ग के लिए और एक चौथाई मंजिल के लिए। ध्यान के

प्राथमिक तीन चरण, वस्तुत: ध्यान नहीं हैं, केवल मूर्छा को तोड़ने की तैयारी हैं।

5-मूर्छा टूट जाए तो ध्यान का चौथा चरण फलित हो सकता है।और खयाल रखना कि तीन तो आपने किये लेकिन चौथा आप नहीं करेंगे । चौथा होगा लेकिन उसमें आप सिर्फ विश्राम कर रहे हैं।चौथे का अर्थ है कि आप अपने को खुला छोड़ रहे हैं; कुछ घटता हो, तो हम तत्‍पर हैं ..हम द्वार बंद नहीं रखेंगे।कुछ आता हो, उतरता हो, तो हमारे भिक्षापात्र उसे झेलने को राजी हैं ;हम बाधा न डालेंगे। हम सब तरफ से खुले हैं ;जो भी बरसेगा,तो हमारी तरफ से कोई रुकावट न होगी।

6-चौथे का मतलब है कि अगर उसकी किरण आएगी तो हमारे दरवाजे बंद नहीं पाएगी। हम स्वागत का भाव लिये द्वार पर खड़े हैं ।तीन में हमने कुछ किया है; चौथे में कुछ हो, इसकी प्रतीक्षा है। तीन में प्रयास है, चौथे में प्रतीक्षा है जो सांख्य का हिस्सा है।भूल यह होती है कि कुछ लोग

चारों को सांख्य का हिस्सा बना लेते हैं, कुछ लोग चारों को योग का हिस्सा बना लेते हैं। तब हृदय की गुहा का खुलना बहुत मुश्‍किल हो जाता है।

7-कैवल्य उपनिषद के इस सूत्र में दो बात है 'जो उस ज्ञान को उपलब्ध हो जाए, उसकी हृदय की गुहा खुल जाती है,और जिसके हृदय की गुहा खुल जाए वह उस ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है'। तो हम दोनों को दोनों

तरफ से समझ लें।उसके ज्ञान को हम कैसे उपलब्ध हो जाएं? उसका ज्ञान कैसे घटित होगा?वास्तव में, ज्ञान को बढ़ाने का केवल एक ही उपाय है कि आपकी प्रत्येक क्रिया सजगतापूर्वक होने लगे।आमतौर से ज्ञान को बढ़ाने का उपाय हमें दिखता है शास्त्र, सिद्धांत, शब्द। वह ज्ञान को बढ़ाने का नहीं , सिर्फ स्मृति को बढ़ाने का उपाय है।और स्मृति और ज्ञान में फर्क है।

8-स्मृति का अर्थ है दूसरे का जाना हुआ, उधार। ज्ञान का अर्थ है अपना जाना हुआ, निजी। जिसको हम ज्ञान का बढ़ना कहते हैं तो अक्सर हमारा मतलब होता है बहुत जानकारी है, बहुत बड़ी स्मृति है ,शास्त्र कंठस्थ हैं। गीता कंठ में है ,वेद मुखाग्र हैं।लेकिन यह ज्ञान नहीं स्मृति है। और स्मृति कोई बहुत बहुमूल्य चीज नहीं.. यांत्रिक है। यंत्र भी स्मृति रख लेते हैं।ज्ञान बड़ी दूसरी घटना है ...मेरा जाना हुआ ,मेरी प्रतीति ,मेरा अनुभव ,मेरा दर्शन। जिसे मैंने ही जिआ और चखा है। मेरा स्वाद ..किसी और की दी गयी खबर नहीं।

9-ज्ञान सीधा आत्म-साक्षात्कार है..न बीच में शास्त्र हैं, न सिद्धांत। तो ज्ञान को बढ़ाने के लिए अध्ययन मार्ग नहीं है। ज्ञान को बढ़ाने का मार्ग जागरण है। जितना ही मैं अपनी क्रियाओं में जागता हूँ, उतना ही मेरा ज्ञान बढ़ेगा, जगेगा। जागने का अर्थ है,कि जो कुछ भी मैं करूं वह इतनी तीव्रता से ध्यानपूर्वक हो कि उसमें मूर्छा जरा भी न रहे। कभी एक छोटा सा प्रयोग करें तब आपको पता चलेगा कि मूर्छा कितनी गहरी है।

10-उदाहरण के लिए कभी अपनी घड़ी को देखें, उसमें सेकेंड़ का कांटा है। तय कर लें ,कि एक मिनट तक सेकेंड के कांटे को होशपूर्वक देखेंगे। एक मिनट, ज्यादा बड़ी बात नहीं है।होशपूर्वक का मतलब है कि,

जो सेकंड का कांटा घूम रहा है, इसको एक मिनट तक भूलेंगे नहीं, याद रखेंगे कि,यह सेकंड का कांटा जा रहा है, जा रहा है, जा रहा है। एक मिनट साठ सेकंड पूरे करेगा ।

11-आप चकित हो जाएंगे कि साठ सेकंड में कम-से-कम तीन बार आप चूक जाएंगे। भूल जाएंगे कि क्या देख रहे हैं। कोई और ख्याल आ जाएगा ,कोई और बात आ जाएगी। मन कहीं एक क्षण को छिटक जाएगा। कम-से-कम तीन बार।उतने 'गैप', उतने अंतराल में आप कहीं और चले गये.. होश यहां न रहा।जाग्रत भाव को बीस सेकंड भी खींचना मुश्किल है।तब आपको पता चलेगा कैसी मूर्छा है यह...

12-तो ऐसे कोई भी काम कर रहे हों तो होशपूर्वक करने की कोशिश करें। अलग से समय देने की कोई जरूरत नहीं है।भोजन कर रहे है,चबा रहे हैं तो होशपूर्वक करें।किसी को पता भी नहीं चलेगा कि आप कोई साधना में लगे हैं।सांख्य की साधना का कोई पता नहीं चलता कि कोई साधना कर रहा है कि नहीं कर रहा है। योग की साधना का पता चलता है, क्योंकि उसमें बाहर की क्रियाओं से प्रयोग करना होता है। सांख्य की तो अंतर्क्रिया है।श्वास चल रही है, इसका ही खयाल रखें।

13-बुद्ध ने श्वास- पर बहुत जोर दिया है कि आदमी चल रहा है, बैठा है, उठा है, लेटा है, एक चीज तो सतत चल रही है, घड़ी के कांटे की तरह-''श्वास''-उसको देखते रहें। श्वास भीतर गयी, तो होशपूर्वक भीतर ले जाएं। श्वास बाहर गयी तो होशपूर्वक बाहर ले जाएं।मौका न चूके। एक भी श्वास बिना जाने न चले। थोड़े ही दिन में आप पाएंगे कि आपका ज्ञान बढ़ने लगा। ये श्वास पर आपका ध्यान जितना सजग होने लगेगा,उतना आपके भीतर ज्ञान बढ़ने लगेगा। अगर आप घंटे भर भी ऐसी स्थिति बना लें कि जब चाहें घंटे भर श्वास को आते-जाते देख लें और कोई बाधा न पड़े, तो सांख्य का दरवाजा बिलकुल निकट है।केवल धक्का देने की ही बात है और खुल जाएगा

14-लेकिन, शुरू करें, तो कभी अंत भी होता है। प्रारंभ करें, तो कभी प्राप्ति भी होती है।यह अंतर्क्रिया है।यह राम-राम जपने से ज्यादा कठिन है। क्योंकि राम-राम जपने में होश रखना आवश्यक नहीं है।आदमी राम-राम यंत्रवत जपता रहता है और तब ऐसी हालत बन जाती है कि वह काम भी करता रहता है, राम-राम भी जपता रहता है। उसे न राम-राम का पता रहता है कि मैं जप रहा हूं-जप चलता रहता है, यंत्रवत हो जाता है। इसलिए अगर राम-राम भी जपना हो, तो राम-राम जपने में दोहरे काम करने जरूरी हैं-जप भी रहे, और जप का होश भी रहे, तो ही फायदा है , नहीं तो..

15-तो बहुत लोग जप कर रहे हैं और व्यर्थ है। उनके जप ने उनकी बुद्धि को तीव्र नहीं किया ,उनके ज्ञान को बढ़ाया नहीं । उनका ज्ञान जगता हुआ नहीं ,जंग खा गया हुआ मालूम पड़ता है। क्योंकि बुद्धि का वह जो बोध है, जो ज्ञान है, वह सिर्फ जागरण से बढ़ता है। कोई भी क्रिया अगर मूर्छित की जाए, तो घटता है। और हम सब मुर्च्‍छित क्रियाएं कर रहे हैं। उसी में हम राम-जप भी जोड़ लेते हैं तो वह भी एक मूर्छित क्रिया हो जाती है।

16-बजाय एक नयी क्रिया जोड़ने के, जो क्रियाएं चल रही हैं उनमें ही जागरण बढ़ाना उचित है।और अगर राम-जप की क्रिया भी चलानी शुरू कर दी हो, तो उसमें भी जागरण ले आएं। कुछ भी करें, एक बात तय कर लें कि उसे जागकर करने की सतत चेष्टा जारी रखेंगे।आज असफलता होगी, कल असफलता होगी-कोई चिंता नहीं है-लेकिन हर असफलता से सफलता का जन्म होता है।और अगर अब खयाल जारी रहा और सतत चोट पड़ती रही, तो एक दिन आप अचानक पाएंगे कि आप किसी भी क्रिया को समग्र चैतन्य में करने में सफल हो गये हैं। जिस दिन आप इस चैतन्य में सफल हो जाएंगे, उसी दिन सांख्य का द्वार खुल गया।और कुछ भी अथार्त कोई बाहरी क्रिया जरूरी नहीं है..अंतर्गुहा में प्रवेश हो जाता है।

17-और तब हम अपने भीतर के साक्षी को जान लेते हैं, क्योंकि यह जागरण की क्रिया साक्षी की क्रिया है। जब हम जागकर कुछ करते हैं, तो हम साक्षी हो जाते हैं, कर्ता नहीं होता। जब भी हम सोकर कुछ करते हैं, तभी हम कर्ता होते है और साक्षी नहीं होता। कुछ भी करें तो जागकर करें-भोजन कर रहे हैं, जागकर करें, तब आप भोजन करने वाले नहीं रह जाएंगे। भोजन की क्रिया को देखनेवाले हो जाएंगे। रास्ते पर चल रहे हैं, जागकर चलें, तो आप चलनेवाले नहीं रह जाएंगे; जो चल रहा है, उसके आप द्रष्टा और साक्षी हो जाएंगे।

18-तो जागरण की क्रिया बढ़ती जाए तो आपके भीतर साक्षी विकसित होता जाएगा। जिस दिन आपके भीतर साक्षी पूरी तरह कर्ता से मुक्त हो जाएगा, कर्ता की खोल बिलकुल टूट जाएगी और साक्षी का अंकुर पूरा बाहर निकल आएगा, उसी दिन इस सूत्र का जो एक हिस्सा है वह

आपके खयाल में आ जाएगा।''मेरे लिए भूमि, जल, अग्रि, वायु आकाश कुछ भी नहीं है। वही मनुष्य मेरे शुद्ध परमात्‍मास्वरूप का साक्षात्कार करता है, जो मायिक प्रपंचों से परे, सबके साक्षी, सत-असत से परे, निराकार, हृदय की गुहा में स्थित मुझ परमात्मा को जान लेता है। ''

19-यह सांख्य का, ज्ञान का, मात्र ध्यान का मार्ग है। भीतर का साक्षी खयाल में आ जाए, तो वह परम साक्षी भी खयाल में आ जाता है।क्योंकि हमारे भीतर का साक्षी उस परम साक्षी का ही फैला हुआ हाथ है। जैसे कोई एक छोटी-सी पत्ती वृक्ष पर होश से भर जाए कि मैं कौन हूं तो उसी क्षण उसे पता नहीं चल जाएगा कि पूरा वृक्ष भी वही है। क्योंकि पत्ती सिर्फ वृक्ष का फैला हुआ एक छोटा-सा अंग है।

20-अगर पत्ती जग जाए और उसे पता चल जाए 'मैं कौन हूं' तो उसे यह भी पता चल जाएगा कि वृक्ष कौन है। क्योंकि 'मैं 'और वृक्ष में तब कोई फासला नहीं होगा। यह मेरे भीतर जो छिपा हुआ प्रगट हो रहा है, यह उसी विराट का फैला हुआ हिस्सा है, उसी का एक हाथ है। अगर मैं भीतर अपने साक्षी के प्रति जाग जाऊं , तो तत्क्षण मेरे लिए वह विराट साक्षी भी अनुभव का हिस्सा हो जाता है।तो हृदय की' गुहा में जाने का एक मार्ग तो है ..ज्ञान

प्रगाढ़ होता जाए, प्रखर होता जाए, तीव्र होता जाए और ऐसा क्षण आ जाए कि ज्ञान की अग्रि जागरण ही रह जाए और भीतर इस जागरण का कोई अहंकार केंद्र न हो।

अस्तित्व से अपने को कैसे जोड़े?-

31 FACTS;--

1-वास्तव में, जितनी मूर्छा होती है उतना बड़ा अहंकार होता है। जितना जागरण होता है उतना बड़ा साक्षी होता है। और साक्षी और अहंकार में कोई संबंध नहीं है। साक्षी होता है, तो अहंकार नहीं होता।अहंकार होता है, तो साक्षी नहीं होता वे दोनों साथ-साथ कभी मौजूद नहीं होते। इसलिए जब आप किसी क्रिया के प्रति जागकर साक्षी बन जाएंगे, तो उस क्षण में आप पाएंगे कि आप नहीं हैं .. 'मैं' नहीं है। उस क्षण अहंकार अनुभव नहीं हो सकता।

2-इसलिए बुद्ध ने तो बहुत अद्भुत बात कही कि ''वहां न अहंकार है और न आत्मा क्योंकि मैं का कोई भाव ही नहीं रह जाता तो किसे आत्मा कहें? आत्मा का मतलब होता है, 'मैं' ''।जब पूर्ण जागरण होता है, तो वहां कोई आत्मा भी नहीं है। वहां सिर्फ जागरण ही रह गया, जागा हुआ कोई भी नहीं है।क्योंकि जागा हुआ कोई केन्द्र अगर अभी वहां है और जागरण भी है, तब दो चीजें मौजूद रहीं।

3-यह बहुत कीमत की बात है कि जब कोई व्यक्ति जागता है तो बुद्ध नहीं होता वहां कोई बुद्धत्व होता है,सिर्फ जागापन होता है।इस साक्षी

की अवस्था में हृदय की गुहा खुल जाती है। क्योंकि हृदय की गुहा पर जो पत्थर है, वह अहंकार का है ;जो द्वार बंद है वह अहंकार का है। जितना सघन मेरा 'मैं' है, उतना ही हृदय सिकुड़ जाता है। इसलिए कभी आपने खयाल किया, साधारण जीवन में भी जिनका जितना 'मैं' सघन होता है, उनके पास उतना ही छोटा हृदय होता है।उस परम अवस्था , बुद्ध की अवस्था को तो हम छोड़ दें जहां अहंकार बिलकुल ही नहीं होता; शायद वह हमारी समझ में भी न आए।

4-लेकिन रोजमर्रा के जीवन में, हम अनुभव करते हैं कि जिस आदमी का 'मैं' जितना बड़ा होता है, उसका हृदय उतना ही छोटा होता है। और जिस आदमी का हृदय जितना बड़ा होता है,उसका 'मैं' उतना ही छोटा

होता है।इसलिए हृदय के साथ अहंकार की तृप्ति नहीं हो सकती। और जिसको ह्दय की तृप्ति करनी है, उसे सारी महत्वाकांक्षाएं छोड़ देनी पड़ती हैं। और सब अहंकार की यात्राएं बंद कर देनी पड़ती हैं। हृदय के मार्ग पर जानेवाला आदमी महत्वाकांक्षा के मार्ग पर नहीं जा सकता।

5-इसलिए इस जगत में बड़ी दुर्घटना घटती है कि जिन लोगों के हाथ में शक्ति से लाभ हो, वे लोग शक्ति के मार्ग पर नहीं जाते। और जिनके हाथ में शक्ति होने से खतरा ही होगा, वे ही लोग शक्ति के मार्ग पर जाते हैं। जहां -जहां शक्ति है, वहां -वहां अहंकार जाता है।जहां -जहां प्रेम है,वहां -वहां हृदय जाता है। प्रेम और शक्ति का कोई लेना -देना नहीं है।अहंकार

हृदय को सिकोड़ देता है, सब तरफ से बंद कर देता है।क्योंकि अहंकार

को हृदय से डर है।हृदय दूसरे से जुड़ने का द्वार है और अहंकार दूसरे से टूटने की प्रक्रिया है।

6-मैं अलग, मैं भिन्न, यह अहंकार की आधारशिला है।और हृदय दूसरे से , तू से ,अन्य से जोड़ता है।और अगर हम हृदय की ही मानते चले जाएं तो समग्र से जोड़ देता है। अगर हम अहंकार की मानते चले जाएं तो समग्र से तो तोड़ता ही है, अंततः किसी से भी जोड़ने की हालत नहीं रह जाती।आदमी बिलकुल अलग हो जाता है। फिर भयंकर पीड़ा भी होती है क्योंकि जितना ही आदमी दूसरे से टूट जाता है, उतना ही जड़ें कट जाती हैं ,जीवन से टूट जाता है। इसलिए अहंकार अपनी पूर्ति में ही जीवन को दुख और नरक से भर लेता है।

7-हृदय जितना दूसरों से जुड़ता है, उतना आनंद से भरता चला जाता है। क्योंकि दूसरों से जुड़ना जीवन से जुडना है और नयी जड़ें खोजना है। और जिस दिन हृदय परमात्मा से जुड़ जाता है तो उस दिन परम जीवन से जुड़ जाता है..सबसे जुड़ जाता है। उस दिन जीवन का परम स्रोत उपलब्ध हो जाता है। उस स्रोत को दुख का , पीड़ा का कोई पता ही नहीं है।अस्तित्व से अपने को तोड़ लेना ही पीड़ा है और अपने को जोड़ देना ही आनंद है।

यह अहंकार की पर्त ,पत्थर या दीवाल ;यदि सजग होते चले जाएं तो बिखर जाती है।

8-सांख्य की तरफ से जो उपाय है वह सुनने ,समझने में सरल है ,लेकिन उतरने में बहुत कठिन है क्योंकि मूर्छा हमारी बीमारी है और

यह जागरण का उपाय है। दूसरे हिस्से योग की तरफ से जो मार्ग है; उसमे आपको कुछ क्रियाएं करने को कहा जाता है; जिनसे जागरण फलित

होता है।जैसे बुद्ध ने कहा श्वास पर ध्यान रखो तो यह सांख्य की प्रक्रिया हुई। योग कहता है ध्यान की फिकिर छोड़ो, क्योंकि ध्यान की तुमसे आशा नहीं है; पहले श्वास को ही व्यवस्थित करो ।तुम तीव्र श्वास तो ले ही सकते हो तो तीव्र श्वास लो और वह प्राणायाम है।

9-अब यह बहुत आश्चर्य की बात है कि जितनी धीमी श्वास हो, उतना इस पर ध्यान रखना मुश्किल होगा और जितनी तीव्र श्वास हो, ध्यान रखना आसान होगा। असल में मूर्छा तोड़ने के लिए कुछ इतने तीव्र उपाय होने चाहिए कि आप चाहें.. तो भी न सो सकें।इतनी तीव्र चोट करो कि सोना या मूर्छा मुश्किल हो जाए। यह जानकर आप हैरान होंगे कि प्राणायाम करने वाले की साधारण नींद भी कम हो जाती है और अगर आप सतत प्राणायाम का प्रयोग करें तो नींद बिलकुल भी समाप्त हो सकती है।

10-उदाहरण के लिए एक भिक्षु की एक-डेढ़ वर्ष से, नींद बिलकुल खो गयी थी और कोई 'ट्रैकुलाइजर', कोई नींद की दवा भी नींद लाने में समर्थ नहीं होती थी।उसे नींद तो आती ही नहीं थी और सुस्ती उलटे आ जाती थी और दवाओं की तकलीफ अलग थी। सुबह वह बिलकुल लुंज-पुंज उठता

था।उससे पूछा गया कि क्या तुम साधना क्या कर रहे हो तो उसने कहा कि वह तीन साल से 'अनापानसतीयोग' का प्रयोग कर रहा है।

11-तो उसे पंद्रह दिन के लिए योग बंद करने के लिए कहा गया क्योंकि इसी वजह से उसकी नींद बिलकुल खो गयी थी। वह तीव्र श्वास लेकर प्रयोग कर रहा था-क्योंकि धीमी श्वास में मुश्किल होता है, झटके से , तेजी से श्वास जाएगी तो खयाल रहेगा। उसने इतनी तेज श्वास लेनी शुरू कर दी कि उसकी वजह से नींद खो गयी। क्योंकि शरीर में कार्बन की मात्रा कम हो जाए, तो नींद खो जाएगी। आक्सीजन की मात्रा बढ़ जाए तो नींद खो जाएगी।

12-योग कहता है कि अगर साधारण नींद पर चोट पहुंचती है, तो उस भीतरी नींद पर भी इससे चोट पहुंचती है।इसलिए तुम ध्यान की फिकिर न करो, पहले प्राण को शुद्ध कर लो। इतना शुद्ध कर लो कि प्राण के द्वारा मूर्छा में जितना सहयोग मिलता है, वह न मिले। योग कहता है कि हम तुम्हें ऐसे आसन सिखाते हैं जिनसे तुम्हारी कामवासना की ऊर्जा नीचे की तरफ बहना बंद हो जाए। और अगर तुम्हारी काम-ऊर्जा ऊपर की तरफ बहने लगे, तो जागना आसान हो जाएगा।

13-दुनिया में अधिकतर लोग काम-ऊर्जा का उपयोग नींद की दवा की तरह करते है क्योंकि शरीर की शक्ति क्षीण हो जाती है और उस क्षीण

अवस्था में निद्रा जल्दी पकड़ लेती है।लेकिन अगर कोई व्यक्ति अपनी काम-ऊर्जा को व्यर्थ न करे, तो उसकी नींद कम हो जाएगी।और उसकी यह नींद कम हो जाए तो उसकी भीतरी नींद को भी चोट पहुंचना शुरू हो जाएगी... यही हैं ब्रह्मचर्य साधना।

14-इसलिए योग ने ब्रह्मचर्य का जो उपयोग किया है, उसका कोई कामवासना से विरोध नहीं है। केवल काम-ऊर्जा का एक अन्यथा उपयोग करना है; एक सकारात्मक उपयोग करना है।लेकिन अगर कोई सिर्फ ब्रह्मचर्य साधने लगे और उस ऊर्जा का अन्यथा उपयोग न जानता हो, तो वह विकृत हो जाएगा, विक्षिप्त हो जाएगा। कुछ लोग क्रियाओं से बंध जाते है ;लक्ष्य हो गया कि अगर ब्रह्मचारी हो गये तो बहुत कुछ हो गये।ब्रह्मचर्य उनके लिए साध्य हो गया लेकिन इससे कुछ होने वाला नहीं है।ब्रह्मचर्य सिर्फ एक प्रयोग है..आपका जागरण आपके भीतर ऊर्जा की मात्रा पर निर्भर करता है।ऊर्जा ज्यादा हो तो व्यक्ति आसानी से जाग सकेगा।ऊर्जा कम हो तो जल्दी सो जाएगा और मूर्छित हो जाएगा।

15-तो योग कहता है जागरण को हम सीधा नहीं छूते, हम आपकी ऊर्जा को बचाने की चेष्टा करते हैं..आसन से, प्राणायाम से, प्रत्याहार से।क्योंकि इंद्रियों से ऊर्जा प्रतिक्षण नष्ट हो रही है।आप चौबीस घंटे देखते रहते है, व्यर्थ भी देखते रहते हैं ;जब देखने को कुछ नहीं होता, तब भी देखते है। तब भी आपको नहीं सूझता है कि आंख बंद कर लें।दरवाजे पर बैठे

है, सड़क चल रही है उसी को देख रहे हैं। लोग आ-जा रहे हैं, उन्हीं को देख रहे हैं। जिस अखबार को दो दफे पढ चुके हैं, उसको फिर तीसरी दफे पढ़ रहे है। जिन बातों को हजार दफे कर चुके,फिर उन्हीं को कर रहे है। वही बात रोज...तो आप अपनी शक्ति खो रहे हैं।

16-तो योग कहता है, प्रत्याहार। अपनी शक्ति को बाहर मत जाने दो, भीतर ले जाओ। इसके दोहरे अंग है। एक तो अपनी शक्ति को व्यर्थ मत खोओ। आंख खोलने की जरूरत हो; तो ही खोलो। ओंठ खोलने की जरूरत हो ;तो ही खोलो। सुनने की जरूरत हो; तो ही सुनो। बोलने की जरूरत हो ;तो ही बोलो अन्यथा शक्ति को बचाओ।और अगर एक दफे

आपको खयाल आ जाए, तो आप खुद ही हैरान होंगे कि कम-से-कम आपके सौ में से नब्बे कृत्य व्यर्थ थे, जिनको करने की कोई भी जरूरत न थी।

17-यदि एक दिन भी अगर आप खयाल रखकर चलें कि जो जरूरी है वही बोलूंगा, तो आप पाएंगे कि दिन भर में कितना कम बोलने की आवश्यकता रह जाती है। और एक और दूसरी आश्चर्य की बात पाएंगे कि जो-जो आप व्यर्थ बोलते थे उससे और नयी झंझटें निकलती थीं, उनका हिसाब लगाना

मुश्किल है।आदमी की नब्बे प्रतिशत मुसीबतें व्यर्थ की बातो से ही निकलती हैं। किसी से कुछ कह दिया, फिर उसने कुछ कह दिया, फिर सिलसिला जारी है, फिर उसका अंत नहीं होता।जब हम व्यर्थ की बातें

सुनते हैं तो भीतर सिलसिला चलता है ,शक्ति व्यय होती है। और हम चौबीस घंटे अपनी शक्ति को इसी तरह व्यर्थ करते हैं।

18-तो प्रत्याहार का पहला नियम यह है कि हम शक्ति को व्यर्थ न करें। और दूसरा नियम यह है कि जहां-जहां शक्ति मिल सकती हो,वहां-वहां से लें। अभी हम जहां-जहां खो सकते हैं, वहां-वहां खोते हैं। आप वृक्ष के पास बैठे हैं, अगर आप वृक्ष की तरफ आंखें एकाग्र कर लें और अनुभव करें कि वृक्ष से शक्ति आपकी तरफ प्रवाहित हो रही है, तो आप अपनी आंखों को ताजा करके वापिस लौटेंगे। आपकी आंखें ताजगी, नई जिंदगी और नया रस लेकर वापिस आ जाएंगी। आकाश के नीचे लेटे हैं, अगर धारणा करें कि आकाश से शक्ति आप में प्रवाहित हो रही है, तो शक्ति आप में प्रवाहित होगी।

19-अब वैज्ञानिक भी इसको स्वीकार कर रहे है कि प्राण जैसी ऊर्जा चारों तरफ व्याप्त है, वृक्षों में भी, पौधों में भी, चट्टानों में भी, आकाश में, तारों में, सब तरफ प्राण -ऊर्जा व्याप्त है।अगर हम ग्रहण कर सकें, तो वह प्राण ऊर्जा कहीं से भी भीतर ले जायी जा सकती है।योग की प्रक्रिया यह

है कि सारा जगत प्राण का एक सागर है।और हम उस प्राण से जितना प्राण ले सकें, वह हमें लेते चलना चाहिए। कभी -कभी तो ऐसी घटनाएं घटी हैं कि यह प्राण लेने की प्रक्रिया इतनी आखिरी सीमा पर पहुंच गयी कि फिर किसी और चीज की लेने की जरूरत ही न रही।

20-उदाहरण के लिए महावीर ने बारह वर्ष में केवल तीन सौ पैंसठ दिन खाना लिया अथार्त एक वर्ष।कभी पंद्रह दिन खाना न लेंगे, फिर एक दिन खाना ले लेंगे।कभी महीने भर खाना न लेंगे, फिर एक दिन खाना ले लेंगे।

लेकिन महावीर की जैसी स्वस्थ,सुंदर काया खोजनी मुश्किल है। उन जैसी

स्वस्थ काया तो बुद्ध के पास भी नहीं है।महावीर इतना कम भोजन लेकर इतने स्वस्थ क्यों हुए? वास्तव में, महावीर की सारी साधना योग की है, बुद्ध की सारी साधना सांख्य की है। इसलिए बुद्ध और महावीर के अनुयायियों में भारी संघर्ष है। महावीर महायोगी हैं। उन्होंने प्राण को सीधा आत्मसात करना शुरू कर दिया।

21-अगर हम देखें कि दीये में बाती तो जल रही है और तेल है ही नहीं, तो एक ही अर्थ रह जाता है कि किसी अज्ञात स्रोत से ईंधन उपलब्ध हो रहा

है, जो उन्हें दिखायी नहीं देता।जहां से हम जीवन के लिए ईंधन पा रहे हैं, वह भी अगर हम गौर से देखें तो समझ में आ जाएगा। सूरज की किरण पौधे पर पड़ती हैं। पौधा 'फोटो सिंथेसिस' के द्वारा सूरज की किरणों को आत्मसात करता है। पौधे के भीतर वह सूरज की किरण आत्मसात होकर विटामिन बनती है। फल से हम उसे लेते हैं ; तब हम उसे पचा पाते हैं। 22-वैज्ञानिक कहते हैं कि पौधा सीधी सूरज की किरण को पचा पाता है; इसलिए पौधा बीच के एजेंट का काम करता है। प्राण ऊर्जा को पौधे पचाते हैं, फिर हमारे पचाने के योग्य बनाते हैं, फिर हम उसको पचा पाते हैं।

इसलिए हमें वनस्पति का या मांसाहार का उपयोग करना पड़ता है। कोई पहले इसे पचाकर निर्मित करता है।और इसीलिए मांसाहार में हमें दो एजेंट लेने पड़ते हैं।पहले पौधा पचाता है, फिर पशु उसे खाता है, फिर पशु के पचाए हुए को हम पचाते हैं।

23-शाकाहारी ज्यादा वैज्ञानिक है। वह कहता है, जब सीधा पौधे से पचाया जा सकता है, तो पशु को बीच से हटा दो।और योग कहता है आज नहीं कल, अगर हम सीधे प्राण को पचाना सीख जाएं तो पौधे को भी हटा दें। तब हम सीधी ऊर्जा को ले सकते हैं ।प्रत्याहार के दो अंग हैं—शक्ति को

हम न खोए, और जहां -जहां से शक्ति मिल सकती हो उसको लेते चले जाएं। ऐसे योग हमारे भीतर ऊर्जा का इतना संघट निर्मित कर देता है कि उसके भीतर जागरण के सिवाय उपाय नहीं रह जाता। फिर जागरण घटता है। और यह जागरण वहीं पहुंचा देता है, जहां सांख्य पहुंचाता है।

24-लेकिन हृदय की गुहा खोलनी है,तो योग और सांख्य को संयुक्त व्यवस्था मानकर चलें ;दोनों जारी रखें। ज्यादा गहरे परिणाम मिलेंगे, समय कम लगेगा और शक्ति कम व्यय होगी। एक तरफ ध्यान रखें कि जागरण बढ़ता जाए, दूसरी तरफ ध्यान रखें कि ऊर्जा संगृहीत होती चली जाए।

योग का प्रयोग करें, सांख्य पर ध्यान रखें, तो एक दिन वह द्वार खुल जाएगा

जिसे हृदय की गुहा कहा है।इस प्रकार कैवल्य उपनिषद जहां समाप्त होता है, वहीं से आपको जीवन की एक यात्रा शुरू हो जाएगी।

25-इसलिए जो भी लिखा गया है उसे भूलकर भी आप अपना ज्ञान मत समझना। किसी ने लिखा है,सुना हुआ है,स्मृति है, या उधार है,ऐसा माने । जो भी लिखा गया है, वह आपकी प्यास बढ़ाने के लिए है, ज्ञान बढ़ाने के लिए नहीं।और कोई ज्ञान बढ़ा भी नहीं सकता है।अगर प्यास बढ़े,

तो ज्ञान की घटना किसी दिन घट सकती है।और अगर ज्ञान बढ़ जाए तो फिर वह घटना कभी भी नहीं घटेगी।एक प्यास है कि कब वह क्षण आएगा, तब जो सुना है वह हम भी जान सकेंगे। और वह क्षण ऐसे ही बैठे -बैठे नहीं आ जाएगा। उसके लिए कुछ करना होगा जो ज्यादा महत्वपूर्ण

है।क्योंकि वह करना बढ़ता चला जाए, तो किसी दिन ज्ञान का दीया जल सकता है।

26-और ऐसा लगना चाहिए कि ''अगर इस परम गुह्य आनंद की जो यह सुसमाचार कैवल्य उपनिषद को कहने वाले ने दी है, इसे मैं भी जान सकता हूं।मेरी भी वही संभावना है जो किसी और मनुष्य की है।और इसे न जानने से मैं पीड़ा, दुख और न मालूम कितने अनंत नरक भोग रहा हूं उनसे भी मुक्‍ति हो सकती है। इसे न जानने से मैं बंधन में पडा हूं और इसे जानने से मैं भी स्वतंत्र हो सकता हूं ;मैं भी उड़ सकता हूं मुक्‍ति के आकाश में। इसे न जानने से मैं आड़ी तिरछी जड़ें भर रह गया हूं.. कहीं कोई फूल खिलता हुआ नहीं मालूम पड़ता है। कहीं कोई सुगंध नहीं उठती और प्राण रिक्त हैं, रीते हैं। इसे जानने से मेरे भीतर भी वह फूल खिल सकता है, जिसका नाम परमात्मा है। वह सुगंध बह सकती है,जिसका नाम स्वतंत्रता है''।

27-लेकिन प्यास भी काफी नहीं है। क्योंकि कुछ लोग प्यासे भी रहें तो भी बैठे रहते हैं ,प्रतीक्षा करते हैं कोई पिला दे, कोई पानी ले आए। अकेली प्यास तो उदास कर सकती है। यह जो प्यास जगे, तो इसकी खोज के लिए शक्ति को लगाने का संकल्प ,एक दृढ़ इरादा भी चाहिए। एक श्रद्धा और

एक निष्ठा भी चाहिए।तो एक संकल्प ले और ध्यान रखें, संकल्प को जब पूरा करते हैं तभी पता चलता है कि मेरे भीतर कितनी शक्ति पूरा करने की थी। जब तक पूरा नहीं करते, तब तक शक्ति का भी कोई पता नहीं होता। शक्ति को भी, अपनी शक्ति तभी पता चलती है जब सक्रिय होती है।

28-खुद की शक्ति का भी हमें कोई अंदाज नहीं होता कि हम कितना कर सकते हैं, और जितना ज्यादा हम करते हैं उतना ही पता चलता है कि और

भी ज्यादा कर सकते हैं।हर एक कदम उठते ही दूसरे कदम को उठने की शक्ति उपलब्ध हो जाती है। और एक -एक कदम चलकर आदमी हजारों मील का रास्ता तय कर लेता है। तो संकल्प को सक्रिय बनाएं ..छोटा ही

सही।किसी भी कार्य की मनाही नहीं है लेकिन अगर कोई गाली दे, तो पहले स्मरण करना कि मैं संन्यासी हूं फिर उत्तर देना...तब उत्तर दूसरा होगा।

29-प्रकाश दिखायी पड़ जाए, अनुभव सुखद है, लेकिन तृप्त नहीं हो जाना है।आनंद भी मालूम होने लगे, तो भी सुखद है, तृप्त नहीं हो जाना है। परमात्मा की उपस्थिति भी मालूम होने लगे, कीमती है, लेकिन तृप्त नहीं हो जाना है।उस समय तक तृप्त नहीं होना है जब तक कि स्वय और परमात्मा में रत्तीभर का भी फासला है। जिस दिन स्वयं का होना ,परमात्मा का होना हो जाए या परमात्मा का होना स्वयं का होना हो जाए; जिस दिन हृदय की गुहा में छिपे हुए परमात्मा का उद्घाटन हो जाए, अनावरण हो जाए, उस समय तक तृप्त नहीं होना है।

30-तब तक ध्यान से स्वयं को खोदते,साधते ही जाना है। योग से, सांख्य से..स्वयं को, तब तक निखारते ही जाना है ...तो एक दिन जरूर घटना घटती है। वह घटना बिलकुल ही सुलभ है ,हाथ के भीतर है। पर हाथ बढ़ाना चाहिए। जीसस ने कहा है ''खटखटाओ और द्वार खुल जाएंगे''। लेकिन हम ऐसे अभागे हैं कि जन्मों -जन्मों तक द्वार पर बैठकर खटखटाते भी नहीं। जीसस ने कहा है ''मांगों और मिल जाएगा''। लेकिन हम ऐसे अभागे हैं कि उसके सामने ही खड़े रहते हैं और मांगते भी नहीं।

31-हम अशांति को उपलब्ध होते चले जाते हैं।जितनी अशांति बढ़ती जाती है, उतना ही ब्रह्म से संबंध क्षीण मालूम पड़ता है; क्योंकि ब्रह्म से केवल वे ही संबंधित हो सकते हैं, जो परम शांत हैं।शांति ब्रह्म और स्वयं के बीच सेतु है।जैसे ही कोई शांत हुआ, वैसे ही ब्रह्म के साथ एक हुआ।जैसे ही अशांत हुआ कि मुंह मुड़ गया।अशांत चित्त संसार से संबंधित हो सकता है।शांत चित्त संसार से संबंधित नहीं हो पाता।अशांत चित्त परमात्मा से संबंधित नहीं हो पाता।शांत चित्त परमात्मा में विराजमान हो जाता है।यदि उसके द्वार को सतत खटखटाने का संकल्प ले लिया; तो जो कैवल्य उपनिषद आज शब्दों में समाप्त हो गया है, वह किसी दिन आपके जीवन में भी समाप्त हो सकता है।

....SHIVOHAM....


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