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SHIVRATRI SPECIAL...क्या हैं शिव और शक्ति के अर्धनारीश्वर स्वरूप की महिमा और क्या हैं शिवत्व की प्रा


क्या परमात्मा एक अनुभव है?-

09 FACTS;-

1-जीवन अपने आपमें एक यात्रा है और इस यात्रा की दो ही दिशाएं हैं - एक तो बाहर की ओर और दूसरी भीतर की ओर। भौतिक उपलब्धियों के लिए चल रही सारी भागदौड बाहर की यात्रा है तो ध्यान की यात्रा है... भीतर की यात्रा।एक महर्षि थे - कणाद। किसान जब अपना

खेत काट लेते थे तो उसके बाद खेतों में जो अन्न-कण पडे रह जाते थे, उन्हें बीन कर वे अपना जीवन चलाते थे। इसी से उनका यह नाम पड गया था। राजा को पता चला तो उसने बहुत-सी धन-सामग्री लेकर मन्त्री को उन्हें भेंट करने भेजा लेकिन महर्षि ने नहीं स्वीकार किया ।

2-राजा ने तीन बार मंत्री को भेजा और तीनों बार महर्षि ने कुछ भी लेने से इन्कार कर दिया। अंत में राजा स्वयं बहुत-सा धन लेकर गया और महर्षि से प्रार्थना की लेकिन उन्होंने नहीं

स्वीकार किया ।विस्मित राजा ने लौटकर पूरी बात अपनी रानी को बताई। वह बोली, 'आपने भूल की। ऐसे साधु के पास कुछ देने के लिए नहीं, लेने के लिए जाना चाहिए।'

राजा उसी रात महर्षि के पास गया और क्षमा मांगी।महर्षि कणाद ने कहा, 'गरीब कौन है? मुझे देखो और अपने को देखो। बाहर नहीं, भीतर। मैं कुछ भी नहीं मांगता। इसलिए अनायास ही सम्राट हो गया हूं।'

3-एक संपदा बाहर है, एक भीतर है। जो बाहर है, वह आज या कल छिन ही जाती है।

एक नाद है इस अस्तित्व का..जब तुम परिपूर्ण शांत हो जाते हो, शून्य हो जाते हो,

तब सुनाई पड़ता है। जब तुम्हारे चित्त में कोई भी शोरगुल नहीं रह जाता, विचारों की दौड़-धूप नहीं रह जाती, विचारों का सतत् प्रवाह जब अवरुद्ध हो जाता है,जब तुम्हारे भीतर

सन्नाटा होता है--बस सन्नाटा। न शब्द बनते है, न विचार, न वासना, न भाव, न कल्पना, न स्मृति ।जब तुम्हारे भीतर चित्त का सारा प्रवाह क्षीण हो जाता है , चित्त-वृत्ति निरोध हो जाता है , तुम्हारे भीतर बस तुम ही होते हो, जैसे खाली दर्पण, जिस पर कोई प्रतिबिंब नहीं बनता, वैसी अवस्था में तुम्हें वह नाद सुनाई पड़ता है।

4-जो इस अस्तित्व का नाद है; जो इस अस्तित्व के प्राणों में समाया हुआ है, जो इस अस्तित्व के हृदय की धड़कन है, जो इस अस्तित्व की श्वासों की हलन-चलन है, उस नाद को अनाहत नाद कहा है।आंखें हों तो परमात्मा प्रति क्षण बरस रहा है।आंखें न हों तो पढ़ो

कितने ही शास्त्र, जाओ काबा, जाओ काशी, जाओ कैलाश, सब व्यर्थ है। आंख है, तो अभी परमात्मा है..यहीं... हवा की तरंग-तरंग में, पक्षियों की आवाजों में, सूरज की किरणों में, वृक्षों के पत्तों में!

5-परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं है। हो भी नहीं सकता। परमात्मा एक अनुभव है। जिसे हो, उसे हो। किसी दूसरे को समझाना चाहे तो भी समझा न सके। शब्दों में आता नहीं, तर्को में बंधता नहीं। लाख करो उपाय, गाओ कितने ही गीत, छूट-छूट जाता है। फेंको कितने ही जाल, जाल वापस लौट आते हैं। उस पर कोई पकड़ नहीं बैठती। ऐसे सब जगह वही मौजूद है। जाल फेंकने वाले में, जाल में..सब में वही मौजूद है। मगर उसकी यह मौजूदगी इतनी घनी है और इतनी सनातन है, इस मौजूदगी से तुम कभी अलग हुए नहीं, इसलिए इसकी प्रतीति नहीं होती।

6-जैसे तुम्हारे शरीर में खून दौड़ रहा है, पता ही नहीं चलता.. तीन सौ वर्ष पहले तक चिकित्सकों को यह पता ही नहीं था कि खून शरीर में परिभ्रमण करता है। यही ख्याल था कि भरा हुआ है; जैसे कि गगरी में पानी भरा हो। यह तो तीन सौ वर्षो में पता चला कि खून

गतिमान है।हजारों वर्ष तक यह धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है ..जो चलती नहीं, हिलती नहीं, डुलती नहीं।लेकिन, पृथ्वी चलती है, प्रतिपल चलती है। दोहरी गति है उसकी। अपनी कील पर घूमती है..पहली गति; और दूसरा..सूर्य के चारों तरफ परिभ्रमण करती है। मगर हम पृथ्वी पर हैं, इसलिए पृथ्वी की गति का पता कैसे चले? हम उसके अंग हैं। हम भी उसके साथ घूम रहे हैं। और भी शेष सब उसके साथ घूम रहा है तो पता नहीं चलेगा।

7- उदाहरण के लिए, अचानक कोई चमत्कार हो जाए और हम सब छह इंच के हो जाएं, और हमारे साथ वृक्ष भी उसी अनुपात में छोटे हो जाएं, मकान भी उसी अनुपात में छोटा हो जाए, तो किसी को पता ही नहीं चलेगा कि हम छोटे हो गए हैं। क्योंकि पुराना अनुपात कायम रहेगा। वृक्ष तुमसे उतने ही ऊंचे रहेंगे जितने पहले थे। अगर सारी चीजें एक साथ छोटी हो जाएं, समान अनुपात में, तो किसी को कभी कानों-कान पता नहीं चलेगा। तुम जिस फुट और इंच से नापते हो, वह भी छोटा जो जाएगा । वह भी बताएगा कि तुम छः फीट के ही हो, जैसे पहले थे, वैसे ही अब भी हो।

8-कहते हैं मछली को सागर का पता नहीं चलता।क्योकि सागर में ही पैदा हुई, सागर में ही बड़ी हुई, सागर में ही एक दिन विसर्जित हो जाएगी। लेकिन मछली को सागर का कभी-कभी पता चल सकता है। कोई मछुआ खींच ले उसे, डाल दे तट पर, तप्त रेत पर, तड़फे, तब उसे बोध आए, तब उसे समझ आए। सागर से टूट कर पता चले कि मैं सागर में थी और अब सागर में नहीं हूं। जब तक सागर में थी तब तक पता नहीं चला कि मैं सागर में हूं।

9-हमें मन के इस नियम को ठीक से समझ लेना चाहिए। हमें उसका ही पता चलता है जिससे हम छूट जाते हैं , टूट जाते हैं ,भिन्न हो जाते हैं। उसका हमें पता ही नहीं चलता जिसके साथ हम जुड़े ही रहते हैं। कहते हैं, मरते वक्त लोगों को पता चलता है कि हम जीवित थे। और यह बात ठीक ही है। क्योंकि जब जीवनथा तो तुम सागर में थे। मृत्यु के वक्त मौत का मछुआ तुम्हें खींच लेता है, डाल देता है तट पर तड़फने को, तब पता चलता है कि अरे/हाय कितना चूक गए! कैसा अदभुत जीवन था! तब सब यादें आती हैं।

क्या महत्व है शिव और शक्ति की पूर्ण एकता की अभिव्यक्ति ''भगवान अर्धनारीश्वर स्तुति'' का ?-

03 FACTS;- 1-शिवपुराण के अनुसार ''समस्त पुरुष भगवान सदाशिव के अंश और समस्त स्त्रियां भगवती शिवा की अंशभूता हैं, उन्हीं भगवान अर्धनारीश्वर से यह सम्पूर्ण चराचर जगत्

व्याप्त है।शक्ति के बिना शिव ‘शव’ हैं।''शिव और शक्ति एक-दूसरे से उसी प्रकार अभिन्न हैं, जिस प्रकार सूर्य और उसका प्रकाश, अग्नि और उसका ताप तथा दूध और उसकी सफेदी। शिव में ‘इ’कार ही शक्ति है। ‘शिव’ से ‘इ’कार निकल जाने पर ‘शव’ ही रह जाता है। शास्त्रों के अनुसार बिना शक्ति की सहायता के शिव का साक्षात्कार नहीं होता। अत: आदिकाल से ही शिव-शक्ति की संयुक्त उपासना होती रही है।

2-अर्द्धनारीश्‍वर होने की कथा ;-

शक्‍ति के शिव में संयुक्‍त होने को लेकर एक कथा बेहद प्रचलित है। इस कथा के अनुसार शिव-पार्वती विवाह के बाद शिवभक्‍त भृंगी ने उनकी प्रदक्षिणा करने की इच्छा व्यक्त की। शिव ने कहा कि आपको शक्ति की भी प्रदक्षिणा करनी होगी, क्योंकि उनके बिना मैं अधूरा हूं। भृंगी इसके लिए तैयार नहीं हुए। वे देव और देवी के बीच प्रवेश करने का प्रयत्न करते हैं। इस पर देवी, शिव की जंघा पर बैठ जाती हैं, जिससे वे यह काम न कर सकें। भृंगी भौंरे का रूप धारण कर उन दोनों की गर्दन के बीच से गुजर कर शिव की परिक्रमा पूरी करना चाहते हैं। तब शिव ने अपना शरीर शक्ति के शरीर के साथ जोड़ लिया। अब वे अ‌र्द्धनारीश्वर बन गए। अब भृंगी दोनों के बीच से नहीं गुजर सकते थे। शक्ति को अपने शरीर का आधा भाग बनाकर शिव ने स्‍पष्‍ट किया कि वास्तव में स्त्री की शक्ति को स्वीकार किए बिना पुरुष पूर्ण नहीं हो सकता और शिव की भी प्राप्ति नहीं हो सकती। केवल देवी के माध्यम से ही ऐसा हो सकता है। 3-भगवान शिव के अर्धनारीश्वररूप का आध्यात्मिक रहस्य;-

04 POINTS;- 1-भगवान शिव का अर्धनारीश्वररूप जगत्पिता और जगन्माता के सम्बन्ध को दर्शाता है। सत्-चित् और आनन्द–ईश्वर के तीन रूप हैं। इनमें सत्स्वरूप उनका पितृस्वरूप है, चित्स्वरूप उनका मातृस्वरूप है और उनके आनन्दस्वरूप के दर्शन अर्धनारीश्वररूप में ही होते हैं, जब शिव और शक्ति दोनों मिलकर पूर्णतया एक हो जाते हैं। सृष्टि के समय परम पुरुष अपने ही वामांग से प्रकृति को निकालकर उसमें समस्त सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं। 2-शिव गृहस्थों के ईश्वर और विवाहित दम्पत्तियों के उपास्य देव हैं क्योंकि अर्धनारीश्वर शिव स्त्री और पुरुष की पूर्ण एकता की अभिव्यक्ति हैं। संसार की सारी विषमताओं से घिरे रहने पर भी अपने मन को शान्त व स्थिर बनाये रखना ही योग है। भगवान शिव अपने पारिवारिक सम्बन्धों से हमें इसी योग की शिक्षा देते हैं। अपनी धर्मपत्नी के साथ पूर्ण एकात्मकता अनुभव कर, उसकी आत्मा में आत्मा मिलाकर ही मनुष्य आनन्दरूप शिव को प्राप्त कर सकता है। 3-भगवान शिव का अर्धनारीश्वरस्वरूप ब्रह्माजी की कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। पुराणों के अनुसार लोकपितामह ब्रह्माजी ने सनक-सनन्दन आदि मानसपुत्रों का इस इच्छा से सृजन किया कि वे सृष्टि को आगे बढ़ायें परन्तु उनकी प्रजा की वृद्धि में कोई रुचि नहीं थी। अत: ब्रह्माजी भगवान सदाशिव और उनकी परमशक्ति का चिंतन करते हुए तप करने लगे। इस तप से प्रसन्न होकर भगवान सदाशिव अर्धनारीश्वर रूप में ब्रह्माजी के पास आए और प्रसन्न होकर अपने वामभाग से अपनी शक्ति रुद्राणी को प्रकट किया। वे ही भवानी, जगदम्बा व जगज्जननी हैं। ब्रह्माजी ने भगवती रुद्राणी की स्तुति करते हुए कहा–

’हे देवि! आपके पहले नारी कुल का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था, इसलिए आप ही सृष्टि की प्रथम नारीरूप, मातृरूप और शक्तिरूप हैं। आप अपने एक अंश से इस चराचर जगत् की वृद्धि हेतु मेरे पुत्र दक्ष की कन्या बन जायें।’ 4-ब्रह्माजी की प्रार्थना पर देवी रुद्राणी ने अपनी भौंहों के मध्य भाग से अपने ही समान एक दिव्य नारी-शक्ति उत्पन्न की, जो भगवान शिव की आज्ञा से दक्ष प्रजापति की पुत्री ‘सती’ के नाम से जानी गयीं। देवी रुद्राणी पुन: महादेवजी के शरीर में प्रविष्ट हो गयीं। अत: भगवान सदाशिव के अर्धनारीश्वररूप की उपासना में ही मनुष्य का कल्याण निहित है।

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अर्धनारीनटेश्वर स्तोत्र (हिन्दी अनुवाद सहित) चाम्पेयगौरार्धशरीरकायै कर्पूरगौरार्धशरीरकाय। धम्मिल्लकायै च जटाधराय नम: शिवायै च नम: शिवाय।।१।।

आधे शरीर में चम्पापुष्पों-सी गोरी पार्वतीजी हैं और आधे शरीर में कर्पूर के समान गोरे भगवान शंकरजी सुशोभित हो रहे हैं। भगवान शंकर जटा धारण किये हैं और पार्वतीजी के सुन्दर केशपाश सुशोभित हो रहे हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।।१।।

कस्तूरिकाकुंकुमचर्चितायै चितारज:पुंजविचर्चिताय। कृतस्मरायै विकृतस्मराय नम: शिवायै च नम: शिवाय।।२।।

पार्वतीजी के शरीर में कस्तूरी और कुंकुम का लेप लगा है और भगवान शंकर के शरीर में चिता-भस्म का पुंज लगा है। पार्वतीजी कामदेव को जिलाने वाली हैं और भगवान शंकर उसे नष्ट करने वाले हैं, ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।।२।।

चलत्क्वणत्कंकणनूपुरायै पादाब्जराजत्फणीनूपुराय। हेमांगदायै भुजगांगदाय नम: शिवायै च नम: शिवाय।।३।।

भगवती पार्वती के हाथों में कंकण और पैरों में नूपुरों की ध्वनि हो रही है तथा भगवान शंकर के हाथों और पैरों में सर्पों के फुफकार की ध्वनि हो रही है। पार्वतीजी की भुजाओं में बाजूबन्द सुशोभित हो रहे हैं और भगवान शंकर की भुजाओं में सर्प सुशोभित हो रहे हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।।३।।

विशालनीलोत्पललोचनायै विकासिपंकेरुहलोचनाय। समेक्षणायै विषमेक्षणाय नम: शिवायै च नम: शिवाय।।४।।

पार्वतीजी के नेत्र प्रफुल्लित नीले कमल के समान सुन्दर हैं और भगवान शंकर के नेत्र विकसित कमल के समान हैं। पार्वतीजी के दो सुन्दर नेत्र हैं और भगवान शंकर के (सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्नि) तीन नेत्र हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।।४।।

मन्दारमालाकलितालकायै कपालमालांकितकन्धराय। दिव्याम्बरायै च दिगम्बराय नम: शिवायै च नम: शिवाय।।५।।

पार्वतीजी के केशपाशों में मन्दार-पुष्पों की माला सुशोभित है और भगवान शंकर के गले में मुण्डों की माला सुशोभित हो रही है। पार्वतीजी के वस्त्र अति दिव्य हैं और भगवान शंकर दिगम्बर रूप में सुशोभित हो रहे हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।।५।।

अम्भोधरश्यामलकुन्तलायै तडित्प्रभाताम्रजटाधराय। निरीश्वरायै निखिलेश्वराय नम: शिवायै च नम: शिवाय।।६।।

पार्वतीजी के केश जल से भरे काले मेघ के समान सुन्दर हैं और भगवान शंकर की जटा विद्युत्प्रभा के समान कुछ लालिमा लिए हुए चमकती दीखती है। पार्वतीजी परम स्वतन्त्र हैं अर्थात् उनसे बढ़कर कोई नहीं है और भगवान शंकर सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।।६।।

प्रपंचसृष्ट्युन्मुखलास्यकायै समस्तसंहारकताण्डवाय। जगज्जनन्यैजगदेकपित्रे नम: शिवायै च नम: शिवाय।।७।।

भगवती पार्वती लास्य नृत्य करती हैं और उससे जगत की रचना होती है और भगवान शंकर का नृत्य सृष्टिप्रपंच का संहारक है। पार्वतीजी संसार की माता और भगवान शंकर संसार के एकमात्र पिता हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।।७।।

प्रदीप्तरत्नोज्ज्वलकुण्डलायै स्फुरन्महापन्नगभूषणाय। शिवान्वितायै च शिवान्विताय नम: शिवायै च नम: शिवाय।।८।।

पार्वतीजी प्रदीप्त रत्नों के उज्जवल कुण्डल धारण किए हुई हैं और भगवान शंकर फूत्कार करते हुए महान सर्पों का आभूषण धारण किए हैं। भगवती पार्वतीजी भगवान शंकर की और भगवान शंकर भगवती पार्वती की शक्ति से समन्वित हैं। ऐसी पार्वतीजी और भगवान शंकर को प्रणाम है।।८।।

स्तोत्र पाठ का फल एतत् पठेदष्टकमिष्टदं यो भक्त्या स मान्यो भुवि दीर्घजीवी। प्राप्नोति सौभाग्यमनन्तकालं भूयात् सदा तस्य समस्तसिद्धि:।।९।।

आठ श्लोकों का यह स्तोत्र अभीष्ट सिद्धि करने वाला है। जो व्यक्ति भक्तिपूर्वक इसका पाठ करता है, वह समस्त संसार में सम्मानित होता है और दीर्घजीवी बनता है, वह अनन्त काल के लिए सौभाग्य व समस्त सिद्धियों को प्राप्त करता है।

।।इति आदिशंकराचार्य विरचित अर्धनारीनटेश्वरस्तोत्रम् सम्पूर्णम्।।

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शक्तिसहित शिव अर्थात अद्वैत ब्रह्म ;-(THE KEY NOTES)

07 FACTS;-

1-''सौन्दर्य लहरी में आदिशंकराचार्य कहते है कि शक्तिसहित शिव सब कुछ करने में समर्थ हैं, पर शक्ति के बिना वे स्पन्दन भी नहीं कर सकते। अत: ब्रह्मा, विष्णु आदि सबकी आराध्या उन परमशक्ति सहित शिव का कोई पुण्यहीन व्यक्ति प्रणाम व स्तवन भी नहीं कर सकता'' अथार्त बड़े पुण्य से ही उनकी स्तुति का संयोग मिलता है।

2-वास्तव में "मैं कौन हूं?"-इसका कोई उत्तर नहीं है; यह उत्तर के पार है। तुम्हारा मन बहुत सारे उत्तर देगा। तुम्हारा मन कहेगा, तुम जीवन का सार हो, तुम अनंत आत्मा हो, तुम दिव्य हो,' और इसी तरह के बहुत सारे उत्तर। इन सभी उत्तरों को अस्वीकृत कर देना है ...नेति नेति...तुम्हें कहे जाना है, "न तो यह, न ही वह।"

3-जब तुम उन सभी संभव उत्तरों को नकार देते हो;जो मन देता है, सोचता है, जब प्रश्न पूरी तरह से बिना उत्तर के बच जाता है,तब चमत्कार घटता है।अचानक प्रश्न भी गिर जाता है और सभी उत्तर अस्वीकृत हो जाते हैं। प्रश्न को खड़े होने के लिए भीतर कोई सहारा नहीं बचता; यह एकाएक गिर पड़ता है .. समाप्त हो जाता है ... विदा हो जाता है।जब प्रश्न

भी गिर जाता है, तब तुम जानते हो। लेकिन वह जानना उत्तर नहीं है : यह अस्तित्वगत अनुभव है।

4-स्वयं को भूलना जरूरी है।जिस क्षण तुम स्वयं को भूल जाओगे सत्य उपलब्ध हो जायगा। तुम सत्य स्वरूप हो जाओगे वैसे ही जैसे चीनी की बनी गुड़िया समुद्र की गहराई मापने आये तो स्वयं समुद्र में मिल जायगी। जब तक तुम मन के बस में रहोगे तुम्हारा मिलन सत्य से नहीं होगा।वह 'परमात्मा 'वह 'सत्य' कोई बाहर की वस्तु नहीं.. जिसे प्राप्त करोगे - वह तो तुम्हारे ही अन्दर है - उसे उपलब्ध होना है- तुम्हारे ही अन्दर से -समग्र प्रेम और सम्पूर्ण समर्पण के द्वारा...

कस्तुरी कुण्डल वसै मृग ढूढै बन माही

ऐसे घटि-घटि राम हैं दुनियाँ देखै नाहीं।

5-प्रकृति त्रिगुणमयी हैं। हमारे त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु, महेश ... तीनो प्रकृति के तीन गुणों (FIRE,WATER,AIR) का प्रतिनिधित्व करते हैं।वे सी क्यूब हैं ;अथार्त CREATOR,CARING और CONCLUSIVE...। ब्रह्मा...FIRE ELEMENT(रजोगुण/

भविष्य /पित्त); विष्णु ..WATER ELEMENT(तमस/भूत/कफ ) और महेश... AIR ELEMENT( सत्वगुण/वर्तमान/वात) का प्रतिनिधित्व करते हैं और वे तीनो हीं अर्धनारीश्वर हैं।

6-त्रिगुण ..जो वर्तमान में हैं, वही भविष्य में है,जो भविष्य में है, वही भूत में भी हैं।ये तीनों ही काल एक दूसरे के विरोधी हैं ,परन्तु आत्मतत्व स्वरुप से एक ही हैं।मन के तीन अंग हैं- ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक। इसीलिए इन तीनों अंगों के अनुरूप ज्ञानयोग, भक्तियोग, और कर्मयोग का समन्वय हुआ।जब तक तीनों तत्त्वों का समुचित योग नहीं होता तब तक साधक को सफलता नहीं मिल सकती ;अर्थात जब तक संसार में त्रिगुण के 6 प्रकार के मनुष्यो में शिव नहीं दिखता साधना(.5 ) में भी नहीं पहुंचती।वास्तव में,पहुंचना है तीनों के पार....साढ़े तीन में ...3.5 में।त्रिगुण(.5 )हैं और दूसरा वह परब्रह्म (.5 ) हैं ;वह जहां कोई भी नहीं है, जहां तीनों नहीं हैं।यही हैं शक्तिसहित शिव अर्थात अद्वैत ब्रह्म।

7-यह ''प्रेम और समर्पण'' सत्य के साक्षात्कार से संभव है।लेकिन पहले मुर्गी आयी या अंडा...सदियों से यह सवाल वैज्ञानिकों और दर्शनशास्त्रियों के दिमाग़ को मथता रहता है।आप कहेंगे कि 'अंडा' तो सवाल पूछा जाएगा कि अंडा दिया किसने और अगर आप कहेंगे कि मुर्गी तो सवाल पूछा जाएगा कि क्या मुर्गी बिना अंडे के आ गयी।आप परेशान हो जाएंगे, लेकिन आपको इस सवाल का जवाब नहीं मिलेगा कि पहले शिवत्व आएगा या पहले प्रेम?जीवन का मूल उद्देश्य है-शिवत्व की प्राप्ति। उपनिषद् का आदेश है ''शिव बनकर शिव की आराधना करो''।

शिवत्व की प्राप्ति का क्या रहस्य हैं ?क्या अर्थ है शक्ति को जाग्रत करें,और शिव भाव में मिलन करा दें ?-

27 FACTS;-

1-जब व्यक्ति के अन्तर की चेतना जाग जाती है तब वह कामना पूर्ति के पीछे नहीं दौड़ता।जिस व्यक्ति को परमात्मा उपलब्ध हो गया, जिस व्यक्ति को आत्म जागरण उपलब्ध हो गया, उसे सब कुछ उपलब्ध हो गया, कुछ भी शेष नहीं रहा।आत्मा का जागरण, चैतन्य का जागरण, आत्मा के स्वरूप का उद्घाटन और आत्मा के आवरणों का विलय...अनन्त की अनुभूति के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है।अहंकार एवं ममकार जब तक विलीन नहीं होते तब तक हमारी सीमा समाप्त नहीं हो सकती।

2-अब संक्षेप में ओंकार की रचना भी समझनी जरूरी है।ओंकार के ये कुल 12 अंश हैं... ओंकार में अकार, उकार, मकार, बिन्दु, अर्द्ध चन्द्र, निरोधिका, नाद, नादान्त शक्ति, व्यापिनी, समना तथा उन्मना इतने अंश हैं।ओंकार के तीन स्वरूप हैं। अकार, उकार एवं मकार तीन शक्तियों के प्रतीक हैं - अकार ब्रह्मा का प्रतीक है , उकार विष्णु का प्रतीक है तथा मकार महेश का प्रतीक है।जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति(Waking, Dreaming and Sleep) ये तीन अवस्थाएं प्रणव की पहली तीन मात्राओं में विद्यमान है।तुरीय या तुरीयातीत अवस्था(turiya state is pure consciousness/beyond consciousness..the Divine Being)चतुर्थ अवयव ( Fourth part) से शुरू होती है।

3- ओंकार के Fourth part ‘बिन्दु’ से लेकर उन्मना(unmana State of mind) तक कुल 9 अंश ओंकार/प्रणव के शुद्ध विभाग हैं। बिन्दु अर्द्धमात्रा रूपी Part है। बिन्दु में एक मात्रा का अर्द्धाशं (Half -Part) है, अर्द्ध चन्द्र में बिन्दु का अर्द्धांश है तथा निरोधिका( Restraining)में अर्द्धचन्द्र अर्द्धांश है। इस प्रकार यह क्रम प्रतिपद में उसके पूर्ववर्ती मात्रा का अर्द्धांश बनता चला जाता है। यह क्रम समना तक चलता है।वास्तव में, ये अंश या मात्राएं मन की मात्राएं हैं। मन की गति सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती चली जाती है।

4-उन्मना अमात्र है, उसकी कोई मात्रा नहीं होती क्योंकि वहां मन की समाप्ति हो जाती है। मन की मात्रा होती है, विशुद्ध चैतन्य की मात्रा नहीं होती। योगी का परम उद्देश्य है कि वह स्थूल मात्रा से क्रमशः सूक्ष्ममात्रा में होते हुए अमात्रक स्थिति में पहुंच जाए। उन्मना में न मन है, न मात्रा है, न काल है, न देश है, न देवता है। वह शुद्ध चिदानन्द - भूमि है।

10-ओंकार की इन स्थितियों में एक विकास क्रम है। बिन्दु का अनुभव 'भ्रूमध्य के ऊर्ध्व '( ( Upward Part of Third Eye)में होता है। ब्रह्मरन्ध्र (मस्तक के अंदर का वह गुप्त छिद्र जिसमें से होकर प्राण निकलने से ब्रह्म लोक की प्राप्ति होती है /ब्रह्मांड द्वार/ दशम द्वार )की अन्तिम सीमा तक नाद का अनुभव चलता है। नादान्त भेद हो जाने पर स्थूल दृष्टि से देह का भेद हो जाता है। अतः नाद का अवलम्बन(Support )लेकर ही नादान्त तक पहुंचा जाता है। नाद साधना ही वस्तुतः ओंकार की साधना है।

5-इस साधना में पारंगत होने पर केवल नाद का ही अतिक्रमण/violation नहीं होता अपितु शून्य का भी अतिक्रमण होता है और अन्त में मन का भी अतिक्रमण होता है, जिसका फल है

परमेश्वर से तादात्म्य लाभ।ओम्’ शब्द के जप एवं स्मरण से हमारे मन में ब्रह्मभाव जाग्रत होता है। मन में यह भाव जगाए रहने के लम्बे अभ्यास के बाद अन्त में मन 'ब्रह्म भाव' में अवस्थित हो जाता है। अतः ‘ओम्’ सत्यं, शिवं, सुन्दरम् तक पहुंचने की कुंजी है।

6-वाक्-शक्ति के चार प्रकार (four degrees of human speech)हैं- बैखरी(verbal speech- expression of the power of action.), मध्यमा (mental speech- expression of the power of knowledge), पश्यन्ती(single-minded speech,expression of the power of desire एवं परा(pure intention/the power of the supreme Mother Goddess)।

7-बैखरी वाक् शब्द का निम्नतम स्तर है। इसको पकड़कर क्रमशः परावाक् पर्यन्त उठने का प्रयोजन है। बैखरी से तात्पर्य हमारी स्थूल ध्वनि से है। जब हम बोल-बोल कर जप करते है, यह बैखरी वाणी कहलाती है। जब हम मन ही मन जप या स्मरण करते हैं इसे मध्यमा कहा जाता है। जब हम शब्द और उसके अर्थ दोनों को देखते हुए स्मरण करते हैं, उसे पश्यन्ती वाणी कहते हैं। जहां न बोलना है, न देखना है अर्थात् निर्विचार एवं निर्विकल्प स्थिति होती है, उस स्थिति में एक शून्य भाषा व्यापक होती है उसे परावाक् कहते हैं।

8-बैखरी जप में जपकर्ता को यह अहसास रहता है कि मैं जप कर रहा हूं। मध्यमा में साधक का यह अहसास छूट जाता है कि मैं जप कर रहा हूं। उसका जप अजपा जाप हो जाता है। बिना किसी प्रयास के एवं बिना किसी अहं भाव के जप चलता रहता है। मध्यमा में हृदय से जाप होता है, मस्तिष्क से नहीं होता। जागृति समाप्त हो जाती है। मध्यमा वाक् के अभ्यास से नाद-श्रवण होने लगता है।

9-पश्यन्ती में साधक ओंकार को आज्ञाचक्र से ऊपर बिल्कुल ललाट के मध्य में कल्पना से ज्योतिस्वरूप बिन्दु को देखता है। यहां देखना ही बोलना है। परास्थिति में देखना भी छूट जाता है।केवल शून्य में ठहरना होता है। यहां ठहरने का आधार आनंद की अनुभूति होती है। इस प्रकार शब्दातीत परमपद का साक्षात्कार करने के लिए शब्द का आश्रय लेकर ही शब्द राज्य का भेद करना होता है। जप-साधना में शब्द को पकड़कर शब्दातीत परब्रह्म पद में जाने का उपदेश है।

10-जहां शिव है वहां ममकार नहीं हो सकता। ममकार पदार्थ के प्रति होता है। शिव तो परम चेतन स्वरूप है। अपना ही चेतनरूप शिव है। चेतना के प्रति ममकार नहीं होता। शिव के प्रति नमन्, शिव के प्रति हमारा समर्पण, एकीभाव जैसे-जैसे बढ़ता है, भय की बात समाप्त होती चली जाती है। भय तब होता है जब हमें कोई आधार प्राप्त नहीं होता। आधार प्राप्त होने पर भय समाप्त हो जाता है। साधना के मार्ग में जब साधक अकेला होता है, तब न जाने उसमें कितने भय पैदा हो जाते हैं। शिव के प्रति नमन, शिव के प्रति समर्पण, शिव के साथ तादात्म्य की अनुभूति अभय पैदा करती है।

11-तब वह अनुभव करता है कि मैं अकेला नहीं हूँ, मेरे साथ शिव है।एक साधक के पास एक व्यक्ति ने कहा, ‘आप अकेले हैं, मैं कुछ देर आपका साथ देने के लिए आया हूंँ। साधक ने कहा, ‘मैं अकेला कहां था ? तुम आए और मैं अकेला हो गया। मैं मेरे प्रभु के साथ था।’

महर्षि रमण से पूछा गया - ‘ज्ञानी कौन ? ‘उत्तर दिया जो अभय को प्राप्त हो गया हो।’ ‘

जब चिन्तन का पानी जमता है... तब वह श्रद्धा बन जाता है। तरल पानी में कुछ गिरेगा तो वह पानी को गंदला बना देगा। बर्फ पर जो कुछ गिरेगा, वह नीचे लुढ़क जायेगा, उसमें घुलेगा नहीं। जब हमारा चिन्तन श्रद्धा में बदल जाता है तब वह इतना घनीभूत हो जाता है कि बाहर का प्रभाव कम से कम होता है।

12-जब तक ओंकार साधक आरोहण करते-करते ओंकार को प्राणमय न बना दे, तब तक सतत साधना करता रहे। वह निरन्तरता को न छोड़े। योगसूत्र में पातंजलि कहते हैं ''ध्यान की तीन शर्त है-दीर्घकाल, निरन्तरता एवं निष्कपट अभ्यास''। साधना में निरन्तरता और दीर्घकालिता दोनों अपेक्षित है। अभ्यास को प्रतिदिन दोहराना चाहिए। आज आपने ऊर्जा का एक वातावरण तैयार किया। कल उस प्रयत्न को छोड़ देते हैं तो वह ऊर्जा का वायुमण्डल स्वतः शिथिल हो जाता है। एक साधक तीस दिन तक ओंकार मंत्र की आराधना करता है और इकतीसवें दिन वह उसे छोड़ देता है और फिर बतीसवें दिन उसे प्रारम्भ करता है तो मंत्र साधना शास्त्र कहता है कि उस मंत्र साधक की साधना का वह पहला दिन ही मानना चाहिएं।

13-साधना का काल 'दीर्घ 'होना चाहिए। ऐसा नहीं कि काल छोटा हो। दीर्घकाल का अर्थ है जब तक मंत्र का जागरण न हो जाए, मंत्र चैतन्य न हो, जो मंत्र शब्दमय था वह एक ज्योति के रूप में प्रकट न हो जाए, तब तक साधना चलती रहनी चाहिए।जब तक साधना में

''सत्यम, शिवम और सुंदरम'' के तीनों तत्त्वों का समुचित योग नहीं होता तब तक साधक को साधना की सफलता नहीं मिल सकती।

14-सत्य का अलौकिक अर्थ है ...वास्तव में, सत्य को समझना मुश्किल है, लेकिन उनके लिए नहीं जो धर्म और दर्शन को भलिभांति जानते हैं। सत्य का आमतौर पर अर्थ माना जाता है झूठ न बोलना, लेकिन यह सही नहीं है। सत् और तत् धातु से मिलकर बना है सत्य, जिसका अर्थ होता है यह और वह- अर्थात यह भी और वह भी, क्योंकि सत्य पूर्ण रूप से एकतरफा नहीं होता। परमात्मा से परिपूर्ण यह जगत आत्माओं का जाल है।जीवन, संसार

और मन यह सभी विरोधाभासी है। इसी विरोधाभास में ही छुपा है वह ..जो स्थितप्रज्ञ आत्मा और ईश्वर है। सत्य को समझने के लिए एक तार्किक और बोधपूर्ण दोनों ही बुद्धि की आवश्यकता होती है। तार्किक‍ बुद्धि आती है भ्रम और द्वंद्व के मिटने से और भ्रम और द्वंद्व मिटता है मन, वचन और कर्म से एक समान रहने से। 15- सत्य होगा तो उससे जुड़ा शिव/शुभ भी होगा अन्यथा सत्य हो नहीं सकता।वह सत्य ही शुभ है और सर्वशक्तिमान आत्मा ही शिवम है। जो सत्य है वही शिव है और जो शिव है वहीं सुंदर है।मानव जीवन के यही तीन मूल्य हैं।शिव का अर्थ है मंगल। मंगल शब्द मग् धातु से बना है, जिसका अर्थ है कल्याण। इस प्रकार शिव में उत्कर्ष है; विकास है; प्रगति है।शिवत्व का अर्थ ही है प्रगति या कल्याण और जो कल्याणकारी है ,वही सुंदर है। यह जीवन दर्शन की प्रमाणित मंगलमयी कसौटी है।

16-अनुकूल वेदना का नाम सुख है और प्रतिकूल वेदना का नाम दु:ख है। एक ही चीज किसी को सुख देती है और किसी को दु:ख।यह जरूरी नहीं है कि सुखद चीज सुंदर भी हो। जीवत्व से ब्रह्मत्व की ओर जाना ही आध्यात्मिक प्रगति है।सुंदरम् :...यह संपूर्ण प्रकृति सुंदरम

कही गई है। इस दिखाई देने वाले जगत को त्रिगुणी प्रकृति का रूप कहा गया है। प्रकृति हमारे स्वभाव और गुण को प्रकट करती है। पंच कोष वाली यह प्रकृति आठ तत्वों में विभाजित है।

17-परम तत्व से प्रकृति में तीन गुणों की उत्पत्ति हुई सत्व/AIR ELEMENT, रज /रजस/FIRE ELEMENT और तम/WATER-ELEMENT। ये गुण सूक्ष्म तथा अतिंद्रिय हैं, इसलिए इनका प्रत्यक्ष नहीं होता। इन तीन गुणों के भी गुण हैं- प्रकाशत्व, चलत्व, लघुत्व, गुरुत्व आदि इन गुणों के भी गुण हैं, अत: स्पष्ट है कि यह गुण द्रव्यरूप हैं। द्रव्य अर्थात पदार्थ (Matter )अर्थात जो दिखाई दे रहा है और जिसे किसी भी प्रकार के सूक्ष्म यंत्र से देखा जा सकता है, महसूस किया जा सकता है या अनुभूत किया जा सकता है। ये ब्रहांड या प्रकृति के निर्माणक तत्व हैं।

18-प्रकृति से ही महत् उत्पन्न हुआ जिसमें उक्त गुणों की साम्यता और प्रधानता थी। सत्व/ AIR ELEMENT शांत और स्थिर है। रज/FIRE ELEMENT क्रियाशील है और तम /WATER-ELEMENT विस्फोटक है। उस एक परमतत्व के प्रकृति तत्व में ही उक्त तीनों के टकराव से सृष्टि होती गई। सर्वप्रथम महत् उत्पन्न हुआ, जिसे बुद्धि कहते हैं। बुद्धि प्रकृति का अचेतन या सूक्ष्म तत्व है।महत् या बुद्ध‍ि से अहंकार। अहंकार के भी कई उप भाग है। यह व्यक्ति का तत्व है। व्यक्ति अर्थात जो व्यक्त हो रहा है सत्व, रज और तम में। सत्व से मनस, पाँच इंद्रियाँ/Five senses, पाँच कर्मेंद्रियां /Five Working Organs जन्मीं। तम से पंचतन्मात्रा, पंचमहाभूत (आकाश, अग्न‍ि, वायु, जल और पृथ्वी) जन्मे।

19-आठ तत्व ...अनंत-महत्-अंधकार-आकाश-वायु-अग्नि-जल-पृथ्वी। अनंत जिसे आत्मा कहते हैं। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह प्रकृति के आठ तत्व हैं। अत: हम एक सुंदर प्रकृति और जगत के घेरे से घिरे हुए हैं। इस घेरे से अलग होकर जो व्यक्ति खुद को प्राप्त कर लेता है वही सत्य को प्राप्त कर लेता है। संसार में तीन ही तत्व है सत्य, शिव और सुंदरम... ईश्वर, आत्मा और प्रकृति.. इसे ही सत्य, चित्त और आनंद कहते हैं।

20-शिव ने सप्तऋषियों को ज्ञानयोग के मार्ग,मित्र -गण को भक्तियोग और कर्मयोग के मार्ग ;परन्तु माता पार्वती को प्रेमयोग के मार्ग द्वारा ज्ञान दिया।प्रेम योग का अर्थ

भक्तियोग नहीं होता।जब तीन योग (अथार्त त्रिगुण का.5 ) साम्यावस्था में पहुंचते हैं और जब भक्ति विश्वास में बदलती हैं ;तब प्रेम योग (अथार्त दूसरा.5 )का उदय होता हैं।प्रेम योग अर्थात स्वयं से प्रेम करना, सभी से प्रेम करना, सभी को स्वयं समझना और सभी को परमात्मा समझकर उससे प्रेम करना।योग की विशेषता तो शुद्ध और पवित्र प्रेम में ही है।प्रमुख रूप से शिव और श्रीकृष्ण प्रेम योगी हैं। इस प्रेम का वर्णन नहीं किया जा सकता ...यह अनुभूति की बात है।

21-हिन्दू दर्शन विश्व का एक मात्र दर्शन है, जिसमें ईश्वर के साथ भक्त ने, पिता, पुत्र, पति, मित्र जैसे प्रेम-संबंध स्थापित किये हैं! यह “प्रेमयोग” की परकाष्ठा ही है कि अनेेक भक्तों ने ईश्वर को इन्ही रूपों में भजा और उस महान सत्ता से साक्षात्कार किया।शक्ति को जाग्रत

करें,और शिव भाव में मिलन करा दें। यही शिव और शक्ति साधना का रहस्य हैं।जो शक्ति जाग्रत करके शिवमिलन नहीं कराता वो रावण बनता हैं।और इस संसार में दोनों की ही आवश्यकता हैं..चाहे दिन और रात हो या श्रीराम और रावण।जीवन का मूल्य, मात्र

सफलता में ही नहीं है।सत्य में, शिवत्व में, सौंदर्य के लिए, असफलता को भी सीखा जाना चाहिए। उस दिशा में असफलता भी गौरव है, यही दृष्टि पैदा होनी चाहिए। सत्य के लिए हार जाना भी जीत है। क्योंकि उसके लिए हारने के साहस में ही आत्मा सबल होती है और इन शिखरों को छू पाती है, जो कि परमात्मा के प्रकाश में आलोकित हैं।

22-शक्ति के बिना ‘शिव’ सिर्फ शव हैं और शिव यानी कल्याण भाव के बिना शक्ति विध्वंसक।शक्ति जाग्रत करके शिवमिलन कराना -यह क्रम समना तक चलता है।जीवन का मूल उद्देश्य है -शिवत्व की प्राप्ति।ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है।"अ" ब्रह्मा का वाचक है; उच्चारण द्वारा हृदय में उसका त्याग होता है। "उ" विष्णु का वाचक हैं; उसका त्याग कंठ में होता है तथा "म" रुद्र का वाचक है ओर उसका त्याग तालुमध्य में होता है। इसी प्रणाली से ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि तथा रुद्रग्रंथि का छेदन हो जाता है। तदनंतर बिंदु है, जो स्वयं ईश्वर रूप है अर्थात् बिंदु से क्रमश: ऊपर की ओर वाच्यवाचक का भेद नहीं रहता।

23-ओंकारसाधना का एक क्रम प्रचलित है। उसके अनुसार "अ" समग्र स्थूल जगत् का''उ '' सूक्ष्म जगत् का और ''म'' उसके ऊपर स्थित कारण जगत् का प्रतीक है ।ऊर्ध्व गति के प्रभाव से शब्दमात्राओं का मकार में लय हो जाता है। तदनंतर मात्रातीत की ओर गति होती है। म पर्यत गति को अनुस्वार गति कहते हैं। अनुस्वार की प्रतिष्ठा अर्धमात्रा में विसर्गरूप में होती है। इतना होने पर मात्रातीत में जाने के लिए द्वार खुल जाता है। वस्तुत: अमात्र की गति बिंदु से ही प्रारंभ हो जाती है।

24- इस प्रकार का मात्राविभाग नौ नादों की सूक्ष्म योगभूमियां के नाम से प्रसिद्ध है। अ, उ और म प्रणव के इन तीन अवयवों का अतिक्रमण करने पर योगी को अर्थतत्व का अथार्त सब पदार्थो के ज्ञान के लिए सर्वज्ञत्व प्राप्त हो जाता है एवं उसके बाद बिंदुभेद करने पर वह उस ज्ञान का भी अतिक्रमण कर लेता है। अर्थ और ज्ञान इन दोनों के ऊपर केवल नाद ही शेष रहता है एवं नाद की नादांत तक की गति में नाद का भी भेद हो जाता है। उस समय केवल कला या शक्ति ही विद्यमान रहती है। जहाँ शक्ति या चित् शक्ति प्राप्त हो गई वहाँ ब्रह्म का प्रकाशमान होना स्वत: ही सिद्ध है क्योकि वह अर्धनारीश्वर स्वरूप है। इस प्रकार प्रणव के सूक्ष्म उच्चारण द्वारा विश्व का भेद होने पर विश्वातीत तक सत्ता की प्राप्ति हो जाती है।

25-बिन्दु अर्धमात्रा है तथा तुरीय दशा का द्योतक है।सभी(प्लुत तथा दीर्घ )मात्राओं का स्थितिकाल संक्षिप्त होकर अंत में एक मात्रा में समाप्त हो जाता है। इसी एक मात्रा पर समग्र विश्व प्रतिष्ठित है।विक्षिप्त भूमि से एकाग्र भूमि में पहुँचने पर प्रणव की इसी एक मात्रा में स्थिति होती है।एकाग्र से निरोध अवस्था में जाने के लिए इस एक मात्रा का भी भेद कर अर्धमात्रा में प्रविष्ट हुआ जाता है।इसके बाद क्रमश: सूक्ष्म और सूक्ष्मतर मात्राओं का भेद करना पड़ता है। बिन्दु अर्धमात्रा है जिसके अनंतर प्रत्येक स्तर में मात्राओं का विभाग है। समना भूमि में जाने के बाद मात्राएँ इतनी सूक्ष्म हो जाती हैं कि किसी योगी अथवा योगीश्वरों के लिए उसके आगे बढ़वा संभव नहीं होता, अर्थात् वहाँ की मात्रा वास्तव में अविभाज्य हो जाती है।

26-इसी स्थान में मात्राओं को समर्पित कर अमात्र भूमि में प्रवेश करना चाहिए। बिन्दु मन का ही रूप है।वस्तुत: अमात्र की गति बिंदु से ही प्रारंभ हो जाती है।वहाँ स्वयंप्रकाश ब्रह्म निरंतर प्रकाशमान रहता है।भ्रूमध्य में बिंदु का त्याग होता है।नाद सदाशिवरूपी है।ललाट से मस्तक तक(from forehead to head )के स्थान में उसका त्याग करना पड़ता है। यहाँ तक का अनुभव स्थूल है। इसके आगे शक्ति का व्यापिनी तथा समना भूमियों में सूक्ष्म अनुभव होने लगता है। इस भूमि में शिव की प्रधानता हैं, जो सदाशिव से ऊपर तथा परमशिव से नीचे रहते हैं।

27-मस्तक के ऊपर स्पर्श अनुभूति के तुरंत बाद शक्ति का भी त्याग हो जाता है एवं उसके ऊपर व्यापिनी का भी त्याग हो जाता है। उस समय केवल 'मन' मात्र रूप का अनुभव होता है। यह समना भूमि का परिचय है। इसके बाद ही 'मन' का त्याग हो जाता है।मात्राविभाग के साथ-साथ मन अधिकाधिक सूक्ष्म होता जाता है।इसके उपरांत कुछ समय तक मन के

अतीत विशुद्ध आत्मस्वरूप की झलक दीख पड़ती है। इसके अनंतर ही परमानुग्रह प्राप्त योगी का उन्मना शक्ति में प्रवेश होता है।अमात्र भूमि में मन, काल, कलना, देवता और प्रपंच, ये कुछ भी नहीं रहते। इसी को उन्मनी स्थिति कहते हैं।इसी को परमपद या परमशिव की प्राप्ति समझना चाहिए और इसी को एक प्रकार से उन्मना का त्याग भी माना जा सकता है। इस प्रकार ब्रह्मा से शिवपर्यन्त छह कारणों का उल्लंघन हो जाने पर अखंड परिपूर्ण सत्ता में स्थिति हो जाती है...यही शिवत्व की प्राप्ति है।

...SHIVOHAM....

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