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अष्टांगिक मार्ग।


अब सूत्र—

मग्‍गानट्ठंगिको सेट्ठो सच्‍चानं पदा।

विरागो सेट्ठो धम्‍मानं द्विपदानंच चक्‍खुमा।।

'मार्गों में अष्टागिकमार्ग श्रेष्ठ है। सत्यों में चार पद (चार आर्य—सत्य) श्रेष्ठ हैं। धर्मों में वैराग्य श्रेष्ठ है। और द्विपदों में—मनुष्यों में—चक्षुष्मान, आंख वाले (बुद्ध) श्रेष्ठ हैं।'

बड़ा प्यारा सूत्र है।

मग्‍गानट्ठंगिको सेट्ठो।

बहुत मार्ग हैं भीतर आने के, लेकिन बुद्ध कहते हैं, अष्टागिक मार्ग उसमें श्रेष्ठ है। तुम बाहर के मार्गों की बातें कर रहे हो कि कौन सा रास्ता अच्छा है, अरे पागलो, अष्टागिक मार्ग श्रेष्ठ है। भीतर आने के बहुत मार्गों में आठ अंगों वाला मार्ग श्रेष्ठ है। वे आठ अंग निम्न हैं

सम्यक—दृष्टि, पहला अंग। सम्यक—दृष्टि का अर्थ होता है, दृष्टियों से मुक्ति। पक्षपात से मुक्ति। आंखें खाली हों। कोई भाव न हो, कोई विचार न हो, कोई सिद्धांत, कोई शास्त्र न हो; कोई मत न हो। खुली निष्पक्ष आंख हो, निर्दोष आंख हो—जैसे दर्पण खाली—तो सत्य दिखायी पड़ेगा। तो सत्य कैसे बचेगा? लेकिन दर्पण पर अगर कोई धूल पड़ी हो, कोई पक्ष पडा हो, रंग पड़ा हो, तो फिर सत्य जैसा है वैसा दिखायी न पड़ेगा। सम्यक—दृष्टि का अर्थ होता है, दृष्टियों का अभाव। जब सब दृष्टियां छूट जाती हैं—हिंदू की दृष्टि, मुसलमान की दृष्टि, ईसाई की दृष्टि—जब सब दृष्टियां छूट जाती हैं और कोई दृष्टिशून्य खड़ा होता है, निर्वस्त्र, नग्न, सारी दृष्टियों से मुक्त, तब सत्य को जाना जाता है। यह पहला अंग।

दूसरा अंग, सम्यक—संकल्प। हठ नहीं, औद्धत्य नहीं, जिद्द नहीं। अधिक लोग संन्यासी हो जाते जिद्द से, हठ से, औद्धत्य से, अहंकार से। तुम्हें अक्सर जिद्दी लोग संन्यासियों में मिलेंगे। दुर्वासा की कहानी तो तुम जानते ही न! जिद्दी आदमी कुछ भी कर सकता है। कुछ न कर पाए,संन्यासी हो जाता है।

बुद्ध कहते हैं, यह संकल्प नहीं हुआ। यह तो अहंकार का ही सूक्ष्म रूप है। सम्यक—संकल्प। ठीक—ठीक संकल्प का अर्थ यह है, किसी जिद्द के कारण संन्यास नहीं, बोध के कारण संन्यास, समझ के कारण संन्यास, होश से, जीवन की प्रौढ़ता से। जीवन को सब तरफ से परख कर,परिपक्वता से। संकल्प तो हो, लेकिन जिद्दी संकल्प नहीं चाहिए। आग्रहपूर्वक नहीं चाहिए। निराग्रही संकल्प।

फर्क समझना। मेरे पास एक युवक आया और उसने कहा कि मैं तो संन्यास लेकर रहूंगा। मैंने पूछा, बात क्या है? संन्यास किसलिए लेना है? उसने कहा कि मेरे पिता इसके खिलाफ हैं। मतलब समझे आप? पिता खिलाफ है,, इसलिए वह लेना चाहता है। वह कहता है, मैं लेकर रहूंगा। मैंने उसको समझाया कि अगर तेरे पिता खिलाफ न हों, फिर तू लेगा? उसने कहा, फिर मैं सोचूंगा।

जिद्द के कारण संन्यास ले रहा है। अहंकार को 'एक चोट लग गयी है, बाप कहता है, नहीं लेना। बाप भी जिद्दी है। ठीक बाप का ही बेटा है, उन्हीं का बेटा है, उन्हीं जैसा है, उन्हीं का फल है। बाप जिद्दी है कि संन्यास नहीं लेना, बेटा जिद्दी है कि लेकर रहूंगा, कि बाप को मजा चखाकर रहूंगा।

अब यह अगर संन्यास ले लेगा तो यह असम्यक संकल्प हुआ। यह ठीक संकल्प नहीं है। मैंने उससे कहा कि तू रुक, मैं तुझे संन्यास नहीं दूंगा। तू यह बात छोड़ दे, यह तौ बाप ने तुझे संन्यास लिवा दिया!

एक और घटना आप से कहूं। मेरे एक मित्र थे, एक युवती से उनका प्रेम था। दोनों का बडा प्रेम था—ऐसा कम से कम दिखलाते तो थे। दोनों के परिवार विपरीत थे और दोनों जिद्द में थे विवाह करने की। मैंने उनसे कहा, तुम थोड़ा सोच लो। कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह जितना प्रेम तुम्हें दिखायी पड़ता है इतना प्रेम नहीं है, सिर्फ एक जिद्द है, अपने परिवारों से टक्कर लेने' की। उन्होंने कहा कि नहीं—नहीं, हमारा प्रेम बहुत गहरा है। मैंने उन्हें कई बार समझाने की कोशिश की, वे मुझसे नाराज भी हो गए कि आप बार—बार यह बात क्यों उठाते हैं? मैंने कहा कि मुझे ऐसा लगता है कि जितना तुम प्रेम समझ रहे हो, इतना नहीं है। यह परिवारों का झगड़ा है। और विवाह के बाद तुम झंझट में पड़ सकते हो,क्योंकि जब विवाह हो जाएगा तो बात खतम हो गयी, परिवार से जो झगड़ा था वह तो समाप्त हो गया। नहीं—नहीं, उन्होंने तो जिद्द से कहा कि हमारा प्रेम है।

विवाह भी कर लिया। एक साल के बाद ही उन्होंने मुझे कहा कि हम भूल में थे। न मुझे लड़की से कुछ लेना—देना है, न लड़की को मुझसे कुछ लेना—देना है। बेटा ब्राह्मण घर का था, लडकी पारसी थी। न लड़की के घर वाले चाहते थे कि ब्राह्मण से शादी हो, ब्राह्मण के घर वाले तो चाह ही कैसे सकते हैं कि पारसी से शादी हो! वह बड़ा झगड़ा था। जिद्द अटक गयी थी। परिवार और बेटा—बेटियों के अहंकार में बड़ी कलह थी।

सालभर में सारा प्रेम बहु गया। जब प्रेम बह गया तो अड़चनें शुरू हो गयीं। जो झगड़ा परिवार से चल रहा था वह आपस में चलने लगा। झगडैल प्रवृत्ति के तो थे ही। पहले मां—बाप से लड़ रहे थे, अब तो कोई बात ही न रही, मां—बाप अलग ही पड़ गए। उन्होंने कहा, ठीक है, भूल ही गए, कि जब तुमने शादी कर ली तो अलग हो जाओ। अब जो इागडूा मां—बाप से लगा था, वह झगड़ा एक—दूसरे के प्रति लगने लगा। उस युवक ने आत्महत्या की, छह साल के भीतर। शराबी हो गया और आत्महत्या तक बात पहुंच गयी।

खयाल रखना, बुद्ध हमेशा अपने भिक्षुओं को कहते थे, सम्यक—संकल्प। किसी हठ के कारण नहीं, अपने बोध से, समझ से। आंतरिक उत्साह से लेना।

तीसरा अंग है, सम्यक—वाणी। बुद्ध कहते थे, जो जाने, वही बोले। और जैसा जाने, वैसा ही बोले, जरा भी अन्यथा न करे। और जो बोलने योग्य हो वही बोले, असार न बोले। क्योंकि बोलने से बड़ी उलझनें पैदा होती हैं। जीवन व्यर्थ के जालों में फंस जाता है। तुम जरा खयाल करना,कितनी झंझटें तुम्हारे बोलने की वजह से पैदा हो जाती हैं। किसी से कुछ कह बैठे, झगड़ा हो गया, अब झंझट बनी।

काश, तुम अपने बोलने को थोड़ा न्यून कर लौ तो तुम्हारे जीवन की नब्बे प्रतिशत झंझटें तो कम हो जाएं। इस दुनिया में जितने मुकदमे चल रहे हैं, झगड़े चल रहे हैं, सिर फोडे जा रहे हैं, वह असम्यक—वाणी के कारण हैं।

बुद्ध कहते थे, जिसे स्वयं को जानना है, उसे जितनी कम झंझटें जीवन में पैदा हों, उतना अच्छा है।

चौथा, सम्यक—कर्मांत। व्यर्थ के कामों में न उलझो। वही करो जिसके करने से जीवन का सार मिले। क्योंकि शक्ति सीमित है और समय सीमित है। हममें से अधिक लोग तो कुछ न कुछ करने में लगे रहते हैं। हम खाली बैठना जानते ही नहीं। कुछ करने को न हो तो हमें बडी बेचैनी होती है। तो हम अपनी बेचैनी को करने में उलझाए रखते हैं।

न मालूम क्या—क्या आदमी करता रहता है! तुम अगर खाली बैठे हो कमरे में तो तुम कुछ न कुछ करोगे, उठकर खिड़की खोल दोगे,अखबार पढ़ने लगोगे, रेडियो चलाओगे, कुछ न कुछ करोगे। कुछ न मिलेगा, सिगरेट पीने लगोगे। कुछ न कुछ करोगे। व्यस्त रहने में हम अपने पागलपन को छिपाए रहते हैं।

बुद्ध ने कहा, इस तरह की व्यस्तता महंगी है। धीरे— धीरे अव्यस्त बनो। वही करो, जो करना जरूरी है, जो नहीं करना जरूरी है, वह मत करो। अगर बेचैनी होती हो तो बेचैनी को जागरूक होकर देखो, धीरे— धीरे बेचैनी शांत हो जाएगी। और जो शक्ति बचेगी व्यर्थ के कामों से, उसे तुम सार्थक दिशा में मोड़ सकोगे।

पांचवां, सम्यक— आजीव। बुद्ध कहते थे, अपने जीने के लिए किसी का जीवन नष्ट करना अनुचित है। अब कोई कसाई का काम करता है,तो बुद्ध कहते, यह व्यर्थ है। इतना उपद्रव बिना किए आदमी अपना भोजन जुटा ले सकता है। वही करो जिससे किसी के जीवन को अहित न होता हो। क्योंकि जब तुम दूसरों का अहित करते हो तो तुम अपने अहित के लिए बीज बो रहे हो। फिर फसल भी कांटनी पड़ेगी। सम्यक —आजीव।

छठवा, सम्यक—व्यायाम। बुद्ध कहते थे, न तो बहुत सुस्त होओ और न बहुत कर्मी। मध्य में होओ। न तो आलसी बन जाए और न बहुत कर्मठ। क्योंकि आलसी कुछ भी नहीं करता और कर्मठ व्यर्थ कै काम करने लगता है। मध्य में चाहिए। सम्यक —व्यायाम। जीवन की ऊर्जा सदा संतुलित हो।

और सातवां बुद्ध का अंग है, सम्यक—स्मृति। सम्यक— ध्यान। होश रखकर जीए। स्मरणपूर्वक जीए। मैं क्या कर रहा हूं इसे देखते, जानते हुए करे। क्रोध उठे तो क्रोध के प्रति भी अपने होश को सावधानी से देखता रहे कि यह क्रोध उठा, यह क्रोध मुझे पकड़ रहा है, अब यह क्रोध मुझसे कह रहा है, मार दो इस आदमी के सिर में डंडा; इस सबको देखता रहे। और तुम चकित होओगे कि अगर तुम देखने में थोड़े सावधान हो जाओ तो जो व्यर्थ है, वह अपने आप होना बंद हो जाएगा, और जो सार्थक है, वही होगा। धीरे— धीरे यह स्मृति तुम्हारे चौबीस घंटे पर फैल जाएगी। उठते—बैठते तुम जागे—जागे चलोगे। और एक ऐसी घड़ी आती है कि रात सोए भी रहोगे तब भी तुम्हारे भीतर जागरण की धारा बहती रहेगी। एक सूत्र शुभ्र ज्योति की भांति तुम्हारे भीतर जागा रहेगा।

वही तो कृष्ण ने कहा है कि जब सब सो जाते हैं तब भी योगी जागता है—या निशा सर्वभूतानाम तस्याम जागर्ति संयमी। जागा रहता,इसका मतलब यह नहीं कि संयमी सोता ही नहीं, चलता कमरे में, बैठा रहता, अनिद्रा का बीमार रहता, ऐसा मतलब नहीं है। इसका मतलब इतना है कि नींद शरीर पर होती, भीतर चैतन्य का दीया जलता रहता है।

सम्यक—स्मृति का अर्थ है, जब चौबीस घंटे पर तुम्हारा ध्यान फैल जाए, बोध फैल जाए, तब तुम्हारी परिधि में जागरूकता आ गयी।

और फिर अंतिम घड़ी है, आठवां अंग, सम्यक—समाधि। बुद्ध समाधि में भी कहते हैं—सम्यक, ठीक समाधि। गैर ठीक समाधि उसे कहते हैं जिसे आदमी बेहोशी में पाता है।

तुमने देखा होगा कि कोई योगी जमीन में छिप जाता है, छह महीने के लिए समाधि ले लेता है। वह समाधि नहीं, उसको बुद्ध कहते हैं,असम्यक—समाधि। वह तो बेहोशी में पड़ा रहा। जैसे मेंढक छिप जाता है जमीन में और पड़ा रहता है गर्मी के दिनों में—आधा मुर्दा, बस नाममात्र को जीवित। फिर वर्षा आएगी, फिर मेंढक में प्राण आ जाएंगे। ऐसा ही योगी अपनी श्वास को रोककर मूर्च्छा में पड़ जाता है। उसे पता ही नहीं कि वह कर क्या रहा है। छह महीने पड़ा रहेगा, लोगों को चमत्कार भी मालूम पड़ेगा। छह महीने बाद जब वह उठेगा तो लोग बड़े चमत्कार से भर जाएंगे, बड़ी श्रद्धा और पूजा करेंगे।

लेकिन यह कोई समाधि नहीं है। यह तो अपने शरीर और अपने मन के साथ एक तरकीब, अपने को ग्रच्छइrत करने की योजना। इससे कोई सत्य को कभी नहीं जान पाया है। ऐसा होता तो मेंढक कभी के सब सत्य को उपलब्ध हो गए होते। ऐसे साइबेरिया में सफेद रीछ होते हैं,वे भी यही करते हैं। छह महीने के लिए मुर्दे की तरह पड़ जाते हैं। श्वास बिलकुल ठहर जाती है। तो श्वास की तरकीब है यह। इस तरकीब से कुछ समाधि का संबंध नहीं है।

सम्यक—समाधि का अर्थ है, होशपूर्वक स्वयं के केंद्र पर विराजमान हो।

ये दो अंतिम चरण सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। सम्यक—स्मृति परिधि पर। जीवन के कर्म की जो परिधि है—करते, उठते, बैठते, चलते, बात करते, मिलते, होश रखे। फिर धीरे— धीरे यही होश केंद्र पर आने लगेगा। फिर धीरे— धीरे आंख बंद करके भीतर होश का दीया जलता रहे, उसी दीए के साथ तुम एक हो जाओगे, होशपूर्वक स्वयं में प्रविष्ट कर जाना सम्यक—समाधि।

इसको आर्य— अष्टांगिक मार्ग बुद्ध ने कहा।

बुद्ध ने कहा, भिक्षुओ!

मग्‍गानट्ठंगिको सेट्ठो।

अगर श्रेष्ठ मार्ग की ही बात करनी है, अरे तो पागलो, आर्य—अष्टांगिक मार्ग की बात करो, इतना तो तुम्हें समझाया है! यह तुम किन मार्गों की बात करते हो?

सच्चानं चतुर पदा।

अगर सच्चे, श्रेष्ठ लोगों की बात करनी है, तो चार आर्य—सत्यों की बात करो, जो मैंने तुम्हें बार—बार समझाए हैं : कि दुख है, कि दुख के कारण हैं, कि दुख के कारणों से मुक्त होने के उपाय हैं, कि दुख से मुक्त होने की अवस्था है, दुख—निरोध की अवस्था है, निर्वाण है, इनकी चर्चा करो।

विरागो सेट्ठो धम्माना।

अगर श्रेष्ठ धर्म की बात करनी है तो विराग की बात करो, यह क्या राग की बात कर रहे हो!

विरागो सेट्ठो धस्माना।

वैराग्य श्रेष्ठ धर्म है। विराग के गीत गाओ, एक—दूसरे को विराग समझाओ, एक—दूसरे के जीवन में विराग लाओ, एक—दूसरे की धीरे— धीरे समझ इतनी गहरी करो कि जहां—जहां राग के बंधन हैं, टूट जाएं, विराग की स्वतंत्रता उपलब्ध हो।

द्विपदानंच चक्‍खुमा।

और यह आखिरी बात तो बड़ी अदभुत है। बुद्ध कहते हैं, सुंदर स्त्री—पुरुषों की बात कर रहे हो? सौंदर्य तो केवल एक घटना में घटता है :

द्विपदानंच चक्‍खुमा।

उसमें सौंदर्य घटता है, इन दो पैरों वाले जानवर में, आदमियों में वही सुंदर है जिसके पास आंखें हैं। जो आंखों को उपलब्ध हो गया। जो चक्षुष्मान हो गया। और तो सब अंधे हैं, जो बुद्ध हो गया, जिसके भीतर ध्यान की आंख खुल गयी, वही सुंदर है। और तो सब असुंदर ही हैं। और तो सब लाशें हैं। और तो सब मांस—मज्जा हैं। और तो सब आज नहीं कल मिट्टी में गिरेंगे और खो जाएंगे।

द्विपदानंच चक्‍खुमा।

आंख वालों की चर्चा करो। बुद्ध यह कह रहे हैं कि मैं यहां बैठा तुम्हारे सामने आंख वाला, तुम अंधों के सौंदर्य की बात कर रहे हो!

एसोव मग्‍गो नत्‍थज्‍जो दस्‍सनस्‍स विसुद्धियां।

एतं हि तुम्‍हें पटिवज्‍जथ मारस्‍सेतंपरमोहंतं।।

'दर्शन की विशुद्धि के लिए यही मार्ग है; दूसरा मार्ग नहीं। इसी पर तुम आरूढ़ होओ; यही मार को ग्रच्छइrत करने वाला है। '

इसी से तुम्हारा शैतान मन हारेगा, अन्यथा नहीं हारेगा। तुम अपने शैतान मन को तो बड़े उपाय दे रहे हो, बाहर की बातें कर रहे हो,इससे तो शैतान मन और मजबूत होगा।

मार बुद्ध—परंपरा में शैतान के लिए दिया गया नाम है। शैतान तुम्हें मार रहा है, प्रतिपल मार रहा है, शैतान तुम्हें मारे डाल रहा है। और यह शैतान कोई बाहर नहीं, तुम्हारा मन है। यह मन तुम्हें बाहर ले जाता है, भटकाता है, इस मन से सावधान होओ।

एसोव मग्‍गो नत्‍थज्‍जो दस्‍सनस्‍स विसुद्धियां।

ऐसे जागोगे तो धीरे— धीरे तुम्हारे भीतर दर्शन की विशुद्धि पैदा होगी, तुम्हारे पास विशुद्ध आंखें आएंगी। उन विशुद्ध आंखों से सत्य जाना जाता है, जीआ जाता है, फिर जीवन—रसधार बहती है।

एतं हि तुम्‍हें पटिपन्‍ना दुक्‍खस्‍संतं करिस्‍सथ।

अक्‍खातो वे मया मग्‍गो अज्‍जाय सल्‍लसंथनं।।

'इस मार्ग पर आरूढ़ होकर तुम दुखों का अंत कर दोगे। शल्य—समान दुख का निवारण करने वाला जानकर मैंने इस मार्ग का तुम्हें उपदेश किया है। '

बुद्ध कहते हैं, मैं कोई दर्शनशास्त्री नहीं हूं मैं कोई दार्शनिक नहीं हूं मैं तो एक वैद्य हूं। मैंने यह मार्ग तुम्हें कहा है सिर्फ इसलिए कि इसके द्वारा तुम दुखों के निरोध को उपलब्ध हो जाओगे, तुम्हारी बीमारियां छूट जाएंगी, तुम स्वस्थ हो जाओगे।

अक्‍खातो वे मया मग्‍गो।

मैंने तो इसीलिए सिर्फ यह उपदेश दिया है अष्ट अंगों वाले मार्ग का, चार आर्य—सत्यों का, आंख वाले बुद्धत्व को पाने का, कि तुम दुख के पार हो जाओ।

तुम्‍हेंहिकिच्‍चं आतप्‍पं अक्‍खातारो तथागता।

पटिपन्‍ना पमोक्‍खंति झायिनो मारबंधना ।।

और उद्योग तो तुम्हें ही करना है, तथागत का काम तो उपदेश करना है। इस मार्ग पर आरूढ़ होकर ध्यानपरायण पुरुष मार के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं। '

यह बुद्ध की बड़ी प्रसिद्ध सूक्तियों में से एक है—

तुम्‍हेंहिकिच्‍चं आतप्‍पं।

चलना तो तुम्हें ही होगा, मैं तो सिर्फ इशारा कर सकता हूं। जाना तो तुम्हें ही होगा, मैं तो सिर्फ मार्ग की तरफ इंगित कर सकता हूं। बुद्धपुरुष तो केवल इशारा करते हैं। और तो क्या कर सकते हैं! बुद्धपुरुष तुम्हें निर्वाण नहीं दे सकते, सिर्फ निर्वाण की तरफ इंगित कर सकते हैं,फिर चलना तुम्हें ही होगा। निर्वाण कोई किसी को दे नहीं सकता। यह तो स्वयं ही खोजना पड़ता है, यह तो आत्मखोज है।

तुम्‍हेंहिकिच्‍चं आतप्‍पं

तुम्हें चलना होगा। और तुम बाहर के मार्गों की बात कर रहे हो और तुम्हें चलना है भीतर के मार्ग पर। और तुम बाहर के सौंदर्य की चर्चा कर रहे हो और तुम्हें दर्शन करने हैं भीतर के सौंदर्य के। तुम मुझ पर भरोसा करके मत बैठो। मैं तुम्हें न ले जा सकूंगा।

अक्खातारो तथागता।

मैं तो सिर्फ जो मैंने जाना है, जैसे मैंने जाना है, उतना तुमसे कह दूंगा, फिर यात्रा तो तुम्हें ही करनी होगी। चलना तो तुम्हें ही होगा,तुम्हारे ही पैरों से चलना होगा। तुम्हारी ही आंखों से तुम्हें देखना होगा। मेरे खाए तुम्हारा पेट न भरेगा और न मेरे देखे तुम्हारा दर्शन खुलेगा। मेरे चले तुम कैसे चलोगे! इस सत्य की यात्रा पर प्रत्येक को अपने ही पैरों से जाना होता है। यह यात्रा बड़ी अकेली है। एक—एक की है। ही,बुद्धपुरुष इशारा कर सकते हैं, नक्यग़ दे सकते हैं, समझा सकते हैं, क्योंकि जहां से वे चले हैं उन मार्गों की तुम्हें खबर दे सकते हैं।

पटिपन्‍ना पमोक्‍खंति झायिनो मारबंधना ।।

इस मार्ग पर अगर तुम आरूढ़ हो जाओ, इस भीतर के मार्ग पर तुम ध्यानपरायण हो सको, तो मार के बंधनों से मुक्त हो जाओगे। तो यह मन तुम्हारा जो शैतान की तरह तुम्हें बाहर भटका रहा है, इससे तुम्हारा छुटकारा हो सकता है। लेकिन चलना होगा, श्रम करना होगा। और यह ऊर्ध्वगमन है, जैसे पहाड़ पर कोई ऊपर चढ़ता है, यह कष्टसाध्य है। पहाड़ से कोई नीचे उतरता है, इतना कष्टसाध्य नहीं है। इसीलिए तो वासना आसान है, समाधि कठिन है।

वही ऊर्जा वासना में जाती है, वही ऊर्जा समाधि में, लेकिन समाधि कठिन है। क्योंकि समाधि में ऊपर की तरफ यात्रा करनी होती है, और वासना में नीचे की तरफ। जैसे पत्थर को धक्का दे दो पहाड़ पर, अपने आप फिसलता हुआ, गिरता हुआ, लुढ़कता हुआ खाई—खंदकों में पहुंच जाएगा। लेकिन इतना सा धक्का देने से पहाड़ की चोटी पर नहीं पहुंच जाएगा। चोटी पर तो ले जाने में श्रम करना होगा, पसीना बहेगा। इस श्रम करने के कारण ही बुद्ध ने अपने मार्ग को श्रमण कहा है।

भारत में दो संस्कृतिया हैं। एक संस्कृति का नाम ब्राह्मण—संस्कृति, एक संस्कृति का नाम श्रमण—संस्कृति। दोनों का मौलिक भेद इतना ही है, ब्राह्मण—संस्कृति की मान्यता है कि प्रभु के प्रसाद से मिलता है सब। तुम प्रार्थना करो, प्रभु की अनुकंपा होगी तो मिलेगा। श्रमण—संस्कृति का कहना है, कोई प्रभु नहीं है देने वाला, तुम श्रम करो तो मिलेगा। इसलिए ब्राह्मण—संस्कृति में प्रार्थना केंद्रीय है और श्रमण—संस्कृति में ध्यान केंद्रीय है

सुनते हो, बुद्ध कहते हैं

पटिपन्ना पमोक्खंति झायिनो मारबंधना।

'इस मार्ग पर आरूढ़ होकर ध्यानपरायण पुरुष...। '

हिंदू—संस्कृति या ब्राह्मण—संस्कृति कहती है, ईश्वरपरायण बनो; बुद्ध कहते हैं, ध्यानपरायण बनो, ईश्वर कहा है? किसी दूसरे के सहारे मत बैठे रहो, कोई तुम्हें मुक्त करने न आएगा। उठो, तुम्हारे ही पैरों पर भरोसा करो, अपने आत्मबल को जगाओ, अपने आत्मविश्वास को जगाओ—अप्प दीपो भव, अपने दीए बनो।

बुद्ध कहते हैं, मैंने तो सार—सूत्र कह दिए, इशारे बता दिए, अब तुम यह मत सोचो कि इन इशारों को सुन लिया तुमने तो पहुंच गए। समय मत गवाओ, समय थोड़ा है। व्यर्थ की बातों में मत पड़ो और बाहर के मार्गों की चर्चा में मत उलझो। क्योंकि जिस चर्चा में तुम उलझोगे,आज नहीं कल उस मार्ग पर चल पड़ोगे।

भीतर के मार्ग की चर्चा करो, भीतर के मार्ग के संबंध में विमर्श करो, भीतर के मार्ग के संबंध में एक—दूसरे से समझो—कोई तुमसे दो कदम आगे गया है, कोई दो कदम पीछे है—इस भीतर के मार्ग की, इस भीतर के मार्ग पर खड़े हुए वृक्षों की, इस भीतर के मार्ग पर बने हुए सरोवरों की, इनकी बातें करो।

बुद्ध ने एक छोटी सी घटना को एक बड़े महत्वपूर्ण उपदेश का आधार बना लिया। बुद्ध ने ऐसी ही छोटी—छोटी घटनाओं को बड़े अदभुत प्रसंगों में बदल दिया है। बुद्ध जैसे पुरुष मिट्टी को छूते हैं तो सोना हो जाता है।

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दूसरा सूत्र—

'मनुष्य भय के मारे पर्वत, वन, उद्यान, वृक्ष और चैत्य आदि की शरण में जाता है। लेकिन यह शरण मंगलदायी नहीं है, यह शरण उत्तम नहीं है, क्योंकि इन शरणों में जाकर सब दुखों से मुक्ति नहीं मिलती।'

आदमी भय के कारण ही भगवानों की पूजा कर रहा है। भय के कारण उसने मंदिर बनाए, भय के कारण प्रार्थनाएं खोज

कभी वृक्ष की पूजा करता है, कभी पत्थर की पूजा करता है, लेकिन गौर से देखना! कभी मंदिर में मुर्ति रखकर पूजा करता है, कभी मस्जिद में बिना मूर्ति के पूजा करता है, लेकिन गौर से देखना! मंदिर में, कि मस्जिद में, कि गुरुद्वारे में, कि चैत्यालय में, कि शिवालय में, कि गिरजे में, आदमी भय के कारण ही घुटने टेके खड़ा है। और बुद्ध कहते हैं, जो भय के कारण घुटने टेके खड़ा है, वह सत्य को कभी भी न जान पाएगा।

'यह उत्तम शरण नहीं है, यह मंगलदायी शरण नहीं है, क्योंकि इन शरणों में जाकर सब दुखों से मुक्ति नहीं मिलती है।'

यह सूत्र एक विशिष्ट परिस्थिति में बुद्ध ने कहा। कब गाथा कही, उसे समझ लें—

कौशल— नरेश प्रसेनजित के पिता का अभिदत्त नामक ब्राह्मण पुरोहित था। जब कौशल— नरेश के पिता का देहांत हो गया तब वह कौशल— नरेश के सत्कार— सम्मान करने पर भी घर— द्वार छोड्कर परिव्राजक बन गया। वह पंडित अग्निदत्‍त। उसके पांडित्य की कीर्ति तो चारों ओर फैली ही थी अब इस महात्याग ने तो सोने में सुगंध का काम किया। अत: वह थोड़े ही दिनों में हजारों शिष्यों से घिर गया। वह घूम— घूम कर उपदेश देता— तीर्थों की शरण जाओ पवित्र नद— नदियों की शरण जाओ मूर्ति— मंदिरों की शरण जाओ, मुर्ति— स्मृतियों की शरण जाओ,यज्ञ विधि— विधानों की शरण जाओ, ऐसे परम आनंद को उपलब्ध होओगे। ऐसी उसकी शिक्षा थी।

न तो स्वयं आनंद को उपलब्ध हुआ था, न उसे पता था कि आनंद को उपलब्ध होने का क्या मार्ग है। पंडित था बड़ा, शास्त्र पढ़े थे,विधि—विधान, यश का बोध था उसे, क्रियाकांडी था, शास्त्रों का उल्लेख कर सकता था, शास्त्रों के उद्धरण दे सकता था। स्मृति उसकी बड़ी प्रखर थी। सम्राट का पुरोहित था, तो वैसे ही प्रतिष्ठित था, और जब सब त्याग कर दिया उसने, तब तो उसकी प्रतिष्ठा का क्या कहना! हजारों लोग उसके शिष्य होने लगे। न केवल वह यह कहता कि नदी, पहाड़ों, मंदिरों, मूर्तियों, श्रुति—स्मृतियों—शास्त्रों की शरण जाओ, वह बुद्ध के विपरीत भी कहता।

बुद्ध के विपरीत कहने का कारण बिलकुल साफ था। क्योंकि एक तो बुद्ध कहते, न कोई ब्राह्मण है, न कोई शूद्र है, न कोई क्षत्रिय, न कोई वैश्य, आदमी बस आदमी है। तो अग्निदत्त को यह बात तो पसंद न पड़ती—किसी ब्राह्मण को पसंद नहीं पड़ती, जब तक कि ब्राह्मण में थोड़ी समझ न हो। क्योंकि उसका तो मजा ही यही है कि और कोई ब्राह्मण नहीं है, मैं ब्राह्मण हूं। और बुद्ध ने तो बड़ी अनूठी बात कही, बुद्ध ने तो कहा कि सब पैदा होते से शूद्र ही होते हैं। सब शूद्र ही की तरह पैदा होते हैं, ब्राह्मण तो कोई कभी बन पाता है जब ब्रह्म को जानता है। जो ब्रह्म को जान ले, वह ब्राह्मण। ब्राह्मण कोई जन्म से नहीं होता, बोध से होता है। तो ब्राह्मणों को तो बहुत बात अखर रही थी।

फिर बुद्ध कहते थे, शास्त्रों में कुछ भी नहीं है। वेदों में कुछ भी नहीं है। जो है तुम्हारे चैतन्य में है। जो है तुममें है। यह बात भी बड़ी अखरने वाली थी। अगर तुम मुसलमान से कहो कि कुरान में कुछ भी नहीं है, वह नाराज हो जाएगा। अगर हिंदू से कहो, वेद में कुछ नहीं है,वह नाराज हो जाएगा। और की तो छोड़ो, अगर तुम बौद्ध से कहो, धम्मपद में कुछ भी नहीं, तो वह नाराज हो जाएगा। यद्यपि शास्त्र में कुछ भी नहीं है। जो है तुम्हारे चैतन्य में है। और जब तुम्हारे चैतन्य में जगता है, तो शास्त्र में भी दिखायी पड़ने लगता है। और जब तक चैतन्य में न जगे, कोई शास्त्र तुम्हें जगा नहीं सकता है।

तो बुद्ध शास्त्र—विरोधी हैं; वर्ण—विरोधी, आश्रम —विरोधी। क्योंकि बुद्ध ने कहा कि जिसको भी संन्यास लेना है, तब वह एक क्षण की देर न करे। हिंदू तो कहते थे, बुढ़ापे में लेना संन्यास। उन्होंने तो आश्रम बांट रखे थे—पच्चीस साल तक ब्रह्मचारी रहो, फिर पच्चीस साल तक गृहस्थ रहो, फिर पच्चीस साल तक वानप्रस्थ रहो, फिर अगर बच रहे, पचहत्तर साल के बाद अगर बच रहे, तो संन्यासी हो जाओ।

ऐसा लगता है कि यह तो बहुत मुश्किल था। क्योंकि वैज्ञानिक खोजों से पता चलता है कि पुराने जमाने में, आज से पांच हजार साल पहले, अधिक से अधिक उम्र तक आदमी चालीस साल तक पहुंचता था। कभी—कभी कोई इसके पार जाता था। बहुत मुश्किल से इसके पार जाता था। हड्डियां मिली हैं जो अब तक खोजों से, उनमें कभी भी चालीस साल से पुरानी हड्डी नहीं मिली।

तो यह तो बात बड़ी उलझन की थी। कभी—कभी होता था, कोई आदमी अस्सी जीता था, कोई सौ भी जीता था। वह अब भी होता है। अब भी कोई आदमी अस्सी जीता है, कोई सौ जीता है, लेकिन औसत उम्र तो अब भी वहीं अटकी हुई है। हिंदुस्तान में औसत उम्र चौंतीस साल है, अभी भी। इतनी वैज्ञानिक औषधियों की खोज के बाद भी।

तो औसत उम्र चालीस साल से ज्यादा नहीं थी। तो सौ साल का होना तो बड़ी देर की बात थी, बड़ी मुश्किल बात थी। पहले तो पचहत्तर के जब तुम हो जाओगे तब संन्यास की आज्ञा थी, तो संन्यासी कौन हो पाता! कोई बिलकुल बूढ़े—ठूढे, बच गए अगर, अगर जिंदगी ने न मार डाला, तो। और वह भी अनिवार्य तो नहीं। क्योंकि मैं पचहत्तर साल के लोगों को भी देखता हूं वे भी अभी सोच नहीं रहे संन्यास की। बुद्ध ने यह धारा तोड़ दी।

बुद्ध ने कहा, यह सब तो आदमियों को वंचित रखना है। जिसको जब संन्यासी होना हो। अगर दस साल का बच्चा संन्यासी होना चाहता है, तो बुद्ध ने कहा, मैं संन्यास दूंगा। क्योंकि कौन तय कर सकता है कि कल वह बचेगा कि नहीं?

मेरे से लोग आकर पूछते हैं कि आप छोटे बच्चे को संन्यास दे देते हैं! मैं कहता हूं सवाल यह है कि अगर वह कल बचेगा इसका पक्का हो, तो कल दे देंगे, लेकिन कल का कुछ भी पक्का नहीं है। परसों का कुछ भी पक्का नहीं है। समय तो यूं बहा जा रहा है और कभी भी मौत आ सकती है। और मौत कोई आश्रम को मानती नहीं कि हम सौ साल के बाद आएंगे। क्योंकि मौत कोई हिंदू थोड़े ही है!

तो बुद्ध ने कहा, जिसको जब संन्यास लेना है, जिस घड़ी, वह उसी घड़ी संन्यास ले ले। यह बड़ी उपद्रव की बात थी। इससे पूरा हिंदू ढांचा अस्तव्यस्त हो गया। वर्ण तुड़वा दिए, आश्रम तुड़वा दिए। वर्णाश्रम तो हिंदू— धर्म का आधार है।

तो नाराज थे पंडित, नाराज थे ब्राह्मण, नाराज थे पुरोहित। और उनका सब व्यवसाय ही छीन लिया। क्योंकि पुरोहित जीता ही इस बात पर है, ब्राह्मण जीता ही इस बात पर है कि शास्त्र सुनो, सत्यनारायण की कथा करवाओ—इससे सब हो जाएगा—कि गंगा जाओ, त्रिवेणी पर नहाओ, कुंभ मेले में जाओ—सब हो जाएगा, पाप धुल जाएंगे—कि पत्थर की पूजा करो, कि मंदिर की पूजा करो, ऐसे ब्राह्मण जीता रहा है। यह उसका व्यवसाय है।

तो बुद्ध ने तो जड़ काट दी, सारा व्यवसाय उखाड़ दिया। बुद्ध कहते हैं, अपने भीतर जाओ! अपने भीतर जाने के लिए किसी पुरोहित की कोई जरूरत नहीं है। बुद्ध कहते हैं, तुम्हारा भगवान तुम्हारे भीतर। किसी को बीच में लेने की आवश्यकता नहीं है। इशारा समझ लो और अंदर चले जाओ।

तो नाराज था वह। और जैसा बुद्ध कहते थे, बुद्धत्व की शरण जाओ। ऐसा वह कहता था, बुद्धत्व की शरण से क्या होगा, तुम शास्त्र की शरण जाओ, परंपरा की शरण जाओ।

एक बार यह अग्निदत्त अपने शिष्यों सहित श्रावस्ती के पास विहार कर रहा था और भगवान बुद्ध भी श्रावस्ती में विराजमान थे। तो भगवान ने अपने एक प्रमुख शिष्य मौद्गलायन को बुलाकर कहा— मौद्गलायन भगवान के जीते जी संबोधि को उपलब्ध हो गया था; वह परमज्ञान को उपलब्ध हो गया था— तो उन्होंने मौद्गलायन को बुलाकर कहा कि जाओ इस बेचारे अग्निदत्त को भी जगाओ! फिर अगर जरूरत पड़ी तो मैं भी आऊंगा। तो मौद्गलायन गए।

लेकिन सोयों को जगाना इतना आसान तो नहीं। फिर सोए हुए पंडित हों तो और भी मुश्किल है। और फिर उनके पास शिष्यों की भीड़ हो तब तो फिर करीब— करीब असंभव है। लेकिन भगवान ने कहा तो मौद्गलायन गए। अग्निदत्त ने तो उनमें जरा भी रुचि न ली। उसने तो उनसे बैठने को भी न कहा। वह तो विवाद पर तैयार हो गया। वह तो विवाद करने न आए थे। वह तो कोई संदेश देने आए थे लेकिन वह संदेश सुनने को भी राजी न था। ऐसे बातचीत में रात हो गयी तो मौद्गलायन ने कहा कि मुझे कम से कम रात तो आपके आश्रम में रुक जाने दें। लेकिन अग्निदत्त ने कहा इस आश्रम में इस तरह के लोगों के रुकने की कोई संभावना नहीं। तुम भ्रष्ट हो और तुम दूसरों को भ्रष्ट करना चाहते हो।

एक बुद्धपुरुष को भी देखकर पंडित पहचान न सका, पंडित की आंखें ऐसी अंधी होती हैं। शास्त्रों से इतनी भरी होती हैं कि सामने ज्योति खड़ी हो तो भी दिखायी नहीं पड़ती।

मजबूरी थी तो मौद्गलायन पास में ही बालुका की एक राशि पर नदी के किनारे जाकर सो रहे। ठंडी रात थी। और अग्निदल और उसके शिष्य बड़े प्रसन्न हुए क्योकि उस बालुका राशि पर कोई जाता नहीं था वहां एक नागराज का निवास था। और वह नागराज बड़ा खतरनाक था। और आदमी वहां पहुंच जाए तो खतम ही जिंदा वहां से कोई लौटता नहीं था। तो उन्होंने सोचा चलो झंझट टली! और यह भी कैसे आदमी को बुद्ध ने भेजा जिसको इतना भी बोध नहीं है कि कहां सोने जा रहा है! यहां मौत आएगी।

सुबह तो जल्दी— जल्दी शिष्य उठे अग्निदल के और देखने गए कि देखें मरा हुआ पड़ा होगा बेचारा! वहां जाकर देखे तो चकित हो गए। वह तो ध्यान लगाए बैठे हैं और नागराज अपना फन उनके ऊपर किए रक्षा कर रहा है। चकित! भागे सभी शिष्य। अग्निदत्त अकेला रह गया अपने आसन पर बैठा। उसे बड़ा बुरा भी लगा बड़ी ग्लानि भी हुई और उत्सुकता भी जगी वह भी देखना चाहता था— था तो वैसा ही जैसे बच्चे होते हैं कोई बोध तो उसे था नहीं। उत्सुकता कुतूहल वह भी पीछे से आया। चुपचाप आकर देखा हुआ चमत्कृत! मौद्गलायन को देखकर जो जरा भी प्रभावित न हुआ था वह भी इस चमत्कार को देखकर प्रभावित हुआ। मूढ़ों के प्रभावित होने के अपने ढंग होते हैं। सारे शिष्य मौद्गलायन के चरणों में गिर पड़े। खैर अग्निदत्त इतनी हिम्मत तो नहीं किया लेकिन दुखी बहुत हुआ। नाराज भी बहुत मन में हुआ कि ये शिष्य उसके चरण में हक रहे हैं।

तभी बुद्ध का आगमन हुआ। जब बुद्ध आकर खड़े हो गए मौद्गलायन ने आंखें खोली वह उनके चरणों में गिरा— मौद्गलायन अपने गुरु के चरणों में गिरा। तब तो शिष्य बडे हैरान हुए। उन्होंने कहा कि जब यह शिष्य इतना चमत्कारी तो इसके गुरु का क्या कहना! वे सब बुद्ध के चरणों में गिरे।

अग्निदत्त ने डरते— डरते बुद्ध से पूछा कि यह चमत्कार क्या है? बुद्ध ने कहा कि यह चमत्कार दूसरी तरफ से सोचो इससे भी बड़ा चमत्कार हुआ कि तुम मनुष्य हो और न पहचान सके और सर्प ने पहचान लिया।

इधर सोचो। आदमी कैसा गया—बीता हो सकता है! पशु पहचान लेता है कभी—कभी, क्योंकि पशु निर्मल होता है, निर्दोष होता है। पशु को न तो वेद मालूम हैं, न पुराण मालूम हैं; न पशु हिंदू है, न मुसलमान है, न ईसाई है, पशु सरल है। यह नाग भी पहचान सका। यह तरंग जो मौद्गलायन के आसपास है, यह नाग भी पहचान सका।

और अक्सर नाग पहचान लेते हैं। इस बात को तुम चमत्कार ही मत समझना, यह कोई पहली दफे घटी घटना नहीं है, यह भारत में बहुत दफे घटी है। बहुत से जैन तीर्थंकरों के साथ घटी है। यह बहुत बार घटी है। नाग में कुछ खूबियां हैं!

तुम चकित होओगे यह बात जानकर कि वैज्ञानिक कहते हैं कि नाग के पास कान नहीं होता। इसलिए पहले तो वैज्ञानिक बहुत हैरान हुए थे यह बात जानकर कि जब मदारी अपनी तूंबी बजाता है, तो नाग फन क्यों हिलाने लगता है? क्योंकि उसके पास कान तो है ही नहीं, तो ध्वनि तो सुन ही नहीं सकता नाग। नाग तो बिलकुल बहरा है, बज बहरा, ध्वनि तो उसके भीतर पहुंच ही नहीं सकती, तो वैज्ञानिक तो बड़े हैरान थे कि मामला क्या है! तो पहले तो उन्होंने सोचा कि शायद वह मदारी जो अपना सिर हिलाता है, उसको देखकर नाग भी सिर हिलाने लगता है—क्योंकि सुन तो सकता ही नहीं है।

तो फिर उन्होंने मदारियों से तूंबी बजवायी और कहा कि सिर मत हिलाना और तूंबी मत हिलाना, लेकिन नाग ने तब भी फन हिलाए। तब खोजबीन और आगे बढ़ी। अब तथ्य समझ में आ गया है। नाग के पास कान तो नहीं हैं, लेकिन उसका पूरा शरीर इतना संवेदनशील है कि ध्वनि को पकड़ता है—पूरा शरीर। ऐसा कहो कि उसका पूरा शरीर कान का काम करता है। कान भी है तो चमड़ी ही, हड्डी और चमड़ी। तुम्हारा छोटा सा कान सुनता है, उसका पूरा शरीर सुनता है—अलग से कान की उसे जरूरत नहीं है। यह नवीनतम खोज है।

और भारत में यह अनुभव बहुत बार हुआ है कि बुद्धपुरुषों के पास, जहां आदमी नहीं पहचान पाए, वहां नाग पहचान गए। क्योंकि बुद्धपुरुषों की जो तरंग है, उनके आसपास जो विद्युत है, वह जो सूक्ष्म लहर है, वह लहर नाग का पूरा शरीर पकड़ लेता है। वह मस्त हो जाता है। वह डूब जाता है।

हिंदुओं ने इसलिए नाग की पूजा शुरू की, क्योंकि नाग अनूठा है। ऐसा कोई दूसरा पशु—पक्षी या जानवर नहीं, जैसा नाग है। उसमें कुछ खूबियां हैं। और सबसे बड़ी खूबी यह है कि बुद्धपुरुषों के पहचान की क्षमता है उसमें। जो बुद्धपुरुषों को पहचान लेता हो, उसमें कुछ न कुछ बुद्धत्व की किरण होनी चाहिए।

बुद्ध ने कहा:

पागल तू इससे प्रभावित हो रहा है लेकिन यह नहीं सोचता कि मौद्गलायन तेरे पास आया मैने उसे भेजा और तू अंधे की तरह रहा तूने देखा नहीं। ऐसी अवस्था में अग्निदत्त किंकर्तव्यविमूड बुद्ध के सामने खड़ा रह गया। एक मन झुकने का होने लगा एक मन अकड़ने का। ब्राह्मण कैसे हक जाए क्षत्रिय के पैर में? पंडित ज्ञानी अपने को मानता शु इतने शिष्य कैसे हक जाए? लेकिन भीतर अमृत से परिचय मौत के क्षरा निस्तरंग चित्त पर कोई चीज झुकने को भी होने लगी।

तब बुद्ध ने पूछा कि अग्निदत्त तेरी शिक्षा का सार क्या है? तू लोगों को क्या समझाता है? तो उसने अपना सूत्र दोहराया— तीर्थों की शरण जाओ पवित्र नद— नदियों की शरण जाओ मूर्ति— मंदिरों की शरण जाओ मुर्ति— स्मृतियों की शरण जाओ यश— विधि— विधानों की शरण जाओ ऐसे परम आनंद को उपलब्ध होओगे। बुद्ध ने कहा पागल इन शरणों से कोई कभी दुख से छुटकारा पाया है। तूने पाया? तू अपनी कह तुझे दुख से छुटकारा मिला है? तेरे जीवन में आनंद की किरण उतरी है? और कम से कम एक बार बेईमानी मत कर। मैं तेरा साक्षी तेरे सामने खड़ा हूं तूने सुख पाया है? अपने भीतर देख! और जो तुझे नहीं मिला तो तेरी शिक्षा से दूसरों को कैसे मिल जाएगा?

काश, दुनिया के बहुत से गुरु इस बात को थोड़ा देख लें अपने भीतर, तो बहुत लोगों की भटकन बच जाए।

तब बुद्ध ने यह गाथा कही—

वहुं के सरणं यति पब्बतानि वनानि च ।

'मनुष्य भय के मारे पर्वत, वन, उद्यान, वृक्ष और चैत्य आदि की शरण में जाता है।'

आरामरुक्सचेत्यानि मनुस्सा भयतज्जिता ।।

यह सब भय के कारण हो रहा है, यह किसी समझ के कारण नहीं।

'लेकिन यह शरण मंगलदायी नहीं है।'

मनुष्य वृक्ष के सामने झुके, कि पहाड़ के सामने झुके, कि नदी के सामने झुके, इससे क्या होगा? मनुष्य बुद्धत्व के आगे झुके तो कुछ हो सकता है।

नेत खो सरण खेम नेत सरणमुतमं ।

नेत सरणमागम्म सबदुक्‍खा पमुच्चति ।।

'ऐसे दुखों से मुक्ति नहीं मिलती। '

'जो जागे हुओं की शरण में गया, जो जागे हुओं के समूह की शरण में गया और जो जागने के परमसूत्र धर्म की शरण में गया, जिसने आर्य—सत्यों को सम्यक प्रज्ञा से देख लिया, जिसने दुख, दुख की उत्पत्ति, दुख से मुक्ति और मुक्तिगामी आर्य अष्टांगिक मार्ग को देख लिया,वही सच्ची शरण गया। यही मंगलदायी शरण है, यही

‘उत्तम शरण है। इसी शरण को प्राप्त कर सभी दुखों से मुक्त हुआ जा सकता है।'

यो व बुद्धन्च धम्मज्च संघन्च सरण गतो ।

चत्तारि अरियसच्चानि सम्मप्पज्जाय पस्सति ।।

जो बुद्ध, संघ, धर्म की शरण गया, जिसने चार आर्य —सत्यों को प्रज्ञा से पहचाना, बोध से पहचाना।

दुक्खं दुक्यसमुप्पादं दुक्सस्स च अतिक्कमं ।

कि दुख है, कि दुख से मुक्ति है, कि दुख की उत्पत्ति का कारण है, कि दुख से उत्पन्न हुई अवस्था से पार जाने के लिए अष्टांगिक मार्ग है।

दुक्खं दुक्ससमुप्पादं दुक्सस्स व अतिक्कमं

अरियज्वद्वगिके मग्न दुश्वपसमगामिनं ।।

एतं खो सरणं खेमं एतं सरणमुत्तमं ।।

यह है ऊंची शरण। यह है झुकने योग्य झुकना। यह है समर्पण का द्वार।

एतं सरणमागम्मं सबदुक्सा पमुच्चति ।।

और तुझसे मैं कहता, अग्निदत्त, कि ऐसा करके कोई सब दुखों के पार हो जाता है, आनंद को उपलब्ध होता है।

जो आठ, बुद्ध ने आर्य — अष्टांगिक मार्ग कहा है, उस संबंध में थोड़ी सी बात समझ लेनी चाहिए।

पहला सूत्र है:

आठ अंगों में—सम्यक दृष्टि। जो है, वही देखना। जैसा है वैसा ही देखना। अन्यथा न करना। कोई धारणा बीच में न लानी। कामना,वासना धारणा को बीच में न लाना। जो है, जैसा है, वैसा ही देखना। अब यह अग्निदत्त बुद्ध के सामने खड़ा है, लेकिन जो है, जैसा है, वैसा नहीं देख रहा है। सोचता है यह क्षत्रिय है, सोचता है यह वेद—विरोधी है, ये धारणाएं हैं। नागराज पहचान सके मौद्गलायन को और अग्निदत्त चूक गया! कैसे चूका होगा? धारणाओं के कारण। काश, धारणाओं को हटाकर, धारणाओं के मेघों को हटाकर देखता, तो जो था वह उसे भी दिखायी पड़ जाता। इसको कहते हैं—सम्यक दृष्टि। दूसरा है—सम्यक संकल्प। हठ मत करना। अक्सर लोग हठ को संकल्प मान लेते हैं और हठी आदमी को कहते हैं, यह संकल्पवान है। जिद्दी को संकल्पवान कहते हैं। जिद्द को, हठ को संकल्प मत मान लेना। जिद्द तो अहंकार है। संकल्प में कोई अहंकार नहीं होता। हठ और संकल्प में यही फर्क है। हठ में असली मुद्दा अहंकार का है। आदमी कहता है, ऐसा करके दिखाऊंगा, ऐसा करके रहूंगा। क्या कर रहा है, इसकी बहुत फिकर नहीं है, लेकिन यह अहंकार का दावा है कि यह करके रहूंगा, नहीं कर पाया तो बड़ी ग्लानि हो जाएगी। धन में रस नहीं है, लेकिन धनी होकर दिखाना है। पद में रस नहीं है, लेकिन पदवान होकर दिखाना है। कुछ करके दिखाना है। यह जो बात है, यह असम्यक संकल्प है।

बुद्ध कहते हैं, सम्यक संकल्प का अर्थ होता है जो करने योग्य है, वह करना है। और जो करने योग्य है, उस पर पूरा जीवन दाव पर लगा देना है। लेकिन किसी अहंकार के कारण नहीं, वह करने योग्य है, इसलिए।

तीसरा है—सम्यक वाणी। जो है वही कहना। जैसा है, वैसा ही कहना। अन्यथा नहीं, बदलकर नहीं, ऊपर कुछ, भीतर कुछ, ऐसा नहीं। क्योंकि अगर तुम सत्य की खोज में चले हो, तो पहली तो शर्त पूरी करनी पडेगी कि तुम सच्चे हो जाओ। जो सच्चा हो गया है, सत्य का उसी से संबंध जुड़ेगा। जो झूठा है, उससे सत्य का संबंध न जुड़ सकेगा।

मैंने सुना है, एक छोटा बच्चा घर में आए मेहमानों से बोला, आप सब यहां मरने के लिए आए हैं क्या अंकल? चार वर्षीय राजू की यह बात सुनकर सब मेहमान हैरान रह गए। दादी ने तो बहुत डाटा राजू को और कहा कि यह क्या बोल रहा है? राजू ने कहा, मुझे क्या मालूम, मां ही कह रही थीं मुझे सुबह कि अगर मुझे पता होता कि ये सब यहां आकर मरेंगे तो मैं छुट्टियों में कहीं और चली जाती।

मेहमान घर में आता है, तो भाव कुछ, कहते कुछ, बताते कुछ। सुबह किसी को मिल जाते हो तो मन तो यह होता है—कहां से इस दुष्ट की शकल दिखायी पड़ गयी, मगर ऊपर से कहते हो कि दर्शन हुए बड़े दुर्लभ, बड़े दिनों में दिखायी पड़े, बड़ी कृपा हुई! और भीतर यह कि यह दुष्ट न दिखायी पड़ता तो अच्छा, पता नहीं मुकदमा जीतेंगे कि हारेंगे, यह सुबह से कहां दर्शन हो गए!

सम्यक वाणी का अर्थ होता है, जैसा है—चाहे जो भी कीमत चुकानी पड़े—पाखंड नहीं। अगर कोई बात पसंद नहीं पड़ती तो निवेदन कर देना कि पसंद नहीं पड़ती। अगर कोई बात पसंद पड़ती है तो निवेदन कर देना कि पसंद पड़ती है। झुठलाना मत। झूठे पाखंड अपने आसपास खड़े मत करना।

मुल्ला नसरुद्दीन का एक बहुत पुराना मित्र उसके घर आया। तपाक से मुल्ला उठा, पहले हाथ से हाथ मिलाया और फिर गले से गले मिला, फिर प्रसन्नता के अतिरेक में उसे गोद में उठाकर ड्राइंगरूम तक लाया। अंदर आया तो पत्नी ने कुढूकर पूछा कि मुल्ला, जब मेरी कोई सहेली आती तो तुम्हें जैसे सांप सूंघ जाता है। तब भी कभी प्रसन्न हुए हो इतना? मुल्ला ने कहा, भाग्यवान, कुछ मत पूछ! प्रसन्न तो इससे भी ज्यादा होता हूं, मगर प्रगट नहीं कर सकता। अगर तू कह दे कि प्रगट करने की छूट है, तो अगली दफा देखना। तेरी सहेली को जो पकडूगा,गोद में बिठाऊंगा तो छोडूंगा ही नहीं। मन तो यही होता है कि खूब प्रसन्न होए, लेकिन तेरे डर के कारण नहीं हो पाते।

तुम अपने जीवन में थोड़ा देखना, तुम कुछ हो भीतर, बाहर कुछ बताए चले जाते हो। धीरे— धीरे यह बाहर की पर्त इतनी मजबूत हो जाती है कि तुम भूल ही जाते हो कि तुम भीतर क्या हो। सम्यक वाणी का अर्थ होता है, धीरे — धीरे सभी अर्थों में, दृष्टि में, संकल्प में, वाणी में हृदय की अंतरतम अवस्था को झलकने देना।

चौथा है—सम्यक कर्मांत। वही करना जो वस्तुत: तुम्हारा हृदय करने को कहता है। व्यर्थ की बातें मत किए चले जाना। किसी ने कह दिया, तो कर लिया। अक्सर तुम करते हो ऐसा। पड़ोसी एक मोटर खरीद लाया, कार खरीद लाया, अब तुमको भी खरीदनी है। तुम्हें एक दिन पहले तक कोई कार नहीं खरीदनी थी, तुम बिलकुल मजे में जी रहे थे। अब एक झंझट आ गयी। पड़ोसी का अनुकरण करना है। अधिक लोग अनुकरण में ही मारे जाते हैं। सम्यक कर्मांत का अर्थ होता है, वही करना है जो तुम्हें करने योग्य लगता है। ऐसे हर किसी की बात में मत पड़ जाना, नहीं तो तुम्हारी छीछालेदर हो जाएगी। हजारों लोग हजारों ढंग के काम कर रहे हैं, अगर तुम हर दिशा में दौड़ने लगे, तो तुम्हारा कर्म धीरे — धीरे बिखर जाएगा। तुम्हारी धारा हजार खंडों में टूट जाएगी, तुम सागर तक न पहुंच पाओगे। सम्यक कर्मांत का अर्थ है, एक दिशा पर नजर रखना, जो तुम्हें करना है, वही करना। और— और दिशाओं में अपने जीवन— श्रम को मत बंट जाने देना। तब तुम्हारे भीतर एक समंजन,एक समरसता पैदा होगी।

अभी तो ऐसा है कि बहुत खंड हैं, कुछ कहते, कुछ सोचते, कुछ करते। आज कुछ करते, कल कुछ करते, परसों कुछ करने लगते। इधर एक मकान उठाना शुरू किया, फिर आधा छोड़ दिया, फिर दूसरा मकान बनाने लगे। इधर एक कुआ खोदा दो हाथ, फिर छोड़ दिया, फिर दूसरा कुआ खोदने लगे। ऐसे करते तो तुम बहुत हो, लेकिन फल हाथ नहीं आता। फल आने के लिए सातत्य चाहिए। मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान करना कई दफे शुरू करते हैं, फिर बंद हो जाता है। एक दिन करते, दो दिन करते, फिर टूट जाता है। फिर लौटते, फिर करते, फिर टूट जाता। तो फिर नहीं होगा। जीवन में एक सातत्य, एक संकल्प, जो चुना है करने के लिए उसे करते रहने का धीरज, प्रतीक्षा, सहिष्णुता। आज ही फल तो नहीं आ जाएगा। बीज बोए हैं तो वक्त लगेगा, प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, मौसम आएगा ठीक, अनुकूल, तब बीज अंकुरित होंगे, फिर वृक्ष बड़े होंगे, वर्षों लगेंगे तब कहीं फल होंगे—प्रतीक्षा करनी होगी।

पांचवां है—सम्यक आजीव। बुद्ध कहते हैं, हर किसी चीज को आजीविका मत बना लेना। अब कोई आदमी कसाई बनकर अपनी रोटी कमा रहा है। यह भी कोई कमाना हुआ! रोटी ही कमानी थी, हजार ढंग से कमा सकते थे, कसाई होने की क्या जरूरत थी? यह बड़ी असम्यक आजीविका है। कि कोई स्त्री वेश्या होकर रोटी कमा रही है! कोई सम्यक आजीविका खोजना। रोटी तो कमानी ही है, यह बात सच है, लेकिन सम्यक खोजना।

और ध्यान रखना, अगर तुम्हारी आजीविका सम्यक हो, तो तुम्हारे जीवन में शांति होगी। अगर तुम्हारी आजीविका सम्यक हो, तो सत्य और तुम्हारे बीच अनेक बाधाएं कम हो जाएंगी। अब अगर कोई आदमी झूठ का ही धंधा कर रहा है—समझो कि वकील है—अब बड़ा मुश्किल होगा इसको जीवन में सत्य को लाना। इसका धंधा ही झूठ है। झूठ इसकी आजीविका है। झूठ में जितना पारंगत होगा, उतनी ही सफलता मिलने वाली है। अब सत्य से तो यह डरेगा। सत्य का तो कोई संबंध ही नहीं इसकी आजीविका से। इसको तो झूठ को ही सत्य सिद्ध करना है। और ध्यान रखना, वही वकील सफल होता है, जो अदालत में झूठ को सत्य सिद्ध ही नहीं करता, बल्कि इस तरह सिद्ध करता है कि लगे कि सत्य है ही। खुद भी आदोलित दिखायी पड़ता है, कि उसे पक्का भरोसा है कि यह सच है। झूठ को बोलते वक्त ऐसे बोलता है कि जैसे वह खुद आंखों से देखा है, सामने मौजूद था। क्योंकि अगर वकील खुद ही आश्वस्त नहीं है तो अदालत को आश्वस्त नहीं कर पाएगा। अगर भीतर खुद ही जान रहा है कि यह झूठ है, तो झूठ की खबर मिलती रहेगी उसके चेहरे से, ढंग से, जानेगा कि यह मामला तो हारे ही हैं, जीतना मुश्किल है। तो उदास होगा, प्रफुल्लता न होगी, बल न होगा, वाणी में प्रभाव न होगा।

सम्यक आजीव का अर्थ है, सृजनात्मक आजीविका। ऐसी कुछ आजीविका चुनना, जो तुम्हारे जीवन को परमात्मा की तरफ ले जाने में सृजनात्मक हो, विध्वंसात्मक न हो।

छठवां है—सम्यक व्यायाम। अति न करना, बुद्ध कहते हैं। कुछ लोग हैं आलसी और कुछ लोग हैं अति कर्मठ। दोनों ही नुकसान में पड़ जाते हैं। आलसी उठता ही नहीं, तो पहुंचे कैसे! कर्मठ मंजिल के सामने से भी निकल जाता है दौड़ता हुआ, रुके कैसे, वह रुक ही नहीं सकता। रुकने की उन्हें आदत नहीं है।

मैं दोनों तरह के लोगों को जानता हूं, दोनों ध्यान में नहीं पहुंच पाते। आलसी कुछ करता ही नही, कर्मठ ज्यादा कर जाता है! तुम अगर तीर लेकर निशाना लगाने गए हो, तो निशाना सम्यक होना चाहिए। अगर थोड़ा नीचे पड़ा तो भी चूक जाएगा तीर, अगर थोड़ा ऊपर पड़ गया तो भी चूक जाएगा तीर। और जब तुम तीर को चलाओ तब प्रत्यंचा सम्यक खिंचनी चाहिए। अगर थोड़ी कम खिंची, तो पहले ही गिर जाएगा तीर। अगर थोड़ी ज्यादा खिंच गयी, तो आगे निकल जाएगा तीर।

इसलिए बुद्ध का जोर अति वर्जित करने पर है। बुद्ध कहते हैं, सम्यकत्व, मध्य, मज्‍झिम निकाय। सम्यक व्यायाम।

और सातवां है—सम्यक स्मृति। व्यर्थ को भूलना और सार्थक को सम्हालना। तुम अक्सर उलटा करते हो, सार्थक तो भूल जाते हो, व्यर्थ को याद रखते हो। कुछ ऐसा है कि हीरे —हीरे तो छोड़ देते हो, कूड़ा—कचरा सब इकट्ठा कर लेते हो। जीवन में जो भी बहुमूल्य है, उसको तो बिसार देते हो। सबसे ज्यादा बहुमूल्य तो तुम्हारी चेतना है, उसको तो तुम बिलकुल बिसारकर बैठ गए हो और ठीकरे इकट्ठे कर रहे हो और उनका हिसाब लगा रहे हो। तिजोड़ी में कितने रुपए हैं, तुम्हें पता है, लेकिन तुम्हारे भीतर कौन बैठा है, यह तुम्हें पता नहीं है। इसको बुद्ध ने कहा, सम्यक स्मृति। बुद्ध के स्मृति शब्द से ही संतो का सुरति शब्द आया। सुरति स्मृति का ही अपभ्रंश है। जिसको कबीर सुरति कहते हैं, वह बुद्ध की स्मृति ही है। उसको ही थोड़ा मीठा कर लिया—सुरति, अपनी याद, अपनी पहचान।

और आठवा है—सम्यक समाधि। बुद्ध समाधि में भी कहते हैं सम्यक, खयाल रखना। क्यों? क्योंकि ऐसी भी समाधियां हैं जो सम्यक नहीं हैं—जड़ समाधि। एक आदमी मूच्‍छित पड़ जाता है, इसको बुद्ध सम्यक समाधि नहीं कहते। ऐसा आदमी गहरी निद्रा में पड़ गया, बेहोशी। मन के तो पार चला गया है, लेकिन ऊपर नहीं गया, नीचे चला गया। मन तो बंद हो गया, क्योंकि गहरी मूर्च्छा में मन तो बंद हो जाएगा, लेकिन यह बंद होना कुछ काम का न हुआ। मन बंद हो जाए और होश भी बना रहे। मन तो चुप हो जाए, विचार तो बंद हो जाएं, लेकिन बोध न खो जाए।

तीन स्थितियां हैं मन की। स्वप्न, जागृति, सुषुप्ति। स्वप्न तो बंद होना चाहिए—चाहे सम्यक समाधि हो, चाहे असम्यक समाधि हो,स्वप्‍न तो दोनों में बंद हो जाएगा, विचार की तरंगें बंद हो जाएंगी। लेकिन जड़ समाधि में आदमी गहरी मूर्च्छा में पड़ गया, सुषुप्ति में डूब गया,उसे होश ही नहीं है। जब वापस लौटेगा तो निश्चित ही शात लौटेगा, बड़ा प्रसन्न लौटेगा, क्योंकि इतना विश्राम मिल गया। लेकिन यह कोई बात न हुई! यह तो नींद का ही प्रयोग हुआ। यह तो योगतंद्रा हुई। असली बात तो तब घटेगी जब तुम भीतर जाओ और होशपूर्वक जाओ। तब तुम प्रसन्न भी लौटोगे, आनंदित भी लौटोगे और प्रज्ञावान होकर भी लौटोगे। तुम बाहर आओगे, तुम्हारी ज्योति और होगी। तुम्हारी प्रभा और होगी। तुम्हारे चारों तरफ रोशनी होगी। तुम्हारे चारों तरफ जीवन में सुगंध होगी।

ऐसा समझो कि एक आदमी को हम स्ट्रेचर पर लिटा लें, क्लोरोफॉर्म दे दें और फिर बगीचे में घुमा दें। तो निश्चित ही उसकी नाक तो काम कर ही रही है, फूलों की गंध भी उसके भीतर जाएगी—उसे पता नहीं चलेगा। और वृक्षों की ताजी हवा भी उसको लगेगी, शीतल भी होगा—उसे पता नहीं चलेगा। फिर जैसे —जैसे वह होश में आने लगे, हम जल्दी उसे बगीचे के बाहर ले जाएं। आंख खोलकर वह कहेगा, अच्छा लगा। कुछ—कुछ भनक याद आएगी—ताजा था, सुगंध थी, मगर ज्यादा कुछ पकड़ में न आएगी। और किस रास्ते गया और किस रास्ते लौटा, यह भी पता नहीं होगा। फिर खुद न जा सकेगा। अगर उसको तुम छोड़ दो जाने को तो खुद न जा सकेगा, रास्ते का पता नहीं है।

दो तरह की समाधियां हैं। जड़ समाधि, आदमी गांजा पीकर जड़ समाधि में चला जाता है, अफीम खाकर जड़ समाधि में चला जाता है;मारीजुआना, एल. एस. डी, मेस्कलीन, इनको लेकर जड़ समाधि में चला जाता है। अभी पश्चिम में जड़ समाधि का खूब प्रभाव चल रहा है। भारत में तो रहा ही बहुत दिनों से —गंजेड़ी, भंगेड़ी, सब तरह के साधु —संन्यासी तुम्हें मिल जाएंगे। वह जड़ समाधियां हैं।

बुद्ध ने उनका बड़ा विरोध किया। बुद्ध ने कहा, यह भी कोई बात है, माना कि सुख मिलता है, इसमें कोई शक नहीं है —तुम भी अगर भंग खाकर डूब गए मस्ती में तो सुख मिलता है। गाजे की दम लगा ली तो डूब गए, एक तरह का सुख मिलता है। शराब भी इसी तरह के सुख को देती है— भूल गए सब, डूब गए अपने में, मगर यह डुबकी नींद की है। यह कोई डुबकी हुई! यह कुछ मनुष्य योग्य हुआ! ऊपर उठो, जागते हुए भीतर जाओ। दीया लेकर भीतर जाओ। मशाल लेकर भीतर जाओ। ताकि सब रास्ता भी उजाला हो जाए और तुम्हें पता भी हो जाए, तो जब जाना हो तब चले जाओ। और तुम फिर किसी चीज पर निर्भर भी न रहोगे।

तो तुमने देखा, हिंदू साधु —संन्यासी तुम्हें मिल जाएंगे कुंभ के मेले में—दम लग रही, सत्संग हो रहा। दम मारो दम! सत्संग हो रहा है,ब्रह्मचर्चा चल रही है! यह कुछ नयी बात नहीं है, इस मुल्क में पांच हजार साल से चल रही है। ये सब समझते हैं कि ये सब शंकर जी के शिष्य हैं। बम भोले!

इसका बुद्ध ने बहुत विरोध किया। क्योंकि बुद्ध ने कहा कि असली ही बात चूंकी जा रही है। असली बात है, जाग्रत होकर आनंद को उपलब्ध हो जाना। उसको उन्होंने सम्यक समाधि कहा।

यह आर्य —अष्टांगिक मार्ग। बुद्ध कहते हैं, चार आर्य—सत्य हैं—दुख है, दुख की उत्पत्ति है, दुख से मुक्ति है और मुक्तिगामी आर्य— अष्टांगिक मार्ग है। ये आठ अंग हैं उस दुख—मुक्ति के लिए। ऐसी ये दो गाथाएं। ये महत्वपूर्ण हैं। इन पर खूब ध्यान करना।


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