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क्या अर्धनारीश्वर सिद्धि और फिर छठवें चक्र /मार्ग को पार करना संभव है? PART-02

  • Writer: Chida nanda
    Chida nanda
  • Nov 20, 2019
  • 13 min read

क्या अर्थ हैं साधन चतुष्टय का ?-

04 FACTS;-

ब्रह्मसूत्र शंकरभाष्य में तथा विवेक चूडामणि ग्रंथ में आदि शंकराचार्य साधन चतुष्टय की चर्चा करते हैं|चार साधनों के समूह के रूप मे साधन चतुष्टय बतलाए गये हैं...

1-विवेक 2- वैराग्य3- षट-सम्पति 4- मुमुक्ष 1-विवेक(Discriminatory intellect);- सत्य-असत्य और नित्य-अनित्य वस्तु के विवेचन का नाम विवेक हैं| विवेक इसका भलीभांति पृथ्थकरण कर देता हैं| विवेक का अर्थ हैं, तत्व का यथार्थ अनुभव करना| सभी अवस्थाओं में और प्रत्येक वस्तु में प्रतिक्षण आत्मा-आनात्मा का विश्लेषण करते करते, यह सिध्दी प्राप्त होती हैं| 2- वैराग्य(Detachment or dispassionate objectivity);- विवेक के द्वारा सत-असत और नित्य-अनित्य का पृथ्थकरण हो जाने पर असत और अनित्य से सहज ही राग हट जाता हैं, इसी का नाम वैराग्य हैं| मन में भोगो की अभिलाषायें बनी हुई हैं और वाह्य रूप में संसार से द्वेष और घृणा कर रहे हैं, इसका नाम वैराग्य नहीं हैं| 3- षट-सम्पति(The six healthy qualities );- इस विवेक और वैरग्य के फलस्वरूप साधक को छह विभागों वाली एक परिसंपति मिलती हैं, वह पूरी न मिले तब यह समझना चाहिए कि विवेक और वैराग्य में कसर हैं| विवेक और वैराग्य से संपन्न हो जाने पर ही साधक को इस सम्पति का प्राप्त होना सहज हैं| इस सम्पति का नाम षट-सम्पति हैं और इसके छह विभाग हैं:- ( 3-1)-शम(Control of mind);- मन का पूर्ण रूप से निगृहीत, निश्चल और शांत हो जाना ही “शम” हैं| ( 3-2)-दम(Sensory control);- इन्द्रियों का पूर्णरूप से निगृहीत और विषयों के रसास्वाद से रहित हो जाना ही “दम” हैं| ( 3-3)-उपरति(Introspective withdrawal);- विषय भोग से विरक्ति / विषयों से चित्त का उपरत हो जाना ही “उपरति” हैं| ( 3-4)-तितिक्षा(Fortitude);- तितिक्षा का अर्थ होता हैं “सहन-शक्ति”| द्वंदों का सहन करने का नाम तितिक्षा हैं| सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, मान-अपमान आदि का सहन करना भी तितिक्षा हैं परन्तु विवेक, वैराग्य और शम, दम. उपरति के अनन्तर प्राप्त होने वाली तितिक्षा तो इससे विलक्षण ही होनी चाहिए| संसार में न तो द्वंदों का नाश हो सकता हैं और न ही कोई इससे बच सकता हैं| किसी तरह इनको सह लेना ही उत्तम हैं, परन्तु सर्वोत्तम तो हैं-द्वंदों जगत से उपर उठकर साक्षी भाव होकर द्वंदों को देखना| यही वास्तविक “तितिक्षा” हैं|साक्षी भाव होकर द्वंदों को देख (3-5-)श्रद्धा(Faith);- आत्मसत्ता में प्रत्यक्ष की भांति अखंड विश्वास का नाम श्रद्धा हैं| पहले शास्त्र, गुरु और साधन में श्रद्धा होती हैं, उससे आत्म-श्रद्धा बढती हैं, परन्तु जब तक आत्म-स्वरूप में पूर्ण श्रद्धा नहीं होती, तब तक एक मात्र निष्कलंक, निरंजन, निराकार, निर्गुण ब्रह्म को लक्ष्य बनाकर, उसमें बुध्दी स्थिर नहीं हो सकती| (3-6)-समाधान(Concentration);- मन और बुद्धि का परमात्मा में पूर्णतया समाहित हो जाना; मन और बुद्धि को निरंतर एक मात्र लक्ष्य ' ब्रह्म 'के ही दर्शन होते रहना “समाधान” हैं| 4- मुमुक्ष(Burning desire for the ultimate knowledge);- इस प्रकार जब विवेक, वैराग्य और षट-सम्पति की प्राप्ति हो जाती हैं, तब साधक स्वाभाविक ही अविद्या के बंधन से सर्वथा मुक्त होना चाहता हैं| और वह सब ओर से चित्त हटाकर. किसी ओर न ताककर, एक मात्र परमात्मा की ओर ही दौड़ता हैं|उसका यह अत्यंत वेग से दौड़ना अर्थात तीव्र साधन ही उसकी परमात्मा को पाने की तीव्रतम लालसा का परिचय देता हैं, यही “मुमुक्षत्व” हैं|

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क्या ध्यान केवल एक कांच की दीवाल है और समाधि कांच की दीवाल का भी टूट जाना है?-

13 FACTS;-

1-पांचवां केंद्र आज्ञाचक्र/तृतीय नेत्र है ..उसे रगड़ें ...जब काम ऊर्जा वहां पहुंचती है, तो बड़ा उज्जवल ध्यान होने लगता है और वहीं अर्धनारीश्वर सिद्ध किया जा सकता है।परन्तु पूर्ण उज्जवलता तो सातवें द्वार पर आती है। ऊर्जा काम-केंद्र से मुक्त हो जाए, तो ध्यान बनना शुरू हो जाता है। जैसे-जैसे हम ऊपर बढ़ते हैं, ऊर्जा एक केंद्र से दूसरे केंद्र में उठती है, वैसे-वैसे ध्यान और गहरा हो जाता है। तीसरे केंद्र में और गहरा ;चौथे केंद्र में उससे ज्यादा गहरा और पांचवें केंद्र से ध्यान की शिखा बहुत साफ हो जाती है।

2-सूत्र है.."ध्यान का द्वार है संगमरमर के कलश जैसा, सफेद और पारदर्शी है। उसके भीतर एक स्वर्ण अग्नि जलती है। वह प्रज्ञा की शिखा है, जो आत्मा से निकलती है।’'वास्तव में

ज्ञान शास्त्र में नहीं, शब्द में भी नहीं,...ज्ञान है आपके भीतर छिपे ध्यान के कलश में। उस ज्ञान का नाम प्रज्ञा है, वह जो शिखा भीतर जल रही है ध्यान के कलश में...और ध्यान पारदर्शी कलश है...शुद्ध संगमरमर का। बाहर भी उसकी किरणें दिखाई पड़ती हैं। जो लोग ध्यान को उपलब्ध हो जाते हैं, उनके शब्दों में, उनकी वाणी में, उठने-बैठने में प्रज्ञा की झलक आने लगती है। वह जो भी छिपा है... बाहर भी बहने लगता है।

3-ऊर्जा के पांचवें द्वार के बाद, ये घटनाएं अपने आप घट जाती हैं। यह उसके परिणाम हैं कि व्यक्ति इंद्रियों से विच्छिन्न हो जाता है। इंद्रियों से हमारा जोड़ आकांक्षा के कारण है। काम-वासना, हमारी इंद्रियां और हमारे बीच जोड़ है। जब काम-वासना ही मुक्त हो जाती है, तो इंद्रियों से हमारा संबंध विच्छिन्न हो जाता है।उदाहरण के लिए,हमारा हाथ से संबंध

दो तरह का है। एक तो वह है, जब हाथ की हड्डी टूट जाए और फ्रेक्चर हो जाए, तो डाक्टर जानता है कि क्या संबंध है। वह हड्डी को फिर जोड़ देगा। वह देह का देह से संबंध है। एक और संबंध है हाथ का... जो वास्तविक संबंध है, जिसको कोई डाक्टर नहीं जोड़ सकता । वह संबंध है, स्पर्श की वासना से ।

4-तो हमारे हाथ से दो प्रकार के संबंध हैं--एक देह का संबंध है कि हड्डियों से हड्डियां जुड़ी हैं, जो यांत्रिक है; एक दूसरा संबंध है.. हमारे स्पर्श की वासना का।जिस दिन हमारे स्पर्श की वासना पूरी तरह समाप्त हो जाए, उस दिन हमारा हाथ से संबंध समाप्त हो जाता है।भले ही हाथ हमसे जुड़ा हो। जो हाथ के संबंध में सही है, वह सब इंद्रियों के संबंध में भी सही है।

वह वासना का जोड़ जैसे ही ऊर्जा ऊपर उठनी शुरू होती है, टूटता जाता है। फिर हाथ रह जाता है, लेकिन छूने की वासना नहीं रह जाती। तब आप चीजें उठा सकते हैं, छू भी सकते हैं, लेकिन छूने की कामना तिरोहित हो जाती है। चीजें छुई जाएंगी, लेकिन छूने का कोई मोह, कोई पागलपन आपके भीतर नहीं है। इंद्रियों का आप उपयोग कर सकेंगे, लेकिन इंद्रियां अब आपकी गुलाम हैं, मालिक नहीं हैं..और यह घटना तभी घट सकती है।

5-इस घटना को कोई उल्टे ढंग से घटाना चाहे, तो मुश्किल में पड़ जाता है।कोई इस

डर से कि हाथ में छूने की वासना है, इसलिए हाथ काट डालो और आंख में सौंदर्य देखने की वासना है, इसलिए आंख फोड़ डालो--यह भी लोग करते हैं, यह पागलपन है। क्योंकि आंख फोड़ डालने से भी वह जो देखने की वासना थी, वह नहीं छूटेगी; अंधी आंखों के भीतर , फूटी आंखों के भीतर भी खड़ी रहेगी। आप आंख बंद कर लें, इससे क्या होता है? सपने देखेंगे आप। जो बाहर देखते थे, वह अब भीतर ही देखने लगेंगे। सारा संसार भीतर आ जाएगा।

6-आंख फोड़ ली इस डर से कि.... न होगा बांस, न बजेगी बांसुरी। इतना आसान नहीं है बांसुरी का बंद होना। बांस की वजह से बांसुरी बजती ही नहीं.. बांसुरी बजती है भीतर किसी राग की वजह से। बांस न होगा, तो कहीं और बजेगी, किसी और ढंग से बजेगी--परन्तु बजेगी। अगर बांस न होगा तो बाहर प्रगट न होगी, भीतर ही बजती रहेगी। बांस से बांसुरी बजती होती तो बड़ी आसान बात थी। बांस को तोड़ देते, बांसुरी का बजना भी टूट जाता। बांस को हम उठाते ही इसलिए हैं, बांसुरी बनाते ही इसलिए हैं कि भीतर वह बज रही है पहले से, उसको प्रगट करना है।

7-इंद्रियां बांस की पोंगरी हैं और भीतर से जो रस वासना का बह रहा है, वही असली चीज है। बांस को तोड़ने में नहीं लगना चाहिए; हाँ, नासमझ उसमें लगते हैं। भीतर के रस को ही मुक्त करने में लगना चाहिए; तब बांसुरी पड़ी ही रह जाएगी,परन्तु बजना बंद हो जाएगा। बांसुरी होठ पर ही रखी रहे तो भी बजना बंद हो जाएगा।अगर भीतर की वासना से मुक्त

होना है, तो काम-ऊर्जा को ऊपर की तरफ ले चलना है ... नीचे के केंद्रों से मुक्त करना है; और अपने आप इंद्रियों से संबंध विच्छिन्न होने लगेगा।

8-जो भी देखने योग्य था, वह देख लिया, जो भी सुनने योग्य था, वह सुन लिया। यह भीतर के संबंध में है। जो ऊर्जा छठवें द्वार पर पहुंच गई , उसने जो भी देखने योग्य है भीतर के

जगत में,वह देख लिया; जो भी सुनने योग्य था, वह सुन लिया ।अब तू ज्ञान के प्रकाश में खड़ा है।अब न सुन रहा है तू, न देख रहा है तू--अब तू खुद ही प्रकाश में डूबा हुआ है। अब

इतना भी फासला नहीं है कि सुनना और देखना। अब तू खुद ही ज्ञान हुआ जा रहा है, लीन हुआ जा रहा है।

8-तितिक्षा का अर्थ है: अब तुझे दुख और सुख समान हैं। अब तुझे दुख और सुख में कोई प्रयोजन नहीं है। इसका मतलब यह नहीं कि अब सुख का पता नहीं चलेगा, दुख का पता नहीं चलेगा। अगर बुद्ध के पैर में भी कांटा चुभाइएगा, तो दर्द पता चलेगा। शायद हमको जितना पता चलता, उससे भी ज्यादा चलेगा। क्योंकि बुद्ध की संवेदनशीलता/सेंसिटिविटी परम है।

कांटा चुभेगा तो दर्द पता चलेगा; लेकिन दर्द ,दुख नहीं देगा, वह अलग बात है। बुद्ध के हाथ में एक सुकोमल फूल रखिएगा, तो उस सुकोमल फूल की नाजुकता, उसकी कोमलता, उसकी गंध, उसका सौंदर्य सब पता चलेगा। यह सब प्रतीति होगी, यह सब अनुभव बनेगा, लेकिन

इससे कोई सुख नहीं होगा।

9-इसका क्या मतलब कि 'कांटा गड़ेगा, तो कष्ट होगा, दुख नहीं होगा'।वास्तव में,

कष्ट बाहरी घटना है, शारीरिक घटना है, दुख उसकी व्याख्या है। जब कांटा पैर में गड़ता है, तो कष्ट होगा ही। कष्ट का मतलब प्रतीति होगी। पैर खबर देगा, पैर के स्नायु तत्काल खबर भेजेंगे, संदेश भेजेंगे मस्तिष्क को कि कांटा गड़ा। लेकिन मस्तिष्क इसकी व्याख्या नहीं करेगा। मस्तिष्क यह नहीं कहेगा कि ऐसा नहीं होना चाहिए, या मस्तिष्क यह नहीं कहेगा कि ऐसा अब कभी न हो; मस्तिष्क यह नहीं कहेगा कि मैं शिकायत करता हूं परमात्मा से कि कांटा क्यों गड़ा? मस्तिष्क इसे स्वीकार कर लेगा कि ठीक है।

10-हाथ में फूल हो, खबर मिलेगी, लेकिन मस्तिष्क व्याख्या नहीं करेगा कि यह फूल रोज-रोज ..ऐसा ही मेरे हाथ में हो, कि कल नहीं होगा तो मैं दुखी हो जाऊंगा; कि कल नहीं था तो मेरी जिंदगी बेकार थी, अब मेरी जिंदगी में अर्थ है; ऐसी व्याख्या नहीं करेगा।

सुख-दुख व्याख्याएं हैं।कष्ट, सुविधाएं, असुविधाएं तथ्य हैं।तथ्य पता चलता रहेगा,

परन्तु व्याख्या विलीन हो जाएगी।सुख-दुख हमारी कामनाएं हैं; सुविधाएं,

असुविधाएं बाह्य जीवन के तथ्य हैं।

11-तितिक्षा का अर्थ है.. अब बाहरी घटनाएं भर पता चलेंगी, उनके कारण भीतर कोई घटना निर्मित नहीं होगी, कोई आग्रह, कोई अपेक्षा भीतर निर्मित नहीं होगी। कांटा गड़े तो ठीक, हाथ में फूल हो तो ठीक। बुद्ध जैसे भीतर थे कांटे के गड़ने के पहले, वैसे कांटा गड़ने पर भी रहेंगे। बुद्ध जैसे थे हाथ में फूल आने के पहले, बुद्ध भीतर वैसे ही रहेंगे। उस भीतर के लोक में बाहर की घटनाओं से कोई भी रूपांतरण नहीं होगा ।भीतर वही स्थिति बनी रहेगी, चाहे बाहर कुछ भी घटे। इसका नाम है तितिक्षा।

12-काम-ऊर्जा ऊपर की तरफ चल पड़ी , अब डर/असुरक्षा नहीं है। काम-ऊर्जा की यात्रा ध्यान बन गई, अब डर नहीं है, अब तू सुरक्षित है। जब किसी ने सातवें मार्ग को पार कर लिया

है,तब समस्त प्रकृति आनंद-पूर्ण आश्चर्य से भर जाती है और पराजित अनुभव करती है।छठवां द्वार है ध्यान। ध्यान कांच की दीवाल है, समाधि कांच की दीवाल का भी टूट जाना है । अब सातवां ही बचा है, अब मंजिल बिलकुल पास है। अब एक कदम और है कि ध्यान का कलश भी टूट जाएगा, और रह जाएगी शुद्ध प्रज्ञा। अभी झलक मिल रही है। जैसे एक लालटेन हो, कितना ही शुभ्र हो कांच, कि कितना ही शुद्ध और पारदर्शी; दिखाई भी न पड़ता हो, तो भी जरा सा फासला अभी कायम है। कांच की एक दीवाल है ...और उसके भीतर है ज्योति।

13-पर कांच की दीवाल भी दीवाल है। अभी भी थोड़ा फासला है। और कांच कितना ही शुद्ध हो, शुद्धि भी बीच में खड़ी हो, तो वह भी अवरोध है। वह भी टूट जाएगी। सातवें में सब अवरोध गिर जाएंगे; मात्र प्रज्ञा, मात्र बोध, अवेयरनेस, चैतन्य, जिसको हमने सच्चिदानंद कहा है, वही भर शेष रह जाएगा। इस सातवें द्वार की घटना तब घटती है, जब कोई स्रोत में प्रविष्ट,

नदी की धारा में बहा।जो पहले द्वार पर नदी में प्रविष्ट हुआ था , वह अब सातवें द्वार को पार कर जाता है। तब समस्त प्रकृति आनंदपूर्ण आश्चर्य से भर जाती है और पराजित अनुभव करती है।

क्यो प्रकृति आनंदपूर्ण आश्चर्य से भर जाती है और पराजित अनुभव करती है?

12 FACTS;-

1- वास्तव में, हमें पता भी नहीं है कि..हमारे भीतर क्या हो रहा है।जब आप क्रोधित हो जाते

हैं,तब प्रकृति जीतती है और आप हारते हैं। जब आप काम-वासना से भर जाते हैं, तो प्रकृति जीतती है और आप हारते हैं। तब पृथ्वी की शक्तियां जीत जाती हैं। और ऊपर उड़ने वाली

ऊर्जा, ऊपर जाने वाली ऊर्जा नीचे गिर जाती है।समागम के बाद सभी को जो एक उदासी, एक विषाद और एक पश्चात्ताप का भाव घेर लेता है, वह प्रकृति से पराजय के कारण। क्रोध के बाद क्रोधी से क्रोधी,कठोर,दुष्ट प्रकृति के आदमी को भी लगता है कि गलत हुआ, न होता तो अच्छा था। क्यों लगता है ऐसा?

2- दूसरे को तो चोट पहुंचाने में उसको रस आता है,पश्चात्ताप नहीं होता।वास्तव में, पश्चात्ताप यह होता है कि मैं हारा। जब भी क्रोध उसे पकड़ लेता है, तो उससे कोई बड़ी ताकत जैसे उसे

खींचकर चला देती है और वह अपने वश में नहीं रहजाता, इसका पश्चात्ताप होता है।समागम से जो पश्चात्ताप होता है, वह यह नहीं कि इसमें कोई दुख है; पश्चात्ताप यह होता है कि मुझसे विराटतर शक्ति ने मेरी गर्दन पकड़ ली और मुझे चला दिया और मैं कुछ भी न कर पाया। पश्चात्ताप हार का है, एक पराजय का है।पाप हम कहते ही उसे हैं, जिसके पीछे आप को हार

की प्रतीति हो।और पुण्य हम कहते ही उसे हैं, जिसके पीछे आपको जीत की प्रतीति हो।

3-जिस काम के करने से आपको भीतर गौरव का अनुभव हो और लगे कि मैं मुक्त हुआ, कोई प्रबल शक्ति मुझे खींचती नहीं, मैं खुद शक्तिशाली हो गया हूं,तो उस प्रतीति का नाम

पुण्य है।जब आपको लगे कि किसी और ने मुझसे कुछ करवा लिया, मैं अपना मालिक न रहा ;तो उस प्रतीति का नाम पाप है,।गुलामी का बोध पाप है, मालकियत का बोध पुण्य है।

इसलिए हम संन्यासी को स्वामी कहते हैं। सिर्फ इसलिए कि अब वह धीरे-धीरे स्वामित्व की तरफ बढ़ रहा है, और धीरे-धीरे उसके भीतर जो दासता का तत्व है, उसे वह निकाल बाहर करेगा.. नष्ट करेगा और हर मौके को अपनी मालकियत, अपना स्वामित्व बनाएगा।

4-जन्मों-जन्मों तक हम हारते हैं, पराजित होते हैं। प्रकृति मान ही लेती है कि हम जीत नहीं सकते।आप खुद ही सोचें, इसी जिंदगी को सोचें, दूसरी जिंदगी का तो आपको पता भी नहीं है। इसी जिंदगी में तो कितनी बार तय किया है कि नहीं करेंगे क्रोध, और फिर-फिर किया है।

एक भी बार नहीं जीत पाए। तो आपके भीतर जो क्रोध की ऊर्जा है, जो पृथ्वी की / जमीन की तरफ खींचने की जो ताकत है, वह आश्वस्त हो गई है कि तुम्हारी बातों का, तुम्हारे वचनों का, तुम्हारी कसमों का कोई मूल्य नहीं है। तुम नाहक बकवास किया करते हो। क्योंकि जब भी होता है वही होता है, जो प्रकृति चाहती है। आपके किए क्या होता है।

5-तो जन्मों-जन्मों से प्रकृति आपसे आश्वस्त है , कि आप भरोसे के आदमी हैं।आप कितने ही

मंदिर जाओ, पूजा- प्रार्थना करो, कितनी कसमें खाओ, कितने गुरुओं के चरणों में भटको; प्रकृति जानती है कि तुम नाहक यहां-वहां समय गंवा रहे हो, आखिर तुम मेरे ही शरण हो,

और सब करके तुम मेरे ही शरण आ जाते हो। सुबह का भटका सांझ तक घर लौट आता है;

ज्यादा देर नहीं लगती। प्रकृति को आपकी बातों से कोई चिंता पैदा नहीं होती।इसलिए जब पहली दफा कोई व्यक्ति , सिद्धि की अवस्था में पहुंचता है, और काम-ऊर्जा ऊपर के केंद्रों का स्पर्श कर लेती है, तो समस्त प्रकृति आनंदपूर्ण आश्चर्य से भर जाती है, और पराजित अनुभव करती है।

6-वास्तव में,ये बड़े विपरीत शब्द हैं कि पराजित अनुभव करती है; क्योंकि सदा वह विजेता थी और आप हारे हुए थे। पहली दफा आप जीत गए, और प्रकृति हार गई.. इसलिए पराजित अनुभव करती है। लेकिन दुख का अनुभव नहीं करती है, आनंदपूर्ण अनुभव करती है।?...

क्योंकि यह एक रहस्य है..और वह यह है कि जिसको आप गुलाम बनाते हैं,आप भी उसके

गुलाम बन जाते हैं। किसी को गुलाम बनाना आसान नहीं, गुलाम बनाने में खुद भी गुलाम

बनना पड़ता है। उदाहरण के लिए,एक आदमी एक भैस को बांध कर ले जा रहा था, और रास्ते में उसे एक संत मिल गया।उस संत ने अपने शिष्यों से कहा कि 'इस आदमी को घेर लो, मैं कुछ तुम्हें ज्ञान दूंगा'। वह भैस वाला आदमी घिर गया और उसके शिष्य घेर कर खड़े हो गए। संत को ऐसे ही शिक्षा देने की आदत थी। उसने कहा कि 'देखो, मैं तुमसे पूछता हूं कि इसमें गुलाम कौन है--यह आदमी या भैस ? '

7-शिष्यों ने कहा कि वह कोई पूछने की बात है, भैस गुलाम है; यह आदमी मालिक है।

तो संत ने कहा कि 'अगर यह सच है, तो यदि इन दोनों के बीच का संबंध तोड़ दिया जाए, तो भैस आदमी को खोजेगी, कि आदमी भैस को खोजेगा?'शिष्यों ने कहा कि आदमी भैस को खोजेगा।संत ने कहा कि 'फिर गुलाम कौन है?..वास्तव में,जिसको हम बांधते हैं,

उससे हम बंध भी जाते हैं। और बड़ी गुलामी पैदा हो जाती है।मालिक तो वही होता है, जो

किसी को गुलाम नहीं बनाता।तो प्रकृति भी आपको गुलाम बनाए हुए है। लेकिन जिस दिन आप मुक्त होते हैं, उस दिन वह भी आनंद से भर जाती है; क्योंकि वह भी आपसे मुक्त हुई। पृथ्वी को भी आपकी झंझट मिटी। आप कुछ छोटी झंझट नहीं हैं.. अपने लिए ही झंझट हैं, ऐसा नहीं है। आप इस पूरी पृथ्वी के लिए झंझट हैं।

8-आप उपद्रव के स्रोत हैं।प्रकृति को आपको बांध-बांध कर ही रखना पड़ता है। जिस दिन आप मुक्त होते हैं, आपको बांधने की जरूरत ही चली जाती है।समस्त प्रकृति आनंदपूर्ण

आश्चर्य से भर जाती है।आनंद भी होता है, और आश्चर्य भी कि तुम और यह कर सके! तुमसे कोई आशा न थी, तुम बड़े भरोसे के न थे, तुम भी यह कर सके! इतने जन्मों तक भटक कर भी तुम जीत सके, इतने जन्मों की पराजित होने की आदत को भी तुम तोड़ सके! स्वभावतः एक गहन आश्चर्य छा जाता है।जिस दिन एक राम का जन्म होता है--कोई एक व्यक्ति इनलाइटमेंट को उपलब्ध होता है, तो उसके साथ ही इस सारी प्रकृति में झनझनाहट फैल जाती है।

9-यह घटना असाधारण है। यह कोई छोटी घटना नहीं है। जैसे एक ज्वालामुखी फूट पड़ता है, सारी पृथ्वी कंपन से भर जाती है। यह भी एक ज्वालामुखी का विस्फोट है; पदार्थ का नहीं, 'चेतना का'। इसकी तरल त्तरंग सारी प्रकृति को स्पर्श करेगी। कुछ भी अछूता न रह जाएगा। एक इनलाइटमेंट की घटना एक्सप्लोजन है/विस्फोट है।इस घटना में चैतन्य का कण-कण

प्रभावित होगा, आच्छादित हो जाएगा।और यह सारा जगत चैतन्य से बना है।इसमें पत्थर

की भी आत्मा है। हम नहीं देख पाते, क्योंकि हमारी आंखें पथरीली हैं।यहां पत्थरों की भी

आत्माएं हैं, यहां झरनों की भी आत्माएं हैं।यहां सागर की भी आत्मा है।यहां जो भी है चारों तरफ... सब आत्मवान है। और जब इनलाइटमेंट की घटना घटती है; तब एक व्यक्ति समस्त बंधनों के बाहर हो जाता है ,परम स्वतंत्रता को उपलब्ध होता है और समस्त अहंकार, समस्त रोगों से मुक्त होता है।

10-एक इनलाइटेड व्यक्ति का बाल-सूर्य/प्रज्ञा का सूर्य.. अपनी पहली किरणें उस पर डालता है।उसका मन एक शांत और असीम सागर की तरह तटहीन अंतरिक्ष में फैलता है। और वह जीवन और मृत्यु को अपने मजबूत हाथों में धारण किए रहता है। इस सूरज के उदय होने के साथ ही साथ उसकी चेतना फैलती है।क्योंकि यह सूर्य कहीं बाहर का सूर्य नहीं, उसकी चेतना का ही सूर्य है।उसकी आत्मा, अंतहीन अंतरिक्ष बन जाएगी ...उसकी कोई सीमाएं न होंगी।और अब वह जो व्यक्ति /वह द्वीप खो जाएगा;केवल सागर ही रह जाएगा। वह अब तक सीमा में बंधा था, लेकिन अब असीम ही रह जाएगा।

11- ज्ञान के हो जाने पर, जिस मकान में वह अब तक जन्मों-जन्मों रहता आया, उसकी दीवालें गिर गई हैं। अब तो भीतर का 'शून्य आकाश' ही शेष रह गया है।जिसे

हम समझते हैं अपना होना, वह हमारी दीवालों के कारण है। एक दिन दीवालें गिर जाएंगी। इस छठवें द्वार के बाद आखिरी दीवाल गिर रही है.... वह कांच की दीवाल, पारदर्शी दीवाल। अब ध्यान भी मिट जाएगा, सिर्फ चैतन्य रह जाएगा। और चैतन्य असीम है, उसकी

कोई सीमा नहीं है।जीवन और मृत्यु दोनों उसके हाथ में हैं। न वह जीवन है, न वह मृत्यु है।

अब वह जीवन और मृत्यु दोनों के पार हो गया है।

12-जब तक हम जीवन से बंधे हैं, तब तक मौत से भी बंधे हैं। और जब तक जीवन चाहते हैं, तब तक हमें मौत भी मिलती रहेगी। जब तक जन्म है, तब तक मौत होगी। अब इस इनलाइटेड व्यक्ति के हाथ में जीवन और मृत्यु, दोनों ही..इसके हाथ में हैं। यह स्वयं दोनों से अलग और पृथक है। यह तीसरा है। इसका कोई नाम नहीं है। इसे हम अमृत-जीवन कहते हैं। वह भी केवल इस पृथ्वी की भाषा में। ताकि इस पृथ्वी में जीवन की आकांक्षा से भरे हुए लोगों की समझ में आ सके। अन्यथा न वह जीवन है, न वह मृत्यु। वह दोनों के पार शाश्वतता है। इस छठवें द्वार के बाद उस शाश्वतता में छलांग लग जाएगी। सीमित असीम हो जाएगा, और बूंद सागर हो जाएगी।

....SHIVOHAM....

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